दतिया किला मध्‍य प्रदेश के दतिया जिला मुख्‍यालय पर स्थित है। दतिया, उत्‍तर मध्‍य रेलवे के झाँसी-भोपाल मार्ग का एक रेलवे स्‍टेशन भी है। सड़क मार्ग से दतिया, झाँसी से 25 कि.मी. एवं ग्‍वालियर से 60 कि.मी. दूरी पर स्थित है।

        दतिया केकिले कोप्रतापगढ़ किला कहते हैं। किले का मुख्‍य द्वार राजगढ़ दरवाजा है। इस दरवाजे में लोहे के कीलें जड़े बड़े-बड़े फाटक हैं। राजगढ़ दरवाज़े के भतर प्राँगण में विशाल गर्भ छाँट तोप रखी है, भीतरी प्राँगण के पश्चिमी भाग में भी एक बड़ा दरवाजा है, इस द्वितीय दरवाजे़ से राजनिवास के प्रथम प्राँगण में प्रविष्‍ट हो जाते हैं।

        दतिया का किला महाराजा दलपत राव (1683 -1707 ई.) ने सन् 1695 में बनवाया था। जिसका नाम प्रतापगढ़ रखा गया इस प्राँगण के पूर्वोत्‍तर पार्श्‍व में फूलबाग नामक सुंदर बगीचा है। प्रथम प्राँगण लंबा-चौड़ा है, जो दूसरे प्राँगण से कुछ नीचा है। प्रथम प्राँगण के पूर्वोत्‍तरी भाग में अनेक आवासीय कक्ष हैं। इस प्राँगण से हाकर एक आम रास्‍ता पश्चिम-दक्षिण के बाजा़र एवं बस्‍ती को निकलता है। किले का यह दक्षिणी-पश्चिमी भाग खंडहर-सा हो गया है। पूरे परिक्षेत्र में बस्‍ती बाज़ार हो गया है।

        प्रथम प्राँगण के सामने उत्‍तरी भाग से एक दरवाज़ा दूसरे प्राँगण में जाने को है। इस प्राँगण के दक्षिणी भाग में खंभेदार बैठक है। उत्‍तरी पार्श्‍व में एक सुंदर बावड़ी है। प्राँगण के उत्‍तरी-पूर्वी पार्श्‍व कोने से संलग्‍न रंगमहल एवं रनिवास है, बैठक है। पूर्वी-दक्षिणी भाग में दुमंजिला मुगल शैली में निर्मित रनिवास है, जिसके ऊपर चारों कोनों पर गोल गुंबद है। गुम्‍बदों के मध्‍य पालकी शैली के मंडप हैं। यह रनिवास  रानीमहल प्रथम एवं द्वितीय प्राँगण के मध्‍य एक लम्‍बे-चौड़े चबूतरे पर निर्मित है।

        द्वितीय प्राँगण में रंग महल तथा राजा की बैठक है। इसकी द्वितीय मंजिल का आवागमन पश्चिम दिशा की ओर परकोटा के विशाल प्राँगण में से होता था। यह सुंदर भव्‍य एवं आधुनिक अंग्रेजी शैली में निर्मित भवन है, जो महाराजा गोविंद सिंह के शासनकाल का है। इसकी सीढि़याँ, छतरीदार बैठकें छत सभी मन-मोहक एवं वैभवपूर्ण हैं। रंगमहल के बायीं ओर भव्‍य सीता महल है। इसके चारों ओर आवासीय कक्ष एवं मध्‍य में प्राँगण है। ऊपरी मुजिल के चारों कोनों पर पालकी शैली में बैठकें हैं। रंगमहल के बायीं ओर कुछ हटकर सीता महल से संलग्‍न माखन जू मंदिर हैं, जिसमें लक्ष्‍मी नारायण एवं राधाकृष्‍ण की प्रतिमाएँ हैं। माखन जू मंदिर से संलग्‍न सोलह सती कोठी है। यह द्विमंजिला था, लेकिन ऊपरी मंजिल गिर गयी है। इस महल में दलपत राव की दो रानियाँ चौदह सेविकाओं के साथ आत्‍मदाह कर मर गयी थीं। सोलह सती महल के पीछे पश्चिमी पार्श्‍व में राज्‍य का अन्‍नागार था, जो अब गिर गया है। वर्तमान में राजगढ़ (राज-निवास) परिसर, जो द्वितीय चौक में है, सुरक्षित है। रनिवास, रंगमहल, राजा की बैठक, माखन जू मंदिर दर्शनीय भव्‍य भवन हैं। महलों एवं मंदिरों में रामायण आ‍धारित चित्रकारी दर्शनीय हैं।

        दतिया नगर का नगरकोट भी था। नगरकोटसे नगर में आने-जाने के चार दरवाजे़ थे- उत्‍तरी दरवाजा़, जो रिछारा दरवाज़ा कहलाता था। उत्‍तर पूर्व दिशा को भाड़ैर दरवाज़ा था। पूर्व दिशा को झाँसी दरवाज़ा तथा पश्चिम दिशा को चूनागढ़ दरवाज़ा था, जिसे लश्‍कर दरवाज़ा भी कहते थे। परंतु नगर के विकास के साथ नगर परकोटा एवं नगर दरवाज़े लोगों ने तोड़- फोड़ डाले हैं। वर्तमान में महाराजा कृष्‍ण सिंह एवं घनश्‍याम सिंह प्रतापगढ़ किले में रहते हैं।

वीरसिंह देव महल – वीरसिंह देव महल राजपूत एवं मुगल स्‍थापत्‍य कला का अनूठा उदाहरण है। इस महल का निर्माण बुन्‍देला महाराजा बीरसिंहदेव ने सन् 1620 ई. में कराया था। इसको नृसिंह महल भी कहते हैं। इस महल के निर्माण में सिर्फ़ पत्‍थर और ईटों का ही प्रयोग किया गया है। लकड़ी तथा लोहे का प्रयोग कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। भवन योजना में ये चौकोर हैं, जिसके चारों ओर अष्‍टभुजाकार मीनारें हैं। पाँच मंजिल के इस महल में पत्‍थर की जालियों का खूबसूरती से इस्‍तेमाल किया गया है। मुख्‍य कक्ष के चारों ओर पत्‍थरों के स्‍तम्‍भों के बेहतरीन गलियारे बनवाये गये हैं। इसकी मुख्‍य विशेषता हैं कि इसके झरोखे एवं पत्‍थर की खूबसूरत जालियाँ हैं। यह महल बुन्‍देलखण्‍ड के सर्वश्रेष्‍ठ एवं संरक्षित महलों में एक है।