
श्री पीताम्बरा पीठ
October 8, 2024
देश का प्रसिद्ध जैन तीर्थ सोनागिरि
October 8, 2024दतिया का” वीरसिंह जूदेव महल” प्रदेश का ही नहीं, समूचे देश में स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना है। चूंकि इसका निर्माण उस समय हुआ जब मुगल सत्ता पूर्ण उत्कर्ष पर थी, इसलिए स्वाभाविक रूप से इस पर मुगल शैली का प्रभाव परिलक्षित है, पर इसकी वास्तुकला मूलतः राजपूत शैली का स्थानीय स्वरूप है जिसे सहज ही बुन्देला स्थापत्य कह सकते है। इसका निर्माण महाराज बीरसिंह जूदेव ने कराया जिन्होंने लम्बे संघर्ष पूर्ण जीवन के बाद 1606 से 1627 ई. तक बुन्देलखंड के एक बड़े भू-भाग पर सुखपूर्वक राज्य किया। उन्होंने कोई 52 इमारतों का निर्माण कराया, जिनमें दतिया का यह महल सर्वोत्कृष्ट है। कहा जाता है कि मथुरा में स्वर्ण तुलादान के बाद वीरसिंह जूदेव ने इस विशाल भवन का निर्माण उस स्थान पर आरम्भ किया जहाँ उनकी भेंट जहाँगीर से हुई थी। ओरछा राज्य गजेटियर के अनुसार वीरसिंह देव ने अन्य भवनों के साथ इस महल की आधार- शिला संवत् 1675 में रविवार माघ सुदी पंचमी (दिसम्बर 1618 ई.) को रखी गई।
मुगल सरदारों की जीवनी ‘मासिर-उल-उमरा’ में लिखा है कि, इस महल के निर्माण पर 35 लाख से अधिक रुपये खर्च हुए और यह नौ वर्षों में बना। महल का एक भाग जिसे मुण्डा महल कहते है, अधूरा है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि बीरसिंहदेव ने महल का निर्माण अपने अन्तिम वर्षों में कराया और उनकी मृत्यु के कारण यह पूरा नहीं हो सका। नगर के पश्चिमी भाग में एक टीले (निचली पहाड़ी) पर बना यह सतखण्डा महल दूर से ही दतिया की पहचान कराता है। रेल या बस से गुजरने वाले यात्रियों का ध्यान बरबस इसकी ओर आकृष्ट होता है और फिर शुरु हो जाता है चर्चाओं का लम्बा सिलसिला। स्वस्तिक में आधार पर बने इस चौकोर महल के प्रत्येक खण्ड में चार चौक हैं। बीच में मण्डप हैं, जो नीचे से ऊपर तक क्रमशः उठता गया है। महल का निर्माण चूना तथा पत्थर से हुआ है।
छतों के लदाव स्तम्भों की उकेरियाँ, पत्थर की जालियाँ, गुम्बद, भारणी कंगूरे आदि देखते ही बनते है। छतों में नीचे गचकारी का काम है तथा ऊपरी कक्षों में फारसी दरी शैली की चित्रकारी है, जो अब फीकी पड़ गई है। महल में आयताकार, वर्गाकार कक्षों तथा सीढ़ियों का सिलसिला प्रतिसाम्य के कारण भूल-भूलैयों का है। महल का पूर्वान्मुख पार्श्व सबसे अधिक भव्य और आकर्षक है। ढलान लिए गुम्बदों तथा कलात्मक झंझरी एवं जालियों से युक्त वातायन और झरोखों की आकृति लुभावनी है।
इस पार्श्व के बीच में सामान्य मेहराव युक्त द्वार है, जो बाहर उभरा हुआ है। इस पर छह स्तम्भों पर आधारित खुला प्रकोष्ठ है। जिसके ऊपर बाहर उभरा हुआ झरोखा है। केन्द्रीय गुम्बद सहित इस पार्श्व के तीन गुम्बद अनोखा दृश्य प्रस्तुत करते हैं। केन्द्रीय गुम्बद के बीच में एक आला है, जिसमें गणेशजी की मूर्ति है महल में प्रवेश के लिए दोनों द्वार दुर्गाजी के मन्दिर के सामने है। मुख्य द्वार से लगे कक्ष में बुन्देलों के पारिवारिक देवता हैं।
महल के पश्चिमी पार्श्व में दोनों किनारे बुर्ज है, जिन पर स्तम्भों पर आधारित छोटी गुम्बद है। बाहर बुर्ज की दीवारों और छतों के भीतरी भाग में कई प्रकार के बेलबूटे विभिन्न रंगों में बने हैं। दक्षिणी और उत्तरी पार्श्व अधिक आकर्षक नहीं है। दक्षिणी पार्श्व के सामने ही करणसागर तालाब है। इस विशाल महल के सभी द्वार खुले हुए हैं। 1925 में बिजली गिरने से इसे काफी क्षति पहुँची। लेकिन केन्द्रीय पुरातत्व विभाग की सहायता से इसकी मरम्मत कर ली गई। यह महल आज भी बुन्देलखंड की शान है। यह इमारत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित स्मारक है।