यह एक सर्वविदित तथ्य है आयुर्वेद एक प्राचीनतम चिकित्सा शास्त्र है। इसका प्रारंभिक काल आज भी आधुनिक विद्वानों के विवाद का विषय बना हुआ है। भारतीय विद्वानों के मतानुसार वर्तमान समय में भारत में प्रचलित समस्त चिकित्सा प्रणालियों में केवल आयुर्वेद ही एक मात्र ऐसी चिकित्सा प्रणाली है जो प्राचीनतम ही नहीं है, अपितु अनादि काल से प्राणियों की चिकित्सा करती आ रही है। अतः इस संबंध में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कह सकना संभव नहीं है कि आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली कितनी प्राचीन है और इसका आरंभ किस काल में हुआ है।
आयुर्वेद के अन्तर्गत अत्यन्त प्राचीन काल से दो धाराएं अविकल रूप से प्रवाहित रही है- एक शल्य चिकित्सा और दूसरी काय चिकित्सा। पृथ्वी पर शल्य चिकित्सा प्रधान आयुर्वेद का उपदेश देने वाले प्रथम व्यक्ति काशिराज दिवोदास हैं जो अपर नाम ‘‘दिवोदास धन्वन्तरि’’ के नाम से भी विख्यात हैं। ये काशी के राजा भीमरथ के पुत्र थे। इनकी पत्नी का नाम इष्टवती और पुत्र का नाम प्रतर्दन था। मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम के राज्याभिषेक के समय उपस्थित राजाओं में प्रतर्दन का नामोल्लेख भी आया है। राजा राम के मित्रों में प्रदर्तन भी गिने जाते थे। काशिराज दिवादास ने शल्य प्रदान अष्टांग आयुर्वेद का ज्ञान देवराज इन्द्र से प्राप्त किया था। इसका समय त्रेता एवं द्वापर युग का सन्धि काल है।
आयुर्वेद की दूसरी धारा काय चिकित्सा के आदि उपदेष्टा पृथ्वीवासी महर्षि भारद्वाज हैं। ये आर्य युग के सर्वाधिक विद्वान, प्रतिभावान, एवं प्रसिद्धतम ऋषि हैं। इन्होनें भी काय चिकित्सा प्रधान अष्टांग आयुर्वेद का ज्ञान देवराज इन्द्र से प्राप्त कर उसे पृथ्वी पर प्रसारित किया। महर्षि भारद्वाज काशिराज दिवादास के समकालीन हैं और काशिराज दिवादास के गुरू हैं। क्योंकि दिवोदास ने वेद वेदांग का ज्ञान महर्षि भारद्वाज से ही प्राप्त किया था। हिमवत् के पार्श्व प्रदेश में आयोजित ऋषियों की सभा में देवराज इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सर्व सम्मति महर्षि भारद्वाज ही नियोजित किए गए थे।
इस प्रकार भूमण्डल पर आयुर्वेद के अवतरण करने का श्रेय महर्षि भारद्वाज एवं काशिराज दिवादास धन्वन्तरि को ही है। यदि इनके काल को ही हो आयुर्वेद का आरंभ काल मान लिया जाये। तो वह काल आज से लगभग आठ हजार वर्ष पूर्व निर्धारित होता है। अतः कहा जा सकता है कि आयुर्वेद प्रणाली आज से लगभग आठ हजार वर्ष पूर्व से अनवरत रूप से चली आ रही है।
शल्य तंत्र प्रधान आयुर्वेद ‘‘धन्वन्तरि सम्प्रदाय’’ और काय चिकित्सा प्रधान आयुर्वेद ‘‘आत्रेय सम्प्रदाय’’ के नाम से जाना जाता है। भूमण्डल पर काय चिकित्सा प्रधान आयुर्वेद के मूलोपदेष्टा यद्यपि महर्षि भारद्वाज हैं, किन्तु उनके उपदेश को ग्रहण कर अन्य शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश देकर उन्हें पृथ्वी पर प्रसारित करने का श्रेय और पुनर्वसु आत्रेय को है। अतः आयुर्वेद की द्वितीय काय चिकित्सा प्रधान धारा आत्रेय सम्प्रदाय के नाम से जानी जाने लगी है। वर्तमान में शल्य चिकित्सा प्रधान आयुर्वेद का मुख्य ग्रन्थ ‘‘सुश्रुत संहिता’’ और काय चिकित्सा प्रधान आयुर्वेद का मुख्य ग्रन्थ ‘‘चरक संहिता’’ है। इस प्रकार आयुर्वेद के प्रचीनतम ग्रन्थों में ये दो ग्रन्थ ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। एक तीसरा ग्रन्थ ‘‘अष्टांग हृदय’’ है जिसे मध्य काल में ऋषि कल्प आचार्य वाग्भट ने प्रणीत किया था।
वैसे तो आयुर्वेद में ऋषि महर्षियों द्वारा अनेक ग्रन्थों की रचना हुई हैं, किन्तु भारत पर मध्य काल में सतत् रूप से विदेशियों के आक्रमण के कारण अधिक संख्य ग्रन्थ शताद्वियों से अनुपलब्ध हैं। केवल उपर्युक्त दो ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। ये ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीनकाल से वैद्यकीय दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ एवं उपलब्ध ग्रन्थों में सर्व प्राचीन माने जाते हैं। अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा इन ग्रन्थों के अनुसार ही पठन पाठन एवं कर्माभ्यास करने पर वैद्य का वैद्यत्व निर्भर रहा है। अतः उपयोगिता की दृष्टि से ये ग्रन्थ महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
आयुर्वेद की प्राचीनता के विषय में पाश्चात्य विद्वान प्रो. रायली सा. का मत है कि आयुर्वेद अरब और न्यूनान वालों से भी प्राचीनतम विज्ञान है। एक अरबी ग्रन्थ उयुलहन में लिखा है कि आठवीं सदी में बगदाद की राजसभा में भारतीय चिकित्सक आयुर्वेद की शिक्षा देते हैं। अरब से आयुर्वेद का प्रचार यूरोप में हुआ। क्योंकि सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय चिकित्सा मूल अरब प्रणाली था। इस उल्लेख से रायली सा. के उपर्युक्त मत और आयुर्वेद की प्राचीनता की पुष्टि होती है।
इसी प्रकार डेरोथिया के ‘‘प्लिन’’ नामक विद्वान के कथन में आयुर्वेद की प्राचीनता, महत्ता और वैज्ञानिकता की पुष्टि स्वतः होती है। उनके कथन का कुछ अंश निम्न प्रकार है। हमारी चिकित्सा पद्धति का जन्म भारतीय चिकित्सा पद्धति से अरब वालों के द्वारा हुआ। भारतीय चिकित्सा में एक भी ऐसा नाम नहीं मिलता है। जिससे उसे विदेशी नाम दिया जाये। यूरोपीय चिकित्सा सत्रहवीं शताब्दी के पश्चात् भी भारतीय प्रणाली पर अवलंबित थी। यदि हम भारतीय तथा पश्चिमी शरीरों पर ध्यान दें तो स्पष्ट व्यक्त होता है कि पश्चिमी नाम भारतीयों की देन है।
यह इतिहास द्वारा प्रमाणित एक सुविदित तथ्य है कि प्राचीन काल में जब किसी भी देश में कोई भी चिकित्सा पद्धति विकसित नहीं थी तब आयुर्वेद पूर्ण विकास को प्राप्त कर मानव समाज की सेवा कर रहा था। प्राचीन काल में विभिन्न देशों और रियासतों के राजाओं के बीच परस्पर भीषण युद्ध हुआ करते थे। जिनमें परम्परागत विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्रों का प्रयोग होता था। रण संग्राम में सैकड़ों-हजारों सैनिक प्रतिदिन हताहत हुआ करते थे। उस समय राजाओं और उनके सैन्य दलों के साथ रण संग्राम में सैकड़ों-हजारों सैनिक प्रतिदिन हताहत हुआ करते थे। उस समय राजाओं और उनके सैन्य दलों के साथ रण संग्राम में केवल वैद्यगण ही जाया करते थे। वे अपने कर्म ने पुण्य के द्वारा तात्कालिक उपचार कर न जाने कितने सैनिकों को जीवन दान दिया करते थे।
सायंकाल युद्ध बन्द होने पर जब हताहत सैनिक संग्राम क्षेत्र से अपने शिविर में लाए जाते थे तब शल्यतंत्र निपुण वैद्य ही उनका उपचार करते थे। उनकी आशुफलप्रद चिकित्सा के परिणाम स्वरूप युद्ध में हताहत हुए सैनिकों में से अनेक सैनिक तो स्वास्थ्य लाभ पर दूसरे ही दिन रणक्षेत्र में जाने और युद्ध करने के योग्य हो जाते थे और कुछ दो-तीन दिन या एक सप्ताह में ठीक हो जाते थे। अनेक सैनिकों को अस्थि संधान करना या हाथ-पैर आदि के गम्भीर रूप से विक्षत होने पर कृत्रिम हाथ-पैर या अन्य अंगों का संधान-रोपण करना भी उन्हीं शल्य वैद्यों की चिकित्सा के अधीन था। यह सब आयुर्वेद की ही महिमा और उसके पुण्य प्रताप का फल था। इससे सहज ही इस बात का अनुमान होता है कि उस समय आयुर्वेद की क्या स्थिति रही होगी।
आज का पावन दिवस आयुर्वेद समाज के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण, प्रेरणाप्रद एवं उत्साह वर्धक है। आज के दिन भगवान धन्वन्तरि का पावन स्मरण सम्पूर्ण वैद्य समाज के लिए मात्र औपचारिकता बनकर नहीं रह जाये, अपितु उससे हमें प्रेरणा और स्फूर्ति प्राप्त हो सके, एक ऐसे चौतन्य का आभास हो जिससे हम अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए अपने देश की पीड़ित जनता एवं समाज को रोग मुक्त कर स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकें। भगवान धन्वन्तरि ने जिस शल्य प्रधान आयुर्वेद का उपदेश दिया है उसे पुनर्जीवित करना और उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर उसे सक्रिय बनाना हमारा प्रथम कर्तव्य है।
बुन्देलखण्ड में परम्परागत चिकित्सा का सामान्य इतिहास :
सृष्टि की रचना के साथ-साथ भारत वर्ष में स्वास्थ्य रक्षा का पूर्ण दायित्व एकमात्र भारतीय चिकित्सा आयुर्वेद को प्राप्त था। जो कि अत्याधुनिक युग में इसका सम्पूर्ण विश्व में व्यावहारिक आत्मसात होता दिख रहा है। आयुर्वेद चिकित्सा का ध्येय प्रारंभ से समदोषः समाग्निश्च समधातुमल क्रियः। प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इतिभिधीयते।। अर्थात् शरीर में दोष धातु मल व अग्नि समान भाव में हों, मन स्वस्थ हो, आत्मा इन्द्रिय प्रसन्न हों इसे ही स्वस्थ माना गया है।
इसके अतिरिक्त यह एकमात्र चिकित्सा है जो कि संपूर्ण है। यह रोग से पहले व्यक्ति स्वस्थ कैसे रहे, इस पर ज्यादा विश्वसनीय ज्ञान कराता है।
स्वस्थ्य स्वास्थ्य रक्षणम। आतुररस्य
आयुर्वेद एक संपूर्ण विज्ञान है जो कि दीर्घायु प्रदान करता है। जीवनशैली सुखी रहे यह ज्ञान कराता है। इसमें निहित ज्ञान स्वस्थव्रत कहलाता है। इसके अन्तर्गत स्वस्थचर्या का ज्ञान जिसमें दिन, रात्रि ऋतु आदि आहार, मुद्रा, ब्रह्मचर्य एवं सामाजिक चेतना का वृहद् ज्ञान कराता है।
भारत के मध्य में स्थित बुन्देलखण्ड का क्षेत्र, यह ज्ञान हजारों वर्षों से जनमानस को कराता आ रहा है। यह जानकारी महाभारत एवं रामायण स्वयं दर्शाती है। इस क्षेत्र में पर्याप्त प्रकृति, पर्यावरण, खनिज, नदी, नाले, जल स्रोत, कुंड बावड़ी, गुफाऐं प्राकृतिक रूप से उपलब्ध होती आ रही हैं। इस ज्ञान के रहते यहाँ का जनमानस पूर्व से अच्छे स्वास्थ्य, मानव बलशाली, दीर्घायु एवं संघर्षशील भी रहे हैं। इसके अनेकों उदाहरण बुन्देलखण्ड के इतिहास में स्वयं लक्षित होते हैं। भीमकुण्ड ओरछा, रानगिर, पाकल धाम, पचमढ़ी इत्यादि अनेकों ऐसे स्थान है जिनका इतिहास वर्तमान में यह ज्ञान करा रहा है।
मानव हजारों वर्षों से स्वस्थ रहने की निरंतर अनेकों कल्पनाएं करता रहा है। इस हेतु अपनी आवश्यकताएं खाद्य पदार्थ, औषधि, कपड़ा, मकान आदि के रूप में उपयोग किए जाने वाली विभिन्न वृक्ष, प्रजातियों की खोज में हमेशा कार्यरत रहा है। आदिकाल से (शोध एवं परीक्षण) ट्रायल व एरर के उपचार पर अनेक पौधों को खाद्य पदार्थ, परिवारों को पूज्य, रीतिरिवाजों, सांस्कृतिक साहित्यिक भावनाओं से जुड़कर सुरक्षित रख पा रहे हैं। हमारे प्रकृति में हजारों वर्षों से वृक्ष, पेड़-पौधे, अनेकों अत्यंत भावनात्मक मान्यताएं होती है। आदिवासी, वनवासी, पहाड़ी वनजाति, आदिम जाति इन वनों से भरपूर जुडे हैं या कहें पूर्णतः जंगलों में समाहित है। यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ये सच्चे वन रक्षक है। ये जाति संपूर्ण भारत में साढ़े पांच करोड़ यानि कल देश की आबादी के 7.76 प्रतिशत है।
बुन्देलखण्ड एक ऐसा प्राकृतिक ज्ञान प्रधान देश है जहां भारतीय चिकित्सा आयुर्वेद, यूनानी एवं प्राकृतिक योग स्थापित है। यहाँ प्रातः दातोन से रात्रि विश्राम तक इन वृक्ष पौधों का महत्व स्थापित है। सुबह उठने के साथ नीम, बबूल, करंज की दातौन से लेकर रात्रि विश्राम तक इलायची, मुनक्का, केशर, कस्तूरी युक्त दूग्धपान की व्यवस्था है। प्रसूताओं की प्रसवपूर्ण भी जीवनयापन की शैली वन्य औषधि, खाद्य पदार्थ आधारित है। ये अपने जीवन में गर्भकाल के दौरान प्रयोग होने वाले पेड़ पौधों के अवयव स्वयं बटोरती है। इन्हें ही प्रसवोत्तर मातृ व नवजात शिशु के स्वास्थ्य रक्षा हेतु सेवन करती है हैं। जैसे शहद, दशमूल द्रव्य, बिस्वार के लड्डू, चरुआ पानी, खेर की लकड़ी, नीम पत्र का पेड़, जन्मघुटी आदि शहद, अदरक, तुलसी, हर्र, त्रिफला, जायफल, कायफल, छुआरा आदि भी अनेक पौधे व उनके अवयव नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य रक्षा एवं लालन-पालन तथा स्तन्य माताओं को दुग्ध पान कराने में सहयोग करते हैं। पौधों के अलावा प्रकृति में प्राप्त हो रहे खनिज, लोहा, तांबा, चांदी, स्वर्ण, अभ्रक आदि का भी औषधि प्रयोग है।
आयुर्वेद का वेदत्व, आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ, परिभाषा, स्वरूप एवं विशेषताएँ
आयुर्वेद मानव कल्याण की एक मात्र संपूर्ण चिकित्सीय विधा है, जो कि वेद के स्वरूप सम्मान प्राप्त है। जैसा कि विदित होता आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ यदि परिभाषित करें तो यह आयु का वेद है- आर्यु + वेद। आयुर्वेद में जैसी स्वस्थ मनुष्य की विशद एवं सर्वांगीण व्याख्या की गई है वैसी अन्यत्र अन्य तथाकथित चिकित्सा विज्ञान के साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होती। जैसा कि लिखा है-
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमन स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
आयुर्वेदीय स्वस्थ की परिभाषा ने सिर्फ मनुष्य के शारीरिक धातु, अग्नि, साम्य के मापदण्ड का ही ध्यान रखती है अपितु उसका वैशिष्टय इस बात में छिपा है कि वह मनुष्य को आत्मना, इन्द्रियेण एवं मन को भी प्रसन्न रखती है। तभी सच्चे अर्थों में मनुष्य को स्वस्थ कहा जाता है। यह श्रुति एवं स्मृति के आदेशों का जो कि व्यैक्तिक एवं सामाजिक स्वस्थ्यपरक है, यदि व्यक्ति से अनुचित रूपेण पालन करता है तो यह दुःखप्रद होता है। आयुर्वेद का अभिप्राय यह है कि शारीरिक, मानसिक प्रसन्नता होना आवश्यक है। आरोग्य का महान शत्रु त्रिदोष है।
आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। अतः इसकी उत्पत्ति वेदकाल से सुनिश्चित है। आयुर्वेद सदा से अष्टांग रहा है, विभिन्न ज्ञानों का भंडार रहा है। इसका तात्पर्य ‘‘स्वस्थ्यस्य स्वास्थ्य रक्षणम्, आतुरस्य रोग प्रशमनं च।’’ अतः यह मनुष्य स्वस्थ रहे इसकी कल्पना वृहत स्तर पर करता है। इस पर विचार भी वृहत किया गया है। रोग को चिकित्सा के दौरान ज्यादा महत्व नहीं दिया गया अतः रोग के बचाव के कारण रोग न हो सके इस पर अध्ययन केवल इसी शास्त्र में हुआ है। आयुर्वेद का स्वस्थ्यवृत ज्ञान (दिन, रात्रि, ऋतुचर्या) आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य, यहाँ तक की सामाजिक उत्थान पर भी गंभीर चिंतन रोग क्षमता बढ़ाने हेतु यह ज्ञान हर चिकित्सक के मनन मस्तिष्क में पूर्व से ही रहा है।
बुन्देलखण्ड में वानस्पतिक औषधियों के परम्परागत तरीकों का ज्ञान हजारों वर्षों से रहा है। इस क्षेत्र का मानव हजारों वर्षों से स्वस्थ रहने की निरंतर, अनेकों कल्पनायें करता रहा है। इस हेतु अपनी आवश्यकताओं खाद्य पदार्थ, औषधि, कपड़ा, शरण स्थल (मकान) आदि के रूप में प्रयोग किये जाने वाली विभिन्न वृक्ष प्रजातियों की खोज में हमेशा से कार्यरत रहा है। आदिकाल से (भ्रम एवं परीक्षण) ट्राइल एरर के आधार पर अनेक पौधों की खाद्य पदार्थो आदि से प्रयोग भी करता आ रहा है। इन मान्यताओं के रहते पौधे हमारे पूज्य परिवार, रीतिरिवाजों एवं सांस्कृतिक एवं साहित्यिक भावनाओं से जुड़ चुकी है। हमारे देश में आदिवासी, वनवासी, जनजाति, पहाड़ी आदि जाति, इन वनों से भरपूर जुड़े हैं। ये जाति जो कि संपूर्ण भारत में सात करोड़ यानि भारत की आबादी का 7.76 प्रतिशत है एवं इनकी संख्या सबसे अधिक म.प्र. में है।
हमारा देश उच्च सांस्कृतिक लोक परम्परा एवं पर्यावरण से परिपूर्ण देश रहता आ रहा है। इस देश का पूर्व इतिहास वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कुरान, बाइबिल आदि विभिन्न धार्मिक ग्रन्थ विशेषकर जैन एवं बुद्धों में तो औषधि पौधों का व मानव जीवन स्वास्थ्य सुधार एवं दैनिक आहार-विहार, दिनचर्या से इसका भरपूर संबंध रहा है। इन्हीं वन्य औषधि पौधों के फल, फूल, छाल, बीज, पत्ते, मूल, कंद इत्यादि एकत्र कर बिक्री हेतु एवं औषधि में प्रयोग होते हैं। भारत में 10 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या आजीविका वनों पर अपना आधारित रहकर व्यतीत करते हैं। 6400 लाख हेक्टेयर भूमि वन की है। इस पर 845 मनुष्य, 300 लाख पशु, 270 लाख पक्षी निर्भर हैं।
हमारे देश में प्रातः की दातोन से रात्रि विश्राम तक इन पौधों का महत्व नीम, बबूल, करंज, मौलिश्री की दातौन से लेकर रात्रि विश्राम पूर्व इलायची, मुनक्का, केसर, कस्तूरीयुक्त दुग्धपान तक की व्यवस्था है। प्रसूता की एवं प्रसव पूर्व भी जीवनयापन की शैली प्राकृतिक वन्य औषधि एवं खाद्य पदार्थों पर आधारित है। महिलायें ग्रामों व वनों में गरीबी रेखा से जीवनयापन हेतु 60 प्रतिशत से अधिक मजबूर रहती है। वे अपने जीवन में गर्भकाल के दौरान प्रयोग होने वाले पेड़ पौधों को बटोरती हैं एवं प्रसवोत्तर उन्हें सेवन करती है। दशमूल द्रव्य, बिस्वार के लड्डू, चरुआ पानी, खैर की लकड़ी, बकायन का जल, नीम पत्र का प्रयोग, जन्मघुंटी, शहद आदि के प्रयोग होते हैं। शहद, तुलसी, अदरक, हर्र, वच, जायफल, कायफल इत्यादि के अनेकों प्रतिदिन नवजात शिशुओं को औषधि रूप में प्रयोग होते हैं।
परम्परागत प्रकृति के 15 दिन मोती, (कर्ण सुहागा) सोना, चांदी, तांबा, पारा, गंधक, लौह, अभ्रक, शीशा आदि का प्रयोग हमारे देश की भारतीय चिकित्सा में हजारों वर्षों से स्थापित है। साथ ही पर्यावरण में उपलब्ध अधिक पेड़ पौधों का प्रभावी प्रयोग स्वास्थ्य समस्या के हल औषधि निर्माण, पंचकर्म, कायाकल्प, शोधन, संशमन, प्राकृतिक, यूनानी, होम्योपैथिक यहाँ तक कि ऐलीपैथिक (पश्चिमी) चिकित्सा में भी इसके बिना जीवित रहना असंभव बताया जाता है। कुछ औषधि पौधों का पारंपरिक ज्ञान व उपयोग उदाहरणार्थ कुछ इस प्रकार से है-
मातृ शिशु कल्याण – प्रसव, प्रसवोत्तर एवं नवजात शिशु स्वास्थ्य रक्षक है।
बिस्वार के लड्डू – पुराना गुड़, गन्ना, सौंठ, मखाना, छुहारा, चिरौंजी, किसमिस, काजू, गौंद, (नीम, बबूल, धाय इत्यादि), बादाम, पिस्ता, कमरकस, हल्दी, नारियल, शुद्ध घी, खसखस, दूध आदि अनेकों क्षेत्रवार शतापरी, असगंध, सौंठ, कालीमिर्च, पीपरामूर, भूसली, लौंग उपलब्धता अनुसार प्रसवोत्तर प्रयोग महिलायें करती है।
दक्षमूल काढ़ा – बेल की छाल, गंभारी की छाल, अरनी की छाल, गोखरु की छाल, छोटी व बड़ी कटेरी, पृष्निपर्णी, शालपर्णी, यवकुट, घी मिलाकर उबालकर पिलाया जाता है। यह गर्भाशय श्रोध एवं शोधन में लाभकर होता है।
चरुआ पानी – खैर की लकड़ी, अजवाइन, हल्दी, सौंठ, तांबे का पैसा पानी में उबालकर यह जल प्रसूता स्त्रियों को पिलाया जाता है। यह रक्त स्तंभक ही होता है।
नहाने का पानी – नीम, बकायन, गुड़बेल उबालकर स्नान कराना। प्रसूता को लाभप्रद माना गया है। यह गर्भाशय संकुचन में सहायक होता है।
जन्मघूंटी – बच्चों को कायफल, जायफल, सावित्री, छोटी हर्र, सुहागा, छुहारा, लैंडीपीपल, इत्यादि का उदर कृमि व श्वास जन्य रोगों के बचाव हेतु उपयोग है। अन्य प्रयोग औषधि पौधो के निम्नाकित हैं जैसे –
नीमपत्र – चर्मरोगी, बुखार, मलेरिया आदि में। कुष्ट रोग में भी उपयोग होता है।
नीमछाल – नेत्ररोग, खूनी बावासीर, चर्मरोगों में क्वाथ सेवन करते हैं।
नीम बीज – चर्मरोग, रक्त विकारों में उपयोगी होता है।
नीम फल – मेथी मिलाकर गुलकंद समान सेवा में पित्त शमक होता है।
नीम जड़ – इसका पेस्ट बनाकर बच्चों के नसों पर लेप करते हैं।
नीम गोंद – आधा चम्मच शहद, मक्खन में मिलाकर लाभकारी होता है।
नीम व जलभी का सेवन एक साथ करना भी अत्यंत गुणकारी होता है।
तुलसी – यह 2 प्रकार की होती है काली व हरी। काली तुलसी औषधि गुणकारी होती है। प्रतिश्याय, श्वास आदि जीर्ण ज्वर, कुष्ठ में वात विकारों में इस पौधे के पत्र, मूल, बीज उपयोगी होते हैं।
लहसुन – दांतों के दर्द में लहसुन तेल बच्चों के संवर्धन में, सिरदर्द में माथा लेप करते हैं। उच्च रक्तचाप में कोलेस्ट्राल कम करता है।
गाजर – स्वादिष्ट व प्राकृतिक संतुलन बनाता है। मधुमेह में लाभप्रद है। गाजर करेले के रस में पिया जाता है। आम बात में इसको अजवाइन के साथ, इत्यादि। गाजर आंखों की रोशनी, शरीर में शक्ति, केंसर रोग शामक, दीपन-पाचन, रक्तचाप, रोगप्रतिरोधक क्षमता एवं आयु को प्रदान करता है।
त्रिफला – हर्र, बहेड़ा, आंवला, यह रसायन, सर्वरोगहर एवं दीर्घायु माना जाता है।
मेंथी वायविडंग डीकामाली – कृमि रोग में।
चंदन – मूत्र रोगों में।
पलास – श्वांस, कास, मधुमेह में।
सतावर – कमल, अशोक, स्त्री रोगों में।
शिलाजीत – यह स्वाद में कसेला, गर्म व ज्यादा कड़वा होता है। इसमें गौमूत्र जैसी गंध आती है। यह चार प्रकार का होता है- स्वर्ण, रजत, लौह, ताम्र इत्यादि।
शिलाजीत के लाभ – यह पुरुषों की यौन क्षमता को बढ़ाता है, शीघ्रपतन को रोकता है। शिलाजीत, केशर, लौह भस्म, अम्बर इत्यादि के साथ स्वप्नदोषों को ठीक करता है। तनाव की समस्या, हड्डियों के रोग, ब्लड प्रेशर, जरापन, मधुमेह, स्मरण शक्ति, रोग प्रतिरोधक क्षमता में लाभप्रद है।
बेल – बेल के पेड़ के सभी अंग उपयोगी होते हैं। लेकिन बेल के पकने पर उसके औषधि गुण का महत्व अधिक हो जाता है। बेल फल पेट में छाले होने पर शरबत बनाकर सेवन कराते हैं। दस्त रोगों में, कोलेस्ट्राल रोग में सेवन करने से दोनों ही स्थितियों में लाभकर होता है। यह भी अत्यंत उपयोगी औषधि कंपवात नाशक पौधा है। दीपन पावन एवं स्तंभक इसके मूल, त्वचा पत्र, फल यकृत एवं उदर रोगों में उपयोगी है।
ठंड ऋतु में शरीर गर्म रखने हेतु उपयोगी पौधे – काली मिर्च, हल्दी, लहसुन, मैथी, सूखे मेवे, शहद, गुड़।
बथुआ – यह एक उपयोगी पौधा बुन्देलखण्ड में बहुतायत में पाया जाता है एवं इसका सेवन भी किया जाता है। विभिन्न रोगों में पेट में कमी, बवासीर, दाद-खाज खुजली, आंखों की सूजन, लाली आने पर इसका सेवन कराया जाता है।
तेलों के प्रयोग :
नाभि में किन-किन तेलों को डालना चाहिए – नाभि एक ऐसा अंग है जो कि शरीर का केन्द्र कहलाता है। कुछ तेल नाभि में डालने की प्रथा हमारे बुन्देलखण्ड में बरसों से चली आ रही है- सरसों का तेल 2-3 बूंद, नारियल का तेल- 4-5 बूंद, नीम का तेल इत्यादि।
पर्यावरण सुरक्षा वायु व शुद्ध जल हेतु नीम, पीपल, वट, निर्मली, जामुन, तुलसी, महुआ, अत्यंत गुणकारी प्रभाव रखते हैं। विषशामक गुंजा, रूद्राक्ष, एरण्ड, धतूरा, गुमची होते हैं। सौंफ, पुदीनहरा, षडंगपानी एक प्राचीन स्थापित जीवनरक्षक घोल है।
चौपालों में कहावतों एवं सामान्य वर्षा में भी आपस में यह कहावतें अवश्य सुनाते हैं-
मलेरिया – अकौआ (मदार) जड़, गूदा पत्ती, फल, पत्र ये पंचानन न जावें भूल गोली एक सुबह जो खायें, तो मलेरिया जड़ सों जायें।।
सिरदर्द – घृत कपूर को लीजिये एकहि साथ मिलाय। सिर माथे में रगड़े ये दे सिर दर्द मिटाय।।
बाल काले रखने हेतु – लोह पात्र में डालकर त्रिफला देय भिगाय।
जितना पानी खर्च हो, उतना देय मिलाय।।
त्रिपला जल सों धोइये प्रतिदिन अपने केश।
जीवन भर काले रहें, सिर के मिटें क्लेश।
हवनों का महत्व –
जो गूगल का हवन करावें। क्षय के कीटाणु न आयें।
धुंआ गरि जेहिं घर मायें। तब मलेरिया नहीं आवें।।
क्वांर करेला कातक दई, मरहों नहीं तो परहो सई।
रसायनों की प्रकृति – हर्र बहेड़ा आंवला, घी शक्कर सौं खायें।
बे हाथी दावे कांख में, ऊंट घसीटत जायें।।
इस प्रकार अनेकों कहावतों, चौपालों की चर्चा एवं दादी मां की सीख की चिकित्सा स्थापित है।