नरवर बुन्देलखण्ड की पश्चिमोत्तर सीमा पर मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिला के अंतर्गत आता है। नरवर का किला सिंध नदी के दायें तट पर विशाल पहाड़ की पूर्वी तराई के मध्य अहीर नदी के बायें भाग में स्थित है। नरवर ग्वालियर से 112 कि.मी. करैरा से 36 कि.मी. एवं झाँसी से 80 कि.मी. की दूरी पर है।
सिंध नदी के दायें किनारे पर उत्तर क दक्षिण की ओर फैली विंध्य पर्वत श्रेणी है। इसी 475 फीट की ऊँची श्रेणी पर राजानल का नल दुर्ग (नरवरगढ़ उर्फ़ नरवर दुर्ग) बना हुआ है। यह लगभग 8 किलोमीटर के घेरे में है। विन्ध्य पर्वत श्रेणी पर नलपुर दुर्ग, जिसके दक्षिण-पश्चिम प्रवाहित सिंध एवं पूर्व दिशा में अहीर नदी इसे प्राकृतिक रूप से सुरक्षा प्रदान करती है। अहीर नदी से लगा नरवर नगर का नगरकोट है। नरवर किला विशाल एवं भव्य है, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से समग्र बुन्देलखण्ड परिक्षेत्र में प्रथम है।
अहीर नदी के अँचल में दुबाई बाज़ार में नगर का पूर्वी दरवाज़ा है। फिर उत्तर की ओर पक्का किला मार्ग, जिससे पहले मध्यपहाड़ से उत्तर की ओर किले का मुख्य पिसनारी उर्फ़ आलमगीरी दरवाज़े हैं। आलमगीरी दरवाजा (पिसनारी) पूर्णत: हिंदू शैली में बना हुआ है। इसके दोनों किनारों पर सुंदर छतरियाँ बनी हुईं हैं। दरवाज़े के अंदर विशाल प्राँगण है। बाहर पूर्व की ओर एक सुंदर आकर्षक विशाल बुर्जबनी है, यह दरवाज़ा 1692ई. में बना था।
आलमगीरी दरवाज़े के भीतर सेपश्चिम की ओर पहाड़ पर लगभग 25 फुट चौड़ा सीढ़ी मार्ग दो विशाल बुर्जों के मध्य पहुँचता है। इन बुर्जों की सीढि़यों की उत्तरी दिशा में विशाल एवं खूबसूरत सैयद दरवाज़ा है। सैयद दरवाज़े को पीर पौर भी कहते हैं। सैयद दरवाज़े के अंदर सामने एक तीन द्वारों की खुली सुरक्षा चौकी है। सैयद (पीर पौर) दरवाज़े के आगे गणेश दरवाज़ा है। इस दरवाज़े पर गणेश जी का भव्य मंदिर है, जिसके दोनों ओर लगभग 60 फुट ऊँची विशाल बुर्जें खड़ी की गयी हैं।
गणेश दरवाज़े को पार कर हवा महल दरवाज़े के साकने जा पहुँचते हैं। इस दरवाजे़ के सामने सुंदर प्राँगण है, जिसके उत्तर की ओर 3 सुंदर बैठकें हैं, जिनकी पच्चीकारी एवं शिल्प दर्शनीय हैं।इस दरवाज़ा के आगे एक ओर किला प्राँगण है।
किले के प्रथम भाग प्राँगण में राजस्थान के सवाई जय सिंह की एक तोप है, जिस पर सन् 1696 अंकित है। किले का यह प्रथम परिसर पाँच-छह किलोमीटर के घेरे का है। चारों ओर से सुदृढ़ परकोटा है तथा परकोटे के अंदर महल, मंदिर, आवासीय भवन, तालाब आदि बने है। किले का द्वितीय दक्षिणी परिसर लगभग 3 कि.मी. घेरे का है, इसे देखकर ऐसा लगता है कि यह सैन्य परिसर रहा होगा। इसमें तालाब, मंदिर, मस्जिद, मजार, छतरियाँ हैं। किले उत्तरी एवं दक्षिणी परिसरों के मध्य भाग में बनायी गयी एक परकोटा भित्ति इन्हें विभाजित करती है। इसी विभाजक भित्ति के दक्षिणी-पूर्वी कोने से एक दरवाज़ा है। संपूर्ण किले का परकोटा पहाड़ के शिखर के चारों ओर किले की घेराबंदी किये है। परकोटा लगभग 10 फुट चौड़ा एवं 30 फुट ऊँचा है, जिसमें लगभग 60 से अधिक विशाल बुर्जें हैं।
किले के उत्तरी क्षेत्र में ऊदल भक्षी भवन है। दंतकथाओं के अनुसार इसी भवन में महोबा के सरदार ऊदल को कै़द कर रखा गया था। ऊदल भक्षी भवन से आगे महलों का क्रम प्रारंभ हो जाता है। इसके आगे शीप महल मिलता है। इसमें एक विशाल पत्थर को तराश कर अति सुंदर शीप बनाकर रखी गयी है। इसी शीप के नाम पर इस महल को शीप महल कहा गया है। इस शीप महल की रचना आकृति यज्ञशाला जैसी है, कहा जाता है कि यह राजा का व्यक्तिगत पूजा-गृह था। इसी महल से संलग्न एक और विशाल महल है, जिसका वास्तु शिल्प दर्शनीय है। इसके सामने हवा महल है, जिसके झरोखे बहुत आकर्षक हैं। हवा महल के समीप ही रसोड़ा भवन है, जिसका वास्तुशिल्प भी अनूठा है।
कुछ आगे चलने पर फूल महल मिलता है, जिसकी ऊपरी मंजिल पर भव्य एवं आकर्षक छतरियाँ हैं। फूल महल से आगे ढोला-मारूँ का महल एवं रनिवास है, जो कला एवं स्थापत्य की दृष्टि से अद्वितीय है। ढोला राजा नल का राजकुमार था और मारूँ (मारवाण) राजस्थान के पूंगलगढ़ की राजकुमारी थी उनकी प्रेमगाथा राजस्थान एवं बुन्देलखण्ड में लोकगीत के रूप में गाई एवं सुनी जाती है।
ढोला-मारूँ महल से आगे शाही स्नानगृह है, जिसमें ठंडे एवं गरम पानी के लिए प्रथक-प्रथक कुंड निर्मित हैं। इस स्नानघरमें कौडि़यों के चूना की छपाई की गयी है। गरम कुंड के नीचे आग जलाने के लिए ईंधन भट्ठी निर्मित है। यहाँ से आगे चारों ओर भव्य भवन खड़े हुए हैं, जिनका आयोग खाद्य रसद भंडारण, युद्ध सामग्री, गोला बारूद, तलवारों के भंडारण, सैनिक अधिकारियों एवं कर्मचारियों के आवास के रूप में होता रहा होगा।
स्नानगृह परिसर के पश्चात् कचहरी महल है। यह महल नरवर के राजाओं का भव्य दरबार सभागार था, जिसमें प्रस्तर का सुंदर राजसिंहासन बना हुआ है। कचहरी प्राँगण में हवन कुंड वेदिका एवं एक आकर्षक फव्वारा है। कचहरी महल से संलग्न सुनहरी महल है। इसे सुनहरी महल इसलिए कहा गया है कि इस पर निर्मित छतरियाँ पीली सोने के रंग जैसी हैं। सुनहरी महल के अतिरिक्त शपथ-समारोह भवन, सेनापति भवन, रंगमहल एवं झूला परिसर वास्तु शिल्प के उत्कृष्ट प्रतीक हैं। रंगमहल क समीप परकोटा से लगी सोलह एवं खंभों क एक ऊँचे आसन पर छतरी बनी हुई है, जिसमें से नरवर नगर का संपूर्ण परिदृश्य दृष्टिगोचर होता है।
कचहरी महल के पास राम-जानकी मंदिर है, जिसमें प्रयुक्त पत्थर की जाली अति सुंदर है। इस मंदिर के आगे आठ कुआँ – नौ बावड़ी कहा जाने वाला एक विशाल तालाब है। यहाँ से आगे मुगल शैली का सुंदर अखाड़ा बना है, जिसके चारों कोनों पर चार सुदृढ़ मीनारें है। इसी परिसर की ढलान पर जैन तीर्थकर चन्द्रप्रभु का मंदिर है।
हवा पौर दरवाज़ा प्राँगण से एक मार्ग महलों-भवनों के मध्य से दक्षिणी परिसर की ओर जाता है, जो मध्यवर्ती परकोटे के दरवाज़े तक है। इस दरवाज़े में से सैन्य परिसर में प्रविष्ट होते हैं। पत्थर का बना हुआ नरवर किले परकोटे में लगभग 60 से अधिक बुर्ज हैं। किले से बाहर निकलने के लिए परकोटे में चार विशाल दरवाज़े-हवा पौर दरवाज़ा, उरबाया दरवाज़ा, ढोला दरवाज़ा एवं गूजर अहाता-सैन्य परिसर से दक्षिणी दरवाजा़ हैं। सभी दरवाजों पर सुरक्षा चौकियाँ हैं।
नरवर को नलपुर भी कहा गया है तथा यहाँ किले को नरवरगढ़ नलपुरदुर्ग, नरवर दुर्ग नाम से संबोधित किया जाता रहा है। नरवर को महाभारत के नलोपाख्यान (वन पर्व) के नायक राजा नल की राजधानी नलपुर (नरवर) कहा जाता है। नरवर दुर्ग नाग राजाओं की राजधानी भी मानी जाती है। कनिंघम ने तो नरवर को ही पद्मावती माना है, जो नागों का वैभवशाली ठिकाना था।
दसवीं सदी में भगवान राम के छोटे पुत्र कुश के वंशज कुशवाहा क्षत्रियों का प्रादुर्भाव बुंदेलखण्ड के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में हुआ, जिनकी एक शाखा ने नरवर में सत्ता स्थापित की, तो दूसरी शाखा राजस्थान की ओर गयी, जिसने जयपुर में कछवाही राजसत्ता स्थापित की थी। इस नरवर दुर्ग पर कछवाहों के अतिरिक्त पडि़हाराहें, तोमरों, गुलाम वंशीय सुल्तानों, लोदी वंशज सिंकदर लोदी, मुगल सम्राट अकबर, शाहजहाँ, औरंगजेब, ओरछा नरेश महाराजा वीरसिंह देव बुन्देला, चंपातराय और उनके पुत्र छत्रसाल बुंदेला, नारोशंकर, बिट्ठल शिवदेव, महादजी सिंधिया एवं दौलतराव सिंधिया ने अपने-अपने समय में नरवर परिक्षेत्र को लूटा एवं दुर्ग पर अधिकार करने की चेष्टा की।
मानसिंह तोमर ने इस किले का जीर्णोद्धार करवाया तथा सामरिक दृष्टि से सुदृढ़ एवं सुरक्षित किया था। मानसिंह तोमर तथा मृगनयनी प्रणय-प्रेम इसी दुर्ग में रहते हुए हुआ था। इसी कथानक पर आधारित 'मृगनयनी' उपन्यास की रचना साहित्यकार ड़ॉं. बृन्दावनलाल वर्मा ने की। नरवर का किला अपने हृदय में अनेक की प्रणय-लीलाएँ छिपाए हुए है, जिनमें नल-दमयंती,ढोला-मारूँ एवं मानसिंह तोमर एवं मृगनयनी मुख्य हैं। अनेक प्रहार एवं आक्रमणों के थपेड़े झेलता हुआ नरवर का किला आज भी अनेक घावों एवं चोटों को समाहित किये हुए खड़ा है।
सन् 1504 ई. में सिकंदर लोदी और कालपी के जलाल खाँ ने संयुक्त रूप से आक्रमण कर नरवर के किले को अपने अधिकार में ले लिया था। सिकंदर लोदी नरवर किले में छह महीने तक रहा था। किले के दक्षिणी परिसर में स्थित मस्जिद सिकंदर लोदी की ही बनवाई हुई है। सन् 1578 में मुगल सम्राट अकबरने नरवर किले पर आक्रमण किया था। किला फतह के कुछ दिनों तक अबुल फजल यहाँ रहा था, उसने अकबरनामा में उल्लेख किया है कि नरवर किले में कई हिंदू मंदिर हैं। सन् 1592 में ओरछा महाराजा मधुकर शाह ने नरवर के पास ही मुगल सेना का सामना किया था।
सन् 1602 ई. में वीर सिंह बुन्देला ने नरवर में रहते हुए ही दतिया के पास अबुल फजल की हत्या की थी। शाहजहाँ ने नरवर के रामदास कुशवाहा को ओरछा के शासक जुझारसिंह के दमन के लिए भेजा था। सम्राट औरंगजेब आलमगीर ने भी नरवर दुर्ग पर आक्रमण किया। किले विजय के उपलक्ष्य में ही आलमगीरी दरवाज़ा बनवाया गया था। मुगलों के पश्चात् मराठों ने 1763 में महादजी सिंधिंया के नेतृत्व में नरवर में आक्रमण प्रारंभ किया। 1784 से 1946 तक नरवर ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के अधिकार में रहा।
नरवर दुर्ग के दक्षिणी दरवाज़े के पास पहाड़ की तलहटी में एक छोटे चबूतरे पर लोहड़ी देवी का मंदिर है। लोहड़ी देवी एक तांत्रिक नटिनी थी, जिसकी मृत्यु किले में ही हुई थी। नरवर और इस नटनी से एक दंत कथा जुड़ी है। उसकी मृत्यु के बाद से नरवर में नर्तकियाँ नहीं आतीं और यह कहावत चरितार्थ हो गई-
नरवर चढ़े न बेड़नी, एरछ पकै न ईंट।
मुदनौटा भोजन नहीं, बूँदी छपै नी छींट।।
आज देख-रेख के अभाव तथा शासन की उपेक्षा के कारण यह वैभवशाली विरासत खंडहर होने की ओर अग्रसर है। यदि इस किले को पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित किया जाय, तो यह ऐतिहासिक धरोहर को नष्ट होने से बचाया जा सकता है।