ओरछा मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में बेतवा नदी के बाएं तट पर स्थित है। यह बुन्देलखण्ड का ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत का एक प्रमुख ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थल है संपूर्ण बुन्देलखण्ड की संस्कृति एवं धर्मिक गतिविधियों का केंद्र ओरछा रहा है। भारत की मध्यकालीन राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास में ओरछा का स्थान उच्च है। बुन्देलखण्ड के तीज-त्यौहार परंपराएं और यहाँ की संस्कृति कहीं ना कहीं से ओरछा से ही संबंधित है क्योंकि ओरछा लंबे समय तक बुन्देलखण्ड की राजधानी रही है।
चंदेल शासकों के पश्चात ओरछा से ही बुंदेला शासकों ने सन 1532 ईस्वी से 1764 ईस्वी तक शासन किया। आज भी ओरछा में बुंदेला शासकों द्वारा निर्मित भव्य किले मंदिर एवं अन्य अनेक ऐतिहासिक इमारतें हैं जो अपने स्वर्ण में इतिहास के वैभव के साथ प्रमुख पर्यटन एवं धार्मिक स्थल हैं। ओरछा कला की दृष्टि से भी प्रमुख केंद्र रहा है, यहाँ के मंदिरों के मूर्ति कला, वास्तु कला, एवं चित्रकला पर्यटकों एवं कला के जानकारों को अपनी ओर आकर्षित करती है ऊर्जा का प्राकृतिक वातावरण भी इसके सहायक है।
पत्थरों के बीच बहती बेतवा नदी के तट पर स्थित बुंदेला राजाओं की छतरियाँ, चारों तरफ सागौन के पेड़ों का घना जंगल इन सबके बीच राम राजा के मंदिर का शांत वातावरण ओरछा को प्राकृतिक सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पर्यटन की दृष्टि से प्रमुख पर्यटन स्थल पहचान प्रदान करते हैं। ओरछा झाँसी से लगभग 17 किमी पूर्व में स्थित है। रेल मार्ग से ओरछा तक पहुँचने के लिए झाँसी जंक्शन प्रमुख रेलवे स्टेशन है जो देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल मार्ग द्वारा जुड़ा है। सड़क मार्ग से ओरछा राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 75 झाँसी इलाहाबाद द्वारा पहुँचा जा सकता है। झाँसी से ओरछा के लिए बस टैक्सी जी भर समय उपलब्ध रहते हैं। झाँसी तथा ओरछा में आवास के लिए भी बेहतर होटल हैं।
वायु मार्ग से ओरछा के लिए सबसे नजदीक हवाई अड्डा ग्वालियर है जो यहाँ से लगभग 120 किमी दूर है। ओरछा नगर की स्थापना सन 1531 ईस्वी में बुंदेला राजा रूद्र प्रताप ने की थी। ओरछा किले का शिलान्यास वैशाख शुक्ल पूर्णिमा सम्वत् 1588 अर्थात सोमवार दिनाँक 3 अप्रैल 1532 ईस्वी में हुआ। यह किला 8 वर्षों में बनकर तैयार हुआ। ओरछा जो कि बुंदेला शासकों के दौरान बुन्देलखण्ड की राजधानी रही इसकी स्थापना के पीछे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का विशेष योगदान है। सन 1181 ईस्वी में पृथ्वीराज चौहान ने बुन्देलखण्ड की चंदेल राजसत्ता पर आक्रमण कर उस बैरागढ़ के मैदान में पराजित कर अस्तित्व विहीन कर दिया था।
चंदेलों के पश्चात मिहोनी (जालौन) से बुंदेलाओं की राजसत्ता का आविर्भाव हुआ। मिहोनी जो कि पहूज नदी किनारे बुंदेलों का काफी ठिकाना था,का तत्कालीन शासक सोहनलाल बुंदेला था। सोहनलाल बुंदेला को आंतरिक सत्ता संघर्ष के कारण मिहोनी से पलायन कर बेतवा के तटवर्तीय वनों से घिरे महत्वपूर्ण सामरिक स्थल गढ़कुंडार के समीप आना पड़ा। उस समय गढ़ कुंडार राज्य पर खंगार वंश का शासन था। सोहनपाल बुंदेला को आंतरिक सत्ता संघर्ष के कारण मिहोनी से पलायन कर बेतवा के तटवर्तीय वनों से घिरे महत्वपूर्ण सामरिक स्थान गढ़कुंडार के समीप आना पड़ा। उस समय गढ़कुंडार राज्य पर खंगार वंश का शासन था।
सोहनपाल ने बुंदेले, परमार और धंधेरे तीन वर्ग के क्षत्रियों को संगठित कर सन 1257 ईस्वी में गढ़ कुंडार किले एवं राज्यों को खंगारों से जीतकर बुंदेलों की राजसत्ता स्थापित की। जब सन 1529 ईस्वी में चंदेरी के युद्ध में 52 ने मेदनी राय को परास्त कर चंदेरी पर आधिपत्य किया उसी समय गढ़कुंडार में बुंदेला शासक महाराजा रूद्र प्रताप बुंदेला का शासन था। राज्य के उत्तर एवं दक्षिण में मुगलों के बढ़ जाने से गढ़कुंडार पर भी आक्रमण खतरा नजर आने लगा इसी कारण महाराजा रूद्र प्रताप ने गढ़कुंडार की जगह किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर राजधानी बनाने का विचार किया घने जंगल के मध्य बेतवा के पानी से घिरे टापू पर महाराजा रूद्र प्रताप ने अप्रैल 1532 ईस्वी को किले की स्थापना की।
बेतवा के टापू के ओर से छोर तक किला बना। अत: उसका नाम भी ओर छोर से ओरछा पड़ा। किले की आधारशिला रखने की कुछ दिनों पश्चात महाराजा रूद्र प्रताप का निधन हो गया उनका अंतिम संस्कार ओरछा किले के पूर्वी और बेतवा नदी किनारे किया गया जहाँ आज भी उनकी भव्य छतरी स्थित है।
रूद्र प्रताप की मृत्यु उपरांत उनके ज्येष्ठ पुत्र भारती चंद्र गढ़कुंडार के राजा हुए। भारती चंद्र ने ओरछा के किले का निर्माण तथा नगर बसाहट का कार्य पूर्ण कराया। उनके 8 वर्ष के अथक परिश्रम से किला पर कोटा दीवान खाना,बारूद खाना तथा अन्य प्रमुख इमारतों का निर्माण हुआ तथा ओरछा एक विकसित नगर के रूप में स्थापित हुआ। भारती चंद्र के समय से ही ओरछा मध्य भारत के प्रमुख राज्यों में गिना जाने लगा। जिसकी सीमा यमुना से नर्मदा तक, एवं सिंध नदी से सतना तक फैली थी। ओरछा का किला लगभग 10, किलोमीटर की परिधि में बादाम के आकृति का है।
परकोटे में 19 बुर्जे हैं जिन्हें जगह-जगह तिकोनियाँ देकर मजबूती दी गई है, तथा उनमें तोपों के लिए बड़े-बड़े सुराख किए गए हैं। परकोटा में सात गुप्त द्वार हैं। जिनमें दो बेतवा की मुख्य धारा में, पाँच उपधारा हैं। किले का मुख्य विशाल दरवाजा एक चौह्दद्वारी पुल एवं परकोटा से संलग्न है।किले के दरवाज़े को टेढ़ देकर बनाया गया है, पुल पार कर पश्चिमी दिशा में घूमते हुए किले के दरवाज़े से चलकर किला प्राँगण में प्रवेश होता है। किले में दो दरवाज़े शाही दरवाज़ा एवं शिव दरवाज़ा हें, जो उत्तर एवं पश्चिम दिशा में हैं।
ओरछा किला दो भागों में विभाजित था।इन दोनों भागों को चौदहद्वारी पुल जोड़े हुए था। टापू पर किले का प्रथम भाग था, जबकि दूसरा भाग नदी की उपधारा एवं पुल के दक्षिणी पार्श्व में बेतवा के पास। टापू स्थित किले के परकोटे से संलग्न दूसरा परकोटा नदी के किनारे से सौ मीटर पश्चात आयाताकार मोड़ देकर रानीमहल और फूल बाग के पृष्ठ भाग से मुड़ता–घूमता पश्चिम में उपधारा के पास स्थित किले के परकोटे से मिला हुआ था इस दूसरे भाग में रानीमहल, रानी वासी मंदिर, चतुर्भुज मंदिर और रनिवासीय बाग, फूल बाग एवं नौचौका महल थे। इस रानी वासी महल का दरवाज़ा ठीक टापू पर बने किले के दरवाज़े के सामने है। रानी वासी महल के दरवाज़े के दाऍं-बाएँ प्रहरियाँ एवं सुरक्षा सैनिकों के प्रकोष्ठ थे। उपधारा और रानीमहल के दरवाज़े के मध्य बेतवा के तट से पश्चिमी परकोटे तक विशाल आयाताकार किला मैदान था।
नागरिक बस्ती, बाजार और विस्तृत नगर ओरछा, रनिवासीय परकोटे के बाहर दक्षिणी-पश्चिमी दिशा में था। ओरछा नगर का पृथक से प्रस्तर का परकोटा था। जो दक्षिण-पूर्व में बेतवा नदी के बांयें तट से प्रारंभ होकर 25 किलोमीटर की परिधि बनाता हुआ उत्तर-पश्चिम दिशा में किले के परकोटे के नीचे बेतवा के बांयें तट से मिला है। नगरकोट से बाहर आने-जाने के लिए भाड़ैर, सैंयर एवं चंदेरी दरवाज़े बनाये गये हैं। बेतवा तट से पश्चिमी भाग के चौक दरवाज़े तक एवं रानीमहल दरवाज़े से दुर्ग के मुख्य दरवाज़े तक मध्य का समूचा क्षेत्र राजकीय संरक्षित किला मैदान था। जिसमें वारदातों से त्रस्त होकर जब राजधानी ओरछा से टीकमगढ़ स्थापित हुई, तो नागरिकों ने रानीमहल (रामराजा मंदिर) के सामने के प्रकोष्ठों एवं किला मैदान पर अधिकार कर दुकान एवं आवासीय भवन निर्मित कर किला मैदान विलोपित कर दिया।
किला चौक प्राँगण से चौदहद्वारी पुल पार कर पश्चिम दिशा में घूमते हुए किले का भव्य दरवाजा़पार कर किले में प्रविष्ट होते हैं। वहाँ उत्तर पूर्व की ओर चलने पर दीवानखाना है, जो किले के दरवाज़े, परकोटा एवं राजमहल से संलग्न है। दीवानखाना विशाल खंभों पर तीन कतारों में विभक्त भवन है। जिसमें राजा, सामंत, सरदारों एवं आम प्रतिष्ठित जनों के श्रेणीबद्ध बैठने की व्यवस्था है। दीवानखाने की दीवारों और छतों की चित्रकारी आज भी दर्शनीय है। दीवानखाने से उत्तर में राजमहल (राजमंदिर) का गेट है। यह तिमंजिला महल अंदर कलात्मक है। मेहराबी और घूँघटदार दरवाज़े, टुडि़यों परनिकले छाजे, रामायण, महाभारत आधारित भित्ति चित्रवालियाँ, बेलबूटे, ऊपरी मंजिल के झरोखे, महल के शीर्ष पर तीन-तीन की कतारों में स्थापित छतरियों ने इसकी शोभा, आकर्षण एवं भव्यता का महलवास्तु के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित कर दिया है। यह महल मुगल स्थापत्य शैली पर निर्मित है। राजमहल के पूर्वी भाग में बेतवा तटवर्ती परकोटे के गुप्तद्वार की ओर दो छोटे महल, कुआँ एवं बारूदखाना था, जो वर्तमान में भग्नावशेषों के रूप में हैं।
किले के दरवाजे़ के ठीक सामने पुलके दक्षिण की ओर किला चौक में खुलता उत्तराभिमुखी रनिवासीय महल ( रानीमहल ) का गेट है। यह रनिवासीय भाग भी एक परकोटा से घेरकर सुरक्षित किया गया था। भारतीचंद द्वारा मुगल स्थापत्य शैली में निर्मित भव्य रानीमहल के चारों ओर आवासीय कक्ष एवं बरामदे हैं तथा इसके दरवाज़े ईरानी शैली के मेहराबदार हैं। महल के शीर्ष भाग पर चारों ओर आकर्षक छतरियाँ निर्मितहैं। रानीमहल ( रामराजा मंदिर )के बायीं ओर मुगलकालीन शैली में निर्मित 'फूलबाग' है। नगरकोट, जो बेतवा से (दक्षिण-पश्चिम) तक लगभग 12 फुट ऊँचा और 6 फुट चौड़ा था, की विशिष्टता थी। इसका बाहरी भाग 12 फुट तथा भीतरी भाग 9 फुट ऊँचा था, जिस पर से नगर सुरक्षाकर्मी 3 फुट नीचे आंतरिक भाग से चलते हुए नगर की पहरेदारी करते थे।
1539 में ओरछा किला, राजमहल, रनिवास एवं किले के दक्षिणी भाग में नगर एवं नगरकोट बनकर तैयार होने पर भारतीचन्द्र ने राजधानी गढ़-कुण्डार से स्थानांतरित कर ली। 1554 ई. में भारतीचन्द्र का निधन के पश्चात् उनके छोटे भाई मधुकरशाह (1554-92) ओरछा के राजा बनाये गये। मधुकरशाह कृष्ण-भक्त थे, वहीं उनकी महारानी गणेश कुँवर राम-भक्त। दुर्ग के रनिवासीय परिसर में कोई मंदिर-देवालय न होने से महाराज मधुकर शाह ने रानीमहल प्राँगण में दायीं ओर विशाल, उत्तुंग शिखरों युक्त रथाकार मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ किया था, जिसे वर्तमान में चतुर्भुज मंदिर के नाम से जाना जाता है। मधुकर शाह की महारानी कुँअर गणेश ने सन् 1574 ई. ओरछा में भगवान रामराजा के मंदिर की स्थापना की।
ऐसी मान्यता है कि प्रतिष्ठा हेतु रामराजा की मूर्तियाँ महारानी कुँअर गणेश स्वयं अयोध्या से पैदल चलकर लायीं थीं। इन्हें उन्होंने अपने महल के एक भाग में प्रतिष्ठित किया। ओरछा के रामराजा मंदिर में राम की पूजा एक राजा के रूप में की जाती है। रामराजा को मध्य प्रदेश राज्य शासन द्वारा एक राज्य के प्रमुख की तरह सुविधाएं प्रदान की गयी हैं। भगवान राम की आरती के दौरान म.प्र. पुलिस के इंस्पेक्टर एवं सिपाही मूर्ति को सलामी देने के लिये तैनात रहते है। इस तरह रामाराजा मंदिर एवं बाद में निर्मित होने वाला राम मंदिर ( राम राजा के रानी महल में प्रतिष्ठित हो जाने से इसमें विष्णु भगवान प्रतिष्ठित करा दिये गये थे ) किला- रानी वासी परिसर के मंदिर थे।
महाराजा वीरसिंह देव प्रथम(1605-27 ई.) ने किले में अपने मित्र मुगल सम्राट जहाँगीर के नाम से जहाँगीर महल का निर्माण कराया था। जहाँगीर महल चार मंजिला भूल-भुलैया युक्त भव्य भवन है। इसके कमरों के दरवाजे़ चारों ओर हैं तथा मध्य की दो मंजिलों में दानों तरफ झरोखे हैं। ऊपरी छत के प्रत्येक कोने पर गोल मीनारें हैं, जिन पर गोल छज्जे एवं गुम्बदे हैं। जहाँगीर महल बुन्देली वास्तु स्थापत्य का एक सर्वोत्तम नमूना है। महल के दरवाज़े को हाथियों की मूर्तियों से अलंकृत किया गया है। तथा इसी के पास ऊँटघर, बारूदघर एवं हम्मास बने हुए हैं।
जहाँगीर महल के पश्चिमी भाग में वीरसिंह देव प्रथम ने अपने दरबार की प्रसिद्ध गायिका एवं नर्तकी प्रवीण राय के लिए हवेली एवं वाटिका का निर्माण कराया था। राय प्रवीण हवेली की दूसरी मंजिल में नृत्य आधारति अनेक भित्तिचित्र है, जो तात्कालीन चित्रकला का अनुपम उदाहाण हैं। जहाँगीर महल के दक्षिणी पार्श्व में महाराज उद्योत सिंह ने उद्योत निवास-भवन बनवाया था। इसमें बहुरंगे काँचों का प्रयोग किये जाने से इसे 'शीश महल' भी कहा जाता है। उद्योत निवास महल छोटा होने पर भी बहुत शानदार है, जिसका बत्तीस खंभों पर निर्मित दरबार हाल भव्य है। किले के रनिवासीय परिक्षेत्र में रानीमहल (राम राजा मंदिर) और फूलबाग के संलग्न महाराजा वीरसिंह देव प्रथम ने अपने 9 पुत्रों के लिए नौ आवास बनवाये थे। इसे नौ चौका महल कहते थे। क्योंकि यह नौ आवास एक ही महल परिसर में हैं। इनमें पालकी महल अति सुंदर है।
ओरछा किला दुर्ग,मंदिर एवं महल वास्तु का श्रेष्ठतम उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह किला जल एवं वन दुर्ग दोनों है, जो दो भागों, सैन्य परिसर व रनिवास परिसर में विभक्त था। सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से यह मध्य युग का एक सुरक्षित, अजेय एवं दर्शनीय किला रहा है।