छतरपुर जिले की साहित्यिक परम्परा
June 13, 2024दतिया जिले की साहित्यिक परंपरा : एक
June 13, 2024
श्री हरिविष्णु अवस्थी
बुन्देलखण्ड की धरा सदियों से भारत के ही नहीं अपितु विश्व के श्रेष्ठ साहित्यकारों को जन्म देकर गौरवान्वित हुई है। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि, “विद्याभण्डार”, महर्षि पराशर, अष्टादशपुराण एवं महाभारत के रचियता वेद व्यास जी ने इसकी भूमि (कोंच-जिला जालौन उ.प्र.) में जन्म लेकर इसे गौरवान्वित किया है। महात्मा तुलसीदास, अकबर के नवरत्नों में से महाराजा बीरबल एवं महाराजा टोडरमल भी इसी भूमि की देन हैं। रहीम की साधना स्थली भी यही (चित्रकूट) रही है।
चन्देलों के पतन पश्चात् सोलहवी सदी से, ओरछा राज्य (वर्तमान जिला टीकमगढ़ म.प्र.) बुन्देल भूमि का शक्ति पुंज या मस्तिष्क रहा है, जिसने समूचे क्षेत्र की राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परम्पराओं का विकासात्मक मार्गदर्शन किया। इस भूमि के शासक बुन्देला क्षत्रिय, जो परम शौर्य, कथनी-करनी के कायल तथा जिनका कलम और करवाल पर, समान अधिकार रहा, इस जनपद में ऐसे घुल-मिल गये थे, जैसे समीर में सौरभ। बुन्देल भूमि जिसके शासक बुन्देला, प्रजा-बुन्देलवासिनी, भाषा-बोली बुन्देली, यही सब बुन्देलखण्ड की भावात्मक एकता का सशक्त आधार रहा है।
बुन्देल भूमि में सर्व प्रथम कालिंजर नरेश राजा नंद द्वारा सन् 1018 ई. में सुल्तान महमूद गजनवी, जिसने कलिंजर पर घेरा डाल रखा था की प्रशंसा में हिन्दी छन्द की रचना का उल्लेख हमें प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। सन् 1182 ई. में महोबा के चंदेल राजा परमाल के कवि जगनिक ने आल्हा, महोबा खण्ड (परमाल रायसो) की रचना की थी, जो आज भी इस भूमि के जन-जन के कंठ में विराजमान है भले ही उसका मूल पाठ भ्रष्ट हो गया हो।
महाकवि विष्णुदास कृत महाभारत (पांडव चरित 1354 ई. में विरचित महाकाव्य) का सम्पादन पं. हरिहर नाथ जी द्विवेदी ने किया है। संदर्भित पत्रक के पृष्ठ 102 पर सधारु अग्रवाल निवासी ऐरछ द्वारा रचित “प्रद्युम्न चरित” का उल्लेख किया है। सन् 1540 ई. में अजयगढ़ वासी मदनसिंह द्वारा रचित “कृष्ण लीला” ग्रंथ का उल्लेख भी हमें मिला है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बुन्देल भूमि में हिन्दी साहित्य का सृजन दशमी शताब्दी से ही किसी न किसी रूप में प्रारंभ हो गया था।
महाराजा भारतीचंद (1531-54 ई.) ओरछा-राज्य (जिला टीकमगढ़) ने अपने राज्य की राजधानी सन् 1530 ई. में कुड़ार से स्थानान्तरित कर ओरछा में बनाई। ओरछा राजधानी बनते ही हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि का शुभारंभ हुआ। भारतीचंद जी के दरबार में पं. हरिराम जी व्यास ने, व्यासवाणी रागमाला, व्यासीवाणी के सिद्धान्त, इसके पद, व्यास पदावली, रास पंचाध्यायी साखी, चौरासी नभरत्नम् ब्रह्मज्ञान, मंगलाचारपद ग्रंथों की रचना की। खेमराज ब्राम्हण ने प्रताप-हजारा, मंशाराम सिद्ध ने गुप्त भेद, सरोदय, युद्ध-विजयं, अजपायोग, आवागमन मिटाउनी, कृपाराम ने हित तरंगनी (रीति काव्य ग्रंथ) तथा गुलोव कायस्थ ने शेर वध ग्रंथों की रचना की।
महाराजा मधुकर शाह (1554-92 ई.) स्वयं एक अच्छे कवि थे। इनके राज्य में काशी नाथ मिश्र ने शीघ्र-बोध, बलभद्र मिश्र ने नख-शिख, बलभद्री व्याकरण, गोवर्धन-सतसई, भागवत-भाष्य, भागवत पुराण, हनुमन् नाटक टीका एवं दूषण विचार, गनेश मिश्र ने विक्रम बिलास, कछौ आ-पिछौर के जागीरदार महाराजा इन्द्रजीत सिंह जो “धीरज नरिन्द्र” नाम से कविता करते थे ने भर्तहरिकृत वैराग्यशतक का पद्यानुवाद, मोहनदास मिश्र ने रामाश्वमेध, भाव चंद्रिका, कृष्ण चंद्रिका, भागवत दशम स्कंध भाषा, कल्याणदास मिश्र ने अमर कोष भाषा, होरल देव ने प्रीति यज्ञ, सुकदेव व्यास ने ब्रजमहात्म्य, ओरछा वर्णन, बनवारी कायस्थ ने कर्म कसौटी, मलके छिपी ने मधुकर माला, परम कचेरे ने जगदीश शतक, बेतवा महात्म्य, कवयित्री तीनतरंग ने संगीत अखाड़ा, बिलोचनैना ने कोकशास्त्र, मधुरअली ने रामचरित, गनेश देवमाला, ग्रंथों की रचना की। इनके अतिरिक्त कपूर मिश्र, केहरी कवि एवं कपूर साहब नामक कवियों की इस काल में रची गई स्फुट कविताएँ भी मिली हैं।
महाराजा रामशाह (1592-1605) स्वयं कवि थे। इनके राज्यकाल में गदाधर भट्ट ने बानी तथा ध्यानलीला, जनखण्डन ने रामचरित ग्रंथ की रचना की। गुलाब कवि ने स्फुट छंदो की रचना की।
महाराजा वीरसिंह देव (प्रथम) (1605-1627 ई.) का राज्यकाल तो हिन्दी साहित्य की समृद्धि की दृष्टि से स्वर्णकाल कहा जा सकता है। आचार्य केशवदास ने पांडित्य पूर्ण लक्षण ग्रंथों एवं ऐतिहासिक ग्रंथों की रचना कर हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपना अति विशिष्ट स्थान बनाया वे तो हिन्दी साहित्य के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। इनके भाई बलभद्र ने गोवर्धन सतसई, बलभद्र के पत्र बालकृष्ण ने पिंगल ग्रंथ रसचन्द्रिका, बलभद्र कायस्थ ने अबुल फजल विजय, मतंग कवि ने विरसिंग विजय, मित्र मिश्र ने बीर-मित्रोदय, आनन्द कंद चम्पू, याज्ञवल्क्य स्मृति, गणित ज्योतिष, वीर मित्रोदय, पीताम्बर, स्वामी ने वानी, खेमदास बुन्देलखण्डी ने सुख-सम्वाद, शेख नबी ने ज्ञानदीप (आख्यानकाव्य) ग्रंथ की रचना की। राय प्रवीण, चतुर्भुज कवि, मतिराम, सुनार अमरेश, शिवलाल मिश्र, परमेशवन्दीजन, रतनेस कवि द्वारा रचित स्फुट छंदों का उल्लेख भी संदर्भित ग्रंथों में मिलता है।
महाराजा जुझारसिंह (1627-34 ई.) एवं महाराजा देवीसिंह (1634-36 ई.) का राज्य काल तो अराजकता का काल रहा है। इसके बावजूद भी इस काल में महाराजा देवी सिंह ने देवी विलास, नृसिंह लीला, रहसलीला ग्रंथ, अग्रदास स्वामी ने कुंडलियाँ, रतनेस बुन्देला, मोहन कायस्थ ने स्फुट छंद तथा बिहारी दास मिश्र ने सतसई ग्रंथ की रचना की।
महाराजा पहाड़सिंह (1641-53 ई.) के दरबारी कवि गोविन्द ने पहाड़ सिंह चरित्र, सुखदेव जैन ने बनिकन बोधिनी- बनिक प्रिया, अक्षर अनन्य ने प्रेम प्रदीपिका आदि अनेक ग्रंथ, रसिक देव ने, बानी प्रसाद, लता पूजा बिलास, माधुर्यलता, रतिरंगलता, आनंदलता, रत्नलता, रहसिलता, विलासलता, सौभाग्यलता आदि बत्तीस ग्रंथ, मार्गमंडल, “मंडनमिश्र ने, रस रत्नावली, रसवि लास, जनक पचीसी, जानकी जू को विवाह, नन पचासा, पुरंदरमाया ग्रंथों की रचना की। इन रचनाकारों के अतिरिक्त राघवदास कायस्थ, चिन्तामणि संगीतज्ञ, शिवलाल मिश्र, सुवन्सराय मतिराम ने स्फुट छंदों की रचना कर सरस्वती के भण्डार में वृद्धि की।
महाराजा सुजानसिंह (1653-72ई.) के शासन् काल में राम जू कवि ने बिहारी सतसई पर अनुक्रमणिका प्रवीन कविराय ने हजारा, मेघराज प्रधान ने मृगावती कथा, मकरध्वज की कथा, सिंघासन् बत्तीसी, राधाकृष्ण जू को झगरो, बंशी कायस्थ ने सजन-बहोरा, सुदर्शन कायस्थ ने सुजान विजय, भैषज-प्रिया, चिकित्सा दर्पण, उद्योत कवि ने अनेकार्थ मंजरी, परबते सुनार ने, दशावतारकथा, रामरहस कलेवा, पुरुषोत्तम कवि ने, राज-विवेक ग्रंथों की रचना की।
महाराजा इन्द्रमणि (1672-75 ई.) स्वयं कवि थे तथा उनकी महारानी अमरकुंवरि भी कवयित्री थी। राजकवि विष्णुदास ने मकरध्वज चरित, स्वर्गारोहिणी, भूगोलपुराण, एकादशी माहात्म्य ग्रंथों की रचना की। सुदर्शन कवि ने स्फुट पद्य रचे ।
महाराजा जसवंत सिंह (यशवंत सिंह 1675-1684 ई.) ने स्वयं जसवंत भास्कर ग्रंथ की रचना की। इनकी महारानी चन्द्रवती ने भी स्फुट छंद रचना की। बैकुंठमणि शुक्ल ने बैशाख महात्म्य, अगहन महात्म्य ग्रंथ, रघुराम कायस्थ ने कृष्ण-मोदिका ग्रंथ रचा।
महाराजा भगवंत सिंह (1684-89 ई.) के राज्यकाल में सुकदेव ने अध्यात्म प्रकाश ग्रंथ तथा रघुनाथ कायस्थ ने स्फुट छंदों की रचना की।
महाराजा उद्योत सिंह (1689-1736 ई.) एवं उनकी महारानी दोनों ही स्फुट छंदों की रचना करते थे। इनके दरबार में कवियों को संख्या एक शत से कम नहीं थी ।। धनराम कायस्थ ने लीलावती, चन्द्रमणि, “कोविद मिश्र ने नायिका भेद, मुहूर्त दर्पण, राजभूषण,भाषा हितोपदेश, रतन कवि ने बुद्धिचातुरी विचार, रस मंजरी, चूक विवेक, विष्णुपद, कृष्ण कवि सनाढ्य ने धर्म संवाद, विदुनर प्रजागर, मोहन दास मिश्र, “शाह जूं पंडित” ने बुन्देल वंशावली, लक्ष्मण सिंह, प्रकाश, गोपाल सिंह बुन्देलखण्डी ने राग रत्नावली, खेमदास ने रास-दीपिका, नायिका दीपक, केशवराय ने गनेश कथा, रामसखे ने बानी, कुन्दन कवि बुन्देलखंडी ने नायिका भेद, वंशीधर कायस्थ ने हितोपदेश, मित्रमिलाप, चरनदास कायस्थ ने भक्ति पदारथ, नंददास ने श्री लाल बावा द्वारा शिकोह की गोष्ट ग्रंथों की रचना की। ब्रजेश कवि बुन्देलखण्डी रूप नारायण मिश्र एवं पुंडरीक भावे की स्फुट रचनाओं का उल्लेख भी संदर्भ ग्रंथों में है।
महाराजा पृथ्वीसिंह (1736-53) का राज्यकाल यद्यपि मराठों के आक्रमणों से जूझ रहा था, किन्तु विषम परिस्थितियों के होते हुए भी साहित्य सृजन में किसी प्रकार का व्यवधान पृथ्वीसिंह ने नहीं आने दिया। पंचम सिंह कायस्थ ने, नौरत की कथा, ललित मोहनीदास ने ललितप्रकाश, मोहन दास ने 106 पदों की वानी, गोपाल भाट “गोप कवि” ने रामालंकार, रामभूषण, रामचन्द्राभरण, अलंकार चंद्रिका, हरिसेवक मिश्र ने कामरूप कथा, हनुमान स्तुति ग्रंथ, कालरूप कथा, सारंग ने वानी, दिग्गज कवि ने भारत-विलास, भारत शाह बिजना ने ऊपा- अनिरुद्ध, हनुमान विरुदावली ग्रंथों की रचना की।
श्रीमहाराजा सांमत सिंह (1753-65) की महारानी मोहनकुंवरि एक अच्छी कवयित्री थी। इनके राज्यकाल में बल्लभकवि ने लग्न मंजरी, बिहारी कायस्थ ने हरदौल चरित्र, दम्पत्ति ध्यानमंजरी, सुखराम ने ईद विजय ग्रंथ, देवीदास जैन ने परमानंद विलास, प्रवचन सार, चिद्-विलास, बचनिका, चौबीसी पाठ, नवग्रह, शिखर-विधान, प्रबोध चन्द्रसार ग्रंथ रचे तथा ब्रजराज एवं काशीराम प्रधान ने स्फुट छंदों की रचना की।
महाराजा हरी सिंह (1765-67 ई.), महाराजा पजन सिंह (1767-72ई.), महाराजा मानसिंह (1772-75 ई.) महाराजा भारती चंद (द्वितीय) (1775-76) के इस दस वर्षीय शासन् काल में महाराजा भारती चंद ने रस-श्रंगार ग्रंथ की रचना की। दूलहराय ने श्रीमद्भगवत गीता का पद्यानुवाद तथा मान कवि, मेघराज प्रधान, कन्हैयालाल ने स्फुट छंदों की रचना की। महाराजा विक्रमाजीत सिंह (1776-81 ई.) को मराठों के उत्पीड़न एवं लूट-खसोट के कारण ओरछा का त्याग कर टेहरी (टीकमगढ़) को अपनी राजधानी बनाना पड़ा था। इन विषम स्थितियों में भी साहित्य सृजन उनका सम्बल रहा। उन्होंने भारत संगीत, लघुसतसई, पदरागमालावली, माधव-लीला, विष्णु पद हरिभक्त विलास, विक्रम सतसई एवं विक्रम विरुदावली ग्रंथों की रचना की ।
नील सखी ने 110 पदों की बानी, ठाकुर कवि कायस्थ ने ठाकुरठसक, चेनदास ने रसविलास, कविमान ने लक्ष्मण शतक, अमर प्रकाश, नीति विधान, नृसिंह चरित्र, राधा जी को नखशिख, हनुमत पचीसी, हनुमत नखशिख, रामचन्द्र जी को नखशिख, समर-सार, गंगा प्रयाणाष्टक, छत्रसाल मिश्र ने सगुन-परीक्षा, स्वप्न परीक्षा, औषधसार, कुंज कुंवर कुंजदास ने ऊषा चरित, भगवत रसिक कोष, भोज राज ने रसिक विलास, उपवन- विनोद, भोज भूषण, जन्न गोपाल ने समर सार, बारहमासा, चेतराम ने प्रहलाद चरित, लाल मणि दीवान ने रस प्रकाश, केशवराय कायस्थ ने गणेश कथा ग्रंथों की रचना की। सुरूप सिंह, पजनसिंह, गणेश पाठक, किशोरदास चौबे, भूपति सिंह, सर्वसुख, प्राणसुख, प्रधान आदि कवियों ने स्फुट छंदों की रचना की।
महाराजा धर्मपाल सिंह (1817-1834 ई.) के राज्यकाल में शिवराम भाट ने प्रताप पचीसी, विक्रम-विलास, प्रेम सखि ने नरशिख मोहनदास “जगमोहन” ने सनेह लीला गंगादीन कायस्थ ने शिवपुराण का भाषानुवाद किया।
महाराजा तेजसिंह (1834-41 ई.) के शासन् काल में उनके राजगुरु विन्द्रावन देव तैलंग दाउजू ने राज जन रंजन विधान नामक चिकित्सा ग्रंथ की रचना की। संगराय प्रवीण ने रस दीपक, लछमन प्रधान तथा कूरे ठाकुर ने स्फुट छंद रचे ।
महाराजा सुजानसिंह द्वितीय (1841-54 ई.) के राज्यकाल में धीरजसिंह कायस्थ ने गणित चन्द्रिका, दस्तूर-चिन्तामणि, दफ्तर मोद तरंग, लाला जानकी दास “हरिजन” कायस्थ ने कवि प्रिया टीका, तुलसी चिन्तामणि, व्याधिहरण, सुखलाल भाट ने दस्तूर अमल, नसीहतनामा, राधा-कृष्ण कटाक्ष, श्री हर प्रसाद कायस्थ ने रसकौमुदी, हिसाब (गणित) तथा श्री नवल सिंह प्रधान ने 31 ग्रंथों की रचना की। स्फुट रचनाकारों में किशोरदास महंत, मेघराज प्रधान, सुदर्शन वैद्य के नाम उल्लेखनीय हैं।
महाराजा हम्मीर सिंह (1854-74 ई.) ने स्वयं रससिक्त पदों की रचना की। लाला प्रतीतराय लक्ष्मण सिंह (जिन्होंने टीकमगढ़ में प्रतीत राय) परतीत राय हनुमान चालीसा मंदिर का निर्माण कराया था ने राज-भूषण, दामोदर देव ने रस सरोज, बलभद्र शतक, उपदेश अष्टक, बलभद्र पचीसी, वृन्दावन चंद ने नख-शिख ध्यान मंजूषा, मदनसिंह कायस्थ ने मदन वाटिका, प्रश्न मुद्रिका, मदन प्रताप शालिहोत्र, हम्मीर प्रकाश पुगरसों की बात, शिवलाल कायस्थ ने अन्नपूर्णा स्तुति, नीति श्रंगार मंजरी, केशवदास ने मुहूर्त- प्रदीप गणित सार, खनियाधाना नरेश छत्रसिंह ने मोहन नाम पचीसी ग्रंथों की रचना की। गंगा प्रसाद त्रिवेदी, दुर्गा प्रसाद कायस्थ, रामचन्द्र मिश्र, सदासुख चौबे, हंसराज कायस्थ ने भी स्फुट छंदों की रचना की।
महाराजा प्रताप सिंह (1874-1930 ई.) यद्यपि स्वयं तो विशेष पढ़े-लिखे नहीं थे किन्तु भारत धर्म महामण्डल बनारस के स्वामी ज्ञानानंद जी से योग की शिक्षा प्राप्त करने के साथ ही साथ वेदान्त पर स्वामी जी के प्रवचन भी सुना करते थे। शास्त्रार्थ में इनकी विशेष रुचि थी। बहु श्रुत होने के कारण उन्हें प्रत्येक विषय का अच्छा ज्ञान था तथा उन्हें साहित्य के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो गया था। उनकी महारानी वृषभान कुंवरि ने “राम प्रिया सहचरी” उपनाम से श्रीमद्-रामचन्द्र माधुर्य, लीलामृत सार, विनोद लहरी, मिथला जी की बधाई होरी-रहस्य, वृषभान विनोद, पावस ग्रंथों एवं स्फुट पद्यों की रचना की।
पं. जयदेव भट्टाचार्य ने दुर्गासप्तशती की टीका, पं. पीताम्बर भट्ट “रमाधर” ने शुक्रनीति का हिन्दी भाष्य, श्री रामचरण लाल वर्मा ने महेन्द्र प्रकाश, लाला जुगलकिशोर “शिवदास” ने महेन्द्र सेवा सुयश, रामदीन सुन्दर ने विजय पलेरा समर, श्री गमनेत राय सा. ने बुन्देल वंश-वर्णन, बुन्देला राज्य की समालोचना, इतिहास ओरछा आदि अनेक ग्रंथ, लाला परमानंद प्रधान ने प्रमोद रामायण, मानस चंद्रिका, नीति मुक्तावली, प्रताप नीति दर्पण, राजनीति मंजरी, मंजु रामायण, रामायण मानस तरंगिनी, राज्य भृत्य-प्रकाश आदि 31 ग्रंथ, डॉ. भवानीसिंह “भगवंत” ने प्रेमावली, श्री श्रीप्रसाद सिपाहा ने भगवतंसिह चरित्र महाभारत के ग्यारहवें स्कंध का पद्यानुवाद, कृष्ण चरित्र, श्री मुकुन्द लाल सिरवैया ने शिव माहात्म्य सार, कुण्डेश्वर पचीसी, पन्ना की पताका, पलेरा समर, लाला ठाकुरप्रसाद ने प्रश्न चंद्रिका, माधव-विलास, भासेंदु-रश्मि, गिरजाप्रसाद कायस्थ ने मणि दीप मंजरी, गंगांधर भट्ट ने प्रताप मार्तंड, व्यवहार कौस्तुभ, रत्न परीक्षा रामदयाल खैरा ने अष्टांग योग प्रवीण राय ने सिरोदय उपवन विनोद, ओरछा का इतिहास, पलेरा समर आदि 15 ग्रंथ रचे।
प्रयागी लाल दुबे, बल्लभदास, किशोरदास, बुद्धसिंह ठाकुर, पजनसिंह, गिरजा प्रसाद बख्शी (लाला रामसेवक) लच्छीराम, कुमार कवि, विष्णुसिंह, लक्ष्मन सिंह कायस्थ (रससिद्ध बुन्देली के कवि एवं लेखक) गिरजा प्रसाद ने स्फुट पदों की रचना की। मिश्र बन्धु पं. श्याम बिहारी जी मिश्र, महा. प्रताप सिंह के अंतिम राज्यकाल में सन् 20 से 30 तक मंत्री के रूप में यहाँ कार्यरत रहे।
महाराजा प्रतापसिंह ने राज्य में प्रताप प्रभाकर स्टेट प्रेस की स्थापना कराकर 50 से अधिक ग्रंथों का प्रकाशन कराया जिनमें महाकवि केशव दास कृत वीरसिंह चरित्र, प्रेमावली, अनेकार्थ मंजरी, मंजुरामायण, महेन्द्र सेवासुयश आदि मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त वीरसिंह चरित्र को अंग्रेजी टीका सहित प्रकाशित कराया।
महाराजा वीर सिंह देव द्वितीय (1930-56) तीन मार्च 1930 को महाराजा वीर सिंह देव द्वितीय का राज्यभिषेक हुआ था। सिंहासनारुढ़ होते ही उर्दू के स्थान पर राज्य भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य किया गया। जहाँ तक मुझे जानकारी है ओरछा राज्य में देश में सर्व प्रथम हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्थापित किया गया था। 15 अप्रैल 30 को श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद की स्थापना हिन्दी की साहित्यिक गतिविधियों को संचालित करने तथा तत्कालीन साहित्यकारों को मंच प्रदान करने की दृष्टि से की गई। इसके साथ ही वीरेन्द्र पुस्तकालय एवं सुधा वाचनालय भी स्थापित हुए।
देवेन्द्र साहित्य विद्यालय की स्थापना की जाकर उसमें हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा आयोजित प्रथमा एवं मध्यमा परीक्षाओं के लिए छात्रों को शिक्षा देने की व्यवस्था की गई। यह सब व्यवस्थायें हो जाने पर साहित्य कारों की रचनाओं के प्रकाशन हेतु सवाई महेन्द्र हाई स्कूल टीकमगढ़ से वीरेन्द्र लिटरेरी एसोसियेशन के माध्यम से वीर बुन्देल “मासिक का माह नवम्बर 1932 से प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो निरंतर अप्रैल 36 तक होता रहा। सन् 1937 में राष्ट्रीय पुस्तकालय की स्थापना की गई।
सम्वत् 1990 में द्विवेदी (आचार्य महावीर प्रसाद जी) अभिनंदन उत्सव के सभापति आसन् से काशी में महाराज ने 2000 रु. वार्षिक साहित्य सेवा के लिए राज्य की ओर से देने की घोषणा की थी। इसी घोषणा को मूर्त स्वरूप देने हेतु कुण्डेश्वर (टीकमगढ़) में दि. 20 जनवरी 1934 को श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद टीकमगढ़ के माध्यम से रु. 2000/- वार्षिक देव पुरस्कार की घोषणा की गई। अक्टूबर 40 से पं. बनारसीदास जी चतुर्वेदी के सम्पादन में मधुकर “पाक्षिक का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो निरंतर जुलाई 46 तक चला। इसके अतिरिक्त श्री कृष्णानंद जी गुप्त के सम्पादन में “लोकवार्ता” त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। ज्ञातव्य है कि इन सभी पत्रों (वीर बुन्देल, मधुकर, लोकवार्ता) में समकालीन भारत के श्रेष्ठ विद्वानों, साहित्यकारों के लेख एवं कवितायें समय-समय पर प्रकाशित हुईं।
महाराजा वीर सिंह जूदेव स्वयं अच्छे रचनाकार थे कभी वह देव नाम से, कभी फक्कड़ नाम से अथवा अज्ञात नाम से रचनायें लिखते रहे। जिनका प्रकाशन भी हुआ। उन्होंने हाकी खेल पर एक ग्रंथ की रचना की थी। मुंशी अजमेरी जी इनके राज्य कवि थे जिन्होंने मधुकरशाह, गोकुल दास, हेमलासत्ता, भालूराम-धालूराम सम्वाद, प्रेम पराग आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। बिहारी लाल ने वैराग्यबानी, वीर बानी, मथुरागमन, ब्रजेश कवि ने काली की स्तुति, अम्बिका प्रसाद भट्ट “अम्बिकेश” ने ज्योति, अब्दुल रहमान मंजर ने गरीबों की दुनियां एवं दो बटा तीन (2/3) लक्ष्मीनारायण पथिक ने सदाचार, सुमन-संचय, पं. चन्द्र बल्लभ जी शास्त्री महामहोपाध्याय के पुत्र श्री शोभाचंद्र जोशी ने सप्तर्षिलोक, एकलव्य, स्टीपिन के उपन्यास” दी रायल गेज” का अनुवाद शतरंज के खेल शीर्षक से किया था, बुद्धिहीन उपन्यास फ्रांसिसी लेखक जोसिफ फूसे के प्रसिद्ध उपन्यास का हिन्दी अनुवाद किया तथा संभवामि युगे-युगे रचना जो उस समय विशाल भारत में प्रकाशित हुई थी। पौराणिक आख्यानों को वर्तमान नये संदर्भों में प्रस्तुत करने पर तत्कालीन आलोचक श्री शिवदान सिंह चौहान द्वारा श्री जोशी के गद्य लेखन को प्रथम स्थान दिया गया था।
श्री अम्बिका प्रसाद “दिव्य ने दिव्य दोहावली, पिपासा, पावस, मनोवेदना, निमिया आदि ग्रंथों की, सुधाकर जी शुक्ल ने शब्द सुधाकर आदि, श्री लोकनाथ सिलाकारी ने वीर हरदौल, गौरीशंकर द्विवेदी “शंकर” ने सुकवि-सरोज, बुन्देल वैभव आदि, श्री चन्द्रदत्त पाण्डेय ने ब्लेक सीरीज के अनेक उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद, पं. बालकृष्ण देव तैलंग “बलवंत” ने ज्योतिष, लाहवी विजय-पताका, उपदेश परिजात आदि की, थी रामाधीन लाल खरे ने और ओरछा के राम राजा, धर्मवीर हरदौल, वीरसिंह दान संग्रह आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। पंचम सिंह ने पीतपट पचासा ग्रंथ की रचना की।
देवेन्द्र सिंह जूदेव (1956-1979 ई.) श्री साहित्यानुरागी थे। इन्होंने वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड, तथा कादम्बरी के कथामुख की टीका कर उन्हें प्रकाशित कराया। कुछ मन पसंद भोज्य पदार्थ ग्रंथ की रचना की। प्राचीन ग्रंथ नौरता की कथा एवं रामरत्नावली का प्रकाशन कराया।
मधुकरशाह जूदेव (1979 – वर्तमान) अपनी कुल परम्परा का भली-भांति निर्वाह कर रहे हैं। पं. बनारसी दास जी चतुर्वेदी द्वारा स्वर्गीय महाराजा बीर सिंह जूदेव पर प्रकाशित कृति के प्रकाशन हेतु आपने भरपूर सहयोग दिया। साहित्यिक गतिविधियों से आप जुड़े हुए हैं।
सन् 1948 में राज्य सत्ता समाप्त होने पर साहित्यिक गतिविधियों में शून्यता की स्थिति निर्मित होती कि इसके पूर्व ही नगर के परम मनीषी, मूर्धन्य साहित्यकार जो 14-15 वर्षों तक निरंतर पं. बनारसी दास जी चतुर्वेदी के सान्निध्य में रहे, पं. कृष्ण किशोर जी द्विवेदी के मार्ग-दर्शन में साहित्य सृजन का कार्य निरंतर होता रहा है।
आजादी के युग में आचार्य दुर्गाचरण जी शुक्ल एवं डॉ. के. पी. द्विवेदी ने बुन्देली एक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन ग्रंथ लिखा। डॉ. द्विवेदी जी बुन्देली शब्द कोष के कार्य को निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं। जिसका प्रकाशन डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर की ईसुरी पीठ द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली “ईसुरी” पत्रिका में हो रहा है। डॉ. गंगा प्रसाद गुप्त बरसैयां ने मानस मनीषा का कुशल सम्पादन, अज्ञात रचनाकारों के खोज विवरण, डॉ. के. पी. त्रिपाठी ने बुन्देलखण्ड का वृहद इतिहास, श्री हरगोविन्द त्रिपाठी पुष्प प्रधान सम्पादक ओरछा टाइम्स टीकमगढ़ ने विरहणी, तुलसीदल एवं स्वर्गीय गोपाल सिंह जी नेपाली की स्मृति में बुन्देल वाणी ग्रंथ का सम्पादन किया।
पं. रामदेव मिश्र ने सीमा-समर, स्व. लक्ष्मीचंद नुना ने बुन्देली व्याकरण, बुनियादी शब्दकोष, श्री सुरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ने और सूर्य अस्त हो गया, रतिभान तिवारी “कंज” ने गाँव के गलियारे, स्व. मुंशी अजमेरी जी के पौत्र श्री गुणसागर सत्यार्थी ने मेघदूत का बुन्देली में पद्यानुवाद पं. देवकी नंदन मिश्र “नंदन” ने रैदास, कराह, कोकिला, प्रिया, विविधा आदि 35 ग्रंथ, पं. वासुदेव जी गोस्वामी दतिया के पुत्र श्री प्रभुदयाल जी गोस्वामी ने खलिहान की रात, जंगल में मंगल, भादों के घेरे में स्वयं-संधान आदि अनेक ग्रंथ, श्री जगदीश परमार ने सुदामा चरित्र, श्री श्यामलाल साहू ने स्वतंत्रता का इतिहास, श्री भैयालाल शर्मा ने चम्पा, श्री बद्री नाथ श्रीवास्तव ने विन्दा और उसका बेटा, उमाशंकर श्रीवास्तव “उमेश” ने राय प्रवीण, श्री मंगल सिंह गौर ने फागमन रमण, माता की पुकार, दीवाने आदि, श्री श्यामशरणसिंह जूदेव “श्याम” ने हरि उत्सव, गीतावली, जुगल मंजरी, श्रीमती छाया श्रीवास्तव ने परित्यक्ता तापसी खण्डकाव्य, श्री लक्ष्मणसिंह ने ओरछा का इतिहास, श्री डी. पी. खरे ने “बदला” और अभिशाप उपन्यासों तथा श्री यदुकुलनन्दन खरे ने रोटी और भूख, पागल, करम, अभागा आदि दस उपन्यास, श्री विजय कुमार जैन ने वर्णी जी की मधुर कहानी, श्री कैलाश मड़वैया ने बुन्देलखण्ड का विस्मृत वैभव आंदि ग्रंथों की रचना कर हिन्दी साहित्य के भण्डार को भरा है।
पं. श्याम नारायण कश्मीरी, प्रो. कृष्ण कुमार, श्री कपिल देव तेलंग, श्री पी. एस. रुसिया, श्री पी. एन. खरे, हरि विष्णु अवस्थी, डॉ. के. एल. जैन, डॉ. अवध किशोर मिश्रा, डॉ. दुर्गेश दीक्षित, डॉ. कालीचरण स्नेही, डॉ. शोभना जैन, डॉ. सुधा वैस, डॉ. विष्णु मिश्रा साहित्य साधना में लीन है। श्री जानकीप्रसाद जी गिरजेश, श्रीमती शिवकली रुसिया, भगवानदास श्रीवास्तव, मुरलीधर श्रीवास्तव “भारत” डी. पी. खरे, कोमल, कल्याण, प्रभुदयाल मिश्रा, कन्हैया लाल विन्दु, स्वामी प्रसाद पस्तोर, गजराज सिंह निर्भीक, गणेश प्रसाद दुबे, कृपाराम ” अचानक”, एन.डी. सोनी, वीरेन्द्र बहादुर खरे, निहाल चंद जैन, बी. एल. जैन, रामसहाय नागरिक, रामस्वरूप दीक्षित, गुरुवचन सिंह, विक्रम देव तैलंग, श्रीमती विजया तैलंग, कपूर चंद वंशल, प्रेम चन्द्र जैन, गौरी शंकर नायक, लक्ष्मी नारायण शर्मा, “पागल”, घासीराम यादव, डी. डी. श्रीवास्तव, घनश्याम देव तैलंग, मनोहर लाल मिश्रा, मुन्ना लाल मिश्रा, मुरलीधर नामदेव, राधाबल्लभ खरे, सुभाष सिंघई, देशबन्धु, शिवसहाय दीक्षित, रामगोपाल चतुर्वेदी, कन्हैया लाल नुना, सुधा रावत “क्षमा” जगन्नाथ प्रसाद सुमन, पंचम लाल अहिरवार, रमाशंकर सक्सेना, परशुराम विश्वकर्मा, वारे लाल जैन, अजित श्रीवास्तव, रमेश श्रीवास्तव, प्रभुदयाल खरे, आर. के. गुप्ता, उदयभान नापित, किशोर श्रीवास्तव, अशोक खरे, आर. के. पुरोहित, एन. के. खरे, हरिराम तिवारी, हरिश्चन्द्र जैन “पुष्प”, रामस्वरूप पाण्डे, राजेन्द्र मिश्रा, प्रदीप त्रिपाठी, “इन्दु”, संजय यादव तथा अरविन्द्र शर्मा साहित्य सृजन कर रहे हैं।
स्व. राम सहाय चतुर्वेदी, स्व. ज्ञानदेव तैलंग, स्व. सरदार सिंह, स्व. वीरेन्द्र कुमार शर्मा मृत्यु पर्यन्त साहित्य सेवा में लगे रहे। स्व. विजय तैलंग जो अपनी तरुणाई की देहलीज पर आते-आते अपने काव्य की एक अमिट छाप छोड़ गये हैं, की साहित्यिक सेवा को विस्मृत नहीं किया जा सकता।