खंड-2 बुंदेली भाषा की लिपि एवं वर्णविचार
May 29, 2025खंड-4 बुंदेली ध्वनिग्रामिक एवं पदग्रामिक अध्ययन
June 7, 2025ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आज भारत के जिस भू-भाग को बुंदेलखंड कहा जाता है और जिसकी लोकभाषा को बुंदेली कहा जाता है, वह प्रागैतिहासिक काल में भी वर्तमान था, फिर उसका नाम चाहे जो रहा हो। (अनु. 6) इस भू-भाग में जो प्राचीन अवशेष अभी भी दृष्टिगोचर होते हैं, वे इसकी प्रागैतिहासिककालीन संस्कृति के प्रमाण हैं। गिजवा की पहाड़ी की एक गुफा तथा सिलहरा (शिलागृह) की गुफाओं में उत्कीर्ण गैरिक भित्ति-चित्र प्रागैतिहासिक काल के ही निर्माण जान पड़ते हैं। पूर्व बिजावर राज्य (वर्तमान छतरपुर जिले की एक तहसील) में देवरा नामक स्थान के निकट भी शिला-भित्तियों पर जो चित्र निर्मित हैं, वे भी प्रागैतिहासिक काल के ही जान पड़ते हैं। वहाँ वन्य पशुओं के चित्रों के साथ उसके समीप ही आखेट करते मानव का चित्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से ये पाषाण युग के निर्माण माने जाते हैं। छतरपुर जिले के धुबेला संग्रहालय में कुछ ऐसे अवशेष भी हैं, जो ‘पीतल युग’ के बतलाये जाते हैं।
आर्यों का भारत-प्रवेश
आर्य लोगों ने भारत में कब प्रवेश किया और कितने समूहों में; यह अभी भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; किन्तु अब प्रायः सभी इतिहासकार आर्यों के बाहर से आकर इस देश में बसने से सहमत हैं। वे यह भी मानते हैं कि आर्यों के भारत-प्रवेश के पूर्व इस देश में गोंड, कोल, किरात-जैसी वन्य और असभ्य जातियाँ निवास करती थीं। आर्यों का प्रथम समूह पंजाब और सिन्ध में आकर बसा। दूसरा समूह गिलगित और चित्राल के मार्ग से आया और प्रथम समूह द्वारा अधिकृत भू-भाग के आगे बढ़कर हिमालय की उपत्यका से दक्षिण में विन्ध्याचल तक और पश्चिम में सहिंद से पूर्व में यमुना और गंगा के संगम तक फैल गया।
डॉक्टर हरदेव बाहरी ने लिखा है “यह बात अन्तःसाक्ष्य से सिद्ध है कि हमारे हिन्दी प्रदेश में आर्यों का प्राचीनतम निवास स्थान सारस्वत प्रदेश था, जिसे ब्रह्मावर्त या ब्रह्मपीठ भी कहा गया है। यहीं पर ऋग्वेद का सम्पादन हुआ था। इसके दक्षिण और पूर्व में अनेक अनार्य जातियाँ रहती थीं; और दावे से कहा जा सकता है कि उनकी बोलियाँ एक रूप नहीं थीं। उन जातियों में कुछ सभ्य थीं और बहुत-सी असभ्य थीं; और यह भी सत्य है कि असभ्य जनजातियों में कोई बड़े-बड़े जातीय और राजनैतिक संगठन नहीं हुआ करते; अतः उनमें अनेक बोलियाँ प्रचलित रहती हैं। अफ्रीका और अमेरिका के आदिवासी इसके साक्षी हैं। जब वैदिक अथवा संस्कृत भाषा आर्यों की शक्ति और संस्कृति के साथ-साथ हिन्दी प्रदेश के तत्कालीन आदिवासियों पर छाने लगी, तो वे बोलियाँ अकस्मात् लोप नहीं हो गयीं, बल्कि संस्कृत को अपना अंशदान देती हुई धीरे-धीरे उसमें विलीन होती रहीं। यह भी आवश्यक नहीं है कि नये क्षेत्रों में आकर बसने वाले आर्य लोग अपने साथ साहित्यिक-भाषा ही लाये, अपनी-अपनी बोलियाँ नहीं लाये। बहरहाल, आर्यों और अनायों की बोलियों का विलयन हुआ और इसमें देश और काल का वैभिन्य भी विचारणीय है। इस विलयन की प्रक्रिया में बोलियों के कितने स्थानीय और जातीय रूप बने, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।”
डॉ. होर्नल (Hornal) के अनुसार, “पंजाबी, राजस्थानी और पूर्वी हिन्दी प्रथम आर्य-समुदाय की और पश्चिमी हिन्दी द्वितीय आर्य-समुद्राय की भाषा थी।” जान पड़ता है कि डॉ. होर्नल ने तत्कालीन आर्यों-द्वारा प्रयुक्त भाषाओं को ही (सम्भवतः हिन्दी की भाषा होने के कारण) पूर्वी हिन्दी और पश्चिमी हिन्दी कह दिया है। ये नामकरण वास्तव में अपभ्रंश काल के उत्तरार्ध के हैं। डॉ. ग्रियर्सन ने यह अवश्य स्वीकार किया है कि “भारत के भाषात्मक इतिहास के प्रारंभ में ही भारतीय आर्य बोलियाँ (Indo Aryan Dialects) दो रूपों में विभाजित हो गई थीं। एक मध्यवर्ती प्रदेश (Midland) की बोलियों का समूह और दूसरा बाह्य वृत्त (Outerland) की बोलियों का समूह था। डॉ. ग्रियर्सन ने बोलियों के जिस समूह को मध्यवर्ती प्रदेश में प्रचलित बतलाया है, उन्हीं में से कोई बोली अथवा बोलियाँ उस काल में वर्तमान बुंदेलखंड के भू-भाग में बोली जाती रही होंगी।
डॉ. ग्रियर्सन ने लिखा है कि “पातंजलि के काल तक उत्तर भारत में अनेक बोलियाँ प्रचलित थी। ये बोलियाँ वेदों के रचना-काल में क्रमशः विकसित होती जा रही थीं। संस्कृत का जन्म इन्हीं में से एक बोली का विकास है। इस नवीन भाषा का जन्म ब्राह्मणों के प्रभाव में द्वितीय भाषा के रूप में हुआ था। समय के साथ यह भाषा मध्यभारत तक फैल गई और इसे मध्यकालीन लैटिन (Latin) के समान महत्व प्राप्त हो गया। शताब्दियों तक आर्यों की परस्पर व्यवहार की भाषाएँ (Aryian Vernaculars) प्राकृत कहलाती रहीं, जबकि संस्कृत एक बनाई गई अप्राकृत (Artificial) भाषा थी। ये ही प्राकृत वैदिक काल में देश के विभित्र भागों में लोक-भाषाओं के रूप में प्रचलित थीं और इनका सम्पादित रूप ही प्रथम प्राकृत कहलाया। इन लोक-भाषाओं के रूप में प्रचलित जिन प्राकृतों का संस्कृत के साथ विकास हुआ, इनका व्याकरण बना और इस प्रकार उन्हें साहित्यिक रूप प्राप्त हुआ। प्राकृत का यही रूप द्वितीय प्राकृत कहलाया।
डॉ. ग्रियर्सन ने इन लोक-भाषाओं के रूप में प्रचलित विविध प्राकृतों का नाम-निर्देश नहीं किया है, पर हम देखते हैं कि प्राकृत-काल (500 ई. पू. से लगभग 500 ई. तक) में हमें जिन प्राकृतों का नामोल्लेख मिलता है, वह स्थान अथवा क्षेत्रवाची है। उत्तर भारत में प्रचलित प्राकृतों के तीन नाम मिलते है: उत्तर-पश्चिमी प्राकृत, मध्यदेशीया प्राकृत और प्राच्य। नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत ने प्राकृत्तों के सात प्रकार, साहित्य दर्पणकार ने बारह, प्राकृत लंकेश्वर के रचयिता ने सोलह और प्राकृत चन्द्रिकाकार ने सत्ताईस प्रकार बतलाये हैं। ये भेद भौगोलिक आधार पर ही जान पड़ते हैं। अतः उस काल में बुंदेलखंड कहे जाने वाले भू-भाग में लोकभाषा के रूप में प्रचलित प्राक्कृत को ‘मध्यदेशीया प्राकृत’ कहा जा सकता है। इसी प्राकृत के मूल में बुंदेली के उद्गम का स्रोत है।
यहाँ यह स्मरणीय है कि प्राकृत के प्रथम विकास-काल में ही पालि का बुंदेलखंड में प्रवेश हो गया था और इस क्षेत्र की लोकभाषा उसकी प्रकृति भी ग्रहण करने लगी थीः किन्तु इसी समय नाग, वाकाटक आदि राजवंशों के राजाओं-द्वारा जिस धार्मिक आन्दोलन का सूत्रपात हुआ और जिसके परिणामस्वरूप प्राचीन वैदिक धर्म एक नये स्वरूप (पौराणिक) में आविर्भूत हुआ, उससे इस भू-भाग में पालि का विकास अवरुद्ध हो गया और उसके स्थान में संस्कृत को पुनः साहित्यिक भाषा का रूप प्राप्त हुआ और प्राकृत-जन्य बोलियाँ लोकवाणी की माध्यम बनीं।
गुणाढ्य की पैशाची प्राकृत की रचना ‘वड्ड कहा’ (बृहत्कथा) विन्ध्य क्षेत्र में ही रचित कही जाती है, जो ईसा की प्रथम शताब्दी की रचना है। कुछ लोगों की यह भी धारणा है कि इसकी रचना पिशाच देवा में की गई थी। भारत में प्रवेश करने वाला द्वितीय आर्य-समुदाय प्रथम आर्य-समुदाय से अधिक सुसंस्कृत था। इस समुदाय के लोगों ने प्रथम समुदाय के लोगों को, जो सिधु-पंजाब से काबुल-कंदहार तक के क्षेत्र में बसे थे, घृणात्मक शब्दों से ‘पिशाच’ कहा था। इन्हीं की भाषा को ‘पैशाची’ कहा गया है। इसी पैशाची में ‘बड्ड कहा’ की रचना हुई थी। यदि प्रथम धारणा के अनुसार इस ग्रंथ की रचना विन्ध्य क्षेत्र में हुई, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ईसा की प्रथम शती में विन्ध्य अथवा बुंदेलखंड में कोई ऐसी प्राकृत लोकभाषा के रूप में प्रचलित थी, जिसमें पैशाची प्राकृत की प्रकृति विद्यमान थी। श्री हरिहर निवास द्विवेदी ने भी यही विश्वास व्यक्त किया है। व्याकरणकार वररुचि ने “पैशाची प्रकृतिः शौरसेनी” लिख कर पैशाची की प्रकृति का शौरसेनी से साम्य बतलाया है। इस विवेचन के पश्चात् भी हम प्राकृत काल में बुंदेलखंड की लोक-भाषा शौरसेनी के एक रूप ‘मध्यदेशीया प्राकृत’ होने के ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।
सं. 500 से 1000 वि. तक का समय भाषा की दृष्टि से ‘अपभ्रंश-काल’ कहा गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है: “भरतमुनि (तीसरी शती) ने ‘अपभ्रंश’ का नाम न देकर ‘देशभाषा’ ही कहा है। वररुचि के ‘प्राकृत प्रकाश’ में भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं है। ‘अपभ्रंश’ नाम पहले-पहल वलभी के राधा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि. सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है। भामह (विक्रम 7वीं शती) ने भी तीनों भाषाओं का उल्लेख किया है। बाण ने ‘हर्षचरित’ में संस्कृत के कवियों के साथ भाषा-कवियों का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में मिलता है।” इस कथन से आचार्य शुक्ल का विक्रम की छठवीं शती से ‘अपभ्रंश-काल’ मानना प्रतीत होता है। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने सन् 600 ई. (सं. 657 वि.) से अपभ्रंश-काल स्वीकार कर इसका विस्तार क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, पश्चिमोत्तर भारत, बुंदेलखंड, बंगाल और दक्षिण में मान्यखेट तक बतलाया है। हम इन मान्यताओं के प्रकाश में अपभ्रंश-काल स्थूल रूप से सन् 500 से 1000 ई. तक मानना ही उचित समझते हैं। इसका कारण यह भी है कि सन् 500 ई. के लगभग प्राकृत-काल समाप्त हो गया था और उसका विकास लोकभाषा अपभ्रंश के रूप में होने लगा था। विक्रम की 7वीं शती के मध्यकाल (ईसा की छठवीं शती का अन्त) से ही अपभ्रंश की रचनाएँ मिलने लगती हैं। यदि हम उन रचनाओं की भाषा को साहित्यिक भाषा की ओर प्रवृत्त होता देखते हैं, तो अपभ्रंश के लोकभाषा के रूप में विकास का प्रारम्भ हमें इसके पूर्व स्वीकार करना पड़ेगा और यह काल सन् 500 ई. (सं. 557 वि.) के लगभग हो सकता है।
अपभ्रंश भाषा से तात्पर्य उस भाषा से है, जो परिनिष्ठित मान्य साहित्यिक भाषा से निम्न कोटि की हो। साहित्यिक प्राकृतों के उत्तरकालीन विकास-काल में भाषा का जो रूप लोक-भाषाओं के रूप में प्रचलित था, वही प्राकृत-पण्डितों की दृष्टि में अपभ्रष्ट अथवा अपभ्रंश था। इससे स्पष्ट है कि विविध प्राकृतों के साथ विविध अपभ्रंश भी लोक-भाषाओं के रूप में चलती रहीं। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी लिखा है: “यह बात स्मरण रखने योग्य है कि यद्यपि प्राकृत में लिखे गये काव्यों के बाद ही अपभ्रंश भाषा में काव्य लिखे गये, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि प्राकृत नाम की कोई भाषा पहले बोली जाती थी और अपभ्रंश नाम की भाषा बाद में बोली जाने लगी। असल में अपभ्रंश लोक-प्रचलित भाषा का नाम है, जो नाना काल और नाना स्थान और नाना रूप में होती जाती थी और बोली जाती है। शुरू में इसे आभीरों की भाषा जरूर माना जाता था, पर बाद में चलकर यह लोकभाषा का ही नामान्तर हो गया।”
अपभ्रंश का विकास
अपभ्रंश’ के लिये कुछ विद्वानों ने ‘देशी’ शब्द का प्रयोग किया है। प्राकृत के साहित्यिक भाषा का स्वरूप ग्रहण कर लेने पर भी सामान्य जनता अपनी स्वाभाविक भाषा का प्रयोग अपने व्यवहार में करती रही। प्राकृत वालों की दृष्टि में यह एक अशुद्ध अथवा अपभ्रष्ट भाषा थी। इसी कारण इसे कुछ समय के पश्चात् ‘अपभ्रंश’ की संज्ञा प्राप्त हुई। देश-व्यवहार की भाषा होने के कारण ही सम्भवतः अपभ्रंश को ‘देशी’ अथवा ‘देशी भाषा’ कहा गया है।
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने ‘हिन्दी काव्यधारा’ की भूमिका में अपभ्रंश का विस्तार उत्तर भारत से दक्षिण भारत के हैदराबाद तक बतलाया है: “जहाँ सरहपा और शबरपा बंगाल-बिहार के निवासी थे, वहाँ अब्दुर्रहमान का जन्म मुलतान में हुआ था। स्वयंभू और कनकाभर क्रमशः अवधी और बुंदेली-क्षेत्र के थे, तो हेमचन्द्र और सोमप्रभ गुजरात के। इस प्रकार हिमालय से गोदावरी और सिन्ध से ब्रह्मपुत्र तक के भाग ने इस साहित्य के निर्माण में हाथ बंटाया।”
राहुल जी के इस कथन से स्पष्ट है कि विक्रम की 7वीं शती से 12वीं शती तक भारत के एक सुविस्तृत भू-भाग में अपभ्रंश में ही साहित्य-सृजन होता रहा। यह मी निश्चित है कि इतने विस्तृत भू-भाग में व्याप्त अपभ्रंश का एक रूप नहीं हो सकता; वह निश्चित ही अनेक रूपों में प्रचलित रही होगी। विभिन्न विद्वानों ने अपभ्रंश के विविध प्रकार बतलाये हैं। नदि साधु ने इसके केवल तीन प्रकार- उपनागर, आभीर और ग्राम्य बतलाये हैं, जबकि दूसरे वैयाकरण इसे नागर, उपनागर और ब्राचड में विभाजित करते हैं। मार्कण्डेय के अनुसार इसके पांचाली, सिंहली, वैदर्भी, आभीरी, लाटी, मध्यदेशीया, औड्री, गुर्जरी, कैकेयी, पाश्चात्या, गौड़ी आदि अनेक प्रकार थे। इन प्रकारों के अनुसार मध्यदेशीया बुंदेलखंड में प्रचलित अपभ्रंश जान पड़ती है।
ऐसा जान पड़ता है कि ये अपभ्रंश के जो विविध प्रकार बतलाये गये हैं, वे अपभ्रंश के विभिन्न बोली-रूप ही थे, जिस प्रकार ब्रज, बुंदेली, हरयानी, अवधी, भोजपुरी आदि हिन्दी के बोली-रूप हैं। प्राकृत के व्याकरणकारों ने आ.मा.आ. भाषाओं का उद्गम संस्कृत से बतलाया है; किन्तु जैसा कि श्री पी. डी. गुने का मत है कि इन भाषाओं का विकास उन बोलियों से ही हुआ है, जिन्हें वे अपभ्रंश के रूप कहते हैं। जिन प्राकृतों से इन अपभ्रंश-रूपों का विकास हुआ है, उनका मूलाधार एक बड़ी सीमा तक वैदिक भाषा है; इसलिये आ. मा. आ. भाषाओं में एक सुदीर्घ श्रृंखला के साथ आये संस्कृत-शब्दों का प्रयोग कहीं तत्सम, कहीं अर्ध-तत्सम और कहीं तद्भव रूपों में दिखाई देता है। इन शब्द-रूपों के प्रयोग से ये भाषाएँ सीधे संस्कृत से उद्भूत मान लेना उचित न होगा।
यहाँ यह भी स्मरणीय है कि सन्धि के नियमों और स्वर-भक्ति में प्राकृत-काल से ही शिथिलता आने लगी थी। उदाहरणार्थ, सं. भार्या प्रा. भारिया, सं. कष्ट- प्रा. कसट, सं. स्नान- प्रा. सनान, सं. स्तम्भ-प्रा. खम्भ आदि शब्द देखे जा सकते हैं। सन्धि-नियमों एवं स्वरभक्ति में प्राकृत-काल में शिथिलता आने के कारण संस्कृत के जिन शब्दों का रूप प्राकृत में अर्ध-तत्सम अथवा तद्भव हो गया था, उनमें से अनेक शब्द आ. भा. आ. भाषाओं तथा उनकी बोलियों में भी यथावत् वर्तमान मिलते हैं।
यह तो निश्चित ही है कि सभी कालों में एक भाषा के दो रूप रहे है- साहित्यिक भाषा-रूप और जन-भाषा-रूप। भाषा का साहित्यिक रूप व्याकरण-सम्मत रहा और जन-भाषा बिना व्याकरण के नियमों की परवाह किये अपने स्वाभाविक रूप में विकसित होती रही। भाषा के इन दोनों रूपों में साहित्य-सृजन भी होता रहा। विद्वान् साहित्यिक भाषा में रचना करते रहे और जनभाषा में ‘लोक साहित्य’ का निर्माण होता रहा। पाणिनि, पातंजलि आदि के ग्रंथों से ऐसा लगता है कि व्याकरण-सम्मत भाषा के विद्वान् बहुत पहले से लोकभाषा को ‘भाषा’ नाम से सम्बोधित करते रहे। जब छान्दस अथवा वैदिक संस्कृत संस्कृत-साहित्य-निर्माण की भाषा थी, तब संस्कृत का व्यवहार लोकभाषा के रूप में होता रहा; इसलिये पाणिनि ने इस लोक-प्रचलित संस्कृत को ‘भाषा’ कहा। पातंजलि के काल में लोकभाषा संस्कृत ने साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर लिया था, इसलिये उन्होंने जनता द्वारा प्रयोजित रूप प्राकृत को ‘भाषा’ कहा। इसी क्रम में साहित्यिक प्राकृत बन जाने पर उसके लोक व्यवहृत रूप ‘अपभ्रंश’ को ‘भाषा’ कहा जाने लगा। सं. 500 से 1000 वि. तक का काल तृतीय प्राकृत-काल अथवा अपभ्रंश-काल कहा जाता है।
प्राकृत के तृतीय रूप अपभ्रंश में आरंभ से ही अनेक लोक-प्रचलित शब्दों को स्थान मिल गया था। इसके पश्चात् इसके विकास-काल में उसके शब्दों एवं धातुओं में भी कुछ परिवर्तन हुये और उनके आधार पर अनेक नये शब्द भी बने। इस प्रकार इसे वह रूप प्राप्त हुआ, जिससे यह भाषा विक्रम की 10वीं शती के पश्चात् आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को जन्म देने में समर्थ हुई। अपभ्रंश का एक रूप तो व्याकरण के ढाँचे में गठित होकर साहित्य-सृजन का माध्यम बना और दूसरा रूप लोकवाणी का माध्यम बना रहा। कुछ जैन-धर्म के आचार्यों ने साहित्यिक ग्रंथों की रचना की, पर जैन-धर्म-प्रचार का माध्यम अपभ्रंश का लोक-व्यवहृत रूप ही रहा। इन धर्म-प्रचारकों ने सरल से सरल अपभ्रंश का प्रयोग कर उसे जन-भाषा के समीप पहुँचा दिया। अपभ्रंश का यह सरलतम रूप ही हमारी हिन्दी का प्राचीन रूप है, जिसके क्रमिक विकास ने हिन्दी के वर्तमान रूप का निर्माण किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे ही ‘प्राकृताभास हिन्दी’ कहा है। हिन्दी के इस रूप में हमें विक्रम की सातवीं शती से रचना होने का पता लगता है। अतः यही काल हिन्दी का जन्मकाल समझा जाना चाहिये। हिन्दी का यह रूप हमें सर्वप्रथम बौद्ध कवि सरहपा (सं. 690 वि.) की रचना में मिलता है। इनके पश्चात् के 10वीं शती तक के कवियों में विरूपा, कुक्कुरिपा, भुसुकुपा, लुइया, दरिपा, कण्हपा आदि हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सं. 1050 वि. से हिन्दी साहित्य का ‘आदिकाल’ मानते हैं और इसके पूर्व के काल को ‘अपभ्रंश-काल’। इसका कारण सम्भवतः यह है कि यद्यपि 7वीं शती से हिन्दी के उस रूप में काव्य-रचना होने लगी थी, जिसे उन्होंने ‘प्राकृताभास हिन्दी’ कहा है; तथापि 10वीं शती तक भी हिन्दी का रूप निखर न सका था। इतना ही नहीं, पर हिन्दी 13वीं शती तक भी अपभ्रंश के प्रभाव से सर्वथा मुक्त न हो सकी थी। ‘वीरगाथा-काल’ (सं. 1050 से 1375 वि.) की हिन्दी काव्य-कृतियाँ-रासो ग्रंथों की भाषा भी अपभ्रंश से कम प्रभावित नहीं है। हमें अपभ्रंश-मुक्त हिन्दी का रूप सर्वप्रथम खुसरो (चौदहवीं शती का मध्यकाल) की मुकरियों और पहेलियों में ही दिखाई पड़ता है। इनके पश्चात् विद्यापति की रचनाओं का क्रम है; किन्तु ऐसा लगता है कि विद्यापति के काल तक भी अपभ्रंश का कुछ न कुछ महत्व बना हुआ था। स्वयं विद्यापति ने अपभ्रंश (अवहट्ठ) में कीर्तिलता की रचना की थी। यह सत्य होते हुए भी खुसरो के ‘हिन्दी स्तवन’ से ऐसा जान पड़ता है कि उनके काल तक हिन्दी का स्वरूप पर्याप्त स्पष्ट हो चुका था और इसीलिये उन्होंने हिन्दी को अरबी, फारसी की तरह व्याकरण-सम्मत तथा भावाभिव्यक्ति में समर्थ कहा था। स्तवन की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं: “हिन्दी भाषा भी अरबी के समान है, क्योंकि उसमें भी मिलावट को स्थान नहीं है। यदि अरबी-व्याकरण नियमबद्ध है, तो हिन्दी में भी उससे एक अक्षर कम नहीं। जो उक्त तीनों भाषाओं (फ़ारसी, अरबी और हिन्दी) का ज्ञान रखता है, वह जानता है कि मैं न भूल कर रहा हूँ और न पढ़कर लिख रहा हूँ और यदि पूछो कि उसमें अधिक न होगा, तो समझ लो उसमें दूसरों से कम नहीं है।”
डॉ. बाहरी का कथन है कि “सिन्ध को ग्रीक लोग ‘इण्डस’ कहते थे, जिससे उन्होंने देश का नाम ‘इण्डिया’ रखा और ‘सिन्ध’ ही से फ़ारसी ‘हिन्द’ शब्द बना। हिन्द की भाषा का नाम हिन्दी है। इसी अर्थ में अलबरूनी, अमीर खुसरो और अबुल फजल ने ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किया है। यह नाम और अर्थ मध्यकाल में मुसलमान आगन्तुकों द्वारा दिया गया था। बाद में जब अनुभव हुआ कि हिन्द की भाषा एक नहीं है, तो विशिष्ट अर्थ में मध्यदेश की भाषा को हिन्दी कहा जाने लगा।”
आचार्य दण्डी ने अपभ्रंश को ‘आभीरादि गिरा’ कहा है। इससे इसका आभीर आदि जातियों की भाषा होना प्रमाणित होता है। डॉ. नामवरसिंह के मतानुसार, महाभारत के निर्माणकाल तक आभीर मध्यदेश की पश्चिमी सीमा पर मौजूद थे। दण्डी के समय तक वे पूर्व की ओर बहुत दूर तक समस्त मध्य-देश में फैल गये थे। कुछ विद्वानों के मतानुसार, गूजर ग्वाल आदि आभीरों की ही संतानें हैं। कर्नल टाड अनुसार, “ईसा की छठवीं शती में गूजरों ने गुजरात और भड़ौच पर अधिकार कर लिया। उनकी राज के धानी भिन्नपाल थी। 10वीं शती में चालुक्यों ने इन्हें पूर्व की ओर खदेड़ दिया।” इन गुजरों के साथ उनकी भाषा ‘अपभ्रंश’ निश्वित ही मध्यदेश में आई होगी। इससे 10वीं शती तक मध्यदेश (जिसके अन्तर्गत आज का बुंदेलखंड भी है) की भाषा अपभ्रंश होना प्रमाणित होता है।
यहाँ यह स्मरणीय है कि संस्कृत का जो ‘अ:’ प्राकृत के ‘उ’ में विकसित हुआ, वह अपने इसी रूप में अपभ्रंश में भी वर्तमान रहा, जो हमें सर्वप्रथम आभीर प्रदेश (सिन्धु-सौवीर) की भाषा में दृष्टिगोचर होता है। भरत ने लिखा है:
“हिमवत् सिन्धु सौवोरान् ये जनाः समुपाश्रिताः।
उकार बहुलाम् तज्ज्ञस्तेषु भाषा प्रयोजयेत् ।।
श्री जी. बी. टैगोर के मतानुसार, “ईसा के तीसरी से छठवीं शती तक अपभ्रंश आभीरों की बोली के रूप में विकसित होती हुई संस्कृत और प्राकृत के साहित्यिक रूप तक पहुँच गई और यह रूप (साहित्यिक रूप) बारहवीं शती तक सुरक्षित रहा।”
बुंदेली का उद्भव
हम पहले कह चुके हैं कि 10वीं शती में चालुक्यों ने गुर्जरों को सौराष्ट्र और भड़ौंच से पूर्व की ओर खदेड़ दिया था। (अनु.60) इनके साथ इनकी अपभ्रंश भाषा भी मध्यदेश में आई। मध्यदेश में शौरसेनी अपभ्रंश का एक रूप पहिले से ही प्रचलित था, जिसे हमने ‘मध्यदेशीया अपभ्रंश’ कहा है। यह मध्यदेशीया अपभ्रंश गूजरों के इस भू-भाग में आकर बसने पर उनकी अपभ्रंश के रूप ‘गुर्जर अपभ्रंश’ से प्रभावित हुई। गुर्जर अपभ्रंश और मध्यदेशीया अपभ्रंश में अधिक अंतर भी नहीं था, जिससे वे सहज ही परस्पर घुल-मिल गई। इस मिश्रित अपभ्रंश रूप ने ही बुंदेली को जन्म दिया। मध्यदेशीया का उल्लेख अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में कुरु, पांचाल, वश तथा उशीनरों के प्रदेश को मध्यदेश के अन्तर्गत बतलाया गया है। महर्षि मनु के अनुसार :
“हिमवत् विन्ध्ययोंर्मध्ये यत् प्राक् विनशनादपि।
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ।।”
इससे मनुस्मृतिकार का हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य में स्थित भू-भाग को ‘मध्यदेश’ मानना स्पष्ट है। यह पूर्व में प्रयाग तक और पश्चिम में विनशन (सरस्वती) तक विस्तृत था। कवि राजशेखर (9वीं शती) ने मनुस्मृतिकार की मान्यता स्वीकार करते हुए लिखा है गौड़ आदि संस्कृत में स्थित है, साट देशीयों की रुचि प्राकृत में है। मरुभूमि, टक्क और भादानक के वासी अपभ्रंश का प्रयोग करते हैं, अवन्ती,पारियात्र और दशपुर के निवासी भूत भाषा की सेवा करते हैं; जो कवि मध्यदेश में रहता है, वह सर्वभाषाओं का ज्ञाता है।”
इस उद्धरण से राजशेखर के काल में (9वीं शती में) मध्यदेश के कवि को तत्कालीन सब भाषाओं, (संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मूत भाषा पैशाची) का ज्ञान होना ज्ञात होता है। इतना ही नहीं, पर इस काल में मध्यदेश (जिसमें वर्तमान बुंदेलखंड स्थित है) में ही सर्वाधिक साहित्यिक विकास भी प्रमा-णित होता है, जो वास्तव में मध्यदेशीया अपभ्रंश के साहित्यिक भाषा के रूप में विकास का द्योतक है। अपभ्रंश के विविध विकसित स्थानवाची नामों की स्थापना 18वीं शती तक भले ही हुई हो, किन्तु यह स्पष्ट है कि चन्देल शासन-काल में ही मध्यदेशीया अपभ्रंश में काव्य-रचना आरंभ हो गई थी। इस काल के जिन कवियों और साहित्यकारों के नाम पहले दिये गये हैं, हमारा विश्वास है, उनकी कृतियाँ इसी अपभ्रंश में रचित रही होंगी और अपभ्रंश का यही रूप बुंदेला-शासन काल आरंभ होने तक क्रमशः विकसित होता हुआ ‘बुंदेली’ अथवा ‘बुन्देलखण्डी’ के नाम से अभिहित हुआ होगा। प्रथम बुन्देल शासक हेमकरन ने सन् 1050 से 1071 ई. (सं. 1107 से 1128 वि.) तक शासन किया था। इसके अनन्तर एक के पश्चात् दूसरा उत्तराधिकारी बुंदेलखंड में शासन करता रहा और इन उत्तराधिकारियों के परिवर्तन के साथ बुंदेलखंड की सीमा भी न्यूनाधिक होती रही। बुंदेलखंड को सुव्यवस्थित और विस्तृत रूप महाराज रुद्रप्रताप के शासन काल में ही प्राप्त हुआा, जिन्होंने सन् 1501 ई. (सं. 1558 वि.) में बुन्देल शासन की बागडोर अपने हाथ में ली। इन्हीं के शासन काल में ओरछा को सर्वप्रथम बुंदेलखंड की राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, इन्हीं के शासनकाल में इस भू-भाग को वास्तविक और स्थायी रूप में ‘बुंदेलखंड’ की संज्ञा प्राप्त हुई और सम्भवतः इसी काल से इस भू-भाग की भाषा ‘बुंदेली’ अथवा ‘बुन्देलखण्डी’ कही जाने लगी। (अनु. 34)
डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के अनुसार 10-11वीं शती में जब तुर्कों और ईरानियों ने अपने मुसलमान मजहब को साथ लिये उत्तरी भारत पर आक्रमण करना एवं आधिपत्य जमाना आरंभ किया, उस समय राजपूत राजवंशों में साहित्यिक रचनाओं की भाषा धामिक एवं शास्त्रीय भाषा संस्कृत के अतिरिक्त पश्चिमी अपभ्रंश ही थी, जिसमें भिन्न-भिन्न प्रदेशों की स्थानीय बोलियों का प्रभाव था। विशुद्ध ब्रज या नव्य भारतीय आर्य भाषा की हिन्दी का तब तक उदय नहीं हुआ था।[3] ब्रजभूमि और बुंदेलखंड नाम भी प्रचलित नहीं थे।
कृष्ण की लीला-भूमि मथुरा-वृन्दावन कृष्ण-भक्त कवियों और गायकों की निवास-भूमि होने के पश्चात् ही 16वीं शती में ब्रज भूमि अथवा ब्रजमण्डल नाम प्रचलित हुये। इसी काल में महाराज रुद्रप्रताप गहरवार के बुंदेला कहलाने तथा उनके द्वारा मध्यदेश के एक भू-भाग में बुंदेल-राज्य स्थापित होने के कारण यह भू-भाग बुंदेलखंड कहलाया, जिसका सर्वाधिक विस्तार महाराज छत्रसाल बुंदेला के शासनकाल में हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि ब्रजमण्डल नामकरण के पश्चात् ही उस भू-भाग की भाषा ‘ब्रज’ और बुंदेलखंड कहलाने के पश्चात् ही इस भू-भाग की भाषा ‘बुंदेली’ अथवा ‘बुन्देलखण्डी’ कहलायी होगी। इन दोनों बोलियों अथवा भाषाओं का विकास मध्यदेशीया अपभ्रंश (शौरसेनी अपभ्रंश का एक रूप) से विक्रम की 11वी शती के पश्चात् हुआ। यह नव्य भाषा-रूप 15वी शती तक क्रमशः विकसित होता रहा।
डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने लिखा है “हिन्दी कम-से-कम तीन हजार वर्षों की एक धारा-एक सिलसिले के अन्त में आ रही है- हिन्दी एक प्रभाव या परम्परागत वस्तु है- अचानक सामने आकर खड़ी हुई कोई नई चीज नहीं है।”[4] इस संदर्भ में थी राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है: “तुगलकों के शासन के अन्त में दिल्ली की सल्तनत के कमजोर पड़ जाने पर ब्रज-ग्वालेरी भाषा के क्षेत्र में जो राज्य कायम हुआ, उसका केन्द्र ग्वालियर था, इसलिये ब्रज-बुंदेली का नाम ‘ग्वालियरी भाषा’ भी कहा जाने लगा”।
राहुल जी के इस कथन का तात्पर्य केवल यही है कि तुगलक-शासन के अंतिम काल (14वीं शती का अंतिम चरण) में ब्रज से ग्वालियर तक के क्षेत्र में (ब्रजभूमि और बुंदेलखंड में) भाषा का लगभग एक ही रूप प्रचलित था। इस काल में जो शासन स्थापित हुआ (तोमरवंशीय शासन) उसका केन्द्र ग्वालियर था। शासन का केन्द्र होने के कारण ग्वालियर का साहित्य का भी केन्द्र होना स्वाभाविक था। अतः जिस प्रकार ब्रज के व्यापक काव्य-भाषा हो जाने पर भी उसका नाम एक अत्यन्त सीमित क्षेत्र (मथुरा-वृन्दावन) के नाम पर ही आधारित रहा, उसी प्रकार मध्यदेशीय भाषा एक विस्तृत क्षेत्र की भाषा होने पर भी उसके साहित्य का केन्द्र ग्वालियर होने के कारण वह ‘ग्वालियरी’ कही जाने लगी।
संक्षेप में, ब्रज और बुंदेली मध्यदेशीया शौरसेनी अपभ्रंश से उद्भुत मध्यदेशीया हिन्दी के दो रूप हैं। ये दोनों बोलियाँ अथवा भाषाएँ एक ही भाषा के दो रूप थे; अतः आरंभ में इनके रूप में कोई अन्तर नहीं था। एक रूप ब्रजभूमि में प्रयुक्त होने के कारण ‘ब्रज’ कहलाया और दूसरा रूप बुंदेलखंड में प्रयुक्त होने के कारण बुंदेली या बुन्देलखण्डी कहलाया। यह भी निश्चित है कि ग्वालियर से रामसिंह तोमर की सत्ता विक्रम की 16वीं शती के उत्तरार्थ में समाप्त होने के पश्चात् ही मध्यदेशीया के ये दोनों भाषायी नाम प्रचलित हुए होंगे; क्योंकि इन्हीं के आश्रित कवि और कलाकार इनकी सत्ता समाप्त होने पर कुछ बज की ओर और कुछ बुंदेलखंड की ओर जाकर बुंदेलखंड की तत्कालीन राजधानी ओरछा में राज्याधित हुये थे। इन्हीं के साथ उनकी काव्य-भाषा (मध्यदेशीया) भी गई और वहीं नये रूप में विकसित हुई थी।
श्री केशवचन्द्र मिश्र ने लिखा है “चन्देल साम्राज्य के अधिकांश भाग में बुंदेली भाषा अपनी अनेक स्थानीय बोलियों के साथ ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में विकसित हो रही थी।” इन स्थानीय बोलियों के सम्मिश्रण ने ही मध्यदेशीय भाषा को बुंदेली अथवा बुन्देलखण्डी का रूप प्रदान किया था।
बुंदेली में पैशाची अपभ्रंश की कुछ प्रवृत्तियाँ देखकर इस बोली के विकास में अपभ्रंश के इस रूप के भी योग का अनुमान किया जा सकता है। महाभारत में भारत के पश्चिमोत्तर भाग को पिशाचों की भूमि बतलाया गया है। इस भाग में काश्मीर और उरसा है। डॉ. ग्रियर्सन ने पिशेल द्वारा मार्कण्डेय के उद्धरण के आधार पर पंजाब का हजारा जिला भी इसके अन्तर्गत बतलाया है। पिशेल ने मार्कण्डेय के अनुसार पैशाचा, कम्बोजा, हिन्दूकुश के समीपस्थ जातियाँ बतलाई है। दरद, शक और सीथियन भी इसी वर्ग के कहे गये हैं।इन तथा कुछ भाषायी प्रमाणों के आधार पर डॉ. ग्रियर्सन ने पैशाचों को पश्चिमोत्तर से हिन्दूकुश के दक्षिणी भाग तक बसी जातियाँ प्रमाणित किया है।
कुछ व्याकरणकारों ने केकय, शूरसेन तथा पाञ्चाल पैशाची के प्रकार बतलाये हैं। इससे पैशाची और शौरसेनी का निकट सम्बन्ध ज्ञात होता है। वररुचि (प्रथम शताब्दी) ने पैशाची का आधार शौरसेनी बतलाया है।
डॉ. ग्रियर्सन ने इन विविध मान्यताओं को देखकर लिखा है: “All that is meant thereby is, that special features apart, both the languages undermeant similar changes and that perhaps the Paisaci borrowed much from Sauraseni vocabulary as also from Sanskrit.”
इस कथन से पैशाची का संस्कृत से भी उतना ही सम्बन्ध ज्ञात होता है, जितना शौरसेनी से सम्बन्ध है। शौरसेनी और पैशाची के बीच अनेक समानताएं वर्तमान हैं। यह देखकर ये दोनों अपभ्रंश एक ही अपभ्रंश के दो रूप भी कहे जा सकते हैं और इस प्रकार पैशाची को उस अपभ्रंश का उत्तरी तथा शौरसेनी को दक्षिणी रूप समझा जा सकता है। यदि वररुचि के मत के अनुसार पैशाची का आधार शौरसेनी स्वीकार कर लिया जाय, तो पैशाची शौरसेनी का ही उत्तरी रूप भी कहा जा सकता है। पैशाची ने निश्चित ही शौरसेनी की कुछ विशेषताएं स्वीकार की हैं। यह देखकर हमें बुंदेली पर पैशाची का जो प्रभाव दिखाई देता है, वह पर्याय से शौरसेनी का ही प्रभाव कहा जा सकता है।
बुंदेली की उद्भवकालीन भाषायी पृष्ठभूमि
पहले कहा जा चुका है कि बुंदेली शौरसेनी अपभ्रंश के एक रूप ‘मध्यदेशीया’ से विकसित पश्चिमी हिन्दी की एक बोली है। इसे हम इस प्रकार बतला सकते हैं:
शौरसेनी अपभ्रंश (मध्यदेशीया) पश्चिमी हिन्दी > बुंदेली।
अब हम बुंदेली के उद्भव पर इसी क्रम से विचार करेंगे।
प्रथम सोपान-शौरसेनी अपभ्रंश
जब विविध प्राकृतें व्याकरण के नियमों से आबद्ध होकर केवल विद्वानों तक ही सीमित हो गई। तब तत्कालीन जन-भाषाओं का विकास आरंभ हुआ, ये ही अपभ्रंश कहलाई। इसके नामकरण, काल आदि पर पहिले प्रकाश डाला जा चुका है। प्राकृतों और अपभ्रंशों के प्रकार भी विविध विद्वानों की मान्यताओं के अनुसार पहिले बतलाये जा चुके है। यह भी कहा जा चुका है कि आधुनिक कालीन विद्वानों ने शौरसेनी अपभ्रंश, मागधी अपभ्रंश, अर्थ मागधी अपभ्रंश, महाराष्ट्री अपभ्रंश और पैशाची अपभ्रंश ही अपभ्रंश के प्रमुख प्रकार स्वीकार किये हैं। इनमें से शौरसेनी अपभ्रंश ही मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा और आधुनिक कालीन भारतीय आर्य भाषा हिन्दी के मध्य की कड़ी है। इसके एक ओर शौरसेनी प्राकृत तथा दूसरी ओर प्राचीन हिन्दी है।
शौरसेनी अपभ्रंश को ‘पश्चिमी अपभ्रंश’ भी कहा गया है। इसके अन्तर्गत गुजरात तथा राजस्थान-सहित आज का हिन्दी-प्रदेश है। वह यही शौरसेनी है, जिसका विकास 11वीं शती में प्राचीन हिन्दी के रूप में हुआ। वैसे तो 7वीं शती में यह अपना मूल रूप परिवर्तित करती हुई क्रमशः हिन्दी-उन्मुख होती जा रही थी, जैसा कि हमें अपभ्रंश के तत्कालीन बौद्ध और जैन कवियों की रचनाओं से ज्ञात होता है, पर इसका स्पष्ट रूप हमें 11वीं शती में ही हिन्दी के रूप में विकसित परिलक्षित होता है।
अपभ्रंश-रूपों का प्राचीन हिन्दी में परिवर्तन
डॉ. उदयनारायण तिवारी ने लिखा है, मध्य भारतीय आर्य भाषा के प्रारंभ काल से ही प्रकृति-प्रत्यय का ज्ञान धुंधला होने लगा था, जिससे स्वरों के मात्रा-काल में अनेक परिवर्तन हुए। नवीन आये भाषा की प्राचीन आर्य भाषा से तुलना करने पर स्पष्ट विदित होता है कि व्युत्पत्ति-ज्ञान के लोप हो जाने से नवीन आर्य भाषा में स्वरों के मात्रा-काल में बहुत परिवर्तन हो गया है। बलात्मक स्वराघात के परिणाम स्वरूप प्रायः नवीन भारतीय आर्य भाषाओं में स्वरों का लोप देखा जाता है। शब्द की उपधाधु में बलात्मक स्वराघात होने पर अन्तिम दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाता है; यथा-कीर्ति-कीरत्, राशि-रास।”
कहीं-कहीं बलात्मक स्वराघात के कारण शब्द का आदि स्वर भी लुप्त हो गया है; यथा अभ्यन्तर-भीतर, अरघट्ट-रहट। अनेक शब्दों के उच्चारण में मध्य स्वर के लोप की भी प्रवृत्ति दिखाई देती है। यथा-चलना-चल्ना, खिलना-खिल्ना। ए तथा औ का उच्चारण संस्कृत में अह और अउ होता है, जो हिन्दी और उसकी बोलियों में अए और अऔ हो गया।
द्वितीय सोपान-प्राचीन हिन्दी
यहाँ हम यह स्पष्ट कर दें कि बुंदेली, ब्रज, कन्नौजी आदि निश्चित ही पश्चिमी हिन्दी की बोलिय हैं, किन्तु ये न केवल शौरसेनी अपभ्रंश, वरन् उसके पूर्व की प्राकृत की प्रवृत्तियों से भी सर्वथा मुक्त नहीं हैं। ये बोलियाँ एक क्रमिक विकास के साथ वर्तमान रूप में आई हैं और इस क्रमिक विकास में प्राकृत और अपभ्रंश से बहुत भिन्न हो गई हैं, किन्तु इनके इस रूप में भी इनकी पैतृक सम्पत्ति किसी न किसी रूप में वर्तमान है। इन्हें यह सम्पत्ति भाषा के उस रूप के माध्यम से प्राप्त हुई है, जिसे अपभ्रंश का उत्तरकालीन विकास अथवा हिन्दी का आरंभिक रूप कहा जा सकता है। हिन्दी के इस रूप को व्यक्त करने वाली कुछ कृतियों का उल्लेख विद्वानों ने किया है। इन कृतियों में राउलबेल, सन्देश रासक, प्राकृत पैगलम्, बीसल-देवरासो, उक्ति व्यक्ति प्रकरणम्, रामायण-कथा, मिताई चरित, मैनासत आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
राउल बेल
यह रोडा नामक किसी राजकवि की रचना है। इसका रचना-काल 11वीं शताब्दी माना जाता है। इसमें कवि ने राजकुल की रमणियों के सौंदर्य और श्रृंगार का चित्रण किया है। इसकी भाषा के सम्बन्ध में डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है कि ‘इसकी भाषा पुरानी दक्षिणी कोसली है, जिस प्रकार ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरणम्’ की पुरानी कोसली है। उस पर समीपवर्ती तत्कालीन भाषाओं का कुछ प्रभाव अवश्य शात होता है। यह भाषा ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरणम’ की भाषा से कुछ प्राचीनतर लगती है। जो इसके लेखन-काल के अनुसार होना भी चाहिए और इससे यह भी प्रमाणित होता है कि हिन्दी और हिन्दी की भांति ही कदाचित् अन्य आधुनिक आर्य भाषाएँ भी 11वीं शती ईस्वी में इतनी प्रौढ़ हो चली थीं कि उनमें सरस काव्य की रचना हो सकती थी, वे केवल बोलचाल की भाषाएँ नहीं रह गई थी। इस काव्यकृति की भाषा अपभ्रंश-युक्त है, पर इसमें भणु, भाषण, जइसी, चांगउ, रूरी, रूरे पावउ, भालउ, घरू, काजलु, दीनउ आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे अपभ्रंश की हिन्दी-उन्मुखता का संकेत देते हैं’।
संदेश रासक (संनेहय रासय)
यह कवि अब्दुर्रहमान (अद्दहमाण) की रचना है, जिनका काल 12वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है। यह अपभ्रंश के उत्तरकालीन विकास की रचना है, किन्तु इसमें अपभ्रंश के साथ तत्कालीन लोकभाषा का भी प्रयोग मिलता है। कुछ प्राकृत का भी प्रभाव है। इसमें मुलतान का काव्यपूर्ण सुन्दर चित्र उपस्थित किया गया है। यह काव्य कृति डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी एवम् विश्वनाथ जी त्रिपाठी-द्वारा सम्पादित होकर हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। श्री विश्वनाथ जी त्रिपाठी ने इसके भाषा-वैशिष्टय पर जो लिखा है, वह संक्षिप्त में इस प्रकार है:-
- मध्यम ‘व’ के लोप की प्रवृत्ति- मंनाएवि > मनाइ, पाविय >पाइय, जीव> जीउ।
- ‘म’ ‘व’ में परिवर्तित हो गया है- दमण >डवण, रमणीय > रवणिज्ज ।
- पदान्त में अनुनासिकता के लोप की प्रवृत्ति-हिं-हि, अइं-अइं, हउं-हउ, कांइ-काइ।
- स्वर संकोचन-सुन्नआर > सुन्नार, सहमार-साहार।
- क्षतिपूति के लिये दीर्घीकरण की प्रवृत्ति उस्सास> ऊसास ।
- ‘ल’ के महाप्राण-रूप ल्ह का प्रयोग-मेल्ल-मिल्ह।
- कुछ स्थानों में ‘उ’ ‘व’ में परिवर्तित हो गया है- गोउर > गोवर, नूपुर > णेवर।
- अर्द्ध संवृत स्वर को संवृत स्वर में लिखने की प्रवृत्ति – सेज्जा >सिज्ज, मोत्तिम > मुत्तिम ।
इसमें कुछ ऐसे शब्दों का भी प्रयोग है, जो संस्कृत के तत्सम रूप में हैं। धूम, चरण आदि ऐसे ही शब्द हैं। इस भाषा-वैशिष्ट को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस अपभ्रंश में छटीं शती में काव्य-रचना आरंभ हुई थी, वह 12वीं शती तक धीरे-धीरे उस रूप में आ गई थी, जिसे हम हिन्दी का प्राचीन जयवा प्रारंभिक रूप कहते हैं।
प्राकृत पेंगलम्
इस कृति में विभिन्न कालीन छन्दों का निरूपण सोदाहरण प्रस्तुत किया गया है। डॉ. चाटुर्ज्या ने इसमें 9वीं से 14वीं शती तक के रचित छन्दों का संकलन बतलाया है। यदि यह मान लिया जाय, तो यह 14वीं शती की कृति प्रमाणित होती है, जबकि कुछ विद्वानों ने इसे 12वीं शती की रचना बताया है। डॉ. तेस्सीतेरी का यही मत है। उन्होंने इसकी भाषा के सम्बन्ध में लिखा है- हमारे लिये प्राकृत पैगलम् की भाषा हेमचन्द्र के अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं के प्रारंभिक अवस्था के बीच वाले सोपान का प्रतिनिधित्व करती है और उसे 10वीं से 11वीं अथवा संभवतः बारहवीं शताब्दी ईसवी के आसपास की भाषा कहा जा सकता है”। डॉ. नामवरसिंह ने इसकी भाषा को हेमचन्द्र के दोहों और नव्य भाषाओं के प्राचीनतम रूप के बीच की कड़ी का प्रतिनिधित्व करने वाली कहा है।
यह काव्यकृति श्री चन्द्रमोहन घोष-द्वारा सम्पादित होकर एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल, कलकत्ता-द्वारा प्रकाशित हो चुकी है। अब इसका हिन्दी अनुवाद सहित रूप भी उपलब्ध है। इसकी भाषा में पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी और बिहारी हिन्दी के रूपों का भी प्रयोग मिलता है। यह देखकर डॉ. उदयनारायण तिवारी ने लिखा है कि ‘प्राकृत पैंगलम के समय तक साहित्यिक अपभ्रंश के बीच-बीच में तत्कालीन लोकभाषाओं के रूप भी यत्र-तत्र स्थान पाने लगे थे और आधुनिक आर्यभाषाएँ यद्यपि प्रान्तीय रूप में भी विकसित न हो पाई थी, परंतु उनकी विशेषताएँ प्रकट होने लगी थी”
हम यहाँ ‘प्राकृत पैंगलम’ के उन शब्दों की एक सूची दे रहे हैं, जो ब्रज और बुंदेली दोनों में समान रूप से प्रचलित हैं-
प्राकृत पैगलम् | ब्रज और बुंदेली |
कहिओ (पृ. 24) | कह्यो, कह्यौ |
बेसा (पृ.118) | बेस्या (वैश्या) |
अक्खर (पृ. 158) | आखर |
लेहू (पृ.189) | लेहु, लेहू |
अग्गे (पृ.228) | आगे, आगै |
अहीर (पृ. 286) | अहीर |
अग्गि (पृ. 304) | आग, आगी |
चलावे (पृ.358) | चलावै |
हम्मारो (पृ.361) | हमारो, हमरो |
अज्जु (पृ.448′) | आजु, आज |
घरू (पृ. 463) | घरु, घर, घरै |
आइ (पृ. 485) | आइ |
कहा (पृ.516) | कहा |
कहू (पृ.541) | कहूँ |
इकलि (पृ.541) | इकली, अकेली |
स्पष्ट है कि शौरसेनी अपभ्रंश अथवा उसके जिस मध्यदेशीया रूप से प्राचीन हिन्दी का विकास हुआ, वह ब्रजभाषा का ही नहीं, अपितु बुंदेली, सही बोली आदि के भी विकास का आधार बना। 16वीं शती तक इन प्रादेशिक बोलियों का रूप पूरी तरह निर्धारित नहीं हो पाया था और उनके रूप में परस्पर समानताएँ भी बहुत थीं- विशेषकर ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी में। अतः संक्रमणकाल (11वीं से 15वीं शती तक) में रचित प्राचीन हिन्दी की किसी भी कृति की भाषा को इन प्रादेशिक बोलियों में से किसी भी एक बोली का पूर्व रूप नहीं कहा जा सकता। इन प्रादेशिक बोलियों के प्राचीन रूप में एक बड़ी सीमा तक समानता होने के कारण ही बज भाषा-काव्य का प्रभाव और लोकप्रियता बढ़ने पर कुछ विद्वानों ने भ्रम-वश ब्रजभाषा को मूल भाषा मानकर बुंदेली और कन्नौजी को ब्रजी से विकसित अथवा उसी की शाखाएँ कह दिया, जबकि प्राचीन हिन्दी (संक्रमण काल की हिन्दी) ने ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी के क्षेत्र की तत्कालीन प्रचलित स्थानीय बोलियों से मिलकर क्रमशः ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी के रूप ग्रहण किये।
बीसलदेव रासो
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा बीसलदेव रासो को 12वीं शती (ईस्वी) के मध्यकाल की रचना मानते हैं। उन्होंने लिखा है- “मध्यदेश की एक आधुनिक बोली में लिखी गई सबसे प्राचीन प्राप्त पुस्तक ‘बीसलदेव रासो’ की रचना अन्तःसाक्ष्य के आधार पर 1155 ई. में अजमेर के राजा बीसलदेव के दरबार में नरपतिनाल्ह द्वारा हुई थी यदि यह रचना वर्तमान रूप में इतनी प्राचीन भी हो, तो भी यह राजस्थानी में है, ब्रज में नहीं, जैसा कि ‘छ’ सहायक क्रिया ‘स’ भविष्य ‘न’ के स्थान में ‘ण’ का व्यवहार तथा इसी प्रकार की अन्य राजस्थानी विशेषताओं से स्पष्ट होता है।
राजस्थानी साहित्य के अन्वेषक श्री अगरचन्द्र जी नाहटा इसे तेरहवीं शती के पश्चात् की रचना मानते हैं। इसका कारण वे इसमें सोलहवी-सत्रहवीं शती की राजस्थानी के रूप का प्रयोग बतलाये हैं। इसकी अभी तक पन्द्रह प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से कोई भी सं. 1669 वि. के पूर्व की नहीं है। अतः नाहटा जी का यह कथन सत्य भी हो सकता है।
इसकी भाषा नागर अपभ्रंश का ही एक लोक-प्रचलित रूप कहा जा सकता है। कहीं-कहीं मध्यदेशीय भाषा ब्रज के भी रूप मिलते हैं। प्राकृत के शब्दों का भी अभाव नहीं है। ईसउ (ऐसा), नयर (नगर), पसाउ (प्रसार), इणि (इस) आदि इसी प्रकार के शब्द है। यत्र-तत्र अरबी-फारसी के शब्द मी मिल जाते हैं, जिससे इसका मुसलमानों के भारत-प्रवेश के पश्चात् की कृति होना स्पष्ट है। यह भी हो सकता है कि इसका कुछ भाग 12वीं शती में लिखा गया हो और उसमें प्रक्षिप्त भी मिलते रहे हों। इसके मूल और प्रक्षिप्त का विभाजन सम्भव नहीं है; अतः सम्पूर्ण ग्रंथ की भाषा 12वीं शती की नहीं कही जा सकती। यद्यपि इसमें 12वीं शती की नागर अपभ्रंश की उन प्रवृत्तियों का अभाव नहीं है, जो तत्कालीन अन्य काव्यकृतियों में भी परिलक्षित हैं। इसके वर्तमान रूप की भाषा हिन्दी के संक्रमणकालीन विकास के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ती।
उक्ति व्यक्ति प्रकरणम्
यह काशी के गहरवार नरेश गोविन्द चन्द्र के आश्रित कवि दामोदर की रचना है। गोविन्द-चन्द्र का शासनकाल सन् 1114 और 1155 ई. के मध्य माना जाता है। अतः इस कृति का रचना-काल ईसा की 12वीं शती का पूर्वार्ध समझा जाता है। इसका प्रणयन काशी-नरेश के राजकुमारों को स्थानीय लोक-भाषा सिखाने के उद्देश्य से किया गया था। ग्रंथ से जान पड़ता है कि उस समय उस क्षेत्र में ‘कौशली’ बोली लोकभाषा के रूप में प्रचलित रही होगी; तभी इसमें इस बोली के माध्यम से संस्कृत का ज्ञान कराने का प्रयास किया गया है। यह सिन्धी जैन ग्रंथमाला, बम्बई से प्रकाशित हो चकी है।
डॉ. चाटुर्ज्या ने इस ग्रन्थ की भाषा का जो विवेचन किया है, उससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। प्रथम, ग्यारहवीं शती से जो भापा-रूप तद्भव शब्दों का बाहुल्य तथा अरबी-फ़ारसी की शब्दावली लेकर विकसित हो रहा था, वह अब अपना रूप-परिवर्तन करता हुआ क्रमशः परिष्कृत हिन्दी की ओर अग्रसर होता जा रहा था। उसका तत्सम-अर्ध तत्सम शब्दों का बढ़ता हुआ प्रयोग और अरबी-फ़ारसी के शब्दों के प्रयोग की न्यूनता उसकी इसी प्रवृत्ति का परिचायक है।
दूसरे, उसकी सरलीकरण की प्रवृत्ति इस बात का प्रमाण है कि वह अब धीरे-धीरे वह रूप ग्रहण करती जा रही थी, जिससे हिन्दी की प्रादेशिक बोलियों का विकास हुआ।
पुरान प्रबन्ध संग्रह
डॉ. उदयनारायण तिवारी ने संक्रमणकालीन कृतियों में ‘पुरान प्रबन्ध संग्रह’ का भी उल्लेख किया है। यह वास्तव में प्राचीन अनुश्रुतियों का संकलन है, किन्तु इसमें कुछ ऐसे पद्यों का भी समावेश है, जिनमें तत्कालीन लोकभाषा का स्वरूप परिलक्षित होता है। उदाहरणार्थ ये पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
चारि पाय बिचि ढुडगुसु ढुडगुसु
जाइ जाइ पुण रुडुधुसु रुडुधुसु
आगलि पाछलि पूंछे हलावइ,
अंधारऊँ फिरि मूला चावइ ।
इन पंक्तियों के चारि, पाय, विचि, जाइ, आगलि, पाछलि, पूँछे, हलावइ (हिलाना), अँधारउँ, मूला और चावइ (चबाना) शब्द हिन्दी की आधुनिक लोकभाषाओं के रूप हैं। बुंदेली में भी इनका प्रयोग होता है। इन शब्दों के प्रयोग से यह भी स्पष्ट है कि इस समय हिन्दी अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त होने का प्रयत्न करती हुई आधुनिक रूप की ओर बढ़ती जा रही थी
रामायण कथा
यह कवि विष्णुदास की काव्य-कृति है। कवि विष्णुदास विक्रम की 15वीं शती में ग्वालियर के तोमर नरेश महाराज डूंगरेन्द्र सिंह के आश्रित थे। उनकी काव्य-कृति रामायण कथा, जैसा कि उसके नाम से स्पष्ट है, भगवान राम के पावन चरित्र पर आधारित है। रचयिता ने उसका समाप्तिकाल माघ मास पूर्णिमा गुरुवार सं. 1499 वि. लिखा है। तदनुसार यह सन् 1442 ई. अर्थात् 15वीं शती के मध्यकाल की रचना है। यह कृति अभी-अभी सागर विश्वविद्यालय से डॉ. भागीरथ मिश्र द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुई है। इसकी पाण्डुलिपि सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में सुरक्षित है। इसकी एक पाण्डुलिपि श्री हरिहरनिवास जी द्विवेदी ग्वालियर के पास भी है।
भाषा
इस ग्रंथ की भाषा के स्वरूप को देखने की दृष्टि से इसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा।
कवि विष्णुदास ने राम के द्वारा बालि का वध होने के पश्चात् की घटना का वर्णन इस प्रकार किया है:-
तारा रोवति सिर तो (डो) रि।
मुँह देख्यौ माथो महि छोरि ।।
छन चेतै छन मूरछि रहै।
दुख के बचन बालि सों कहै ।।
मो बिनु छिनकु न रहते साँइ।
ऊतरु देत न कारन काँइ।
मेरौ देव विदूषन हियौ।।
का पराध मै तेरो कियौ ।।
सूरहिं कन्या देहि न कोइ।
ता मै जो विधवा सुन होइ ।।
सुख सोवत कायर की नारि।
हारनु जितनु बिरोग निकारि ।।
सूर कंत अब मो मति हरी।
गहिर सोग-सागर महँ परी ।।
हियौ जरतु ज्यौं पाहन लोह।
बिसरतु नहीं कंत को छोह ।।
जो नखदान सुरत के संग।
सहि न सकतु अति कोमल अंग ।।
राधौ तीक्षन बान प्रहार।
कैसे तुम सहि सके भतार।।
बहुत भाँति रोवति बिललाइ।
तबहि नील राखी समुझाइ ।।
पुनि आपुन उठि गहे परान।
काढ़े अंग बिधे जे बानु ।।
उपज्यो सबदु भुवन अकुलान।
काढि़ नील जब लीन्हें बानु।।
रहिर प्रवाह है रीसत अैसे।
गेरु पर्वत झिरत सु जैसे ।। आदि ।।
इन पंक्तियों में हमें भाषा विषयक निम्नांकित प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं-
- संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग – सिर, दैव, कन्या, सुख, सागर, अंग, लोह, प्रहार, प्रवाह, कोमल, पर्वत ।
- अर्ध तत्सम शब्दों का प्रयोग- दुख, कारन, कंत, तीक्षन, बान आदि।
- तद्भव रूपों का प्रयोग- मुँह, छन, साँइ, मूरछि, ऊतरु, कायर, विरोग, पाहन, गहिर, सोग, नख, मतार, परान, हियो, गेरू।
- अपभ्रंश रूप-रहिर।
स्पष्ट है कि इस काल की काव्य-भाषा में तत्सम, अर्ध तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग हो रहा था, किन्तु यत्र-तत्र अपभ्रंश का प्रभाव भी परिलक्षित था। तत्सम रूपों का बाहुल्य था और अरबी-फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग कम होता जा रहा था।
क्रियाएँ लोकभाषाएँ- ब्रज, बुंदेली, अवधी की प्रवृत्तियाँ ग्रहण कर रही थीं, जैसा कि हमें उक्तः पंक्तियों की रोवति, डोरि, छोरि, चैते, रहे, कहै, देत, देहि, कियौ, होइ आदि क्रिया-रूपों में दिखाई देता है।
‘रहते’ क्रिया खड़ी बोली की है।
अपभ्रंश काल से चली आ रही उकार की प्रवृत्ति भी स्थान-स्थान पर विद्यमान है। छिनकु, ऊतरु, हारनु आदि।
सामान्य भूतकाल की क्रियाएँ ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी की तरह औकारान्त हैं- देख्यौ, कियौ, उपज्यौ।
सम्बन्ध सूचक पुरुषवाचक सर्वनाम के रूप ब्रज और बुंदेली के वर्तमान रूपों की तरह ही है- तेरौ, मेरौ, मो, तुम।
पश्चिमी हिन्दी की अकारान्त अथवा आकारान्त संज्ञा-शब्दों के ओकारान्त अथवा औकारान्त में उच्चारण करने की प्रवृत्ति भी इन पंक्तियों में वर्तमान है- हियौ, राघौ आदि।
अपादान कारक की विभक्ति ‘सौ’ तथा सम्बन्ध कारक की विभक्ति ‘कौ’ है। आगे की पंक्तियों में कर्म की विभक्ति ‘को’ और कौ, कौं का तथा सम्बन्धकारक की विभक्ति ‘कौ’ का भी प्रयोग है।
काँइ (क्या) मालवी का शब्द है, निमाड़ी में भी प्रयुक्त होता है।
कुछ स्थानों में कवि ने ऐ के स्थान पर मैं लिखा है-ऐसे-अैसे। ‘पराध’ शब्द में प्रथमाक्षर अ का लोप है।
इस काव्य-कृति में देशज शब्दों के प्रयोग का भी अभाव नहीं है, डोरि अथवा ढोरि, माथौ, भतार, रीसनो (वाहर निकलना), असरार (बेशुमार) सममुहे, खुर्-यो (बाँटना), ढियो (लेखा), स्यो (सहित), आदि। इन शब्दों का प्रयोग वर्तमान बुंदेली में भी होता है।
इन विभिन्न प्रयोगों और विशेषताओं को देखकर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस काल (15वीं शती का मध्यकाल) तक भी कवियों की दृष्टि में कोई भाषा अथवा बोली-भेद नहीं था। वे बिना किसी भेद-भाव के ब्रज, बुंदेली, अवधी, मालवी आदि तत्कालीन सभी बोलियों के शब्दों और क्रियापदों का प्रयोग कर लेते थे। यह उनकी काव्य-भाषा का राष्ट्रीय स्वरूप था। ‘रामायण कथा’ तथा इसके पश्चात् की काव्य-कृतियों की भाषा में भी हम यही वैशिष्ट देखते हैं।
छिताई चरित
यह तीन कवियों-नारायण दास, रतनरंग और देवचन्द्र की संयुक्त रचना है। यह काव्य-कृति श्री हरिहनिवास जी द्विवेदी तथा श्री अगरचन्द्र जी नाहटा द्वारा सम्पादित होकर “विद्यामन्दिर प्राचीन ग्रंथमाला” के तृतीय पुष्प के रूप में सन् 1960 में ग्वालियर से प्रकाशित हो चुकी है। इस प्रकाशन में इस ग्रंथ से संबंधित सभी सामग्री-मूलपाठ, टीका, काव्य-सौन्दर्य, कथानक आदि उसकी ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि सहित वर्तमान है।
मूलपाठ चार खण्डों में विभाजित है, जिनमें देवगिरि के राजा रामदेव की कन्या छिताई का सम्पूर्ण जीवन-वृत्त चौपाई और दोहा छन्दों में वर्णित है। इस चरित्र-चित्रण पर आरंभ से अन्त तक महारानी सीता के चरित्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित है। सीता हरण की तरह राजकुमारी छिताई का भी खिलजी सुल्तान अलाउद्दीन-द्वारा हरण होता है, किन्तु अनेक कष्टों, प्रलोभनों तथा छल-प्रपंच के पश्चात् भी अलाउद्दीन उसका सत् डिगाने में समर्थ नहीं हो पाता और अन्त में वह उसे समरसिंह को सौंप देता है। छिताई चरित के सम्पादक-द्वय ने इस कृति का रचना-काल अनेक प्रमाणों के आधार पर सं. 1475 और सं. 1480 वि. के मध्य माना है, जबकि डॉ. माता प्रसाद गुप्त सन् 1443 ई. (सं. 1500) मानते हैं। दोनों स्थितियों में यह सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत महाकाव्य से पूर्व की कृति प्रमाणित होती है। जायसी की कृति पर इस काव्य कृति का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। श्री हरिहरनिवास जी द्विवेदी के शब्दों में “छिताई चरित हिन्दी का गौरव ग्रंथ है। हिन्दी की लौकिक आख्यान-काव्यधारा की श्रेष्ठ रचना के रूप में राजनैतिक इतिहास की घटनाओं के कथा-बीज पर आधारित सर्वप्रथम प्रामाणिक रचना के रूप में, अपने युग के सांस्कृतिक वैभव का सजीव विवरण प्रस्तुत करने वाली एकमात्र कृति के रूप में, तत्कालीन सामाजिक आकांक्षाओं और परिस्थितियों के परिचायक के रूप में, जायसी और तुलसी के प्रबन्ध काव्य में प्रेरक स्रोत के रूप में हिन्दी भाषा और प्रबन्ध काव्यों की रचना-विधा के इतिहास में प्रमुख कड़ी के रूप में और सर्वोपरि उत्कृष्ट प्रबन्ध काव्य के रूप में छिताई चरित का स्थान हिंदी साहित्य में अत्यन्त श्रेष्ठ है।”
भाषा-रूप
इस काव्य की भाषा प्रमुख रूप से संस्कृत और अपभ्रंश के सरल रूप से युक्त है। इनके अतिरिक्त कुछ प्रमाण में अरबी-फ़ारसी के तद्भव रूप तथा देशज शब्दों का भी प्रयोग है। अरबी-फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग केवल राजकाज अथवा अस्त्र-शस्त्रों के नाम-निर्देशन में ही हुआ है। कुछ शब्दों को हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुसार बदल भी लिया गया है। कुछ तत्सम-रूपों का भी प्रयोग हुआ है। आलम, उमरा, कूच आदि ऐसे ही शब्द हैं। रचयिता-द्वारा प्रयुक्त अरबी, अम्बारी, कैफियत, खैरात, खवास गरीबी, जवाब, जासूस, तमासा, तेग, दीन, फौज, फतह, वाजिद, सन्दूक, शहीद, हजूरी, हरम, हुकुम आदि अरबी के और सवार, कमान, गर्द, गरदान, गुनाह, गुमान, गुलाल, चाबुक, जहान, तीर, तुरक, दमामा, दरवेश, दरबार, दस्त, दोजख, निशान, नेजा, प्यादा, पातसाह, फरमान, फरियाद, बजार, बांदी, मिस्त, मजल, मस्त, मसीत, मुसबर, रसाला, लसकर, साह, सुलतान, हजार आदि फ़ारसी शब्द हैं।
इन शब्दों के प्रयोग से 15वीं शती की काव्य-भाषा में अरबी-फ़ारसी के शब्दों की बढ़ती हुई प्रवृत्ति स्पष्ट है।
इस ग्रंथ में प्रयुक्त देशज शब्दों में अकुताई, अटा, अटारी, अधकर, अनमन, अहेरे, आपापउ, ईसर, उजार, उझकति, उतरि, उनहार, उमाहे, उरवाई, उलइती, उसास, एबी. एंडाहीं, ओथाओथी, औथए, कठ-छपर, कटाइल, कडारी, कमठाने, करवि, कलिचा, कहियउ, कांगई, संखरि, खलाइ, खुटी, खुमरी, मधि, मसान, गुडरी, गोभट, घोंघर, चेंटी, छछारिउ, झकोरा, झरोखा, ठइकइ, ठाटरि, उहकी, डाबि, तरइया, दउत, दौरहा, नाखत, निकुताई, पुरइन, बटबांस, भिनसारो, मइंडिया, मिहचनी, लेज, लोथ, सउससी, सरचई, सियरो, सिराई, हथौटी, हती, हरुवे, हांडिउ, हिलबी आदि हैं। इनमें से प्रायः सभी शब्द बुंदेली में आज भी प्रयुक्त होते इससे छिताई चरित की भाषा को आधुनिक बुंदेली का पूर्व रूप निश्चित रूप से कहा जा सकता है। सम्पादक द्वय ने लिखा है- “छिताई चरित के देशज शब्द तत्कालीन हिन्दी के केन्द्रीय रूप की ओर संकेत करते हैं। हिन्दी के अपभ्रंशपरक रूप का परिमार्जन कर उसे संस्कृतपरक काव्यभाषा का रूप देने का महती प्रयास ग्वालियर में हुआ था और इसी कारण गुजरात, महाराष्ट्र तथा बंगाल में तत्कालीन हिन्दी का नाम ग्वालियरी भाषा प्रख्यात हुआ था। छिताई चरित की रचना ग्वालियर में हुई थी। उसमें प्रयुक्त देशज शब्द इस बात के अन्तः साक्षी हैं कि ईसवी पन्द्रहवीं शताब्दी तक प्रतिष्ठित मान्य काव्य-भाषा का केन्द्र वर्तमान बुंदेलखंड था। आज बुंदेलखंड के अन्तरंग में प्रयुक्त शब्दावली का जिन्हें अभिज्ञान नहीं है, वे छिताई चरित के शब्दों का अर्थ समझने में बहुधा मूल करेंगे।सम्पादक द्वय की सम्मति में चन्द वरदायी से लेकर कुतबन और भिखारीदास तक जिस ‘षटभाषा’ का उल्लेख मिलता है, उसकी पूर्ण प्रतिष्ठा छिताई चरित की शब्दावली में है।
छिताई चरित की कुछ काव्य-पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
कहिउ सयन जे सबक बुलाई। दौत अरहू परकोटा जाई।
नसुरतिखान कहिउ बिउहारा। पातिसाहि सुख भयो अपारा ।।
खूब मंत्र परगासिउ मोती। यहइ जानि हउँ पूंछऊँ तोही।
सो मंत्री जो करन न करई। पूछति मंत्र धरम जीय बरई ।।
खान उमरावन दय फरमाना। जइसैं ढोवा करहु विहाना।
तब जवाब सब काहू दयो। यह फाटी भुनिसारौ भयो ।
ये सम्पूर्ण पंक्तियाँ बुंदेली में रचित हैं। पूर्ण ग्रन्थ में बुंदेली का प्राधान्य स्पष्ट है।
मैनासत
‘मैनासत’ साधन की कृति है। साधन के सम्बन्ध में प्रामाणिक सामग्री पर्याप्त प्रमाण में उपलब्ध नहीं है, जिससे उसके वास्तविक नाम-गाम, जाति, सम्प्रदाय आदि के सम्बन्ध में ही नहीं, पर उसके स्त्री अथवा पुरुष होने के सम्बन्ध में भी मतभेद है। इस काव्य-कृति के जो पाठ मिले हैं, उनमें साधन, साधुन, सायधन तथा साहयन नाम मिले हैं, इससे उनका वास्तविक नाम भी विवाद-ग्रस्त हो गया है। सन्त रैदास, कबीर तथा सहजोबाई ने भी साधन का नामोल्लेख किया है। कहीं इस मैनासत के रचयिता को ‘मियां साधन’ कहा गया है। इससे साधन एक मुसलमान कवि समझे जा सकते हैं, किन्तु इस काव्य ग्रन्थ में कुछ ऐसी पंक्तियाँ भी मिलती हैं, जिनमें साधन स्त्री जान पड़ती है, पुरुष नहीं-
साधन चमके बीज सखिहर खेलै हिंडोलना ।
सब कोउ खेलै तीज, साधन सूती पिउ बिना ।।
इस काव्य-कृति के सम्पादक श्री हरिहनिवास द्विवेदी भी साधन को स्त्री ही मानते हैं। उन्होंने लिखा है- “मैनासत में पत्नी के वियोग के उद्गारों में जो गंभीरता और वास्तविकता है, स्त्रियों के त्यौहारों और व्यवहारों का जितना सूक्ष्म चित्रण है, यह किसी पुरुष की कल्पना से प्रस्तुत नहीं हो सकता। पुरुष को नारी का सौन्दर्य दिखाई देता है। उसके हावभाव और उपमा-रूपक सामने आ जाते हैं। मैनासत में नारी का हृदय बोल उठा है, मालिन तथा मैना की उक्तियों के रूप में नारी का अन्तर्द्वन्द्व प्रकट हुआ है, वह पुरुष की कल्पना नहीं हो सकती। मांसल स्थूल चित्रों से हीन केवल हृदयगत भावनाओं का ऐसा मामिक अंकन नारी की ही अभिव्यंजना हो सकती है।”
जो हो, हमारा इस विवाद से कोई सम्बन्ध नहीं। मैनासत एक विरह काव्य है, जो सम्पादक के शब्दों में “योग और भोग के संतुलित समन्वय से प्राप्त अमृत का मंगलकलश है।” हिन्दी की सूफी काव्य-परम्परा में जिस प्रेम-काव्य का विकास हुआ है, उसी परम्परा की यह प्रथम कड़ी है। पूर्ण ग्रंथ में प्रेम के विप्रलम्भ-स्वरूप का एक सागर-सा लहराता हुआ दिखाई देता है।
भाषा
यह पन्द्रहवीं शती की रचना है। श्री द्विवेदी जी के अनुसार इसका रचना-काल सन् 1480 ई. के लगभग है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल की काव्य-भाषा पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है- “धीरे-धीरे ब्रजभाषा की विशुद्धता की ओर बहुत से कवियों का ध्यान नहीं रहा और वे ब्रज-भाषा की कविता में भी अवधी के शब्दों और रूपों का मनमाना व्यवहार करने लगे। अल्पशक्ति वाले कवियों को इसमें सुभीता भी बहुत दिखाई देने लगी- एक ही अर्थ सूचित करने के लिये शब्दों की एक खासी भीड़ उन्हें मिल गई। कीनो, कियो, करयो, किय, कीन; आवै, आवहिं, (मौका पड़ने पर आवहिं भी) आवत; थोरो, थोर, मोर, मेरो, तेरो, तोर-जो छंद में बैठा रख दिया। प्रत्कृत आदि के पुराने शब्द बने ही थे।”
‘मैनासत’ की भाषा को श्री हरिहनिवास जी द्विवेदी ने ‘ग्वालियरी’ कहा है, हम इसे एक सीमित क्षेत्र की भाषा न कहकर पश्चिमी हिन्दी का प्राचीन रूप कहते हैं, जो आज के ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, अवधी और खड़ी बोली के ही नहीं, पर पश्चिम में राजस्थान और दक्षिण में महाराष्ट्र तक के क्षेत्र में व्यापक था। गुजरात के कुछ-कवियों द्वारा भी उस काल में हिन्दी के इसी रूप में काव्य-रचना करने के प्रमाण मिलते हैं।
‘मैनासत’ के एकाधिक पाठ उपलब्ध है और इन पाठों की भाषा में परस्पर कुछ-न-कुछ अन्तर भी है। इसकी प्राप्त प्रतिलिपियाँ 16वीं से 18वीं शती तक की हैं। इनमें कहीं शब्द-परिवर्तन है, कहीं विभक्तियाँ बदली हुई हैं और कहीं क्रिया-रूप बदले हुए हैं। इसके अनेक स्थानों पर संयोगात्मक विभक्तियों का प्रयोग है; यद्यपि इसमें वियोगात्मक विभक्तियों का भी अभाव नहीं है। कारक-विभक्तियाँ कहीं पश्चिमी हिन्दी की हैं और कहीं पूर्वी हिन्दी की। कर्म कारक के लिये को, कों तथा का विभक्ति का भी प्रयोग सर्वत्र मिलता है। कू का प्रयोग भी अनेक स्थानों पर हुआ है। करण कारक के लिये सों, सूं का प्रयोग है। अधिकरण कारक की विभक्ति पं है। सम्प्रदान कारक की विभक्ति के रूप में ‘लागि’ का प्रयोग अनेक स्थानों में है। सम्बन्ध कारक की विभक्ति पश्चिमी हिन्दी के अनुसार को तथा पूर्वी हिन्दी के अनुसार कं, कर, केर का प्रयोग हुआ है। तात्पर्य यह कि इसकी भाषा में पश्चिमी और पूर्वी दोनों के रूप विद्यमान है। शब्दों की दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि मैनासत में इसकी पूर्व अथवा समकालीन कृतियों की अपेक्षा अरबी-फारसी के शब्दों का बहुत ही कम प्रयोग हुआ है।
तृतीय सोपान : बुंदेली तथा अन्य प्रादेशिक बोलियों का उद्भव
बुंदेली के उद्द्मव की स्थिति हिन्दी की अन्य प्रादेशिक बोलियों के उद्भव की स्थिति से भिन्न नहीं है। प्रायः सभी विद्वानों ने सं. 500 वि. से 1000 वि. तक अपभ्रंश-काल माना है; यद्यपि 14वीं शती तक इस भाषा में ग्रंथ रचना होती रही। 11वीं से 14वीं शती तक का काल स्पष्ट रूप से किसी भाषा का काल नहीं था, जिसे ‘संक्रमण काल’ कहा गया है। इस काल में धीरे-धीरे अपभ्रंश सरल होकर वह वह रूप ग्रहण करती जा रही थी, जिससे आधुनिक कालीन हिन्दी की प्रादेशिक बोलियों का आरम्भ होता है। डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या इसी काल से आधुनिक आर्म भाषा-काल का आरंभ मानते हैं। और तब से वर्तमान काल तक को न्यू इण्डो आर्यन काल (New Indo Aryan period) कहते हैं। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने इसे आधुनिक भारतीय आर्य भाषा काल कहा है।
इस काल में जो बोलियाँ हमारे सामने आई, वे तत्कालीन विभिन्न अपभ्रंशों से विकसित भले ही कही जाती हों, किन्तु उनमें उनका ‘अपना’ भी कम नहीं है। वास्तविकता यह है कि जहाँ अपभ्रंश क्रमशः सरल होती गई, वहाँ वह अपने क्षेत्रों को बोलियों से भी प्रभावित होती रही। यह देखते हुए हम संक्रमण काल के पूर्व विवेचित साहित्य के भाषा-रूप को अपभ्रंश के उत्तरकालीन रूप एवम् तत्कालीन लोक-प्रचलित बोलियों का एक समन्वित रूप ही कह सकते हैं। यही हिन्दी का आरम्भिक काल था। हम इसे किसी एक प्रादेशिक बोली का पूर्व रूप नहीं कह सकते। हमने ऊपर देखा कि संक्रमण काल की प्रायः सभी कृतियों में संस्कृत के तत्सम, अर्ध तत्सम और तद्भव रूपों के अतिरिक्त ब्रज, कन्नौजी, बुंदेली, अवधी, मालवी आदि सभी प्रमुख बोलियों की प्रवृत्तियाँ और आरंभिक रूप विद्यमान है। अतः हम उसे वर्तमान कालीन सभी हिन्दी बोलियों का एक साथ पूर्व रूप कह सकते हैं। सुविधा की दृष्टि से हम उसे ‘प्राचीन हिन्दी ही कहेंगे। यही हमारी आधुनिक प्रादेशिक बोलियों की जननी है, जिसे हम प्राचीन हिन्दी कहते हैं, उसका रूप सम्पूर्ण हिन्दी भाषी समान क्षेत्र में नहीं है। इसके दो प्रमुख कारण हैं। उच्चारण-भेद और स्थानीय शब्दों का सम्मिश्रण। यह पहले कहा जा चुका है कि आर्य लोग जिस भू-भाग में गये, वहाँ वे अपनी भाषा के साहित्यिक रूप के साथअपनी बोली भी ले गये। वहाँ पहिले से आयेंतर जातियां भी रहती थीं। उनकी भी अपनी बोलियाँ थी। आर्यो और आर्येतर जातियों की बोलियों के विलयन से जो शब्दावली बनी, वही उस क्षेत्र की एक नवीन शब्दावली कही गई। इस प्रकार की शब्दावली के शब्दों को ही देशज कहा गया है। विभिन्न उच्चारण-विधियों और इन देशज अथवा स्थानीय शब्दों के मिश्रण ने ही हिन्दी को विभिन्न रूप प्रदान किये, जो मूल रूप में एक होकर भी अपने वैशिष्ट के कारण एक-दूसरे से कुछ भिन्न है। हिन्दी के इन विभिन्न रूपों को ही हम ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी आदि नामों से सम्बोधित करते हैं।
बुंदेली का विकास
बुंदेली का विकास तीन रूपों में हुआ है- काव्य-भाषा के रूप में, राजभाषा के रूप में और लोकभाषा के रूप में।
1. काव्यभाषा के रूप में विकास
बुंदेली एक लोक-भाषा अथवा बोली कही जाती है, जैसा कि ब्रज आरम्भ में रही है और अब पुनः है। कोई भी भाषा आरम्भ में ‘बोली’ ही रहती है, पर जब अनुकूल स्थितियाँ पाकर उसका विकास होता और वह काव्य अथवा साहित्य-रचना के माध्यम के रूप के गृहीत हो जाती है, तब उसे ‘भाषा’ की संज्ञा प्राप्त होती है। ब्रज, जिसमें आज एक बहुत बड़ा साहित्य-भंडार उपलब्ध है, अपने आरम्भिक रूप में केवल ‘बोली’ थी। जब ब्रजभूमि को भगवान कृष्ण की लीला-भूमि समझ कर कृष्ण-भक्त वैष्णव सन्तों ने उसे अपनी निवास-भूमि बनाई और वहाँ की बोली में अपने भक्ति-विषयक पदों की रचना आरम्भ की, ब्रज बोली को विकास की स्वर्ण संधि प्राप्त हो गई और उसने धीरे-धीरे विकसित होकर एक भाषा का रूप धारण कर लिया।
बुंदेली को ब्रज की तरह काव्य-भाषा के रूप में विकसित होने का सौभाग्य प्राप्त न हो सका, किन्तु इसका विकास सर्वथा अवरुद्ध भी न रहा। इसे भक्ति के माध्यम के रूप में विकसित होने का अवसर तो न मिला, पर बुंदेलखंड के अनेक राजाओं के दरबार में एक बड़ी संख्या में कवि रहे हैं। ग्वालियर के रामसिंह तोमर की सत्ता समाप्त होने पर उनके आश्रित अधिकांश कवियों ने बुंदेलखंड के ही राजाओं का आश्रय ग्रहण किया और वे ससम्मान काव्य-रचना करते रहे। आरम्भ में इनके काव्य की भाषा प्रधानतः मध्यदेशीया हिन्दी ही रही होगी; क्योंकि ब्रज और बुंदेली का रूप-विभाजन 16वीं शती के पश्चात् ही स्पष्ट रूप से हुआ था। इन दोनों को निश्चित स्वरूप प्राप्त होने में भी कम-से-कम एक शताब्दी अवश्य लग गई होगी। यह सभी विद्वान स्वीकार करते हैं कि ब्रज और बुंदेली के आरम्भिक रूप में कोई अन्तर नहीं था। राहुल जी ने भी लिखा है कि बुंदेली और ब्रज में इतनी समानता है कि अभी भी कितने ही ब्रज-भाषा-भाषी बुंदेली को ब्रज की एक बोली ही समझते हैं।… जब आज इतनी समानता है, तो आज से साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व तो वह और भी रही होगी।
ब्रज और बुंदेली की यह स्थिति देखकर 16वीं और 17वीं शती के हिन्दी-कवियों को इन दोनों में से किसी एक के कवि मान लेना बड़ा कठिन है। तोमर-शासन की समाप्ति के पश्चात् भी हिन्दी-काव्य-सृजन की परम्परा अविच्छिन्न रूप से विकसित होती रही है। यदि ब्रजभूमि के कृष्ण-भक्त कवियों ने ब्रज कही जाने वाली भाषा में विशाल कृष्ण-काव्य का निर्माण किया, तो बुंदेलखंड भी उस काल में सर्वथा मौन नहीं रहा।
ओरछा दरबार के कवि
बुंदेलखंड में एक ऐसी कवि-परम्परा 16वीं शती से ही रही है, जिसके कवियों का हिन्दी के काव्य-साहित्य के विकास और समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। महाराज भारतीचन्द्र (सं. 1588-1611 वि.) के आश्रय में अनेक कवि रहे हैं, जिनमें गुलाब कवि, और मनसाराम विशेष उल्लेखनीय हैं। कवि गुलाब का ‘सेरबध’ तथा मनसाराम के सरोदय, युद्ध विजय, अजपा जोग तथा आवागमन मिटावनी नामक काव्य-कृतियाँ उपलब्ध हैं। इन्हीं के शासनकाल में खेमराज ब्राह्मण ने ‘प्रताप हजारा’ (सं. 1590) की रचना की थी, जिसमें महाराज रुद्र प्रताप, उनके पुत्रों तथा उनकी राजधानी के वैभव का चित्रण किया गया है। पूर्ण कृति की भाषा बुंदेली है। उदाहरणार्थ ये पंक्तियाँ देखिये-
प्रथम भारतीचंद, दुतिय मधुकर-सा जानों,
कीरत उदयाजीतसिंह, आमन पहिचानों।
भूपत भूपतशाह, चान चाह न तिहीन का,
प्रागदास दुरगेस, स्याम, सुन्दराहि लीन का।
कह खेमराज गढ़ ओरछे गढ़ कुढ़ार पति मानिये,
तव पुत्र रुद्रपरताप के सो नोऊ खण्ड पहिचानिये।
भारतीचंद्र के पश्चात् महाराज मधुकरशाह (सं. 1611-1649 वि.) के शासनकाल में उनके गुरु महात्मा हरीराम सं. 1612 तक ओरछा राज्य के ही आश्रित रहे। इनका जन्म सं. 1567 वि. में ओरछा में ही सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ‘व्यासवाणी’ तथा ‘रागमाला’ इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। इनका लगभग 49 वर्ष का जीवन-काल ओरछा में ही व्यतीत हुआ था। ये वास्तव में ‘शुक्ल’ थे, पर इन्होंने ‘व्यास’ नाम से काव्य-रचना की है। इनकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं, जो स्पष्टतः बुंदेली में रचित है-
सुनि गोरी तै एक किसोरी, बन में देखी जात।
ता बिनु दीन छीन हौं डोलत, कोऊ न बूझत बात।।
तेरी सी उनिहारि नारि के, सबै लुभारे गात।
चितवत चलत अधिक छबि उपजति, कोटि मदन सर घात ।।
तूं अपनो ब्यौरो कहि मोंसों, अधर नैन मुसिक्यात।
व्यास स्वामिनिहिं बेर न लागी, स्याम कण्ठ लपटात ।।
महाराज मधुकरशाह स्वयं एक भक्त कवि थे। उनके कृष्णोपासना और रामोपासना से सम्बन्धित अनेक पद उपलब्ध है। मोहनलाल मिश्र भी महाराज मधुकरशाह के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि थे। ‘भाव चन्द्रिका’ और ‘रामाश्वमेध’ इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। इनके आश्रय में कुछ वेश्याएँ भी ऐसी थीं, जो कवयित्री थीं। इनमें से तानतरंग ने ‘संगीत अखाड़ा’ विचित्र नयना ने ‘कोकशास्त्र’ तथा मधुरअली ने ‘रामचरित्र’ तथा ‘गनेसदेवमाला’ की रचना की थी। इनके अतिरिक्त बनवारी कायस्थ, सुकदेव व्यास कपूर साब, मलके तथा परम भी इनके आश्रित कवि थे।
महाराज मधुकरशाह के ज्येष्ठ पुत्र रामशाह (शा. का. सं. 1649-1662 वि.) तथा द्वितीय पुत्र होरलदेव भी कवि थे। महाराज रामशाह ने भक्ति-विषयक अनेक पदों की रचना की थी। ‘प्रीतजग्य’ होरलदेव की काव्य-कृति है। तृतीय पुत्र इन्द्रजीत सिंह के द्वारा भी ‘धीरजनरिन्द’ नाम से काव्य-रचना करने का उल्लेख मिलता है।
बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध कवि और आचार्य केशवदास का आविर्भाव (सं. 1612 वि.) इन्हीं महाराज इन्द्रजीत सिंह के शासन काल में हुआ था और वे महाराज वीरदेवसिंह के काल तक ओरछा दरबार के ही आश्रित रहे।
मुगल बादशाह अकबर के मना करने पर भी महाराज मधुकरशाह के तिलक लगाकर उनके दरबार में जाने की घटना का वर्णन कवि केशवदास ने इस प्रकार किया है-
राजाधिराज मधुशाह नृप यह बिचार उद्दित भयब;
हिन्दुवान धर्म रक्षक समुझि पास अकब्बर के गयब।
दिल्लीपति दरबार जाय मधुशाह मुहायब;
जिमि तारन के माहिं इन्दु शोभित छबि छायब।
देखि अकब्बरशाह उच्च आभा तिन केरी;
बोले बचन विचारि कहो कारन यहि केरी।
तब कहत भयब बुंदेल-मणि, मम सुदेश कंटक अवनि।
रचना की क्रियाएँ भयब, गयब, मुहायब, छायब तथा सर्वनाम-आभा-तिन-केरी, यहि केरी भी बुंदेली के ही शब्द हैं। तत्कालीन भाषा-रूप देखते हुए यह रचना बुंदेली की ही कही जा सकती है। केशव के ‘वीरसिंह देव चरित’ में भी अनेक बुंदेली प्रयोग वर्तमान हैं।
केशवदास ने वीरसिंह के तृतीय पुत्र पहाड़सिंह को गायों की रक्षा के लिए लिखा था-
पड़ी हैं पिसाचन माहिं, जुतती हैं आठों याम,
सुधहूँ न लेत पापी तूनन के खाने की
कान्हजू की कामधेनु करती विलाप रोय,
कपिला की जाति कहुँ भाग नहीं जाने की।
रोय करती हैं अर्ज उठ भोर भानुजूं सूं,
फौज चट धाऔ ‘केशोराय’ वीरवाने की।
वीरसिंह जू के कुँवर प्रबल पहाड़सिंह,
तेरी तेरी हेरतीं हैं गौऊँ गौड़वाने की।
इन पंक्तियों में कान्हजू, कहुँ, रोय, भानुजूं सूं, कुँवर, वीरसिंह जू तथा राय (राह) बुंदेली के प्रयोग हैं।
केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में भी बुंदेली के शब्द विपुल प्रमाण में मिलते हैं। शब्द ही नहीं, अनेक बुंदेली-प्रयोग भी वर्तमान हैं। स्यात, कहा, कबै, गोरे मदाइन, ऐली, सिहात, गेडुबा, गलसुई, लाँच, उरमति आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
महाकवि केशवदास के ज्येष्ठ बंधु बलभद्र मिश्र ने भागवत भाष्य, हनुमन्नाटक टीका, गोवर्द्धन सतसई, भागवत पुरान आदि ग्रंथों की तथा उनके अनुज कल्याणदास के द्वारा भी कुछ काव्य-कृतियों की रचना होने का पता लगता है। बलभद्र मिश्र के पुत्र बालकृष्ण ने ‘रस चन्द्रिका’ की रचना की थी। वीरसिंह देव के ही आश्रित कवि बलभद्र कायस्य ने ‘अबुल फजल विजय’ तथा ‘वीरसिंह विजय’ नामक ग्रंथों की रचना की।
गुलाब कवि द्वितीय (सं. 1600) केहरी, पतिराम स्वर्णकार (1620), रतनेश, परमेश, चतुर्भुज, मोहन आदि भी इसी काल के अन्य कवि थे। महाराज इन्द्रजीतसिंह स्वयं तो कवि थे ही, पर उनकी प्रेयसी प्रवीणराय भी एक कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध है। कहते हैं एक बार मुगल सम्राट् अकबर ने प्रवीणराय के अनुपम सौन्दर्य पर मुग्ध हो, उसे आगरा बुलवा लिया था। प्रवीणराम ने उनसे कहा-
“बिनती राय प्रवीन को, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी, वायस, स्वान।।”
यह दोहा सुनकर अकबर ने उसे ससम्मान ओरछा भेज दिया। सुप्रसिद्ध श्रृंगारी कवि बिहारी के वर्षों ओरछा-दरबार से सम्बन्धित रहने की बात सर्वश्रुत है। उनकी ‘बिहारी सतसई’ की भाषा ब्रज से अधिक बुंदेली है।
महाराज वीरसिंहदेव के घर अमर शहीद हरदौल का जन्म होने पर उनके आश्रित कवि राम मिश्र ने उन्हें बधाई देते हुए जो काव्य-पंक्तियाँ भेंट की थी, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
जनम लियो है लला वीर वीरसिंहजू कै,
मंगल मनोग्य शुभ साज सजबे लगे
बजन बधाई लगीं राजमहलों के माहिं,
भेरी, शंख, तुरइ, मृधंग बजिबे लगे।
मिश्र कवि गावन गुणावली नकीब लगे,
मोद मान दाढ़ी ठाढ़ नृत्य करिबे लगे।
स्वामी अग्रदास का काव्य-काल सं. 1650 और 1680 वि. के मध्य माना जाता है। हमें इनके द्वारा बुंदेली में रचित 71 कुण्डलियाँ प्राप्त हुई हैं। एक-एक कुण्डलियाँ बुंदेली की एक-एक लोकोक्ति को लेकर लिखी गई है। प्रत्येक कुण्डलियों में छह के स्थान पर सात पंक्तियाँ हैं। प्रथम पंक्ति अंत में दुहराई गई है। सभी कुण्डलियाँ भक्ति, वैराग्य अथवा अध्यात्मपरक हैं। उदाहरणार्थ दो कुण्डलियाँ यहाँ दी जा रही हैं-
“महतौ दूरौ पियार मैं, को कह बैरी होय ।।
को कह बैरी होय, जीव माया मैं राँचौ।
हरि-हीरामन त्याग, वृथा काँचहि मन राँचौ ।।
मृग-तिसना संसार अमरपुर लौ जो धावै।
सीतापत-पद-बिमुख, सुक्ख सपनैं नहिं पावै।।
अग्रदास झूँठी तो हिय के नैन न जोय।
महतौ दुरौ पियार में, को कह बैरी होय ।।”
“अंधा बाटे जेवरी, पाछे बछरा खाय ।।
पाछे बछरा खाय, कहत गुरु सीख न मानै।
ग्यान पुरान समान, छणक महँ धर्म भुलानै
बुरी विप्र लौं रीत, मृतक धन लेत न लाजै।
नीच न सूझै मीच, कीर्त विषयन के काजै।।
‘अग्र’ जीव अज्ञान से, बंधे को करै उपाय।
अंधा बाटे जेवरी, पाछे बछरा खाय ।।”
इन कुण्डलियों की पाण्डुलिपि पुजारी घर्मदास द्वारा तैयार की गई है, जैसा कि संकलन के अन्त में लिखी निम्नांकित पंक्तियों से ज्ञात होता है।-
“याद्दशी पुस्तकं दृष्ट्वा ताद्दशी लिषतं मया।
यदि शुद्धम शुद्धं वा मम दोषेण दीयते ।।
अथ शुभ संवत् 1897 मासोत्तमे मासे शुभे आश्विन मासे शुक्ल पक्षे पर्वण तिथौ 13 त्रयोदश्यात् गुरुवासरे तादिन पुस्तक सम्पूर्ण
तिष्यतं पं. पुजारी धर्मदास जो बांचे सुने ताको यथायोग तसलीम जाहर होतो केरे मुः कसबा खजुरिया स्थान”
इस संकलन की पाण्डुलिपि पं. गौरीशंकर जी द्विवेदी, झाँसी के पास सुरक्षित है।
पन्ना दरबार के कवियों में स्वामी प्राणनाथ का स्थान भी महत्वपूर्ण है। इनका जन्म सं. 1685 वि. के लगभग माना जाता है। यद्यपि ये ‘धामी’ सम्प्रदाय के संस्थापक के रूप में प्रसिद्ध हैं; तथापि इनकी अनेक रचनाएँ भी उपलब्ध हैं। सभी रचनाएँ भक्ति और उपदेशपरक हैं। काव्यभाषा बुंदेली-प्रधान है। उदाहरणार्थ निम्नांकित पंक्तियाँ देखिये-
चन्द बिनु, रजनी, सरोज बिनु सरवर,
तेज बिनु तुरंग, मतंग बिनु मंद को।
सुत बिनु सदन, नितम्बनी सुपति बिनु,
धन बिनु धरम, नृपति बिनु पद को ।।
बिनु हरि भजन जगत सोहै जग कौन,
नोन बिनु भोजन बिटप बिनु छद को।
प्राणनाथ सरस सभा न सोहे कवि बिनु,
विद्या बिनु बात न नगर बिनु नद को ।।
ये पंक्तियाँ पूर्णरूपेण बुंदेली में रचित हैं। प्राचीन बुंदेली की उकार-बहुला प्रवृत्ति भी इसमें वर्तमान है। इनकी पत्नी इन्दुमति भी कवयित्री बतलाई जाती हैं।
महाराज पहाड़सिंह के शासनकाल (सं. 1698-1720 वि.) में गोविन्द कवि ने ‘पहाड़-सिंह चरित्र’ की रचना की थी। इन्हीं के काल में परबते ने ‘दशावतार कथा’ तथा ‘रामरहस्य कलेवा’ की रचना की। राघवदास तथा सुखदेव इस काल के दूसरे बुंदेलखंडी कवि हैं।
महाराज सुजानसिंह के शासनकाल (सं. 1720-1721 वि.) में कवि मेघराज प्रधान ने ‘मृगावती की कथा’, ‘राधाकृष्ण जू को झगरों’ तथा ‘मकरध्वज’ की कथा काव्यबद्ध की थी।
‘राधाकृष्ण जू को झगरों’ की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
जमुना कछार हर करत बिहार जाकी
कौ उनहार सीख पंष छबि मोर की।
भृकुटी बिसाल सोहै चंद तिलक भाल
मोतिन की माल फहरात वीर छोरकी।।
मेघराज राती राधदासी रमत सिद्ध
धुन मुरली की बलिहारी दोनौ वीर की।
लागत सुहौनी तीन लोक में निरौनी ऐसी
सुन्दर सलौनी नौनी मूरत किसोर की।।
इन पंक्तियों की भाषा ब्रज-सी लगती है, किन्तु इसके जमुना, हर, कौ, उनहार, पंष, सोहै, देखौ, सुहौनी, निरौनी, सलौनी तया नौनी बुंदेली के ही प्रयोग हैं।
नागरी प्रचारिणी सभा की संग्रहालय-सूची में कवि नवलसिंह-द्वारा रचित रसिक रंजनी, शंका मोचन, शुक-रंभा-संवाद्, नाम चिंतामणि, जोहरिनि तरंग, भारत सावित्री, आल्हा रामायण, आल्हा भारत, रुक्मिनी मंगल, मूल ढोला, रहस लावनी, रूपक रामायण, सीता स्वयम्बर, राम विवाह खंड, श्रृंगार खंडादि बतलाई गई है, जो राज पुस्तकालय दतिया में सुरक्षित हैं। इनकी माया ब्रज-बुंदेली मिश्रित है।
प्रवीण कवि, बंसीलाल कायस्थ, सुदर्शन, परमेश्वर और रामजू इस काल के दूसरे कवि हैं। इनमें से बंसीलाल ने ‘सजन बहोरा’ तथा सुदर्शन ने ‘सुजान विजय’ की रचना की।
‘सजन बहोरा’ की रचना मधुकरशाह के शासनकाल में की गई जान पड़ती है। इस काव्य-कृति की अत्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार है-
राधावर की सजन बहोरौ, सषी सुबंसी गायौ।
प्रथम चिन्हार भई बरसानै, रोम-रोम सुषु पायौ।
प्रात मित्र उपदेसु बतायौ, तब में यह सुषु देख्यौ।
अब मेरो मन उतही अटक्यो, जनम सुफल कर लेख्यौ।
ऊंगारिनि तीरथ भगीरथ, गंगा-सौ बरसानौ।
नगरु ओड़छै छिति पर जैसे, नंद गाउ बरसानौ ।।
अैसौ पुरु लषि कुँवरु कनैया चार भुजा धरिआयौ।
श्री ब्रषभान गोप की बेटी, लछमी रूप दिषायौ।।
आनि लियो अवतार विप्र घर, व्यास बरनि जस गायौ।
नृप मधुकर प्रभु के पन धारी, चरन कमल रस पायौ।
बुंदेली में ओकारान्त औकारान्त उच्चरित होता है, जैसा कि हम इन पंक्तियों के स्थान-स्थान में देखते हैं। ‘ख’ के स्थान में ‘ष’, ‘ऐ’ के स्थान में ‘अै’, हकार-वियुक्त रूप (कन्हैया-कनैया) आदि भी बुंदेली के ही प्रयोग हैं।
महाराज सुजानसिंह के पश्चात् राज्यासीन होने वाले महाराज इन्द्रमणि स्वयं एक उच्च-कोटि के कवि थे।’ मकर-ध्वज चरित्र’ तथा ‘स्वर्गारोहण’ के रचयिता कवि विष्णुदास इन्हीं के दरबारी कवि थे। महाराज जसवन्तसिंह (शा.का. 1741-1756 वि.) ने भी ‘जसवन्त भास्कर’ नामक काव्य-ग्रन्थ की रचना की थी। रघुराय कायस्थ तथा बैकुण्ठमणि शुक्ल भी इनके शासनकाल के प्रसिद्ध कवि थे। रघुराय कायस्थ का ‘कृष्णमोदिका तथा बैकुण्ठमणि शुक्ल की ‘अगहन महात्म्य’ और ‘वैशाख महात्म्य’ कृतियाँ प्रसिद्ध है।
महाराज जसवन्तसिंह के पश्चात् महाराज उदोतसिंह सं. 1756 वि. में ओरछा-राज्य की गद्दी पर बैठे। ये तो एक अच्छे कवि थे ही, पर उनकी महारानी भी कवयित्री थीं। हरिसेवक मिश्र, गोप कवि, खंगराम, धनराम कायस्थ, दिग्गज, कृष्ण कवि, कोविद मिश्र आदि इनके काल के कवि थे। इनमें से हरिसेवक मिश्र ने ‘कामरूप कथा’ नामक प्रबन्ध काव्य की रचना की थी। यह काव्य ग्रन्थ गतवर्ष ही बुंदेली के अनन्य सेवक श्री गौरीशंकर जी द्विवेदी ‘शंकर’ झाँसी-द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है। ग्रंथ की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है-
जग में कर्मन-सौं बंधे, भ्रमत फिरत रवि चन्द।
नाग लोक सुरलोक तैं, चलि आवत नँदनंद।।
तिहि कारन सौं भूमि लखि, कढ़ै आनि जन कोय।
नाम सुनै तै कुँवर कौ, समाधान मन होय।।
सुनि कैं नृप सबसौं कहौ, यह इलाज तो थोर।
खबरौआ मारगन मैं, बैठारो चहुँ ओर।।
हुकुम पाय महिपाल कौं, कीनौ यहै उपाय।
आन विदेसी जो कढ़, ताकौं लेय बुलाय।।
कुँवर ढिंगा बैठारि कैं, बिदीबार सब बात।
अपनी-अपनी कहि सबै, चले पंथ कौं जात ।।
इन पंक्तियों के कर्मन-सौं, सुरलोक-तैं, कारन-सौं, कढैं, सुनै तैं, कुँवर कौं, सुनि कैं, सबसौं, कहौ, थोर, खबरौआ (खबर देने वाला), बैठारौ, महिपाल कौं, कीनौ, ताकौं, ढिंगा (समीप), बैठारिकैं, बिदीबार (विधिवार), सबै तथा पंथ कौं प्रयोग बुंदेली के हैं।
ग्रन्थ में ब्रजभाषा के भी प्रयोग मिलते हैं, पर अल्प प्रमाण में ही। स्थान-स्थान पर बुंदेली-मुहावरों का प्रयोग भी मिलता है। बोलचाल के (स्थानीय) शब्दों का भी अभाव नहीं है। उपर्युक्त पंक्तियों में खबरौआ और ‘ढिंगा’ ऐसे ही शब्द है। अन्यत्र भी अकबार, अफरैं, आगौनी, कैयक, गसतिन, कढ़ी, असलैं, आरबल, खुसाली, गुदान, जेतक, असलैं, आधन्नो, जांगा, डिगरे, चौंतरा, नाउते, ऊबट, अबेरा, ऊभी, टटकोरा, नातक, निगौ, बसीगत, पनवास, परेवा, मजल, मानसन, रहाईस, सिहाई आदि न जाने कितने बुंदेली के स्थानीय शब्दों का प्रयोग मिलता है। यह बुंदेली की अठारहवीं पाती (वि.) के मध्यकाल की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है। जो बुंदेली में महाकाव्य तो क्या, पर काव्य-रचना की भी सामर्थ्य नहीं देख पाते, वे इस महाकाव्य को एक बार अवश्य पढ़ें।
गोप कवि ‘राम भूषण’ और ‘अलंकार चन्द्रिका’ के खंगराम ‘रास दीपक’ और ‘नायिका दीपक’ के, धनराम कायस्थ ‘लीलावती’ के, दिग्गज कवि ‘भारत विलास’ के तथा कोविद मिश्र उपनाम ‘चन्द्रमणि’ ‘राजभूषण’, ‘मुहूर्त दर्पण’ आदि के रचयिता हैं।
उदोतसिंह के पश्चात् राज्यासीन होने वाले महाराज देवीसिंह (सं. 1791-93) भी कवि थे। रतन कवि, पंचमसिंह कायस्थ, दूलह, वल्लभ, गोपाल भाट, ब्रजेश, रूपनारायण मिश्र तथा ललित मोहिनीदास महाराज पृथ्वीसिंह (सं. 1792-1799) के शासनकाल के कवि थे। इनमें से रतन कवि ने ‘रस मंजरी’, ‘चूक विवेक’ और ‘विष्णुपद’, पंचसिंह कायस्थ ने ‘नवरता की कथा’ तथा दूलह ने ‘भगवद्-गीता-पद्यानुवाद’ की रचना की थी। भारतीचन्द द्वितीय (सं. 1822-23) स्वयं कवि थे। ‘रस-श्रृंगार’ तथा ‘ऊषा-अनिरुद्ध’ काव्य ग्रंथ उन्हीं के द्वारा रचित कहे जाते हैं।
- राजा देवीसिंह और भारतीचंद की रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ यहाँ दी जा रही हैं। राजा देवीसिंह की एक बारहमासी प्राप्त हुई है। इसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नांकित हैं। भाषा पूर्णतः बुंदेली नहीं है। यह ब्रज और बुंदेली का एक मिश्रित रूप है-
लगत असाढ़ गाढ़ भुइ परी। विरह-अगिनि अंतर महँ जरी ।।
ज्यौं-ज्यौं पवनु चलतु चहुँ वोरी। त्यौं-त्यौं जरी जात झकझोरी।
सब कोउ धाम धरै हरषावै। मोहि सेज मिसि नींद न आवै।।
हों तजि धाम काम-बस भई। कंत अंत सुधिओं नइ लई।।
भारतीचंद द्वारा रचित ‘ऊपा-अनिरुद्ध’ (सं. 1797) की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
जुद्ध करिबे में जरातिधु जुरजोबन सौं,
भीमसेन से न मानि लई हरि की कही।
समय कौ पाय अरजुन हूँ गरज-हेत,
करण सों सबै करि लई चित की चही।
भारती कहत द्रोण भीषम पितामह की,
समय की सबैं युक्ति चाहि चित्त मैं गही ।।
इनकी कुछ रचनाएँ ‘भारतीसाह’ के नाम से भी मिलती हैं।
अठारहवीं शती के बुंदेली कवियों में अक्षर अनन्य, छत्रसाल और रसनिधि विशेष उल्लेखनीय है। अक्षर अनन्य निर्गुण सम्प्रदाय के अनुयायी थे। इनकी अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा में रचित मिलती है, जिसमें यत्र-तत्र बुंदेली-रूपों का भी प्रयोग है। इनका सम्पूर्ण साहित्य कुछ समय पूर्व ही थी अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित होकर म.प्र. शासन साहित्य परिषद्, भोपाल से प्रकाशित हुआ है। इनका पन्ना के महाराज छत्रसाल और दतिया राज्यान्तर्गत सेंवड़ा के अधिपति महाराज पृथ्वीसिंह से बहुत सम्बन्ध रहा। इनके द्वारा समय-समय पर इन दोनों राजाओं से जो पत्र-व्यवहार हुआ, उसकी भाषा विशुद्ध बुंदेली है। इससे जान पड़ता है कि इनका ब्रज और बुंदेली पर समान अधिकार था। श्री श्रीवास्तव ने अनेक प्रमाणों के आधार पर इनका जन्म-काल सं. 1720 वि. माना है। महाराज पृथ्वीसिंह, जो हिन्दी-साहित्य के इतिहास में ‘रतनहजारा’ के रचयिता ‘रसनिधि’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, इन्हीं के शिष्य थे। पृथ्वीसिंह के नाम महात्मा अक्षर अनन्य का लिखा एक पत्र इस प्रकार है-
आइबौ जैबो हमारो नहीं, सनकादि के धाम में आसन मंडी।
तीरथ देवल राजसभाननि, जात नहीं, भ्रमना सब छंडी।।
नीके रहै प्रथिचन्द नरेस, सदा यह आसिस देत अखंडी।
केवल भक्ति विराजत या महँ, जोइ कही हम सोइ न छंडी।।
महाराज पृथ्वीसिंह ने महात्मा अक्षर अनन्य को सेंवड़ा आने का निमंत्रण दिया था। उसी के उत्तर में उन्होंने उपर्युक्त पत्र लिखा था। महाराज छत्रसाल ने भी इनसे कई बार पन्ना पधारने का आग्रह किया, किन्तु ये वहाँ भी नहीं गये। स्मरणीय है कि महाराज छत्रसाल घामी सम्प्रदाय में दीक्षित थे। अक्षर अनन्य का इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों पर विश्वास न था। इनका महाराज छत्रसाल से जो पत्र-व्यवहार हुआ, उससे यह बात स्पष्ट है। हम यहाँ इस पत्र-व्यवहार का कुछ अंश उद्धृत करते हैं। इससे तत्कालीन बुंदेली-काव्य का भाषा-रूप भी स्पष्ट हो जायगा। महाराज छत्रसाल ने इन्हें लिखा था-
हौ अनन्य, नहिं अन्य कोउ, अक्षर छता अनन्य।
इत रस में रस मानिबी, आप कीजिबी धन्य।
इसके उत्तर में श्री अक्षर अनन्य ने लिखा-
धाम की टेक तुम्हारैं बंधी नृप, दूसरी बात कहैं दुख पावत।
काहू की टेक न राखत हैं हम, जैसे कौ तैसे प्रमान बतावत।।
मानहिं कोउ भलौ कै बुरों, नहिं आसरौ काहू को चित्य में ल्यावत?
टेक विवेक सौं बीच बड़ौ, हमको किहि कारन राज बुलावत ?
धामी सम्प्रदाय में ‘सखी-उपासना’ का भी स्थान है। भक्त अपने को’नारी’ रूप में मानकर अपने आराध्य को पति-रूप में देखता है। इसी भावना पर व्यंग्य करते हुए अक्षर जनन्य ने छत्रसाल को लिखा था-
नारि तैं होय नहीं नर-देह, नहीं नर तैं पुनि नारि बखानी।
जाति नहीं पलटै सपनेहु, मरेहु तैं भूत चुरैल निदानी ।।
क्यों सखियाँ निज धाम की राज, भई नर-रूप सुरीति हिरानी।
वेद सही, कैधौं वाद सही हमकौं लिखि भेजिबी एक जुबानी।।
इस पत्र के उत्तर में महाराज छत्रसाल ने लिखा-
राखत हैं हम टेक उपासना, बात विवेक हूँ नाहिं भुलानी।
पीवत हैं चरचा करि अमृत, भूप छता रसमैं रस सानी ।।
देखत के नर-नारि कहावत, जीव-स्वरूप की एक निसानी।
कारन की तजबीज करौ, हमसौं सुनि लीजिबी एक जुबानी ।।
द्वितीय अवतरण के उत्तर में महाराज छत्रसाल ने इस प्रकार लिखा था-
वाद भयौ पुरुषोत्तम सौं अरु, नेह बढ़ावत को उर आनी।
बह्म-प्रताप तैं पों पलटै तनु ज्यौं पलटै सब रंग में पानी।।
जो नर नारि कहै हमकौं अजहूँ तिनकी मति जाति हिरानी।
भूत चुरैल है झूठ सबै, हमसौं सुनि लीजिबी एक जुबानी ।।
अक्षर अनन्य की ‘प्रेमदीपिका’ में भी कुछ ऐसी रचनाएँ मिलती है. जो ब्रज के स्थान में बुंदेली में रचित हैं। उनका निम्नांकित सवैया इसी प्रकार का है-
हमकों किमि दूषन देत प्रिया, हमही तुमकौं भरते तरसे तौ।
आपनौं काबू चलै नहिं ‘अक्षर’, दैवी है सक्ति दिऔ दुख येतौ।
जो करतौ करतार विवेकहिं, प्रीति दई ढिग वासहि देतौ।
तातैं विचार तजौ दुख को रुचि, चन्द-चकोर हतौ चित चेतौ।।
इन पंक्तियों में हमकौं, तुमकौं, तौ, आपनौं, येतौ, करतौ, देतौ, तजौ, दुख कौ, हतौ तथा चेतौ बुंदेली के ही प्रयोग है।
अक्षर अनन्य के कुछ स्फुट पदों में बुंदेली की लोकोक्तियों का भी प्रयोग मिलता है। उदाहरणार्थ ये पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
- बिना तत्व ज्ञान प्रानी फलाफल जानै नहीं,
अंधेरे कुंदेरे कैसो करम कमाइबे।
- आत्म तत्व विचार बिना,
नर डोलत ज्यों मगवार कौ मूसर।
- बिना तत्व ज्ञान प्रानी भ्रमत अनन्य भनै,
धोबी कैसे कुत्ता जैसे घर के न घाट के।
महाराज पृथ्वीसिंह, कविनाम ‘रसनिधि’ हिन्दी-काव्य-साहित्य के इतिहास में ‘रतन हजारा’ के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु इतकी कुछ अन्य कृतियाँ भी प्राप्त हैं, जिनमें एक कृति ‘विस्नु पद’ है। ‘रतन हजारा’ में बुंदेली-प्रयोगों का अभाव नहीं है. पर वह स्थूल रूप से ब्रजभाषा की ही रचना मानी जाती है। ‘विस्नु पद’ बुंदेली की ही रचना है, जिस पर यत्र-तत्र ब्रजभाषा का प्रभाव मात्र परिलक्षित है। उदाहरणार्थ एक पद यहाँ दिया जा रहा है-
ऊधौ कहियौ जाइ संदेसौ।
हूहै क्रपा कबहु दीनन पर, निसुदिन रहत अंदेसौ।।
कबहु कि आइ बहुरिया ब्रज मै, मुरली मधुर बजैहौ।
बरसन दै प्यारे इन नयनन, तन की तपन बुझै हौ।।
इनका काल सं. 1717 से सं. 1794 वि. तक माना जाता है। हमें ‘विस्नुपद’ की मूल प्रति देखने को नहीं मिली। उपलब्ध प्रति किन्हीं प्रधान उमराउसिंह कुडरा द्वारा प्रतिलिपित है, जिस पर प्रतिलिपिकाल ‘सावन बदी 14 संवत् 1847’ लिखा हुआ है।[9]
महाराज विक्रमाजीत (सं. 1833-74 वि.) ‘लघु’ कवि नाम से काव्य-रचना करते थे। इन्हीं के शासन-काल में बुंदेलखंड की राजधानी ओरछा के स्थान में टीकमगढ़ हुई थी। ‘लघु सतसई’ (720 दोहे) तथा ‘माधव-लीला’ इनकी काव्य-कृतियां है। इनके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित ‘स्फुट पदावली’ भी उपलब्ध है। कवि शिवराम और सर्वसुख इनके दरवारी कवि थे। कवि कुंजकुँवर (कुंजदास) द्वारा ‘ऊषा चरित’ (सं. 1830), तथा कवि नीलसलि-द्वारा सं. 1840 के लगभग 110 पदों में ‘बानी’ की रचना करने का भी पता लगता है। भगवत रसिक भी इसी काल (सं. 1830-50) के एक सन्त कवि थे।
पन्ना-दरबार के कवि
बुंदेलखंड का द्वितीय कवि-केन्द्र पन्ना राज्य रहा। महाराज छत्रसाल के पिता चम्पतराय का जन्म बुंदेल राजवंश में ही हुआ था। पन्ना राज्य वास्तव में महाराज छत्रसाल के समय से ही अस्तित्व में आता है। महाराज चम्पतराय के सं. 1721 वि. में स्वर्ग सिधारने पर महाराज छत्रसाल इस राज्य के अधिपति हुए थे। महाराज स्वयं एक अच्छे कवि और कवियों के आश्रयदाता थे। उन्होंने सं. 1766 वि. में 60 वर्ष की अवस्था में संन्यास ले लिया था। इनकी अधिकांश रचनाएँ भक्ति-पूर्ण ही है। इनकी काव्य-रचनाओं का संकलन ‘छत्रसाल ग्रंथावली’ के नाम से श्री वियोगी हरि जी ने प्रकाशित कराया है, जिसमें श्री राधाकृष्ण पचीसी, कृष्णावतार और रामावतार के कवित्त हनुमान पचीसी, रामध्वजाष्टक, छत्रसाल और अक्षर अनन्य के प्रश्नोत्तर, दृष्टान्ती तथा कुछ अन्य रचनाएँ हैं।
महाराज छत्रसाल की भक्त कवि अक्षर अनन्य पर बड़ी श्रद्धा थी। इनके पत्र-व्यवहार के कुछ उदाहरण पहले प्रस्तुत किये जा चुके हैं। लाल (गोरेलाल), केशवराज, हरिचन्द, भगवत, विजयाभिनन्दन, गुलाबसिंह, विष्णुदास, नेवाज, हरिकेश, जगनसिंह आदि इनके दरबारी कवि थे। कवि भूषण भी महाराज छत्रसाल के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने ‘छत्रसाल-दशक’ की रचना इन्हीं के लिये की थी। कवि लाल इनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे। ‘छत्र-प्रकाश’ लाल कवि की सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य-कृति है, जिसमें उन्होंने महाराज का आँखों देखा चरित्र-चित्रण किया है। कुछ पंक्तियाँ देखिये। उन्होंने औरंगजेब की धर्मान्धता और अत्याचारों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-
हिन्दू तुरक दीन द्वै गाये। तिनसों बैर सदा चलि आये।
लेख्यो सुर असुरन को तैसी। केहरि कारन बखान्यो जैसी।।
जबते शाह तख्त पर बैठे। तबते हिन्दुन सौं उर ऐंठे।।
महंगे कर तीरथन लगाये। देव-दिवाले निडर ढहाये।।
घर-घर बांधे, जिजिया लीन्हें। अपने मन भाये सब कीन्हें।।
सब रजपूत शीश नित नावैं। ऐंड करै नित पैदल धावैं।।
छत्र-प्रशस्ति, छत्रछाया, छत्र कीर्ति, छत्रसालशतक, छत्र हजारा, छत्रदंड, राजविनोद तथा विष्णु विलास राजकवि गोरेलाल की अन्य काव्य-कृतियाँ हैं।
पन्ना-नरेश महाराज हिरदेशाह, सभासिंह तथा मानसिंह के शासनकाल में भी अनेक कवियों ने काव्य-रचना की है। इस काल में मानदास ने ‘भागवत दशम अध्याय कथा’ (सं. 1817) तथा ‘रामकूट विस्तार’ और ‘कृष्ण विलास’ की, शिवनाथ ने ‘रस रंजन’ की, भिखारीदास ने छन्दार्णव, छन्द प्रकाश, श्रृंगार निर्णय तथा काव्य-निर्णय की, रूपसाहि ने रूप विलास’ की, करनभट्ट ने ‘रसकल्लोल’ तथा ‘रस चन्द्रिका’ की, जोरावरसिह-पुत्र भान ने ‘नरेन्द्र भूषण’ की तथा मेदिनीमल्ल ने ‘श्रीकृष्ण प्रकाश’ की रचना की।
प्रसिद्ध कवि बोधा (बुद्धसेन) पन्ना राज्य की ही विभूति थे। इन्होंने अपने कविता-काल (सं. 1830 से 1860 वि. तक) में ‘विरह वागीश’ और ‘इश्कतामा’ ग्रंथों की रचना की थी। दोनों कृतियाँ प्रेम और श्रृंगार से ओतप्रोत हैं।
इनकी एक रचना प्रसंगवश जागे दी जा रही है। एक उदाहरण यहाँ लीजिये-
जबतें ब्रजराज को रूप लख्यौ, तबतें उर और न आनतु है।
निसि बासर संग रहै उनके, हमको धौं कबै पहिचानतु है।
कवि बोधा भयो अलमस्त महा कहूँ काहू को सीख न मानतु है।
तुम ऐसहीं मोहिं लटी करती, मन मेरो कही नहिं मानतु है।।
काव्य-भाषा में ब्रज और बुंदेली का मिश्रित रूप स्पष्ट है।
इसी काल के द्वितीय प्रसिद्ध कवि बख्सी हंसराज थे, जो महाराज अमानसिंह के राजकवि थे। स्नेह सागर’, ‘रस विलास’ और ‘मिहराज चरित्र’ इनकी प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ हैं। इनकी रस-विभोर करने वाली कुछ पंक्तियाँ देखिये-
दमकति तिपति देह दामिनी-सी, चमकत चंचल नैना।
घूंघट बिच खेलत खंजन से उड़ि उड़ि दीठि लगै ना ।।
लटकति ललित पीठ पर चोटी, बिच बिच सुमन सवारी।
देखे ताहि मैर-सी आवत, मनहुँ भुजंगिनि कारी।।
कवि हंसराज बक्षी का ‘सनेह सागर’ सुसम्पादित होकर सागर विश्वविद्यालय के ‘बुंदेली-पीठ’ से प्रकाशित हो चुका है। अभी तक ब्रज और बुंदेली का स्पष्ट अन्तर बतलाने वाली कोई निश्चित रूप-रेखा किसी भाषाशास्त्री-द्वारा प्रस्तुत नहीं की जा सकी, जिससे प्राचीन काव्य की भाषा विवाद-ग्रस्त बनी हुई है। यह स्वीकार करते हुए भी कि कुछ शताब्दियों तक ब्रज-भाषा एक काव्य-भाषा के रूप में हिन्दी के सम्पूर्ण काव्य-जगत पर छाई रही। यह कहना हठधर्मी ही होगी कि उस काल में ब्रज के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा में काव्य-रचना हुई ही नहीं और बुंदेलखंड के राजदरबारों के आश्रित कवियों ने भी केवल ब्रज भाषा में ही काव्य-रचना की थी। बुंदेलखंड के इन कवियों के आश्रयदाता राजा स्वयं बुंदेलीभाषी तो थे ही, पर अनेक प्रमाणों से बुंदेली का एक दीर्घावधि तक सम्पूर्ण बुंदेलखंड की राजभाषा होना भी सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में भी बुंदेली में तत्कालीन कवियों ने ब्रज के अतिरिक्त बुंदेली में काव्य-रचना न की हो, यह कदापि नहीं माना जा सकता। उनकी काव्यभाषा पर ब्रज का कुछ प्रभाव भले ही रहा हो, पर उनकी अनेक रचनाओं की भाया का मूल रुप बुंदेली ही रहा है। इसके अनेक उदाहरण पहिले दिये जा चुके हैं। हमारे इस कथन की सत्यता बक्षी हंसराज के ‘सनेह सागर’ की इन पंक्तियों में भी देखी जा सकती है-
मोर मुकुट की टाटी लीनै, कोनै बैन डगैना।
चितवन चैपु लगाई पलक में विधवत खंजन नैना।।
X X X
उगी फिरत हौं डगर-डगर मैं, बंग-डोर ज्यों डोरी।
X X X
जा दिन सौं उनसे हट लागे ए बिसवासी नैना।
ता दिन तै सुन मेरी सजनी पल कौ पलक लगैना ।।
इन पंक्तियों में एकार का ऐकार तथा ओकार का औकार प्रयोग अनुस्वार-प्रयोग, हकार-विमुक्त शब्द-प्रयोग (कीन्हे-कीनै) आदि तो बुंदेली के प्रयोग है ही, पर साथ ही डगैना, चैपु, दिनतै, पल कौ आदि भी ऐसे प्रयोग हैं जो ब्रजभाषा में नहीं मिलते।
सम्पादक ने इस कृति की भाषा ‘बुंदेली’ बतलाकर ग्रन्थ की भूमिका में अपने कथन के प्रमाण-स्वरूप बुंदेली के अनेक मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी दी है. जो बुंदेली की अपनी ही निधि है। जाको बार न पारू, पाऊ न धारौ, रार न कीजी, सबको गल बताबै, ललक ललक सलच्याई हथा हथी मन लीनौ, जल बिन रोहा, धाऊ धाऊ पर धालै, अकुल विकल कर डारै, धाऊ सिरानौ, जानबूझि कै, ज्यों पाथर मैं पानी, नैन मैं टेरै आदि इसी प्रकार के मुहावरे हैं।
इस काव्य-कृति में प्रयुक्त-अंमर अखती, अठाई, अथाई, अबार, अलगु (आरोप), असरारा, अहिरेटा, अटंबर, आगौनी, आाटबंध (फेटा), उतायल, उबेरनो, उहड़ा (सेंध), एकाति, अैड़े, ओखद, ओली, ओंछौ (कंघी करना), औसेरा (चिन्ता), कोंदर (वृक्ष), कौंचा (कलाई), खंगवारी (हँसली), खुटिला (कान का एक आभूषण), गवदुवा (बालक), गुदरी, गोसली, चंदौली, चौखड़ा, छिकरा (हिरण), ढौरी, दुहैली आदि अनेकों शब्द ऐसे हैं, जो केवल बुंदेली में ही प्रयुक्त होते हैं।
हरिप्रिय हिम्मतदास भी पन्ना राज्य के ही एक सन्त कवि थे। इनका जन्म ग्राम वरायछ में सं. 1795 वि. में हुआ था। निम्नांकित पंक्तियों से ये अक्षर अनन्य के शिष्य जान पड़ते हैं-
श्री गुरु अक्षर प्रताप तैं, अनुदिन अधिक प्रकास।
नगर वरायछ में भये, हरिप्रिय हिम्मतदास।।
इनके द्वारा रचित भक्ति और अध्यात्म के पदों के अतिरिक्त कुछ कवित्त, सवैये और साखियाँ भी उपलब्ध हैं। काव्यभाषा ब्रज-प्रभावित बुंदेली है। इनका एक कवित्त इस प्रकार है-
चरनन पताल धरैं, धरनी कटि बीच धरैं,
माथे गोलोक धरैं, आपइ रखवारी है।
नाभि हूँ में केन धरे, केनहुँ में ब्रह्म धरे,
ब्रह्म हूँ में जीव धरैं, माया विस्तारी है।
पापिन कों सेंत धरैं, सन्तन को ध्यान धरैं,
धर्मिन को हदै धरैं, हिम्मत निहारी है।
मथुरा में जन्म धरैं, गोकुल में प्रेम धरैं,
परना में देह धरैं, बिहरत बिहारी है।
इन पंक्तियों में प्रयुक्त धरैं, माथे आपइ, सेंत आदि बुंदेली प्रयोग हैं। ‘कों’ परसर्ग भी बुंदेली का ही है। कवि का ‘परना’ से तात्पर्य ‘पन्ना’ से है। इनकी साखियों में बुंदेली का रूप अधिक निखरा मिलता है। यथा-
पाँच तत्व में पाँच हैं, सोई ककरू आय।
सुमति टिपरिया छानिये, तब कछु परत दिखाय।।
अजयगढ़ के एक कवि ‘गोपाल’ की भी कुछ रचनाएँ मिली हैं, जो 18वीं शती के ही जान पड़ते हैं। ‘गज विलास’ उनकी बुंदेली में रचित काव्य-कृति है। इसकी दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
अजै पार को किला है, सहर अजैगढ़ नाम।
तहँ गुपाल विद्या धयन, कियै रहत निज धाम।।
मुझे पन्ना राज्य के कवियों की रचनाओं की खोज करते समय चार स्फुट रचनाएँ प्राप्त हुई, जो महाराज हिन्दूपति के काल की है। इनके रचयिता क्रमशः राम कवि, नाथ कवि, बोधा और मल्ल कबि हैं। ये पन्ना राज्य के एक ऐतिहासिक घटना पर प्रकाश डालती हैं। कहते हैं महाराज हिन्दूपति ने राज्य के लोभ से अपने भाई अमानसिंह की हत्या कर दी थी। इस हत्या से क्षुब्ध होकर ही इन कवियों ने उन्हें अपनी रचनाएँ सुनाई थीं। ये कविताएँ (कवित्त) उस काल के बुंदेली रूप का प्रतिनिधित्व करती है। इनकी भाषा विशुद्ध बुंदेली है –
बाजत नगारे अन्यारे ये बुंदेलन के,
आरती उतारत सबै रम्भा गीत गावती।
सिव छोड़ आसन, गुबिन्द गरुड़ासन कौ,
धाये बैकुण्ठ सुन बंका की अवावती।।
दारुद बिहंड कुल मंड सभा सिहज को,
जाचक निहाल जिन्हें कोटन को यावती।
राम कवि कहैं कछु इन्द्र के कुताई भई,
तातें दैन गयो है अमान अमरावती।।
+ + +
सूरन को सत खोयो, गत खोयो बैरिन को,
कुलको मयंक खोयो, खोई मैंड़ दानकी।
हिन्द कौ जहाज बोरौ, कामना को कर तोरौ,
राजन को खम्भ फोरो आसा थी जहान की।।
ऐसो लघुमत-वारो, स्पंदन को संग मारो,
शत्रुन को साल टारो, मेंटी बाड़ बान की।
कहे कवि नाथ तें अनाथ भयो हिन्दूपति,
मारि के अमान सान खोई हिन्दूआन की।।
X X X
कौने कामधेनु के करो है करारो घाव,
कौने कल्पद्रुम समूलि तोर डारो रे?
कौने यह मेंटी सर्व सोभा दुखारिन की,
कोहे पूर्ण पापी पुण्य-पुरवा उजारो रे?
बोधा कहे कौने यह तड़ाग-सुधा फोड़ दीनों,
रम्भा अरम्भक असोक बन जारो रे?
कौने तुम्हें मारो महाराज श्री अमानसिंह,
भिक्षकु घर आज दुर्भिक्ष कौने पारो रे?
X X X
आज महादीनन को सूखिगो दया को सिन्धु,
आज की गरीबन को गाथ सब लूटिगौ।
आज दुजराजन को सफल अकाज भौ,
आज महाराजन को धीरज सों छूटिगौ ।।
मल्ल कहें आज सब मंगन अनाथ भये,
आज ही अनायन को कर्म सौ फूटिगौ।
पन्ना अमान सुरलोक को गुपाल भयो,
आज कवि जनन को अल्पतरु टूटिगौ।।
इसी काल के एक कवि ‘मान’ थे, जो चरखारी नरेश महाराज खुमानसिंह के आश्रित कवि थे। इनका जन्म संवत् 1808 वि. माना जाता है। इनके वास्तविक नाम का पता नहीं है, पर ऐसा जान पड़ता है कि इन्होंने अपने आश्रयदाता ‘खुमान’ सिंह के नाम का प्रथमाक्षर छोड़कर अपना कवि नाम ‘मान’ रख लिया था। ये हनुमान और दुर्गा के भक्त थे। महाराज खुमानसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र विजय बहादुर सिंह से भी कवि को पूर्ववत् ही सम्मान प्राप्त रहा, पर दरबार के अन्य इर्ष्यालु कवियों के बहकाने से राजकुमार पूरनमल्ल उनका शत्रु बन गया। कहते हैं एक दिन राजकुमार ने भान कवि को बहुत बुरी तरह अपमानित कर दरबार से निकाल दिया और चुनौती के स्वरों में कहा- “जा उस पत्थर के बन्दर (हनुमान) के पास, देखें वह हमारा क्या कर लेता है!”
मान कवि कांकुन के हनुमान मंदिर में गये और वहाँ उन्होंने 25 छन्द बनाकर हनुमान जी को सुनाये। उन्होंने ज्योंही अन्तिम छन्द की अंतिम पंक्ति समाप्त की, वहाँ राजकुमार पूरनमल का सिर टूट कर गिर गया और अन्य दरबारी कवि भी विकलांग हो गये। वह अंतिम पंक्ति इस प्रकार थी-
“तू तो मरदानौ ज्यौं प्रचण्ड उम दानौ अरि-
दानौ यह ताकौ गरदानौ शेर मारिये।”
मान कवि-द्वारा रचित ग्यारह ग्रन्थ कहे जाते हैं। उनके उपलब्ध छः ग्रन्थ हैं नीति निदान, मान पच्चीसी, मान पचासा, मान पंचक, लक्ष्मण शतक और चित्रकूट महात्म्य।
‘लक्ष्मण शतक’ का एक कवित्त इस प्रकार है
भूप दसरथ्थ कौ नवेलौ अलबेलौ रन-
रेलौ रोप झेलौ दल निश्चर निकर कौ।
मान कवि कीरत उमंडी खल खंडी चंडी
पति सौ घमंडी कुल मंडी दिनकर कौ।।
इन्द्र मद भंजन कौ भंजन प्रभंजन तन,
ताकौ मन-रंजन निरंजन उभर कौ।
राम गुन ग्याता मन वांछित कौ दाता,
हरि भक्तन को त्राता धन्य भ्राता रघुबर कौ।।
दतिया-दरबार के कवि
दतिया का राज-दरबार भी कवियों से सूना नहीं रहा। ओरछा नरेश महाराज वीरसिंह देव के पुत्र भगवान राव दतिया-राज्य के संस्थापक थे। इस राज्य को सं. 1740-63 वि. में महाराज दलपति-राव के शासनकाल में प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। इन्हीं के नाम पर यह ‘दिलीप नगर’ भी कहलाया था। इनके पुत्र पृथ्वीसिंह का नामोल्लेख करने के साथ ही उनकी कुछ रचनाओं के उदाहरण भी पहले दिये जा चुके हैं। इनकी अन्य कृतियों में हिंडोरा, अरिल्ल, रसनिधि सागर, रसनिधि के दोहे आदि हैं।
दतिया के अन्य कवियों में कवि कृष्णदास, खण्डन कायस्थ, शिवप्रसाद कायस्थ, खेतसिंह, गणेश, जानकीदास, सीताराम आदि हैं। इनमें से कृष्णदास ने दानलीला, तीजा की कथा, एकादशी महात्म्य आदि की रचना की थी। खण्डन कायस्थ के भूषणदास और सुदामा चरित्र मुख्य है। शिवप्रसाद कायस्थ ‘रसभूषण’ तथा ‘अद्भुत रामायण’ के रचयिता थे।
दतिया-राजवंश में बखत कुँवरि ने भी सं. 1800 के लगभग जन्म ग्रहण किया था, जिन्होंने साम्प्रदायिक ‘प्रिय सखी’ नाम से काव्य-रचना की थी, जो ‘बानी’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसी राजवंश के महाराज भवानीसिंह (सं. 1814-64) के दरवार में गरीबदास गोस्वामी, राधालाल गोस्वामी, पतिराम, गदाधर भट्ट, बैजनाथ मोले, लक्ष्मण सिंह, बिहारीलाल भट्ट, प्रभांकर भट्ट, कन्हैयालाल गोस्वामी आदि कवि थे।
अजयगढ़-दरबार
अजयगढ़-दरबार भी कवियों का आश्रयदाता रहा है। सं. 1620 वि. के लगभग इस राज-दरबार के एक कवि पुरुषोत्तम ने ‘राजविवेक’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। सं. 1830 वि. के लगभग यहीं के कवि प्रेमदास अग्रवाल ने ‘प्रेमसागर’ तथा ‘श्रीकृष्ण लीला’ नामक ग्रंथों की रचना की थी।
अन्य कवि
इन कवियों के अतिरिक्त और भी कुछ कवियों का पता लगा है, जो अभी तक हिन्दी-संसार के लिये अज्ञात बने रहे। ये समी हमीरपुर जिले की देन हैं। काव्य-भाषा के रूप में बुंदेली के विकास की दृष्टि से यहाँ इनका भी उल्लेख अत्यावश्यक है। ये हैं- ज्ञानी जू तथा रत्नेश-पुत्र प्रतापसिंह।
ज्ञानीजू विक्रम की 19वीं शती के उत्तरार्द्ध के कवि बतलाये जाते हैं। ये जलालपुर नामक ग्राम के निवासी थे। ये जैतपुर-नरेश के आश्रय में रहते थे। ‘वीर-विलास’ इनकी काव्य-कृति है। कवि ने स्वयं इसका लेखन-काल सं. 1898 बतलाया है-
“सत्रह सै अट्ठानबे, ज्ञानी कर्यौ प्रकास।
सावन बदि तिथि दुहज रवि, प्रगट्यो वीर-विलास।।”
इस ग्रंथ के आरंभ की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
“ज्ञानी श्री गोपाल के, गुन गावत है नित्त।
बरने सरस विलासमय, रस श्रृंगार कवित्त ।।
रच्यो तमासो आप ही, धरि-धरि कीनो बास।
तातैं ज्ञानी जानिकै, बरन्यौ वीर-विलास।।
तब सब मिलिकैं मों कई, अब बरनो कुछ बीर।
भयौ दरेरौ कौन बिध, नदी बेतबे तीर ।।
माये गुन गन्नेस के, ज्ञानी पाई बुद्धि।
चौहानन चंदेल को, बरन बतावत जुद्धि।।”
अंतिम पंक्ति से स्पष्ट है कि ज्ञानीजू ने अपने इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चौहान से चन्देलों के होने वाले युद्ध का सविस्तार वर्णन किया है। निम्नांकित पंक्तियों में रणभूमि में लाखन के घिर जाने पर आल्हा की माता देवलदे अपने वीरों से कहती है –
“चमू चहूँ दिस आन चाँप चौहानन लीनी।
दुहू बधिलवा फिरौ हाँक दैबे ने दीनी ।।
फिर कौड़ी नहिं लहत, गओ मोती को पानी।
लेहु बिजुरिया ढाल घाल सम्भर रजधानी ।।
पहनहु पलट्टो फौज पै, सम्मुख ह्वै कीजै समर।
यह पूतो समौ न चूकिये, सदा नहीं कोऊ अमर।।
कवि प्रतापसिंह बलभद्र कृत ‘नखसिख’ के टीकाकार थे। इनकी टीका की आरंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
सिष-निष कृत बलभद्र अति,
अर्थ गंभीर निहार।
ताको टीका होई जो
समझे सब संसार।।
हुक्म दियौ विक्रम नृपति,
सब कवि निकट बुलाइ।
सिष-निष की टीका करहु
निज बुधि बल दरसाइ।।
सो सुनि सुकवि प्रतापसिंह,
अरु नृप आयसु राषि।
सिष-निष टीका सुगम,
बरनत भाषा भाषि ।।
संवत ससि बसु बसु बहर
ता ऊपर षट् जानि।
शुक्ल पक्ष त्रितिया सुतिथि
माधव मास बखानि।।
- इन कवियों के अतिरिक्त भी बुंदेलखंड की कवि-उर्वरा भूमि ने अनेक कवियों को जन्म दिया। हमने ओरछा, पन्ना, बिजावर आदि के राजाओं के जिन कवियों का नामोल्लेख किया है, उनमें से अधिकांश हिन्दी साहित्य के इतिहास में अभी तक स्थान प्राप्त नहीं कर सकें। इसका कारण सम्भवतः यह है कि इन इतिहास-ग्रंथों के लेखकों को इन कवियों का पता ही नहीं है अथवा इनमें से अधिकांश, बुंदेली के कवि होने के कारण उन्हें ‘भाषा-काव्य’ के इतिहास में स्थान देने के योग्य ही नहीं समझा गया। पहले कहा जा चुका है कि ब्रज और बुंदेली को वास्तविक अस्तित्व विक्रम की 16वीं शती में ही प्राप्त हुआ और लगभग 17वीं शती तक इन दोनों के रूपों में नाममात्र का ही अंतर रहा। इस स्थिति में इन दोनों शताब्दियों के कवियों को ब्रज और बुंदेली में विभाजित करना बहुत युक्त संगत नहीं जान पड़ता। इस काल के कवियों पर इन दोनों भाषाओं का समान अधिकार है। और विशेषकर उन कवियों पर, जिन्होंने बुंदेलखंड में बैठकर, बुंदेलखंड के प्राकृतिक सौन्दर्य पर मुग्ध होते हुये तथा बुंदेलखंड के ही सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में घुलमिल कर काव्य-रचना की, उन पर तो ब्रज की अपेक्षा बुंदेली का ही अधिक अधिकार रहा, किन्तु इस काल के इस प्रकार के कवि भी ब्रजभाषा-काव्य से आतंकित हो ब्रजभाषा के ही कवि मान लिये गये। इन कवियों का स्थान-निर्धारण ब्रजभाषा के आधुनिक रूप के प्रकाश में नहीं किया जा सकता, इसके लिये तत्कालीन भाषा रूप को ही आधार मानना न्याय-संगत समझा जा सकता है, किन्तु हिन्दी-साहित्य के किसी भी इतिहासकार का ध्यान इस तथ्य की ओर अभी तक न जा सका।
यहाँ उन बुंदेलखंडी कवियों पर भी विचार करना अप्रासंगिक न होगा, जो बुंदेलखंड की धरती की देन हैं और हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें अपने ग्रन्थों में ब्रजभाषा के कवियों के रूप में स्थान दिया है। 16वीं-17वीं शती के कुछ कवियों केशव, बिहारी, बोधा आदि का नामोल्लेख पहले किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त मण्डन, पद्माकर, प्रताप-साहि, भान कवि, बैताल, मंचित, ठाकुर (बुंदेलखंडी), खुमान, पजनेश आदि भी ऐसे ही कवि हैं, जो इस भू-भाग की निधि हैं।
मण्डन जैतपुर के निवासी थे और सं. 1716 वि. तक महाराज मर्दन सिंह के दरबार में उपस्थित थे। रस-रत्नावली, रस-विलास, जानकी जू को ब्याह, जनक पचीसी आदि इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त इनके अनेक कवित्त-सवैये भी उपलब्ध है। रस-रत्नावली और रस-विलास का स्थान रीति-ग्रंथों के अन्तर्गत ही हो सकता है, किन्तु शेष दोनों कृतियाँ विशुद्ध बुंदेली की ही रचनाएँ कही जा सकती हैं। इनके निम्नांकित सवैये में भी बुदेल्ली का कम प्रयोग नहीं है –
“अलि हौं तो गई जमना जल कौं,
सो कहा कहौ वीर ! विपत्ति परी।
घहराय के काली घटा उनई,
इतनेइ में गागर सीस धरी ।।
रपट्यो पग, घाट चढ्यो न गयौ,
कवि मण्डन ह्वै के बिहाल गिरी।
चिर जीवहु नन्द को वारो अरी,
गहि बाँह गरीब ने ठाड़ी करी ।।”
भान कवि राजा रनजोरसिंह बुन्देले के आश्रित थे। इन्होंने सं. 1845 वि. में नरेन्द्र-भूषण’ ग्रंथ की रचना की थी। यह रस और अलंकार का ग्रंथ है। इनका एक कवित्त इस प्रकार है। भाषा में ब्रज और बुंदेली का मिश्रित रूप है-
“रन-मतवारे ये जोरावर दुलारे तब,
बाजत नगारे भये गालिब दिलीस पर।
दल के चलत भर भर होत चारों ओर,
चालति धरनि भारी भार सों फनीस पर।।
देखि कै समर-सनमुख भयो ताहि समै,
भनत भान पैज कै कै बिसे बीस पर।
तेरी समसीर की सिफत सिंह रनजोर,
लखी एकै साथ हाथ अरिन के सीस पर।।
पद्माकर भट्ट का जन्म स्थान कोई बांदा और कोई सागर जिले का एक ग्राम बतलाते हैं। दोनों ही स्थिति में ये बुंदेलखंड की ही देन हैं। नागपुर के भोंसला राजदरबार से लौटने पर ये पन्ना आये और तत्कालीन पन्ना-नरेश महाराज हिन्दूपति के गुरु तथा दरबारी कवि के रूप में बहुत समय रहे। वे नागपुर और पश्ना के अतिरिक्त जयपुर, बाँदा, सितारा, ग्वालियर, बूंदी आदि के राजाओं के भी दरबार में रहे और बड़ा सम्मान पाया। हिम्मत बहादुर बिरदावली, पद्माभरण, राम रसायन, जगद्विनोद, प्रबोध पचासा, गंगालहरी आदि इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। बार-बार के स्थान-परिवर्तन के कारण इनकी काव्य-भाषा के रूप में भी हमें परिवर्तन दिखाई देता है। यह देखते हुए हम इनकी काव्य-भाषा को ‘बहुरूपिणी’ ही कह सकते है। यत्र-तत्र बुंदेली का रूप भी दृष्टिगोचर होता है। इनका राजा परीछत की प्रशंसा में बुंदेली में रचित कवित्त भी मिला है, जो इस प्रकार है –
“जप तप कै चुको सु लै चुको सकल सिद्धि,
दै चुको चुनौती चित्त चित्तन के नाम कों।
कहैं ‘पद्माकर’ महेश-मुख जोय चुको,
ढोय चुको सुखद सुमेर अभिराम को।।
भूपमनि पारीछत राउरो सुजस गाय,
ल्याय चुको इंदिरा उमंगि निज धाम कों।
ध्याय चुको धनद कमाय चुको कामतरु,
पाय चुको पारस रिझाय चुको राम कों।।”
प्रतापसाहि चरखारी-नरेश महाराज विक्रमसाहि के आश्रित कवि थे। व्यंग्यार्थ कौमुदी (सं. 1882), काव्य विलास (1886), श्रृंगार-शिरोमणि तथा अलंकार-चिन्तामणि (सं. 1894), काव्य विनोद, रसराज टीका तथा रस चंद्रिका (सं. 1896), जुगल नखशिस्त आदि इनफी कृतियाँ हैं। इनका काव्य-काल सं. 1880 से 1900 वि. तक माना जाता है। इनकी रचनाओं पर बुंदेली का प्रभाव नगण्य है।
कवि बैताल भी अनेक वर्षों तक चरखारी-नरेश विक्रमसाहि के दरबार में रहे। इनका समय सं. 1839 और 1886 वि. के मध्य माना जाता है। ‘विक्रम सतसई’ इनकी प्रसिद्ध काव्य-कृति है। इनकी एक कुण्डलिया इस प्रकार है-
“मरै बैल गरियार, मरै वह अड़ियल टट्टू।
मरै करकसा नारि, मरै वह खसम निखट्टू।।
बाम्हन सो मरिजाय, हाथ लै मदिरा प्यावै।
पूत वही मरिजाय, जो कुल में दाग लगावै।।
अरु बेनियाव राजा मरै, तबै नींद भर सोइये।
बैताल कहै विक्रम सुनौ, एते मरै नः रोइये।।”
इस कुण्डलिया की भाषा ब्रज से अधिक बुंदेली है। इसमें प्रयुक्त मरै, गरियार, अड़ियल, टट्टू, कर-कसा, खसम, निखट्टू, बाम्हन, पूत, बेनियाव, एते आदि शब्द प्रायः बुंदेली में ही प्रयुक्त होते हैं।
कवि ठाकुर अथवा लाला ठाकुरदास बुंदेलखंड की बुंदेली ठसक के कवि थे। इनके पूर्वज उत्तर प्रदेश (काकोरी) के निवासी थे, किन्तु इनके पिता गुलाबराय ओरछा में ही आकर बस गये थे। यहीं कवि ठाकुर का जन्म सं. 1823 वि. में हुआ था। ये जैतपुर-नरेश महाराज केशरीसिंह के आश्रित थे। इन्हें बिजावर राज्य से भी सम्मान प्राप्त था। ‘ठाकुर की ठसक’ कृति में इनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। अधिकांश रचनाएँ बुंदेली प्रधान हैं। इन्होंने स्थान-स्थान पर बुंदेली की लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है। इस प्रकार ये पूर्णतः बुंदेली के कवि दिखाई देते हैं। इनकी रचनाओं पर ब्रज का प्रभावमात्र कहा जा सकता है, जो उन दिनों स्वाभाविक था। इनके काव्य में बुंदेली संस्कृति के भी दर्शन होते हैं। इनकी अखती, फाग, होली, बसन्त, हिंडोरा आदि रचनाएँ इसी प्रकार की हैं। ये वास्तव में लोक-साहित्य के विषय हैं। अधिकांश रचनाएँ प्रेम-प्रधान हैं। इनका एक कवित्त इस प्रकार है –
“दस बार, बीस बार, बरजि दई है जाहि,
ऐते पै न मानै जो तो जरन वरन देव।
कैसो कहा कीजै, कछू आपनो करो न होय,
जाके जैसे विन ताहि तैसे भरन देव।।
ठाकुर कहत मन आपनो मगन राखौ,
प्रेम निहतंक रस-रंग बिहरन देव।
विधि के बनाये जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ,
खेलत फिरत तिन्हैं खेलन फिरन देव।।”
कवि खुमान भी चरखारी नरेश विक्रम साहि के ही आश्रित थे। इनका कविता-काल सं. 1830 से 1880 वि. तक माना जाता है। अष्टजाम, लक्ष्मण शतक, हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी, नरसिह-चरित्र आदि इनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। ‘लक्ष्मण शतक’ की कुछ पंक्तियाँ पहले दी जा चुकी है। एक कवित्त और देखिये। इनकी भाषा ब्रज-प्रभावित बुंदेली ही कही जा सकती है-
“आयो इन्द्रजीत दसकंध को निबंध बंध,
बोल्यो रामबंधु, सों प्रबंध किरवान को।
को है अंसुसाल, को है काल विकराल,
मेरे सामुहें भये न रहै मान महिसान को।।
तु तो सुकुमार यार लखनकुमार ! मेरी –
मार बेसुमार को सहैया घमासान को।
वीर ना चितैया, रन-मण्डल रितैया, काल-
कहर बितैया हौं जितैया मघवान को।।”
पजनेस पन्ना-दरबार के प्रसिद्ध कवि थे। इनका काव्य-काल 18वीं शती का अंतिम चरण जान पड़ता है। इनकी रचनाओं का एक संकलन ‘पजनेस-प्रकाश’ के नाम से भारत जीवन प्रेस से प्रकाशित है। काव्य-भाषा ब्रज-मिश्रित बुंदेली है। कुछ रचनाओं में फ़ारसी शब्दों का इतना अधिक प्रयोग है कि वे नागरी लिपि में लिखित फ़ारसी की ही रचनाएँ हो गई हैं।
बुंदेली में रासो-परम्परा
हमने यहाँ संक्षिप्त में बुंदेली का काव्य-भाषा के रूप में जो विकास बतलाया है, उसमें बुंदेली केवल एक ‘बोली’ नहीं रह जाती, उसे ‘भाषा’ कहलाने का गौरव भी प्रदान किया जा सकता है। जिस बुंदेली में 16वीं शती से 19वीं शती तक निरन्तर काव्य-रचना होती रही, उसे ‘शोध’ के अभाव में बोली कहकर उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा स्वीकार न करना दुराग्रह ही माना जायगा। बीसवीं शती में भी बुंदेली में उच्चकोटि की रचनाएँ होने का पता लगा है। हमें अपनी शोध-यात्रा के अन्तर्गत बुंदेली में एक ‘रासो-परम्परा’ का भी पता लगा है। अभी तक हमें बुंदेली में रचित सात रासो प्राप्त हुए हैं जो 18वीं से 20वीं शती (वि.) तक के काल में लिखे गये हैं। वे हैं दो दलपतिराय रायसो, शत्रुजीत रायसा, वाघाइट की राइसी पारीछत रायसा तथा दो लक्ष्मीबाई रासो।
दलपति राय रायसो
दलपतिराय दतिया राजवंश के तृतीय शासक थे। इन्होंने सन् 1683 से 1707 ई. तक (सं. 1740 से 1764 वि. तक) राज्य किया था। इन्होंने अपने काल में अपने राज्य को पुनः संगठित कर दतिया का ‘दलीप नगर’ नाम रखा और ‘प्रतापगढ़’ दुर्ग का निर्माण भी कराया था।
दलपतिराय अपने समय के एक युद्ध-कुशल वीर सेनानी थे। इन्होंने मुगल सम्राट् औरंगजेब के काल में बुन्देलों की सेना लेकर बीजापुर (सन् 1686), गोलकुण्डा (1687), अदोनी (1988) तथा जिजी (1694 ई.) पर आक्रमण कर दतिया-राजवंश की कीर्ति में चार चांद लगाये थे। ये औरंगजेब के बड़े विश्वासपात्र और सहायक थे। इन्होंने अनेक बार उनकी सहायता कर मुगलशासन की अभिवृद्धि में महत्व-पूर्ण योगदान किया था। इनके बढ़ते हुये सम्मान को देखकर खांजहां के समान औरंगजेब के विश्वासी सेनापति के द्वारा ईर्ष्या-द्वेष-वश गंभीर आरोप लगाने पर भी उन्होंने विश्वास नहीं किया और वे सदैव इनकी वीरता और ईमानदारी पर विश्वास करते रहे। इन्हें औरंगजेब की प्रसन्नता के लिये दक्षिण में मराठों से भी युद्ध करना पड़ा। अपनी असाधारण वीरता प्रदर्शन करने के कारण औरंगजेब ने इन्हें ‘राव’ तथा ‘अलम’ (ध्वजा) की सम्माननीय उपाधियों से अलंकृत किया था। सन् 1692 ई. में जब औरंगजेब ने फारस के राजदूत को औरंगाबाद लाने का कार्य इन्हें सौंपा, तब मार्ग में इन्हें मराठों से भी युद्ध करना पड़ा। इन्होंने मराठों की सेना को पराजित कर लाखोजी सिधिया को कैद कर लिया। सन् 1700 ई. में इन्होंने जुल्फिकारखां की सेना का नेतृत्व किया तथा परनाला के युद्ध में अपूर्व शौर्य प्रदर्शन किया, जिसमें औरंगजेब ने इन्हें तीन हजार की मनसबदारी प्रदान की। शाह आलम, बहादुर शाह तथा आजमशाह के बीच उत्तराधिकार के लिये संघर्ष होने पर उन्होंने आजमशाह की सहायता की। ये 19 जुलाई सन् 1707 ई. में जाजमऊ (जाजऊ) के युद्ध में आहत हुए और कुछ ही समय के पश्चात् वीरगति को प्राप्त हुए। इनकी वीरता के सम्बन्ध में कहा गया है –
“दतिया दलपतराव को, जीति सकै नहिं कोय।
जो जाकौ जीतन चहै, अधफर फजियत होय।।”
कवि जोगीदास भांडेरी महाराज दलपतिराय के समकालीन और उनके दरबारी कवि थे। कहते हैं वे अनेक बार उनके साथ रणभूमि में भी गये थे और उेन्होंने उनका शौर्य-प्रदर्शन अपनी आँखों से देखा था। ‘दलपतिराय रायसो’ इन्हीं कवि जोगीदास की रचना है, जो न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से, वरन बुंदेली के तत्कालीन रूप के अध्ययन की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पूर्ण रासो दोहा, छप्पय और कवित्त में रचित है। कवि जोगीदास ने इस कृति की रचना उसी दिन आरम्भ की थी, जिस दिन जाजमऊ के युद्ध में दलपतिराय ने वीरगति प्राप्त की थी-
“जाजमऊ कुरषेत कर, जिहि दिन कट नृपनाथ।
तिहि दिन जोगी दास ने, कियौ सुजस को गाथ।।”
कवि ने अपना वंश-परिचय देते हुये अन्त में लिखा है-
“कुल पुंजक महाराज के, साषन साष सुजान।
भाडैरी यह वंश कै, सुत ब्रजराज बषान।।”
उन्होंने रासो-लेखन आरंभ करते हुये गणेश जी की वन्दना इस प्रकार की है-
“गज कौ वदन जाकै, एक है रदन ताकै,
सोभा कौ सदन सोई सुष को निकंद हैं।
गौरी को नंद गुन इंदु अरविंद धरैं,
सुष को सुकंद सदा बंदौ जगवंद हैं।।
रोर हर लम्बोदर, सोहत कुठार जाकैं,
सिद्ध रिद्ध बुद्ध दाता मन मकरंद हैं।
बिधन बिनाइक, कबिन सुखदाइक,
सुसेयबे हैं लाइक सुजाकै जुतवंद हैं।”
कवि-द्वारा दलपतिराय की मृत्यु पर लिखी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
“औरंग समानै साहजादे चड़ विरझाने,
बिरले षटाने जुद्ध होत बंधु मेला कौ।
तहाँ राउ दलपत्त आजम हरौल हुय कै,
भारथ सों ठयौ सनमुष सारझेला कौ।।
कोप कैं कमान गह कर ज्यों बान बाज-
प्राण से जुआन मारे पीलन सौ पेला कौ।
पूरब पछिम अरु उत्तर दच्छिन बनौ,
बूझबौ सुजस जग जूझबौ बुंदेला कौ।।”
‘दलपतराय रायसा’ नामक एक कृति झाँसी के डॉ. भगवानदास माहौर के पास भी हस्त-लिखित रूप में सुरक्षित है। इस रासो के रचयिता का नाम भी जोगीदास भांडेरी बतलाया गया है, किन्तु यह उपर्युक्त प्रथम रासो के किंचित भिन्न है। कवि ने इसका रचना-काल आषाढ़ कृष्ण तृतीया, रविवार सं. 1764 वि. बतलाया है। इस प्रकार दोनों रासो का रचना-काल एक ही है। इसकी गणपति-वन्दना के पश्चात् की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
“जिहि दतिया थापी सुघर, दल बल दुयन ढहाय।
धरौ छत्र अवरंग सिर, करौ बिलीस जिताय।।
सो आपुन सुरपुर गयौ, दै दलपति सिर भार।।
साह सेवकी जौ सदा, सत्रुन कुल संहार।।”
ये पंक्तियाँ प्रथम रासो में दलपतिराय के पिता शुभकरण के सम्बन्ध में कही गई हैं। अंतिम पंक्ति में ‘संहार’ के स्थान पर ‘संघार’ शब्द का प्रयोग है। इसी प्रकार प्रथम रासो की दलपतिराय के वीरगति पाने पर रचित पंक्तियों (दोहा) – जाजमऊ कुरषेत कर…. के पूर्व एक दोहा और भी है, जिसमें उनकी मृत्युकाल की तिथि इस प्रकार दी गई है –
“संवत सत्रा सै बहुर, तिहि पर चौसठ साल।
असित तीज आषाढ़ की, दतिवार सुभकाल।।”
हमें ऐसा लगता है कि ये दोनों रासो एक ही हैं। लिपिकार की भूल के कारण ही हमें इन दोनों में यत्र-तत्र किंचित अन्तर दिखाई देता है। यह पूर्ण रासो ‘भारतीय साहित्य’ पत्रिका के मुंशी अभिनंदन ग्रंथ वर्ष 2, अंक 1, 2 में प्रकाशित हो चुका है।
सत्रुजीत रायसा
बुंदेली रासो के क्रम में ‘सत्रुजीत रायसा’ तृतीय वास्तव में द्वितीय कृति है। इसके रचयिता कोई किशनेस भाट हैं। महाराज शत्रुजीत महाराज इन्द्रजीत के पश्चात् सन् 1768 ई. (सं. 1819 वि.) में दतिया के राजसिंहासन पर आसीन हुये थे। उन्होंने सन् 1801 ई. (सं. 1858 वि.) तक राज्य किया था। उन्होंने ही सन् 1800 ई. में महादजी सिंधिया की विधवा रानी को सेंवढ़ा में आश्रय दिया था। जब लकवा दादा ने सेंवढ़ा दुर्ग के समीप दौलतराव सिंधिया पर एक बड़ी सेना के साथ आक्रमण किया, तब महाराज शत्रुजीत ने ग्वालियर के रघुनाथ राव तथा फांसीसी सेनापति पीरु के विरुद्ध अनुपम शौर्य प्रदर्शन किया था। उन्होंने ‘परोपकाराय महद्धनाः’ के अनुसार सिंधिया-परिवार की रक्षा में वीरगति प्राप्त की थी। ‘सत्रुजीत रायसा’ इन्हीं महाराज शत्रुजीत के शौर्य की गाथा है। इनकी रचना दोहा कवित्त छप्पय और भुजंगी छंदों में की गई है। भाषा तत्कालीन बुंदेली है।
रासो की आरंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
‘श्री गणेशायनमः अथ महाराजाधिराज्यः श्री महाराजा राउराजा सत्रुजीत बहादुर जू देव कौ राइसौ प्रारम्भ।”
कवि ने गणेश जी की वन्दना करते हुए लिखा है-
“गौर गिरीस गणेश अरु, ग्रहा ग्रहन कौ ईस।
इन्हें वंद वरनन करौं, सत्रुजीत रन रीस।।
भये अधिक तैं अधिक इक, रविकुल मर्द महीप।
भूप विभव रनरैभ अति, जंबुदीप के दीप।।”
रासो का एक छप्पय इस प्रकार है। इसमें आरंभ में चार के स्थान पर रोला की तीन पंक्तियाँ और अंतिम दो पंक्तियाँ उल्लाला की हैं। कवि ने छंद का नाम ‘छप्पय’ लिखा है पर है यह वास्तव में ‘पंचय’। सभी छप्पय इसी प्रकार के हैं।
“सत्रजीत सुव अघट भट संग बिहारिय।
हिंदवान परवान आन लग्गिय भुज मारिय।।
साज बाज गजराज गरुय आखेटक खिल्लिय।
वीरादवीर रनधीर धन प्रिथिप्रराज जन उग्गिय।
बल यत्र परीछत छत्रपति भुम्भ भोग इम भुग्गिय।।”
ग्रंथ समाप्ति की सूचना कवि ने इस प्रकार दी है –
“दस आठ वर्ष कर सत सम्हार।
उन्नीस दून ऊपर विचार।।
भादौ सुदष्टः इत्रवार।
पूरन सुग्रंथ हुब सुजस सार।।”
इससे इस रासो की रचना-समाप्ति भाद्रपद शुक्ल दसमी रविवार सं. 1858 वि. को होना जान पड़ता है। यही राजा शत्रुजीत की मृत्यु-तिथि है।
पारीछत रायसा
महाराज पारीछत अथवा परीक्षित महाराज शत्रुजीतसिंह के पुत्र थे, जो उनके वीरगति प्राप्त करने पर दतिया के सिंहासन पर आसीन हुये थे। कवि श्रीधर ने इन्हीं के यशोवर्णन में ‘पारीछत रायसो’ की रचना सं. 1873 वि. में की थी। आरम्भ में गणेश जी की स्तुति करने के पश्चात् उन्होंने लिखा है –
“श्री गनेस गंगा गिरा, गिरिजापति धर ध्यान।
पारीछत महाराज कौ, श्रीधर सुजस वषान।।”
महाराज परीक्षित के शौर्य-प्रदर्शन का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है-
“जकरे जंजी रन सौं टक्कर टिकैत लोह
लक्करैं न माने वीर महा अनियारे हैं।
भारे अढ़गढ़न पछारे अधि ऊरध लौं,
कलके पगारे दिगदि दंत जो झारे हैं।
श्रीधर भनत हेम-साजन सम्हारे चुयें,
पद के पनारे हैं सवमत वारे हैं।
कज्जल ते कारे मेरु मंदर लौं डील वारे,
धीर नंद पंचम अमान के दतारे हैं।”
रासों की अंतिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं-
“संवतु दस अरु आठ सत, तेहत्तर जान।
माधव सुक्ला अष्टमी, गंद्रप छोड़ौ थान ।।
सुभट सुजस पंचम सुजस, कहौ सबै परताप।
श्रीधर कवि चाहुत बिजै, नृप पारीछत छाप।।”
इस रासो की पाण्डुलिपि के लेखक कोई लाला नाराइनदास कनौटावार बतलाये गये हैं, जिन्होंने इसकी प्रतिलिपि अगहन सुदी 10 गुरु संवत् 1971 को तैयार की थी।
वाघाइट राइसौ
इस रासो-ग्रंथ की रचना प्रधान आनन्दसिंह कुड़रा ने वैशाख शुक्ल 15, सं. 1873 वि. को समाप्त की थी। बुंदेली भाषा के अध्ययन की दृष्टि से इस कृति का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता है कि रचयिता ने आरम्भ में बुंदेली-गद्य में एक भूमिका लिखी है। इस प्रकार हमें इसमें विक्रम की 19वीं शती के उत्तरार्द्ध के बुंदेली के गद्य और पद्य; दोनों रूप देखने को मिल जाते हैं।
‘वाघाट’ का ऐतिहासिक सम्बन्ध ‘वाकाटक’ राजवंश से जान पड़ता है। यह टेहरी (टीकमगढ़) जिले में एक छोटा-सा ग्राम है। सम्भव है वाकाटक शासनकाल में यह उस राज्य का कोई बड़ा नगर रहा हो। इस स्थान पर सं. 1815 वि. में ओरछा और दतिया के तत्कालीन शासकों के बीच एक युद्ध हो गया था। इस रासो-ग्रंथ में इसी बुद्ध का वर्णन है। इस समय ओरछा की गद्दी पर महाराज विक्रमाजीत और दतिया की गद्दी पर महाराज पारीछत आसीन थे। हम पहिले बतला चुके हैं कि ओरछा राजवंश के ही एक पुरुष ने दतिया में राज्य स्थापित किया था। इस प्रकार विक्रमाजीत और पारीछत दोनों एक ही राजवंश के दीपक थे, किन्तु सत्ता के लोभ ने दोनों में एक छोटा-सा युद्ध करा दिया। इस संघर्ष में महाराज पारीछत ने बालाइट के दीवान गंधर्वसिंह का अन्त कर दिया था। अंग्रेजों के तत्कालीन पोलिटिकल एजेंट-द्वारा लिखे गये दतिया और ओरछा के बीच होने वाले संघर्ष से सम्बन्धित दो पत्र प्राप्त हुये हैं, जो संघर्ष के कारणों पर प्रकाश डालते हैं। ‘वाघाइट राइसो’ में जो बातें बतलाई गई हैं, उनकी सत्यता की पुष्टि इन पत्रों से भी होती है। प्रथम पत्र बांदा से 4 मई 1816 ई. को बुंदेलखंड के पोलिटिकल सुपरिटेंडेंट ने अपनी सरकार को लिखा है, जिसमें दोनों पक्षों की स्थिति बतलाते हुए झाँसी के गोपाल भाऊ के द्वारा मध्यस्थता करने का उल्लेख है।
‘वाघाइट राइसौ’ की भूमिका हम यहाँ तत्कालीन बुंदेली गद्य को समझने की दृष्टि से ज्यों की त्यों दे रहे हैं, जो निम्न प्रकार है।
श्री गनेसजू। मौजे बाघाइट कौ फौज गई। दतिया तै चैत्रुसुदी 14 संवत् 1873, अमल संवत् 1872, ता दिना दतिया तै श्री दिमान दिलीपसिंघ बुंदेली किसुनगढ़ के, ते फौज सुध्या गए, सो उनाउ डेरा करे। फेर दलीपनगर तै बैसाख बदि 14 सके कौ पं. श्री सिकदार धनसिंघ गए सो मौजे उनाउ मैं सब मेले भई। फेर बदी 30 सनौ को उनाउ तै कूच भयौ, सो बड़ेगाँउ तै चलत नौहट की बैली तरफ बागन में डेरा भए। फेर जहाँ तै सूदि 1 खौ को नौहट को घाट उतरि बाघाइट सौ फौज जा लगी। फेर बैसाख सुदि 8 खौं बाधाइट छूटी। गाँउ मैं आग लगी। बैहर चली। फौज ने हल्ला करी बिना हुकमै सो बाघाइट के मानस ठाकुर बौहत मरे।
रासो की ‘गणेश-वन्दना’ की पंक्तियों के पश्चात् का छंद इस प्रकार है
“श्री दिमान दलीपसिंघ बुंदेल बंस बषानियौ।
कीनी जु विनतीनृपति सौ अर्जी हमारी मानियौ।।
जाने तुम्हारे हुकुम काजै बात कौ पहचानियौ।
प्रभु बात हमरी राषि है बंधेजु अैसो जानियौ।।
इन पंक्तियों में ‘ख’ के स्थान में ‘ष’ का प्रयोग हुआ है। ओकारान्त यो, सों को के स्थान में औकारान्त वर्ण यौ, सौं, कौ, का तथा एकारान्त ने, जे के स्थान में ऐकारान्त नै, जै का प्रयोग है। ‘ऐ’ का रूप ‘अै’ लिखा गया है। ये प्रयोग आरम्भ की गद्य-भूमिका में भी मिलते हैं। हमें इस काल के कुछ ऐसे पत्र और सनदें भी मिली है, जिनमें हम इसी प्रकार के प्रयोग देखते हैं। इसे इस काल की बुंदेली की विशेषता ही कहनी चाहिये।
इस रासो के बीच-बीच में भी गद्य का प्रयोग मिलता है। अंतिम पंक्तियाँ गद्य की हैं, जो पद्य की तरह लिखी गई हैं-
“बैसाख सुदि 15 संवतु 1873, अमल संवत।
1872 लिष्यते प्रधान आनंदसिंघ कुडरा।।
पोथी धाइ सुभ संवत मंगल ददातु।
जहं बाधाइट की न्याउ सौ बडगैयन कौ।
उदासी भई। दतिया में षुसी भई ।।”
लक्ष्मी बाई रासो (प्रथम)
यह रासो स्वातंत्र्य लक्ष्मी महारानी लक्ष्मी बाई झाँसी के अनुपम शौर्य-प्रदर्शन पर आधारित है। इसके रचयिता कलियानसिंघ कुररा कानीगो उर्फ वरजोर कुड़रा हैं। यह गत वर्ष ही श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित होकर सहयोगी प्रकाशन मंदिर लि. दतिया से प्रकाशित हुआ है। रासो के रचयिता कल्यानसिंह कुड़रा महारानी लक्ष्मीबाई के समकालीन थे। उन्होंने इसमें वर्णित अनेक घटनाएं स्वयं अपनी आँखों से देखी थीं।
यह रासो हिन्दी-काव्य-साहित्य के आदिकाल की रासो-परम्परा की कृतियाँ पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो, खुमान रासो आदि की तरह वृहदाकार तो नहीं है, किन्तु फिर भी यह तथा पूर्वोल्लेखित रासो-कृतियाँ उसी परम्परा की कड़ियाँ अवश्य कही जा सकती हैं। ये 18वीं, 19वीं और 20वीं शती में रचित बुंदेली की रासो कृतियाँ लघु होकर भी मौलिक हैं। इनकी रचनाओं में कोई परिवर्तन न होने के कारण आदिकालीन रासो-ग्रंथों की तरह इनकी भाषा भी विवाद-ग्रस्त नहीं है। ये सभी रासो, जो प्रबंध काव्य के रूप में रचित है, अपने काल की बुंदेली के वास्तविक स्वरूप के द्योतक हैं।
इस रासो (लक्ष्मीबाई रासो) में भी रासो-लेखन की परम्परा के अनुसार आरम्भ में गणेश-वन्दना के छंद हैं। यथा-
“सुध बुध चाहौ जगत मैं, जस रस अरु इतमाम।
तौ हिरदै दृढ़ राख लै, गनपत सरसुत नाम।।
गुर कौं और गुबिंद की, नित प्रति सीस नवाय।
कलजुग मैं कलियान कहि, दूजौ नहीं उपाय।।“
महारानी लक्ष्मीबाई-द्वारा लड़े गये युद्ध का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है –
“ठनंकत ढाल, भनंकत भाल। खनंकत खर्ग, उठै अति ज्वाल।।
उड़ै जितही तित तुंड बितुंड। झिरै झिरना भर श्रोनित कुंड।।
कटै भुज पाँव करै अतिन्याव। फटै सिर सूर तऊ रन चाव।।
धरै पन पैज दुगून उछाव। लरै रजपूत जपूत लगैं तन घाव।।
चले बन्दूक तड़ाक तड़ाक। लगै पुन ढालन खर्ग खड़ाक।।
टरै नहिं रहहिं सूर लराक। फटै सिर औ धर होइ भड़ाक।।”
अंग्रेजों के बढ़ते हुए चरण का वर्णन करते हुये कवि कुड़रा ने लिखा है –
“तेज अंगरेज को अंगेजबौ न हाँसी आइ,
ताइ बल विक्रम की भली भलों धाई है।
मार कर जूलन फिरंटनें मिटाइ दई,
सागर की दौर दाब घटिया छिड़ाई है।।
साहिगढ़ अजैगढ़ चरखारी चंदेरी लै,
बानपुर बिजावर बियोल लिहि डारी है।
कहतु कलियान दर कूचन पयान कर,
पाँच छै दिना मैं ढाल नौहट पै छाई है।।”
रासो के अन्त में ये पंक्तियाँ हैं, जिनसे इस रासो का लेखन-कार्य भाद्र कृष्ण 4 गुरुवार सं. 1926 वि. को समाप्त हुआ जान पड़ता है –
“इति झाँसी कौ राइसौ बाई की लड़ाई कौ संपूरन। मिति भादौं बदी 4 गुरऊ संवत् 1926 मुकाम दलीप नगर लिख्यांस प्रधान जुगलकिशोर कुड़रा पोथी मजकूर की घरु।”
बाई लक्ष्मी रासो (द्वितीय)
महारानी लक्ष्मीबाई से सम्बन्धित एक और भी है। रासो की रचना सं. 1961 वि. को हुई इस रासो के रचयिता पं. मदनमोहन द्विवेदी ‘मदनेश’ हैं इनका जन्म माधव शुक्ल तृतीया सोमवार सं. 1924 वि. में झाँसी में हुआ और मृत्यु आश्विन शुक्ल एकादशी सं. 1991 वि. में हुई थी। रासो की हस्तलिखित पति डॉ. भगवानदास माहोर झाँसी के पास सुरक्षित है, जो अब मुद्रित भी उपलब्ध है। रासो की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
“चलत कमानी भई वहिनी भभानी तहँ,
बैठी महारानी रानी कर में दुधरा है।
धूम उठ छायो नभ मंडल प्रतच्छ लच्छ
कर्णन कौ कुलिश समान सोर भारा है।
दीनो तक गालौ सौ गिलौ है मुख मध्य तोके,
और कस करत प्रकास कौ पसारा है।
गोला से जा गोला भिड़ै मारो है मदन जोर,
मुलक मैदान को पिदान फार डारा है।”
इनके अतिरिक्त दोहा, चौपाई, अमृत ध्वनि, कवित्त आदि छन्दों का भी प्रयोग हुआ है।
यह रासो आल्हा छन्द (वीर छंद) एवं बुंदेलखंड में प्रचलित ‘सैर’ गीत की शैली में रचित है। इस प्रकार इसमें साहित्यिक शैली और जनगीत शैली, दोनों का प्रयोग हो गया है। आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व के बुंदेली के रूप-दर्शन की दृष्टि से इसका भी बहुत महत्व है।
इन रासो-कृतियों के अतिरिक्त हमें और भी कुछ ऐसी बुंदेली काव्य-कृतियाँ मिली हैं, जो बुंदेली का बिना किसी अवरोध के काव्य-भाषा के रूप में श्रृंखलाबद्ध विकास प्रमाणित करती है। ‘बिस्व बस करन’ इसी प्रकार की एक काव्य कृति है। यह कवि ‘हृदयेश’ की नायिका-भेद’ पर रचित लगभग 120 पृष्ठों का ग्रंथ है। अभी तक अप्रकाशित है और झाँसी के श्री रामचरण जी हयारण ‘मित्र’ के पास सुरक्षित है। इसकी आरम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
“गवरनंद पद बंद कर, करौ सकल सुष वृद्धि।
विस्व बसकरन ग्रंथ यह, कीजै जगत प्रसिद्धि।।
चतुर नरन को सुषकरन, लषत बरन रस पंथ।
परत रस करन सुनत सन, विस्व बसकरन ग्रंथ।।
मंडन के करतान कौ, नमस्कार कर जोर।
खंडन के करतान कौं, नमस्कार सिर ढोरी ।।”
बीच का एक छंद (कवित्त) इस प्रकार हैं-
“मुंडा दंड मंडित अखंडित वितुंड तुंड,
एक रद धार हियैं हार फनपति कौ।
चारों भुज कहे हीन-दीन दुष दलमल,
छल मल खल न रखैया जनपति कौ ।।
भनत हृदेस सिद्ध दायक बलित नर,
पावत चलत फल घ्याय धनपति कौ।
दरस अमंद भाव चंद सुषबंद चंद,
रहत न फंद पद बंद गनपति कौ।
निम्नांकित अंतिम पंक्तियों से इस पंथ की रचना का समाप्ति-काल आश्विन शुक्ल 5, गुरौ संवत् 1904 जान पड़ता है-
“दसकत पं. श्री कवि हृदेस के, निर्माण तिथि अस्वन सुदि 5, गुरौ संवद 1904”
श्री ‘मित्र’ जी के पास हमने एक काव्यवद्ध श्रीमद्गीता का बुंदेली-अनुवाद भी पांडुलिपि के रूप में देखा है। लेखक का नाम अज्ञात है। अनुवाद की कुछ पंक्तियाँ निम्न प्रकार हैं-
“धर्म छेत्र कुरु मैं छेत्र, जुरे जुध्ध के हेत।
संजय कह करतम्भ ऐ, कुरु पंडवनि समेत।।”
(धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे अ.1/1)
“तेरे अरु मेरे जनम, बीते हैं बहु बार।
तू तिनकौं जानत नहीं, हौ जानतु निरधार।।”
(बहूनि में व्यतीतानि. अ. 4/5)
“जब अर्जुन जग में घटत, कर्म धर्म के माहि।
बढ़त अधर्म जहाँ-तहाँ तक तब हाँ प्रगटत आहि।।”
(यदा यदा हि धर्मस्य. अ. 4।7)
श्री रामचरण जी हयारण ‘मित्र’ ने अपनी ‘बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य पुस्तक में कवि मदनेश के ‘झाँसी रायसौ’ का भी उल्लेख किया है। यह पूर्ण रूपेण बुंदेली की रचना है। कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:-
बाई ने दीनौं हुकम, को यह का कौ आय।
कहौ वेग लै जाय गज, ऊधम रयौ मचाय।
× × ×
दीनौं हुकम जायके सिपाई समझाय कई
को हो आय कांसे नई नैंक सरमात हौं।
मेला माँय कैसो तुम ऊधम मचाय राखौ
देख के परायौ मुख नैक ना निहात हौ।।
कवि ‘मदनेश’ जगत रानी जू बिराची यहाँ,
तिनकौ हिये मैं भय तनक न खात हौ।
मानलेव जाऔ न घटाऔ मान, मान कही,
सौच के बताऔ अब जात कै न जात हौ।।।
श्री ‘मित्र’ ने देवीराय नामक एक कवि-द्वारा ‘लोहागढ़ की लड़ाई’ की रचना का उल्लेख किया है। ये 19वीं शती के कवि जान पड़ते हैं। सन् 1857 ई. के विद्रोहकाल में सर ह्य ने झाँसी पर अधिकार करने के पश्चात् निकटस्थ छोटे-बड़े राजाओं को आत्म समर्पण के लिये पत्र लिखे थे। ऐसा ही एक पत्र लोहागढ़ (वर्तमान लुहारी) के गूजर राजा हिन्दूपति को मिला था। उन्होंने पत्र-वाहक जान जेज को क्षत्रियोचित स्वरों में जो उत्तर दिया, वह कवि देवीराव के शब्दों में इस प्रकार है-
लोहागढ़ कठिन भवास फिरंगी झाँसी भरोसे ना रैयौ।
जहाँ तोप चलैं गोला चलैं भालन की हूहै मार ।।
परिणाम-स्वरूप राजा हिन्दूपति का अंग्रेजों से युद्ध छिड़ गया। कवि देवीराय-रचित इस युद्ध-वर्णन की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
भई भोर से लराई अधिकाई मन भाई,
भारी भीर मुरकाई भये थकित रथ-मान।
उमड़-घुमड़ दल, बद्दल के साथ चल,
थले कजबीन मार तोप अगबान।।
पैदर से पैदर लरैं, सूरन से सूर लरैं,
कायर-कपूतन के मुख कुम्हलान।
देवीराय’ यो बखान सो लखत देवतान,
भई जाहिर जहान, लोहागढ़ की कृपान ।।
हमें ‘गुण्डा पचीसी’ नामक एक लघु काव्य पुस्तिका श्री अम्बाप्रसाद जी श्रीवास्तव भोपाल से प्राप्त हुई है। यह किन्हीं रामदास नामक कवि की रचना है। महाराज छत्रसाल के काल में जिगनी नामक एक जागीर थी। यह एक ग्राम के रूप में अभी भी हमीरपुर जिले की चरखारी तहसील (पूर्व चरखारी राज्य) में स्थित है। वहाँ के जागीरदार के सन्तान न होने के कारण उन्होंने छत्रसाल के एक पुत्र पदमसिंह को दत्तक के रूप में स्वीकार कर लिया था। उन्होंने समीपस्थ क्षेत्र पर अधिकार कर अपनी आय 22 लाख रुपये वार्षिक कर ली थी। उनके पश्चात् लछमनसिंह और लछमनसिंह के पश्चात् हरिसिंह वहाँ के स्वत्वाधिकारी हुए। इस काल तक जिगनी की स्थिति क्रमशः बिगड़ती गई। बांदा के नवाब अली बहादुरखाँ ने इस जागीर के एक बड़े भाग पर अपना अधिकार कर लिया। हरिसिंह के अधिकार में अब केवल छः गाँव ही रह गये। उनकी निर्बलता से प्रबन्ध अव्यवस्थित हो गया। सैनिक एवम् अन्य कर्मचारी विलासी और अकर्मण्य हो गये। फलस्वरूप जिगनी का अवशेष भी मिट गया। इसी स्थिति पर कवि रामदास ने ‘गुण्डा पचीसी’ की रचना की थी। पुस्तिका की कुछ पंक्तियाँ निम्न प्रकार हैं। इनमें ‘हरिसिंह’ को ‘हिरदेस’ कहा गया है-
ठौर-ठौर ठठाको ठानैं, ठौर-कुठौर न जानैं।
बिटिया बहू भनेज भतीजी, नानौ नैक न मानैं।।
ऐसे काम करत निसि-बासर, कुसर कहाँ तैं होई।
नृप हिरदेस दोष नहिं तुमकौं, गुंडन जियेनी खोई।।
स्तक का रचना-काल सं. 1889 वि. लिखा हुआ है।
बीसवीं शती के एक कवि ‘जुगलेश’ भी थे। इसके पूर्ण नाम का पता न लग सका। इनका जन्म सं. 1916 वि. में दतिया के एक जिझोतिया ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके छोटे भाई बैजनाथ संस्कृत के विद्वान् होने के साथ ही एक अच्छे कवि भी थे। जुगलेश जी की कुछ स्फुट रचनाएँ यत्र-तत्र प्राप्त हैं। इनका बुंदेली में रचित एक सवैया इस प्रकार है-
सुख में सुख देख मनावै खुसी,
दुख में दुख देख भगै दई मारो।
गर्ज सरै फिर नाहीं मिलै,
उर गर्ज परै नहिं छोड़त द्वारो।।
‘जुगलेश’ दगैल की प्रीति बुरी,
नहिं कीजिये बूड़ मरै मझधारो।
मित्र न ऐसौ करै सपनें
रहे खीर में सौंज, महेरी में न्यारो।।
आधुनिक कालीन बुंदेली कवियों में विजावर राज्य के कबि बिहारी तथा छतरपुर राज्य के गंगाधर व्यास का नाम भी उल्लेखनीय है। कवि बिहारी का जन्म-काल विजयादशमी सं. 1846 वि. और मृत्युकाल सं. 2018 वि. है। इनकी रचनाएँ ब्रज और बुंदेली दोनों में मिलती हैं। इनकी रचनाओं का संकलन ‘बुंदेल साहित्य परिषद्’ छतरपुर से गत वर्ष ही प्रकाशित हुआ है। इन्होंने अनेक दोहे आधुनिकता के प्रकाश में सतसईकार बिहारी की शैली में लिखे हैं। उदाहरणार्थ यहाँ दो दोहे दिये जा रहे हैं।
श्रवण सुनत गति यंत्र की, मग देखत दृग दोर।
चित दै कार चलावही, यही सुरत की जोर।।
+ + +
युक्त अहार बिहार सें, तन की राखै तौल।
मोटर-कोटर में यथा, वेत पवन पिटरौल।।
इनकी बुंदेली रचना का भी एक उदाहरण लीजिये-
बसको सबही यह काम हतो, अस काम लगौ करनै पस को।
पसको खग को नर को जड़ को, यह खेल रचो तो दिना दसको।।
दस को जब संग बिहार कियो, कछु लेन लगो सो मजा रस को।
रस को फिर ऐसो लगो चसको, बस को न रहो अपने बस को।
इनकी 17 रचनाओं में से साहित्य सागर, मथुरागमन, वैराग्य वावनी, शरीर सप्तक, गांधी गमन, गुररेशी गारी, बिहारी बिहार, ज्ञान-गीतावली आदि 10 कृतियाँ प्रकाशित रूप में उपलब्ध हैं।
कवि गंगाधर व्यास की रचनाओं का भी एक संकलन ‘गंगाधर गरिमा’ के नाम से श्री श्री-निवास जी शुक्ल द्वारा सम्पादित होकर विन्ध्य प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, रीवा से सं. 2017 वि. में प्रकाशित हुआ है। व्यास जी मूलतः लोककवि थे, किन्तु उन्होंने लोक गीतों के अतिरिक्त काव्य-रचना भी की थी। उन्होंने अपनी एक रचना में मेले में जाते बुंदेलखंड के ग्रामवासियों का चित्र इस प्रकार उपस्थित किया है-
करिये तियारी फैंट बांध करि कमरा की,
दै दै कछौटे झुण्ड देखै लुगइयन के।
गड़ई डोर टांगै बड़ी बिन्नू खां आंगै करि,
गठरी पीठ बांदे झुण्ड देखै गमइयन के।।
यह बुंदेलखंड की कृषक नारियों का चित्र है। आजकल बुंदेलखंड में निवास करने वाले अनेक शिक्षित और कवि हृदय व्यक्ति बुंदेली में काव्य-रचना कर रहे हैं, जो विभिन्न क्षेत्र के स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इनमें सर्वश्री वासुदेव गोस्वामी तथा चतुरेश (दतिया), रामचरण-ह्यारण ‘मित्र’ तथा द्वारकेश (झाँसी) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इस संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि विक्रम की 16वीं शती से ब्रज और बुंदेली का अपने-अपने क्षेत्र में काव्य-भाषा के रूप में लगातार विकास होता जा रहा है और आज के युग में भी यह विकास का क्रम सर्वथा अवरुद्ध नहीं है। वर्तमान में ब्रज में काव्य-रचना यदा-कदा ही होती दिखाई देती है, जबकि बुंदेलखंड में बुंदेली में काव्य-रचना की प्रवृत्ति अधिकाधिक बढ़ती जा रही है। आज बुंदेलखंड के सभी बड़े नगरों में ऐसे कवि वर्तमान हैं, जो बुंदेली में काव्य-रचना करने में लगे हुए हैं। इतना अवश्य है कि उनके लोकगीतों के माधुर्य से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण उनकी वर्तमान कालीन रचनाएँ, काव्य-सौष्ठव होने पर भी लोकगीतों के अधिक समीप है। इन पाँच सौ वर्षों में बुंदेली इतनी अधिक विकसित हो गई है, कि उसमें उत्कृष्ट काव्य-रचना सरलता से की जा सकती है। वह संस्कृत के तत्सम, अर्थतत्सम और तद्भव रूप तथा अरबी-फारसी की भी शब्दावली ग्रहण कर अपने आप में स्वयं पूर्ण भाषा बन गई है। उसकी अभिव्यक्ति-सामर्थ्य बहुमुखी और शब्द-भण्डार विशाल है। उसके ग्रामीण रूप में अंग्रेजी के भी अनेक शब्दों ने उसकी प्रवृत्ति के अनुसार किंचित परिवर्तित हो स्थान पा लिया है।
2. राजभाषा के रूप में विकास
बुंदेली अथवा बुंदेलखंडी को ‘बोली’ तो अभी भी कहा जाता है और यदि इसे ‘भाषा’ कह दिया जाय, तो कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं, किन्तु हिन्दी की बोलियों में बुंदेली ही एक ऐसी बोली है, जिसे लगातार चार सौ वर्षों तक ‘राजभाषा’ के रूप में प्रतिष्ठित होने का सौभाग्य प्राप्त रहा है। जब से बुंदेलखंड बना और इस भू-भाग पर बुन्देलों का शासन आरम्भ हुआ, बुंदेली ही उनकी राजभाषा रही है। बुंदेलखंड के राजाओं का राज्य कार्य, हिसाब-किताब और परस्पर का पत्र-व्यवहार; सभी बुंदेली में होने के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। मुझे प्राप्त सामग्री में सनदें, इकरारनामे, ताम्रपत्र, शिलालेख, राजकीय एवम् व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार से सम्बन्धित पत्र आदि सभी हैं। इस सम्पूर्ण सामग्री का उपयोग करने के लिये एक पृथक् पुस्तक लिखने की ही आवश्यकता होगी। प्राप्त सामग्री में से कुछ इस प्रकार है-
- सनद
- राजगुरु जगजीवनदास को दीवान भगवानसिंह दतिया के द्वारा।
– असाढ़ बदि सं. 1635 वि.
- गुसाई नवनीत राई को दीवान सुभकरन जू देव दतिया के द्वारा।
– जेठ बदि 8 सं. 1730 वि.
- गुसाई नवनीत राई को दीवान दलपतराव जू देव दतिया द्वारा।
– जेठ भादौ बदि 8 सं. 1745 वि.
- गुसाई (नाम स्पष्ट नहीं है) को महाराज हिन्दूपति जू देव के द्वारा।
– अगहन सुदि 2 सं. 1819 वि.
- महाराजकुमार दीवान खुमानसिंह जू को महाराज हिन्दूपति की ओर से।
– माह सुदि 11 सं. 1825 वि.
- महाराजकुमार गिरधरसिंह जू देव को महाराजा हिन्दूपति जू देव से।
– कार्तिक सुदी 13 सं. 1832 वि.
- महाराजकुमार अपरबल सिंह जू देव को राजा अनुरुधसिंह जू देव के द्वारा।
– फागुन सुदी 7 सं. 1833 वि.
- महाराजकुमार दीवान छतारेसिंह देव को राजा अनुरुधसिंह जू देव से।
– असाढ़ बदी 5 सं. 1834 वि.
- महाराजकुमार कुँवर अपरबलसिंह जू देव को राजा सिरनेतसिंह जू देव से।
– भादो सुदी 9 सं. 1841 वि.
- महाराजकुमार छतारेसिंह जू देव को राजा सिरनेतसिंह जू देव द्वारा।
– कार्तिक बदी 7 सं. 1841 वि.
- महाराजकुमार गिरघर सिंह चन्देल को राजा अनुरुधसिंह के द्वारा।
– ता. 25 जनवरी सन् 1205 हिजरी (वि. सं. 1855)
- ताम्रपत्र
- महाराज छत्रपाल जू देव-द्वारा गुसाई धरनीधर को।
– कार्तिक सुदी 11 सं. 1755 वि.
- महाराज छत्रसाल जू देवन्द्वारा गुसाई धरनीधर को।
– माधव मास सं. 1764 वि.
- महाराज छत्रसाल जू देव-द्वारा कवि प्रहलाददास को।
– कार्तिकक सुदी 11 सं. 1771 वि.
- शिलालेख
- हस्ताक्षर-विहीन-ओरछे के राजा उदेतसिंह जू के विरुद्ध लेख।
– माह सुदी 9 सं. 1826 वि.
- पत्र
- महाराज छत्रसाल का पत्र दीवान जगतराज के नाम।
– सावन बदी 11 सं. 1783 वि.
- महाराज छत्रसाल का पत्र दीवान जगतराज के नाम
– भादो बदी 6 सं. 1783 वि.
- महाराज छत्रसाल का पत्र दीवान जगतराज के नाम)
– पूस सुदी 11 सं. 1783 वि.
- दीवान जगतराज का पत्र महाराज छत्रसाल को।
– भादो सुदी 13 सं. 1786 वि.
- महाराज छत्रसाल का पत्र महाराजकुमार जगतराज के नाम।।
– वैसाख बदी 30 सं. 1787 वि.
- महाराज छत्रसाल का पत्र दीवान जगतराज के नाम।
– असाड़ बदी 8 सं. 1787 वि.
- महाराज छत्रसाल का पत्र दीवान जगतराज को।
– असाढ़ सुदी 13 सं. 1787 वि.
- महाराज छत्रसाल का पत्र दीवान जगतराज को।
– कुँवार बदी 12 सं. 1787 वि.
- राजा जगतराज का पत्र महाराज हिन्दूपत जू देव को
– कार्तिक बदी 8 सं. 1814 वि.
- राजा जगतराज का पत्र महाराज हिन्दूपत जू देव को।
– अगहन बदी 14 सं. 1814 वि.
- महाराज मधुकरशाह का पत्र महाराज अनुरुधसिंह जू देव को।
– कार्तिक सुदी 2 सं. 1840 वि.
- महाराज धौकलसिंह जू देव का पत्र महाराजकुमार सौनेजू देव को।
– जेठ वदी 12 सं. 1844 वि.
- सौनेसाह का पत्र महाराज धौकलसिंह जू देव को।
– जेठ सुदी 15 सं. 1844 वि.
- राजा बिजैबहादुर का पत्र महाराज धौकलसिंह जू देव को।
– कार्तिक बदी 5 सं. 1847 वि.
- महाराज विजैबहादुर का पत्र महाराज घौकलसिंह जू देव को।
– कार्तिक बदी 14 सं. 1847 वि.
- महाराज बिजबहादुर का पत्र राजा बखतसिंह को।
– सावन बदी 3 सं. 1849 वि.
- महाराज बिजैबहादुर का पत्र महाराज बखतसिंह को।
– कुँवार सुदी 13 सं. 1849 वि.
- महाराज विजैबहादुर सिंह का पत्र राजा बखतसिंह जू देव को।
– माह बदी 11 सं. 1849 वि.
- महाराज बिजैबहादुर सिंह का पत्र महाराज केसरीसिंह जू देव को।
– फागन सुदी 7 सं. 1849 वि.
- इकरारनामा अंग्रेज सरकार के साथ।
– सावन सुदी 12 सं. 1861 (17 अगस्त सन् 1804)
- हिम्मत बहादुर पारसराम दुबे का पत्र जान बेली को।
– कुँवार सुदी 13 सं. 1863 वि.
- राव अयोध्या प्रसाद का पत्र दीवान बहादुर गोपालसिंह को।
– असाढ़ सुदी 10 सं. 1867 वि.
- महाराज कुमार दीवान बहादुरसिंह का पत्र मेजर केली को।
– सावन बदी 9 सं. 1868 वि.
- राजा केसरीसिंह जैतपुर का पत्र कम्पनी सरकार को।
– भादो सुदी 7 सं. 1869 वि.
- महाराज किशोरसिंह जू देव का पत्र राजा गजसिंह देव को।
– पूस सुदी 9 सं. 1878 वि.
- राजघर का पत्र महाराज गजसिंह को।
– बैसाख बदी 11 सं. 1878 वि.
- राजघर का पत्र महाराज किशोरसिंह जू देव को।
– वैसाख सुदी 11 सं. 1878 वि.
- महाराज गजसिंह का पत्र महाराजा किसोरसिंह को।
– माह (माघ) सुदी 2 सं. 1878 वि.
- महाराज माधौसिंह जू देव का पत्र राजा हरबंसराय जू देव को।
– फागुन बदी 2 सं. 1898 वि.
- राजा मर्दनसिंह का पत्र राजा बखतबली जू देव को (राज्य क्रान्ति)।
– वैसाख सुदी 2 सं. 1914 वि.
- महाराज बखतवली का पत्र महाराज मर्दनसिंह को (राज्यक्रान्ति)
– सावन बदी 14 सं. 1914 वि.
इन प्राचीन सनदों, ताम्रपत्रों, शिलालेखों और पत्रों से स्पष्ट है कि बुंदेली का सं. 1635 वि. (सन् 1578 ई.) के पूर्व से ही अर्थात् आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व से राजभाषा के रूप में प्रयोग होने लगा था। हम यहाँ बुंदेली का राजभाषा के रूप में विकास बतलाने के लिये इस सम्पूर्ण सामग्री (यद्यपि प्राचीन सामग्री इससे भी अधिक उपलब्ध है, यह केवल चुनी हुई सामग्री है) का उपयोग न कर कालक्रम से इसमें से भी कुछ सामग्री चुनकर भाषायी रूप-विकास की दृष्टि से विश्लेषण करेंगे।
1. सनद-सं. 1635 वि. (सन् 1578 ई.)
प्राचीन उपलब्ध सामग्री में यही सनद सबसे प्राचीन है। यह दतिया राज्य के प्रथम शासक महाराज भगवान राय जू देव के द्वारा उनके राजगुरु गुसाई जगजीवनदास को दी गई थी। उन्होंने इस सनद के द्वारा उन्हें दो गाँव-इमीलिया और बमौरा गुरुदक्षिणा में दिये थे। हमें यह तथा तीन अन्य सनदें उक्त राजपुरोहित के वर्तमान वंशधर श्री गोस्वामी पुरुषोत्तमलाल जी दतिया से प्राप्त हुई हैं। ये सनदें मूल रूप में उनके पास सुरक्षित हैं। प्रथम सनद इस प्रकार है-
“पं. श्री गुसाई जगजीवनदास जू को दिवान भगवान राइी जु देव आपर गुरु[1] दछिना दाषल पादरर[2] गौरदियौ तुमकौ परगनै डामरौन के मौजो इिमीलिया मौजो बमौरा रकम हबूब माफ परवानगी रोहबरो[3] मुजाइिन ना हूहै बरकरार[4] बेदखल असाड़ वदि संवत् 1635 मुकम जेरीन लिषत प्रः मषन”
यह सं. 1635 वि. की बुंदेली का वह गद्य-रूप है, जो उस समय राजभाषा के रूप में व्यवहुत होता था। इस रूप में पाँच बातें मुख्यतः द्रष्टव्य हैं। प्रथम, उस समय व और व में कोई विशेष अन्तर नहीं माना जाता था। इस सनद में जहाँ ‘व’ है, उसका उच्चारण व होता था। यथा, दिवान दिवान। कहीं कहीं ‘दिमान’ शब्द भी मिलता है। द्वितीय, जहाँ ‘व’ का उच्चारण व नहीं, पर ‘व’ ही होना है, वहाँ इस वर्ण के नीचे एक बिन्दु लगाने की प्रथा थी। यथा देव।
तृतीय, ह्रस्व अथवा दीर्घ ई लिखने के लिये इन दोनों स्वरों में उनकी मात्राएं भी लगाई जाती थी। यथा, इ और ई के स्थान में इस सनद में क्रमशः इि और इी लिखा गया है। इससे जान पड़ता है कि ‘इ’ मूल स्वर माना जाता था और उसका हस्व-दीर्घ रूप दिखाने के लिए इस स्वर में ह्रस्व (ि) और दीर्घ (ी) मात्राएँ लगाना आवश्यक समझा जाता था।
चतुर्थ, पद्य की तरह गद्य में भी ‘ष’ का उच्चारण ‘ख’ होता था और इसी प्रकार वह लिखा भी जाता था; यद्यपि ‘ख’ का प्रयोग भी प्रचलित था। ऊपर की सनद में ‘दाखल’ के स्थान में ‘दाषल’, ‘लिखत’ के स्थान में ‘लिषत’ तथा ‘मखन’ के स्थान में ‘मषन’ लिखा गया है, किन्तु अन्य स्थानों में ‘ख’ का ही प्रयोग है, जैसा कि हम पादारख और बेदखल शब्दों में देखते हैं। ‘ष’ के स्थान में ‘ख’ और ‘क्ष’ के स्थान में ‘छ’, ‘च्छ’ अथवा ‘वस’ का प्रयोग हिन्दी की अन्य बोलियों; ब्रज और अवधी में भी होता है।
पाँचवें, उपर्युक्त सनद से स्पष्ट है कि इस काल तक मुस्लिम शासन और उसकी राजमाया फारसी से हिन्दी की अन्य बोलियों की तरह बुंदेली भी प्रभावित हो रही थी। इस सनद में गौर, परगनै, मौजो, रकम हबूब, माफ, परवानगी, रोहबरी (रूवरू) मुजाइिन, बरकरार और बेदखल शब्दों का प्रयोग इसी प्रभाव का परिणाम है। बुंदेली-गद्य रूप की ये विशेषताएँ हमें 19वीं शती (विक्रम) के अंत तक भी मिलती हैं।
2. सनद- सं. 1730 वि. (सन् 1673 ई.)
उपर्युक्त सनद के लगभग सौ वर्ष पश्चात् (सं. 1730 वि.) की एक सनद की प्रतिलिपि नीचे दी जा रही है। यह सनद दतिया के महाराज शुभकरन-द्वारा अपने गुरु गोस्वामी नवनीत राय को दी गई थी। उसमें उन्होंने अपनी भावी सन्तान के लिये भी इन्हें अथवा इनके वंशधरों को गुरु स्वीकार करने का बचन दिया है।
सनद की प्रतिलिपि
पं. श्री गुसाइी नौनीतराहि जू एते[1] श्री दिवान की सुभकरन जू देव कबूल करी आग जु कोऊ हमारे संतान मौं[2] होय सो दीक्सा मंत्रुइिनिसों लेइ यह बोलु प्रमाण ए हमारे बांट के गुरु हैं जेठ बदि 8 भौये संवतु 1730 मुः सूपी लिपित प्रः परागराडि।”
इस सनद में समस्त भाषायी विशेषताएँ प्रथम सनद की तरह ही हैं, किन्तु एक नवीन विशेषता, बुंदेली में उकार की प्रवृत्ति का प्रवेश है। मंत्रु और संवतु इसी प्रवृत्ति के द्योतक शब्द हैं। हम पहिले भरत के नाट्य शास्त्र के एक श्लोक (17/62) का उद्धरण देकर यह बतला चुके हैं कि संस्कृत का ‘अ’ प्राकृत में ‘ओ’ तथा अपभ्रंश में आकर ‘उ’ हो गया था। यह उकार-बहुला प्रवृत्ति विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के मध्य-काल में सिन्धु-सौवीर क्षेत्र में बसे आमीरों की भाषा में परिलक्षित हुई। उपर्युक्त सनद से ऐसा जान पड़ता है कि इस उकार की प्रवृत्ति ने 17वीं शती का अन्त होते-होते बुंदेली में भी प्रवेश कर लिया था। हमें यह प्रवृत्ति 18वीं और 19वीं शती की प्राप्त कुछ सनदों तथा राजकीय पत्रों में भी दिखाई देती हैं। यह प्रवृत्ति ‘बिहारी सतसई’ में भी स्थान-स्थान पर दिखाई देती है।
3. सनद सं. 1745 वि. (सन् 1688 ई.)
यह सनद भी दतिया-नरेश महाराज दलपतराय ने अपने गुरु को देकर ठाकुर जी के भोग के लिये उन्हें मुबारकपुरा नामक ग्राम दिया था-
“पं. श्री गुसाई नवनीत राइी श्री महाराज… श्री दीवान श्री दलपति राइी जू देव आगे पादारथु दयो मोः 4 असली मोः 3 दाषील मोः 1 श्री ठाकुर जुके भोग कौं मौः मुबारकपुरा पादारष बे दषल बरकरार हरिहबुब, माफ भादौ बदी 8 संवतु 1745 मोः छत्रसीधी।”
पूर्व विशेषताएँ इस सनद में भी उकार की प्रवृत्ति सहित वर्तमान हैं।
4. ताम्रपत्र-सं. 1755 वि. (सन् 1698 ई.)
यह ताम्रपत्र हमें पूर्व चरखारी राज्य (वर्तमान हमीरपुर जिले की एक तहसील) के श्री कुंजबिहारीलाल जी गोस्वामी से प्राप्त हुआ है। इसमें महाराज छत्रसाल के द्वारा राजगुरु बरनीवर जी को वार्षिक 499 रु. चौदह आने, 41 रु. साढ़े दस आने मासिक के हिसाब से देते रहने का उल्लेगा है। ताम्रपत्र इस प्रकार है-
“श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा थी राजा छत्रसाल जू देव येते’ पं. श्री गुसाई घरनीबर जू कौं नगदी सालीना 499/-) क्रस्नार्पन पादारष माफी दई सो बरकरार हमेस माहवारी 41/- अंकन इकतालीस रुपैया साढ़े दस आना पाउत चले जायं और जो राजा होवै उनसै हमारी यही बिनती है कि ये हमारे वचन प्रमान जान कै जो बंधेज हर हमेस दये जाय मिति कार्तिक सुदी 11 सम्वत 1755 मुकाम मऊ महेबा हुक्म हजूर रूबरू प्रवानगी श्रीनाथ षवास।”
इस ताम्रपत्र की भाषा पूर्वोल्लेखित तीनों सनदों की भाषा से अधिक निखरी हुई है।
- इसमें उकार की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। इससे जान पड़ता है कि विक्रम की 18वीं शती के उत्तरार्थ में बुंदेली से इस प्रवृत्ति का लोप होना आरंभ हो गया था, यद्यपि बुंदेली के पद्म-रूप में इस काल में भी यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है।
- पूर्वोल्लेखित सनदों में अरबी-फ़ारसी के शब्दों का जिस प्रमाण में प्रयोग दिखाई देता है, उस प्रमाण में इस ताम्रपत्र में उन विदेशी शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है। यह बुंदेली-गद्य से इन शब्दों के क्रमिक निष्कासन का प्रमाण है। इस ताम्रपत्र में माफी बरकरार मुकाम हुक्म हजूर और रूबरू शब्द ही अरबी-फ़ारसी के प्रयुक्त हैं।
5. ताम्प्रपत्र-सं. 1764 वि. (सन् 1707 ई.)
यह ताम्रपत्र भी महाराज छत्रसाल कालीन ही है, जो उनके द्वारा गुसाई धरनीघर को ही दिया गया है। इसमें महाराज छत्रसाल के द्वारा उन्हें पड़वारी परगने का सतहरी मौजा देने का उल्लेख है। यह ताम्रपत्र श्री कुंजबिहारी लाल जी गोस्वामी चरखारी के पास सुरक्षित है। ताम्रपत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है –
सील
“श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा छत्रसाल जू देव येते पं. श्री गुसाई धरनीधर जू की ग्राम कस्नार्पन कर दयौ पादारष परगनै पड़वारी के मौजे सतहरी मजरने सुपा सो बरकरार बेदषल पावै वा पै जाइ सर्व सुधा माधव दिन संवत 1764″।
स्पष्ट है कि इस काल तक भी ‘ख’ के स्थान में ‘ष’ का प्रयोग प्रचलित था।
- बुंदेली में अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ‘ण’ के स्थान में ‘न’ का ही प्रयोग (क्रस्नार्पन) प्रचलित था। ‘ष’ के स्थान में ‘स’ का तथा ‘ऋ’ के स्थान में ‘र’ का ही प्रयोग होता था।
- ताम्रपत्र की अंतिम पंक्ति का ‘सर्वसुधा’ शब्द ‘सर्वदा’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है।
- इस काल तक बुंदेली-गद्य के लिखित रूप में विरामों का प्रयोग प्रचलित नहीं जान पड़ता।
- ताम्रपत्र-सं. 1771 वि. (सन् 1714 ई.)
यह ताम्रपत्र भी महाराज छत्रसाल कालीन ही है। उन्होंने इस ताम्रपत्र-द्वारा कवि प्रहलाद-दास को खटोला परगने का पनोठो नामक ग्राम प्रदान किया है। ताम्रपत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है –
गोल मुद्रा
“सनद कर दई श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा छत्रसाल।
“जू देव सरकार येते श्री कवि प्रहलाददास को पादारष देवै में आयो परगने खटोला तयी पनोठो मौजा खनगांव।
“गांव 1 सो सदा मत सांय जांय पुस्त दर पुस्त यामें जो आन प्रांत करे तो दोऊ दीन कौं तलाक प्रवानगी रोबिरो।
“ताके हुजूर श्री भैया करकट मन कार्तिक सुदी 11 संवत 1771
द. 1771
उजू दफतर “मुकाम जोर पहार
वः तः
उजू दफतर उजू दफतर
अ-
उजू दफतर जान है
स. सो मान है
उजू दफतर न मान है
सो जान है
यह ताम्रपत्र पूर्व मानपत्रों से बिलकुल भिन्न है। यह ताम्रपत्र तत्कालीन ताम्रपत्र लिखने की रीति का द्योतक है।
भाषायी विकास की दृष्टि से पूर्व ताम्रपत्र और इस ताम्रपत्र की भाषा में कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं जान पड़ता।
- वाक्य-रचना कुछ अव्यवस्थित जान पड़ती है। इससे स्पष्ट है कि यद्यपि बुंदेली का लिखित गद्य के रूप में भी प्रयोग होने लगा था, किन्तु इन लगभग 136 वर्षों (सं. 1635 से 1771 वि.) में भी इसका रूप पूर्णतः निखर न पाया था। ‘ख’ के स्थान में ‘ष’ का प्रयोग और विराम-प्रयोग का अभाव अभी भी बना हुआ था। अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग निश्चित ही कम होता जा रहा था। अब महाराज छत्रसाल कालीन एक पत्र देखिये-
6. पत्र- सं. 1783 वि. (सन् 1726 ई.)
यह पत्र महाराज छत्रसाल-द्वारा उनके पुत्र दीमान जगतराज को लिखा गया था। यहाँ यह स्मरणीय है कि उस काल में राजपुत्र को ‘महाराज-कुमार’ के अतिरिक्त ‘दीवान’ अथवा बुंदेली-उच्चारण-प्रवृत्ति के अनुसार ‘दीमान’ भी कहा और लिखा जाता था। ये राजपुत्र राजा की ओर से राज्य के विभिन्न भागों में शासन करते थे। इस पत्र में महाराज छत्रसाल ने नवाब मुहम्मद खां बंगस-द्वारा अपने राज्य पर आक्रमण की सम्भावना व्यक्त करते हुए जगतराज को उसका सामना करने के लिये युद्ध विषयक आवश्यक तैयारी करने का आदेश दिया है। पत्र इस प्रकार है-
श्रीः।
“श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा छत्रसाल जू देव येते श्री दिमान जगतराज जू देव कौ आपर हाल ईतरा हे कै नऊबाब महमदषां बंगस लड़ाई करबे को आवत है जेतपुर जाये चाहे परना को जाये रही जान परत है कै परना[1] को ना जैहै वहाँ हम पचीस तीस हजार को बंदुवस्त कर हैं जैतपुर चाहे आवै तीसे तुमको लिषी है कै बंदोवस्त खूब राषियो जो तोपैं जैतपुर में जमा हैं सो निकरवा के बाहर गाँव लगवा दीजी चारडू तरफ वा फौज सब दरेस है हम और फौज वा तोपैं पठवावत हैं वा हम जल्दी आवत हैं भादौ बदी 9 संवतु 1783 मुकाम मऊ”।
इस पत्र में हमें बुंदेली के भाषायी विकास से सम्बन्धित निम्नांकित बातें दिखाई देती हैं –
- बुंदेली का गद्य-रूप अधिक निखरा हुआ है।
- अरबी-फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग भी पूर्वापेक्षा न्यून है।
- उकार की प्रवृत्ति भी नाममात्र को ही रह गई है। इस पत्र में केवल ‘संवतु’ शब्द में ही यह प्रवृत्ति वर्तमान है।
- ओकारान्त शब्दों का ब्रज से पृथक् औकारान्त प्रयोग बुंदेली का वैशिष्ट्य है, जो इस पत्र के स्थान-स्थान में दिखाई देता है।
- इसी प्रकार एकारान्त का ऐकारान्त उच्चारण भी बुंदेली की अपनी विशेषता है। यह विशेषता भी इस पत्र में स्पष्ट है।
- ‘ख’ के स्थान में ‘ष’ का प्रयोग पूर्ववत् विद्यमान है।
7. पत्र- संवत् 1787 वि. (सन् 1730 ई.)
यह पत्र पूर्व पत्र के केवल चार वर्ष पश्चात् का है। भाषा की दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं है, पर कुछ रूपों में अन्तर अवश्य हो गया है। बुंदेली के भाषायी रूप में किस तीव्र गति से अन्तर होता जा रहा था, यही दिखाने के उद्देश्य से हम यह पत्र यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।
यह पत्र भी महाराज छत्रसाल ने उनके पुत्र जगतराज को लिखा था। इसमें उन्होंने उनसे देवगढ़ के राजा से हुए युद्ध का उल्लेख किया है। इस पत्र से यह भी जान पड़ता है कि इस समय (सं. 1787 वि.) तक वे मुगल बादशाह औरंगजेब के मित्र बने हुए थे। पत्र इस प्रकार है-
“श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा छत्रसाल जूदेव के वाचने येते श्री श्री दिवान जगतराज जू देव को आपर[1] देवगढ़ वारे राजा बड़े जबरदस्त हते और कात हते कै छत्रसाल बड़ो सूरवीर बनो फिरत है देखें हम कैसो छत्रसाल है षबर पठवाई कै हमारी तुमारी लड़ाई होवे हम अठाइस हजार फौज लैके देवगढ़ को गये खूब लड़ाई भई राजा लड़ाई से भागे हमने बनको पीछो गहो कै मिल जाये तौ बादसाह औरंगजेब के पास ले जायं कहीं न मिले हम डिल्ली को गये सब हाल कहो बादशाह बड़े खुसी भये वा देवगढ़ में बादसाह की तरफ से थानो बैठारौ असाढ़ सुदी 13 संवत् 1787 मुकाम मऊ”
सभी भाषायी रूप पूर्ववत् है, पर इस पत्र में बुंदेली का रूप पूर्वपिक्षा अधिक निखरा दिखाई देता है।
- उकार का कहीं भी प्रयोग नहीं है।
- विशेष उल्लेखनीय यह है कि इस पत्र की भाषा में हमें हकार के लोप की प्रवृत्ति का आरम्भ मिलता है। कात (कहत) तथा तुमारी (तुम्हारी) शब्द इसके प्रमाण हैं।
- ‘ख’ के स्थान में ‘ष’ का प्रयोग तथा विराम-चिन्हों का अभाव पूर्ववत् बना हुआ है।
- इस पत्र में बुंदेली तृतीय पुरुष सर्वनाम शब्द ‘उनको’ के स्थान में ‘बनको’ शब्द का प्रयोग हुआ है। वर्तमान बुंदेली में ‘बिनको’ शब्द ही प्रचलित है।
8. पत्र-सं. 1814 वि. (सन् 1757 ई.)
यह पत्र छत्रसाल-पुत्र जगतराज-द्वारा राजा हिन्दूपति (कवि रसनिधि) को लिखा गया है। इस पत्र से ऐसा जान पड़ता है कि इस समय तक बुन्देलों का बघेलों से संघर्ष आरम्भ हो गया था। पत्र में इसी प्रकार के एक संघर्ष का उल्लेख है। पत्र इस प्रकार है-
“श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा बब्बाजू साहब जगतराज जू देव येते श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा हिन्दूपत जू देव के आपर हुकम आवो कै जो बघेले नहीं मानत तो फौज लेकर जइयो हुकम माफत पचीस हजार फौज लेकर बिरसिंगपुर कौ गयो बन से किह पठवाई कै तुमैं का करने है तीपै बननै कही के मन्दर हमारौ आयो सो दे देव जो इतनी बननै कही मैंने फौज को हुकम लगावो कै मारो मय तोपन के फौज लड़बे कों गई मार कै भगा दयो चार सै सिपाही बनके मारे गये बा सवा सै सिपाही हमारे मारे गये दषल अपनो दिवालै मैं कर लवो आपके जानबे को लिषी है अगहन बदि 14 संवत् 1814 मुकाम परना”
यह पूर्व पत्र से 27 वर्ष पश्चात् का है। इसमें कोई उल्लेखनीय भाषायी परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता। सभी रूप पूर्ववत् हैं। ‘सौ’ के स्थान में ‘सै’ उच्चारण बुंदेली की सामान्य विशेषता है। ‘मन्दिर के स्थान में ‘मन्दर’ तथा ‘देवालय’ के स्थान में ‘दिवालै’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार ‘कह’ के स्थान में ‘किह’ शब्द प्रयुक्त है। यह बुंदेली की क्षेत्रीय विशेषता है।
9. सनद सं. 1819 वि. (सन् 1762 ई.)
यह सनद पन्ना-नरेश महाराज हिन्दूपत (ति) के द्वारा उनके गुरु की महाराजकुमार सिरनेत-सिंह की ओर से दक्षिणा में खरका परगने ग्राम बरेड़ा देकर उसकी तृतीयांश मालगुजारी माफ की है। यह सनद सम्बत् 1819 वि. की है। हमें दतिया-नरेशों द्वारा दी गई सनदों की भाषा-रूप विषयक विशेषताएं ज्यों की त्यों इस पन्ना-नरेश द्वारा दी गई सनद में परिलक्षित होती है। इसमें ‘ख’ के स्थान पर ‘ष’ का प्रयोग कुछ अधिक है।
गोल मोहर
“श्री महाराज हिन्दू-पत जू पन्ना
देव “
श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा हिन्दूपत देव येते पं. श्री गुसाइी गोपाल जू कौं सनद्दइी परगने षरका के मौजे बरैडा षुरद पादारष दयौ श्री महाराजकोमार श्री दिवान सिरनेतसिंह जू देव की दिछायें सोपायै षायै जाइसजल सकास्ट सत्रन सब प्रजा संहित संकलप करिदयौ सो बेदषल पाऔजाइ रकम तिहाई माफ हुकम हजूर अगहन सुदि 2 सं. 1819 मुकामु राजगढ़”
इस सनद में ‘ऐ’ के स्थान पर ‘अै’ का प्रयोग किया गया है। प्राचीन बुंदेली में अनेक स्थानों पर अे, अै, का ही नहीं, पर अु, अू का भी प्रयोग मिलता है।
10. शिलालेख सं. 1826 (सन् 1769 ई.),
बुंदेलखंड के कुछ स्थानों में बुन्देला-शासन काल के कुछ शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं, जो बुंदेली के राजभाषा होने के कारण इसी भाषा में लिखे गये हैं। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता स्वर्गीय रायबहादुर डॉ. हीरालाल ने अपनी “Inscription in C. P. and Beral” पुस्तक में अनेक शिलालेखों तथा सती-स्तम्भ-लेखों का संक्षिप्त परिचय दिया है। इनमें एक शिलालेख बुंदेलखंड से सम्बन्धित भी है। यह शिला-लेख सागर के मिशन कम्पाउण्ड में प्राप्त हुआ था। यह नागपुर के म्यूजियम में अभी भी सुरक्षित है। इसकी लंबाई साढ़े सत्रह इंच और चौड़ाई पौने सत्रह इंच है। इस पर 15 पंक्तियों में जो अभिलेख अंकित है, वह हम ज्यों का त्यों यहाँ दे रहे हैं। यह ओरछा के राजा उदेतसिंह जू देव से सम्बन्धित है। इसका ऐतिहासिक महत्व चाहे जो हो, पर हम यहाँ इसे विक्रम की 19वीं शती के प्रथम चरण की बुंदेली के रूप-दर्शन की दृष्टि से ही दे रहे हैं–
।। श्री गणेशायनमः।।
।। आपर या राह पाप की ओडछे के श्री राजा ऊदेतसिंह जू ने चलाई सु।।
।। अपुन मैं लौडिन के जाइिदा हिन्दू मुसलमान सब मिलै ऐक करे सु।।
।। श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा धनुर्धरसिंह जू देव नै।।
।। पाप की राह मिटाइि धर्म की राह बांधी ताकौ यौ करार श्राप है।।
।। आपरई जागा कौ राजा बुंदेला होइि सुं लौडिन के जाइीदा आ।।
।। पनी जाति मैं न मिलबै न पांति मैं से बैठे अरु जो कजाति लै बैठे तौऊ।।
।। बेटी बौहु अरु ऊ अपनी बैन मतारी पर काछ छोरै अउ ऊ की महाला।।
।।… टी तलाक है। आउ या राह चलाइी है सु पाप की मैटि धर्म की चलाई।।
।। है सु या बात कोऊ दूषै सु बरनसंकर है अउ जु कोऊ या नैची पांति को।।
।। पांति मै ले बैठे सु ताके पाप नराजि जाइि अरु ऊ को कुल डूबै अरु अंतक।।
।। ऊ घोर नर्क मै परै अउ कुजाति राजि के लोभ सौ यहा के भैया बंद पु।।
।। रेहत कामदार षवासिन के जाइीदा कौ राजा करै तो ऊन कौ कासी।।
।। जू मै मातागमन करे कौ दोषु लगै अरु जु कौऊ यौ बीजकु फारै सु।।
।। ऊ गाडू अउ ऊ की सत्रा पैरी पाछे की गाडू हौइि मांह सुदि 9 सं।।
।। वतु 1826 मुकामु चदैरी-
इस अभिलेख के अन्त में किसी के हस्ताक्षर नहीं है। शिलालेख का अंतिम भाग घिसा हुआ है। सम्भव है इसी स्थान में हस्ताक्षर रहे हों। इस हस्ताक्षर से एक विवाद भी खड़ा हो सकता था। सम्भवतः यही सोचकर किसी के द्वारा यह हस्ताक्षर वाला स्थान घिस दिया जान पड़ता है।
भाषा की दृष्टि से इस अभिलेख में आज से लगभग दो सौ वर्ष प्राचीन बुंदेली का रूप देखा जा सकता है। लेख उस समय के उच्चारण के अनुसार लिखा गया है। उस समय अनेक शब्दों का उच्चारण विशेषकर परसर्गों का उच्चारण विलम्बित होता था, जैसा कि इस लेख में ‘ने’ के स्थान में ‘नै’, ‘में’ के स्थान में ‘मैं’, ‘को’ के स्थान में ‘कौ’, ‘एक’ के स्थान में ‘ऐक’, ‘नीची’ के स्थान में ‘नैची’, ‘कोऊ’ के स्थान में ‘कौऊ’ तथा ‘मेटि’ के स्थान में ‘मैटि’ के प्रयोग से जान पड़ता है।
- इस अभिलेख में कुछ ऐसे शब्द भी हैं, जो उस समय बुंदेली में प्रयुक्त होते थे, किन्तु अब वे बघेली में चले गये हैं। ‘या’ के स्थान ‘जा’ और ‘वा’ के स्थान में ‘ऊ’ का प्रयोग इसी प्रकार का है।
- ‘जो’ और ‘सो’ का रूप ह्रस्व होकर ‘जु’ और ‘सु’ हो गया है। इसी प्रकार ‘और’ ‘अरु’ तथा ‘अउ’ में परिवर्तित हो गया है।
- पूर्वोल्लेखित ‘उकार’ की प्रवृत्ति इस अभिलेख में भी वर्तमान है। बीजकु, मुकामु तथा दोषु ऐसे ही रूप हैं।
- म तथा व के नीचे लघु बिन्दु का प्रयोग तथा ख के स्थान में ष पूर्ववत् ही है।
- इस शिलालेख में चन्देरी के तत्कालीन राजा धनुर्धरसिंह की प्रशंसा और ओरछा के राजा उदेतसिंह एवम् उनके वंशधरों की निन्दा की गई है।
11. पत्र-सं. 1840 वि. (सन् 1783 ई.)
यह पत्र इतिहास-प्रसिद्ध वीर बुन्देला शासक मधुकरशाह का है, जो उन्होंने राजा अनिरुद्ध-सिंह को लिखा था। इसमें राजा अनिरुद्धसिंह के नायकत्व में परना (पन्ना) की सेनाद्वारा आक्रमणकारी हिम्मत खां से युद्ध करने तथा उसके मारे जाने का उल्लेख है। पत्र इस प्रकार है-
‘श्री महाराजाधिराज थी महाराजा श्री राजा मधुकरशाह जू देव येते श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा थी राजा अनुरुपसिंह जू देव के वांचने आपर पाती आई हाल जानो हिम्मतषां मधे हमने लिषी रहै कै परना आवत है लड़वै को जो हम ना आपावें तो तुम जइयो तीपै तुमारी लिषी आई कै हुकुम माफक अपनी फौज परना पठवाइ वहाँ हिमतषां से लड़ाई भई कछु हार जो बैनीदास की सुनी सो हम षुद परना कौ गये वा फौज और ले गये हिमतषां चार लाष रुपैया मांगत हते सो नहीं दये लड़ाई भई हिमतषां मारो गयो तुम परना गयै फतै भई आप अछो करो येसई चाहिये हम बिंदराबन से आगये चित्रकूट में पर हैं सो जानबी पाँच सात रोज में परना जैहैं करतिक सुदी 2 संवत 1840 मुकाम चित्रकूट”
हमने बुंदेली का राजभाषा के रूप में विकास सं. 1635 वि. की सनद के उद्धरण के साथ आरम्भ किया था। इस पत्र का रूप प्रथम सनद के लगभग 200 वर्ष पश्चात् का है। इन दो सौ वर्षों में क्रमबद्ध होने वाला बुंदेली के गद्य-रूप का विकास इस पत्र में वर्तमान है। यद्यपि यह पत्र भी आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व का है, किन्तु पूर्व उद्धृत सनदों, ताम्रपत्रों तथा अन्य पत्रों की भाषा की तुलना में इस पत्र की भाषा पर्याप्त परिष्कृत तथा बुंदेली के आधुनिक कालीन रूप के निकट आती दिखाई देती है। ‘और’ के लिये ‘वा’ का प्रयोग तथा ‘ख’ के स्थान में ‘ष’ ही पत्र की भाषा की प्राचीनता व्यक्त करते हैं।
- अरबी-फारसी के शब्दों का उपयोग भी नाममात्र का ही है। इस सीमा तक इन विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग बुंदेली के वर्तमान रूप में भी देखा जा सकता है। इन शब्दों का प्रयोग शासकीय कार्यों तथा सेना अथवा युद्ध से सम्बन्धित बातों में ही विशेष रूप से हुआ दिखाई देता है।
इस पत्र के सम्बन्ध में हम एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं। वह यह कि इतिहासकारों ने ओरछा-नरेश महाराज मधुकरशाह का शासनकाल सं. 1611 और 1649 वि. के मध्य बतलाकर उन्हें मुगल बादशाह अकबर का समकालीन कहा हैं। उनके जीवन की कुछ घटनाएँ भी अकबर से सम्बन्धित बतलाई हैं, जबकि यह पत्र सं. 1840 वि. का है और पत्र से उनका सम्बन्ध ओरछा से नहीं पर पन्ना से जान पड़ता है। पत्र का प्राप्ति-स्थान भी पन्ना राज्य ही है। इससे ये कोई दूसरे मधुकरशाह जान पड़ते हैं। हमने भाषायी विकास की दृष्टि से ही यह पत्र यहाँ उद्धृत किया है, ऐतिहासिक तथ्य की खोज हमारा विषय नहीं है। पत्र का भाषा-रूप सं. 1840 वि. का होना ही अधिक सम्भव है। यह बुंदेली का सत्रहवीं शती का रूप नहीं हो सकता।
12. सनद-सं. 1841 वि. (सन् 1784 ई.)
निम्नांकित सनद सं. 1841 वि. की है, जो पन्ना-नरेश महाराज सिरनेतसिंह ने उनके कुमार कुँवर अपरवलसिंह को दी है। इस सनद के द्वारा उन्होंने कुँवर को पड़वारी परगने का गाँव नानकार दिया है।[1]
मुहर,
“श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा सिरनेतसिंघ जू देव की सरकार तैं सनध कर दई येते श्री महाराजकुमार श्री कुँवर अपरबल सिंघ जू देव कौ। नानकार गाव दयौ परगने पड़वारी कै मौजे 7 सो गाबु पुस्तदरपुस्त पायै जाई। कोउ कौनहू बात से मुजाहिम ना हूहै। भादौ सुदि 9 संवत 1841 मुकाम अकठौहा परवानगी रोबरो हजूर रुजू दफदर दाषल।
कुः वरजोर
रंजु दफदर दा:
13. इकरारनामा-सं. 1869 वि. (सन् 1812 ई.)
यह जैतपुर के राजा केसरीसिंह के द्वारा कम्पनी सरकार को लिखा गया एक इकरारनामा है।[1]
“आवर हम राजा केसरी सिंघ जैतपुर के ही सिरदार टेकदार मुलक बुंदेलखंड के औलाद राजा जगतराज के हैं। जब से करारनामा ताबेदारी दफे 8 का वषत मिलने वा वनगाव जैतपुर वगैरा परगने पनवारी सरकार दौलमदार कंपिनी अंगरेज बहादुर से बीच सरकार मौसफ के अपनी मोहर दसयत से दाषिल करकै ताबेदारी सरकार के दिलजान से अषत्यार करके सरकार के मुतवसिली ताबेदारी में दाषिल भये औ अब तक करारनामे के दफेन पर काइिम साबित रहि कै थोरी ना बहुत ताबेदारी व फुरवावरदारी से बाहिर नहीं भये बीच वषत इकवताकदौले मुतजैमुलक मिस्तर जान स्वारडसेन साहेव बहादुर बसालत जगे के गाबै परगने पवड़ी वगैरा का की सरकार से परवरिस मुतबे सिलनेवाजी के राह हमको मिले। साहेब मौसफनै दुसरा करारनामा तावेदारी का हमसे मांगा। सो वास्ते मबजूती ताबेदारी व फुरमावरदारी सर-कार दौलतमदार कंपिनी अंगरेज बहादुर के करारनामा 8 का साबिक के बाद दफे 3 सलके येकत्र दफे 11 मोहर दसषत अपने से सरकार मैं दाषिल करकै करार करते हैं की इस करारनामे की दफेन साबित काईम कघी ई से तफावत करै- तारीष 13 सितंबर सन् 1812 ईस्वी मुताविक भादौ सुदी 7 सं. 1869 सन् 1219 फसली”
इस इकरारनामे में हमें सं. 1635 और सं. 1869 के मध्य के लगभग दो सौ वर्षों के पश्चात् का राजभाषा बुंदेली का परिवर्तित रूप दिखाई देता है। आरम्भ में तथा उसके पश्चात् लगभग सौ वर्ष तक की बुंदेली की पूर्वोल्लेखित विशेषताएँ व और ब में विशेष अंतर न होना, व का उच्चारण ब तथा, व उच्चारण के लिये उसके नीचे नुकते का प्रयोग, इ और ई के साथ उनकी मात्राएँ, ख के लिये ष का प्रयोग और बीच-बीच में फ़ारसी के शब्द दिखाई देते हैं। इसके पश्चात् के काल में इनमें से कुछ विशेषताएँ तो ज्यों की त्यों बनी रहीं, पर ब और ख का प्रयोग भी आरम्भ हो गया तथा फ़ारसी शब्दावली का प्रयोग बढ़ गया, जैसा कि हम उपर्युक्त इकरारनामें में देखते हैं।
- इस इकरारनामे से यह भी प्रमाणित है कि बुंदेलखंड के राजा तथा उनके अधीनस्थ अधिकारी, जागीरदार, जमींदार आदि परस्पर का पत्र-व्यवहार तो बुंदेली में करते ही थे, पर वे कम्पनी सरकार को जो लिखते थे, वह भी बुंदेली में ही होता था। इस समय तक अंग्रेजी का प्रचार अधिक न हो सका थाः। इसलिये इन अंग्रेजी न जानने वालों के लिए यह स्वाभाविक ही था। दूसरे, इस समय फ़ारसी के स्थान में हिन्दी (खड़ी बोली) का प्रयोग क्रमशः बढ़ता जा रहा था। जिससे इस बुंदेली भाषी प्रदेश में भी अपने पत्र-व्यवहार में उसका रूप आता जा रहा था। उपर्युक्त इकरारनामें में मिलने, मांगा, करते हैं आदि खड़ी बोली हिन्दी के ही रूपों का प्रयोग है।
- इस इकरारनामे में सम्वत् के साथ ईस्वी सन् तथा फसली सम्वत भी लिखा गया है। इससे इस काल में इन तीनों सम्वतों का प्रचलन जान पड़ता है। तिथि के साथ तारीख भी लिखी गई है, जो अंग्रेज-कम्पनी शासन को लिखे गये इकरारनामे में स्वाभाविक है। यहाँ यह स्मरणीय है कि महाराज छत्रसाल की मृत्यु के पश्चात् बुंदेल राज्य कुछ खण्डों में विभाजित हो गया और इसके पश्चात् बुन्देलों में गृह-युद्ध भी आरम्भ हो गया, जिससे इनकी शक्ति क्रमशः क्षीण होती गई। धीरे-धीरे बुंदेलखंड पर मराठों का अधिकार हो गया और यहाँ के राजा उनके अधीनस्व राजाओं की तरह नाम मात्र के शासक रह गये। केवल ओरछा, दतिया और समथर राज्य ही अपनी स्वतंत्रता की रक्षा में समर्थ हो सके। अंग्रेजों की बढ़ती हुई शक्ति ने इन राज्यों की स्वतंत्रता भी संदिग्ध बना दी। फलतः इस राज्यों ने अंग्रेजों से संधि कर ली। इन तीनों राज्यों में से सर्वप्रथम दतिया राज्य ने सन् 1804 ई. में कम्पनी सरकार से संधि की; इसके पश्चात् अन्य दोनों राज्यों ने, किन्तु ये बहुत समय तक अपने राज्य की अन्तर्व्यवस्था में पूर्ण स्वतंत्र रहे, जबकि अन्य, राज्य के राजा कम्पनी सरकार के एजेंट मात्र रह गये।
14. पत्र- सं. 1878 वि. (सन् 1821 ई.)
- यह पत्र पन्ना राज्य के एक प्रमुख अधिकारी गजसिंह के द्वारा लिखा गया था। इसमें उन्होंने बघेलों-द्वारा किये जाने वाले उत्पातों का उल्लेख करते हुए पन्ना-नरेश का ध्यान इस उत्पातों की ओर आकर्षित किया है। पत्र से जान पड़ता है कि इस समय तक कम्पनी सरकार का आधिपत्य इस राज्य पर संरक्षित राज्य के रूप में हो गया था। पत्र इस प्रकार है-
श्री
दीनबंध पांती लिषायवे में आई कै तुमकों दो महिना हमीरपुर में परे हो गये कछु हाल मालूम नहीं होत उचहरा कोठी सुहावल के मधै का करो और तुमारी जागीर षालसै है ताको मैं ताबेदार हों जैसी मुनासिब समझी जावै सो करो जावै अरजंट साहिब से हर वक्त परगनन के मधै कहत हों हुक्म होत है कै हम तहकीकात बघेलन की कर लैबै हुकम देवगै और अरजंट साहिब सै फिर कै अरज करी हुकम दवौ कै येक चिट्ठी हम देते हैं महाराजा साहिब के पास भेजो वहाँ से जैसा हुकम आवे तुम करना मैंने विनती करी कै मोकौ कुल बातें ज्वानी महाराज से जाहिर करने है हुकम होये तो आपकी चिट्ठी लैके मैं परना को जावो और सब बातें जाहिर कर आवो और सिषापन ल्याबो हुकम भवो कै तुम मत जाव षाली चिट्ठी भेजो जैसा महाराज साहिब का हुकम हो वैसा करना तीसैं नहीं हाजिर भवो चिट्ठी अरजंट साहिब की पठवाई है जाहिर होके हुकम होवै मैं आगे तीतरा करौं वैसाष बदी 11 संवत 1878 मुकाम हमीरपुर
विनती राजधर गजसिंघ की जाहिर होय।
पत्र के भाषायी रूप में पूर्व पत्र की भाषा से कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं है। इस पत्र के बीच-बीच में खड़ी बोली के शब्द हैं, जो पोलिटिकल एजेंट (जिसे पत्र-लेखक ने ‘अरजंट साहिब’ लिखा है) के शब्द हैं।
15. पत्र-सं. 1888 वि. (सन् 1841 ई.)
यह पत्र परना (पन्ना) के राजा माधौ सिंह ने राजा हरबंसराय को लिखा था। पूर्व कहा जा चुका है कि महाराज छत्रसाल के स्वर्गवास के पश्चात् बुंदेलखंड के छोटे-छोटे अनेक राज्यों में विभाजित होने का क्रम आरम्भ हो गया था और इन छोटे-छोटे राज्यों के राजा परस्पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में व्यस्त रहे। परिणाम स्वरूप उन्हें कम्पनी सरकार का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा। इस पत्र से भी स्पष्ट है कि इस समय पन्ना, अजयगढ़ और चरखारी राज्यों के शासकों में वैमनस्य था। पत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है –
श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा माधौसिंघ जू देव येते श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा हरबंसराय जू देव के वांचने आपर पाती आई हाल जानो लिषी कै चरखारी बारन की पाती आई है के वहाँ बुड़वा मंगल[1] करनै है सो दो रोज कौ अवाई होय तो मधे[2] हमसे राय पूछी जात है कै वहाँ जाय के न जाय ताकौ जी बषत पै चरखारी वारन ने छल करौ है ऊ बषत पै ना हम हतै न आप हते सुनी लिषत हैं कै परना वा अजैगढ़ (कौ) राजा बिजैबहादुर ने अली बहादर से मिल कै बिगर आवो फिर हमारे कक्काजू कै ऊपर बनने छल करो जो हमारे करता ऐसे ना होते तो बनने अंगरेज बहादुर कै यहाँ से राज पुबवा दयो हतो हमारे करता लाला जुगराजसिंह ने कौल षायो तब राज मिलो ईतरा वनके घर की बेईमानी चली आवत है सो हम नहीं कह सकत हैं आपकी षुसी जाव चाहै न जावौ फागुन बदी 2. संवत 1869 मुकाम परना।
इस पत्र की भाषा में भी परिष्कृत बुंदेली है। बुंदेली का जो रूप वर्तमान काल में पन्ना और उसके चतुर्दिक क्षेत्र में प्रचलित है, वह इस पत्र के भाषा-रूप से भिन्न नहीं है।
16. पत्र-सं. 1914 वि. (सन् 1857 ई.)
यह सन् 1857 ई. की राज्यक्रान्ति-काल का पत्र है। यद्यपि इस भारतीय स्वतंत्रता-प्राप्ति के लक्ष्य को लेकर किये जाने वाले विद्रोह में बुंदेलखंड के झाँसी और बांदा राज्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण योग रहा; तथापि इस वीर भूमि के अन्य छोटे-छोटे राजा, जागीरदार और जमींदार भी सर्वचा मौन नहीं रहे। बुन्देले इस प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम के पूर्व सन् 1842 ई. में ही अपना जौहर दिखा चुके थे, फिर वे इस नागपुर से दिल्ली तक के विस्तृत भू-भाग में प्रज्वलित क्रान्ति-ज्वाला से दूर कैसे रहते ? शाहगढ़ के राजा बखतबली तथा बानपुर के राजा मर्दनसिंह बुंदेलखंड के विद्रोही बुन्देले राजाओं में प्रथम थे। यहाँ शाहगढ़ नरेश राजा बखतबली का वह पत्र दिया जा रहा है, जो उन्होंने सागर पर तुरन्त आक्रमण करने के लिये बानपुर के राजा मर्दनसिंह को लिखा था। यह पत्र ऐतिहासिक महत्व तो प्रतिपादित करता ही है पर बुंदेली के तत्कालीन रूप-दर्शन की दृष्टि से भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पत्र इस प्रकार है-
श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा लल्लू मर्दनसिंह बहादुर जू देव येते श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा श्री राजा बखतवली जू देव के बांचने। आपर उहां के समाचार भले चाहिये। इहां के समाचार भले हैं। आपर आने श्री श्री कुंवर उदयजीत जू देव तो आगे विदा होकर गए, सो हवास कहां हुई। रही हाल में खबरें उड़ाइत रहे के सागर तरफ के दो एक गांवन में पंना वारन के मानस बैठे हतै तोपै दो सौ तिलंगा दो तोपें आई सो उनने दो थाने काट डारे और बिनेका में पाटनवारे हते इहां की सलाह माफक तिनको बिनेका से निकार दये और गाड़ी में अनत बैठे तीकों इतनों काम भये से मन बड़ी सो दस पाँच दांगी व लोधी उनके मेलें हो गये तीसे अब पाती सागर के ऊपर घावा करवे में देर न भवी चाहिये। ई तरफ से फौज हाल पठुवाई सो बिनेका से थानेवारन को निकार दैहैं और पीछे इहां से हमारी कूच सातारा को भयो। पाती अपुन को पठवाई और कूच इहां से भयो जो बीच में दो कंपनी व साहिब मिले तिनको मारत व घैड़त हम सागर को आवत हैं। अब अपुन आवे में फेका न करवी। सागर की छावनी हमारी अपनी भेंट बखूबी हुई और जो आबे में देर हुई तो लोधी व गोंड बल पाइके अंगरेज की तरफ दन बजार भये जात तो पीछे गरई दिखान लग है। तीसें अब देरी न भये चाहिये। पाती समाचार लिखाइबी। साउन बदी 14 सोम. सं. 1914 मु. साहीगढ़।
यह बुंदेली का विक्रम की बीसवीं शती के प्रथम चरण का रूप है। हमने बुंदेली का राजभाषा के रूप में विकास दिखाने के लिये सं. 1635 वि. से सं. 1914 वि. तक के जिन प्राचीन पत्रों, सनदों, ताम्रपत्रों, शिलालेख आदि का कालक्रम से जो भाषा-रूप प्रस्तुत किया है, वे किसी एक क्षेत्र से प्राप्त नहीं है। इसमें दतिया से ओरछा-पन्ना एक और दक्षिण में शाहगढ़ (जिला सागर) तक की सामग्री है। हम यह भी देखते हैं कि इस सम्पूर्ण क्षेत्र के विभिन्न स्थानों से उपलब्ध जो शासकीय सनदें, ताम्रपत्र तथा पत्रादि हैं, उनके एक काल के भाषा-रूप में कोई अन्तर नहीं है। ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का प्रयोग, ‘ख’ के स्थान में ‘ष’, ‘प्र’ का ‘अ’ रूप, ए, ऐ संयुक्त स्वरों के स्थान में अे अै (18वीं शती तक के पत्रों में), विराम चिह्नों का अभाव सभी क्षेत्रों की सामान्य प्रवृत्ति है।
इसी प्रकार सभी क्षेत्रों के राजकीय पत्रों में अरबी-फ़ारसी के तद्भव एवम् अर्घ तत्सम शब्दों का प्रयोग (विशेषकर 18वीं शती तक के पत्रों में) भी दिखाई देता है। इन विदेशी शब्दों का प्रयोग 18वीं शती के पश्चात् क्रमशः न्यून होता गया है, जैसा कि हम उपर्युक्त पत्र सं. 11 सं. 1840 वि. तथा उसके पश्चात् के पत्रों में देखते हैं। अन्तिम पत्र सं. 16 सं. 1914 वि. में हमें हाल, सलाह, माफक, फौज तथा बखूबी शब्द ही इन भाषाओं के मिलते हैं। ये तथा इनके सिवाय अरबी-फ़ारसी के कुछ और भी ऐसे शब्द हैं, जो वर्तमानकालीन लोकभाषाओं में ही नहीं, पर सामान्य हिन्दी (बोलचाल की हिन्दी) में भी प्रयुक्त होते हैं। ये शब्द विदेशी भाषाओं के हैं, पर अब हिन्दी के अपने हो गये हैं। आजकल तो अंग्रेजी के भी न जाने कितने शब्द हिन्दी में, और अर्थतत्सम तथा तद्भव रूप में हिन्दी की विभिन्न बोलियों में भी प्रयुक्त हो रहे हैं।
उपर्युक्त अन्तिम पत्र में हमें ‘ख’ के स्थान में ‘ष’ का प्रयोग नहीं मिलता। कुछ विराम चिह्नों का भी प्रयोग वर्तमान है। पत्र सं. 14 में ‘पोलीटिकल एजेण्ट’ का द्वितीय शब्द ‘एजेण्ट’ को ग्रामीण प्रवृत्ति के अनुसार ‘अरजंट’ लिखा गया है। पत्र सं. 16 में ‘अंग्रेज’ अर्ध तत्सम-रूप में ‘अंगरेज’ हो गया है। पत्र सं. 13 (इकरारनामा) में ‘कम्पनी’ का ‘कंपिनी’ हो गया है। इसमें अरबी-फ़ारसी के शब्दों की संख्या भी अधिक है। इसका कारण यह है कि मुस्लिम शासनकाल में आवेदन पत्रों, इकरारनामों, दस्तावेजों आदि की भाषा का एक रूप बन गया था, जो 25 वर्ष पूर्व तक भी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में चलता रहा; अतः इस सं. 1869 वि. के इकरारनामे का यह रूप आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता, किन्तु अन्य राजकीय पत्रों की भाषा की यह स्थिति नहीं है।
- 19वीं और 20वीं शती के पत्रों में हमें कुछ स्थानीय शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। जाइदा, कांछ, अछो, बुड़वामंगल, कक्काजू, षबुवा, फेका आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
- 19वीं शती के कुछ पत्र ऐसे भी हैं, जिनमें अनुस्वार-चिह्न वर्षों के ऊपर न लगाकर नीचे लगाये गये हैं, ‘यथा- ल़ौड़िन (लौंड़िन), क़ाछ (कांछ), या (यां), नैची, (नैंची), ग़ाड (गांडू) (पत्र सं. 10 शिलालेख), कुवर (कुंव़र), ग़ाव (गांव) (पत्र सं. 12 सनद) आदि।
- लोकभाषा के रूप में विकास
लोकभाषा के रूप में विकास बतलाने की दृष्टि से उसकी दो विधाएँ कही जा सकती हैं- पद्य और गद्य। उसकी पद्य विधा के अन्तर्गत उसके लोकगीतों का तथा गद्य विवा के अन्तर्गत उसकी लोक-कथाओं, बुझौवलों, लोकोक्तियों और मुहावरों का स्थान है।
अ. लोकगीत
बुंदेली को लोकगीतों की अपार सम्पत्ति प्राप्त है। मानव जीवन से सम्बन्धित ऐसा कोई विषय अथवा प्रसंग नहीं, जिससे सम्बन्धित गीत इसके भण्डार में न हों। वास्तव में लोकगीतों में ही मानव-जीवन अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं को लेकर मुखरित हुआ है; इसीलिये हम इहें वास्तविक मानव-जीवनाभिव्यक्ति कहते हैं। वैसे तो लोकगीतों की परम्परा मानव के आदिम जीवन-काल से ही आरम्भ होती है, किन्तु हम यहाँ बुंदेली के जिन लोकगीतों की संक्षिप्त में चर्चा कर रहे हैं, वे बुंदेली के जीवन के इन लगभग पाँच सौ वर्षों की ही संगृहीत सम्पत्ति है। इन लोकगीतों का वर्गीकरण विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से किया है। सामान्यतः इनका वर्गीकरण धार्मिक गीत, सामाजिक गीत, सामयिक गीत, ऐतिहासिक गीत तथा जीवन-गीतों में किया जा सकता है।
बुंदेली के धार्मिक गीतों के अन्तर्गत, भजन, भगतें, भोला के गीत तथा उपवास-व्रत, नौरता, तीर्थ-यात्रादि से सम्बन्धित गीत हैं।
सामाजिक गीतों में सोहर, संस्कार-गीत, त्यौहार-गीत, ऋतु-गीत, प्रेम-गीत, होली-गीत आदि का स्थान है।
सामयिक गीत पूर्व निर्मित बहुत कम होते हैं। वे सामयिक प्रसंग, घटना विशिष्ट, स्थिति, सामयिक परिवर्तन आदि के अनुसार निर्मित होकर लोकवाणी से निस्सरित होते दिखाई देते हैं।
बुंदेलखंड सदैव से ऐतिहासिक परम्परा का प्रदेश रहा है। इसमें अनेक राजा हुये, अनेक छोटे-बड़े राज्य हुये और इस प्रकार यह उन राजाओं और वीरों की भूमि रहा है, जिन्होंने इतिहास का निर्माण किया है। यही कारण है कि बुंदेली लोकगीतों का एक भाग ऐतिहासिक गीतों और वीरगाथाओं से ही पूर्ण ह
इसी प्रकार विविध त्यौहारों और ऋतुओं से सम्बन्धित गीतों की संख्या भी कम नहीं है। प्रेम गीतों का तो बुंदेली-गीत-साहित्य में एक विशाल सरोबर ही लहराता दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि बुंदेलखंड के नर-नारियों में रसिकता की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। उनकी इसी प्रवृत्ति ने उनके प्रेम और रसिकता से पूर्ण जीवन को इन गीतों में उतारा है।
‘जीवन-गीत’ से हमारा तात्पर्य उन गीतों से है, जिन्हें कृषक और श्रमिक स्त्री-पुरुष अपना कार्य करते हुये गाते और उन गीतों के माधुर्य में अपनी थकावट भूल जाते हैं।
बुंदेली में ‘फाग-साहित्य’ का भी बड़ा महत्व है। इस प्रदेश का फाग-साहित्य कृष्ण की लीला-भूमि ब्रजमण्डल के फाग-साहित्य से कहीं अधिक उत्कृष्ट और विस्तृत है। ‘ईसुरी की फागें’ न केवल बुंदेली की, वरन हिन्दी के समस्त काव्य-साहित्य की महान मूल्यवान निधि है। कवि ईसुरी के गीतों की तुलना कबीर, सूर और मीरा के गीतों से की जा सकती है। वे भाव-सौन्दर्य और काव्य-सौन्दर्य दोनों दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। ईसुरी की फागें, होली के अवसर पर गाई जाने वाली केवल फागें नहीं हैं, उनमें जीवन की विभिन्न अनुभूतियों एवं अध्यात्म और दर्शन की सूक्ष्म भावनाओं का भी समावेश है। यदि कवीर और कुछ दूसरे निर्गुण सम्प्रदायी कवियों की रचनाएँ हिन्दी-काव्य-साहित्य के अन्तर्गत स्थान पा सकती है, तो ये ईसुरी की फागें भी इसकी अधिकारिणी हैं।
बुंदेली के अनेक गीत ऐसे भी हैं, जिनमें काव्योत्कृष्टता की न्यूनता नहीं है। ऐसे गीत निश्चित ही हिन्दी के ‘गीति काव्य-साहित्य’ के अन्तर्गत स्थान पाने के अधिकारी हैं।
बुंदेली में अनेक प्रकार के नृत्य-गीत’ भी प्रचलित हैं। इनमें दिवारी गीत, सेरा नृत्य-गीत, राई नृत्य-गीत, होली नृत्यगीत, अटारी नृत्य गीत, बधावा नृत्य-गीत, विवाह नृत्य-गीत, बेड़नी-नृत्य-गीत, जोगिया नृत्य-गीत आदि उल्लेखनीय हैं। इन गीतों के रूप में बुंदेली का जो विकास हुआ है, वह निश्चित ही अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
आ. लोककथाएँ
हिन्दी की अन्य बोलियों की तरह बुंदेली में भी धर्म एवम् उपवास-व्रतादि से सम्बन्धित कथाएँ, पशु-पक्षियों से सम्बन्धित कहानियाँ, जादू की कहानियों, परियों और अप्सराओं से सम्बन्धित कहा-नियाँ, साधू-फकीरों से सम्बन्धित कहानियाँ, कल्पित राजा-रानियों और राजकुमारों की कहानियाँ, ऐतिहासिक कहानियाँ, नीति और सिद्धान्तों पर प्रकाश डालने वाली कहानियाँ, एवम् मानव-जीवन के सुख-दुःख तथा विविध समस्याओं पर आधारित कहानियाँ हैं। इन लोककथाओं में हमें अश्लीलता का अभाव, मानव-प्रवृत्तियों का स्वाभाविक चित्रण, जातिगत स्वाभाविक राग-द्वेष, सत्य की विजय, बुरे काम का बुरा फल, परोपकार के महत्व का प्रतिपादन, मंगल कामना (विशेष रूप से धार्मिक एवम् उपवासव्रतादि की कहानियों में), भाग्यवाद का समर्थन, अलौकिकता पर विश्वास, अन्ध-परम्पराओं का समर्थन तथा नीतितत्त्वों का समावेश मिलता है। अधिकांश कहानियाँ मुखान्त हैं।
इ. लोकोक्तियाँ और मुहावरे
अधिकांश लोकोक्तियों और मुहावरे भाषा-रूप से अन्तर के साथ वे ही हैं, जो हिन्दी और उसकी अन्य बोलियों में प्रचलित हैं, किन्तु बुंदेली में ऐसी लोकोक्तियों और मुहावरों की मी न्यूनता नहीं है, जो उसके अपने हैं। ऐसी लोकोक्तियों में स्वास्थ्य और कृषि सम्बन्धी लोकोक्तियाँ विशेष रूप से उल्ले खनीय है। स्थानाभाव से यहाँ केवल उदाहरणार्थ कुछ लोकोक्तियाँ दी जा रही हैं-
स्वास्थ्य विषयक
बासी भात, तिवासी माठा, औ ककरी की बतिया।
आधी रात जुड़ावनि आबे, भुंइ लेबो की खटिया।।
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क्वांर करेला, चैता गुड़, भादों मूली खाय।
पैसा जावे गाँठ का, रोगी हो परजाय।
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खा के मूतै, सूतै बाउं।
काहेक वैद बसावें गाऊँ।
कृषि विषयक
सावन सोये ससुर घर, भादौ खाये पूवा।
खेत-खेत में पूछत डोलत, तोरे केतिक हूवा।।
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उत्तम खेती जो हर गहा,
मध्यम खेती जो संग रहा।
जो पूछै हरवाहा कहाँ ?
बीज बूड़िगै तिनके तहाँ।
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बांधि कुवारी खुरपी हाय,
लाठी हँसिया राखै साथ।
काटै घाँस औ खेत निरावै,
सो पूरा किसान कहलावै।।
बुंदेली में मौलिक मुहावरों की भी न्यूनता नहीं है। अपने खों मारके छायरैं डारनो, अकरे की विषाई, अनगाँव खेती, बनगाँव वंज, अनबियौ निनको घी बाँटत, अड़को ऊँट लगी, अरे दरे खों गुपआ नौजा आदि इसी प्रकार के मुहावरे हैं।
ई. बुझौबल
इस लोकभाषा में अनुवादित बुझौवलें तो हैं ही, पर मौलिक बुझौवलों की भी न्यूनता नहीं है। उदाहरणार्थ ये बुझौवलें देखिये –
घेला भर राई, सबरे घर फैलाई (तारे)
- झिलमिल कुआँ रतन की बारी। ना जाने तो दैहों गारी। (नेत्र)
- एक खेत में ऐसो भओ। नीचे बगुलो ऊपर सूओ। (मूला)
- एक रुख में पथरा ई पथरा। (कैंथ का वृक्ष)
- एक लुगाई आताताई, आयी रातै बिटिया जाई।
- भोर को तारौ हीट न पाओ, बिटिया ने एक लरका जाओ।। (चमेली)