ग्रन्थ – अनन्यप्रकाश, श्री सरस भज्जावली, अनन्य योग, ज्ञान बोध, अनन्य की कविता, ज्ञान पचासा, उत्तम चरित्र, योगशास्त्र, अनुभव तरंग, विवेक दीपिका, हर संवाद, ब्रह्मज्ञान, देवशक्ति पच्चीसी, वैराग्य, तरंग भवानी स्तोत्र, ज्ञान-बोल, सिद्धान्त बोध आदि।
अक्षर अनन्य का जन्म सं. १७१४ वि. में सेंहुड़ा, दतिया, म.प्र. के रुहेरे ग्राम के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। दतिया नरेश महाराजा दलपति राय के पुत्र कुंवर पृथ्वीचन्द के आप दीवान रहे। आप वेदान्त, योगशास्त्र के विद्वान तथा उत्कृष्ट कवि थे। ज्ञानाश्रयी शाखा के संत और साहित्य मर्मज्ञ रहे। आपने ब्रह्म, ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि अनेक विषयों पर साधिकार रचना की।
भाषा – आपकी रचनाओं की भाषा सरल, सुबोध है। उदाहरण देखिये –
“करम की नदी जामें भरम के मौर परै
लहरें मनोरथ की कोटिन गरत है।
कान, शोक, मद, महामोह सो मगरतायें
क्रोध सो फनिन्द जाको देवता डरत है।
लोभ-जल-पूरन, अखण्डित अनन्य मनै,
देखें वार-पार ऐसी धीर न धरत है।
ज्ञान, ब्रह्म, सत्य जाके ज्ञान को जहाज साजि,
ऐसे भवसागर की बिरले तरत है।”
ऐसे कठिन विषय के काव्य को सरल बनाने की कला ‘अनन्य’ के बस की बात है। आपने पृथ्वीचन्द्र को सम्बोधित करते हुये राजयोग में भेद बताते हुये लिखा है –
“तह भेद सुनो पृथ्वीचन्द राय ।।
कल चारहुं को साधन उपायं ।।
यह लोक सधै सुख पुत्र बाम।।
परलोक लोक दोउ सधै जाय।।
सो राजयोग सिधान्त आय।
निज राजयोग ज्ञानी करत।
हठि मूढ़ि धरम साधत अनन्त ।।”
अक्षर अनन्य साहित्य के सागर थे जिसमें अनेकानेक मणिरत्नों का जन्म होता है। उन्होंने अपने साहित्य द्वारा योग, बोध, ज्ञान, सचरित्र, विवेक, ब्रह्म और देव शक्ति के साथ वैराग्य को जीवन का अंतिम सत्य को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। वास्तव में अक्षर जी अनन्य थे। आपने आसंका गीता की में अर्जुन को रण की शिक्षा देकर जन-प्रेरणा का कार्य किया। आप काव्य के सिद्धहस्त कवि के साथ अच्छे गद्य साहित्यकार भी थे। इसीलिये आप साहित्य के शिरोमणि माने जाते है। गद्य के इतिहास में आपका उल्लेख किया गया है।