क्षेत्रपाल जी
July 26, 2024सेरोन
July 26, 2024स्थिति
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में बेतवा नदी के किनारे यह भारत प्रसिद्ध अतिशय दिगम्बर जैन कला तीर्थ अवस्थित है। मध्य रेलवे की दिल्ली बम्बई लाइन पर झाँसी और बीना जंक्शनों के बीच ललितपुर स्टेशन से, दक्षिण पश्चिम में, 33 किलोमीटर की दूरी के पक्के मार्ग पर बसों द्वारा देवगढ़ पहुँचा जा सकता है। इसी रेल लाइन के एक छोटे कस्बे जाखलौन स्टेशन से भी 13 कि.मी. के पक्के मार्ग द्वारा देवगढ़ पहुँच सकते हैं।
इतिहास
देवगढ़ की प्राचीन मूर्तिकला यहाँ प्राप्त अभिलेखों के अनुसार सम्वत् 609 से 1876 तक की है। यहाँ प्रागैतिहासिक काल के अवशेष मिले हैं। गुप्त राज- वंश का अधिकार प्रायः यहाँ आदि से अन्त तक रहा है।
गुर्जर प्रतिहार नरेश भोजदेव के शासनकालीन सम्वत् 99 के एक अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि इस स्थान को तत्कालीन नाम लुअच्छागिरि था। चन्देलवंशीय राजा कीर्तिवर्मा के मंत्री वत्सराज ने ही एक नवीन दुर्ग का निर्माण यहाँ कराया था। वर्तमान देवगढ़ दुर्ग के दक्षिण पश्चिम में राजघाटी के किनारे, बारहवीं शदी के उत्कीर्ण अभिलेख से ज्ञात होता है कि वत्सराज ने इस स्थान का नाम कीर्तिगिरि रखा था।
अनुमानतः 12वीं 13वीं शताब्दी में इस स्थान का नाम देवगढ़ पड़ा।. देवगढ़ नाम पड़ने के संबंध में अनेक मान्यतायें हैं। लेकिन सहज और बोधगम्य यही लगता है कि यहाँ असंख्य देव मूर्तियाँ उपलब्ध होने के कारण ही इस स्थान का नाम देवगढ़ पड़ा। कारण कुछ भी हो लेकिन देवगढ़ देखकर सहज ही यह अनुमान लगता है कि पूर्व में यहाँ मूर्तियों की रचना होती रही होगी और निर्माण का कार्य वर्षों चला होगा। उस स्वर्ण काल की गाथा देवगढ़ का प्रत्येक प्रस्तर कहता प्रतीत होता है। निकट स्थित जैन तीर्थ सेरोन, पावागिरि, बानपुर, मदनपुर, चंदेरी, थूबौनजी, पपौरा, अहार आदि से देवगढ़ का शिल्प- गत सम्बन्ध भी अवश्य रहा होगा।
नामकरण के संबंध में एक जनश्रुति यह भी है कि यहाँ देवपत और खेवपत नाम के दो भाइयों के पास, पारसमणि थी जिससे उन्होंने अपार धन प्राप्त कर यहाँ दुर्ग और जिनालय बनवाये थे। परन्तु जब तत्कालीन राजा को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने देवगढ़ पर चढ़ाई कर दी लेकिन उन दोनों भाईयों ने पारसमणि को समीप ही बेतवा के अथाह जल में फेंक दिया और राजा पारसमणि प्राप्त न कर सका। कहते हैं उसी देवपत के नाम पर उस क्षेत्र का नाम देवगढ़ पड़ा।
अतिशय
देवगढ़ के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ भी प्रचलित हैं। कुछ बुजुर्ग लोग प्रत्यक्षदर्शी की तरह साक्ष्य देते हैं कि रात्रि में उन्होंने उत्तुंग और कलात्मक, देवालयों की ओर से आती हुई मनोहारी नृत्य-गान की मधुर ध्वनियाँ सुनी हैं, भक्त इन ध्वनियों को देवताओं द्वारा तीर्थंकर की अर्चना करने का पौराणिक- पारम्परिक उपक्रम मानते हैं।
अगणित सुन्दर देव मूर्तियों का अतिशय तो यहाँ है ही अतः देवगढ़ अतिशय कला क्षेत्र है। भारत का यह प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र, उत्कृष्ट शिल्पकला युक्त अधिसंख्य मूर्तियों और प्राचीन मंदिरों के कारण खजुराहो से भी ज्यादा प्राचीन कला-तीर्थ है। कतिपय हिन्दु मंदिरों के यहाँ होने के कारण समन्वय तीर्थ के रूप में भी देवगढ़ की ख्याति है।
पुरातत्व
देवगढ़ तीर्थ पर छोटे-बड़े लगभग चालीस मंदिर, दो सौ से अधिक महत्वपूर्ण शिलालेख, कुल मिलाकर लगभग 500 अभिलेख और 19 पाषाण स्तम्भ (मानस्तम्भ सहित) दर्शनीय हैं। पर्वत पर के 31 मंदिर, कला सौष्ठव की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यहाँ जैन और हिन्दु संस्कृतियों का अद्भुत समन्वय हुआ है। जहाँ एक ओर कला संसार की अद्वितीय उपाध्याय की मूर्ति, अठारह लिपियों वाला अपूर्व और अद्भुत ‘ज्ञान शिला’ नाम का शिलालेख, सरस्वती प्रतिमा, पंचपरमेष्ठियों की मूर्तियाँ कलापूर्ण मानस्तम्भ आदि, तीर्थंकर ऋषभदेव, सूक्ष्म शिल्प संरचना वाली बाहुबलि की मूर्ति, तीर्थंकर की माता के सोलह स्वप्नों वाली मूर्ति आदि श्रमण संस्कृति के गौरवमयी कला बिम्ब आकर्षण के केन्द्र हैं, वहीं देवगढ़ स्थित बाराह का मंदिर, गुफा में शिवलिंग, सूर्य भगवान की मुद्रा, गणेश मूर्ति, अनन्तशायी विष्णु की मूर्ति, नर-नारायण की मूर्ति, रामायण-महाभारत के पौराणिक दृश्य एवं गजेन्द्र मोक्ष आदि वैष्णव संस्कृति की कलात्मक कृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं।
बुन्देलखण्ड की गंगा-वेत्रवती (बेतवा) सरिता के मुहाने पर बसा ग्राम देवगढ़, विन्ध्य पर्वत की श्रृंखलाओं में जड़ा हुआ सा प्रतीत होता है। यहाँ उत्तर दक्षिण में बिखरे लगभग पाँच कि.मी. और पूर्व-पश्चिम में लगभग छह फर्लांग चौड़े जिस पर्वत पर देवगढ़ दुर्ग अवस्थित है, बेतवा उसी पर्वत के लगभग 400 फुट नीचे से कल-कल स्वर में अमृत जल का अनवरत प्रवाह करती है। पहाड़ी के नीचे एक दिगम्बर जैन धर्मशाला के बगल में ही वन विभाग का विश्राम गृह और पास में यहीं गुप्तकालीन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट प्रतीक ‘गुप्ता मंदिर’ है। ग्राम के उत्तर में विख्यात दशावतार मंदिर और शासकीय संग्रहालय है। पूर्व में पहाड़ पर उसके दक्षिणी-पश्चिम के कोने में जैन मंदिर और अन्य जैन स्मारक हैं।
तलहटी की धर्मशाला से, पहाड़ी पर स्थित तीर्थ 3971 फुट की दूरी पर है, जहाँ सरल चढ़ाई के साथ पक्का कोलतार मार्ग है। चढ़ाई समाप्त होते ही पहाड़ की अधित्यका को घेरे हुये विशाल प्राचीर है जिसके पश्चिम में कुंज द्वार तथा पूर्व में हाथी द्वार है। प्राचीर के दक्षिण पश्चिम में बाराह मंदिर और दक्षिण बेतवा में किनारे नाहर घाटी और राजघाटी है। इस विशाल प्राचीर के मध्य एक प्राचीर और है जिसे ‘दूसरा गेट’ कहते हैं इसी के मध्य जैन स्मारक हैं।
यहाँ के जिनालयों का निर्माण दक्षिण की द्रविण शैली से भिन्न, उत्तर की विकसित आर्य नागर शैली में हुआ है जो गुप्त काल, गुर्जर, प्रतिहार और चंदेलकाल में खूब फली फूली। खजुराहो के मंदिरों में इसी शैली का विकास हुआ है।
देवगढ़ में यक्ष-यक्षियों, इन्द्र इन्द्राणियों और प्रतीकात्मक देवताओं की मूर्तियाँ अगणित संख्या में, अपनी महत्त्वपूर्ण युगीन शिल्पकला के लिये दर्शनीय है। यहाँ की मूर्तियों में यौवन का सर्वांग सौष्ठव वाला उभार तो है पर खजुराहो जैसी यौवन की उन्मत्तता नहीं। इसीलिये देवगढ़ देखकर दर्शकों का मन श्रृंगार- वासना से नहीं अपितु गहन अध्यात्म से भर जाता है। देवगढ़ में प्रेमासक्त युगलों का भी अंकन है पर कला वैशिष्ट्य, लावण्य और अनुरागमयी संयत मुद्रा के कारण ही वे कुछ लीक से हटकर हैं।
विशेषाकर्षण यहाँ पार्श्वनाथ की शासन देवी पद्मावती अपने पति की गोद में बैठी हुई अपने साथ बैठे पुत्र के प्रति जो वात्सल्य भाव प्रदर्शित करती है वह वात्सल्य और ममत्व का अत्यन्त प्राणवान अंकन है। यहाँ के मंदिरों में 18 प्रकार की आधुनिकतम केश विन्यास शैलियाँ उत्कीर्ण हैं जिनके दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रमुख यक्षी मूर्तियों में अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती और गंगा-यमुना की मूर्तियाँ बहुतायत में उलपब्ध हैं। सरस्वती की अलंकृत कलाकृतियाँ, धरणेन्द्र- पद्मावती और साहू जैन संग्रहालय में स्थित अद्वितीय बाहुबलि और नवनिधियों युक्त भरत की मूर्तियाँ यहाँ के प्रमुख आकर्षण हैं। विशेष रूप से यहाँ तीर्थकरों के अतिरिक्त साधु-साध्वियों, आचार्य, उपाध्याय एवं श्रावक-श्राविकाओं का भी भव्य अंकन है। साधु-मूर्तियों में भरत बाहुबलि के विभिन्न अंकन के अतिरिक्त संग्रहालय स्थित कदाचित गुप्तकाल के बाद की निर्मित, तपस्या में रत बाहुबलि स्वामी की अनुपम प्रतिमा अद्वितीय कलाकृति है। सादा भामण्डल, कंधों तक जटायें, शरीर पर आरूढ़ लतायें जिनपर रेंगते हुये सर्प, बृश्चिक और छिपकलियाँ पर तपस्या में लीन मेरू पर्वत की भांति अडिग बाहुबलि स्वामी के दोनों ओर एक-एक स्त्री खड़ी लताओं को दूर हटा रही है। इन सभी से बेखबर, मूर्ति में आत्म-साधना का सूक्ष्म और सजीव अंकन देखते ही बनता है। आचार्य एवं पाठशाला का अंकन भी उल्लेखनीय है। देवगढ़ ग्राम के दिगंबर जैन चैत्यालय में स्थित सं. 1333 की सर्वांग सुन्दर उपाध्याय- मूर्ति (2.2×1.6 फुट) शिल्प-चातुर्य और उपदेश रत गांभीर्य भाव भंगिमा की दृष्टि से सचमुच अद्वितीय है।
जिनालय
मंदिर संख्या 1 में पश्चिम की दीवाल पर उकरी हुई पंच परमेष्ठियों की मूर्तियाँ, मंदिर संख्या 2 में भगवान बाहुबलि के सामने चक्रवर्ती भरत का नमन वाला दृश्य, मंदिर संख्या तीन में पार्श्वनाथ की भव्य मूर्ति, चार में शैया पर लेटी तीर्थंकर की माता का अंकन, क्रमांक पाँच का सुन्दर सहस्रकूट चैत्यालय, देवगढ़ की अद्भुत रचनायें हैं।
मंदिर संख्या 6 में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के दोनों ओर रचित दो विशाल नाग अन्य पार्श्वनाथ की मूर्तियों से एकदम हटकर किया गया निर्माण है। मंदिर संख्या- 7 में 13वीं शताब्दी का शिलालेख शिष्य परम्परा का प्रतीक और भट्टारकों के दो चरण फलकों के लिये महत्वपूर्ण हैं। मंदिर संख्या 8 एवं 9 सामान्य हैं परन्तु दसवें मंदिर में एक पंक्ति में तीन चतुष्कोंण स्तम्भ 6 फुट ऊँचे हैं। दो स्तम्भों में ताम्र पत्र भी मिले थे। मंदिर संख्या गयारह आठ स्तम्भों पर बने मण्डप वाला पंचायतन शैली का है, इसके 25 फलकों में 18 पर खड़गासन एवं 7 पर पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में 5 मूर्तियाँ हैं। सामने मण्डप में 11वीं शताब्दी की बाहुबलि स्वामी की मूर्ति महत्वपूर्ण है, जिसमें बांयी ओर कुक्कुट, सर्प और वेलों के अतिरिक्त बिच्छु, छिपकली आदि उत्कीर्ण हैं। देव-युगल लताओं को दूर करते दिखाई देते हैं।
मंदिर संख्या-बारह देवगढ़ का प्रमुख मंदिर है। पश्चिमाभिमुख होने के साथ ही इसमें 18 शिलाफलक हैं। 12 फुट ऊँची शान्तिनाथ प्रतिमा खड़गासन में अतिशय सम्पन्न और अत्यन्त भव्य है। साखानामदी नामक व्यक्ति द्वारा लिखाया प्रथम जैन तीर्थकर बृषभनाथ की पुत्री ब्राह्मी द्वारा अविष्कृत अठारह भाषाओं और लिपियों वाला अद्वितीय शिलालेख ‘ज्ञान शिला’, सं. 910 का शिलालेख, भगवान की माता का 16 स्वप्नों एवं नवग्रह का अनूठा अंकन, नामोत्कीर्ण चौबीस शासन देवियाँ, बीस भुजी चक्रेश्वरी और पद्मावती की मूर्तियाँ, शांतिनाथ की विशाल मूर्ति, मंदिर संख्या 13 की मूर्तियों के केश विन्यास की विभिन्न कलायें, मंदिर संख्या 20 की अत्यन्त मनोज्ञ महावीर स्वामी की पद्मासन मूर्ति एवं मंदिर संख्या 31 में उत्कीर्ण गंगा-यमुना, सरस्वती आदि मूर्तियाँ अन्य तीर्थंकरों और देव-देवियों के साथ विशेष रूप से दर्शनीय हैं।
यहाँ के अभिलेख मान स्तम्भ, द्वार और घाटियाँ बुन्देलखण्ड के इतिहास और शिल्प संसार की बहुमूल्य धरोहर हैं। यहाँ का वर्तमान संग्रहालय कला प्रेमियों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रकृति के विभिन्न दृश्यों का अंकन देवगढ़ के कलाकारों का प्रकृति की रमणीय रूप राशि का रसिक होना सिद्ध करते हैं। पशु पक्षियों एवं अन्य जीव जन्तुओं का अंकन भी मनोहारी है। देवगढ़ पर सुप्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक डॉ. क्लूज ब्रून की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक Jain Images of Deogarh. डॉ. भागचन्द्र जैन की पुस्तक ‘देवगढ़ की जैन कला’ तथा स्व. पं. परमेष्ठीदास जैसे विद्वानों के अवसर अवसर पर प्रकाशनों ने भारत के कला प्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है।
सचमुच देवगढ़ को भारत के श्रेष्ठ कला केन्द्र होने के नाते प्रमुख पर्यटन स्थल की तरह विकसित किये जाने की आवश्यकता है तभी लोग कवि के इन शब्दों के साथ स्वर मिला सकेंगे-
जिसने भी देखा इनको यह संशय आया,
यह नर रचना है या कि सुरों की माया ?