गढ़–कुण्‍डार किला मध्‍य प्रदेश के निवाड़ी जिले में स्थित है। नज़दीकी प्रमुख रेलवे स्‍टेशन झाँसी है, जो लगभग 50 किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से गढ़-कुण्‍डार आने लिए झाँसी, टीकमगढ़ तथा निवाड़ी से बसें मिलती है। गढ़-कुण्‍डार से नजदीकी हवाई अड्डा ग्‍वालियर है, जो कि लगभग 170 कि.मी. दूर है। यह किला कुंडार ग्राम के पश्चिमी अंचल में पहाड़ों की ओट में स्‍थापित हैं। यह किला कालिंजर, अजयगढ़, धामोनी, ओरछा एवं चंदेरी जैसे सामरिक महत्‍व के किलों में से एक है। किले में प्रवेश करनेपर विस्‍मयता एवं अजूबापन का आभास किया जा सकता है। गढ़-कुण्‍डार का किला दिखने-छिपने का किला खेल खेलने में भी माहिर है। इस किले की स्थिति ऐसी है कि यह मीलों दूर से तो दिखता है, किन्‍तु पास जाने पर नजर नहीं आता। ऐसा प्रतीत होता है कि गढ़कुण्‍डार किले को पहाड़ चारों तरफ से अपनी गोदी में बिठाए हैं। चारों ओर पहाड़ हैं जिनके मध्‍य पत्‍थर की पहाड़ी पर किला है, जिस तक सरलता से नहीं पहुँचा जा सकता है। यह किला गिरी एव वन दुर्ग दोनों रूपों का सामंजस्‍य है।

            इस किले का भूतल खंड भवन, जो चंदेलकालीन है, भूल-भुलैया-सा तिलस्‍मी है। इसमें अनेक कोटर (घोसलों और गुफाओं जैसे छोटे-बड़े तलघर) हैं। संभवत: इसी कारण इसे गढ़ कोटर नाम दिया गया होगा। किले तक पहुँचने के लिए कहीं पत्‍थर काटकर, तो कहीं पत्‍थर स्‍थापित कर सीढ़ीदार मार्ग बनाया गया है। किले का परकोटीय दरवाज़ा दुमंजिला, दो बुर्जों के मध्‍य है तथा यह लगभग 40 फीट ऊँचा है। दरवाज़े के आगे दोनों ओर चबूतरे हैं। दरवाज़े के अंदर बायीं ओर एक अलंकृत कक्ष है। दरवाज़े की ऊपरी मंजिल पर जाने के लिए किला प्राँगण की ओर से सीढि़याँ हैं।

           दरवाज़े के भीतरी भाग में दोनों ओर सुरक्षा-कर्मियों के अनेक कक्ष हैं। यह दरवाज़ा पार कर पश्चिम दिशा को मुड़ते हुए किले के उत्‍तरोन्‍मुखी विशाल दरवाज़े के सामने पहुँच जाते हैं। गढ़-कुण्‍डार किला लगभग एक हैक्‍टेयर से अधिक वर्गाकार विस्‍तारमें पहाड़ के शिखर निर्मित है। इसके चारों ओर ढालू पठारी ऊबड़-खाबड़ किले का मैदान है, जिसके पश्‍चात् पहाड़ के ढाल पर चारों ओर परकोटा है। इसमें लगभग 21 बुर्ज हैं। परकोटा के अंदर का किला मैदान लगभग चार हेक्‍टेयर का है। मुख्‍य किला दरवाज़ा के बायीं ओर तोप बुर्ज है तथा परकोटा में भी अनेक तोप बुर्जें हैं।

         किले का मुख्‍य दरवाज़ा मुगल-राजपूत वास्‍तु शैली का अनुपम उदाहरण है। दरवाज़े के दायें-बायें सप्‍तकोणीय गोलाकार मीनारें हैं, जो किला के पूर्वोत्तर एवं पश्चिमोत्‍तर कोनों पर हैं। वैसे चारों कोनों पर भी चार मीनारें हैं। दरवाज़ा, मीनारें एवं मानारें के मध्‍य के महल सभी पाँचम जिले हैं। किला चारों ओर एक समान है। किले के दरवाज़े के दोनों बाजू की तीसरी मंजिल पर लाल पत्‍थर की 17-17 लंबी-लंबी टुंडि़याँ निकली हैं, जिन पर छाजन नहीं पड़ पायी। चारों मीनारों में दो फीट बाहर से एक भित्ति ऊपर तक है, जिसमें जगह-जगह लंबे पत्‍थरों को लगाकर मीनारों की कसावट की गयी है।

            गढ़-कुण्‍डार एक भुल-भुलैया अथवा तिलिस्‍मी किला जैसा है। मध्‍य में आठ फुट का वर्गाकार चौक है, जिसके चारों ओर 5 फुट चौड़े धनुषाकार दरवाज़ों वाले कक्ष हैं, जिनके दरवाज़े चारों ओर हैं। कक्ष एवं उनके दरवाज़े चारों ओर संलग्‍न एक सीध में एक समान बनाये गये ताकि चारों ओर के कक्षों पर निगरानी रखी जा सके। कक्षों की छत में गोल छेद बने हुए हैं, जिनसे इन तलघरों के कोटरों में प्रकाश आता रहता है। यह भी एक सुरक्षात्‍मक एवं सोची-समझी व्‍यूह योजना ही थी कि प्रकाश वाले छत के छिद्र दक्षिणी-पूर्वी पार्श्‍व में नहीं हैं, बल्कि उत्‍तरी-पश्चिमी भाग अर्थात् किला के अंदर के प्रवेश मार्ग की ओर हैं ताकि प्रवेश मार्ग के सामने दखिणी पार्श्‍व एवं पूर्वी पार्श्‍व के प्रकाशहीन अँधेरे कक्ष में बैठे-लेटे, किसी भी स्थित से सुरक्षा प्रहरी, किसी भी कक्ष से, किला के अंदर प्रविष्‍ट होने वाले व्‍यक्तियों को देख सकता है, जबकि किले में प्रविष्‍ट होने वाला व्‍यक्ति अंधेरे कोटरों के सुरक्षा प्रहरियों को नही देख सकता।

           इस भूतलीय कोटरों से खंड के चारों ओर नीचे भी कमरे हैं, जिनमें जाने के लिए भूलत खंडीय कोटरों से सीढि़याँ बनी हुई हैं। इन कमरों में अँधेरा लगा रहता है, वर्तमान में मध्‍यप्रदेश शासन ने इसके नीचे वाले हिस्‍से को सुरक्षा दृष्टि को ध्‍यान में रखकर पूर्णत: बन्‍द करवा दिया है। इन्‍हीं कक्षों के ऊपर चारों ओर पाँच मंजिला चंदेल, बुन्‍देला, मुगल तथा राजपूत वास्‍तु का निर्मित यह विशाल किला खड़ा हुआ है। दन्‍त कथाओं के अनुसार किसी भी दुश्‍मन का इस तिलिस्‍मी किले में प्रवेश कर पाना ही कठिन था और यदि किसी प्रकार कोई प्रविष्‍ट कर भी गया, उसका जि़न्‍दा बाहर निकल पाना असंभव था।

           किले के दरवाज़े के अंदर और बाहर बैठकें बनी हुई हैं। अंदर की बैठकें फाटकों से संलग्‍न लंबी एवं तीन फुट ऊँची हैं। दरवाज़े के अंदर से किले के मध्‍यमें स्थित चौक तक एक संकीर्ण सुरंग जैसे तलघर में से गुज़रना पड़ता है। इस सुरंगनुमा लंबे गलियारे के छह प्रकोष्‍ठ हैं। प्रथम प्रकोष्‍ठ तो दरवाज़ा ही, जिसमे प्रहरियों एवं रक्षकों की बैठकें हैं। इसके बाद दूसरा प्रकोष्‍ठ है, जिसके दाऍ-बाएँ बने कमरों से महल के ऊपरीतलों पर जाने के घुमावदार सीढि़याँ है। इसके आगे तीसरी प्रकोष्‍ठ है, जिसके दोनों ओर लंबे गलियारे हैं। इन गलियारो मेंसे एक-दूसरे का आर-पार काटते कमरे एवं दरवाज़े हैं। इसके बाद आगे चलने पर चौथा प्रकोष्‍ठ है, जो बड़ा हालनुमा कक्ष है, जिसके दाएँ-बाएँ चार-चार द्वारों वाले कमरे है।

         इसके आगे पाचवां प्रकोष्ठ है, जिसके दोनों ओर लंबे हॉलनुमा गलियारे हैं, जिनकी छतो में प्रकाश छिद्र हैं। इन गलियारों के भी दोनों ओर अनेक कक्ष हैं। छठवाँ प्रकोष्‍ठ एक छोटा और नीचा कक्ष है, जिसमें एक रोशनदान है। इस कक्ष का अग्रभाग तीन द्वार वाला है। यह तीनों द्वार इतने नीचे हैं कि झुककर चौक में पहुँचना पड़ता है। किले में मुख्‍य दरवाज़ेके चौक तक के सभी प्रकोष्‍ठों को ढालू (चौक तक उतरते ढाल) बनाया गया है। किले के भूतल की छत के चारों ओर का ढाल चौक की ओर है, जो (चौक) किले के बीचों-बीच है। मध्‍य चौक के पूर्वी भाग में द्वार नहीं है, बल्कि भूतल से छत पर चढ़ने को सीढि़याँ बनी हुई हैं।

            मुख्‍य प्रवेश दरवाज़ा के सामने वाले सुरंगनुमा गलियारे से किला के चौक में पहुँच जाते हैं। इस चौक के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में भी तीन-तीन दरवाज़े हैं। इस चौक के चारों ओर समान भूल-भुलैया जैसे कक्ष हैं। ये कक्ष ही गढ़-कुण्‍डार किलाकी युद्ध व्‍यूह रचना हैं कि बाहर से तोपों से इसे तोड़ा नहीं जा सकता था। कोटरों के कारण किला में जो घुसा, वह मरा। इसी कारण यह अजेय रहा है। चौक की पूर्वाभिमुखी सीढि़यों से महल के प्राँगण (छत) पर पहुँच जाते हैं। इस महल प्राँगण के चारों ओर समान वास्‍तु शिल्‍प में निर्मित तीन मंजिला महल है। गढ़ कुण्‍डार किले नीचे वाले भाग में किला तथा ऊपर खूबसूरत महल का निर्माण किया गया है, जो मुगल राजपूत वास्‍तु शिल्‍प का मिला-जुला अनूठा प्रदर्शन है। प्राँगण के दक्षिणी-पश्चिमी कोने से महल के ऊपरीतल पर जाने को छह फुट चौड़ी सीढि़याँ हैं।

           गढ़-कुण्‍डार के ऊपरी महल की रचना बहुत कुछ ओरछा के जहाँगीर महल के अनुरूप है। प्राँगण की ओर निर्मित दालानी (बरामदा) गलियारे के बड़े द्वारों में लाल पत्‍थर के लंबे-लंबे खंभे लगे हुए हैं, जिसके बाद आयताकार एवं मध्‍य में वर्गाकार बड़े–बड़े कक्ष हैं। इन कक्षों के बाद बाहरी भाग की ओर हवादार गलियारे वाली दालानें, झरोखे एवं बैठकें हैं। कमरों के कोनों में छिपी हुई ओट देकर सीढि़याँ बनाई हैं। चौथी मंजिल पर प्रत्‍येक दिशा के कोनों पर एवं मध्‍य भाग पर भव्‍य भवन खड़े किये गये है, जिन पर सुंदर छतरियाँ स्‍थापित हैं। इसी चौथी मंजिल पर कमरों के सामने बड़े-बड़े खुले छतरियाँ बनायी गयी हैं। किले के ऊपरी भाग में निर्मित यह महल भी भूल-भुलैया घर जैसा ही है, जिसमें ऊपर से नीचें, नीचे से ऊपर अथवा एक ही मार्ग से आना-जाना सरल नहीं है। प्राय: लोग रास्‍ते को भूल जाते है

            जिस तरह की वास्‍तु शैली का यह किला है, ऐसे किले संभवत: भारत में कम ही देखने को मिलते है। किला प्राँगण के पूर्वीभाग के मध्‍य में एक कक्ष से नीचे तलघर में जाने की सीढि़याँ हैं। ये सीढि़याँ भूतल के एक अँधेरे कोटरे (कमरे) में पहुँचाती हैं। इस गुप्‍त कोटर से एक द्वार परकोटा के अंदर पूर्व दिशा को है। यह किला का दूसरा आपात द्वार था।

            किले के चारों ओर लगभग चार हेक्‍टेयर घेरे में विशाल परकोटा बना हुआ है जो पहाड़ के मध्‍य निचाई से बना हुआ है। परकोटा परिसर के अंदर एक कुँआ और दक्षिणी भाग तथा उत्‍तर पश्चिमी कोने में दो बावड़ी हैं। परकोटा के अंदर ही किले के पूर्वी पठारी भाग में एक तालाब है। इसके अतिरिक्‍त किले के दरवाज़े के सामने नीची खंदक के बाहर दूसरा तालाब है तथा तीसरा विशाल सिंदूर सागर तालाब किला के उत्‍तरी भाग में गिद्ध वाहिनी देवी मंदिर के पास है, जबकि चौथा तालाब कुड़ार गाँव के पास है।

            गढ़-कुण्‍डार किले के निर्माण के बारे में वास्‍तविक जानकारी अनुपलब्‍ध है। इतिहासकारों के अनुसार चंदेल काल में चंदेलों का सूबाई मुख्‍यालय एवं सैनिक अड्डा था। यशोवर्मा चंदेल (925-40 ई.) ने दक्षिणी-पश्चिमी बुन्‍देलखंड को अपने अधिकार में कर लिया था, जिसकी सुरक्षा व्‍यवस्‍थ के लिए गढ़ कुण्‍डार केले में कुछ निर्माण कराया था और उसमें सेना एवं किलेदार रखा। सन् 1182 ई. में उरई के मैदान में चंदेलों-चौहानों का युद्ध हुआ था, जिसमें चंदेली राजसत्‍ता का पराभव हो गया। गढ़ कुण्‍डार के किलेदार शियाजू पवार भी वीरगति को प्राप्‍त हो गये थे।

           उसके पश्‍चात् खूबसिंह खँगार नायब किलेदार ने गढ़ कुण्‍डार में अपना स्‍वतंत्र 'खंगार राज्‍य' स्‍थापित किया। चंदेलों के बाद 1182 ई. से 1257 ई. तक गढ़ कुण्‍डार में खंगारों ने राज्‍य किया। सन् 1257 ई. मिहौनी के निर्वासित बुन्‍देला राजा सोहनपाल ने गढ़-कुण्‍डार किले पर अपना अधिकार किया। सन् 1257ई. से 1539 ई. तक 283 वर्ष गड़ कुण्‍डार किले से बुन्‍देलखण्‍ड का राज्‍य बुन्‍देला नरेशों ने चलाया था। सन् 1530 ई. मे रूद्रप्रताप बुन्‍देला ने मुगलों के आक्रमण से बचने हेतु गढ़ कुण्‍डार की जगह ओरछा राजधानी स्‍थानान्‍तरित की।

            गढ़ कुण्‍डार किले ने चंदेलो, खंगारों एवं बुंदेलों के राजसी वैभव को देखा है। बुंदेलखण्‍ड की वैभवपूर्ण राजधानी गढ़-कुण्‍डार भी 1539 ई. के पश्‍चात वीरान होती गयी। कालांतर में ओरछा नरेश महाराजा वीरसिंह देव(1605-27 ई.) ने अपनी पूर्वकालिक राजधानी के गढ़कुण्‍डार किले की सुध ली और प्राचीन चंदेलायुगीन कुठारी भूतल घर जैसे विचित्र तिलिस्‍मी गढ़ का जीर्णोद्धार करा उसके ऊपरी खंड पर, मुगल राजपूत वास्‍तु शैली में महल का निर्माण कराकर गढ़ कुण्‍डार को किलों की प्रथम पंक्ति में स्‍थापित किया था। वर्तमान में म.प्र. पर्यटन विभाग ने किले के संरक्षण के लिए अनेक कदम उठाये हैं, जिस कारण यह किला अब अच्‍छी स्थिति‍ में है। यह किला बुंदेलखण्‍ड का गौरव है।