
खनिज सम्पदा
August 9, 2024
वन
August 9, 2024बुन्देलखंड की कृषि-प्रक्रिया निराली ही है। लकड़ी के हल, बखर और कोपर कृषिकर्म में प्रयुक्त स्थानीय उपकरण हैं। बुन्देलखण्ड का कृषक वर्ष में तीन-तीन फसलें तक पैदा कर लेता है। वर्षाऋतु में बोई जाने वाली फसल स्यारी या कतकी कही जाती है, जिसमें ज्वार, धान, उर्द, मूँग, कोदों, समाँ, लठारा, कुटकी, राली और तिली बोई जाती है। यह मोटे अनाज कहे जाते हैं तथा सैकड़ों वर्षों तक बिना घुन सुरक्षित रखे रहते हैं। दूसरी फसल उन्हारी या चैत की कही जाती है, यह कार्तिक, अगहन में बोई एवं चैत में काटी जाती है। इसमें गेंहूँ, चना, जौ, मसूर, तेवड़ा, अलसी, सरसों और सेउआँ पैदा किया जाता है। इस फसल को जाड़ा एवं पानी अधिक चाहिये, होता है। तीसरी फसल जायज की गर्मी में बोई जाती है। मूँग, उर्द, कलींदा, कुम्हड़ा, चीमरी और जिठऊ सठिया धान पैदा की जाती है। यह फसल विषेशकर तालाबों और नदियों में की जाती है।
बुन्देलखण्ड की कृषि प्रकृति एवं मानसून पर निर्भर है। अनावृष्टि अकाल तो यहाँ किसी न किसी क्षेत्र में पड़ते ही रहते हैं। 4 से 6 या 10 वर्ष में एक भयंकर अनावृष्टि अकाल आता ही है जिससे यहाँ का कृषक सदा गरीबी के गर्त में पड़ा रहता है। नदियों का भारी पानी व्यर्थ ही बह जाता है। बाँधों के द्वारा उसे रोककर कृषि कर्म के विकास तथा सिंचाई में लाने के प्रयत्न भी नहीं किये गये।
बुन्देलखण्ड के मध्यक्षेत्र का कृषक तो विशेष आर्थिक तंगी का जीवन व्यतीत करता रहा है, क्योंकि उपजाऊ भूमि तो जागीरदारों, जमींदारों अथवा प्रतिष्ठित लोगों के आधिपत्य में रही हे तथा अवशिष्ट रॉकड़ और ककरीली सीमान्त भूमि छोटी जोत के बहुसंख्यक किसानों के पास रही है। एक ओर तो अनुपजाऊ सीमांत भूमि पर लगान स्थापित कर राज्य सरकार कृषकों का शोषण करती रही तथा दूसरी ओर बड़े भूमिस्वामी छोटे किसानों को अपनी भूमि संविदा लगान अथवा साहूकार भी सवाई की दर पर बीज देकर किसान की गरीबी में विकास करते रहे, तिस पर भी चोरों, लुटेरों, डाकुओं एवं गैर क्षेत्रीय सत्ता पिपासुओं की बलात् लूट ने निरंतर गरीबी में अभिवृद्धि की।