टहरौली झाँसी जिले की एक तहसील है, जो जिला मुख्‍यालय से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। टहरौली के लिए झाँसी से सिर्फ़ सड़क मार्ग से ही पहुँचा जा सकता है। टहरौली का किला बुन्देलखण्‍ड के प्रसिद्ध बुन्‍देला राजा हरदौल के वंशजों के हस्‍तभैया (अष्‍ट गढि़यों) के अन्तर्गत आता है। टहरौली स्‍टेट का विशाल किला, लगभग 5 एकड़ क्षेत्र में फैला है। किले के अंदर 5 विशाल कुएं, बावड़ी, आलीशान पाँच मंजिला राज महल, अनेक रिहायशी कक्ष, राजराजेश्‍वरी देवी पीठ के साथ विभिन्‍न भवन आज वीरान हैं। किले के दोनों ओर दो विशाल तालाब हैं।

        ओरछा के महाराजा वीरसिंह देव प्रथम का शासन काल बुन्‍देलखण्‍ड के स्‍वर्ण युग कहा जाता है। इनके शासनकाल में सम्‍पूर्ण बुन्‍देलखण्‍ड क्षेत्र में 51 भव्‍य किलों का निर्माण हुआ। टहरौली का किला भी उन्‍हीं में से एक है। इसका प्रशासन उन्‍होंने अपनी तृतीय रानी पंचम कुँअर के पुत्र बाघराय के हाथों में सौंपा। उस समय टहरौली की समृद्धि चरमोत्‍मर्ष पर थी। उसके बाद टहरौली की कमान हरदौल के हाथों में आ गयी, जो उस समय बड़ागाँव के जागीदार थे। फिर हरदौल के पश्‍चात्‍ उनके पुत्र विजय सिंह, प्रताप सिंह और रायसिंह ने राज किया। 1776 ई. में ओरछा के महाराजा भारतीचन्‍द्र के नि:संतान होने पर उनके भाई विक्रमजीत ओरछा के शासक हुए। इस समय ओरछा राज्‍य की स्थिति कमजोर थी, जिसका लाभ उठाकर टहरौली के तत्‍कालीन जागीदार पजन सिंह ने दतिया से लेकर बाघटएवं टहरौली क्षेत्र में खुला विद्रोह कर दिया। इस समय दतिया के शासक शत्रुजीत सिंह ने अपने भाई खेतसिंह के नेतृत्‍व में पजन सिंह क विरुद्ध सेना भेजकर ओरछा राज्‍य की सहायता की।

        बड़ागाँव के जागीरदार राय सिंह के आठ पुत्र थे। उन आठों में कलह न हो, इसलिए राय सिंह ने सन् 1790 में आने आठ पुत्रों के बीच बँटवारा किया, जिसे आठ भैया स्‍टेट (अष्‍ट-गडि़याँ) के नाम से जाना जाता है। ये इस प्रकार विभाजित हुआ- कर्री (फतेह‍ सिंह), पसराई (भुजबल सिंह), टहरौली (लक्ष्‍मण सिंह), चिरगाँव (मोकम सिंह), ढुरबई (मानसिंह), विजना (सामंत सिंह), टोड़ी-फतेहपुर (हिन्‍दूपत सिंह), बंका पहाड़ी (उम्‍मेद सिंह) को दिया गया।

        टहरौली के राजा लक्ष्‍मण सिंह नि:संतान थे। वह साहित्‍य, संगीत एवं कला प्रेमी थे जिस कारण उनके शासन काल में टहरौली की शान में बढ़ोत्‍तरी हुई। इसी समय टहरौली किले में कुछ नव निर्माण हुए, सेना में बढ़ोत्‍तरी, अनेक विशाल तोपों की किले पर स्‍थापना (जो आज भी किले मे मौजूद हैं), किले में सुन्‍दर चित्रकारी एवं गायन-वादन आदि विधाएं क्षेत्र में विकसित हुईं।

        लक्ष्‍मण सिंह की मृत्‍यु के पश्‍चात् टहरौली को पुन: ओरछा में मिला दिया गया और वहाँ सिर्फ़ तहसील का निर्माण कर किलेदार एवं कुछ कर्मचारी रख दिये। इसी समय सम्‍पूर्ण बुन्‍देलखण्‍ड क्षेत्र में मराठों ने लूट मचा रखी थी। उन्‍होंने टहरौली के समीपवर्ती गाँव बमनुआँ में खूबसूरत गढी (1770ई. में पजनसिंह द्वारा निर्मित) को लूट कर पूरी तरह नष्‍ट करके इसके विशाल दरवाजों को टहरौली के किले में स्‍थापित किया, जो आज भी इस किले में बमनुआँ दरवाज़े के नाम से जाने जाते हैं।

        गढ़-कुण्‍डार में स्थित बुन्‍देलों की कुल देवी गिद्धवाहिनी से टहरौली की दूरी मात्र 10 कि.मी. है। विजयादशमी के अवसर पर गिद्धवाहिनी देवी को भैंसे की बलि दी जानेकी प्रथा रही है। 1531 ई. के बाद बुन्‍देलखण्‍ड की राजधानी गढ़-कुण्‍डार से ओरछा स्‍थानांतरित होने से उक्‍त बलि की व्‍यवस्‍था टहरौली से होती थी। इसी अवसर पर जवारे भी निकाले जाते थे।

        एक और दुर्भाग्‍य टहरौली के साथ घटित हुआफ टहरौली के अंतिम प्रशासक नृपक सिंह को देशी राजाओं के सम्मेलन में धोखे से जहर बुझे कपड़े पहना दिये गये, जिस कारण उनके शरीर पर तुरंत ही फफोले पड़ गए। अत: वह तुरन्‍त ही झाँसी से टहरौली को लौटे। लौटते समय बड़ागाँव, बराठा घाट, पच्‍चरगढ़, धनमा, सैंदी, परसा, बमनुआं आदि गाँव में उनकी पालकी उतारी गयी, परन्‍तु उनका निधन टहरौली की सीमा पर बमनुआँ गाँव में स्थित उनके ही राजकीय वाग-लखूले पर हुआ। आज भी झाँसी से टहरौली तक जहाँ-जहाँ उनकी पालकी उतारी गयी, वहाँ उनका चबूतराबना है तथा उन्‍हे इन सभी ग्रामों में एक देवता की भाँति पूजा जाता है। मराठों ने नृपत सिंह की संतान को टहरौली राज्‍य से निकाल कर लोड़ी-मड़ोकर जागीर देकर वहाँ रख दिया और टहरौली राज्‍य ओरछा नरेश को दिया। इसके एवज में तीन हजार रुपये सालाना ओरछा नरेश झाँसी के मराठा राज्‍य को मुआवजे के रूप में देते रहे। नृपत सिंह के पश्‍चात टहरौली किला हमेशा के लिए वीरान हो गया। सन् 1928को टहरौली की तहसील को भी निवाड़ी स्‍थानांतरित किया गया। आज भी टहरौली के स्‍थानीय लोग नम आँखों से वहाँ के अतीत को याद करते निम्‍न लोकगीत गाते हैं-

कहाँ गई वे कुड़ार की बैठकें, कहाँ गये वे डँगाई के राज।

कहाँ गये राजा नृपत सिंह, जिन राखी टहरौली लाज।।

        अर्थात गढ़-कुण्‍डार की वह शानौ-शौकत कहाँ खो गई, डँगई क्षेत्र के राज्‍य कहाँ खो गये और वह राजा नृपत सिंह भी कहाँ हैं, जिन्‍होंने टहरौली की लाज रखी?

        इस किले में पर्यटन क्षमता होते हुए भी उपेक्षा के कारण यह खण्‍डहर होता जा रहा है व तालाब पर भी भू-माफियों का कब्‍जा होता जा रहा है।