प्राचीन काल से ही मनुष्य अपने भोजन, वस्त्र एवं मकान के लिये पौधों पर आश्रित रहा है। आज भी ग्रामीण एवं वनांचलों में निवास कर रहे अधिकांश आदिवासी अपने आवास निर्माण तथा रोगों से छुटकारा पाने के लिए वृक्ष, भूमि जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते हैं। पौधे मानव संस्कृति का एक आवश्यक अंग माने जाते हैं। अतः प्राचीन कथाओं, गीतों, रीति-रिवाजों आदि के अध्ययन से उस समय के महत्वपूर्ण पादपों एवं मानवों के संबंधों का ज्ञान होता है। हमारे ऋषि मुनियों ने अनेक ग्रन्थों जैसे- धन्वंतरी, निघंटु, राजनिघंटु, सुश्रुत, चरक, वागभट्ट संहिता इत्यादि में विभिन्न औषधीय पौधों का मिश्रित वर्णन दिया है।

लोकगीतों में वृक्ष – धार्मिक कथाओं एवं लोकगीतों में वट, पीपल का उल्लेख किया गया है। पवित्र पीपल को गौतम बुद्ध का बोधिवृक्ष माना गया है। तानसेन के मक़बरे पर जो वृक्ष लगा है, उसके बारे में कहा जाता है कि उसकी पत्तियाँ जो तोड़कर खा लेता है, उसका गला सुरीला हो जाता है। कुछ जातियों में वर और वधु विवाह से पहले वृक्ष की परिक्रमा देते है। वर-आम, वधु-महुआ के वृक्ष को सिन्दूर चढ़ाते हैं। किसी ने कहा है कि नदी किनारे ‘‘दरक खड़ा उसी अमन अमान‘’ विगदा बोलया जीदे नाल जहान। अर्थात- नदी के किनारे वृक्ष आम अमान से लदा था। गिरता हुआ बोला जान के साथ जहान है। इसी प्रकार, पीपल का वृक्ष इस गीत में मौन साधकर बैठे प्रीतम का प्रतीक बन गया।

पीपल के पत्ता डोलत नइंया। मौनी भय बैठ बोलत नइंया।।

म.प्र. व उ.प्र. के बुन्देली गीत में यह चर्चा की गई है कि एक युवती का पति द्वार पर नीम का वृक्ष लगाकर परदेश चला गया। यह वृक्ष ज्यों-ज्यों बढ़ता है, त्यों-त्यों युवती की विरह पीड़ा भी बढ़ती जाती है। इसी प्रकार एक अन्य गीत में आम एवं महुआ के घने वृक्षों के बीच में गुजरती यह किसी गृहणी के मिलन की आशा का प्रतीक माना है। वहीं उड़ीसा एवं झारखण्ड में पुत्रियों की शादी के समय दस वृक्ष लगाने की प्रथा है। जो कि आज भी कई गांव में पाया जाता है। घाट, नदी, कुआं, बर निकासी के पूर्व वट, पीपल का पूजन होता है क्योंकि पीपल का वृक्ष भगवान विष्णु का स्वरूप माना गया है। खजूर के वृक्ष भी शुभ माने जाते है। इसकी डालियों से दुल्हे का मुकुट बनाया जाता है, अपामार्ग (अद्धाझारा) की 108 दातून ऋषि पंचमी पर महिलायें करती है साथ ही गर्भधारण ना हो इन्हें कमर में भी बांधती हैं।

  • कांस के फूल हरितालिका तीज व्रत में उपयोग होते हैं।
  • मंडप – शुभ विवाह के अवसर पर घर के मुख्य दरवाज़े पर हरे बांस, जामुन की पत्ती केले के वृक्षों व आम के के पत्तों के तोरण की सजावट फूलों के साथ करते हैं।
  • बंधनवारा – प्रायः प्रत्येक शुभ कार्य एवं तीज त्यौहार में आम की पत्ती से बांधकर बंधनबारा लगाया जाता है।
  • माहुल – के पत्तों को पत्तल बनाने में उपयोग किया जाता है।
  • सांडेल की बेल – इसे रस्सी के रूप में प्रयोग करते हैं।
  • पान – सभी पूजन कार्य में उपयोगी होता है।
  • बेल – यह भगवान शिव की आराधना में प्रयोग होता है।
  • देव उठनी ग्यारस में बेर, सिंघाड़ा, गन्ना की पूजा की जाती है।
  • हल्दी और तुलसी – इनको मनुष्य जीवन के शुरू से अन्त तक प्रयोग में लाया जाता है।
  • महुआ – हरछट को महुआ, चना, गेंहू, मक्का को भूनकर पूजन में उपयोग में लाया जाता है।

पुष्पों एवं वृक्षों के पर्व- बसंत पंचमी में सरसों के पीले फूल महिलाओं में उल्लास भर देते हैं। महिलायें बंसती वस्त्र पहनती हैं। टेसू (पलास) के लाल फूल अग्नि के प्रतिफल है इन्हें होली के त्यौहार की याद दिलाते हैं। जासोन के फूल देवी को चढ़ाये जाते हैं। कदम का फूल राधाकृष्ण का स्थान माना गया है। आक एवं धतूरा इत्यादि शंकर का वास माने जाते हैं। वट का वृक्ष वट सावित्री पर्व पर महिलायें 108 परिक्रमायें लगाकर पर्व मनाती हैं। करवां चौथ के दिन एवं तुलसी एकादशी का व्रत तुलसी की परिक्रमा के साथ किया जाता है। आंवला नवमीं पर मातायें बहनें वृक्ष की परिक्रमा के साथ पूजन करती हैं।

पौधे एवं पुष्प आभूषण के रूप में – कालिदास ने वल्कल वस्त्र पहनें और पुष्प मालाओं से अलकृंत शकुंलता के सौन्दर्य का वर्णन किया है। वह स्वर्ण पत्ती, पुष्पों से अच्छादित अमलतास के नीचे दुष्यंत से मिलती है। विवाह के अवसर पर दूल्हे के हाथ में कंगन बांधा जाता है जिसमें तुलसी लगाई जाती है। विवाह के अवसर पर खजूर की डालियों से दूल्हे के मुकुट सजायें जाते हैं। महुआ के पत्तों की अपने वस्त्र आभूषण के तौर पर उपयोग किये जाते हैं।

बुन्देलखण्ड के प्राचीन तथा मध्यकालीन लोकसाहित्य में मानवीय विकास को कालक्रम से अध्ययन करने का इतिहास तथा उसके स्रोत जिनमें शिलालेख, ताम्रपत्र, साहित्य, कलायें, अन्य के प्रमाण प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त विद्वानों, मनीषियों, वेदों में सृजित रचनाओं से अनेकों साहित्य प्राप्त होते रहे हैं। भारत के हृदयस्थली में बुन्देलखण्ड होने से इसमें जो भी साहित्य प्राप्त हो रहा है वह पर्यावरण को विशेष महत्व देता है। पुराने समय में सम्पत्ति अपनी जायजाद, चल-अचल सम्पत्ति का ब्यौरा, आम के बगीचे, महुआ, कटहल के वृक्ष, जामुन पीपल के वृक्ष को महत्व देकर ही गिनी जाती थी। इमली, बेरी, तेंदू, खिन्नी, सागौन, आंवला, बहेड़ा, हर्रा, नीम, चंपा, बेल इत्यादि वृक्ष रोपे जाते थे। यह ज्ञान संपूर्ण बुन्देलखण्ड कूट-कूट कर भरा रहा।

बुन्देलखण्ड में आदिकाल से बुन्देली बर्तनों का अपना महत्व रहा है। वे किसी धातु के नहीं होते थे बल्कि क्षेत्र की मृदा, छुइई व अन्य वस्तुएं बेल, जूट, घांस, भूसा, दूर्वा, गोंद इत्यादि का प्रयोग कर निर्मित किये जाते रहे हैं। इन वर्तनों का आहार निर्माण, यज्ञ, हवन, कथा, भागवत, शादी-विवाह, अन्य आयोजनों में भरपूर प्रयोग भी होता रहा है। कुछ बर्तनों का विवरण निम्नांकित है- घेला (बड़ा डबला), कर्ना (डबला), गगरी, गगरा (यह आकार में गोल होता है), मटका (गगरा से बड़ा होता है), मटकिया (इसमें मठा निर्माण होता है), चपिया (डेंड़िया, दूध जमाने के काम आता है), चरूआ, डबुलिया, दिया, दीपक, कुल्हड़, मलिंयाँ (यह दो प्रकार की होती हैं), पोतला (थैले के आकार का होता है), कुड़ी (टब जैसा होता है), नाद (यह बड़ा टब जैसा होता है), कसला, कसुलिया, सनकिया (सब्जी रखने में उपयोग होता है), खोंमचा (छोटा भगोना होता है), देवलियां (छोटी डबुलिया), तुतुवा (लोटा समान), घट (गोल गगरी), खप्पर (दिये के समान), तइज्जा (गोल कढ़ाई), तोला (करवा समान), कूड़ौ (प्लेट के समान), पारौ (उभरा हुआ ढ़क्कन), कैलिया (तबा), कैलो, गुल्लक इस प्रकार के वर्तनों का प्रयोग आदिकाल से बुन्देली आहार निर्माण, व्यंजनों, औषधियों एवं आमजनमानस के बीच में, पेय पदार्थों, इत्यादि के सेवन में किया जाता रहा है और वर्तमान में भी प्रचलित है। यह सामग्री का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी, दीर्घायु और स्वास्थ्यवर्धक निरंतर रहा है।

ग्रन्थि रोग – इसे वर्तमान में थायराइड रोग माना जाता है। इससे सैकड़ों बीमारियां भी घेर लेती हैं। अतः यह रोग बुन्देलखण्ड में मानव जीवन अत्यंत व्यवस्थित रहा। अतः यह रोग घरों में नगण्य रहा है चूंकि सोयाबीन, सूरजमुखी, बिना फेन वाली दालें खाना यह व्यवस्था हमारे घरों में समाहित रही। साधारण व्यायाम तथा कुछ वृक्ष पौधों का सेवन कर इस रोग को ठीक किया जाता था। सरकंडे की गोली एवं गठारन व अन्य विषैले पौधे भी सेवन में लाये जाते थे।

चर्म रोग – बुन्देलखण्ड में चर्म रोगों पर कई प्रकार वृक्ष पौधों का प्रयोग किया गया है। केंथा, करंज, नीम, महानीम, वकायन, चिरौल विभिन्न प्रकार की गोंदे, कई प्रकार छीर (पौधों से निकलने वाले दूध), चार मोगरा, सोमराजी इत्यादि के तेल मंजिष्ठा का प्रयोग चर्मरोगों में बहुतायत से पाया गया है।

हृदय रोग – हृदय रोग वैसे तो प्रायः बहुत ही कम पाया जाता था परन्तु इसके बचाव के तरीके घर-घर में समाहित थे। अर्जुन की छाल का सेवन, लहसुन का सेवन, पुष्कर मूल का सेवन, सौंठ, काली मिर्च का सेवन, तामूल सेवन इत्यादि अनेक वृक्ष पौधे आम मनुष्य के आसपास होते थे उनके निंरतर सेवन करने से बहुत ही कम मात्रा में हो पाता था।

कौन-कौन से जड़ी बूटी किस रोग में काम आती थी – अर्जुन की छाल- हृदय रोग एवं किडनी रोग, गोखरू-पथरी, वासा (अडूसा)- खांसी, गुडमार, जामुन गुठली, पलाश बीज- मधुमेह, गुडवेल- ज्वर तथा यकृत बुखार, अश्वगंधा, सतावरी- शारीरिक मानसिक रोगों में, विदारा-रसायन तौर पर, त्रिफला- पाचन, रसायन में, त्रिकटु- खांसी व पाचन में, तुलसी-कफ नाशक, खैर-चर्मरोग में, मौलश्री- दांत रोग में, बबूल- हड्डी में।

बुन्देलखण्ड में स्वास्थ्य रोधक पूजा व प्रसाद वितरण की परम्परा –

बुन्देलखण्ड भारत के मध्य में स्थित अति प्राकृतिक, पर्यावरणीय, सुसंस्कृत, वैभवशैली, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, दानपुण्य, शूरवीर, योद्धाओं एवं देवी देवताओं के प्रति अत्यंत आराधना, मान-सम्मान का क्षेत्र मानव सभ्यता के शुभारंभ से रहा है। यह क्षेत्र सभी धर्म जाति, जनजाति का विलक्षण प्रभाव का केन्द्र भी है। यह प्रकृति में उत्पन्न वृक्ष पौधें, खनिज, नदी, जल, आकाश, खान-पान की सामग्री, पूज्य या प्रसाद के रूप में मान्य है। पूजा व प्रसाद में भरपूर आस्था, तंत्र, मंत्र, ज्योतिष, वृक्ष पौधों की जड़, फूल-पत्ती, फल, छाल इत्यादि प्रसाद के रूप में या भभूत (भस्म) के रूप में वितरित की जाती है। जो कि अत्यंत स्वास्थ्यवर्धक, स्वास्थ्य रक्षक एवं वृक्ष पौधों की सुरक्षा के प्रति अत्यंत प्रभावी ज्ञानवर्धक उपाय भी है। तभी इस क्षेत्र में व्यापक जैव विविधता भी सुरक्षित है।

रामायण व महाभारत के विभिन्न संस्करणों का हम यदि परीक्षण करें तो यहाँ भगवान राम व कृष्ण ने अपने वनवास के जीवन काल का व्यापक समय बुन्देलखण्ड के वनों में ही व्यतीत किया था। चूंकि रामराजा ने जब राज गद्दी का त्याग किया था तो महारानी सीता के साथ अन्न का एक भी दाना न लेकर खाली हाथ ही वनों में विचरण करने चल पड़े थे। उन्हें भी अपने चौदह वर्ष के जीवन यापन में जड़ी बूटी, प्राकृतिक खाद्य पदार्थ उपलब्ध थे। इन्हीं के बीच उन्होंने अपना इतना विशाल समय निकाला। भगवान राम के स्वास्थ्य रक्षा हेतु गुरू वशिष्ठ ने इन्हीं वनों में स्थापित अतिगुणकारी, स्वास्थ्यरक्षक, उत्तम भोज्य, जीवनदायी, फलदायी, रसायनवादी औषधि व खाद्य सामग्री आधारित, जीवन व्यतीत किया था। तब ही तो उनमें पर्याप्त बल एवं शक्ति स्थापित रह सकी है एवं रावण जैसे विद्वान तथा बलशाली योद्धा से युद्ध कर सके।

ओरछा स्थित रामलला मन्दिर में ये गाथायें भी अवगत कराती हैं। श्री सुदामाजी जो कि भगवान कृष्ण के अभिन्न मित्र थे उनकी पत्नी ने गरीबी के रहते तीन फाख चावल भर कृष्णजी के सेवन हेतु साथ में रखे थे। सुदामा जी भी वनों के रास्ते विचरण करते गये और कृष्ण जी जहां विचरण करें ज्यादा समय व्यतीत करे, उक्त स्थान में आज भी इनके मंदिरों के माध्यम से हमें आभास व अवगत कराते हैं कि पन्ना के मंदिर, सागर के मंदिर, छतरपुर में पाण्डवों स्थल इत्यादि सुदामा जी के स्वास्थ्य रक्षा इन्हीं वनों से संभव हो सकी थी अन्यथा वे मात्र चावल कृष्णजी को लेकर निकले थे। शेष भोजन वनों से ही प्राप्त किया था।

सम्पूर्ण रामायण में ऐसे प्रसंग लेश मात्र ही हैं कि चौदह वर्ष वनवास में रहते सीताजी ने कभी रसोई चलाई या भोजनालय में भोजन का निर्माण किया हो बल्कि वनों में जीवनयापन करते राम, लक्ष्मण, सीता या हनुमान की शक्ति कभी क्षीण नहीं हो पाई। हनुमान जी जन्मस्थली शक्तिपुंज पचमढ़ी में रही होगी। चूंकि आज भी चमत्कारी दुर्लभ जड़ी बूटियां पंचमढ़ी के जंगलों में उपलब्ध है। लक्ष्मणजी की मूर्च्छा समुद्र के किनारे हुई थी। वैद्य सुषेण के कहने पर हनुमानजी बुन्देलखण्ड के जंगलों में विचरित कर ‘संजीवनी’ को ढूंढते रहे यह प्रसंग प्राप्त हुआ है कि इन्हीं वनों में यह शक्तिशाली बूटी उपलब्ध है। जोकि दक्षिण के वनों में उपलब्ध नहीं है। इसके प्रमाण भी है।

बुन्देलखण्ड में अनेकों अचंभित करने वाले कार्य होते रहे हैं। वृक्ष पौधों की परिक्रमा भी की जाती, कई शक्ति स्थल हैं, अमरकंटक, पचमढ़ी, मैहर (शारदा मां), रानगिर (सागर), अवारमाता (शाहगढ़, सागर), टीकमगढ़ (कुण्डेश्वर, सूर्य मंदिर), प्राणनाथ, जुगलकिशोर मन्दिर (पन्ना), रामराजा मन्दिर (ओरछा), पीताम्बरा (दतिया) इत्यादि में स्थित हैं। देवी-देवता वृक्ष पौधों की परिक्रमा पूर्व से पश्चिम बांये से दांये की जाती है। यह सूर्य की परिक्रमा जिस प्रकार पृथ्वी करती है, तद्नुसार इस देश के ट्रेफिक नियम भी संचालित हैं। सम्पूर्ण विश्व की सभी नदिया पूर्व की और बहती हैं मात्र नर्मदा जी पश्चिम की ओर बहती हैं। अतः उनकी परिक्रमा व उन्हें आराध्य माना गया है। इसे ही सबसे महान नदी भी माना गया है।

इसका भी बुन्देलखण्ड से गहरा संबंध है। अवधारणा परिक्रमा का आम जनमानस में नर्मदा के प्रति प्रचलन भी है। बुन्देलखण्ड की अभूतपूर्व परम्परा भी रही है। बुन्देलखण्ड में डॉ. हरीसिंह गौर जैसा दानवीर शिक्षा के प्रति, रानी लक्ष्मी बाई शूरवीर, स्वतंत्रता के संग्राम में (झांसी), रानी दुर्गावती की गाथायें (दमोह), गामा पहलवान (झांसी), चन्द्रशेखर पाण्डेय (आजाद, पहलवान) ओरछा वासी क्रांतिकारी, राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त (चिरगांव), ध्यानचंद विश्व प्रसिद्ध हॉकी खिलाड़ी इत्यादि लाखों ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें गिनाया जा सकता है।

बुन्देलखण्ड में प्रायः पशु-पक्षी जानवर, वानर, अति बलशाली, उपयोग वृक्ष-पौधों का सेवन करते थे। अनेकों प्राणी समलैंगिक अन्य प्रकार हैरो वानर (अफ्रीका) जिन्होंने एड्स जैसा रोग फैलाया, इस क्षेत्र में नहीं फैल पाये। वनों की हजारों रोग प्रतिरोधक उपाय सुरक्षित हैं। रामायण महाभारत में हमारे आराध्य देवों में वृक्ष पौधों का महत्व मात्र पूजन-प्रसाद हेतु ही नहीं स्वास्थ्य रक्षण में भी जताया है। नारियल, बेल, आंवला, बहेड़ा, हर्रा, हल्दी, अदरक, चिरोंजी, राई, असगंध, शतावर, अशोक, अर्जुन, अचार, विदारा, नीम, आम, गोंद, शहद, महुआ, मुलैठी, सौंप, जीरा, सुपारी, केला, धनिया, गुड़, गन्ना, चायपत्ती, लांजवन्ती, असगन्ध, बेर, पलाश के बंधन, बांस इत्यादि अनेकों वृक्ष पौधों का तथा खनिज तांबा, जस्ता, सोना, चांदी, हीरा, कैल्शियम, मैग्नीशियम का इत्यादि का पूज्य प्रसाद, तीज-त्यौहार व अन्य आयोजनों में धारण व आकर्षण सम्मोहन व्यापक स्थापित है।

बुन्देलखण्ड में यह ज्ञान व सभ्यता कूट-कूटकर भरी है। बूढ़ी मां अपनी बहुओं को घर आंगन में इन जड़ी-बूटियों को संभालकर रखती हैं। स्वयं गुरू वशिष्ठ ने यह ज्ञान भगवान राम को अपने शिक्षण के दौरान सामान्य ज्ञान में भारतीय चिकित्सा से स्वास्थ्य रक्षा संबंधी भरपूर कराया था। रामायण व महाभारत में उसके संस्मरण यत्र तत्र प्राप्त होते हैं। वर्तमान युग में इस ज्ञान को अध्ययन, अध्यापन हेतु प्रायः हमारी सरकारें, शिक्षा नीति प्रायः शर्म खा रही है। हमारे राजनेता, शंहशाह व बादशाह हैं। इत्यादि बुलाकर भारी भरकम वसूली कर जनता को गुमराह कर वेबजह पश्चिमी सभ्यता के विज्ञापन से जनता को भ्रमित करते पाये जा रहे हैं। हमारा अपना स्वयं का ज्ञान विलोपित होने की कगार पर है। हम स्वयं विदेशों से यह ज्ञान आयातित करने को मजबूर हो रहे हैं।

बुन्देलखण्ड की पूजा प्रसाद की परम्परा ही सबसे उपयुक्त, बलशाली, पोषक तत्वों से भरपूर, प्रसाद, नारियल, बेल विभिन्न अन्नों इत्यादि का पाया जाता है। चना-चिरोंजी, मगध, खोया, शुद्ध मेवे, खीर, तस्मयी, शुद्ध गुणकारी खनिज तत्वों से पोषक तत्व युक्त भरपूर सेवन कराये जाने की परंपरा स्थापित हुई। इसे व्यवस्थित प्रचारित प्रसारित किये जाने से प्रकृति, पर्यावरण, मानव जीवन सुरक्षित रहेगा।