बुंदेलखण्ड जैसा कि इसका नाम व इतिहास प्रगट करता है, स्वयं में दासता का प्रतीक नहीं रहा। स्वयं वह सभ्यता शून्य से अपना निरंतर विकास कर रही है। यह शक्तिशाली व समय अनुसार सक्षम रहा है। इस क्षेत्र के लोगों ने कभी भी गुलामी महसूस नहीं की, इसलिए सदैव आप भी निर्भीकता एवं संघर्षशील व्यक्तित्व इस क्षेत्र में अपनी जड़े जमाये यत्र-तत्र सर्वत्र प्राप्त होता जा रहा है।

यहीं मधुकर बुंदेला ने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर सागर जेल में फांसी लगाकर प्राणों की आहूति दी थी। आप कटरा बाजार के फन्नूसा कुआं पर हजारों हमारे शहीदों की ललकारों व फटकारों बड़ के झाड़ के पास ऊर्जा कर लाती है। अतः अनेकों संघर्षों की धरती जहां झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं सहोद्राबाई राय जैसी वीरांगना ने अपना बलिदान किया ऐसी बुन्देलखंड की धरती सदैव नमन योग्य है। अनेकों विपदाओं, संघर्षों से जूझने के पश्चात् भी हमारी बुन्देलखंड की पुरुष एवं महिलाओं द्वारा इस इलाके की आजादी को कभी नीलाम नहीं होने दिया। आज इस महोत्सव के अवसर पर अन्य संस्मरणों के साथ निम्नांकित जानकारी भी सभी को रखना अतिआवश्यक प्रतीत होता है।

रहन-सहन – इस क्षेत्र में आमजन मानस पुरातन समय में ढबुआ बनाकर रहता था। उसके पश्चात् माटी, घांस फूंस दो टपरियों का विकास हुआ। प्रायः गांव इसी रहन-सहन में रहता था। उत्तरोत्तर विकास में आज जाकर पक्के मकान विकसित होना शुरू हो गये हैं।

  1. वेशभूषा – घुटनायाऊ, धुतिया, खचऊ परइय्यां (जूते), गिरजई, तरई, सलूका, अंगोछा धारण करते हैं एवं महिलायें सोलह गजी, कांच वाली धोती व पोलका, साया आदि धारण करती हैं।
  2. आभूषण – कवई, ठुसई, तिदानों, करधोनी, कंठा, गोप, गुन्जे, कर्णफूल, तोड़ल, बेंदी, कंकना, बंगरी, चूरा इत्यादि पहनती हैं।
  3. बुंदेलखण्ड की पहचान – पंख, पोर (बड़ा शहर बैठने का आंगन) व पान है।
  4. खेलकूंद के साधन – चौपाल, गड़ागेंद, अंडा-डाऊरी, लुका-छिपी, खो-खो, आंख-मिचौनी, गुल्ली-डंडा, कंचा-पिल्लु, पिट्टू, धर्रा, कबड्डी इत्यादि।
  5. बुन्देलखण्डी व्यंजनों के नाम – इदरसे, बर्रा, कुचईयां, गुजिया, खुरमा, बतिया, लफ्ती, माढ़े, पोछर, मिरचवानी, इत्यादि मुख्य हैं।
  6. औजारें – इस बुंदेलखण्ड के प्रमुख औजारों में गुलेल, गुफना, कुल्हाड़ी, बल्लम, तबल, खाड़ा, हंटर, साध, त्रिशूल, गुप्ती, तलवार इत्यादि पुराने समय के रहे हैं।
  7. भोजन – पुरातन समय में आखेट व जंगली फल खाद्य योग पदार्थ रहे हैं। पश्चात में कृषि आधारित सामग्री, खाद्य योग बनाई जाती हैं।
  8. खनिज – यह विश्व के बहुमूल्य खनिजों का क्षेत्र एवं अनेकों मंहगे चीजों से आच्छादित रहा है। वर्तमान में दोहन पश्चात् भी बना हुआ है। जैसे हीरा, यूरेनियम (समकक्ष) शीसा, चूना, लोहा, फासफोरस, बाक्साइट इत्यादि अनेकों धातुएं स्पष्ट रूप से पायी जाती हैं।
  9. पत्रकारिता – यहाँ पूर्व में कई पाण्डुलिपियां खोजने पर पाई गई हैं, पत्थरों पर, पत्तों पर उसके पश्चात् पंचम नगर के पास कागज पत्तर उत्तरोत्तर वर्तमान स्तर पर प्राप्त होता है।
  10. आवागमन के साधन – ज्यादा समय तक पैदल, घोड़े, खच्चर, बैलगाडियां एवं तांगे आदि साधनों का उपयोग ही होता रहा है।
  11. व्यापार – चूंकि यह क्षेत्र गोंडवाना शुरु से रहा है, तो व्यापार कोढ़ियों में चलता रहा है। यहाँ एक विशेष परम्परा रही कि साहूकार अपनी मूंछ का बाल दे देता था तो उसकी कीमत व्यापारिक दृष्टि से बहुमूल्य रहती थी। घोड़ों पर चलती फिरती दुकानें होती थी साथ ही घोड़ों पर भी किया जाता है। जैसे लाख बंजारे के पास सवा लाख जानवर थे। व्यापार में जानवरों व कृषि के बाजार लगते थे। व्यापार के संबंध में आज भी ज्यादा बढ़ावा नहीं मिल पाया। इस क्षेत्र में कल-कारखानें एवं नियमित आवागमन के साधनों की अनुपलब्धता इसका मुख्य कारण है। अन्यथा यह बुंदेलखण्ड हीरे की खान है।
  12. पर्यावरण – पर्यावरण की दृष्टि से सदैव महत्वपूर्ण स्थान रखता। जबकि वर्तमान में पूर्ण दोहन की स्थिति बन रही है। जैसे नदियों में जल को कभी तालाबों की सूखना, वर्षा कम होना इत्यादि अन्यथा यहाँ परंपरा रही है कि पेड़ पौधे हमारे ग्रामीण सदैव पूजा करते थे, उन्हें काटते कभी नहीं थे। जैसे आज भी आंवला, बड़, पीपल, महुआ, तुलसी, नीम, अशोक, कदम, इत्यादि इन्हें देवी-दर्शन, कृष्ण, एकादशी, उपासनाओं हेतु पूज्य माना जाता है। परंतु वर्तमान समय में तो सागोन, शीशम जैसे बहुमूल्य वृक्ष प्रतिदिन हजारों की संख्या में काटकर विदेशों तक भेजा जा रहा है।
  13. स्वास्थ्य – इस क्षेत्र की स्वास्थ्य की समस्याओं के हल हेतु सदैव बुन्देलखण्डी भारतीय चिकित्सा पद्धति एवं पूर्वजों की मान्यताओं का निरंतर पालन होता आ रहा है। जैसे कि आज की ग्रामीण एवं शहरी अंचलों में वृद्ध माताओं व पिताओं, कहावतें व मुहावरें अपने बच्चों को सुनाकर अनेकों रोगों के संरक्षण के उपाय सुनाते मिलते हैं। कितनी अच्छी परंपरायें हैं। मनुष्य स्वस्थ्य कैसे रहे, दातोन, व्यायाम, खान-पान, विभिन्न रोगों से बचने के उपाय एवं रोगोपचार को सीखें, आसानी से घरेलु चिकित्सा प्राप्त करने की विधियां पश्चिमी सभ्यता से बचाव, पर्यावरण से सुरक्षा निम्न व्यय व स्वस्थ खानपान में रहकर स्वास्थ्य सुरक्षा की विधियां अवगत हैं। अभी भी ग्रामीण अंचलों में दादी मां, वृद्ध दाई की मातृ शिशु कल्याण कार्य कर रहीं हैं। वहीं बिस्वार के लड्डू, दशमूल का काढ़ा, अजवाईन का पानी, हरीरा व बच्चों को जन्मुघुंटी व अन्य जानकारियां वृद्ध मां बहुओं को प्रशिक्षित कर देती हैं। उनका जीवन पर्यन्त पालन वे महिलाओं कर रही हैं। आज भी वृद्ध दाई ग्रामीण अंचल की 75 प्रतिशत से अधिक जचकी करवाती हैं। बुन्देलखण्ड में परंपरा पुरानी आयुर्वेद चिकित्सा पर आधारित है। दस्टोन का नाड़ा जमीन में गाड़ कर रखा जाता है। जचकी बाद तेल से मॉलिश बच्चों व मां की जाती है। मां को दूध पिलाने की प्रेरणा व उच्च खानपान देना जिससे वह स्वस्थ रहकर अपने बच्चों को दुग्धपान कराये। इत्यादि सुभावनी विधियां अनेकों वर्षों से पालन होती रही हैं। वे आज भी ग्रामीण अंचलों में निरंतर पालन की जाती है। साधारण रोगों की पुरानी चिकित्सा व सुरक्षित चिकित्सा ग्रामीण जन आज भी पालन करते हैं। विशेष लाभ दायिक प्रतीत हो रही है। वर्तमान समय में अनेकों अस्पताल, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक व यूनानी केन्द्र भी इस कार्य को संपादित कर रहे हैं। परंतु ग्रामों व शहरों में गुनियाई, झाड़ना-फूंकना, मंत्र-तंत्र, भूत-प्रेत विधा, अग्निदग्ध चिकित्सा का भी प्रचलन है। इससे स्वास्थ्य लाभ के अनेक उदाहरण सदैव बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचलों में जाने पर स्वास्थ्य चर्चा विषय छिड़ने पर सुनने में आते हैं। शहरी वैज्ञानिक मूक दृष्टा बनकर रह जाते हैं जैसे बात, पीलिया, मानसिक विकार, कीटदन्त, महिलाओं के रोगों, मूत्र रोगों, श्वांस रोगों आदि अनेक रोगों में।

            बुंदेलखण्ड में सदैव शौर्यवीर, जंगलों में कीटदंत (सांप-बिच्छु) व अन्य जानवरों से भयाक्रांत रहते थे। इसका भी मंत्रों से उपचार व रोगी ठीक होते पाये गये। यह इस प्रदेश व इस क्षेत्र की कई अनूठी अविस्मरणीय परंपरायें सदैव स्मरण एवं ज्ञानार्जन कराती हैं इसमें निरंतर इनकी और चिंतन कर अनुसरण व प्रेरणा देना आवश्यक है।

  1. इस क्षेत्र में पशुओं पर भी चिकित्सा के महत्वपूर्ण एवं हृदय स्पर्शी उदाहरण सामने आते हैं। वातावरण उपलब्ध वन्य औषधियों व अल्प साधनों में स्वस्थ्य जानवरों की भी चिकित्सा की जाती रही है। जैसे बत्तीसा खिलाने व बढ़िया करना इत्यादि।

            उपरोक्त जानकारियों के साथ इस क्षेत्र में अनेकों ख्यातिप्राप्त व्यक्तियों का स्मरण पुरातन समय से करना न भूलना अत्यंत आवश्यक है। जिन्होंने अनेकों वर्षों से इस क्षेत्र में संघर्ष एवं इस क्षेत्र को मान्यता दिलाने हेतु कार्य किए हैं तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों में लाने हेतु अपना अत्यंत महत्व दिया है, जैसे महारानी लक्ष्मीबाई झांसी की, डॉ. सर हरीसिंह गौर एवं श्री खंडेकर जी इत्यादि। वर्तमान समय में पदमावरणीय, छत्रसाल, मधुकर बुंदेला, ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, डॉ. बी.के. राय, प्रो. डब्ल्यू डी. वेस्ट, डॉ. के.डी. वाजपेयी, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, पं. प्रभु दयाल मिश्र, पं. द्वारका प्रसाद मिश्र, पं. भगीरथ मिश्र, डॉ. डी.आर. भंवालकर, श्री अशोक वाजपेई, प्रभात जोशी, टीकमगढ़, फिल्मों के द्वारा विट्ठलभाई पटेल, श्यामकांत मिश्रा, गोविंद नामदेव, परमाणु शक्ति के रूप में डॉ. दिलीप भवालकर, श्री राजीव भटनागर, क्रांतिकारी श्रीमती सहोद्राबाई राय, कवि, रमा, हटा, दिनकर सोलवलकर, अनादि मिश्र, श्री वसंत साठे, पद्मश्री डॉ. एल.एन. दुबे एवं केप्टिन श्रीकांत पोद्दार (भारत-पाक युद्ध में मरणोपरांत), श्री जुझार सिंह, विष्णु पाठक इत्यादि अनेकों व्यक्तियों ने इस क्षेत्र का नाम उजागर करने में निरंतर भूमिका निभाई एवं वर्तमान में निभा रहे हैं। बीड़ी उद्योग के माध्यम से श्री बी.एस. जैन, चिन्तामन राव पिंपलापुरे, श्री लल्लू भाई पटेल, श्री मणिभाई पटेल, श्री अरविन्द भाई पटेल, ए. शफी, श्री कालेखा, श्री प्रहलाद भाई एण्ड कं. इत्यादि एवं श्री कपूरचंद डेंगरे अगरबत्ती उद्योग के तथा डायमंड सीमेंट नरसिंहगढ़ के नाम से देश-विदेशों में सर्वोच्च सदैव स्मरित हो रहा है।

  1. दर्शनीय स्थल – विदेशियों के भ्रमण एवं पर्यटन के केन्द्र खजुराहो (छतरपुर) का विशेष स्थान है। साथ ही प्राणनाथ मंदिर (पन्ना) ओरछा का रामराजा मंदिर, बादंकपुर, जुगलकिशोर का मंदिर (पन्ना), रानगिर देवी मंदिर, जटाशंकर बिजावर, पपोता जी कुंडलपुर, अबार माता शाहगढ़, कुण्डेश्वर (टीकमगढ़), सागर विश्वविद्यालय, पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज, फारेसिन्क लेब, बीड़ी, अगरबत्ती के उद्योग, झांसी किला, एच.ई.एल. झांसी, वैद्यनाथ कंपनी, दतिया किला, इत्यादि।
  2. मेला – बुन्देलखंड में अनेकों त्योहारों पर विभिन्न स्थानों पर मेलों का पारंपरिक महत्व रहा है। इसके अन्तर्गत बादंकपुर, बरमान, सानोधा, रानगिर, कुण्डेश्वर, गढ़ाकोटा में रहस्य का पशु मेला इत्यादि प्रसिद्ध हैं।

            उपरोक्त बुंदेलखण्डी परंपराओं के रहते क्षणिक विकास अन्य क्षेत्रों की भांति शून्य के बराबर हैं। जबकि यह क्षेत्र का इतिहास बताता है कि एरण (खुरई) जनपद गुप्त काल से ही सागर जिले में स्थापित हो चुकी थी। आर्य सभ्यता से आवश्यक सुधार होना प्रतीत होता है। यह विधि की विडम्बना मानसिक उत्पीड़न, या हमारा पिछड़ापन में जीवन यापन की सोच माना जावे कि हम इस बुन्देलखंड को राष्ट्रीय स्तर पर गीत नहीं दे पा रहे हैं। हमें प्रेरणा लेकर इसे ग्वालियर एवं अन्तर्राष्ट्रीय मेले का स्थान दिलवाने हेतु निरंतर संघर्षरत रहना अत्यावश्यक है।