
पंचम कवि की टौरिया
October 8, 2024
अखण्ड प्रज्जवलित ज्योति
October 8, 2024मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के सीमांत जिलों में सर्वाधिक मान्यता लाला हरदौल की देखी गई है। गाँव-गाँव मे स्थापित उनके चबूतरे उनकी कालजयी मान्यता के प्रतीक है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि शादी, विवाह अथवा अन्य मांगलिक कार्य होने पर हरदौल की पूजा और उन्हें निमंत्रित करने से मांगलिक कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो जाते है। हरदौल बुन्देलखण्ड शिरोमणि महाराज वीरसिंह बुन्देला के सबसे छोटे पुत्र थे। इनके जन्म को लेकर मतभिन्नता है। इनका जन्म 27 जुलाई 1608 ई. में दतिया के भरतगढ़ में हुआ था। सुप्रसिद्ध इतिहासकार विसेंट स्मिथ एवं मेजर जनरल डब्ल्यू, एच. स्लीमन ने हरदौल का जन्मस्थान दतिया बताया है। कुछ लोग इनका जन्म स्थान ओरछा तथा एरच भी मानते है। लोकगीतों में इनका जन्म स्थान पृथक-पृथक ओरछा, एरच, दतिया मिलता है।
ओरछा के तत्कालीन राजा रामशाह के समय बड़ौनी की जागीर वीरसिंह जू बुन्देला के पास तथा दतिया के आसपास का क्षेत्र राजा रामशाह के बड़े पुत्र संग्रामशाह के पास था। इसकी मृत्यु के बाद यह जागीर उसके ज्येष्ठ पुत्र भरतशाह को प्राप्त हुई। उसने दतिया के उत्तर में स्थित पहाड़ी पर भरतगढ़ दुर्ग का निर्माण कराया था जिसे बाद में वीरसिंहने हस्तगत कर लिया था। लाल हरदौल का जन्म इसी दुर्ग में हुआ था। इनके जन्म के कुछ दिन बाद ही इनकी माता गुमान कुँअरि का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनके ज्येष्ठ भ्राता जुझारसिंह बुन्देला की पत्नी चम्पावती ने किया। हरदौल को दूध पिलाने का दायित्व चम्पावती के पुत्र विक्रमाजीत की पत्नी कमल कुँअरि का था जिनके बेटे का प्रसव हरदौल के जन्म के कुछ दिन बाद हुआ था।
अपने पिता के छोटे पुत्र होने के कारण ये अपने पिता को विशेष प्रिय थे। जिन्हें शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा समान रूप से दी गई थी। अपने पिता के समय युद्ध में जाने से वे युद्ध विद्या में भी पारांगत हो गए। वे युद्धवीर, धर्मवीर, दानवीर और दयावीर आदि गुणों से युक्त थे। हरदौल का विवाह दुर्गापुर दतिया के दिमान लाखन सिंह परमार की बेटी हिमांचल कुँअरि से सन् 1628 में दुर्गापुर में हुआ था। सन् 1630 ई. में पुत्र विजयसिंह पैदा हुआ। वृद्धावस्था में वीरसिंह ने परिवार में विवाद की स्थिति को देखते हुए जुझार सिंह को ओरछा की गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। हरदौल को दिमान बनाकर बड़ागांव की जागीर दी गई। अन्य पुत्रों में भी जागीर का बंटवारा कर दिया।
मुगल सम्राट जहाँगीर की मृत्यु पश्चात ओरछा के साथ मित्रता की नीति बदल गई। सन् 1628 ई. में शाहजहाँ के तख्त नसीनी के अवसर पर जुझार सिंह आगरा गाए किन्तु गिरफ्तारी की आशंकाओं को देखते हुए शाहजहाँ से बगैर मिले ही आगरा से वापस लौट आये। इससे कुपित होकर शाहजहाँ ने महाबत खान को जुझारसिंह पर आक्रमण करने भेजा यद्यपि ओरछा किले को मुगल जीत न सके पर महाबत खां ने कूटनीति से आगरा जाने को राजी कर लिया। जहाँ तलवार की नोक पर उन्हें झुकने को मजबूर किया गया। उन्हें रिहाई के लिये मुगलों को बड़ी राशि देनी पड़ी। मुगलों के अधीन उन्हें दक्षिण में नौकरी करने तथा करैरा परगना मुगलों को देना पड़ा।
कुछ समय पश्चात खानेजहाँ लोदी मुगल कैद से भाग निकला और ओरछा राज्य से होकर दक्षिण चला गया। हरदौल ने उसे रोका नहीं। इस समय जुझारसिंह दक्षिण में थे। इससे शाहजहाँ फिर ओरछा से नाराज़ हो गया और उसने खानेजहाँ लोदी को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए ओरछा को आदेशित किया। मज़बूरन जुझारसिंह के पुत्र विक्रमाजीत को उससे युद्ध करना पड़ा, जिसमें दरयाव खान मारा गया। लगभग 200 बुंदेले सैनिक भी मारे गये।
इस घटना ने दोनों भाईयों के बीच बन रही दरार को और गहरा कर दिया। इसका कई षडयंत्रकारियों ने लाभ उठाया। हरदौल के उनकी भाभी से सम्बन्धों को लेकर उनके चरित्र पर उंगली उठाई गई। ओरछा महल के अंदर और मुगल दरबार की ओर से षड्यंत्र अलग से रचे जा रहे थे। जुझारसिंह ने हरदौल को अपने रास्ते हटाने के लिए दशहरा को आयोजित भोज में हरदौल को जहर दे दिया। हालत खराब होने पर वे राजा राम मंदिर पहुँचे जहाँ उनका दर्दनाक देहांत हो गया। ओरछा में खबर फैलते ही विद्रोह की स्थिति बनी पर विद्रोह को कुचल दिया गया। बाद में हरदौल के पार्थिव शरीर को उनकी बहिन कुंजावती दतिया ले आई जहाँ उनका दाहसंस्कार हुआ।
कुंजावती की लड़की की शादी होने पर वह भात माँगने जुझारसिंह के पास गई। जुझारसिंह के उलाहना देने पर कि भात हरदौल से ही क्यों नहीं माँग लेती, तब कुंजवाती हरदौल की समाधि पर भात माँगने गई। हरदौल ने मृत्यु के बाद भी भात दिया। तब से शादी में हरदौल की पूजा की मान्यता है ऐसा करने से विवाह निर्विघ्न सम्पन्न होता है। सन् 1715 ई. में दतिया के राजा रामचंद ने उनके नाम पर एक तालाब का निर्माण कराया जो आज भी लाला के तालाब के नाम से जाना जाता है।