
बुंदेलखंड के विश्वकोश में आयुर्वेद एवं देशी चिकित्सा को शामिल करने विमर्श
April 2, 2024
टीकमगढ़ की साहित्यिक परंपरा
June 13, 2024श्री श्रीनिवास शुक्ल
छतरपुर जिले की साहित्यिक परम्परा का आकलन करने के पूर्व छतरपुर जिला के अस्तित्वकाल और स्वरूप पर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक है। भारतीय स्वातन्त्र्य के पश्चात् भारत के यशस्वी गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा भारत में देशी रियासतों के विलय का अनुष्ठान सन् 1948 में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। उसी तारतम्य में बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड की विभिन्न रियासतों का सम्विलयन होकर दिनांक 18 मार्च सन् 1948 को विन्ध्य प्रदेश का गठन हुआ। इसके अन्तर्गत छतरपुर जिला की औपचारिक एवं प्रशासनिक मान्यता दिनांक 1 अप्रैल सन् 1948 को हुई।
छतरपुर जिला का रुपांतरण जिन छोटी-बड़ी रियासतों को मिलाकर हुआ उनमें छतरपुर, बिजावर, अलीपुरा, गरौली, गौरिहार, लुगासी रियासतें हैं और रियासत चरखारी एवं रियासत पन्ना का कुछ भू-भाग है। छतरपुर जिला में बिजावर, नौगाँव, लवपुरी (लौडी), गौरिहार, राजनगर और छतरपुर ये छः तहसीलें हैं। लौंड़ी, गोरिहार, नौगाँव, ईसानगर, बिजावर, बड़ामलहरा, वकस्वाहा और राजनगर ये आठ विकास खण्ड है।
छतरपुर जिला का भू भाग जिस बुन्देलखण्ड का अंग है उसकी प्राचीनता के चिन्ह ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक स्त्रोतों में प्रच्छन्न रूप में उपलब्ध हैं। पूर्व दिशा में केन नदी और पश्चिम में धसान नदी के बीच में अवस्थित है छतरपुर जिला और केन (शुक्ति मती) एवं धसान (दशार्ण), नदियों का उल्लेख पुराणों में है। विभिन्न, काल-खण्डों में दशार्ण ब्रज, जेजाक भुक्ति, जुझारखण्ड, जुझौति, विन्ध्येलखण्ड आदिक संज्ञाधारी बुन्देलखण्ड महाभारत काल में चेदि-राज्य के रूप में लक्षित होता है।
केन की तटीय नगरी शुक्तिमती चेदि राज्य की राजधानी थी। महाभारत के वन पर्व में इसका उल्लेख है। चेदिराज शिशुपाल महाभारत का सुपरिचित नाम है। छठवीं-सातवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध तक इस क्षेत्र पर नागवंशीय, गुप्तवंशीय, परिहारों, चन्देलों ने शासन् किया जिनमें हर्षवर्धन, यशोवर्मन, कीर्तिवर्मन, परमर्दिवर्मन, धंग इत्यादि प्रतापी शासकों के नाम उल्लेखनीय है। इस क्षेत्र से छतरपुर के भू-भाग का अदूर-सुदूर संसर्ग-संबंध भले ही जुड़ता हो किन्तु छतरपुर की सुस्पष्ट पहचान छत्रसाल के समय में ही मूर्त हुई है।
छतरपुर छत्रसाल द्वारा बसाया गया अथवा छत्रसाल के नाम पर छतरपुर बसाया गया है यह चर्चा अथवा विवाद इस स्थल पर अप्रासंगिक है। छतरपुर के भू-भाग की प्राचीनता तो प्रायः निर्विवाद रूप से स्थापित है। केवल इसके शासनिक प्रशासनिक आकार-प्रकार, रूप-स्वरूप और उसकी पहचान की परिधि को ध्यान में रखते हुए यहाँ की साहित्यिक परम्परा का यह परिचय मात्र है।
छतरपुर की साहित्यिक परम्परा में भी वीर गाथा-काव्य, भक्ति-काव्य, रीति-काव्य और लोक काव्य के स्वर मिलते हैं किन्तु इस समूचे काव्य-प्रवाह को उपर्युक्त धाराओं में विभाजित करना अधिक परिश्रम-साध्य और समय-साध्य कार्य है जो स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। यहाँ सरसरी दृष्टि से उसका परिचय देना अभिप्रेत है। छतरपुर की साहित्यिक परम्परा के बीज तो छत्रसाल-काल के पूर्व भी विद्यमान थे जो अन्तः सलिला सरस्वती की भांति शोधापेक्षी है किन्तु गंगा-यमुना की प्रत्यक्ष धारा के समान इसका स्पर्श हम छत्रसाल-काल से करते हैं।
यह तो इतिहास सिद्ध है कि छत्रसाल जिस प्रकार शौर्य-पराक्रम से परिपूर्ण तेजस्वी व्यक्तित्व थे उसी प्रकार एक भक्त-हृदय, संवेदनशील यशस्वी कवि भी थे। उनका जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 3 भृगुवार सम्वत् 1706 तदनुसार चार मई सन् 1649 को ककर-केच नये ग्राम के निकट मोर पहाड़ी के अंचल में हुआ था। अपने पिता वीर चम्पतराय की अवशिष्ट जागीर महेबा (छतरपुर) को आश्रय मानकर उन्होंने अपनी मातृभूमि और बुन्देलखण्ड को परकीय (मुगल) आक्रामकों से मुक्त रखने के लिए पूरे जीवन संघर्ष किया और सभी युद्धों में उन्होंने विजय श्री प्राप्त की।
उन्होंने अपने पराक्रम से विशाल बुन्देलखण्ड का स्वतंत्र राज्य स्थापित किया और अपने राज्य की एक राजधानी मउ सहानियां (छतरपुर) को बनाया तथा दूसरी राजधानी पन्ना को। छतरपुर नगर में छत्रसाल चबूतरा (भवन) छत्रसाल के नाम पर स्थित था जिसका भव्य रुपान्तरण सन् 1992 में हुआ जिसके प्रबंध संचालन का दायित्व बुन्देलखण्ड केसरी छत्रसाल स्मारक पब्लिक ट्रस्ट छतरपुर को सौंपा गया है।
महाराजा छत्रसाल ने भक्ति, और नीति-परक काव्य की रचनायें की हैं जिनमें प्रधानता भक्ति-काव्य की है। मिश्र बन्धु विनोद में इनकी रचनाओं के रूप में “राज-विनोद” और “गीतों का संग्रह” का उल्लेख है। किन्तु इनकी रचनाओं में “छत्र विलास, नीति मंजरी, और महाराज छत्रसाल जू का काव्य नामक ग्रंथ भी उपलब्ध हुए हैं। छत्र-विलास में (1) राम ध्वजाष्टक (5) हनुमान पचीसी (6) महाराज छत्रसाल प्रति अक्षर अनन्य के प्रश्न (7) दृष्टान्ती और फुटकर कवित्त (8) दृष्टान्ती तथा राजनैतिक दोहा-समूह नामक रचनायें समाहित हैं।
ध्यानिन में ध्यानी और ज्ञानिन में ज्ञानी अहौं, पंडित पुरानी प्रेम वानी अरथाने का।
साहिव सो सच्चा कूर-कर्मन में कच्चा छता, चम्पति का बच्चा शेर सूरवीर वाने का ।।
मित्रन कौ छत्ता दीह शत्रुन कौ कत्ता सदा, ब्रम्हा-रस रत्ता एक कायम ठिकाने का।
नाहि परवाही न्यारा नौकिया सिपाही मैं तो, नेही चाह चाही एक श्यामा श्याम पाने का ।।
सिद्धांत-निरूपण और उदात्त मनो रचना के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक छन्द देखिये –
सुजसु सो न भूषन विचार सो न मंत्री त्यों, साहस सो सूर कहूँ ज्योतिषी न पौन सो।
संयम सी औषधि न विद्या सो अटूट धन, नेह सो न बन्धु औ दया सो पुण्य कौन सो ।।
कहै छत्रसाल कहूँ शील सो न जीतवान, आलस सो वैरी नांहि मीठा कछू नौन सो।
शोक कैसी चोट है न भक्ति कैसी ओट कहूँ, राम सो न जाप और तप है न मौन सो ।।
छत्रसाल स्वयं तो अच्छे कवि थे ही इसके साथ वे कवियों का बड़ा सम्मान करते थे। इस दिशा में कवि भूषण की पालकी को छत्रसाल द्वारा कंधा देने का अनूठा उदाहरण सर्व विदित है। छत्रसाल की मान्यता थी “कीरत के विरवा कवि है, इनकों कबहूँ मुरझान न दीजे” उनके राजाश्रय में 82 कवि थे उनमें “लाल” कवि और भान भट्ट का प्रमुख स्थान था। छत्रसाल का स्वर्गवास पौष शुक्ल 3 शुक्रवार सं. 1788 को हुआ। छत्रसाल की विशेषता यह भी है कि उन्होंने अपने राज-काल की भाषा बुन्देली को बनाया। उनके द्वारा लिखित पत्र और सन्दें उस काल के गद्य साहित्य के प्रवर्तन का संकेत देती हैं।
छतरपुर जिला की मध्य-युगीन साहित्य परम्परा के प्रारंभ में अलीपुरा के कवि महबूब का भी स्थान है। शिव सिंह सरोज में इनका काव्य-काल सं. 1762 और स्व. पं. गौरीशंकर द्विवेदी के बुन्देल-वैभव के अनुसार इनका जन्म सं. 1707 और काव्य-रचना काल सं. 1790 मान्य किया गया है। किन्तु आश्चर्य है कि छत्रसाल के समकालीन होने पर भी न तो इनकी रचनाओं में कही छत्रसाल का उल्लेख है और न ही छत्रसाल जैसे कवि और काव्य-प्रेमी के परिकर में इनका नामोल्लेख है। इस प्रकार इनके रचनाकाल की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगता है। इन पर रीतिकालीन कविता का प्रभाव था।
छतरपुर के ग्राम खडगायं के एक महत्वपूर्ण कवि खुमान या मान ने यहाँ की साहित्य परम्परा को अधिक गतिशील किया। उनका जन्म सं. 1800 के निकट अनुमानित है। और मृत्यु सं. 1878 से 1882 के बीच होना कही जाती है। मानकवि की काव्य-सम्पदा की तीन श्रेणियां हैं- प्रथम पौराणिक काव्य जिसमें नृसिंह चरित और नृसिंह पचीसी है दूसरी श्रेणी में “हनुमंत-पचासा, लक्ष्मन-शतक, राम-रासौ, रामचंद्र नख-शिख, और गंगा-यात्राष्टक नामक रचनायें जो धर्म प्रधान हैं और तीसरी श्रेणी में समकालीन इतिहास प्रधान रचनायें समाहित होती हैं जिनमें “नीति-निधान”, “अष्ट-याम” और “समर-सार” है। अमर प्रकाश के रचयिता भी यहीं हैं। नृसिंह चरित एक सम्पूर्ण महाकाव्य है। जिसमे सात काण्ड हैं। इसका रचनाकाल सं. 1839 है।
इस महाकाव्य के कथानक में हिरण्यकश्यप को अमानवीयता और पाशविकता के प्रतीक रूप में, प्रह्लाद को मानवीयता और सात्विकता के प्रतिमान रूप में और नृसिंह को दोनों वृत्तियों के समन्वित रूप में रेखांकित किया गया है। मान कवि ने अपने राम-काव्य में राम के अलौकिक रूप के स्थान पर उनको इस धरती के लौकिक महामानव के रूप में चित्रांकित किया है। हनुमान मान के इष्ट हैं। उन्होंने राम-कथा मूलक रचनायें सं. 1852 से सं. 1865 तक की हैं। रीति काव्य प्रधान युग में रहते हुए भी उन्होंने स्वयं को श्रंगार से अछूता रखकर ओजस्वी वीर काव्य का प्रणयन किया है। उनकी नीति निधान रचना तत्कालीन अनेक ऐतिहासिक प्रश्नों का समाधान के रूप में मानी जा सकती है। उनकी काव्य रचनाओं में ठेठ बुन्देली शब्दों का सार्थक विन्यास और भाषा के ओज का एक उदाहरण देखिये –
वार डार वैरिन को मार डार मूढ़न को, जार डार जोमिन को झार डार बल को।
चोरन चखल डार खेंच के खखल डार, अखल-वखल डार द्रोहिन के दल को ।।
वीर हनुमंत दौर दुष्टन दबाय डार, चुगलै चबाय डार गंज डार गल को।
लाय डार लोभिन हलाय डार हूणन को, खाय डार खोपड़ी खपाय डार खल को ।।
उनके भाषा-सौष्ठव और विम्ब प्रस्तुति की यह उत्कृष्ट बानगी है। कृष्णायन नामक काव्य की रचना भी मान कवि द्वारा रचित कही जाती है। ये चरखारी नरेश खुमान सिह के राज कवि थे। सम नाम होने से महाराज खुमान सिंह के अनुरोध पर इन्होंने अपने नाम के प्रथम अक्षर “ख” का लोप करके मान नाम की छाप रखी। खुमान कवि के अनुज गुमान थे जो महेबा (छतरपुर) में जन्मे। इसी भू भाग के ये दूसरे महत्वपूर्ण कवि हुए हैं जिनकी प्रसिद्ध रचना कृष्ण चंद्रिका है। इसका रचना काल संन् 1781 ई. माना जाता है। कृष्ण काव्य-धारा का यह अमूल्य ग्रंथ है जिसकी रचना रीति शैली पर हुई है।
मान और गुमान कवि इस भूमि की मूल्यवान निधि हैं। भक्ति काव्य के इन प्रबन्ध रचनाकारों के अतिरिक्त भक्ति-रस से ओत-प्रोत एक अन्य कृष्णायन की रचना छतरपुर के ही श्री जगन्नाथ रिछारिया उपनाम शिव दास रिछारिया तनय श्री जुगल दास रिछारिया जन्म लगभग विक्रम सम्वत् 1820 द्वारा की गई। इसका रचना काल सं. 1845 बताया जाता है। यह सात काण्डों में विभाजित है जिसमें 1. बाल कांड, 2. वृंदावन कांड, 3. रहस कांड, 4. मथुरा कांड 5. द्वारिका कांड 6. उषा-अनिरुद्ध कांड और 7. तीर्थ कांड है। ग्रंथ में इन्होंने स्वयं अपना परिचय दिया है-
नग्र छतरपुर अति सुख खानी, निस दिन अमृत वरसत वानी
जुगल किशोर निकट मम वासा, वर्न वर्न पैरे नित आसा ।।
द्विज रिछारिया शेव जू कौशिक अहौ बखान।
कृष्णायन भाषा करी लिखी प्रीत उर आन ।।
सम्वत् 1865 में अमर सिंह कायस्थ ने सुदामा चरित लिखा और इसी समय देवी प्रसाद कायस्थ ने भी दूसरा सुदामा चरित लिखा।
छतरपुर जिला की उत्तर मध्यकाल की काव्य परम्परा में यदि सर्वाधिक समृद्ध कोई धारा है तो वह लोक-काव्य धारा है। लोक-काव्य के कारण छतरपुर ने विशेष प्रसिद्धि अर्जित की है। यहाँ फागों, सैरों, ख्यालों, लावनी, में गाये गये लोक-गीतों ने पौराणिक आख्यानों को भक्ति भावपूर्ण राम-काव्य, कृष्ण-काव्य को अपने में समेटा है, रीति रस में डूबे नायिका भेद का उद्घाटन किया है। वीर गाथा के माध्यम से ओज का संचार किया है और जीवन के विविध अंगों का स्पर्श किया है इन लोक-गीतों की साहित्यिक प्रतियोगिता की एक विशिष्ट परम्परा यहाँ प्रचलित है जिसे फड़बाजी की संज्ञा दी गई है। इस निमित्त दो प्रतियोगी अखाड़े हैं। एक अखाड़े के प्रवर्तक स्व. पं. गंगाधर व्यास और दूसरे के नायक स्व. पं. परमानंद पाण्डे थे। इन दोनों दलों में सैर की फड़बाजी होती जा रही है।
गंगाधर व्यास का जन्म माघ कृष्ण नवमी वि. सम्बत् 1899 में छतरपुर के साधारण सनाढ्य परिवार में हुआ। व्यास जी असाधारण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने हजारों की संख्या में सैरों, फागों, ख्याल और लावनियों की रचना की और इसी प्रकार घनाक्षरी छन्दों की भी। जहाँ एक ओर उन्होंने लोक-काव्य की रचना की वहीं दूसरी ओर रीति कालीन शैली में नायिका-भेद की अनूठी रचनायें की हैं। उनकी रचनाओं में गो-माहात्म्य, विश्वनाथ पताका, व्यंग्यार्थ पताका, जामवती, विवाह, भरथरी-चरित्र, सत्योपाख्यान, उल्लेखनीय हैं।
दूसरे दल के नायक पं. परमानंद पाण्डे के चाचा द्विज राम लाल पाण्डे आचार्य कवि थे। उनका जन्म छतरपुर में सन् 1800 ई. के आसपास माना जाता है। द्विज राम लाल ने सन् 1820 से 1862 के मध्य रचनायें की है जिनमें बारामासी, धनुष-पचासा, अंगदवाद एवं झोलना-संग्रह है। पाण्डे दल की सैर की फड़वाजी छतरपुर में द्विज राम लाल पाण्डे के द्वारा प्रारंभ की जाना कही जाती है। अपने चाचा के दल का नेतृत्व कालान्तर में पं. परमानंद पाण्डे ने किया जो गंगाधर व्यास के प्रतिद्वन्द्वी थे।
गंगाधर व्यास दल के प्रमुख कवि और रचनाकार स्व. रामदास नामदेव (जन्म आश्विन कृष्ण चतुर्दशी सं. 1936 छतरपुर), स्व.पं. राजाराम शुक्ल रत्नेश (जन्म भाद्रपद शुक्ल स. 1955 छतरपुर), स्व. श्री रामनाथ गुप्त हरिदेव (जन्म सम्वत 1965 राजनगर), स्व. श्री मन भावन शुक्ल छतरपुर, स्व. श्री कलू मैमार श्री दशानंद छतरपुर, स्व. श्री शेख नत्थू, स्व. श्री भुमानी प्रसाद पटैरया, छतरपुर इसी प्रकार पं. परमानन्द दल के कवि, रचनाकार स्व. श्री महादेव प्रसाद चौबे “अनंत” (छतरपुर जन्म सन् 1901) आर वर्तमान में श्री राम कृपाल मिश्र (छतरपुर), श्री भगवानदास कुशवाहा (छतरपुर) हैं। लाला वंशगोपाल (जन्म सं. 1936 छतरपुर), अच्छे भक्त कवि हुए हैं। कृष्ण वाटिका (2 भाग) की रचना की। बिजावर के राज कवि आचार्य बिहारी लाल भट्ट (जन्म विजयादशमी सं. 1946 बिजावर) ने इस क्षेत्र की उल्लेखनीय साहित्य सेवा की है।
उनका “साहित्य-सागर” रीति शैली पर रचित प्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ है। उनकी अन्य रचनाओं में प्रमुख 1 मथुरा गमन, 2. बिहारी-विहार, 3 बिहारी-विनोद, 4.वीर-बावनी, 5. वैराग्य-सम्वाद, 6 ज्ञान-गीतावली, 7. गीता-गंगोत्री, 8 ईश्वरी-गीता, 9. शांति-सम्वाद, 10. लगन-लीला, 11. कुण्डली कल्प लता, 12. वारिद-वसीठ, 13. पाप- प्रक्षालन-अष्टादशी, 14. गाँधी-गमन, 15 गुरीरी-गारी, 16. शरीर-सप्तक। कविराज बिहारी के सुपुत्र स्व. रसरंग जी ने भक्ति पूर्ण प्रचुर भजनों की रचना की है।
स्व. श्री देवी प्रसाद “प्रीतम” भी बिजावर के प्रसिद्ध उर्दू कवि (शायर) थे जिन्होंने गीता का उर्दू पद्यानुवाद किया है। तथा उनकी स्फुट रचनायें बहुत हैं। किन्तु उनका साहित्य उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। बिजावर के ही स्व. श्री रमेश पाण्डे एक अच्छे कवि थे जिन्होंने बुन्देली लोकोक्तियों का कुशल विन्यास अपने छन्दों में किया है। चुरवारी (अलीपुरा) के स्व. दीवान बहादुर श्री वट्टू राजा ने शिव-परिणय” नामक लक्षण-प्रबंध की रचना की है। गरौली के कैप्टन चन्द्र भानु सिंह जी द्वारा रचित “प्रेम सतसई”, नेह-निकुंज और भ्रमभान लीला एवं रंज-ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित है।
हरपालपुर के श्री मोती लाल ओमर (जन्म एक सितम्बर सन् 1910) ब्रजभाषा और खड़ी बोली के कवि थे। वीर काव्य धारा में बिहारी (बिजावर) की वीर-बावनी और छतरपुर के प्रसिद्ध कवि स्व. श्री राम नाथ गुप्त “हरिदेव” की करवाल-किरण उल्लेखनीय है। “हरिदेव” जी की “करवाल-किरण” तत्कालीन विध्य प्रदेश शासन् द्वारा पुरस्कृत भी की जा चुकी है। “हरिदेव” जी की बुन्देलखण्ड बावनी भी इसी ओज-धारा की रचना है। “हरिदेव” जी के छन्दों का शिल्पसौष्ठव उनकी रचना-शैली को विशिष्ट चमक है जो उनके काव्य को सहित्य जगत में प्रतिष्ठा प्रदान कर सकने की क्षमता रखता है।
छतरपुर की काव्य परम्परा में कवयित्रियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। महाराज विश्वनाथ सिंह जी की बड़ी रानी कमल कुंवरि जी सदा पूजा पाठ, अर्चना, उपासना में निमग्न रहती थीं और भक्ति रस में डूबी रहती थीं। वे इसी भक्ति भाव में डूब कर काव्य-रचना करती थी। उन्होंने अपना उपनाम जुगल-प्रिया रखा था। जुगल प्रिया पदावली के नाम से उनकी कुछ रचनायें ही उपलब्ध हो सकी हैं। वे छतरपुर की मीरा थीं। वियोगी हरि पर उनका पुत्रवत् स्नेह था और तीर्थाटन में इसी स्नेहवश वे वियोगी हरि को सदा साथ ले जाती थीं। लाला भगवानदीन “दीन” की पत्नी की अभिरुचि काव्य-सर्जना में तीव्र रूप में थी। वे बुन्देल बाला नाम से रचनायें करती थी। महारानी सरोज कुमारी गौरिहार एवं स्व. श्रीमती कांति खरे ऐसी ही भावधारा की कवियत्री हैं जिनकी रचनाओं में अध्यात्म, दर्शन, भक्ति और राष्ट्र भक्ति के कमल खिले हैं। सरोज जी की आनंद छलिया व माण्डवी और कांति जी की पन्नाधाय व चिठिया वापिस मत कर देना रचनायें प्रकाशित हैं। कांति जी का बेला मुरझे जमुन-कछार कहानी संग्रह अप्रकाशित है। उपर्युक्त विवरण से इसकी स्पष्ट झलक मिलती है कि इस जनपद में भक्ति काव्य, रीति-काव्य, वीर-काव्य और लोक-काव्य की परम्परा का प्रवाह निरन्तर प्रवहमान रहा है। और वर्तमान समय में इस परम्परा को विद्यमान कवि और साहित्यकार जीवित और जीवंत बनाये हुए हैं।
अब एक दृष्टि यहाँ के गद्य साहित्यिकीय परम्परा पर डालना आवश्यक है। जैसा पहले उल्लेख किया गया है कि छत्रसाल की सनदें और पत्र यहाँ के गद्य रचना के प्रादुर्भाव की आहट देते हैं। कालान्तर में इसका साहित्यिक स्वरूप छतरपुर नरेश महाराज श्री विश्वनाथ सिंह जी के समय में निखार पर आया। महाराज विश्वनाथ सिंह जी स्वयं विद्वान् राजा थे और विद्वान् तथा विद्या प्रेमी थे। मिश्र बन्धु श्री सुकदेव बिहारी मिश्रा और श्री श्याम बिहारी मिश्र रियासत के दीवान थे। उन्होंने मिश्र बंधु विनोद की मूल्यवान् साहित्यिक रचना की। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और समीक्षक बाबू गुलाब राय महाराज के प्राईवेट सेक्रेटरी थे। उनके द्वारा लिखित 60 से अधिक ग्रंथ है। जिनमें उल्लेखनीय है “नव-रस”, सिद्धान्त और अध्ययन”, काव्य के रूप, समाज और कर्तव्य पालन, फिर निराशा क्यों, मेरी कलम का राज, मेरे निबंध, मेरी असफलतायें, शांतिधर्म, कर्तव्य शास्त्र, तर्क शास्त्र (तीन भाग), पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास, हिन्दी नाट्य-विमर्ष, साहित्य और समीक्षा, हिन्दी गद्य का विकास और प्रमुख शैलीकार, हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास इत्यादि ।
छतरपुर के दिवान प्रति पाल सिंह ने “बुन्देलखण्ड का इतिहास” नामक वृहद् ग्रंथ लिखा जो बारह भागों में कहा जाता है किन्तु अधिकांश भाग उपलब्ध नहीं है। लाला भगवानदीन छतरपुर के हाई स्कूल में सेकेंड मास्टर थे और इसीलिये वे यहाँ मास्टर भगवानदीन के नाम से प्रसिद्ध थे। वे यहाँ सम्वत् 1951 से सम्वत् 1964 तक रहे तदुपरांत काशी चले गये वहाँ डेढ़ वर्ष तक सेन्ट्रल हिन्दू कालेज में उर्दू के अध्यापक रहे तत्पश्चात् नागरी प्रचारिणी सभा में हिन्दी शब्द-सागर नामक हिन्दी शब्द कोष के सह-सम्पादक के गुरु दायित्व का यशस्वी निर्वहन किया। अंततः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्यापक नियुक्त हुए। वे अच्छे गद्य लेखक के साथ अच्छे कवि थे। उनकी ख्याति प्राप्त रचनायें (1) नवीन वीन (2) सूक्ति सरोवर (3) अलंकार-मंजूषा (4) वीर-पंच रत्न हैं। वे कवीन्द्र केशव के अनन्य भक्त थे। केशव की राम चंद्रिका, कवि-प्रिया और रसिक-प्रिया पर उनकी टीकायें बड़ी प्रामाणिक मानी जाती है। कवितावली और बिहारी सतसई पर भी उनकी टीकायें उत्तम हैं।
श्री वियोगी हरि यहाँ के शीर्ष लेखकों में प्रतिष्ठित हैं। वियोगी जी का जन्म छतरपुर में सम्वत् 1952 में राम नवमी के पावन पर्व पर हुआ। किशोरावस्था से ही उनमें साहित्य सेवा और समाज-सेवा के जीवाणु लक्षित होने लगे थे। प्रारंभ में छतरपुर और पन्ना में इनका कार्य-क्षेत्र रहा फिर राजर्षि पुरुषोत्तम दास जी टंडन के अनुरोध पर ये प्रयाग चले गये और वहाँ अनेक वर्षों तक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कार्य सम्पादित किया। वियोगी जी महात्मा गाँधी, ठक्कर वापा और विनोबा भावे के अति निकट रहे। आजीवन हरिजन सेवा में समर्पित भाव से कार्यरत रहे। साथ ही इसी समर्पण से साहित्य-सेवा भी करते रहे। वे दिल्ली रहने लग गये थे किन्तु जन्म भूमि छतरपुर के प्रति ममत्व के कारण वे यहाँ आने का कोई अवसर चूकते नहीं थे। छतरपुर के गाँधी भवन में अनेक बार कार्यक्रम हुए। उनकी रचना बीर सतसई पर उन्हें मंगला पुरस्कार भी प्रदान किया गया था। वियोगी हरि जैसे रत्न को जन्म देकर छतरपुर धन्यता का अनुभव करती है।
हरि जी की रचनायें निम्नलिखित हैं- गद्य-काव्य : तरंगिणी, अन्तर्नाद, प्रार्थना, श्रद्धा, कण। निबन्ध : साहित्य – बिहार। नाटक : वीर हरदौल, श्री छद्म योगिनी नाटिका। अन्य ग्रंथ :- महात्मा – गाँधी का आदर्श, मेरी हिमाकत, मंदिर प्रवेश, विश्व-धर्म, बढ़ते चलो, योगी अरविंद की दिव्य-वाणी, बुद्ध-वाणी, प्रेम-योग, ठंडे छींटे, गीता में भक्ति-योग, भावना, प्रबुद्ध-यामुन पगली, वृत्त-चंद्रिका । आत्म-कथा : मेरा जीवन प्रवाह। सम्पादित ग्रंथ – ब्रज-माधुरी-सार, संक्षिप्त सूर-सागर, बिहारी-संग्रह, सूर-पदावली, भजन माला, संत-वाणी, विनय-पत्रिका, हिन्दी गद्य रलमाला, हिन्दी पद्य रत्न माला, मीरा बाई आदि का पद्य-संग्रह, तुलसी-सूक्ति सुधा, पंचदशी। काव्य- प्रेम-शतक, प्रेम-पथिक, प्रेमांजलि, प्रेम-परिचय, मेवाड़ केसरी, शुकदेव, चरखा स्त्रोत (संस्कृत रचना), चरखे की गूंज, वकील की राम कहानी, असहयोग वीणा, वीर-वाणी, श्री गुरु पुष्पांजलि, कवि-कीर्तन, अनुराग-वाटिका, वीर सतसई।
डॉ. हरिराम मिश्र का जन्म सम्वत् 1969 फाल्गुन में हुआ। वे छतरपुर के महाराजा-महाविद्यालय के प्राचार्य रहे। संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी के विद्वान और अच्छे लेखक होने के साथ वे संवेदनशील दयालु प्रशासक, और सरल व्यक्ति थे। उनके द्वारा अंग्रेजी भाषा में लिखित मननशील शोध-प्रबंध “संस्कृत नाटकों में रस-सिद्धान्त और इतर नाट्य-साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन” पर डी. लिट की उपाधि मिली। उनकी रचनाओं में “खजुराहो के मंदिर” (अंग्रेजी भाषा में) जीवन आदर्श गाँधी जी के जीवन आदर्शों पर आधारित एकांकी त्रय, जन नायक (सुभाष चंद्र बोस की जीवन-घटनाओं पर आधारित एकांकी त्रय), आपने सन् 1946 से 1948 तक विध्य-भूमि नामक पत्रिका का सम्पादन किया। पचास शोध निबंध विविध निबन्ध संग्रहों में संकलित हैं।
यद्यपि छतरपुर जिला के विद्यमान रचनाकारों और साहित्य-साधकों के प्रदेय को प्रस्तुत किये बिना यहाँ की साहित्यिक-परम्परा का अद्यतन रेखांकन नहीं कहा जायेगा किन्तु इस लेख को सीमाओं में जो अभिप्रेत था वही प्रस्तुत किया गया है।
वर्तमान में छतरपुर के दो ऐसे प्यारे कवियों को नियति ने असमय छीन लिया जो देश के कोने-कोने में कवि सम्मेलनों के मंचों पर आकर्षण के केन्द्र बन गये थे। ये थे श्री शारदा प्रसाद उदैनियां “मनोज” और राजा संतोष सिंह बुंदेला । एक अपनी काव्य-प्रतिभा, कविता की गुणवत्ता और प्रभावी प्रस्तुति के कारण और दूसरे बुंदेली-भाषा की मधुरिमा एवं बुंदेली लोक मन का आस्वाद कराने के कारण रसज्ञ समाज के कण्ठ-हार बन गये थे। एक सन् 1990 में चल बसा और दूसरा सन् 1993 में। श्री “मनोज” की स्मरण-शक्ति विलक्षण थी। इसलिए उनकी अधिकांश रचनायें उनके कण्ठ में थीं, लिपिबद्ध विरल थीं। यहाँ तक कि उनका विस्मृता जैसा उत्कृष्ट और यशस्वी खण्ड काव्य भी उन्हीं के साथ चला गया। लगभग यही बात बुंदेला जी पर चरितार्थ है।
यह गर्व का विषय है कि छतरपुर में जैसी स्तरीय साहित्यिक-गुण गरिमा से मंडित परम्परा अब तक चली आई है, आज भी उसे अधिकाधिक निखार देने में वर्तमान साहित्यकार साधना-निरत है। सर्व श्री भैया लाल व्यास, पं. श्री निवास शुक्ल, प्रो. ज्योति प्रकाश सक्सेना, सत्यनारायण गोवरेले, सुरेन्द्र सिन्हा “अंजलि”, सुरेन्द्र शर्मा “शिरीष”, स्वतंत्र प्रभाकर रावत, डॉ. राम विशाल चंधौरिया, श्रीमती मालती श्रीवास्तव, सुश्री विभा खरे, सुश्री कमला कछवाहा, सुश्री मंजूषा सुल्लेरे, श्री जगदीश प्रसाद खरे, बाबू जी खरे, कु. मधुरिमा खरे, श्रीमती प्रीता, श्री आदित्य ओम, श्री हृदयेश प्रकाश पटैरया, श्री सुरेन्द्र शर्मा “सुमन”, श्री रामकृपाल मिश्र, श्री रामकृपाल चौरसिया, श्री नवल किशोर सोनी “मायूस”, शिवभूषण सिंह गौतम, अभिराम पाठक, सुनील केशव देवधर, अशोक त्रिपाठी, रतन लाल नामदेव “रतनेस”, शंकर लाल वर्मा” ललितेश, राम जी लाल चतुर्वेदी, सुश्री प्रभा विधु (सभी छतरपुर) रामरतन अवस्थी (नौगाँव), श्री प्रमोद, श्री गुप्तेश, डॉ, प्यारे लाल शर्मा (बड़ा मलहरा), श्री गोपालदास रुसिया, डॉ. अवध किशोर जड़िया (हरपाल पुर), श्री लक्ष्मी प्रसाद गुप्ता (महाराजपुर) संत कवि श्री ब्रजेश (प्रकाश बम्हौरी) श्री किशोरी लाल जैन किशोर (बक्स्वाहा) काशी प्रसाद महतों, जगतकिशोर चौरसिया (गढ़ीमलहरा) आदित्य शर्मा चेतन, महेन्द्र खरे, वीरेन्द्र खरे अकेला इत्यादि कविता के क्षेत्र में यहाँ का साहित्य समृद्ध कर रहे हैं। देश के विभिन्न कवि सम्मेलनों के मंचों पर जहाँ डॉ. अवध जड़िया ने बुन्देली के शिल्प-सौष्ठव को अंकित किया है, वही अपनी ओजस्वी रचनाओं की धाक जमायी है श्री प्रकाश पटैरया ने और गीतकारों में श्री सुरेन्द्र शर्मा “शिरीष”, श्रीमती मालती श्रीवास्तव, श्री “सुमन” प्रभृति ने प्रभावी छाप बनाई है।
इस जनपद के ही नहीं अपितु हिंदी-जगत के गद्य-साहित्य को मूल्यवान् योगदान देने वाले अनेक साहित्यकार हैं जिनमें उल्लेखनीय नाम हैं डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त और डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया। इनके गवेषणात्मक शोधपूर्ण गंभीर लेख, नाटक, उपन्यास, कहानियां, प्रचुर मात्रा में हैं साथ ही समय और समाज की नाना विसंगतियों पर चुटीले व्यंग्य करने वाली रचनायें डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया द्वारा रचित हैं। पं. श्री निवास शुक्ल, भैया लाल व्यास, महेन्द्र कुमार मानव, दशरथ जैन, सुरेन्द्र जैन, डॉ. ओ. पी. गौतम, शिशिर पाण्डेय, डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी, जयेन्द्र सिंह, डॉ. श्रीमती दया जैन, सुरेन्द्र सिन्हा “अंजलि”, जगदीश किंजल्क (छतरपुर) कृष्ण मुरारी भटनागर (बिजावर), डॉ. हरिसिंह घोष, डॉ. नाथूराम चौरसिया इत्यादि का योगदान अभिनंदनीय है। इसके अतिरिक्त अनेक अध्यवसायी शोधार्थी नूतन संभावनाओं के छिपाये हैं।
यहाँ की विविध साहित्य संस्थायें, अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलन, मुशायरा, साहित्य गोष्ठियां, साहित्यकारों की जयंतियां जैसे साहित्यिक आयोजन यहाँ की साहित्यिक परम्परा में चेतना-संचार का कार्य करते हैं। संस्कृत साहित्य के मौन-साधक के रूप में शताधिक वर्षीय ऋषि-तुल्य श्रद्धेय पं. श्री बल्देव प्रसाद जी दीक्षित का नामोल्लेख करना समीचीन है। इसी तारतम्य में संस्कृत-साहित्य के उपासक डॉ. केशव प्रसाद मिश्र और पं. स्वामी शंकर मिश्र की साधना भी उल्लेखनीय है।
जहाँ तक उर्दू का प्रश्न है, यह बात विद्धानों में प्रायः निर्विवाद रूप से मान्य है कि उर्दू तो हिंदी की एक शैली मात्र है। अतः यहाँ की समग्र साहित्यिक-परम्परा का आकलन करने के परिप्रेक्ष्य में उर्दू-साहित्य की रचनाओं और रचनाकारों का उल्लेख किये बिना यह चर्चा अधूरी कही जायेगी। उर्दू रचनाओं और रचनाकारों में उल्लेखनीय है- 1951 से 1960 तक मियांदाद खां साहब, तलैया मुहल्ला, डॉ. ज्ञान प्रकाश दोसाज, पेशकार (रिटायर्ड) अब्दुल रज्जाक सा., सफी सा., क्लर्क महाराजा कालिज के खुसर खंजर महोबबी (जो छतरपुर में रहने लगे थे), कांजी नजीर मुहम्मद साहब (हाजी), मुन्शी रमजान खां सा., मुन्शी इमामुद्दीन, कमाल उद्दीन निजामी, मो. इसरायल खान शाहिद ।
1960 से 1980 के बीच आये मुंशी रमजान साहब, हबीब सा. (पुलिस स्टैनो) अजीजउल्ला कुरैशी (हैड मास्टर), सत्तार अली सत्तार, रामानंद जौर, निहाल उद्दीने ताबां, सईदबख्श खय्याम, गुलाम रसूल दर्द, गुलाम मुहम्मद हक” काजी अल सईद “अंजुम”, हशमत छतरपुरी, बाबू सलाम सा. मु. यूनुस खान । 1980 से शामिल हुये नियाज अहमद सिद्दीकी, सुलेमान सुमन, हसन् खां चिश्ती, मौलाना हारुन “अना”, दिलकश जबलपुरी, अजीज रावी आदि।