टीकमगढ़ की साहित्यिक परंपरा
June 13, 2024दतिया की साहित्यिक परम्पराः दो
June 13, 2024डॉ. सीता किशोरखरे, डी. लिट
दतिया का सर्व प्रथम उल्लेख वीरसिह देव चरित में मिलता है। उस समय दतिया सत्ता का केन्द्र नहीं थी। दतिया के समीप बड़ौनी को अपनी गतिविधियों का आश्रय बनाकर वीरसिंह जूदेव स्वयं संघर्ष कर रहे थे। वीरसिंह देव के पुत्र भगवानराव ने 20 अक्टूबर 1626 ई. को पृथक् दतिया राज्य की स्थापना की और बुंदेलखंड की इस गणनीय रियासत पर देश के स्वतंत्र होने तक निरंतर बुंदेला नरेशों की 10 पीढ़ियों ने शासन् किया। वीरसिंह देवने जिस साहित्यिक-परंपरा को ओरछा में पोषित किया था, उसी परम्परा को उनके पुत्र भगवान राय ने भी दतिया रियासत में पल्लवित पोषित किया।
इनके शासन् काल में रियासत का राजकाज हिन्दी-बुंदेली में होता था। डॉ. कृष्ण-लाल हंस ने “बुदेली और उसके क्षेत्रीय रूप” में जिस सन्द को बुंदेली का सबसे पुराना उपलब्ध दस्तावेज माना है। वह सन्द गुसाईं जगजीवनदास को भगवान राय के प्रधान माखन द्वारा असाढ़ वदी 1 संवत् 1626 वि. को जारी की गई थी। इस प्रकार साहित्य के विकास का यह क्रम वर्तमान तक दतिया के साथ जुड़ा हुआ है। दतिया जिले की साहित्य परम्परा को कवियों, आचार्यों, कोशकारों, इतिहास लेखकों, व्रत-कथा रचनाकारों, वैद्यक और पाक कला के जानकारों, अनुवादकों और सगुनियों ने सृजनरत रहकर समृद्ध किया।
दतिया-उद्भव और विकास के अंतर्गत श्री कामता प्रसाद सड़ैया ने इस अंचल से सम्बद्ध कवियों की सूची प्रस्तुत की है। इसमें 65 प्राचीन और 58 अर्वाचीन (1947 ई.) कवि हैं। डॉ. रामस्वरूप ढेंगुला ने अपने ऐतिहासिक अनुशीलन में शुभकरण (1640-1678) के दरबार में कृष्णदास रतन, दरयाव, हरजू, श्री निधि और छत्रसिंह, दलपतराव (1678-1707) के दरबार में शिवदास, ब्रजराज सेवा, भान, जोगीदास और भीम तथा रामचन्द्र राव (1707-1733) के दरबार में खंडन, दया और सुजानराम कवियों का उल्लेख किया है। इन्द्रजीत (1733-1762) शत्रुजीत (1762-1801), पारीछत (1801-1839) विजय बहादुर (1839-1857), भवानीसिंह (1857- 1907) और गोविंद सिंह (1907-1948) के दरबारों में भी कवियों और साहित्यकारों का सम्मान रहा है। इस समयावधि में रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा हिन्दी साहित्य को सम्पन्न बनाया है।
दतिया जिले में संस्कृत साहित्य की परम्परा रियासत के समय से रही है। मुकुन्दलाल सिंह (1903), राधालाल गोस्वामी (1904), छोटे लाल गोस्वामी (1935), कंठमणि शास्त्री तथा तैलंग श्रीकृष्ण से चलने वाली संस्कृत रचना की यह परम्परा श्री सुधाकर शास्त्री तक अनवरत है।
भाण्डेरी भाट (1640), कृष्णदास (1673), जोगीदास (1648), अक्षर अनन्य, रसनिध् (1710), कोविद मिश्र (1737), खंडन, दिग्गज, हरिकेश मित्र (1776), राय शिवप्रसाद (1869), प्रधान नवल सिंह, पदमाकर, किशुनेस (1858), ऐनसाई (1849), बाजूराय (1830), लाख (1910), कल्यान सिह कुड़रा (1914), परतीत राय लक्षमन सिंह(1920), आनंद सिंह, कुड़रा, गदाधर भट्ट, बलवीर सिंह फौजदार, चतुरेश, नबीबख्श फलक, भैयालाल व्यास, वासुदेव गोस्वामी, ब्रजेश, पथिक, कवीन्द्रहरनाथ हरिकेश, दतिया रियासत की काव्य-परम्परा के मील स्तम्भ हैं।
रासो काव्य परम्परा हिन्दी में आदिकाल से उपलब्ध है। दतिया नरेशों के शौर्य को स्वर देने वाली रासो रचनायें- दलपतराय रासो (1764) शत्रुजीत रासो (1858), पारीछत रासो (1873) बाकाट रासो (1873) भववंतसिंह रासो (1876), बाघाट समय (1876) उपलब्ध हैं, जिनका विश्लेषण “बुदेलखंड की रासो-काव्य परंपरा” के अंतर्गत डॉ. श्याम बिहारी श्रीवास्तव ने किया है।।
अक्षर अनन्य की सम्पूर्ण रचनाओं का सम्पादन श्री अंबा प्रसाद श्रीवास्तव द्वारा सम्पन्न हुआ है। अक्षर अनन्य और रसनिधि के कृतित्व को आधार बनाकर डॉ. अवध बिहारी पाठक और डॉ. श्रीमती सुधा नवल के शोध-कार्य महत्वपूर्ण हैं। दतिया की काव्य-परम्परा में बृजेश, पथिक, भैयालाल व्यास, चतुरेश, वासुदेव गोस्वामी के कृतित्व का विश्लेषण डॉ. कु. गीता गोस्वामी द्वारा सम्पन्न हुआ है।
इतिहास-लेखन की परम्परा भी दतिया में रही है। भीमसेन का तारीख-इ-दिलकशां, कलू कानूनगो- इतिहास भारत वर्ष, बिहारी भट्ट-अथ बुंदेलन की तवारीख, बलवान सिंह, चामुण्डराय दतिया राज्य का इतिहास, लाला शिवदयाल दतिया राज्य का इतिहास- इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इतिहास को सुरक्षित रखने के लिए वंशावलियाँ लिखने की परिपाटी भी दतिया रियासत में मिलती है। अहवाल पन्नी पठानन को, जोगीदास भाण्डेरी की वंशावली, इंदुरखी के गौरन की वंशावली, चौहानन की वंशावली, चंदेलन की वंशावली बुन्देलन की में इतिहास संबंधी सूचनायें अत्यंत सावधानी से सम्मिलित की गई हैं।
दतिया जिले के ग्राम्य जीवन शब्दावली ग्राम-नाम, संस्कृति गीत, भाषा, व्याकरण, काव्य-भाषा, पत्र पाण्डुलिपियां, संस्कृत साहित्य-परम्परा, चित्रकला, भित्तिचित्त, पुरा-वैभव, इतिहास, गद्य-रूप का विकास पर अनुसंधान कार्य हुए हैं।
सभा प्रकाश (1982), गुण्ड पच्चोसी (1832), नेक प्रकाश (1831), पातीनामा (1841), पिरथी की अथाउर (1830) जैसी अनेक पांडुलिपियां विश्लेषण की अपेक्षा रखती है। दतिया रियासत में साहित्य की परम्परा ओरछा की समृद्ध साहित्य परम्परा का परिणाम है और रियासतों के भारत गणराज्य में विलीनीकरण के बाद भी साहित्य का यह सिलसिला यथावत है।