आयुर्वेद में कल्प चिकित्सा को एक उचित स्थान चिकित्सा प्रारंभ करने के पूर्व ही प्रदान किया गया था। चूंकि आयुर्वेद चिकित्सा उत्कर्ष, सम्मान, गौरव, प्रतिष्ठा का समस्त श्रेय काय चिकित्सा को रहा है। आचार्य चरक इसके आदि गुरु रहे हैं। इन्होंने आयुर्वेद के दो प्रयोजनों का उल्लेख किया- 1. स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का संरक्षण, 2. रोगी व्यक्त के दुःख का प्रसमन। इसके अन्तर्गत संशोधन, संशमन और निदान परिवर्जन किया जाता है। संशोधन उपचार ऋतु अनुसार किया जाता है। यह स्वस्थ व अस्वस्थ दोनों पर ही लागू होता है।
काय चिकित्सा में चिकित्सीय रोगों के उपचार में पंचकर्म पद्धति का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पंचकर्म के शब्दों का उपयोग कई स्थानों पर किया गया है जैसे- पंचमहाभूत, पंचमूल, पंचकोल, पंचक्षीर एवं पंचकर्म। यहाँ कर्म का तात्पर्य है चिकित्सा। पंचकर्म संशोधन चिकित्सा का एक प्रकार है। इसके अन्तर्गत रोगानुसार अलग-अलग कर्म द्वारा चिकित्सा की जाती है। सिद्धांतः 1. वमन, 2. विरेचन, 3. वस्ति, 4. नस्य, 5. रक्तमोक्षण। ये पंचकर्म कहे जाते हैं (कहीं कहीं रक्तमोक्षण को पंचकर्म में समाहित भी किया गया है)।
शरीर के दोषों को मुख मार्ग से बाहर निकालने को वमन कहते हैं। अधोमार्ग से निकाले जाने को विरेचन कहते हैं। औषधों के अभ्यांतर प्रयोग करने को वस्ति कहते हैं। नासिका छिद्रों से नस्य कर्म कहलाते हैं। शरीर के किसी अंग से रक्त का निकालना रक्तमोक्षण कहलाता है।
किसी रोगी का कायाकल्प के पूर्व इन पंचकर्मों को प्रारंभ में शरीर के दोषों को बाहर निकालने हेतु रोगानुसार उपयोग किया जाता है। तद्नुसार पंचकर्म पश्चात् रोगियों का औषधि चिकित्सा का कर्म पूर्ण किया जाता है। इनके बाद ही रसायन एवं वाजीकरण चिकित्सा की जाती है। रसायन चिकित्सा में औषधि, आहार एवं विहार तीनों ही प्रकार से औषधि द्रव्यों के सेवन से शरीर में उत्तम रस, रक्तादि धातुओं की उपलब्धि होती है वह रसायन कहलाती है। इसी प्रकार क्षीणपौरुष, अल्पवीर्य और सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ पुरुषों को वीर्यवान, पौरुष-सम्पन्न और सन्तान के उत्पन्न करने में समर्थ बनाने वाला यह अंग है। जिस क्रिया से अवाजी से वाजी किया जाता है उसे वाजीकरण कहते हैं। वाजीकरण कर्म केवल पुरुषों में किया जाता है। 16-70 वर्ष की आयु में किया जाता है। यह रोगनाशक प्रक्रिया नहीं है। आत्मवान सदाचारी व्यक्ति ही इसके लिए पात्र होता है।
उपरोक्त पंचकर्म चिकित्सा कोई साधारण चिकित्सा नहीं होती है यह संपूर्ण शरीर के विभिन्न अंगों के दोषों का संशमन एवं निग्रहण करवाने की चिकित्सा है। इससे संपूर्ण कायाकल्प संभव होता है। यह एक संपूर्ण चिकित्सा तथा वैज्ञानिक भी है। हजारों ऋषि मुनियों ने अपने जीवन काल में कई बार कायाकल्प के द्वारा अपने शरीर को विभिन्न आपदाओं से सुरक्षित किया है। यह एक शोधित ज्ञान है, परन्तु इसके लिए योग्य चिकित्सक संपूर्ण चिकित्सा का ज्ञाता ही उचित चिकित्सा प्रदान कर सकता है। अन्यथा इस चिकित्सा के कुछ कुप्रभाव भी संभव है।