खंड-1 बुंदेलखंड और बुंदेली
May 29, 2025खंड-3 बुंदेली का उद्भव और विकास
June 2, 2025बुंदेली व्याकरण
श्रीमती रमा जैन
1. वर्णमाला, ध्वनियों का वर्गीकरण और उच्चारण
- . वर्णविचार – व्याकरण के उस भाग को कहा है जिसमें वर्णों के आकार, भेद, उच्चारण, तथा उनके मेल से शब्द बनाने के नियमों का निरूपण होता है
- वर्ण- उस मूल ध्वनि को माना गया है जिसके खण्ड न हो सकें, जैसे अ, इ, क् ख् आदि। ये ही मूल ध्वनियाँ वर्णं कहलाती हैं।
- वर्णों के समुदाय को ‘वर्णमाला’ कहते हैं। बुंदेली की अपनी पूर्व प्रचलित तथा वर्तमान में प्रचलित वर्णमाला है। वर्णों के दो भेद होते हैं- स्वर और व्यंजन।
- स्वर उन वर्णों को कहते हैं जिनका उच्चारण स्वतन्त्रता से होता है और जो व्यंजनों के उच्चारण में पूर्णतः सहायक होते हैं; जैसे-अ, इ, उ, ए इत्यादि।
- व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते।
- बुंदेली वर्णमाला ‘ऊँ नमः सिद्धम्’ की मंगल ध्वनि के उच्चारण पूर्वक बालकों को पढ़ाना प्रारम्भ की जाती है, यही कारण है कि “ओ ना मा सी धं” बुंदेली वर्णमाला का एक अभिन्न अंग सा बन गया है।
- बुंदेली हिन्दी की प्रधान शाखा है अतः जिस प्रकार हिन्दी ‘देवनागरी’ वर्णमाला में लिखी जाती है उसी प्रकार बुंदेली भी देवनागरी में लिखी जाती है। हिन्दी में प्रचलित कुल 44 अक्षरों में 11 स्वर तथा 33 व्यंजन होते हैं। बुंदेली में इनके विन्यास के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इन्हें संस्कृत के आधार पर प्रस्तुत करते हैं और कुछ हिन्दी को भी आधार न मानकर अपने-अपने अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं। इन दोनों स्थितियों में से मध्यम मार्ग का अनुसरण करने वाले विद्वज्जन का कथन है कि वास्तव में स्वर और व्यंजनों की कमी बुंदेली में नहीं है। फिर भी जिनको जहाँ कमी का अनुभव होता है उसका एक मात्र कारण यही संभव है कि स्वरों का वह निश्चित उच्चारण न हो जो संस्कृत या हिन्दी में होता है। स्वर ज्यों के त्यों हैं परन्तु उनका उच्चारण कुछ ह्रस्वीकरण के साथ है। जैसे ‘ऐ’ के निमित्त ए और ऐ के बीच को ध्वनि, अथवा ‘औ’ के निमित्त ओ और औ के बीच की ध्वनि के प्रयोग को समझा जा सकता है। बुंदेली में ये दोनों स्वर नवीन रूप से विकसित माने जाते हैं परन्तु इनके प्रस्तुतीकरण के लिये जबतक कोई नया लिपि चिह्न स्वीकार नहीं किया जाता तब तक इनको विशिष्ट ‘ऐ’ और विशिष्ट ‘औ’ कहे जाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इसी प्रकार की व्यवस्था ‘ङ’ ‘ञ’ आदि व्यंजन वर्षों के सम्बन्ध में भी स्वीकार की जाना आवश्यक है। ‘ण’ अनुनासिक का प्रयोग बुंदेली में ‘न’ के द्वारा होता है। कङ्गीर और कंगीर में ‘ङ’ की तथा पञ्च्यात और पंचायत में ‘अ’ के प्रयोग अपने ह्रस्वीकरण की प्रवृत्ति को सूचित करते हैं। अब आधुनिक शिक्षा प्राप्त जन बुंदेली में ‘श’ का प्रयोग करने लगे हैं परन्तु पहले और अब भी विशुद्ध बुंदेली में इसका प्रयोग नहीं होता। ‘ष’ का भी प्रयोग होता है परन्तु उसका उच्चारण ‘ख’ होता है। जैसे ‘भाषा’ को ‘भाखा’ पढ़ा जाता है। ‘षट् रस’ को ‘खट् रस’ और ‘षडानन’ को ‘खडानन’ कहा जाता है। प्राचीन पाण्डुलिपियों में ‘देखौ’ के स्थान पर ‘देषौ’ का प्रयोग अपनी प्राचीन परम्परा को सूचित करता है। ‘क्ष’ के बदले ‘छ’ और ‘ज्ञ’ के स्थान पर ‘ग्यं’ के प्रयोग बुंदेली की वर्णमाला में अपना स्थान बनाये हुए हैं।
- “स्वर 16, व्यंजन 36”, की कहावत बालकों को रटाई जाती थी और उसका पाठ उनको जिस प्रकार पढ़ाया जाता था उसके परिज्ञान के लिये बुंदेलखंड में पूर्व प्रचलित बुंदेली के ध्वनि तत्त्वों की प्रणाली का विश्लेषण आवश्यक है-
बुंदेलखंड में पूर्व प्रचलित बुंदेली ध्वनितत्त्व – वर्णमाला
बुंदेली रूप शुद्ध संस्कृत रूप हिन्दी रूप
ओ ना मा सी धं ऊँ नमः सिद्धम् सिद्धभगवान को नमस्कार हो
स्वर -अ आ इ ई उ ऊ अ आ इ ई उ ऊ अ आ इ ई उ ऊ
रे रें ले लें (रिर् रिरी, लिर् लिरी) ऋ ऋ लृ लृ ऋ ऋ लृ लृ
ये़ यै़ ओओ (आ ऊ) ए ऐ ओ औ अं अः ए ऐ ओ औ अं अः
अं अः (अंगाहा)
व्यंजन – क ख ग घं न क ख ग घ ङ क ख ग घ ङ
च छ ज झं न च छ ज झ ञ च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढं न ट ठ ड ढ ण ट ठ ड ढ ण
त थ द धं न त थ द ध न त थ द ध न
प फ ब भं म प फ ब भ म प फ ब भ म
ज र ल व़ य र ल व य र ल व
सं खे स ह श ष स ह श ष स ह
लं छे ह क्ष त्र ज्ञ क्ष त्र ज्ञ
ध्वनियों का वर्गीकरण और उच्चारण
- बुंदेलखंड में पूर्व प्रचलित ध्वनि समूह का विश्लेषण करने से स्वर तथा व्यंजन ध्वनियों के सम्बन्ध में निम्न निष्कर्ष निकलते हैं-
(क) स्वर ध्वनियाँ
- अ आ इ ई उ ऊ रे रें ले लें ये. यै. ओ औ ये 14 स्वर है।
- अं यह अनुस्वार है।
- अः यह विसर्ग है।
हिन्दी में अनुस्वार और विसर्ग व्यंजन माने गये हैं परन्तु बुंदेली में इनको ‘अ’ स्वर की सहायता से उच्चरित होने के कारण स्वर माना जाता है और इनको भी उक्त 14 स्वरों के साथ जोड़कर कुल 16 स्वर माने जाते हैं।
विशेष विश्लेषण
- 1ऋ के उच्चारण के लिये रे (रिर्) ऋृ के उच्चारण के लिये रैं (रिरी) और लृ लृृ के उच्चारण के लिये ले लें (लिर् और लिरी) बोला जाता है।
- ए ऐ को ये़ य़ै के रूप में लिखा जाता है।
- अनुस्वार तथा : विसर्ग के उच्चारण की सुविधा को ध्यान में रखकर ‘अं’ तथा ‘अः’ लिखा जाता है। परन्तु इनका उच्चारण ‘अं’ (ं) अनुस्वार के साथ अः (:) विसर्ग को भी मिलाकर अं, अः’ (अंगाहा) करके किया जाता है जिससे ‘अं’, ‘अः’ एकाएक परिकल्पना कर सकना कठिन होता है।
(ख) व्यंजन–घ्वनियाँ
व्यंजन दो प्रकार के होते हैं- समान और संयुक्त। समान व्यंजन अकेले-अकेले आते हैं जबकि संयुक्त व्यंजन मिले हुए, जुड़े हुए होते हैं।
क् ख् ग् घ् आदि हलन्त अकेले अकेले होने से समान व्यंजन हैं जबकि इनमें अ की मात्रा मिला देने पर ये क ख ग घ आदि संयुक्त व्यंजन कहे जावेंगे।
समस्त वर्गीकृत व्यंजन ध्वनियाँ इस प्रकार हैं-
स्पर्श वर्ण- 1. क ख ग घं न (कवर्ग)
- 2. च छ ज झं न (चवर्ग)
- 3. ट ठ ड ढं न (टवर्ग)
- 4. त थ द धं न (तवर्ग)
- 5. प फ ब भं म (पवर्ग)
अन्तस्थ वर्ण – ज र ल व
ऊष्म वर्ण- सं खे स ह
इन व्यंजनों में उच्चारण की सुगमता के लिये ‘अ’ मिला दिया गया है।
विशेष विश्लेषण
- घ को इस तरह लिखते हैं। झ भी इस तरह लिखा जाता है।
- ढ को ढ़ के रूप में लिखते हैं और ध को आज के घ की तरह।
- य को य़ लिखते हैं पर उच्चारण ‘ज’ करते हैं। जैसे जमुना, जम।
व को ब लिखते हैं।
- ष को ख कहा जाता है जैसे- भाषा-भाखा, षट्-रस-खट्-रस।
- हा दीर्घ बोला जाता है पर ह्रस्व और दीर्घ दोनों तरह से प्रयोग में आता है।
- लं छे हा’ ‘क्ष त्र ज्ञ’ के अपभ्रष्ट स्थानापन्न प्रतीत होते हैं।
स्वर तथा व्यंजन लिपि
- लिखित भाषा में मूल ध्वनियों के लिये जो चिह्न मान लिये गये हैं, वे भी वर्ण कहलाते हैं; परन्तु जिस रूप में ये लिखे जाते हैं, उसे लिपि कहते हैं। हिन्दी की तरह बुंदेली भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है अतः जो लेखन प्रकार हिन्दी के लिये प्रचलित है, वही बुंदेली के लिये भी उपयुक्त होने से प्रचलित है। लेखन प्रकार में जहाँ कहीं विशेषता है उसका उल्लेख यथास्थान कर दिया गया है।
- व्यंजनों के उच्चारण की विशेषता
व्यंजनों में ड़ का उच्चारण र के रूप में परिणत हो जाता है। जैसे- पड़ो—परो, दौड़ कें — दौर कें।
हकीगत—हकीकत में ग, क। स्वर मध्यग ह प्रायः लुप्त हो जाता है। जैसे कहो-कई, रहन, (हि0 रहना) रन, कहावे लायक-कुआवे लाक, पहिरा देओ-पैरा दयो। जब ‘आ’ के बाद ‘ह’ आता है तब उसके बाद का ‘ह’ ‘उ’ में परिणत हो जाता है। जैसे- ‘चाहत’ से ‘चाउत’। आदि में स्थित ‘य’ ‘ज’ में में परिणत हो जाता है; जैसे- यमुना-जमना, यमराज – जमराज, यश- जस।
वर्तमान बुंदेली के ध्वनितत्व – वर्णमाला
- बुंदेली में अधिकांश ध्वनियाँ प्राचीन इण्डो आर्यनभाषा समुदाय से ली गई है। परन्तु कुछ ध्वनियाँ ऐसी हैं जो अर्वाचीन इण्डो आर्यन युग में विकसित हुई हैं। बुंदेली ध्वनियों की योजना नीचे दी जाती है।
वे बुंदेली ध्वनियाँ जो प्राचीन इण्डो आर्यन और मध्य इण्डोआर्यन काल में प्रचलित थीं-
स्वर- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ,
व्यंजन- क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
स ह
नवीन विकसित ध्वनियाँ
स्वर – (1) ऐ का उच्चारण ‘ए’ और ‘ऐ’ के बीच होता है, (2) औ का उच्चारण ‘ओ’ और ‘ओ’ के बीच होता है।
व्यंजन- ड़, ढ़, ब, न्ह, म्ह,
बुंदेली ‘व’ बहुत ही कोमल ध्वनि है। इसको ओंठ हिलाये बिना उच्चारण किया जाता है। ओंठों को केवल गोलाकार किया जाता है जैसा कि सीटी बजाते समय किया जाता है। अंग्रेजी में इसकी निकटतम ध्वनि Water का W है, और one का O है। इस ध्वनि का हिन्दी में जितना प्रयोग होता है उतना बुंदेली में नहीं। वास्तव में ‘व’ या पुराना ओष्ठ्य ‘व’ बुंदेली जैसी कुछ भाषाओं को छोड़कर हिन्दी की सभी बोलियों में लुप्त हो गया है। (नोट-सूक्ष्मता के साथ यदि कहा जाय तो कहना पड़ेगा कि पाणिनिकाल में ‘व’ घोष, दन्त्योष्ठ्य, महाप्राण था, अंग्रेजी V की तरह) विदेशी ध्वनियाँ क़ ख़ ग़ ज़ फ़ जो कि फारसी और अरबी तत्सम शब्दों में पाई जाती हैं हिन्दी में तो व्यवहृत होती है, बुंदेली में नहीं। अँगरेजी ध्वनियाँ जैसे Pot का ऑ साहित्यिक हिन्दी में तो व्यवहृत होता है परन्तु बुंदेली में व्यवहृत नहीं होता। सारी विदेशी ध्वनियाँ हिन्दी में विदेशी शब्दों के माध्यम से आई हैं और इसलिए उनका उपयोग केवल शहर के शिक्षित लोग करते हैं। संस्कृत ‘ऋ’ और ‘ण’ बुंदेली में ‘रि’ और ‘न’ के रूप में अवशिष्ट हैं। उदाहरण के लिये ऋषि-रिसि, (साधु) ऋण – रिन (कर्ज) बुंदेली में संस्कृत तत्सम शब्दों में पाये जाने वाले संस्कृत के तालव्य और मूर्धन्य ‘श’ एवं ‘ष’ बुंदेली में दन्त्य ‘स’ के रूप में लिखे जाते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत ‘कष्ट’ बुंदेली ‘कस्ट’, संस्कृत ‘शक्ति’ बुंदेली ‘सक्ति’।
(1) जिन स्वरों की उत्पत्ति किसी दूसरे स्वरों से नहीं है उन्हें मूल-स्वर (ह्रस्व-स्वर) कहते हैं। बुंदेली में वे तीन हैं-अ, इ, उ।
(2) मूल स्वरों से बने हुए स्वर सन्धि-स्वर कहलाते हैं; जैसे बुंदेली में आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ और औ 7 स्वर हैं।
सन्धि स्वरों के दो उपभेद भी हैं जिन्हें (1) दीर्घ स्वर और (2) संयुक्त स्वर कहा जाता है।
(1) किसी एक मूल स्वर में उसी मूल स्वर के मिलाने से जो स्वर उत्पन्न होता है उसे दीर्घ स्वर कहते हैं; जैसे- अ+ अ = आ इ+ इ = ई, उ + उ = ऊ अतः आ, ई, और ऊ दीर्घ स्वर हैं।
(2) भिन्न-भिन्न स्वरों के मेल से जो स्वर उत्पन्न होते हैं उन्हें संयुक्त स्वर कहते हैं; जैसे-अ +इ= ए. अ + उ = ओ, आ + ए = ऐ, अ+ओ=औ।
ह्रस्व तथा दीर्घ मूल स्वरों के प्रायः समस्त संभव संयुक्त रूप भी बुंदेली में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-
(क) ऋ के स्थान पर ‘रि’ लिखा जाता है जैसे रिन (ऋण) रितु (ऋतु) किरपा (कृपा) पिरथवी या प्रिथिवी (पृथ्वी) अमरित (अमृत) आदि रूपों में पाया जाता है। कहीं-कहीं तो केवल ‘इ’ ही प्रयुक्त होती है, जैसे किसन (कृष्ण), घिना (घृणा), तिन (तृण), तिसना (तृष्णा), दिड़ (दृढ़), दिस्टि (दृष्टि)।
(ख) सामान्यतया ऐ (अए) औ (अऔ) के उच्चारणों के समान उच्चारण ध्वनि की समस्या जो ब्रजभाषा में है वह बुंदेली में नहीं है। क्योंकि यहाँ एकारान्त तथा ओकारान्त ही क्रमशः ऐकारान्त और औकारान्त के लिए प्रयुक्त होते हैं। जैसे ‘रहै’ को ‘रहे’ ‘गरौ’ को ‘गरो’ आदि। विशिष्ट ‘ऐ’ और ‘औ’ के नवीन विकास मान भी लिये गये हैं परन्तु अभी उनके लिए लिपि चिह्न सुनिश्चित नहीं हुए हैं।
- 1मात्रा काल की दृष्टि से स्वरों के दो भेद– ‘ह्रस्व’ और ‘दीर्घ’ होते हैं। यद्यपि ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के उच्चारण का काल पूर्णतः निर्धारित या सुनिश्चित नहीं है परन्तु साधारणतया ह्रस्व की अपेक्षा दीर्घ स्वर के उच्चारण में दो गुना समय लगता है ऐसी मान्यता है। परन्तु ऐसा होता ही है, ऐसा नहीं माना जा सकता। क्योंकि उच्चारण के प्रकार एक से या एक ही रूप में होंगे, ऐसा संभव नहीं है। ह्रस्व या लघु अर्थात् छोटा और दीर्घ या गुरु अर्थात् बड़ा। बुंदेली में दोनों ही प्रकार के स्वर हैं।
- 1जाति के अनुसार स्वरों के दो भेद हैं– (1) सवर्ण और (2) असवर्ण। समान स्थान और प्रयत्न से उत्पन्न होने वाले स्वर सवर्ण कहे जाते हैं और इसके विपरीत उत्पन्न होने वाले स्वर असवर्ण माने जाते हैं। बुंदेली के ‘अ’ और ‘आ’, ‘इ’ और ‘ई’ तथा ‘उ’ और ‘ऊ’ परस्पर में सवर्ण हैं। इसके विप रीत ‘अ’ और ‘ई’, ‘अ’ और ‘उ’ अथवा ‘इ’ और ‘ऊ’ असवर्ण हैं।
- उच्चारण के अनुसार स्वरों के वो भेद हैं– (1) सानुनासिक और (2) निरनुनासिक।
यदि मुँह से पूरा-पूरा श्वास निकाला जाय तो शुद्ध-निरनुनासिक-ध्वनि निकलती है। परन्तु यदि श्वास का कुछ भी अंश नाक से निकाला जाय तो अनुनासिक ध्वनि निकलती है। अनुनासिक स्वर का चिह्न (ँ) चन्द्रबिन्दु कहलाता है; जैसे गाँव, ऊँचा। स्मरण रहे कि अनुस्वार और अनुनासिक व्यंजनों के समान चन्द्रबिन्दु कोई स्वतन्त्र वर्ण नहीं है; वह केवल अनुनासिक स्वर का चिह्न है।
अनुनासिक स्वर
- 1बुंदेली के आधुनिक स्वरों के उदाहरण अनुनासिक रूप में भी पाये जाते हैं। जैसे-हँसत, तहाँ, सिगार, गुसाईं, कबहूँ आदि। लगभग सभी स्वरों की नासिक्य ध्वनि के साथ अनुस्वार अथवा अनुनासिक (चन्द्रबिन्दु) ँ लगता है, जैसे- अंग, इंच, उँगरिया, आँख, ईंट, ऊँट आदि।
नासिक्य चिह्न के बिना अनेक शब्दों के अर्थ में अन्तर (अर्थभेद) हो जाता है। जैसे-
कटीली (काटों वाली) झाड़ी और कँटीली (काटने वाली तीखी) नजर
भाग (हिस्सा) और भाँग (एक विशिष्ट नशीला पेय-पदार्थ)
आदी (आधी) और आँदी (आँधी)
रग और रंग
बगला और बँगला
इसलिये जहाँ नासिक्य चिन्ह का उपयोग आवश्यक है वहाँ उसका उपयोग अनिवार्य रूप में किया जाना चाहिये। नहीं, सें, में, उन्हीं, कहीं और क्यों के बदले यदि नहीं, मै, मे, उन्ही, कही और क्यो लिखा जायगा तो नासिक्य चिन्ह के बिना ये अपूर्ण एवं अशोभन प्रतीत होंगे। परन्तु नासिक्य चिह्नोंके प्रयोग के समय अनुस्वार और अनुनासिक ँ (चन्द्र बिन्दु) के अन्तर को ध्यान में रखना बहुत ही आवश्यक है अन्यथा यहाँ भी अर्थभेद के कारण अर्थ से अनर्थ की संभावना को टालना कठिन होगा। उदाहरण के लिये हँसमुखी और हंसमुखी शब्दों के अर्थभेद को देखिये, हँसमुखी का अर्थ है- प्रसन्नमुख वाली महिला और हंसमुखी का अर्थ है- हंस पक्षी के से मुखवाली महिला।
लिखाई में जिन अक्षरों पर स्वर की मात्रा सिर पर आ जाती है, उनमें चन्द्रविन्दु ँ न लगाकर अनुस्वार 0 लगाते हैं। पूर्ण शुद्धता तो इसी में होती कि उन पर चन्द्रविन्दु रहता किन्तु यहाँ छपाई में कठिनाई होती है।
‘लड़कियाँ, हूँ, मैं चन्द्रबिन्दु ठीक हैं, मैं, नहीं, गौं, में भी होना तो चाहिये किन्तु वही स्थान मात्रा ने घेर लिया है।
अनुनासिक (नासिक्य) या निरनुनासिक स्वर और व्यंजन
उक्त कथन के आधार पर स्पष्ट है कि स्वर तो नासिक्य होते हैं, नासिक्य या अनुनासिक व्यंजन भी होते हैं, कारण कि उच्चारण प्रक्रिया दोनों के लिये समान हैं। हिन्दी की अपेक्षा बुंदेली अधिक नासिक्यीकरण से युक्त है। शरीर के विभिन्न अंगों के नाम ही देखिये हांत (हाथ), पांव (पैर), पींठ (पीठ), घूँटौ (घुटना), घिँची (गर्दन), मूँड (सिर), ऊँठा (अँगुठा), उँगरियां (अंगुलियां), जाँघ (जंघा), नाँक (नाक), काँन (कान), मूँछ (मूछ) आदि।
- पहले अनुस्वार तथा अनुनासिक के कारण अर्थभेद स्पष्ट किया गया था। अब निरनुनासिक और अनुनासिक के आधार पर शब्दों के अर्थभेद भी देखिये –
निरनुनासिक अनुनासिक
बाट (रास्ता) और बाँट (तौलने के किलोग्राम आदि)
सास और साँस
बास और बाँस
मौड़ी (एक) और मौंडीं (बहुत सीं)
दी (एक वचन) और ‘दीं’ बहुवचन
- व्याकरण के अनुसार पांचों वर्गों के 5 अन्तिम अक्षर- ङ् ञ् ण् न् म् नासिक्य या अनुनासिक हैं। भाषा विज्ञानीजन न्ह, म्ह, को भी नासिक्य (अनुनासिक) मानते हैं। परन्तु उन्हीं के मत में बुंदेली में ध्वनिग्रामीय स्तर पर ठहरने वाली नासिक्य ध्वनियाँ तीन ही हैं- अनुनासिक स्वर, न् तथा म्।
मात्राओं के रूप में स्वरों का प्रयोग
- व्यंजन के साथ लगने वाले स्वर के रूप को ‘मात्रा’ कहते हैं। अ की मात्रा व्यंजन में मिल जाती है। शेष स्वरों की मात्राएँ इस प्रकार लिखी जाती है-
मूल स्वर- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः
स्वरों की मात्राएँ- ा ि ी ु ू े ै ो ौ ं :
और बुंदेलखंड के बालकों के मुँह से नाम सुनिये –
मिनकिन या छोटा (ह्रस्व) अ की मात्रा
कानों या बड़ा। (दीर्घ) आ की मात्रा,
पिच्छों ि (पीछे की ओर) इ की मात्रा,
अग्गों ी (आगे की ओर) ई की मात्रा,
लातुर ु उ की मात्रा,
गुड़ान ू ऊ की मात्रा,
कहीं कहीं ऋ बुंदेली में लिखी भर जाती है, बोली नहीं जाती।
इकमत े ए की मात्रा,
दो मत ै ऐ की मात्रा,
कन मत ो ओ की मात्रा,
दो मात कानो ौ औ की मात्रा,
मस्ते ं अनुस्वार की मात्रा,
द्वासी : विसर्ग की मात्रा,
अब मात्राओं को ‘क्’ व्यंजन के साथ मिलाकर भी देखिये ‘क’ की बारह खड़ी तैयार हो जायगी –
क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः
इनका उच्चारण इस प्रकार किया जाता है-
मिन किन ‘क’
कानों का
पिच्छों कि
अग्गों की
लातुर कु
गुड़ान कू
इकमत के
दो मत कै
कनमत को
दो मात कानों कौ
मस्ते कं
द्वासी क:
कभी-कभी क का, कि की, कु और कू का उच्चारण कक्का, किक्की, कुक्कू, के युग्म या जोड़े बना कर भी किया जाता है।
इसी प्रकार ‘ख’ यादि अन्य व्यंजनों के साथ मात्राओं के रूप में स्वरों का संयोग कर सम्पूर्णं खरीं (बारह खड़ियां) तैयार की जाती हैं और छोटे-छोटे बालक उनका सस्वर पाठ करते हैं।
स्वरों के उच्चारण की विशेषता
- जब ‘ए’ तथा ‘ओ’ ह्रस्व रूप में उच्चरित होते हैं तब वे क्रमशः ‘इ’ तथा ‘उ’ में परिणत हो जाते हैं। जैसे-बेटी-बिटिया, घोरो-घुरवा। इसी प्रकार ‘ऐ’ तथा ‘औ’ क्रमशः ‘ए’ तथा ‘ओ’ में परिणत हो जाते हैं। जैसे-कैहों-केहों, जैहों-जेहों, और-ओर। अ के स्थान पर बुंदेली में कभी-कभी इ भी व्यवहृत होता है। जैसे-बरोबर-बिरोबर।
स्वर ध्वनियों की उच्चारण स्थिति
- हिन्दी और उसकी समस्त बोलियों की ध्वनियाँ देवनागरी लिपि द्वारा व्यक्त की जाती हैं किन्तु बोलियों की अपनी कुछ उच्चारण सम्बन्धी विशेषताएँ होती हैं। तदनुसार उच्चारण विधि को ध्यान में रखते हुये बुंदेली की दस भिन्न स्वर ध्वनियों को निम्न प्रकार भाषा वैज्ञानिकों ने व्यवस्थित किया है–
(क) कण्ठ्य– अ, आ, का उच्चारण स्थान कण्ठ (गला) है।
(ख) तालव्य– इ, ई, का उच्चारण स्थान तालु है।
(ग) ओष्ठ्य– उ, ऊ, का उच्चारण स्थान ओंठ हैं।
(घ) कण्ठ्य तालव्य – ए, ऐ, का उचारण स्थान कण्ठ और तालु हैं।
(ङ) कण्ठ्योष्ठ्य ओ, औ, का उच्चारण स्थान कण्ठ और ओंठ हैं।
विशेष
(क) “अ” स्वर–ध्वनि का अपूर्ण उच्चारण
(1) हिन्दी की तरह बुंदेली के भी अन्त्य “अ” का उच्चारण कहीं-कहीं हल् या अपूर्ण सा होता है, जैसे गुन (गुण) रात, धन आदि में।
(2) तीन अक्षरों के शब्दों के अन्त में यदि दीर्घ स्वर हो और दूसरा अक्षर अकारान्त हो तो उसका उच्चारण अपूर्ण होता है, जैसे बकरा, कपड़े, करबौ, (करना) बोलबौ (बोलना) तानबौ (तानना) इत्यादि।
(3) चार अक्षरों के ह्रस्व स्वरान्त शब्दों में यदि दूसरा अक्षर अकारान्त हो तो उसके “अ” का उच्चारण अपूर्ण होता है। जैसे गड़बड़, देवधन आदि।
(4) चार अक्षरों के शब्दों के अन्त में दीर्घ स्वर हो तो तीसरे अक्षर के “अ” का उच्चारण अपूर्ण होता है। जैसे- समजबौ (समझना) निकरबौ (निकलना) आदि।
(5) यौगिक शब्दों में मूल अवयव के अन्त्य “अ” का उच्चारण आधा (अपूर्ण) होता है जैसे-अन्न-दाता, देव-धन, सुर-लोक, मन-मोहन, लरक-पन, आदि।
(ख) “अ” स्वर–ध्वनि का पूर्ण उच्चारण
(1) यदि अकारान्त शब्द का अन्तिम अक्षर संयुक्त हो तो अन्त्य “अ” का उच्चारण पूर्ण होता है। जैसे सत्य, इन्द्र आदि।
(2) इ, ई, ऊ के आगे “य” हो तो अन्त्य “अ” का पूर्ण उच्चारण होता है, जैसे- प्रिय, सीय, राजसूय आदि।
(3) एक अक्षर के अकारान्त शब्दों के अन्त्य “अ” का उच्चारण पूर्ण होता है, जैसे- न, व, र आदि।
(4) कविता में अन्त्य “अ” का उच्चारण पूर्ण होता है, जैसे- “समाचार जब लछमन पाये“
परन्तु जब इस वर्ण पर यति (विराम) की स्थिति होती है तब इसका उच्चारण बहुधा अपूर्ण होता है, जैसे-
“कुन्द इन्दु सम देह, उमा–रमन करुना अयन !”
(5) चार अक्षरों के ह्रस्व स्वरान्त शब्दों में यदि दूसरा अक्षर संयुक्त हो अथवा पहला अक्षर कोई उपसर्ग हो तो दूसरे अक्षर के “अ” का उच्चारण पूर्ण होता है, जैसे पुत्र लाभ, आचरन आदि।
(ग) ‘ऐ‘ और ‘औं‘ का विशिष्ट उच्चारण–
जबकि पूर्व प्रचलित बुंदेली की समस्त वर्णमाला हिन्दी की तरह ही संस्कृत वर्णमाला के समान है तब उसकी उच्चारण स्थिति भी सामान्यतया उसी प्रकार की होना स्वाभाविक है। कुछ लोगों ने ऐसा माना भी है परन्तु भाषा वैज्ञानिकों द्वारा सूक्ष्म निरीक्षण और प्रायोगिक परीक्षणों के पश्चात् अपना सुनिश्चित मत स्थापित किया जाता है अतः स्वर संख्या, उच्चारण स्थिति आदि के सम्बन्ध में उनके मतों का समादर भी आवश्यक है।
नवीन रूप से विकसित बुंदेली की दो विशिष्ट स्वरध्वनियों ‘ऐ’ और ‘औ’ के उच्चारण के सम्बन्ध में पहले (क्रमांक 12) कह आये हैं। इन दोनों विशिष्ट स्वरध्वनियों के उच्चारण के सम्बन्ध में डॉ. जायसवाल का मत मूलतः पर्यालोचनीय है।
स्वरों का वर्गीकरण
प्रस्तुत चित्र में प्रो. डेनियल जोन्स की प्रधान स्वर (Cardinal vowels) विषयक मान्यता के आधार पर स्पष्ट किया गया है कि बुंदेली के पूर्वोक्त 10 स्वरों में से 4 अग्रस्वर (ई, इ, ए, ऐ,) 5 पश्च-स्वर (ऊ, उ, ओ, औ, आ) तथा 1 मध्य-स्वर (अ) है। अग्र (Front) पश्च (Back) और मध्य (Central) के ये भेद जीभ की सक्रियता- कि कौन सा भाग किस स्वर के उच्चारण के लिये उठता है- इस बात को ध्यान में रखकर किया गया है। इन 10 स्वरों को पुनः संवृत (Close) अर्धसंवृत (Half-close) अर्ध-विवृत (Half-open) और विवृत (Open) के रूप में विभक्त करके प्रदर्शित किया गया है। स्वरों के उच्चारण में मुँह के खुले एवं बन्द रहने की स्थिति को ध्यान में रखकर उक्त प्रभेद किये गये हैं। स्वरों के वर्गीकरण के प्रमुख आधारों के वर्णन में इन पर प्रमुख रूप से विचार किया जा रहा है-
स्वरों के वर्गीकरण के प्रमुख आधार
(1) जीभ का कौनसा भाग उच्चारण के लिये उठता है ?
इस बात को ध्यान में रखकर देखा जाय तो बुंदेली के स्वरों का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप में होगा-
(क) अग्र–स्वर (Front Vowel) ई, इ, ए, ऐ, जीभ का अगला भाग थोड़ा सा उठता है।
(ख) पश्च–स्वर (Back Vowcl) ऊ, उ, ओ, औ, आ, जीभ का पिछला भाग थोड़ा सा उठता है।
(ग) मध्य–स्वर (Central Vowel) आ, जीभ का मध्य भाग थोड़ा सा उठता है।
(2) जीभ का व्यवहृत भाग कितना उठता है ?
इस विचार से उच्चारण के समय मुँह के खुले होने की स्थिति को ध्यान में रख कर देखा जाय तो बुंदेली स्वरों का वर्गीकरण निम्न प्रकार होगा-
(क) सम्वृत (Close) ई, इ, ऊ, उ, इनके उच्चारण में जीभ का विशिष्ट भाग बहुत उठा होता है अर्थात् जीभ तालु के निकट पहुँच जाने से मुख-विवर अत्यन्त सकरा हो जाता है।
(ख) अर्धसम्वृत (Half-Close) ए, ओ, इनके उच्चारण में जीभ नीचे की ओर कुछ सरकी हुई होती है जिससे मुँह पहले की अपेक्षा कुछ अधिक खुल जाता है।
(ग) अर्ध–विवृत (Half Open) ऐ, औ, इनके उच्चारण में जीभ और नीचे चली जाती है जिससे मुँह अर्ध-संवृत की अपेक्षा और भी अधिक खुल जाता है। (प्रो. डेनियल जोन्स इन दोनों स्वरों को प्रधान नहीं मानते)
36 परिनिष्ठित बुंदेली का व्याकरणिक अध्ययन
(घ) विवृत (Open) आ, इसके उच्चारण में जीभ बिलकुल नीचे चली जाती है जिससे मुँह अधिक से अधिक खुला रहता है।
(3) ओंठों की स्थिति
स्वरों का स्वरूप निर्धारण ओंठों की स्थिति पर भी निर्भर करता है। ओंठों की अनेक प्रकार की स्थितियों में से दो प्रमुख हैं- वृत्ताकार या गोलाकार और अवृत्ताकार या अगोलाकार। जिन स्वरों के उच्चारण में ओंठ गोल होकर आगे की ओर बढ़ते हैं वे वृत्ताकार कहे जाते हैं। जैसे उ, ऊ, ओ, औ। जिन स्वरों के उच्चारण में ओंठ फैले रहते हैं वे अवृत्ताकार कहे जाते हैं, जैसे इ, ई, ए, ऐ, अ, आ।
(4) मात्रा
पहले (क्रमांक 14) मात्रा काल की दृष्टि से स्वरों के दो भेद – ह्रस्व और दीर्घ बताये गये हैं। चूंकि स्वरों का स्वरूप मात्रा पर निर्भर करता है अतः सूक्ष्म दृष्टि से मात्रा के आधार पर स्वरों के और भी अनेक भेद या वर्ग संभावित हैं किन्तु भाषा वैज्ञानिकों ने प्रमुख चार भेद ही माने हैं। (1) ह्रस्वार्ध (उदासीन-स्वर “अॅ”) (2) ह्रस्व (अ) (3) दीर्घ (आ) और (4) प्लुत (ओऽम्)3
(5) कोमल तालु और कौवे (अलि जिह्व Uvula) की स्थिति
पहले (क्रमांक 16) उच्चारण के अनुसार स्वरों के दो भेद अनुनासिक और निरनुनासिक बताये जा चुके हैं। विशेष ज्ञातव्य यह है कि अनुनासिक स्वरों के भी दो भेद होते हैं (1) पूर्ण अनुनासिक, जैसे ‘हाँ’ का “आँ” और (2) अपूर्ण अनुनासिक, जैसे ‘राम’ का “आ”।अनुनासिक विषयक इस सूक्ष्म ज्ञान के पूर्व अनुस्वार (ं) और अनुनासिक (ँ) के उच्चारणगत स्वरूप और प्रयोगों के अन्तर को भली-भाँति समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि लिपि में इन दोनों का वैकल्पिक प्रयोग प्रचलन में होने से बहुधा अनुनासिक के बदले अनुस्वार का ही उपयोग किया जाता है जब कि इनका स्वरूप अलग-अलग है। अनुस्वार दूसरे स्वरों अथवा व्यंजनों के समान एक अलग तीव्र ध्वनि है जब कि अनुनासिक एक धीमी ध्वनि है। परन्तु दोनों के उच्चारण के लिये पूर्व-वर्ती स्वर की आवश्यकता होती है। जैसे रंग, रँग, कंवल, कुँवर, हंस, हँसी आदि। इनके उच्चारण में जो अन्तर है उसके सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है (क्रमांक 18)। ध्यान रखना आवश्यक है कि अनुस्वार के उच्चारण में श्वास केवल नाक से निकलता है, पर अनुनासिक के उच्चारण में वह मुख और नासिका से एक ही साथ निकल जाता है। संस्कृत और हिन्दी के जो शब्द बुंदेली में प्रयुक्त होते हैं उनके अनुस्वार सम्बन्धी प्रयोगों को भी स्पष्ट रूप से जानने के लिये श्री कामता प्रसाद गुरु का मत पर्यालोचनीय है।[3]
(6) स्वर तन्त्रियों की स्थिति
बुंदेली के सभी स्वरों के उच्चारण के लिये स्वर तन्त्रियों के बीच से आती हुई हवा, उनके एक दूसरे के समीप आ जाने के कारण, घर्षण करती हुई निकलती है जिससे स्वर तन्त्रियों में कम्पन होता है अतः ये स्वर “सघोष” (Voiced) कहलाते हैं।
(7) शिथिलता और दृढ़ता की स्थिति
मुँह की मांसपेशियां तथा अंग आदि कभी-कभी तो कड़े होते हैं, और कभी शिथिल। इस आधार पर भी स्वरों को शिथिल (Lax) और दृढ़ (Tense) के भेदों में वर्गीकृत किया जा सकता है। भाषा वैज्ञानिकों ने अ, इ, उ, को शिथिल और ई, ऊ, को दृढ़ माना है। ए, आदि कुछ ध्वनियाँ दोनों के मध्य में मानी जा सकती हैं।
इस प्रकार स्वरों का वर्गीकरण प्रमुखतः उक्त आधारों पर किया जा सकता है। इनमें प्रथम तीन आधार अधिक महत्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ को भी आधार मानकर भाषा वैज्ञानिकों ने स्वरों का संक्षिप्त वर्गीकरणात्मक परिचय दिया है।डॉ. जायसवाल के अनुसार 2 (अ) अर्ध-विवृत, मध्य स्वर है। (आ) विवृत पश्चस्वर है। (इ) संवृत, अग्र, ह्रस्व स्वर है। (ई) संवृत अग्र स्वर है। (उ) तथा (ऊ) संवृत, पश्च-स्वर हैं। (ए) संवृत, अग्र दीर्घ स्वर है। (ऐ) (विशिष्ट) अर्ध विवृत, अग्र, दीर्घ-स्वर है। (ओ) अर्धसंवृत, पश्च, दीर्घ स्वर है। (औ) भी अर्थ-संवृत, पश्च, दीर्घ स्वर है। (औं) (विशिष्ट) अर्धसंवृत, पश्च, दीर्घ स्वर है।
डॉ. अग्रवाल का मत इससे कुछ भिन्न है। उनके मत में (ए) अर्ध-संवृत, अग्र, दीर्घ-स्वर है। (ऐ) अर्ध-विवृत, अग्र स्वर, एवं (औ) अर्ध-विवृत, पश्च स्वर हैं। डॉ. जायसवाल द्वारा स्वीकृत नवीन रूप से विकसित दो विशिष्ट स्वर ध्वनियाँ ‘ऐ’ तथा ‘औ’ इन्होंने स्वीकृत नहीं की है।
व्यंजनों का उच्चारण स्थान और वर्गीकरण
- व्यंजन-ध्वनियों का वर्गीकरण स्वर ध्वनियों के वर्गीकरण की तरह नहीं होता। इनके वर्गीकरण में इनके उच्चारण स्थान और आभ्यंतर एवं बाह्य प्रयत्नों को आधार माना है।
मुख के जिस भाग से जिस अक्षर का उच्चारण होता है, उसे उस अक्षर का उच्चारण स्थान कहते हैं।
व्यंजनों के वर्गीकरण के प्रमुख आधार
(1) व्यजंनों के वर्गीकरण का मुख्य आधार वह उच्चारण स्थान है जहाँ पर किसी व्यजंन के उच्चारण में ध्वनि अवयव (ओंठ, जीभ आदि) मिलते हैं।
कण्ठ्य (Velar)
हिन्दी के क, ख, ग, घ, ङ (कवर्ग) का उच्चारण स्थान कण्ठ है, जहाँ जीभ का पिछला भाग छूता है। अतः इन्हें कण्ठ्य व्यंजन कहते हैं। परन्तु बुंदेली के व्यंजन वस्तुतः कण्ठ से थोड़ा ऊपर कोमल तालु से बोले जाते हैं।
तालव्य (Palatal)
च, छ, ज, झ, न (चवर्ग) और य का उच्चारण तालु से होता है जहाँ जीभ का अगला भाग ऊपर उठ कर छूता है। अतः इन्हें तालव्य व्यजंन कहते हैं।
मूर्धन्य (Retroflex)
ट, ठ, ड, ढ, ण (टवर्ग) और ड़ एवं ढ़ का उच्चारण स्थान मूर्धा (तालु का-मध्य कठोर भाग) है, जहाँ जीभ की नोंक छूती है अतः ये मूर्धन्य हैं।
दन्त्य (Dental)
त, थ, द, ध, न (तवर्ग) के प्रारंभिक 4 व्यजंनों का उच्चारण स्थान ऊपर के दाँत हैं, जहाँ जीभ की नोंक स्पर्श करती है। इन्हें दन्त्य व्यजंन कहते हैं।
वर्त्स्य (Alveolum, Teeth-ridge)
स, न, न्ह, र, र््ह, ल, ल्ह थोड़ा और आगे बोले जाते हैं जिसे मसूड़ा या वर्त्स कहते हैं। इन्हें वर्त्स्य व्यजंन कहते हैं।
दन्त्योष्ठ्य (Labio-dental)
व का उच्चारण स्थान दाँत और ओंठ हैं। इसके उच्चारण में नीचे का ओंठ ऊपर के दांतों से सहयोग करता है अतः इसे दन्त्योष्ठ्य कहते हैं।
द्वयोष्ठ्य (Labio)
प, फ, ब, भ, म (पवर्ग) और म्ह का उच्चारण स्थान ओंठ हैं अतः इन्हें ओष्ठ्य या द्वयोष्ठ्य व्यंजन कहते हैं।
(2) व्यंजनों के वर्गीकरण का दूसरा आधार है प्रयत्न
प्रयत्न अर्थात् (क) श्वास का कार्य (ख) श्वास की मात्रा, और (ग) स्वर-तन्त्रियों की स्थिति।
(क) श्वास के कार्य का आधार
स्पर्श (Stops, Mute, explosive)
ऊपर पाँच वर्गों के अन्तर्गत जो 25 व्यंजन गिनाये गये हैं, उनमें श्वास का जीभ या ओंठों से स्पर्श होता है, थोड़े से अवरोध के उपरान्त स्फोट होता है और श्वास बाहर निकल जाता है। इसलिये इन 25 व्यंजनों की स्पर्श कहते हैं। इन्हीं को स्फोटात्मक ध्वनियाँ भी कहते हैं।
18. अनुस्वार और अनुनासिक में उच्चारणगत अन्तर है। डॉ. बाहरी के अनुसार जब अनुनासिकता केवल व्यंजनों में होती है तब अनुस्वार या अनुनासिक चिन्ह नहीं लगता; जैसे- कण्व, तुम्हारा, उन्हें। जब अनुनासिकता व्यंजन और स्वर दोनों में होती है तब विकल्प से अनुस्वार चिह्न लगाया जाता है, जैसे- संत, पंप, अंक, संबंध, इंजन और सन्त, पम्प, अङ्क, सम्बन्ध और इञ्जन। किन्तु जब अनुनासिकता केवल स्वर में रहती है, तो अनुनासिक चिह्न चन्द्रविन्दु (ँ) लगता है। या यों कहा जाय कि चन्द्रविन्दु वाले अक्षर में केवल स्वर सानुनासिक होता है। यह अनुनासिकता कम होती है, पूर्ण से आधी इसीलिये ऐसे शब्दों के उच्चारण में बलाघात नहीं पड़ता। उदाहरण कुँवर, चँवर, छँटाई, अँधेरा, गँवार, पँचमेल, भँवरा, मँडराना, हँसना, और सँवारना। इनमें ऐसा लगता है, मानो हम अनुनासिकता नहीं ला रहे हैं।
त्पत्ति के अनुसार स्वरों के दो भेद होते हैं– (1) मूलस्वर और (2) सन्धि-स्वर।
उक्त प्रकार से विभिन्न उच्चारण स्थानों से उच्चरित होने वाले स्वरों का वर्गीकरण भी पूर्वोक्त भेद-प्रभेदों (क्रमांक 13 से 16) के तारतम्य में कुछ प्रमुख आधारों को और स्पष्ट करते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है-
स्पर्श-संघर्षी (Affricate)
इनमें भी च, छ, ज, झ, के उच्चारण में श्वास कुछ घर्षण के साथ निकलता है अतः इन्हें ‘स्पर्श–संघर्षी‘ कहा जाता है।
ऊष्म या संघर्षी (Fricative, Spirant)
स, ह, ‘ऊष्म‘ ध्वनियाँ हैं क्योंकि इनके उच्चारण में वायु घर्षण के साथ निकलती है तो गरम हो जाती है। इन्हें “संघर्षी” ध्वनियाँ भी कहते हैं।
नासिक्य (Nasal)
ङ, ञ, ण, न, न्ह, म और म्ह के उच्चारण में श्वास नासिका से भी निकलता है इसलिये इन्हें नासिक्य व्यंजन कहते हैं।
लुण्ठित (Rolled)
र, र््ह, का उच्चारण करने में श्वास जीभ से टकरा कर लुढ़कता सा लगता है, इसलिये इन्हें लुण्ठित व्यंजन कहते हैं।
उत्क्षिप्त (Flapped)
ड़, ढ़ के उच्चारण में वायु जीभ से टकरा कर वापस आती है और फिर बाहर निकलती है अतः इन्हें “उत्क्षिप्त” या “द्विस्पृष्ट” व्यंजन कहते हैं।
पार्श्विक (Lateral)
ल, ल्ह के उच्चारण में श्वास जीभ के पार्श्व से (दोनों पक्षों से) निकल जाता है अतः इन्हें “पार्श्विक” व्यंजन कहते हैं।
अर्धस्वर (Semi-Vowel)
य, व के उच्चारण में स्पर्श इतना अल्प और क्षणिक होता है कि ये दोनों स्वर से प्रतीत होते हैं अतः इन्हें “अर्ध–स्वर” या “ईषत् स्पृष्ट” व्यंजन कहते हैं। इनकी स्थिति स्वर और व्यंजन के बीच में है अतः इनको “अन्त:स्थ” भी कहते हैं।
(ख) श्वास की मात्रा का आधार
जिन व्यंजनों के उच्चारण में अल्प-प्राण अक्षरों की अपेक्षा श्वास की मात्रा अधिक रूप में उपयोग में आये, उन्हें महा-प्राण (Aspirated) ध्वनियाँ कहते हैं। प्राण का अर्थ है श्वास। वर्गों के दूसरे और चौथे व्यंजन अर्थात् ख, छ, ठ, थ, फ, और घ, झ ढ, ध, भ, तथा स एवं ह, महा-प्राण ध्वनियाँ हैं। इसके अतिरिक्त न्ह, म्ह, ल्ह, र््ह, ढ़, भी इन्हीं में गिनाये जाते हैं। शेष सब व्यंजन क, ग, ङ, च, ज, ञ, ट, ड, ण, त, द, न, प, ब, म, और अन्तस्थ य, र, ल, व, अल्प-प्राण (Unaspirated) ध्वनियाँ हैं इनके अतिरिक्त ड़ भी अल्प-प्राण ध्वनि है।
अल्प-प्राण और महा-प्राण ध्वनियों वाले युग्म शब्दों को देख कर अर्थ भेद को समझा जा सकता है; जैसे-
- 1काट और खाट, 6. तान और थान,
- काना और खाना, 7. दान और धान,
- चल और छल, 8. पाठक और फाटक,
- जड़बौ और झड़बौ, 9. सात और साथ,
- टान और ठान, 10. हट और हठ,
(ग) स्वर तन्त्रियों की स्थिति
बुंदेली व्यंजन ध्वनियों में से कुछ ध्वनियों के उच्चारण में जब वायु गले के तंग मार्ग से निकलती है तो भीतर की तन्त्रियों में कम्पन होता है और वायु तरंग के साथ बाहर निकलती है। इस तरंग को ‘नाद’ या ‘घोष’ कहते हैं और ऐसी ध्वनियों को ‘सघोष‘ (Voiced) कहते हैं। व्यंजनों में वर्ग के तीसरे, चौथे, पाँचवें (अर्थात् ग, घ, ङ, च, झ, ञ, ड, ड़, ढ, ढ़ ण, द, ध, न, ब, भ, म) और ईषत् स्पृष्ट या अन्त:स्थ य, र, ल, व, तथा ह, ये 22 व्यंजन सघोष हैं। शेष वर्ग के पहले और दूसरे (क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ), और ऊष्म व्यंजन (स, तथा विसर्ग) ये 14 व्यंजन अघोष (Voiceless) हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि “अघोष महा-प्राण ध्वनियों के साथ अघोष ‘ह’ का ही उच्चारण संभव है परन्तु अन्यत्र घोष ‘ह’ का ही उच्चारण होगा। क्योंकि इनके उच्चारण में स्वर तन्त्रियाँ झंकृत होती रहती हैं जबकि एक त्रिकोणीय द्वार से वायु संघर्ष करती हुई गुजरती है’।”
व्यजनों का वर्गीकरण
प्रयत्न प्राण | स्पर्श | स्पर्श संघर्षी | संघर्षी | नासिक्य | लुण्ठित | उत्क्षिप्त | पार्श्विक | अर्धस्वर | ||||||||||||
अघोष | सघोष | अघोष | संघोष | अघोष | सघोष | सघोष | सघोष | सघोष | सघोष | |||||||||||
अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | अल्प | महा | |
स्थान |
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कण्ठ्य |
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| ह* |
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कोमलतालु | क | ख | ग | घ |
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| ङ |
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तालु |
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| च | छ | ज | झ |
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| ज |
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| य |
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कठोर तालु | ट | ठ | ड | ढ |
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| ण |
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| ड़ | ढ़ |
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वर्त्स्य |
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| स | न | न्ह | र | र् ह |
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| ल | ल्ह |
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दन्त्य | त | थ | द | घ |
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दन्त्योष्ठ्य |
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| व |
द्वयोष्ठ्य | प | फ | ब | भ |
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| म | म्ह |
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* सघोष ध्वनियों के साथ ‘ह’ सघोष होगा।
2. स्वराघात
1. शब्दों के उच्चारण में शब्दों पर जोर (धक्का) लगता है उसे ‘स्वराघात’ कहते हैं।
2. बुंदेली में स्वराघात अनियमित है, प्रत्येक अक्षर पर समय-समय पर बदलता रहता है। इसके अतिरिक्त, जहाँ तक दीर्घ स्वरों के सम्बन्ध में स्वराघात की समस्या है, यह निर्णय करना कठिन है कि यहाँ वस्तुतः स्वराघात ही है या सामान्यतया जोर ही दिया जा रहा है? कुल मिलाकर बुंदेली में स्वराघात के नियम हिन्दी तथा उसकी अन्य बोलियों के स्वराघात विषयक नियमों के समान ही हैं। स्व. पं. कामताप्रसाद गुरु कृत ‘हिन्दी व्याकरण’ के चतुर्थ अध्याय में निरूपित स्वराघात विषयक नियमों में से अधिकांश नियम (क्रमांक 56) बुंदेली के स्वराघात सम्बन्धी नियमों के समान हैं। भाषा वैज्ञानिकों ने इस विषय पर अपने शोध ग्रन्थों में विस्तृत चर्चा भी की है।
स्वर-संघात या बलाघात के कारण अनेकार्थक शब्दों के विभिन्न अर्थों का अन्तर भी ज्ञात हो जाता है, जैसे- लिये (ग्रहण किये) और लिये (के लिये) की (क्रिया की) और की (उसकी)।
एक शब्द में वर्णों की संख्या के कारण भी स्वर संघात में परिवर्तन होता है। संयुक्ताक्षर में कोई बलाघात नहीं होता जबतक कि वे एक वाक्य में प्रयुक्त न हों। दो, तीन अथवा चार वर्षों के शब्दों में अन्तिम या उपान्त्य वर्ण पर बलाघात पड़ता है। परन्तु तभी; जब कि वे एक दूसरे की अपेक्षा अधिक दीर्घतर उच्चारण की स्थिति वाले हों; जैसे-दो वर्णों का–भाव, तीन वर्णों का-मटका, देखवौ, सकारें। चार वर्णों का सिरहानों, बरसाती, पिछवारौ,
डॉ. भण्डारकर ने भाषा विषयक अपने व्याख्यानों में कुछ उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि बलाघात के कारण वर्ण (Syllable) विलम्बित (Lengthened) हो जाते हैं और अन्तिम स्वर लुप्त हो जाता है, जैसे- पद्धति, पद्धत, कीर्ति, कीरत, राशि-रास, मधु-मध आदि।’
बुन्देली के व्यंजनों का ध्वनि वैज्ञानिक अध्ययन
आचार्य-दुर्गाचरण शुक्ल
बुन्देली के व्यंजनों की ध्वनियों का अध्ययन प्रस्तुत करने के लिये बुन्देली के भाषा शास्त्रीय अध्ययन, शब्दावलियों तथा स्वयं अपने और आस पास के क्षेत्र के सूचकों द्वारा एकत्र शब्दों को विश्लेषण का आधार बनाया गया है। प्रमुख बुंदेली क्षेत्रों में टीकमगढ़, झाँसी, निवाड़ी, उरई, विरगुवां वृजुर्ग (कोंच), पचोखरा, सागर, हरपालपुर, महोबा तक के शब्दों के आधार पर किये गये विश्लेषण से प्राप्त तथ्य इस प्रकार हैं:-
- बुन्देलो व्यंजन के रूप में साधु-हिन्दी की श, ष, ऊष्म ध्वनियों तथ. क्ष और सिद्ध ध्वनियों को छोड़ कर शेष सम्पूर्ण ध्वनियाँ पूर्ण शुद्धता के साथ व्यवहारित होती हैं।
- ढ़ की ध्वनि बहुत थोड़े क्षेत्रों में रह गई है।
- य और व शिथिल हैं।
- र और ल दोनों ध्वनियाँ समान स्तर पर हैं।
- र को ध्वनियाँ र, रेफ और रकार, कंठ्य मूर्धन्य, और वत्स्यें ध्वनियाँ बुन्देली में अब भो जीवित हैं। जो उसकी प्राचीनता को उद्घोषित करती हैं।
- नासिक्यों में ण की ध्वनि ने ड़ का रूप में घारणकर लिया है।
- शुद्ध अनुस्वार अपने शुद्ध रूप में ग्रामवासी गड़रियों और घोसों के स्वरों में घोषित होता रहता है। जबकि साधु हिन्दी में इसका सर्वथा अभाव है।
- ल्ह की वैदिक ध्वनि ग्राम के अंचल में अभी भी प्रयुक्त होती है।
- बुन्देली की मूर्धन्य ध्वनियों में जिव्हाग्र की स्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण है परन्तु इसके अलावा प्रयत्न सम्बन्धी अन्य तथ्यों के विषय में विना सैक्ट्राग्राफ के कुछ भी निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता।
श्रावृत्ति (Frequency), तीव्रता (Intesity (और, काल (Period) की बात स्पेक्ट्रों ग्राफ के विश्लेषण के बाद ही कही जा सकती है।
- बुन्देली को मूर्धन्य ध्वनियों को स्थान और प्रयत्न दोनों के सम्मिलित लक्षणों के द्वारा ही परिभाषित किया सकता है।
- जिस प्रकार बुन्देली में इ, उ, और औ, अत्यन्त महत्वपूर्ण स्वर हैं इ-5) उ-6, ौ -5 संस्वन है) उसो प्रकार व्यंजनों में सबसे महत्वपूर्ण व्यंजन हैप् म् और न्।
- बुन्देलो में फ और ज़ को विदेशी घ्त्रनियां अभी भी फ और ज के रूप में उच्चारत होती हैं।
- बुन्देली में अघोष और सघोष महाप्राण व्यंजनों की प्रकृति एकदम समान है उनमें मात्र घोषत्व का ही अन्तर है।
- पीटर लैन्ड फालेट के अनुसार घ, झ, ठ, ध, भ, में महाप्र णत्व नहीं है। परन्तु बुन्देली व्यंजनों के अध्ययन से यह बात बिलकुन सिद्ध नहीं होती।
- (निबन्ध में अनुनासिकता की समस्या पर विचार नहीं किया गया है।)
- निष्कर्ष क्रमांक 4, 5, 7, 8 विषय से दूर एक अन्य सम्भावित परिणाम की और इंगित करते हैं, वह हैं भाषा काल निर्धारण प्रणाली।
भोजन, आखेट, वस्त्र, अस्त्र शस्त्र आदि को द्योषित करने वाली शब्दावली मिली है जिसके आधार परः ऐसा लगता है कि बुन्देली को व्यंजन ध्वनियों में आर्यों खशों, और इनके पूर्व की जातियों एवं मुन्डा जाति द्वारा दो हुई ध्वनियां सम्मिलित हैं। विश्लेषण करने पर निश्चित ही इन ध्वनियों का काल ईसा से 6000 वर्ष पूर्व के आसपास पहुँचेगा।
व्यंजन, वि + अञ्ज धोतु : –
अंज्ज का अथ है; अंग या तत्व। तत्वे त्वद्धाजजसायम् (अमरकोश) व्यंजन अर्थात विशिष्ट अंग अथवा विशिष्ट तत्व जहाँ स्वर पूर्ण रूप से स्फुट ध्वनियाँ हैं, स्वर ध्वनिया हैं, वहाँ व्यंजन अंग सी अंश ध्वनियां हैं, अस्फट ध्वनियां है। विशिष्टम अस्थितम् यवित अज्जनम् स्पर्शम यस्य एषाम् तत तानि व्यंजनं व्यंजनानि वा। व्यंजन वे हैं जिनमें क्षणिक स्पर्ण होता है। ऊष्माणों में स्थिति स्पर्श स्पपर्शों में क्षणिक स्पर्श और अन्तस्थों में ईषत स्पर्श। आधुनिक परिभाषा के अनुसार व्यजन वे ध्वनियां हैं जिनके उच्चारण में वायु सबाध बाहर निकलती है। फेफडे से बाहर जाने वाली बायु को भाषण के अवयवों के माध्यम से किसी न किसी स्थान पर अवरोध का सामना करना पड़ता है जिससे उस स्थान विशेष से सम्बश्वित व्यंजन ध्वनि अवरोध के हटने पर उच्चारत होती है
प्रातिशाख्यों के इस देश में जन्मे विद्वानों के पश्चिमाभिमुख होने के कारण ध्वनियों के वर्गीकरण में काफी प्रान्तियां रहीं हैं वे घोष और अघोष को नादवान घ्वनियाँ कहते हैं। (आधुनिक हिन्दी व्याकरण पृष्ट 7 पर डा0 कैलाशचन्द्र अग्रवाल लिखते हैं, इस कम्पन से जो नाद यानी घोष जिस ध्वनि को प्राप्त होता है उसे घोष या सधोष ध्वनि कहते हैं। इसी प्रकार डा0 विश्वनाथ प्रसाद भारतीय साहित्य अप्रैल 1656 में लिखते हैं कि भारत के वैयाकरणों ने इन्हें अन्तस्थ कहा है क्योंकि इनके उच्चारण की स्थिति स्वर और व्यजनों के बीच। अस्तु भारतीय ध्वनि विभाजन के कुछ आधार भूत तत्वों को स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है।
ध्वनियों के तीन प्रकार है:-
जव अर्धेन्दु सम्वृत हो तो नाद,
विवस हो तो श्वास और जब मध्यम स्थिति में हो तो मित्रध्वनि घोष
श्वासता + नादता = घोषता।
नाद की ध्वनि स्वरों में ग, ज, ड, द, ब में मुख्यतः होती है। श्वास ध्वनि वाले ऊऽम अनुस्वार भ्रः, श, ष, स, कक तथा क, च, ट, त, प हैं। इनमें न नाद है और न घोष। केवल श्वास है। अतः इन्हें अघोष भो कहते हैं। घोष ध्वनि केवल हकार की है। हकार कभी अघोष नहीं होता पाश्चात्य भाषाश्रों में हकार अघोष ही होता है।। क, च, ट, त, प के साथ उनके वर्गीय व्यजनों की उष्णता सम्मिलित होने से ख, छ, ठ, थ, फ बने हैं।
क। च्। टू। तू। पू।
क्। श्। ष्।सू। ष।ऊष्माण
खू। = छ। = ठ् = थ् = फू। =
इसलिये ये आघोष है। पश्चमी पंडित जी कहा नादवान मानते हैं वे इसे नही समझ सकते। उनके अनुसार तो इन्हें घोषदान हो जाना चाहिये था। पर ये न हुये। अधिक श्वास का नाम महाप्राण हैं। इसलिये ये नहाप्राण हो गये। कम श्वासों की ध्वनि अल्प प्राण है और अधिक श्वासों वालो महाप्राण ध्वनि। ग, ज, ड, ब, नाद वान है जैसा कि पूर्व में कह चुके हैं इनसे जब होकर की ध्वनि संयोग करती है तो च, भ, 7, घ, भ, वनते हैं जो महाप्राण हैं और नादवान हैं। एक प्रायोगिक बात यहाँ आ गई है कि ये झ, ढ, ध. भ, ध्वनियां काफी कठिन ध्वनियां हैं। पाश्चात्य देशो को भाषाओं में इन घ्वनियों का सर्वधा अभाव है। ये ध्वनियाँ भरत वंशियों की सम्पत्ति हैं। इसी लिये तो गाँव का रहने वाला कलुआ भी इन्हें बड़ी शुध्दता और स्पष्टता से वोल लेता है। उसे झिरिया, झिमका, ठेचूं, ढक्का, धन्ना, घना, भग्गो और भदइयों कहना कोई कठिन नहीं मालूम होता। जबकि सुदूर पश्चिम के विश्वविद्यालयों के पंडित ध्वनि की श्वासों में इन शब्दों को शुद्ध रूप में उच्चारण नहीं कर सकते, यही नहीं अपने देश में भो कुछ अपने भाई जिन्होंने विदेशियों की ज्यादा चोटें सही हैं फलस्वरूप उनकी भारती का प्रवाह कुछ कुण्ठित सा हो गया है वे भाई-भाई नहीं कह सकते और धाई नहीं कह सकते। इस प्रकार हमारी व्यंजन ध्वनियाँ ऊष्माण, अन्तथ और म्पर्शों में विभा जित होती है, ऊष्माण यानो स्वांसवान, अन्तस्थ (ऊष्माण एव स्पर्शों की वीचकी) तथा स्पर्श यानी क्षक्षिक स्पर्शवाली ध्वनियां। व्यजनों को उच्चारण प्रयत्न के आधार पर-दो वर्गों में वांटा गया है।
1-पूर्णतः अवरोधी। 2-आंशिक अवरोधी। पूर्णतः अवरोधो 1-स्पर्श2-स्पर्श संघर्षी।
2-आंशिक अवरोधी :-1 नासिक्य 2 कम्पन्न जात 3 ताड़न जात 4 पाश्विक 5 अर्धस्वर 6 संघर्णी ।
उच्चारण स्थान को दृष्टि से काकल्य, अलिजिह्वीय कोमलतालग्य,
1 2 3
तालव्य, मधन्य, वर्त्य, दन्त्य, श्रौष्ठय वर्गों में बांटा है। 8
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उच्चारण प्रयत्न के अनुसार व्यंजन इस प्रकार हैं।
स्पर्श (20), संघर्षी (2), नासिक्य (4), कम्पन जात (1), ताड़न जात (2) पाश्विंक (1), अर्धश्वर (2) 32। उच्चारण स्थान के अनुसार द्वयोष्ठय (6) वत्सर्य (8), मूर्धन्य (6), तालव्य (6), कण्ट्य (5), काकल्य (1) = 32 विवरण इस प्रकार है।
[प] द्वयोष्ठ्य श्रघोष अल्पप्राण
[फ] ‘’ ‘’ महाप्राण
[ब] ‘’ सघोष अल्पप्राण
[भ] ‘’ ‘’ महाप्राण
[त] वत्सयै अघोष अल्पप्राण
[थ] ‘’ ‘’ महाप्राण
[द] ‘’ सघोष अल्पप्राण
[ध] ‘’ सघोष महाप्राण
[ट] मूर्धन्य श्रघोष अल्पप्राण
[ठ] ‘’ ‘’ महाप्राण
[ड] ‘’ सघोष अल्पप्राण
[ढ] ‘’ ‘’ महाप्राण
[च] तालव्य अघोष अल्पप्राण
[छ] ‘’ ‘’ महाप्राण
[ज] ‘’ सघोष अल्पप्राण
[भ] ‘’ ‘’ महाप्राण
[क] कण्ठ्य अघोष अल्पप्राण
[ख] ‘’ ‘’ महाप्राण
[ग] ‘’ सघोष अल्पप्राण
[घ] ‘’ ‘’ महाप्राण
संघर्षी-स, ह।
[स] वत्र्स्य श्रघोष महाप्राण
[ह] काकल्य सघोष महाप्राण
नासिक्य
[म] द्वयोष्ट्य सघोष अल्पप्राण (मम्मा)
[न] वत्र्स्य सघोष अल्पप्राण (नन्ना, छन्ना)
[त्र] तालव्य सघोष अल्पप्राण (सइत्रा)
[ङ] कण्ठ्य सघोष अल्पप्राण (भाङ) हैं।
कम्पन जाति
[र] वर्ज्य सघोष अल्पप्राण (टेर)
ताड़न जाति
[ण] मूर्धन्य सघोष अल्पप्राण (डॉण)
[ढ़] ” ” महाप्रण
पाश्विंक व्यंजन
[ल] बर्त्य सघोष अल्पप्राण (चूल)
अर्ध स्वर
[ब] ओष्ठ्य सघोष अल्पप्राण (करवांद)
[य] तालव्य ” ” (कुचइया)
व्यंजन संयोग
(क)
वक
झक्क, नवक्कू। क्ख – पक्खा। क्ड् कङ कालिन।
क्स-वक्सा, कक्सा। वत चुक्ता। क्ल – बक्ला
(ख) रूख – चुरुखो, लुख्खो।
(ग) ग्ल-बग्लो। ग्त-भग्ता। ग-सग्गड़। बग्गड़। ग्घ-
(घ) घुग्घू ग्ढ-गढा
(च) =च्च-चच्चा सच्चा, बच्चा। च्छ बच्छा, लच्छा।
(छ) र् छ- बर्छी
ज – ज्ज-बज्जुर। र्ज-दुर्जोधन।
झ – पञ्जा, पञ्चा
ट – ट्ट-नट्टा, पट्टी। ट्ठ-पट्न। न्टा, ण्टा, घन्टी (घन्टी)
ठ- कन्ठा
ड – न्ड-डन्डा, पन्डा, सुन्डा। कन्डा, बन्डा, झन्डा,
ढ – ड्ढ-कड्ढई, मुड्डढ।
त – त्ता-पत्ता, लत्ता। ल्त-गल्ती, न्तवन्ती, खन्ती।
थ – त्ता – कत्था, नत्थू।
द – द्द-दद्दा, श्रद्धा। र्द-गर्दा, पर्दा।
ध – द्ध-अद्धा।
न – न्न-नन्ना, पन्ना। न्डा-पन्डा।न्ह-नन्हे, न्त-खन्ता।
न्छ-पन्छी। न्स-सन्सी।न्द-नन्द
प – प्पा-पप्पा, खप्पर।प्त-नप्ता।प्न-नप्ना।प्ट-बुष्टो
प्च-खप्चा।प्ल-घप्ला।प्स-लप्सी।एक-भप्का।
फ –
ब – ब-बब्वा, म्ब-लम्बर. लम्बो।
म – म्मा-मम्मा, खम्मा। म्द उम्दा। म्च चम्चा।म्ल-गम्ला।
य –
र – र्ज-दर्जी,। र्ग-सर्ग।
ल – ल्ब-गल्बा। ल्ल-पिल्ला। ल्द-जल्दी। ल्त-गल्तो।
ल्ट-पल्टू। ल्क-फल्का। ल्ह-आल्हा।
स – स्म-चस्मा। स्क-मस्का।
सत-सस्तो। स्क-चस्को।स्स-किस्सी।
इस प्रकार यह व्यंजन जो हमारी भाषा का व्यंजना देते हैं, तथा जिनकी संख्या बुन्देली में 32 है, न केवल भौतिक दृष्टि से अपितु हमारी संस्कृति में इन पर आध्यात्मिक दृष्टि से भो विवेचन हुआ है। कवर्ग पृथिव्यादि, पञ्चभूत, चवर्ग गन्धादि पञ्चतन्मात्रादि, ट वर्ग पादादि पञ्च कर्मेन्द्रिय, तवर्ग प्राणादि ज्ञानेन्द्रिय। पवर्ग मनबुद्धि अहंकार प्रकृनि एवं पुरुष य र ल व राग विद्या कला मात्रा के प्रतीक हैं। सूईश्वर और ह् सदाशिव का सूचक है।
इस प्रकार हमारी वर्णमाला स्वतः वैदिक दर्शन के तत्वों का प्रच्छन्न रूप हैं। इसमें नाद के स्वर से नवे भाग तक बढ़ते हुए प्रदेर तक पहुंचते है। इतनी सूक्ष्म मात्राओं तक हमारे ऋषियों ने गणना की है, इस परम्परा के परिपाई व में बुन्देली अध्यापक के साथ हमें निश्चित ही कहना पड़ता है, सिद्धी वनां समामना श्रोना मांसीधम्। सिद्ध वर्णः समांनायः। श्रओम् नमः सिद्धम्।
उष्माण ध्वनियों (ह, अः, अं क् प् श् ष, स् ) में से बुन्देलोमें केवल दो ध्वनियाँ प्रमुख रूप से पाई जाती हैं।
क् + क् (ऊष्माण) = ख्
च्+श् (ऊष्माण) = छ्
ट्+ष् (‘’ ) = ठ्
त्+स् ( ” )= थ्
प् + प् ( ” )= फ्
ग्+ह = घ्
ज्+ह = झ
ड+ह = ढ
द् +ह = ध
ब+ह = भ्
वे है -स् और ह। पर बड़ी विचित्र बात है कि बुन्देली गड़रियोंकी गोटों में, अनुस्वार का परिशुद्ध रूप सुनने को मिल जाता है। वेदपाठी के मुँह से बह ध्वनि भले ही अशुद्ध उच्चरित हो, भ्रष्टोच्चारित हो, पर गड़रिया के भाषण अवयव से कभी भ्रष्टोच्चारित यह ध्वनि नहीं सुनेंगे। मुँह या ओष्ठ बन्द करलें तब जिह्वा कोमल का कालकीय कोमल तालु के सामने घृष्ट प्रयत्न करते हुये नाक से ध्वनि निकालें, तो अनुस्वार का शुद्धोच् चारण बनेगा। यह कं, गं, खं, इन सब के मध्यवर्ती सानुनासिक शुद्ध ध्वनि होगा। यह शुद्ध ऊष्मध्वनि है। उष्प अर्थात् गर्म भपका। स्वर, ऊष्माण और अनुस्वार इन तीनों प्रकार की ध्वनियों के उच्चारण में अर्धेन्दु के द्वार खुले रहते हैं, ‘उष्माणाम् च विवृतम्’, स्वराणां च [आपिस्थली] इसीलिये इन्हें स्वरों के बाद रखा गया है।
अन्तःस्थ अर्थात् बीच में, ऊष्माणों और स्पर्शों के (न कि सवरों) और व्यंजनों के या स्पर्शे के जैसा कि डॉ. विश्वनाथ प्रसाद भ्रम-वश समझते हैं। झ0प्रा0 ने लिखा है कि ‘स्पष्टमस्थितम् (क्षणिक स्पर्श-20 वर्गीय व्यंजनों में)दुस्पष्टं प्राग्वकाराणां चतुरणाम् दुःस्पष्टम्-ईषत् स्पष्टस् इति अर्थः यर-स्पर्शहीन स्थितिकम्। इस पर बडी विचित्र बात है कि अन्तस्थ शब्द का अनु-लवानाम् स्वरो नूस्वोस्मणाम् अस्पष्टम् स्थितम् अस्पष्टम् स्थितम् स्थिरम् बाद सेमीवावल करड़ाला गया अर्धस्वर कहे गये। अन्तस्थ नहीं।
बुन्देली में य का ज होता है। पादादौ च संयोगाऽवग्र हबुच च। जः शब्द इनि विज्ञेयों सोऽग्य सोप्य इति स्मृतः। (याज्ञवल्कशिक्षा 150) योगी >जोगी। यम >जम। शैया >सेज। ज्योति जोत।
व्याकरणकार वताता है कि अ, उ, ओ से परे य् व का उच्चा-रण आधा हो जाता है “अर्धम् वा” वकार यकारो लुम्पति। र की तीन ध्वनियाँः-
(1) ऋ स्वर से प्राप्न र (कण्ठय या जिह्वामूलीय)
कृ से करवो
झृ = झिरत
धृ = धरत
ऋप = अर्पितम् (अरपवो)
(2) र मूर्धन्य रिक्यते विपाट्यते वस्त्रादि पाटन ध्वनिवत् उच्चारवत् इतिरेफः (वैदिकाभरण तै0 प्रा0 1-12) अतः रेफ्-मर्रर्र, भर्ररं।
(3) र् (रकार) भुग्नयाशिथिल
वर्त्य :- चुखरिया >चुखैया
लुखरिया >लुखैया
“कस्याम् शाखायाम् रेफो मूर्धन्यः कस्याम् दनामूलीय इति। अति स्पर्शी वर्वरता च रेफे। (ऋ0 980)
कालान्तर में वैदिक ऋ तथा मूर्धन्य र के उच्चारण को यथा रूप करना लोग भूलने लगे थे। इसी का यह संकेत है। आज तो ऋ की ध्वनि समाप्त प्राय होकर “र्” के रूप में विराजती है।
ल उच्चारण स्थान दन्तमूल या वय। परन्तु लू का कण्ठ्य। न्देली में रल दोनों दन्तमूल या वत्स्यं हो गये हैं परन्तु इसके संयोग से बने हुये कुछ व्यंजन नियाँ हमें बोती यादें दिलाती हैं। जो यह संकेत करती हैं किङ = ऋ का व्यजन और ढ, ल का का व्यंजन है। ऋ0 प्रा0 में लिखा है कि वेद मित्रमते ड (ड़) कारस्य स्थानं तालुः द्वयो स्वर्यो मध्ये डुङ्गारो लकारः (ड़) सम्पघते स एवं हकारता युक्तो ढ् (ढ़) का सोष्माभवत्ति।
सालहा – (साढा) वीड्वंग वीलवंग (बीड्वंग) अतः ऽलयोर-भेद रलयोरभेदः के ड (टवर्गीय) ल (दन्त्य) र (रेफ) के न होकर इ = ऋ = लू-=ळ, ऋ = लू के हैं। ऋ लू की वैदिक परिस्थिति देखें। एवं वैदिक ऋषिभ्यु बोलता था तो दूसरा लृ। एक गुणीय व्यंजनों के स्थान पर र् और दूसरा ल बोलता था। इसी प्रकार अक्षरीय व्यंजनों में एक ड़ बोलता था दूसरा ल। इनके अक्षरी व्यजनों के सोष्म रूप ढ़ या ल्ह भी थे। ये अभी भी जोवित हैं। आवश्यकता सिर्फ तथाकथित छोटे लोगों के पास जाने की है।
बुन्देली के कुछ पण्डितों का ऐसामत है कि नासिक्य व्यंजन य र ल व के पूर्व नहीं आते। परन्तु इस भाषा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो ‘ग्रन्याई से लेकर (बन्रा, बन्री, कन्याई) और ‘कन्वाँ’ तक फैले हैं। एक दूसरे बुन्देली के पण्डित का मत है कि ‘ह के पूर्व भाग में उच्चरित नासिक्य ध्वनियाँ बुन्देली भाषा में नहीं हैं।’ पर कुम्हार, ‘कन्हैया’ उन्हें कोटरा में बेतवा किनारे जुन्हैया में मिल जायेंगे। इस प्रकार बुन्देली भाषा को 32 सशक्त पूर्ण व्यंजन प्राप्त हैं जबकि भोजपुरी में 31 और अवधी में 30 व्यंजन ध्वनियाँ ही स्तरीय हैं।
इस प्रकार 14 स्वरों एवं 32 व्यंजनों से सम्पन्न बुन्देली ध्वनियों की दृष्टि से एक सशक्त भाषा है।
बुन्देली के स्वरों का ध्वनि वैज्ञानिक अध्ययन
आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल
ओनामासीधम्आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृल् ए ऐ ओ औ अं अ: क ख ग घ न्ना। च छ ज झ न्ना। ट ठ ड ढ न्ना। त थ द ध न्ना। प फ ब भ म्मा। ज (य) र ल व सषसा हा। लं क्षे ला हा। सिद्धो बरना, समा मनाया। चित्रो चित्रो दासा। देवी सोरा….
यह है बुन्देली की पहली पाटी का प्रथम चरण। जो ओनामासीधम् ओऽम् नमः सिद्धम् से आरम्भ होता है। यह सिद्धम् सिद्ध ध्वनियाँ हैं। शब्द ब्रह्म है। ऋग्वेद की ध्वनियों का विश्लेषण करते हुये ऋग्वेद प्रातिशारध्यकार ने लिखा था –
मौलिक ध्वनयः अऋ इ उ क् च् ट्त् प् य र् ल् व् ह ष् श् स्।। अन्ये वर्णाः तु उक्त ध्वनिनाम् तुल्यप्रयत्नानां स्थान कृतः श्रुती विशेषः अर्थात यह मौलिक ध्वनियाँ हैं, चार स्वर ध्वनियाँ – चार उष्माण + चार अन्तस्थ + 5 व्यंजन = 17
इन्हीं की ओर सिद्धम् शब्द का स्पष्ट संकेत है। इन्हीं मौलिक ध्वनियों को आधुनिक भाषा में स्वनिन (PHONEME) कहते हैं।
सम्पूर्ण सिद्ध वर्ण मिलकर समाम्नाय कहलाते हैं। समिति एकी भावे, आ इति मर्यादायांन्नाय इत्यानु पूर्वेण। (तै. प्रा0 1-1) आम्नाय शब्द का अर्थ वेद होता है, अतः समाम्नाय शब्द का अर्थ सच्चा वेद है, क्यों कि यह हमारे 50 स्वर व्यंजन वैदिक दशं के 50 तत्वों के प्रच्छन्न संकेत हैं। समाम्नाय के उच्चारण को चार भागों में विभक्त किया है, पाणिनि शिक्षा में लिखा है। स्वरों का उच्चारण अस्पृष्ट है। यमों का ईषत् स्पृष्ट श और ल अर्द्ध स्पृष्ट शेष सब व्यंजन स्पृष्ट। आपिस्थली शिक्षा के अनुसार स्पृष्ट ईषत्स्पृष्ट, ईषत्विवृत और विवृत। ऋ. प्रा. शारव्य ईषत्स्पृष्ठ के बदले दुस्पृष्ट लिखता है। अतः स्वर उच्चारण की दृष्टि से अस्पृष्ट घ्वनियॉं हैं। “स्वयं राजते स्वराः” पतञ्जलि। व्यंजनं स्वरांगम् व्यजनं स्वरेण. सस्बरं (का. प्रा.1। 107) “परेण स्वरेण व्यंज्यते इति व्यजनं” तै. प्रा.116) इन स्वरों की परिभाषाओं ने पश्चिम के, और पश्चिमाभिमुख भारतीय भाषाविज्ञों में वहुत भ्रम फैला डाला है। अनेकों ने तो जब उन्हें क्लिक ध्वनियाँ प्राप्त हुई तो लिखा कि भारतीयों को स्वर और व्यंजन की सही पहचान नहीं थी। यह बात नहीं है :- “स्वर” शब्द “स्व” से निकला है, जिसका अर्थ “स्वरते घ्वनते शब्दायते इति यावत” है। स्वर अर्थात् स्फुट ध्वनि वर्णमाला की स्फुट घ्वनियाँ “स्वर” (स्व स्वर) ध्वनियाँ। व्यंजन = वि + अञ्ज वि उपसर्ग पूर्वक अज् धातु। अञ्जु अर्थात अङ्ग, या तत्व। स्वर पूर्ण रूप से स्फुट ध्वनियाँ; व्यंजन इनके अङ्ग सी अस्फुट ध्वनियाँ।
पद का निर्माण स्वर के बिना नहीं होता, स्वर स्वयं पद हो सकता है. पर उष्माण अन्तःस्थ और स्पर्श स्वयं पद नहीं हो सकते। इनके अन्त में स्वर होगा तभी पद बनेगा। पद का एक प्राचीन नाम अक्षर भी है। स्वरोऽक्षरं अर्थ. प्रा. 1163।
सव्यंञ्जनः शुद्धो वापि स्वरोऽक्षरम् (प्रा 18/6)। ‘व्यंजनं स्वरांगम’ इसोलिये कहा गया है। इसीलिये कात्यायन कहता है कि :- स्वरोऽक्षरम सहाद्यैव्यंजन रुतरैश्चावसितैः (का. प्रा. 1166)
इस प्रकाश में हम भारतीय भ्वनि शास्त्रज्ञों की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति को देख सकते हैं।
अब हम देवीसोरा (दिब्यः षोडसः को दिब्य 16 स्वरों को) बुन्देली मे देखने का प्रयास करेंगे।
इ तालव्य स्वर है, उच्चारण में जिह्वा के मध्य भाग भें बहुत थोड़ा सा स्थान नादीय श्वांस निकलने के लिए खुला रहता है, ओष्ठ एक चौथाई अंगुल खुले रहते हैं। ई यह इकार से, अधिक, विवृत है, इ. यह बुन्देली का अघोष स्वर है।
प्रायः पदान्त या शब्दान्त के अन्त में आता है। इ = य भुग्न इ है, कई स्थलो पर इ को भुग्न य् की भाँति बोलते हैं।
इ :-
ई :- तीस, बीसौरी, खीस दीर्घ
छ :- पिसाडू, अथाडू, थाइ, (अघोष)
ड् :- नाइन डाइन
इ :- उरी रनियाँ कायरी
ए :- इ के उच्चारण से लगभग दूता मुख खुलता है, जिह्वा के मध्य भाग से इ, का प्रयत्न होता है तो उसके थोड़े पीछे ए, का। ए:-ए, का दोर्थ है। ए.. यह अघोष स्वर है, प्रायः अन्त में आता है। एः-शिथिल घोषवान् (प्रायः चवर्ग के साथ)।
ए :- रेला, ठेला, डेला (दीर्घ)
ए :- ढ़ेः ड़ लेः ले
ए0 :- पी गए, पा गए, (अघोष)
ए :- का चइए, काँ जइए रहए, (शिथिलघोष)
ए3 :- दद्द्वारे3, दइयारे3 (प्लुत)
ऐ :- यह संध्य अक्षर नहीं है, यह ए से अधिक विवृत है।
ऐ :-दीर्घ रूप है।
ऐ. :- ए क। अघोष रूप है।
ऐ :- कै, दै।
ऐ :-मैःर, बैःर।
ऐ.:-का करएँ, मर्र, भर्र, डर्र।
आ-बुन्देली में यह चार प्रकार का होता है :–
(1) हस्व
(2) दीर्घ
(3) अघोष
(4) प्लुत
आ :- आ का स्थान केन्द्रवर्ती है। आः- इसके उच्चारण में पूरा मुख खुल जाता है। प्रयत्न हनु मूल के सामने जिह्वा मूल का अग्र भाग।
आ :- नन्ना, कक्का।
आ :- खाःज, दाःद, काःज।
आ. :- ब्या, प्या., ल्या.,
श्रा :- दद्दा, कक्का।
अ, संवृत प्रयत्न का स्वर है, सबसे कम खुला है, पदादि वाक्यादि में जब बिना व्यंजन के यह ध्वनि आती है, तो इसका उच्चारण कण्ठ से होता है। व्यंजनों के साथ जिह्वामूलीय प्रयत्न होता है।
बगदर, अठर।
औ-शुद्ध स्वर है। औ :- दीर्घ, इसके उच्चारण में अधिक मुख खुलता है अधिक गम्भीरता रहती है।
औ :- गौरा, नौरा।
औः घौःल, कौःल, गौःल
औ3 :- काँगो, आरऔ3
ओः-पाँच प्रकार को ध्वनियाँ बुन्देली में है।
- ह्रस्व ओ, (2) दीर्घ ओ:, (3) अघोष ओ0, (4) वर्तुल थ्रो (वो) (5) दीर्घ अधिक विवृत। अघोष पदान्त में ही आता अधिक वर्तुल में ओठ कम खुले रहते हैं।
ओ :-ओइ, लोइ (ह्वस्व)
ओ :- होःश (दीर्घ)
ओ :-गओ, दओ, (अघोष)
ओ (वो) :- दोरौ, (वर्तुल)
ओ :- नन्नाहो3 (प्लुत)
उ-बुन्देली में छैः प्रकार की ह्रस्व, दीर्घ, अघोष, अधिक वर्तुल उ और उड़ इसमें अन्तिम ध्रुवान्त उकारीय ध्वनि सी हैं, जो प्रायः द्वित्व व्यंजनों के अन्त में मिलती हैं।
उ :- मानदण्डीय ध्र्ध्वान के समीप है, और अधिक खुली है
ऊ :-दीर्घ ध्वनि है और अधिक संवृत है।
उ :- चुन, घुन।
ऊ :- दूत, पूत।
उ:-गउ0, बउ0,।
उ् (व्) :- पतरूआ, दउआ, पउआ, लुवाउन।
उ. = उउ.= उच्क्कू (उचक्कुउ) टट्टूउ, खवबूउ।
ऊ = बऊ3, दाऊ3।
अ-यह आकार का लघुरूप है, जो प्रथम अ से अधिक संवृत है। और स्वर हीन आदि स्थान में शिथिल सा तथा व्यंजनान्तो के अन्त में भुग्न आ श्वासीय ध्वनि रूप में मिलता है।
चिल्ल्य, पिल्ल्अ, चट्ट्य, पटट्द्म.
इन सबकी विवेचना करके मुख्य अक्षरों के अनुसार कुल स्वर इस प्रकार लिखे जा सकते हैं।
इ इ – यि
ए ए – ये ओ – बो ओ
ऐ अ औ
अै अ आ
अतः मौलिक अक्षर 14 हैं। बुन्देली में सन्धियाँ अपने स्वाभाविक क्रम से होती हैं। यही कारण है कि जाने अनजाने वे पाणिनि के नियम क्षेत्र में आाजाती है। और यही कारण है कि बुन्देली गाँव का शिक्षक अपनी पाटियों * में ‘एते सन्धि सूतरता’ बालकों को पढ़ाया करता था।
सबर्ण दीर्घ स्वर सन्धि का उदाहरण प्रस्तुत है –
रम्बा + आइँती = रम्बाइती
इत्ती + इत्ती = इत्तीत्ती
वृद्धि सन्धि :-
आउत = औत
खाउत = खौत
अइ =ऐ (प्रातिशाख्य)
अइ = ए
गुण सन्धि
स+इ = सै
द+इ = दै
यण सन्धि :
कर्यों = करिओ
हव्वा = हउआ, हौआ
चलब्वा = चल उआ = चलौआ
यह बुन्देली अपने इस प्रखण्ड में आये हुये वैदिक शब्दों की ध्वनिओं को भी संजोऐ हुये है।
पदादि का अ, यह व्यंजन होन आदि स्थानोय वैदिक अ, जिसके आगे व्यंजन संयोग न था बुन्देली में सुरक्षित है, जैसे धमर, अकाल अभागी (अभागिन) बड़ी विचित्र बात है, कि जहाँ मध्य युगीन संयुक्त व्यंजनो को ह्रस्व करने पर आदिम अ का अन्यत्र औ दीर्घ रूप मिलता है वहाँ पहाड़ी भाषाओं की भाँति बुन्देली अ’ सुरक्षित रख सकी है।
उदाहरणः- अङ्गष्ठ, अँगूठा, अन्त श्रन्तु, गङ्गा।
हृस्व :– गुरू ‘आ’ अग्नि, अग्गी, आग।
सत्य, सच्च, साँच।
अर्द्ध, अध्य, आद।
पदादि के (इई) अ व्यंजन या स व्यंजन के आदि के इ के आगे यदि संयुक्त व्यंजन न हों तो वे वैदिक काल के स्वर बुन्देली में अबतक सुरक्षित हैं।
उदाहरण :- वीणा – बीना, क्षीर – खीर।
त्रीणि – तीन, तिल – तिल।
जिनके आगे संयुक्त दीर्घ व्यंजन थे उनमें परिवर्तन आया है।
उदाहरण :- भिक्षा – भीख, त्रिशत्- तीस, विशत्- बोस (बिसी) पदादिके उ जहाँ अ संयुक्त या दीर्घ व्यंजन आगे थे वहाँ भो सुरक्षित है।
उदाहरण :- मूल-मूल, शूल-सूल।
छुरिका-छुरी, उदासित – उदास
जहाँ संयुक्त या दीर्घ व्यंजन थे वहाँ अवश्य दीर्घ हो गया है।
उदाहरण :- दुग्ध- दूध, पुत्र – पूत।
पदादि के ए और ओ भी –
उदाहरण : क्षेत्र-खेत, वेश- भेष
श्रेष्ठिन् – सेठ, एका :- एक
इसी प्रकार :- योग- जोग, भोग – भोग,
परन्तु वैदिक ऐ बुन्देलखण्डी ए में और औ, थ्रो में बदल जाता है।
तैल-तेल, गैरिक- गेरू (गेवरी) औषध-ओखद
इसके अतिरिक्त बहुत सी प्राकृत ध्वनियाँ भी बुन्देली में सुरक्षित हैः-
उदाहरण :- पुस्तिका-पोथिबा – पोथी। ज्योत्स्ना जुन्हाई, जुनैया आदि।
इस प्रकार हम देख चुके हैं कि बुन्देली 14 स्वरों को दाय रूप में सुरक्षित रख सकी है।
सहस्त्रों श्रुतियों को संरक्षण देने वाली नवीन अनुनासिक ध्वनियों को सृजन करने वाली बुन्देली भाष-तित्व-शास्त्र की दृष्टि से एक सशक्त भाषा है।
बुंदेली शब्द-विचार
1. शब्द–विचार– व्याकरण का वह भाग है जिसमें ‘शब्द की विवेचना’ की जाती है। ‘विवेचना’ से यहाँ तात्पर्य है – शब्दों के भेद तथा उनके प्रयोग रूपान्तर और व्युत्पत्ति का निरूपण किया जाना।
2. शब्द– एक या अधिक अक्षरों से बनी हुई स्वतन्त्र सार्थक ध्वनि को शब्द कहते हैं; जैसे-लड़का, जा, छोटा, मैं, धीरे, परन्तु इत्यादि।
शब्द में प्रयुक्त ध्वनियाँ जब तक अलग-अलग रहेंगी, जैसे-ल, ड़, का, तब तक निरर्थक कही जावेंगी, कारण कि इनसे किसी प्राणी, पदार्थ, धर्म और उनके परस्पर सम्बन्ध आदि का कोई बोध नहीं होता और न कोई भावना ही प्रकट होती है, इसलिये साधारणतया इनको शब्द नहीं कहा जा सकता। कभी केवल एक विशेष (परन्तु तुच्छ) अर्थ में शब्द कहा जा सकता है। शब्दों के साथ जुड़ने वाली ता, पन, वाला, ने, को, आदि परतन्त्र ध्वनियाँ शब्दांश हैं। शब्द के पूर्व में जोड़े जाने वाले शब्दांशों को उपसर्ग और पश्चात् जोड़े जाने वाले शब्दांशों को प्रत्यय कहा जाता है; जैसे अ+शुद्ध+ता ‘अशुद्धता’ शब्द में ‘अ’ उपसर्ग है और ‘ता’ प्रत्यय है। मुख्य शब्द ‘शुद्ध’ है। यहाँ घ्यान रखना आवश्यक है कि ‘जिन प्रत्ययों के पश्चात् दूसरे प्रत्यय नहीं लगते उन्हें चरम प्रत्यय कहते हैं और चरम प्रत्यय लगने के पहले शब्द का जो मूल रूप होता है यथार्थ में वही शब्द है। उदाहरण के लिये ‘दीनता से’ शब्द को लें। इसमें मूल शब्द अर्थात् प्रकृति ‘दीन’ है और प्रकृति में ‘ता’ और ‘से’ प्रत्यय लगे हैं। ‘ता’ प्रत्यय के पश्चात् ‘से’ प्रत्यय आया है, परन्तु ‘से’ के पश्चात् कोई दूसरा प्रत्यय नहीं लग सकता, इसलिये ‘से’ के पहले ‘दीनता’ मूल रूप है और इसी को शब्द कहेंगे। चरम प्रत्यय लगने से शब्द का जो रूपान्तर होता है वही इसकी यथार्थ विकृति है और इसे पद कहते हैं। व्याकरण में शब्द और पद का अन्तर बड़े महत्व का है। और शब्द-साधन में इन्हीं शब्दों और पदों का विचार किया जाता है।”
शब्द का महत्व
3.भाषा शास्त्रियों के मत से ‘शब्द’ भाषा की एक ऐसी इकाई है जो वाक्य जगत से अपना सीधा प्रतीकात्मक सम्बन्ध रखती है।
अक्षरों से शब्द बनते हैं। जैसे- ‘म’ और ‘न’ के योग से ‘मन’ और ‘नम’ शब्द बनते हैं। और यदि इनमें ‘आ’ का योग कर दिया जाय तो ‘मान’ ‘नाम’ ‘मना’ और ‘माना’ आदि शब्द बनते जावेंगे। परन्तु विश्व के सम्पूर्ण, प्राणियों-पदाथों, धर्मों और उनके सब प्रकार के सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिये एक शब्द का प्रयोग पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि एक समय में एक शब्द प्रायः एक ही भावना को प्रकट कर सकता है। अतः पूर्ण विचार को व्यक्त करने के लिये एक शब्द समूह-एक से अधिक शब्दों का प्रयोग आवश्यक होगा। इसी शब्द समूह को वाक्य कहा जाता है; जैसे – छात्र पढ़ रहे हैं, जो ध्यान पूर्वक पढ़ते हैं वे अवश्य सफल होते हैं, मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनते हैं। इस प्रकार वाक्य में शब्द का स्थान और महत्व स्पष्ट है। परस्पर सम्बन्ध रखने वाले भी दो या अधिक शब्दों के ऐसे योग को जिससे पूरी बात नहीं जानी जा सकती वाक्यांश कहा जाता है; जैसे-‘घर का घर’ ‘सच बोलना’ ‘दूर से आया हुआ’ इत्यादि। इस कथन से ‘वाक्यांश’ और ‘वाक्य’ का अन्तर और वाक्यांश में भी शब्द का स्थान एवं महत्व स्पष्ट है।
शब्द के भेद
4. पूर्व प्रचलित मान्यता के अनुसार शब्द दो प्रकार के है – सार्थक और निरर्थक।
(1) सार्थक शब्द वे हैं जिनसे एक पदार्थ का स्पष्ट बोध होता है; जैसे-‘पानी’ आदि।
(2) निरर्थक शब्द वे हैं जिनसे किसी पदार्थ का बोध नहीं होता; जैसे -चीं-ची, तड़-तड़ आदि।
परन्तु भाषा-विज्ञान-सम्मत आधुनिकतम मत यह है कि भाषा में प्रयुक्त सभी शब्द सार्थक होते हैं। जिन्हें हम निरर्थक शब्द समझ बैठते हैं; जैसे- तड़तड़, चींचीं, खटखटाना, बड़बड़ाना, हिनहिनाना, आदि वस्तुतः ये भी प्रयोग में सार्थक हैं। इनके अर्थ शब्द-कोश में देखे जा सकते हैं। ये सभी शब्द ध्वनियों के अनुकरण से बने हैं और हमारी भाषा में इनका स्वतन्त्र प्रयोग होता है। वाक्यों में इनका अपना स्थान और अर्थ है। इसी प्रकार ‘रोटी-ओटी’ में ‘ओटी’ की सार्थकता और अर्थ की विशेषता तुलनात्मक प्रयोगों में देखी जा सकती है। उक्त उदाहरणों में ‘ओटी’ में कोई अर्थ वैशिष्टय नहीं है परन्तु अपने उदाहृत जोड़ों में ‘रोटी’ के साथ ‘ओटी’ एक विशेष प्रकार के अर्थ को द्योतित करने लगती है। जैसे- ‘रोटी’ के साथ ‘ओटी’ शब्द ‘रोटी’ के अतिरिक्त अन्य भोज्य पदार्थों दाल-भात आदि का भी द्योतक है। जो शब्द सचमुच निरर्थक होते हैं; जैसे-‘ऊँट-पटाँग’ ‘अल्ल-बल्ल’ आदि, इनको किसी विशेष परन्तु तुच्छ अर्थ में शब्द मान भी लिया जाय फिर भी सामान्यतया उनको न तो शब्द की संज्ञा दी जा सकती है और न व्याकरण में इन पर विचार ही किया जा सकता है।
शब्द विचार प्रकरण के अन्तर्गत निम्नांकित वर्ण्य-विषय विवेचनीय हैं-
(1) शब्दभेद, (2) शब्द प्रयोग, (3) शब्द रचना, (4) शब्द निरुक्ति और (5) शब्दान्वय। इस प्रकरण को ‘शब्द-साधन’ नाम देने का श्री कामताप्रसाद गुरु का यही अभिप्राय प्रतीत होता है।
1. शब्द–भेद
प्रयोग के अनुसार शब्दों की भिन्न-भिन्न जातियों को शब्दभेद कहते हैं।
बुंदेली शब्दों का वर्गीकरण
शब्दों की भिन्न जातियाँ बताना शब्दों का वर्गीकरण कहलाता है। बुंदेली शब्दों का वर्गीकरण निम्नांकित आधारों पर किया जाता है-
- ध्वनि के आधार पर,
- उद्गम या व्युत्पत्ति के आधार पर,
- अर्थ के आधार पर,
- रूपान्तर के आधार पर,
- रचना (बनावट) के आधार
1. ध्वनि के आधार पर शब्द–भेद
ध्वनि की दृष्टि से शब्द दो प्रकार के होते हैं- (क) ध्वन्यात्मक (अव्यक्त) (ख) वर्णात्मक (व्यक्त)।
(क) ध्वन्यात्मक (अव्यक्त) – जिसमें वर्ण स्पष्ट सुनाई नहीं देते; जैसे-बाजों की आवाज, ढोल की ढमाढम तथा घोड़े की हिनहिनाहट।
(ख) वर्णात्मक (व्यक्त) – जिसमें वर्ण स्पष्ट सुनाई देते हैं; जैसे- राम, मोहन, सिंह आदि। ध्वन्यात्मक शब्द का अनुकरण करके उस ध्वनि से मिलता-जुलता कोई शब्द निश्चित कर लिया जाता है। ऐसे शब्द वर्णात्मक भेद में आते हैं।
जो ध्वनिबोधक शब्द लोगों द्वारा ध्वनि के अनुकरण पर गढ़े जाते हैं उनकी शब्दावली निम्न प्रकार संग्रहीत की जा सकती है; जैसे-कट-कट, खट-खट आदि और उन्हीं के अनुकरण पर बनाये गये कटकटाबौ, खटखटायौ, गनगनाटौ, चटचटाबौ, चरचराबौ, छर-छराबौ, टन-टनाबौ, ठन-ठनाबौ, दन दनाटौ, पड़-पड़ाबौ, फर-फराबौ, भर-भराटौ, मन-मनाटौ, सर-सराटौ, सर्राटौ, हिन-हिनाटौ आदि।
2. उद्गम या व्युत्पत्ति के आधार पर शब्द–भेद
उद्गम या व्युत्पत्ति के आधार पर शब्द चार प्रकार के होते हैं-
तत्सम, तद्भव, देशी और विदेशी।
(1) तत्सम– जो शब्द संस्कृत के समान हिन्दी और उसकी बोलियों में प्रयुक्त होते हैं। अतः तत्सम का अर्थ है उस (संस्कृत) के समान अर्थात् जिनका रूप संस्कृत का ही है। संस्कृत के वे शब्द जो बुंदेली में भी ज्यों के त्यों प्रयुक्त होते हैं।
(2) तद्भव – संस्कृत से कुछ बिगड़ कर जो शब्द हिन्दी और उसकी बोलियों में प्रयुक्त होते हैं। अतः तद्भव का अर्थ है- उस (संस्कृत) से उत्पन्न या विकसित। प्रायः संस्कृत शब्द बुंदेली तक आते-आते घिस-पिट कर परिवर्तित हो गये हैं। कुछ शब्द इस प्रकार हैं-
तत्सम तद्भव तत्सम तद्भव
अन्धकार अँदयारौ चक्र चाक, चका
अग्नि आगी, आग चन्द्र चन्दा
अट्टालिका अटारी, अटाई छिद्र छेद, छेदौ
अर्ध आधौ, आदौ जिह्वा जीभ
अश्रु आंसू, अँसुवा ज्येष्ठ जेठ, जेठौ
आश्चर्य अचरज दुर्बल दूबरौ
उच्च ऊँचौ दुग्ध दूध, दूद
एकत्र इकट्ठौ, इखट्टौ धूम्र धुवाँ
कर्म काम नृत्य नाच
कार्य कारज, काज भ्राता भैया
काष्ठ काठ, कठवा पत्र पत्ता
कुपुत्र कपूत भिक्षा भीख, भीक
कोष्ठ कोठा मस्तक माथौ
कोकिल कोइल रात्रि रात
ग्रन्थि गाँठ लोहकार लुहार
गृह घर वधू बहू
ग्राहक ग्राक, गाहक सत्य सांच
घृत घी
(3) देशी– संस्कृत से भिन्न स्वरूप वाले, भारत की विभिन्न बोलियों से समागत, विभिन्न जातियों से अपनाये गये एवं अपने मन से गढ़े गये शब्द देशी कहे जाते हैं। ये शब्द न तो संस्कृत के हैं, न संस्कृत से बने हैं और न विदेशी ही हैं। वे अपने इसी देश की उपज हैं अतः ‘देशज’ भी कहे जाते हैं। ऐसे शब्द दो प्रकार के हैं –
(क) कोल, संथाल आदि जातियों से– कपास, परबल, बाजरा, भिंडी, मिर्च, सरसों आदि।
द्रविड़ जातियों से – ऊखरी (ऊखल), काजर (कज्जल), कांच, कुदारी (कुद्दाल), केतकी, चन्दन, चुरिया (चूड़ी), तारौ (ताला) माला, सांमर और पिल्ला आदि।
(ख) अपनी गढ़न्त विद्या से– अंडबंड, अंटसंट, ऊँटपटाँग, कड़क, किलकारी, खचाखच, खटपट, खर्राटौ, खलबली, गड़गड़ाहट, घुन्ना, चटपटौ, चाट, चिड़चिड़ौ, चुटकी, छिछलौ, झंकार, टुच्चौ, ठठेरौ, पापर, भोंपू, मुस्टंडा, आदि। कटकटाबौ, खटखटाबौ आदि शब्द किसी ध्वनि के अनुकरण पर बने हैं इसलिये ये ध्वन्यात्मक और अनुकरणात्मक भी कहलाते हैं।
(4) विदेशी– जो शब्द अरबी, फारसी, तुर्की आदि एशिया की भाषाओं से और अंग्रेजी, फ्रेंच, पुर्तगाली, डच आदि यूरोपीय भाषाओं से आये हैं। क्रमशः उदाहरण देखिये –
अरबी — अल्लाह, असर, इजलास, इरादौ, ईमान, ईद, ऐसान, किताब, खतम, खारिज, जिला, तासील, नगद, वालिग, बुनयाद, मजब, मुसलमान, मुल्ला, साफ, हकीम और हलवाई आदि।
फारसी– अगर, अमरूद, आबरू, आराम, आफत, आमदानी, आबारा, आसमान, ऐंना, उस्ताज, कारीगर, कुरता, खुल, गभाय (गवाह) जुलाहा, जलेवी, जुखाम, चालांक, तेज, दफतर, दर्जी, दवाई, दरवाजौ, दिवाल, दलाल, पैजामा, बारिस, बुखार, बदहजमी, बर्फी, बालूसाई, बरामदा, बेकार, बुलबुल, मेहनत, मकान, मजदूर, मुश्किल, साल, समोसा।
तुर्की– उर्दू, कूच, काबू, कुली, कैंची, खंजर, चाकू, चिक, चेचक, चम्मच, तोप, दरोगा, बारूद, बहादुर, लास, सराँय आदि।
चीनी – चाय, लीची आदि।
जापानी– झम्पान, रिक्सा आदि।
अंग्रेजी– अपील, अफसर, कोर्ट, फीस, जज्ज, मजिस्टेट, पुलिस, टैक्स, कलेक्टर, पिन्सन, बोट, स्कूल, कापी, पेंसिल, पेन, पेपर, कालेज, लायब्रेरी, अस्पताल, डांकटर, नर्स, बार्ड, अपरेशन, कोट, पेन्ट, बूट, जम्फर, ब्लाउज, प्लेट जग, कप, लम्प, सूटकेश, माचिस, बिस्कुट, टाफी, केक, टोस्ट, चाकलेट, ट्रेन, बस, लारी, मोटर, बैटरी, इंजन, ब्रेक आदि
पुर्तगाली– अनानास, आलपीन, कोको, गमला, गिरजा, चाबी, लीलाम (नीलाम), पपीता, पादरी, बम्बा, बाल्टी आदि।
फ्रेंच –अंगरेज, कारतूस, कूपन, फ्रांसीसी।
डच – तुरुप, बम (टागें का) आदि।
रूसी – रूबल, जार, बोदका, स्पुतनिक आदि।
उक्त शब्द जिस रूप में बुंदेली में मिलकर उपयोग में आते हैं उसी रूप में यहाँ दिये गये हैं।
3. अर्थ के आधार पर शब्द–भेद
साहित्य शास्त्रियों ने अर्थ के आधार पर शब्द के तीन भेद किये हैं- वाचक या अभिधार्थ, लाक्षणिक या लक्ष्यार्थ और व्यंजक या व्यंग्यार्थ।
(क) वाचक या अभिधार्थ– शब्द वे हैं जो अपने स्वाभाविक, साधारण और मुख्य अर्थ का बोध कराते हैं, जैसे- गइया (गाय), चिरइया (चिड़िया), पंछी (पक्षी), गंगा (नदी) आदि।
(ख) लाक्षणिक – शब्द वे हैं जिनसे रूढ़ि के कारण या किसो प्रयोजन के लिये मुख्यार्थ से संबद्ध अन्य अर्थ का बोध हो। जैसे- चरनारविन्द (चरण कमल), नरसिंग (नरसिंह), उल्लू (मूर्ख मनुष्य) आदि।
(ग) व्यंग्यार्थ या व्यंजक – शब्द वे हैं जिनमें न तो वाचक या अभिधार्थ के समान मुख्यार्थ का बोध होता है और न लाक्षणिक शब्दों के समान मुख्यार्थ से सम्बद्ध कोई अन्य अर्थ ही प्रतिभासित होता है, अपितु एक गूढ़ या सांकेतिक अर्थ का बोध होता है। विद्वानों का कहना है कि व्यंग्यार्थ एक शब्द का नहीं, पूरे वाक्य का अभिप्राय व्यंग्यार्थ होता है; जैसे ‘सूरज डूब गओ’ इस वाक्य का अर्थ केवल यह नहीं है कि रात्रि होने का ज्ञानमात्र हो जाय। अपितु यह है कि छात्रों को अब पढ़ने बैठ जाना चाहिये, घर की औरतों को अपनी गृह-व्यवस्था कर लेना चाहिये, पुजारी जी को मन्दिर में संध्या पूजा कर लेना चाहिये, गाय वगैरह व्यवस्थित बांध दी जाना चाहिये। चोरों के भय से सावधान हो जाना चाहिये। यह सभी अर्थ भले आदमियों के लिये हैं। जबकि चोरों, जुआड़ियों और दुराचारियों के लिये यह ‘अच्छे मौके’ के सूचक हैं।
अर्थ के आधार पर बुंदेली शब्दावली को अनेक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है; जैसे- एकार्थी, अनेकार्थी (बह्वर्थी), समानार्थी (पर्यायवाची), विलोमार्थी (विपरीतार्थक), ध्वनि बोधक, युग्म और विविध।
(क) एकार्थी शब्द – जिनका एक से अधिक अर्थ नहीं होता मनुष्यों के नाम; देशों के नाम, नगरों के नाम, गाँवों-कस्बों के नाम, पहाड़ों के नाम, नदियों के नाम, महीनों के नाम, दिनों के नाम, उपाधियाँ, कलाएँ, विद्याएँ, भाषाएँ, बीमारियाँ, कानून या विज्ञान के पारिभाषिक शब्द प्रमुखतः इसके अन्तर्गत आते हैं।
पारिभाषिक शब्दों का एक ही अर्थ होता है; अन्यथा ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भ्रान्तियाँ पैदा हो जाँय और न्यायालयों में किसी मुकद्दमे का निर्णय न हो सके।
(ख) अनेकार्थी शब्द – शब्द कोषों में किसी शब्द के कई अर्थ मिल जाते हैं किन्तु व्यवहार में वाक्य के अन्तर्गत एक शब्द का प्रायः एक ही अर्थ होता है। और उस एक अर्थ का ग्रहण प्रकरण के अनुसार ठीक-ठीक समझा जा सकता है। उदाहरण के लिये ‘नाथ’ शब्द को ही लीजिये – पत्नी के लिये पति, भक्त के लिये भगवान, नौकर के लिये मालिक, नागपंचमी के दिन साँप देखने वाले बच्चों के लिये साँप दिखाने वाला सपेरा और गर्रा बैल को वश में रखने के लिये नाक में पहिनाया गया ‘नाथ’ नामक रस्सी का एक टुकड़ा मात्र है। स्पष्ट है कि किसी पतिभक्ता पत्नी की ‘हे नाथ! बहुत दिन हो गये, अब तो दर्शन दो’ पति के दर्शन की भावना समझ में आवेगी, सपेरे को देखने की नहीं।
इसी प्रकार कुछ अन्य शब्द भी देखिये –
गोली — सिलाई के लिये सूत की, बुखार के लिये दवा की, डाकू भगाने के लिये बन्दूक की।
काल — (समय) पैल (पहले) के काल की का बात कइये ?
(मृत्यु) ऊके सिर पै काल मड़रात दिखात।
वर — (दूल्हा) व्याव की बेरां घर-वर सवई तौ देखो जात।
पानी — (जल) ई कुआ को पानी खूब-ई मीठौ है।
(चमक) जौ मोतीं पानीदार नईं दिखात।
(आब-इज्जत) पैसा है तो का भओ ? उनकी तो बातन में जौ पतो चलत के वे कित्ते पानी में हैं।
हार — ( पराजय) चुनाव में हार-जीत तौ होत-ई है।
( फूलमाला) भारत के प्रधान मंत्री खों हार पैरा कैं स्वागत करो।
( गले का आभूषण) रानी कौ नौलखा हार कोउ नें चुरा लओ।
(जंगल) किसान अपनें बैलवा लै कें हार खाँ गओ।
(ग) समानार्थक या पर्यायवाची शब्द
समानार्थक शब्द पूर्ण और अपूर्ण दो प्रकार के होते हैं-
(1) पूर्ण पर्याय
जो किसी वाक्य में एक दूसरे का स्थान ले सकें, उनके अर्थ में कोई अन्तर न पड़े। जैसे-किताब और पोथी (पुस्तक), धंदा (धंधा) और पेसा (पेशा), पिता और बाप, जल और पानी, लाज और सरम (शर्म), बसत ( वस्तु) और चीज, परबत (पर्वत) और पहार (पहाड़), जहर और बिस (विष), जुर (ज्वर) और ताप (बुखार), एक दूसरे के बदले प्रयोग में लाये जा सकते हैं। मैंने किताब पड़ी (पढ़ी) मैंने पोथी पड़ी (पढ़ी) दोनों वाक्यों का एक ही अर्थ है।
परन्तु इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि पूर्ण पर्याय भी हर तरह के प्रसंगों में एक दूसरे का स्थान लेने में सक्षम नहीं होते। प्रसंग के अनुकूल प्रयोग होने पर ही उनकी सार्थकता देखी जा सकेगी। उदाहरण के लिये ‘हिसाब और गणित’ शब्दों को लीजिये ‘हिसाब’ और गणित’ दोनों एक है लेकिन दूकानदार के लेन-देन का भुगतान करते समय हिसाब’ ही किया जायगा, गणित नहीं।
शैली और वातावरण के भेदक आधार पर भी शब्द और अर्थ का भेद हो जाता है। पूर्ण पर्यायवाची होने पर भी कुछ शब्दों का प्रयोग केवल साहित्य में होता है, बोलचाल की भाषा में नहीं। नेंन (नयन), सुमन (पुष्प)।
(2) अपूर्ण पर्याय
जिनके अर्थ और प्रयोग में परस्पर अन्तर होता है अतः ये किसी वाक्य में एक दूसरे का स्थान नहीं ले सकते। इनका अन्तर बहुत सूक्ष्म अर्थ निरीक्षण से ही पता लगता है। निम्नांकित शब्दों के अर्थ भेद को आदर्श मानकर अनुभव किया जा सकता है-
(1) अनयाय (अन्याय) नियम या कानून के विरुद्ध, अधर्म–धर्म के विरुद्ध कार्य।
(2) अपराध – राजकीय नियमों की अवहेलना। पाप-सामाजिक या धार्मिक नियमों का।
(3) आनन्द – स्थायी तथा व्यापक होता है, हर्ष अस्थायी एवं सीमित होता है।
(4) आशा – अभीष्ट वस्तु प्राप्ति की चाह, विश्वास–सहायता का भरोसा।
(5) कलंक —लांछन, अपजस (अपयश) अधिक स्थायी और व्यापक बदनामी।
(6) कष्ट–शारीरिक और मानसिक असुविधा, दुःख-मानसिक कष्ट।
(7) क्लेश– पूरे मन का अप्रिय भाव, खेद-भूल चूक के कारण मानसिक शैथिल्य।
(8) काम – साधारण कोई भी कार्य, पेशा– आजीविका का स्थायी कार्य।
(9) किराया – मकान या दूकान आदि का, भाड़ा बैलगाड़ी, बस, ट्रक, रेल आदि का।
(10) खटपट – अनबन या कहासुनी, गड़बड़-अव्यवस्था।
(11) पत्नी– परिणीता पत्नी, स्त्री– कोई भी स्त्री।
(12) पुत्र अपना लड़का, बालक – किसी का भी बालक।
(13) पूजा–भक्ति पूर्ण स्तुति, प्रार्थना, अर्चना – नैवेद्य आदि सहित पूजा।
(14) विधि– जानने की, शिक्षा– व्याकरण आदि सीखने की।
(15) संका (शंका) द्विविधा, सन्देह – अनिश्चय।
(3) विलोमार्थी या विपरीतार्थी शब्द
जो शब्द एक दूसरे से उलटा अर्थ देते हैं वे विलोमार्थी या विपरीतार्थी शब्द कहे जाते हैं। ये विपरीतार्थक शब्द भिन्न शब्दों से, नकारात्मक उपसर्ग और उपसर्गों के परिवर्तन से बनाये जाते हैं। क्रमशः उदाहरण प्रस्तुत है-
(क) भिन्न शब्द से
अँदयारी, उजयारौ जीत, हार पंडत, मूरख
अधिक, कमती टूटबौ, जुरबौ बूढ़ौ, बारौ
अमरित, विस ठंडौ, गरम भलाई, बुराई
आंगूं, पाछूँ तींतौ, सूकौ मांगौ, सस्तौ
ऊँचौ, नेचौ तेज, मद्दौ जोगी, भोगी
उतार, चढ़ाव थोरौ, भौत रात, दिन
कर्रौ, कोंरौ दिन, रात राग, दोष (द्वेष)
खरौ, खोटौ दाखिल, खारिज लाभ, हानि
गुन, औगन दोस्त, दुश्मन सत्रु (शत्रु), मित्र
गुरू, चेला नन्नों, बड्डौ सांचौ, लाबरौ
जनम, मरन नओ, पुरानौ सुख, दुःख
जबर, पतरौ पाप, पुन्य सरग, नरक
(ख) नकारात्मक उपसर्ग और उपसर्गों के परिवर्तन से
अर्थ, अनर्थ जोग, वियोग सुलभ, दुरलभ
आदर, निरादर लोक, परलोक सुतंत्र, परतंत्र
आदि, अनादि विधवा, सधवा स्वदेश, परदेश
उचत, अनचत सगुन, निरगुन साकार, निराकार
चल, अचल, सचेत, अचेत संकलप, विकलप
धरम, अधरम सज्जन, दुरजन संभव, असंभव
नीत, अनीत सपूत, कपूत सुद्द, असुद्द
पच्छ, विपच्छ सारथक, निरर्थक सुमारग, कुमारग
मान, अपमान सुगंद, दुर्गंद सुकाल, अकाल
जस, अपजस सुमत, कुमत
कुछ विपरीतार्थक या विलोम शब्द एक साथ भी प्रयोग में आते हैं-
अपने पराये, आकास-पाताल, ऊँच-नीच, उतार-चढ़ाव, गुन-औगुन, खरौ-खोटौ, जीवन-मरन, थोरौ-भौत, न्याय-अन्याय, मान-अपमान, लाभ-हानि, लोक-परलोक, वाद-विवाद, सुक्ख-दुक्ख, सज्जन-दुरजन और हार-जीत आदि।
(4) युग्म शब्द
युग्म शब्दों में उच्चारण में बहुत थोड़ा अन्तर होता है परन्तु अर्थ में केवल बहुत अन्तर ही नहीं; कोई सम्बन्ध ही नहीं होता। शब्द के स्वरूप को ठीक समझ कर उपयोग में सावधानी के लिये युग्म शब्दों को समझना अधिक आवश्यक एवं उपयोगी है। एक स्वर मात्र के अन्तर पड़ने से दूसरा ही अर्थ हो जाता है। इसी प्रकार व्यंजन के अन्तर से भी अर्थ कुछ से कुछ और ही हो जाता है। एक ही स्वर के अन्तर को (ह्रस्व और दीर्घ के अन्तर को) देखिये –
‘अ‘ और ‘आ‘
अब, आब गल, गाल चल, चाल धर, धार
कल, काल घर, घार छल, छाल मन, मान
खल, खाल हट, हाट जल, जाल समान, सामान
‘इ‘ और ‘ई‘
किला, कीला दिन, दीन मिल, मील पिरा, पीरा
सिख, सीख पिटना, पीटना चिता, चीता हिरा, हीरा
‘उ‘ और ‘ऊ‘
बुरा, बूरा पुरा, पूरा दुर, दूर सुखी, सूखी
चुकबो, चूकबौ सुत, सूत बुझबो, बूझबौ कुरा, कूरा
लुटबो, लूटबौ घुस, घूस धुरा, धूरा सुरा, सूरा
‘ए‘ और ‘ऐ‘
बेद, बैद चेला, चैला सेर, सैर
मेला, मैला बेल, बैल पेरना, पैरना
‘ओ‘ और ‘औ‘
ओर, और खोलना, खौलाना बोना, बौना
कोड़ी, कौड़ी लोटबौ, लौटबौ कोर, कौर
कुछ और उदाहरण –
कथा, कत्था मोर, मौर नहर, नाहर कमर, कमल
कुमार, कुम्हार खारी, खाड़ी लपट, लिपट गट्टा, गट्ठा
गृह, ग्रह हट, हाट अचार, आचार सास, सांस
चीर, चील सदेह, संदेह कंकाल, कंगाल हँसी, हाँसी
(5) विविध शब्द
इनके अतिरिक्त समूहवाची शब्दों का तथा वाक्यों या वाक्यांशों के लिये प्रयुक्त होने वाले ‘संक्षिप्त एक शब्द’ भी हैं-
(क) समूह वाचक शब्द
गइयन की गोंखर नाज के ढेर मांसन की भीड़
चिरइयन के झुंड गाड़रन कौ गुड़ौं डाकुअन कौ गिरोह
फूलन के गुच्छा बैलवन की जोड़ी स्वयं सेवकन कौ जत्था
(ख) वाक्यों या वाक्यांशों के लिये एक शब्द
- जिसके पास कुछ भी न हो –कंगला
- जिस बच्चे के मां-बाप न हों – अनाथ
- जिसका पार न हो – अपार
- जिसने अपना ऋण चुका दिया हो – ऊरन (उऋण)
- जो गाँव से सम्बन्धित हो – गंवइयाँ (ग्रामीण)
- बरसात के चार महीने – चौमासौ (चातुर्मास)
- तीसरे दिन आने वाला ज्वर – तिजारी
- तीन नदियों का संगम – तिरवेनी (त्रिवेणी)
- पति का घर -पीहर, सासरौ (स्त्री की ससुराल)
- स्त्री की माता का घर – नैहर, मायकौ (पति की ससुराल)
(ग) पुनरुक्त शब्द
पुनरुक्त का अर्थ है “एक बार फिर कहे हुये” ये कुल मिलाकर छः प्रकार के होते हैं-
(1) ऐसे शब्द जिनमें एक ही शब्द पुनः बोला जाता है, जैसे-
(क) प्रत्येकार्थक– घर-घर, घरी घरी, गैल-गैल, पुरा-पुरा।
(ख) भिन्नार्थक या पृथकार्थक–कारे-कारे, गोरे-गोरे, नन्ने-नन्ने, बड़े-बड़े, नौनें-नौनें, न्यारे-न्यारे आदि।
(ग) सामूहिक संख्यासूचक– दो-दो, चार-चार, पाँच-पाँच आदि।
(घ) नैरन्तर्य द्योतक– चलत-चलत, बैठें-बैठें, परैं-परैं, खा-खाकें, ल्या-ल्याकें (ला-लाकर), धर-धरकें, दौर-दौरकें आदि।
(2) अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिये (बल देने के लिये) और अर्थ में विस्तार करने के लिये पर्याय या समानार्थक शब्दों का प्रयोग, जैसे-
बाल-बच्चे (सारा परिवार), धन-दौलत (सारी सम्पत्ति) उन्ना-लत्ता, जान-पेंचान, ढांका-मूंदी, देखा-तकी, लुका-छिपी, लीपा-पोती, लिखा-पड़ी, भूलो-भटको, थको-मांदो, भूलो-विसरो, मिलबो-जुरबो, जान-बूजकें, सोच-समजकें, सिकै-पड़ैकें।
(3) अर्थ में विशेषता लाने के लिये कभी-कभी सार्थक शब्द के पूर्व एक प्रतिध्वनि सी जोड़ी जाती है। जैसे निम्नांकित युग्मों में पहला शब्दांग प्रति-ध्वनित है-
आस-पास, अदलौ-बदलौ, आमने-सामनें, इने-गिनें, अतौ-पतौ, आर-पार आदि।
(4) प्रतिध्वनित शब्द कभी बाद में जोड़ा जाता है। जैसे- पास-आस, बदली-अदली, पतौ-अतौ, कागज-वागज, मिठाई-सिठाई, पूँछ ताँछ, बचौ-खुचौ, गलत-सलत आदि।
(क्रमांक 3.4 के अन्तर्गत जो प्रतिध्वनित शब्द हैं वे यद्यपि निरर्थक हैं परन्तु सार्थक शब्दों के संगति से अर्थ विस्तारक है)।
(5) कभी-कभी दोनों ही शब्द निरर्थक होते हैं। वे सदा जोड़ों में प्रयुक्तः होते हैं। जैसे-अफरा-तफरी, अंट-संट, अनाप-सनाप, अंड-बंड आदि।
(6) कुछ जोड़े विलोम या विपरीतार्थक शब्दों से बनते हैं, जैसे-आंगौ-पीछौ, आज-काल, ऊँचौ-नीचौ, नफा-निकसान, दिन-रात, उठत-बैठत, आउत जात, सोउत-जगत आदि।
4. रूपान्तर के आधार पर शब्द भेद
कुछ शब्दों में लिग, वचन और कारक आदि के अनुसार रूपान्तर, विकार या परिवर्तन होता है, जैसे-लड़का, लड़के, लड़की और लड़कों आदि; मैं, हम, अच्छा, अच्छे, लिख, लिखा-लिखी आदि। परन्तु कुछ में कोई रूपान्तर विकार या परिवर्तन नहीं होता। जैसे पर, अचांनक, बिनां आदि। इस रूपान्तर विकार या परिवर्तन के आधार पर इनको दो वर्गों में विभाजित किया जाता है-
(क) विकारी शब्द– (1) संज्ञा, (2) सर्वनाम (3) विशेषण और (4) क्रिया।
(ख) अविकारी शब्द–अव्यय– (1) क्रिया विशेषण, (2) सम्बन्ध सूचक, (3) समुच्चय बोधक और (4) विस्मयादि बोधक।
इसी रूप तत्व के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्गीकरण किया गया है। आगे इन आठों के सम्बन्ध में विचार किया जायगा। साथ ही, विकारी शब्दों में विकार या परिवर्तन लिंग, वचन और कारक आदि के कारण होता है अतः इनका विवेचन भी प्रसंगानुसार आगे यथास्थान किया जायगा।
5. रचना के आधार पर शब्द भेद
(क) रूढ़ – जिन शब्दों के खण्ड सार्थक न हों, जैसे- जल का ज ल, खण्ड का कोई अर्थ नहीं। इसलिये यह रूढ़ अर्थात् किसी के लिये प्रसिद्ध नहीं।
(ख) यौगिक– जिन शब्दों के खण्ड सार्थक हों। जैसे-जलवारौ, पाँव पियादौ, बैलगाड़ी आदि। इनके जल+वारौ, पाँव+पियादौ, बैल+गाड़ी आदि। ये खण्ड सार्थक हैं। इसलिये ये यौगिक अर्थात् मेल से बने हुये शब्द हैं।
(ग) योग–रूढ़– जो शब्द यौगिक होने पर भी किसी अर्थ में प्रसिद्ध हों। पङ्कज (कमल) कीचड़ में कीड़े आदि भी पैदा होते हैं परन्तु वे पंकज नहीं कहलाते। इसलिये ये यौगिक होते हुये भी रूढ़ होने के कारण योग-रूढ़ शब्द हैं।
“शब्द रचना” प्रकरण के अन्तर्गत इस सम्बन्ध में विस्तृत विचार किया जायगा।
2. शब्द–प्रयोग (रूप विचार)
(क) विकारी शब्द
रूपान्तर, या विकार के आधार पर भी शब्दों का वर्गीकरण किया जा सकता है, यह बात पहले कही गई है। विवरण इस प्रकार है-
- संज्ञा की रूप-रचना के तीन आधार हैं- लिंग, वचन और कारक।
- सर्वनाम की रचना के भी तीन आधार हैं- पुरुष, वचन और कारक।
- विशेषण की रचना के चार आधार है- लिंग, वचन, कारक और तुलनावस्था।
- क्रिया की रचना के सात आधार हैं- लिंग, 2.वचन 3.पुरुष, 4.वाच्य, 5.कृदन्त, 6.भाव या अर्थ, और 7.काल।
इन आधारों को कोटियाँ भी कह सकते हैं। डॉ. वाहरी का मत है कि शब्द जब नाना रूप धारण करते हैं तो पद कहलाते हैं। इसलिये रूप विचार को पद विचार भी कहा जाता है। पद विचार या रूप विचार वास्तव में शब्दों के प्रयोग का विषय है, क्योंकि वाक्य में जब उनका प्रयोग होता है, तभी वे रूप बदलते हैं, तभी वे पद बनते हैं।
किन्तु न तो सभी शब्द एक तरीके से रूपान्तरित होते हैं और न ही परिवर्तनशील ही होते हैं, जैसे- वाह-वाह। क्यों, आज, के ऊपर, आदि में कोई परिवर्तन होता ही नहीं।
विद्वानों का कहना है कि वास्तव में व्याकरण का यही विषय है। वे लोग व्याकरण का अर्थ ‘रूप विचार’ या ‘पद विचार’ ही लेते हैं। उनके मत से व्याकरण वह शास्त्र है जो शब्दों के रूपों और प्रयोगों का निरूपण करता है। ध्वनि और शब्द निर्माण का विषय अब व्याकरण से अलग माना जाता है। अस्तु।
1. संज्ञा
संज्ञा किसी प्राणी, वस्तु, गुण, काम या भाव आदि के नाम को कहते हैं। सारांश यह है, कि किसी के भी नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे- घर, आकाश गंगा, देवता, अक्षर, बल, जादू इत्यादि।
संज्ञा के भेद
(1) व्यक्तिवाचक (2) जातिवाचक (3) समूहवाचक (4) द्रव्यवाचक (5) भाववाचक।
परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि क्रियार्थक संज्ञा संज्ञा नामक एक भेद और स्वीकार किया जाना चाहिये। जाना, आना, उठना, बैठना आदि को हम क्रिया कहते हैं किन्तु वास्तव में इनका प्रयोग संज्ञा के रूप में होता है। इनमें भी लिंग, वचन और कारक के अनुसार विकार होता है। इन्हें क्रियार्थक संज्ञा कहते हैं। उदाहरण- उसका जाना मुझे अच्छा नहीं लगा। झगड़ने से बात बिगड़ जाती है।
परन्तु श्री कामता प्रसाद गुरु का कहना है कि क्रियावाचक संज्ञा का अन्तर्भाव भाववाचक संज्ञा के अन्तर्गत मानना उचित है। क्योंकि भाववाचक संज्ञा के लक्षण में क्रियावाचक संज्ञा भी आ जाती है। श्री गुरु ने संज्ञा के मुख्यतः दो भेद माने हैं–
(1) पदार्थवाचक और (2) भाववाचक।
पदार्थवाचक संज्ञा के उन्होंने दो भेद किये हैं-
(1) व्यक्तिवाचक और (2) जातिवाचक। समुदायवाचक या समूहवाचक संज्ञा के सम्बन्ध में उनका मत है कि इसका समावेश व्यक्तिवाचक तथा जाति-वाचक में हो जाता है। द्रव्यवाचक संज्ञा का समावेश भी वे जातिवाचक संज्ञा में मानते हैं।’1
1. व्यक्ति वाचक संज्ञा
जो किसी एक का बोध कराए। जैसे- राम, चेतक, डिल्ली (दिल्ली) जमना (यमुना) यहाँ ‘राम’ किसी एक व्यक्ति (दशरथ के पुत्र या कोई अन्य) का नाम है, सभी मनुष्यों का नहीं। इसी प्रकार ‘चेतक’ राणा प्रताप के घोड़े का नाम है, ‘डिल्ली’ एक नगर का नाम है और ‘जमना’ एक सुप्रसिद्ध पवित्र नदी का नाम है।
बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्र में प्रचलित व्यक्तियों के नाम बहुत संक्षिप्त बोलने में सरल और स्वाभाविक होते हैं जैसे- अमान, अड़कू, अमरित, ईसरी, इन्दर, उमरौआ, ऊदल, औगड़, कलू, कन्नू, कुन्नू, कनई, कस्मोदे, कपूरे, कासी, खरगन, खरगाई, खुन्दे, गनेस, गुन्चे, गुंडे, गडू, गिन्ठे, गेंदा, गुलखाई गोरे, घंसू, घनस्याम, चतरे, चंपा, चिन्टे, छतारे, छन्नू, छैकोंड़ी, छिम्मे, छिदामी, छिद्दी, छुट्टन, छोटे, जस्तू, जसरत, जग्गू, जुगन, जुग्गे, झंडे, तुलसी, थोबन, दलू, दामोदर, धरम, धन्नू, नन्नू, नन्नें ननई, नन्ने, भैया, नोंनें, परम, परमोले, परमा, परसू, पन्ना, फदाली, बाबू, बंसी, भंडारी, मनकू, मनके, मुन्नू, मुलू, लाल्ले, लल्लू, लल्ला, सरमन, हरदियाल, हरी, हीरा आदि। ये सभी नाम सुनने में अच्छे नहीं लगते अतः छोटी जातियों में भी आधुनिक नाम प्रचलित हो गये हैं।
इन नामों के अन्त में जाति के आधार पर चन्द, दास, सींग, लाल, परसाद आदि शब्द जोड़ कर भी प्रयोग में लाये जाते हैं। जैसे- रामचन्द्र, रामदास, रामसींग, रामलाल, राम परसाद।
लड़कियों और महिलाओं के नाम तुलसा, तुलसिया, रमियाँ, जनका, जनकिया, जमना, गौरा, गौरिया, लच्छा, लछिया, हरवाई आदि होते हैं। नदी और पहाड़ आदि के नाम स्थान-स्थान के अनुसार भिन्न हैं
2. जाति वाचक संज्ञा
जो किसी एक पूरी जाति का बोध कराए। ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि राम, चेतक, डिल्ली और जमना जू केवल एक का बोध कराते हैं। अपनी पूरी जाति का नहीं। इनकी पूरी जाति का बोध कराने वाले शब्द क्रमशः मनुष्य, घोड़ा, शहर और नदी ही हो सकते हैं। अतः ये शब्द जाति वाचक संज्ञा हैं- क्योंकि ये समान रूप वाली एक से अधिक वस्तुओं का या जाति का बोध कराते हैं। इस प्रकार किसी जाति वाचक संज्ञा की एक इकाई ही व्यक्ति वाचक संज्ञा है। परन्तु कभी-कभी व्यक्तिवाचक संज्ञा अपने विशेष गुण या अवगुण के कारण एक से अधिक का बोध कराने लगती है और उस स्थिति में वह जातिवाचक संज्ञा बन जाती है। उदाहरण के लिये –
सीता- आदर्श पत्नी (घर-घर में सीता नई मिल सकत)
जयचन्द- देश द्रोही (जयचन्दों के कारण देस परतन्त्र भऔ)
हरिश्चन्द्र – सत्यवादी (भारत में एक समव वौ सोऊ हतौ जब घर-घर में हरचन्द हते)।
उक्त उदाहरणों में ‘सीता’ एक नारी का बोध न कराकर ‘सभी आदर्श पत्नियों’ का बोध कराती है। इसी प्रकार ‘जयचंद’ देश द्रोही का और ‘हरीचन्द्र’ सत्यवादी का बोध कराते हैं। उक्त कथन से स्पष्ट है कि जातिवाचक संज्ञा-सूचक नाम उस जाति या समूह की किसी एक सामान्य विशेषता को लेकर रखे जाते हैं। यह धर्म, लिंग, काम, रंग, स्थान, फल आदि किसी के भी सूचक हो सकते हैं। जैसे-
धर्म सूचक – हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, ईसाई।
कर्म (काम) सूचक – बामन, ठाकुर, बानियाँ, लुहार, सुनार, चमार आदि।
स्थान–सूचक– भूटानी, पंजाबी, बुंदेलखण्डी आदि।
रंग सूचक – गोरौ, भूरौ, करिया आदि।
फल सूचक – अमियां, बिही, केरा, बेर, मकोरा आदि।
प्राणी सूचक – गइया (गाय), भैंसिया (भैंस), कुत्ता, बिलैया (बिल्ली), आदमी आदि।
कभी-कभी संज्ञा के प्रकारों में दो भेदों का और उल्लेख मिलता है-
3. समूह वाचक
जिस नाम या शब्द से अनेक चीजों या प्राणियों के समूह का बोध हो, जैसे सेंना, भीर (भीड़) गड्डु, झुण्ड, हेड़, बगर, ढेर, बरात, गोल, जैंट, जुट्ट, जमाव (जमाओ) गट्टा, गठरिया, गिरोह, टीम, कतार, लैन, पूरा, बीजौ, मौरी, मूटा, रास, हजम्मौ, हाट आदि।
ये नाम सम्बन्धी चीजों के आकार, गिनती, क्रिया आदि किसी भी एक चिन्ह के आधार पर पड़ जाते हैं।
4. द्रव्य वाचक
जिस संज्ञा से किसी द्रव्य का बोध हो, जैसे- सोंनौ, चाँदी, अन्न आदि।
वस्तुतः संज्ञा के दोनों ही रूप जाति वाचक संज्ञा के ही अन्तर्गत आते हैं क्योंकि सेंना या सोंनौ आदि भी एक प्रकार से जाति ही है। परन्तु सामान्य जाति वाचक संज्ञाओं में तथा इनमें कुछ अन्तर अवश्य है। अन्तर का कारण यह है कि समूह वाचक संज्ञाएं जाति वाचक संज्ञाओं की किसी एक जाति के समूह से बनती हैं। जैसे- मनुष्य जाति वाचक संज्ञा है परन्तु बहुत से मनुष्यों का एकत्र रूप ‘भीड़’ समूह वाचक है।
प्रयोग की दृष्टि से अन्य जाति वाचक संज्ञाओं से द्रव्य वाचक संज्ञाएँ भिन्न हैं। अन्य जाति वाचक संज्ञाओं के साथ संख्या वाचक विशेषणों को जोड़ा जा सकता है, जैसे-एक बैलवा, दो गइयाँ, तीन बिलइयाँ आदि। परन्तु द्रव्य वाचक संज्ञाओं के साथ परिमाण वाचक विशेषण ही जोड़े जा सकते हैं, जैसे कछू सोंनौं, थोरौ, पानूं, आदि। संख्या वाचक विशेषण नहीं जोड़े जा सकते, जैसे-एक सोंनौं, दो पानूं आदि कभी नहीं कहा जा सकता।
5. भाव वाचक संज्ञा
जो किसी गुण, धर्म, दशा या भाव आदि का बोध कराये, जैसे- सुन्दरताई, सुन्दरता, सुक्क (सुख), मिन्त्रता आदि। भाव वाचक संज्ञा का अपना अलग अस्तित्व नहीं होता। यह किसी वस्तु में रहने वाले धर्म का नाम होती है। सुन्दरता किसी व्यक्ति या वस्तु में होगी। सुख किसी कार्य या स्थिति में होगा। मित्रता दो या अधिक व्यक्तियों में होगी।
भाव वाचक संज्ञाएँ कई प्रकार के शब्दों से बनती हैं। जैसे-
(क) जाति वाचक संज्ञाएँ – गदा (गदहा) से गदापन, मनंख (मनुष्य) से मनंखपन आदि।
(ख) विशेषण से – सुन्दर से सुन्दरता, ठंडी से ठंडक, मीठौ से मिठास, पीरौ से पीरौपन आदि।
(ग) क्रियाएँ – मारबौ (मारना) से मार, छटपटाऔ से छटपटाट (छटपटाहट) चलबौ (चलना) से चाल आदि।
(घ) सर्वनाम से – अपनौ (अपना) से अपनत्त (अपनत्व) अपनोंपन, अपनापौ, मम से ममता या ममत्त (ममत्व) तथा आपसे आपौ आदि।
संज्ञा के रूप में कभी-कभी व्याकरण के अन्य रूप सर्वनाम, विशेषण, क्रिया विशेषण तथा विस्मयादि बोधक अव्यय आदि भी प्रयुक्त होते हैं जिनमें विशेषण प्रमुख है, जैसे- ‘अच्छन, की संगत करौ’, ‘बड़न खों परनाम करौ’ में ‘अच्छन’ और ‘बड़न’।
संज्ञाओं में अन्तर
सभी संज्ञाओं में पर्याप्त अन्तर है। अर्थ नहीं देते हैं। उनसे किसी जाति के व्यक्ति वाचक संज्ञा शब्द प्रायः कोई एक व्यक्ति का परिचय या सूचना मिलती है। परन्तु जाति वाचक संज्ञा शब्द सार्थक होते हैं। उनसे किसी पदार्थ या प्राणि विशेष का बोध होता है। ध्यान देने की बात है कि लड़की शब्द मानवीय सन्तान के सिवा अन्यत्र प्रयुक्त नहीं होगा। इसके सिवा जाति वाचक संज्ञा में एक श्रेणी को दूसरी श्रेणी में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, जैसे नदी और पहाड़। दोनों में अर्थ की दृष्टि से भी अन्तर है।
बुंदेली संज्ञाओं के विविध रूप
लिंग, वचन तथा कारक- विभक्ति प्रत्ययों से संयुक्त बुंदेली संज्ञाओं के कहीं सानुनासिक, कहीं निरनुनासिक स्वर, कहीं एकाकी तथा कहीं द्वित्व व्यंजन संयुक्त-विविध रूप देखने को मिलते हैं। यह अनेक ध्वनि रूपों में प्रारम्भ मिलते हैं तो अनेक ध्वनि रूपों में इनका अन्त भी होता है।
बुंदेली की स्वरादि संज्ञाएँ ‘अ’ से प्रारम्भ होकर ‘औ’ तक जाती हैं तथा व्यंजनादि संज्ञाएँ ‘क’ से लेकर ‘ह’ तक जाती हैं।
स्वरान्त संज्ञाएँ ‘अ’ से प्रारम्भ होकर ‘औ’ तक जातीं हैं और व्यंजनान्त संज्ञाएँ ‘क’ से लेकर ‘स’ तक जातीं हैं।
प्रश्न यह उठता है कि स्वरादि संज्ञाएँ अकारान्त क्यों नहीं मानीं जातीं ? उसी से सम्बन्धित प्रश्न है- आकारान्त संज्ञाएँ स्वरान्त हैं या व्यंजनान्त ? जैसे- ‘घर’ और ‘बात’ शब्द अकारान्त स्वर संज्ञाएँ हैं या रकारान्त, तकारान्त व्यंजन संज्ञाएँ हैं।
समाधान यह है कि यह प्रश्न परम्परा से विवादग्रस्त है। अतः वस्तुतः विश्लेषण की सुविधा जिसमें हो वही रूप स्वीकार करना श्रेयस्कर होगा भाषा विज्ञानियों ने इस सम्बन्ध में दो बातों पर ध्यान दिलाया है-
(1) शब्दान्त में ‘घर’ और ‘बात’ इन दोनों शब्दों के ‘र’ तथा ‘त’ में स्थित ‘अ’ का उच्चारण कर्णगत नहीं है। लिपि परम्परा का निर्वाह कर रही है, पर लिपि भाषा के लिये साधन है, साध्य नहीं। शब्द के मध्य में भी ऐसी ही कुछ असंगत स्थितियाँ भाषा परिवर्तन के कारण आ उपस्थित हुई हैं। जैसे-
‘चलता’ एवं ‘उल्टा’ ये दोनों ही ‘ल’ समान समय में उच्वरित होते हैं फिर एक स्वर सहित और दूसरा स्वर रहित क्यों ? उच्चारण में ‘चुनना’ एवं ‘चुन्ना’ (नाम-विशेष) में तथा ‘सुनती’ एवं सुन्ती (सुमित्रा का अपभ्रंश) में कोई अन्तर नहीं।
(2) शब्दान्त में ‘अ’ ही क्यों सभी ह्रस्व स्वरों ‘इ’ और ‘उ’ का भी भाषा में लोप मिलता है। सान्ति-सान्ती, साधु-साधू, मति-मती बनकर आते हैं।
इन आधारों पर ‘घर’ और ‘बात’ आदि शब्दों को व्यंजनान्त मानकर चलने में सुविधा है।
स्वरादि तथा व्यंजनादि संज्ञाएँ
बुंदेली के संज्ञा शब्दों का आरम्भ स्वर और व्यंजन दोनों से होता है। जैसे-
(क) स्वरादि संज्ञाएँ
अ– अतर (इत्र), अमरत, अमरित (अमृत), अरग, अरघ (अर्ध), अंदयारौ (अंधेरा), अटारी, अनार, अनोय, अन्होनी, अफरा, अबाई।
आ– आगी, आदौ (अदरक), आबरदा, आसरौ, आरौ।
इ– इमचुर।
ई– ईंगुर, ईंदन, ईसुर।
उ– उन्ना, उड़ौना, उखरी, उगरियाँ, उरइयाँ।
ऊ– ऊमर, ऊन।
ए– एड़, एबड़ा, एरन।
ऐ– ऐंना, ऐंतबार।
ओ– ओखद (औषधि), ओड़ना-बिछौना, (ओढ़ने-बिछाने के कपड़े)।
औ– औरत (स्त्री)।
(ख) व्यंजनादि संज्ञाएं
क– ककई, ककरी, कनक, ककरा, कागद, कालौनो, कौर, कुची, कइयां, कन्नफूल।
ख– खटला, खटकीरा, खाट, खपरिया, खता, खजुवा (भूरा कुम्हड़ा), खलीता (पाकेट)।
ग– गऊ, गारी, गैल, गटा, गदिया (हथेली), गरदा, गानों (आभूषण), गुंइयाँ।
घ– घुलघुला, घरिया, घैला, घड़ी, घामों, घटिया (मार्ग की चढ़ाई), घींच।
च– चुरियाँ, चलाव (गौना), चपिया। ((मिट्टी का एक वर्तन)
छ– छला, छेवलौ, छांयरो, छीताफल, छप्पर, छवला, छांहरी (छाया)।
ज– जनम, जवारे, जांगा, जोरा, जउआ (छोटा फल), जांतों, जतरिया।
झ– झारी, झिर, झिन्ना, झूला, झूमर।
ट– टटेरौ, टकसार, टोंटी, टरेटौ, टूंका, टिकली, टेंट, टिया, टुंइया, टोटका।
ठ– ठठेरौ, ठलुआ, ठिया, ठठरी।
ड– डंगरा, डांग, डांकू, डुकरिया, डबिया, (डिविया) डबला, डरैया, डिठ्ला, डेरा।
ढ– ढकना, ढोर, ढोंग, ढिंग, ढुलकिया, ढिरिया (सूत कातने का यंत्र)।
त– तवला, तमूरा, तमंचा, तखरिया, तबा, तमला, तुबक, तामों।
थ– थरा, थरौ, थानों, थुनिया, थपरिया, थैलिया।
द– दूद, दई, दूला, दुलैया, ददौरा, दूबा, दुगई, दौना।
ध– धरती, धन, धतूरौ, धनां, धुनिया।
न– निसांन, नोंन, नैत, नेंग, निरोंना, नेंनूं।
प– पटैल, पाग, पगैया, पिसान, पराँत, परी, पातर (पत्तल), पाती, पिछौरा, पुतरिया, पुंगरिया।
फ– फदक, फुदकुली, फरिया, फुनगुनिया, फुलारा।
ब– बदक, बतकाव, बऊ, बखरी, बखर, बात, बिन्ना, बिटिया, बुकरिया।
भ– भियाने, भींट, भुनसारौ।
म– मताई, मम्मा, मौसी, मौसिया।
र– रजपूत, रंगरेज, राख, राखी, रजऊ, रूपौ, रात, रेता, रेत, राई, रोज।
ल– लरका, लरकी, लटा, लठ्ठा, लठिया, लठ्ठ, लुचई (पूड़ी), लोग-लुगाई।
व– के बदले ‘ब’ का प्रयोग होता है।
स– सिर, संजा, सबेरो, सावन, सास, सारी, साराज, सांस, सींकौ, सेव।
ह– हर, हड़िया, हँसिया, हार, हाड़ होरा, हांती, हांत (हाथ), हांते, होरा।
स्वरान्त तथा व्यंजनान्त संज्ञाएं
बुंदेली संज्ञा शब्दों का अन्त भी स्वर और व्यंजन दोनों में होता है। जैसे-
(क) स्वरान्त संज्ञाएं
अ– अकल, असगुन, असतर।
आ– आसा, आतमा, चिरइया, दद्दा, कक्का, मौंडा, विनइयां आदि।
इ– कवि, मुनि आदि इकारान्त शब्दों के उच्चारण में दीर्घ रूप ही प्राप्त है–जोती, कवी, मुनी आदि। या जोत जगी, कव सम्मेलन आदि में उक्त शन्द अकारान्त ही रह जाते हैं।
ई– खांसी, हांसी, फांसी, कांदी, बांदी, चांदी, काजी, पाजी, बाई, लुगाई।
उ– गउ, बउ आदि। उकारान्त शब्द उच्चारण में दीर्घ रूप में प्रयुक्त होते हैं।
ऊ– नेंनू, बिन्नू, चुन्नू, मुन्नू, चरेरू, पड़ेरू, पखेरू, मुन्सेलू आदि।
ए– दुबे, चौबे, सांदेले, मांदेले, झुड़ेले, पड़ेले आदि।
ऐ– चिरै, लड़ै, कै, जै, तै, आदि।
ओ– तमासो, संदेशो, अंदयारो-उजयारो, खानो, कारखानो, भओ, चोऔ आदि।
औ– जौ, माथौ, तारौ, लारौ।
(ख) व्यंजनान्त संज्ञाएं
क– चकमक, तुबक, नोंकर, नाक।
ख– आंख, राख, दाख।
ग– साग, माँग, सींग, हींग।
घ– जांघ, बाघ, (परन्तु इनका उच्चारण जांग, बाग होता है)।
च– कांच, आंच, टांच, छांच।
छ– अलच्छ, कुलच्छ |
ज– राज, काज, महाराज, ताज, बाज, साज।
झ– झांझ, बांझ, मांझ, सांझ।
ट– टाट, खाट, जाट, भाट।
ठ– काठ, ठाठ।
ड– अंड-बंड, खंड, गंड, गुंड, झुंड, ठंड, डंड, फंड !
त– बरात, परात, दवात, मात, हांत (हाथ)।
थ– मांथ।
व– नांद, मांद।
ध– बांध (परन्तु उच्चारण ‘वांद’ किया जाता है)
न– कान, खान-पान, धान, पान।
प– छाप, नाप, सांप।
फ– साफ (परन्तु ‘साप’ उच्चारण किया जाता है)।
ब– गरब (गर्व)।
भ– गरभ (गर्भ)।
म– धरम, करम, काम, धाम, नाम, दाम, चाम।
य– चाय, पाय।
र– हर, हार, खार, धार मार, सार, गार, फार, यार, लार।
ल– कल, काल, खाल, गाल, टाल, डाल, ढाल, फल, फूल, पाल, भाल, माल।
व– दाव, नाव, पाँव।
स– नस, बस, जस, काँस, घाँस, तास, दास, पाँस, फाँस, बास, रास, साँस।
नोट- बुंदेली में अन्त्य ‘झ’ के स्थान में ‘ज’ और अन्य ‘ढ़’ के स्थान में ‘ड़’ उच्चरित होता है। जैसे- सांझ सांज, माँझ-माँज, दाढ़-दाड़। कहीं तो ‘डाड़’ ही कहा जाता है, अस्तु। उक्त सूची में ड़, ढ, ढ़, व्यंजनों के अन्त्य शब्द नहीं दिये गए हैं।
बुंदेली में ‘ह’ अन्त वाले संज्ञा शब्द नहीं हैं। ‘ह’ के लोप की प्रवृत्ति बुंदेली की खास विशेषता है। हिन्दी में जहाँ ‘ह’ होता है। वहाँ बुंदेली में ‘व’ या प्रायः ‘य’ होता है। जैसे-विवाह-व्याव-वियाव-छाँह-छाँय आदि।
संज्ञा के रूप
पश्चिमी हिन्दी की बुंदेली भाषा में संज्ञा के दो रूप होते हैं-1.लघु और 2.गुरु। जैसे- गमार-गमर्रा, देवर-देवरा आदि। परन्तु दूसरे रूप का प्रयोग कविता में ही अधिक होता है। अथवा जहाँ वह व्यक्तित्व वाची होता है, अपमान जनक समझा जाता है।
संज्ञा शब्दों की विशेषताएं
बुंदेली के संज्ञा शब्दों में निम्नांकित विशेषताएं मिलती हैं-
(1) इसके व्यक्ति वाचक शब्द हिन्दी की ही तरह होते हैं- इनमें कोई अन्तर नहीं होता। जैसे राम, गंगा आदि।
(2) अधिकांश आकारान्त जाति वाचक संज्ञा शब्दों का एक वचन रूप ओकारान्त हो जाता है।
(3) अ इ ई उ तथा ऊ में अन्त होने वाले संज्ञा शब्द हिन्दी की तरह ही बुंदेली में प्रयुक्त होते हैं।
(4) द्रव्य वाचक और भाव वाचक शब्द भी एक वचन है। ओकारान्त बोले जाते हैं। जैसे- सोनों, लोहो (द्रव्य वाचक) और अँदेरो, उजेरो (भाव वाचक)।
संज्ञा के स्थान पर आने वाले शब्द
कभी-कभी संज्ञा के बदले सर्वनाम, विशेषण, कोई-कोई क्रिया-विशेषण, विस्मयादि बोधक शब्द (संज्ञा के समान) उपयोग में आते हैं।
(1) संज्ञा के स्थान में सर्वनाम का प्रयोग– में (सारथी – सुमंत्र) राम के रथ की रास खेचत हों। जा (यह) शकुन्तला जंगल में डरी मिली ती।
(2) संज्ञा के स्थान में विशेषण का प्रयोग– जैसे-ई के बड़न को जौ संकलप है। छोटे बड़े नईं हो सकत।
(3) संज्ञा के स्थान में क्रिया विशेषण का प्रयोग– जैसे-जी कौ भीतरो बायरो एकई सौ है। हां में हां मिलावो अच्छी नई होत। इतै की जांगा-जमीन अच्छी है।
(4) संज्ञा के स्थान में विस्मयादि बोधक का प्रयोग– जैसे- उतै हाय–हाय मची है। उनकी बड़ी बाभा (वाह-वाह) भई।
संज्ञा की रूप रचना के तीन आधार – लिंग, वचन, और कारक हैं, अतः परवर्ती पृष्ठों में क्रमशः उन्हीं के सम्बन्ध में विचार किया जा रहा है।
2. सर्वनाम
1. परिभाषा
जो विकारी शब्द व्यक्त या पूर्वापर सम्बन्ध से प्रसंगतः ज्ञात संज्ञा के स्थान पर (संज्ञा के बदले में) प्रयोग में आते हैं उन्हें ‘सर्वनाम‘ कहते हैं। जैसे—- मैं (बोलने वाला) तें (तूं— सुनने वाला) जौ (यह निकटवर्ती) बौ (वह— दूरवर्ती)।
अन्य भाषा शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत उपयोगी परिभाषाओं का उल्लेख भी उपादेय है-
2. (क) सब (सर्व) नामों के स्थान पर जिन शब्दों का प्रयोग हो सके, उन्हें सर्वनाम कहते हैं, जैसे—
(1) सुरेन्द्र ने कई कै मैं बीमार हों (सुरेन्द्र ने कहा कि मैं बीमार हूँ। (‘मैं’ सुरेन्द्र के स्थान पर)।
(2) लोगन नें कई कै हम तैयार हैं (लोगों ने कहा कि हम तैयार है)। (‘हम’ लोगों के स्थान पर)।
(3) राम ने वीरेन्द्र सें पंछी कि तुम कबै जैहो (‘तुम’ वीरेन्द्र के स्थान पर)।
(4) तुमाव मित्र कैंसो है? वौ स्वस्थ (निरोगी) है। (‘वह’ मित्र के स्थान पर)। ऊपर के वाक्यों में ‘मैं’, हम, तुमाव, वौ सर्वनाम है।
सर्वनाम जैसा कि शब्द विशेष से स्पष्ट हो रहा है यह एक प्रकार की नाम (संज्ञा) शब्दावलि है। पुनरुक्ति की नीरसता से बचने के लिये ही इसका विधान जान पड़ता है। अर्थ ही नहीं, अपितु सर्वनामों की रचनात्मक गठन भी नाम शब्दों से बहुत भिन्न नहीं कही जा सकती। लिंग, वचन एवं कारक से सम्बन्धित यदि एक प्रकार के विभक्ति-प्रत्यय संज्ञाओं में लग रहे हैं तो दूसरे प्रकार के सर्वनामों में। विभक्ति-प्रत्ययों की इन दो कोटियों के आधार पर ‘नाम’ के दो वर्ग भी अनिवार्य कहे जायेंगे- अर्थात् संज्ञा तथा सर्वनाम। पाणिनीय वैयाकरण परम्परा में वह नाम शब्दावलि जो कि ‘सर्व’ से प्रारम्भ होती है, सर्वनाम कहलाई, पर हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से यह पारिभाषिक शब्द दूर जाकर भी बहुलता से प्रयुक्त हो रहा है।
(ख) प्रकृति में विभक्तिः प्रत्ययों की संयोजना की दृष्टि से नाम एवं सर्वनामों की कथित एक रूपता के बीच अनेकरूपता के भी दर्शन किये जा सकते हैं। सर्वनाम पदों के प्रातिपादिक (प्रकृति) रूपों का निर्धारण कठिन संज्ञाओं में जैसे-पेड़ौ, बात, घर आदि का आधार बनाकर उनके विभक्ति प्रत्ययों का उल्लेख किया जा सकता है वैसा सर्वनाम रूपों के साथ कर सकना संभव नहीं है।
(ग) श्री कामता प्रसाद गुरु ने सर्वनाम की बहुत ही स्पष्ट परिभाषा देते हुये कहा कि ‘सर्वनाम’ उस विकारी शब्द को कहते हैं जो पूर्वा पर सम्बन्ध से किसी भी संज्ञा के बदले में आता है जैसे- मैं (बोलने वाला), तू (सुनने वाला) यह (निकटवर्ती वस्तु) वह (दूरवर्ती वस्तु) इत्यादि। अथवा सर्व (सब) नामों (संज्ञाओं) के बदले में जो शब्द आता है उसे ‘सर्वनाम’ कहते है। इस आधार पर जब अन्य वैयाकरण ‘सर्वनाम’ को संज्ञा का एक भेद मानते हैं तब श्री गुरू यथार्थ में सर्वनाम को एक प्रकार का नाम अर्थात् संज्ञा ही मानते हैं। उनका तर्क यह है कि जिस प्रकार संज्ञाओं के उपभेद व्यक्ति वाचक, जातिवाचक और भाववाचक हैं उसी प्रकार सर्वनाम भी एक उपभेद हो सकता है परन्तु वे स्वयं ही संज्ञा और सर्वनाम के वास्तविक अन्तर को भी सूचित करने के लिये संज्ञा की अपेक्षा सर्वनाम की विलक्षणता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि संज्ञा से सदा उसी वस्तु का बोध होता है जिसका वह (संज्ञा) नाम है परन्तु सर्वनाम से पूर्वा पर सम्बन्ध के अनुसार किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है; जैसे-लड़का शब्द से लड़के ही का बोध होता है, घर सड़क आदि का बोध नहीं हो सकता, परन्तु ‘वह’ कहने से पूर्वापर सम्बन्ध के अनुसार लड़का, घर, सड़क, हाथी, घोड़ा आदि किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। मैं बोलने वाले के नाम के बदले आता है, इसलिये जब बोलने वाला मोहन है तब ‘मैं’ का अर्थ मोहन है, परन्तु जब बोलने वाला श्रृगाल, कछुआ या खरहा है (जैसा कि बहुधा हितोपदेश, पन्चतन्त्र आदि की कथाओं में होता है) तब मैं का अर्थ श्रृंगाल, कछुआ या खरहा होता है। सर्वनाम की इसी विलक्षणता के कारण उसे हिन्दी में एक अलग शब्दभेद मानते हैं। श्री गुरु द्वारा प्रस्तुत परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में भाषातत्व दीपिका, आदि में जो परिभाषा दी गयी है कि नाम को एक बार कह कर फिर उसकी जगह जो शब्द आता है उसे सर्वनाम कहते हैं, समाचीन नहीं है। क्योंकि ‘मैं’ ‘तू’ ‘कौन’ आदि सर्वनामों में घटित नहीं होने में एक ओर अव्याप्ति दोष है, तो दूसरी ओर कहीं कहीं संज्ञाओं में भी घटित हो जाने में अतिव्याप्ति दोष भी है।
प्रसंगवश यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सर्वनाम के उपयोगात्मक महत्व के सम्बन्ध में साधारणतः जो यह कह दिया जाता है कि एक ही संज्ञा का उपयोग बार-बार करने से भाषा की हीनता सूचित होती है इसलिये एक संज्ञा के बदले उसी अर्थ की दूसरी संज्ञा का उपयोग करने की चाल है। यह बात छन्द के विचार में कविता में बहुधा होती है, जैसे ‘मनुष्य के बदले ‘मानव’ ‘नर आदि शब्द लिखे जाते हैं। सर्वनाम के पूर्वोक्त ‘भाषा तत्वदीपिका’ प्रति-पादित लक्षण का स्वीकार कर लेने से इन पर्यायवाची शब्दों को भी सर्वनाम कहना पड़ेगा। यद्यपि सर्वनाम के कारण संज्ञा को बार-बार नहीं दोहराना पड़ता, यह तो ठीक है। तथापि सर्वनाम का यह उपयोग उसका असाधारण धर्म नहीं है जिसके कारण संज्ञा से उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व निर्वाध रूप से है, जैसा कि अभी पहले इसी प्रसंग में सोदाहरण (संज्ञा से सर्वनाम की पृथक्ता सिद्ध करते हुये) स्पष्ट किया गया है। इस स्पष्टीकरण से उस धारणा का भी निराकरण हो जाता है जिसमें पुनरुक्ति की नीरसता से बचने के लिये सर्वनामों का प्रयोगात्मक उद्देश्य समझा गया है।
3. संज्ञा और सर्वनाम में मूलभूत अन्तर
(1) सर्वनामों का प्रयोग संज्ञा के स्थान पर होता है। परन्तु संज्ञा और सर्वनामों में मूलभूत अन्तर यह है कि सर्वनामों का लिंग के अधार पर रूपान्तरण नहीं होता, सर्वनाम संज्ञाओं की अपेक्षा अनमनीय प्रयोग है। जिस प्रकार संज्ञाओं का संज्ञागत भेद परिवर्तन होता रहता है, उस प्रकार का परिवर्तन सर्वनामों में सम्भव नहीं है। हिन्दी की तरह बुंदेली में भी सर्वनामों में वचन और कारक के कारण रूपान्तर होता है। लिंग भेद का ज्ञान क्रिया या विशेषण के लिंग से होता है।
व्यवहार की दृष्टि से भी इसमें संज्ञा से भेद है। संज्ञा पदों के पूर्व विशेषणों का प्रयोग होता है, सर्वनामों के पूर्व नहीं।
(2) सर्वनाम संज्ञा के स्थान पर आते हैं, अतः इनके प्रयोग में भी संज्ञा की भांति कारक और उसके अनुसार उसके रूप का विचार करना पड़ता है। अर्थात् संज्ञा की भांति सर्वनाम में भी कारण कारक के विकार या परिवर्तन होता है।
(3) किसी सर्वनाम का प्रयोग पुल्लिंग शब्द के लिये हो रहा है या स्त्रीलिंग के लिये, इस दृष्टि से उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
(4) सर्वनामों के सम्बन्ध-कारक रूप जिन शब्दों के पूर्व आते हैं (मेरा लड़का, मेरे लड़के, मेरे घोड़े, मेरी कुटिया आदि) उनके वचन तथा लिंग के अनुसार उनमें परिवर्तन होता है।
(5) सम्बन्ध कारक के अतिरिक्त अन्य कारकों में सर्वनामों में केवल वचन के कारण परिवर्तन होता है।
(6) सम्बोधन कारक में सर्वनामों का प्रयोग नहीं होता।
सर्वनाम के रूपान्तर– एक निष्कर्ष
सर्वनामों का रूपान्तर पुरुष, वचन और कारक के अधार पर होता है। इसमें लिंग भेद नहीं होता। पुरुष की चर्चा पहले की गयी है- ‘में’ ‘हम’ उत्तम पुरुष में हैं ‘तें’, तुम ‘अपुन’ (आदरार्थक) मध्यम पुरुष में शेष सब विशेषतया ‘बौ’ ‘ऊ’ ‘जौ’ अन्य पुरुष में हैं।
4. वचन और कारक
सर्वनामों के भी दो वचन होते हैं- एक वचन और बहुवचन। वचन का रूप प्रायः दो स्थितियों में बदलता है- एक तो मूल (विभक्ति या कारक चिह्न रहित अर्थात् अविकृत) रूप दूसरे तिर्यक् (विभक्ति या कारक चिह्न सहित अर्थात् विकृत) रूप। अविकृत किन्तु प्रधान सर्वनामों (उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष) के कर्म और सम्प्रदान कारकों में दो-दो प्रकार के रूप होते हैं और सम्बन्ध कारक में को, के, की के स्थान पर रौ, रे, री जुड़ता है। अप्रधान सर्वनामों में कौ, के, की तो जुड़ता है लेकिन, कर्म और सम्प्रदान कारकों में (आप, अपुन, कोऊ, का और कछु को छोड़कर) दो-दो प्रकार के रूप बनते हैं। अपन, काउ, का, जोंन, सोऊ और कछू का मूल में एक वचन बहु वचन का रूप-भेद नहीं होता। अपुन और कछू का विकृत रूप भी बना रहता है।
5. सर्वनामों का उद्भव एवं विकास
प्रसिद्ध भाषा शास्त्री डॉ. उदयनारायण तिवारी का मत है कि वैदिक तथा लौकिक (पाणिनीय) संस्कृत के सर्वनाम के रूपों का बहुत कुछ स्थिरीकरण हो चुका था। हिन्दी सर्वनामों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई, किन्तु प्राकृत अपभ्रंश तथा आधुनिक भाषाओं तक आते-आते इनमें पर्याप्त परिवर्तन हो गया। कई आधुनिक आर्य भाषाओं में सर्वनामों के विकल्प से अनेक रूप मिलते हैं किन्तु उन सभी को कतिपय मूल रूपों के अन्तर्गत लाया जा सकता है।
संज्ञा पदों की भांति ही, समय की प्रगति के साथ-साथ सर्वनामों के विकारी-रूपों का भी लोप होता गया और उनके स्थान पर सम्बन्ध और अधिकरण कारकों के रूपों का व्यवहार होने लगा। संस्कृत में उत्तम तथा मध्यम पुरुष के सर्वनामों में वस्तुतः लिंग भेद न था, किन्तु अन्य पुरुष के सर्वनाम में लिंग का विचार किया जाता था। आधुनिक आर्य भाषाओं में प्रायः इसका भी लोप हो गया। आधुनिक आर्य भाषाओं के सम्बन्ध कारक के रूप वस्तुतः विशेषण हैं, क्योंकि लिंग तथा वचन में वे विशेष्य के अनुसार होते हैं। प्राकृत तथा अप-भ्रंश में भी ये रूप विशेषण ही थे। और हिन्दी में इनका यह रूप आज भी अक्षुण्ण है। यथा-मेरा बैल, मेरी गाय।
बुंदेली सर्वनामों की संख्या बहुत अधिक है। हिन्दी सर्वनामों के अतिरिक्त जो सर्वनाम बुंदेली में अधिक हैं उन सभी की विकास कथा पर प्रकाश डाला जाना भाषा वैज्ञानिकों का विषय है। परन्तु यहाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उदाहृत वाक्यों के ‘मोरौ बैल, मोरी गइया’, रूप बुंदेली में भी प्रयुक्त होते हैं, अतः उक्त स्थिति यहाँ भी परिलक्षित होती है, अस्तु।
कुछ बुंदेली सर्वनामों की व्युत्पत्ति
संस्कृत प्राकृत हिन्दी बुंदेली
अहम् अम्ह मैं, हम मैं, हम
त्वम् तुम्ह तू, तुम तें, तुम
एषः एअ यह, ये जौ, जे
सः सो सो, वह, वे बौ, ऊ, वे
यः जो जौ जोंन
कः को कौन कोंन, को
किम् किम् क्या का
कोऽपि कोबि कोई कोऊ
आत्मन् अप्प आप आप, अपुन
किचित् किचि कुछ कछू
सर्वनाम के भेद
6. बुंदेली में प्रयुक्त सर्वनामों का विभाजन प्रयोग के अनुसार निम्न प्रकार किया जा सकता है-
(1) व्यक्तिवाचक या पुरुषवाचक मैं, तें (तू), अपुन या आप (आदर सूचक)
(2) आत्मवाचक या निजवाचक- आप
(3) निश्चयवाचक या उल्लेख सूचक –
(क) निकटवर्ती निश्चयवाचक या परोक्ष अथवा निकटत्व उल्लेख सूचक जौ (यह)
(ख) दूरवर्ती निश्चयवाचक या परोक्ष अथवा दूरत्व उल्लेख सूचक-ऊ, बौ (वह)
(4) साकल्यवाचक-सब, सबरे,
(5) सम्बन्ध सूचक – जोंन (जो),
(6) पारस्परिक सम्बन्ध वाचक – सो, सोऊ (सोई),
(7) प्रश्नसूचक-कोंन (कौन) का (क्या),
(8) अनिश्चयवाचक-कोऊ (कोई) कछू (कुछ),
(1) व्यक्तिवाचक या पुरुषवाचक सर्वनाम
कहने वाले, सुनने वाले तथा तीसरे जिसके सम्बन्ध में बात हो; के लिये जिन शब्दों का प्रयोग होता है उन्हें पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। ये तीन प्रकार के होते है-
(क) उत्तम पुरुष (ख) मध्यम पुरुष (ग) अन्य पुरुष।
विभिन्न अनुसर्गों से सम्पन्न होने वाले इन सभी के रूप क्रमशः यहाँ दिये जाते हैं; जिससे कि वचन और कारक के रूप भेदों का स्पष्टीकरण होता जायेगा।
(क) में (में) उत्तम पुरुष
बोलने वाले वक्ता या लिखने वाले लेखक अपने लिये जिन सर्वनामों का प्रयोग करते हैं, वे उत्तम पुरुष कहे जाते हैं। जैसे मैं, हम।
कारक एक वचन बहुवचन
कर्ता मैं (विभक्ति रहित या मूलरूप) हम, हम लोग।
कर्तृ मोनें, मैंने (विभक्ति सहित हमनें, हमन नें, हम औरननें,
या विकृत रूप)
कर्म मोय, मोकों, मोहां, मोखां, हमै, हमकों, हमहां, हमखां,
खों, हमन खां।
करण मोसें, मोसों हमसें, हमन सें, हमसों, हमनसों।
सम्प्रदान मोय, मोकों, मोहां, मोखों, हमें, हमन खाँ, हमन-खों,
मोखां, मोरे लानें, मोरे काजें, हमाये लानें, हमाये लाजैं। मोरे लाजें।
अपादान मोमें, मोसों, मोतें हमसें, हमन सें, हमसों, हम-नसों, हम में सें।
सम्बन्ध मोरौ, मोरे, मोरी, मोमे, हमाओ, हर्माये, हमारीं।
अधिकरण मोपै, मोलों म में, हमन में, पै, लों।।
(ख) तें (तू) मध्यम पुरुष
सुनने वाले श्रोता या पाठक (या जिससे बात की जाय) के लिए मध्यम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग होता है। जैसे (तें) तू, तुम, आप।
कारक एकवचन बहुवचन
कर्ता तें, तुम (विभक्ति रहित) तुम
कर्तृ तैनें, तोनें (विभक्ति सहित) तुमनें, तुमन नें।
कर्म तोकों, तोखों, तोखां, तोय तुमकों, तुमन खों, तुम खां,
करण तोसें, तोसों तुमसें, तुमसों, तुमन सें, तुमन सों।
सम्प्रदान तोय, तोकों, तोखों, तोखां, तुमें, तुमकों, तु मखां, तुमाये,
तोरे लानें, तोरे काजें। लानें, तुमारे लानें, तुमाये, काजें, तुमारे लाजें।
अपादान तोसें, तोसों, तोमें, सें, तो में तें, तुमसें, तुममें सें, तुमन सें।
सम्बन्ध तोरौ, तोरे, तौरी तुमारी, तुमाऔ, तुमाये, तुमारे, तुमारी, तुमारीं।
अधिकरण तोमें, तोपै, तोलों तुममैं, तुमपै, तुमनमें, तुमनपै, लौं।
विशेष
(1) उत्तम पुरुष एक वचन में ‘मैं’ का प्रयोग बुंदेली में नहीं के बराबर होता है। ‘मैं जात हों’ के स्थान पर ‘हम जात हैं’ ही बोलते हैं। एक वचन के स्थान पर बहुवचन के रूपों के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इस लिये बहुवचन में स्पष्टता के लिये ‘लोग’, तथा ‘औरे’ शब्द जोड़कर ‘हमलोग’, ‘हम औरे’ आदि रूप होते हैं। मध्यम पुरुष इस प्रकार के प्रयोग में उत्तम पुरुष से आगे बढ़ गया है।
(2) और ‘हम’ के स्थान पर प्रायः लोग ‘अपन’ या अपुन’ शब्द का भी व्यवहार करते हैं।
(3) बुंदेली में बहुवचन द्योतक ‘लोग’ ‘सब’ ‘जने” औरें” आदि शब्दावली बढ़ती जा रही है।
मध्यमपुरुष में एक वचन के रूपों का प्रयोग अत्यधिक प्यार, घृणा या अनादर के लिये होता है। सामान्यतः एक वचन में ‘तुम’ तथा उससे बने रूपों ‘तुमनें, तुमें, तुमकों, तुम सें, तुमाऔ आदि का प्रयोग होता है, जो बहुवचन हैं। बहुवचन में तुम के साथ ‘लोग’ तथा ‘और’ जोड़ कर बनाये गये ‘तुम लोग’ ‘तुग और’ आदि रूपों का प्रयोग होता है।
मध्यम पुरुष में आदर के लिये ‘तुम’ के स्थान पर ‘अपुन’ का प्रयोग होता है। ‘अपुन’ के साथ प्रायः मध्यम पुरुष की क्रिया का प्रयोग नहीं होता। उसके साथ में अन्य पुरुष बहुवचन किया लगती है। जैसे- अपुन कां जारय ? (आप कहाँ जा रहे हैं)।
आदर सूचक सर्वनाम ‘अपुन‘
एक वचन बहुवचन
कर्ता — (विभक्ति रहित) अपुन
कर्तृ — (विभक्ति सहित) अपुननें
कर्म — अपुनहां, कों, खों, खां,
करण — अपुनसें
सम्प्रदान — अपुन के लानें, अपुनके काजें।
अपादान — अपुनसें, सों
सम्बन्ध — अपुन कौ, के, की
अधिकरण — अपुन में, पै, लों।
(1) आदर सूचक सर्वनाम अपुन (आप) में एक वचन नहीं होता है। फिर भी स्पष्टता के लिये ‘अपुन’ के साथ ‘लोग,, ‘और’ या ‘लोगन’ तथा ‘औरन’ जोड़कर भी बहुवचन बनाये जाते हैं। जैसे- अपुन लोग, अपुन औरें, अपुन लोगन नें, अपुन औरन नें आदि।
2. आत्म सूचक (निज वाचक) सर्वनाम
आप, अपन
एक वचन बहुवचन
कर्ता आप या अपने आप ….
कर्म आपकों, आपखों, अपन खों, अपने आपखों ….
करण आपसें, अपनें–से, अपनें-आप सें, अपने-आप सों ….
सम्प्रदान आप-खों, अपन खों, अपनें लानें, अपने आपखों ….
अपादान आप-सें, अपनें सें, अपनें-आपसें ….
सम्बन्ध आप कौ, के, की अपनों, अपनी, अपनें ….
अधिकरण आपमें, पै, लों, अपन में, पै, लों अपने–में, पै, लों आपस में ….
विशेष
ये दोनों निजवाचक सर्वनाम (आप अपन) इसी रूप में रहते हैं। इनमें बहुवचन नहीं होता।
अन्य निज वाचक सर्वनाम – हिन्दी तथा हिन्दोस्तानी के प्रवाह में फारसी तथा संस्कृत की परम्परा से हिन्दी में आये ‘खुद’ तथा निज, स्वयं, या स्वतः आदि का प्रयोग भी बुंदेली में मिलता है। जैसे-ऊ खुद-ई आव (बह खुद ही आया)। ऊ सुअं (स्वयं) इतै आव (वह स्वयं यहाँ आया) उयै निज के (या निजी) काम सें मोय भेजनें है। (उसे निज के काम से मुझे भेजना है)।
ऊ, वौ (वह) का प्रयोग दूर की वस्तु या व्यक्ति के लिये होता है। यदि समीप के लिये अन्य पुरुष सर्वनाम का प्रयोग करना हो तो जौ (यह) का प्रयोग करते हैं। ‘जौ’ और ‘ऊ’ वौ, के रूपों में बहुत समानता है जैसा कि रूपावली से स्पष्ट है। अन्य पुरुष में आदरार्थ एक वचन के लिये एक वचन के रूपों का प्रयोग न करते जे. इनें, उनें, इनसें उनसें, आदि बहुवचन के रूपों का प्रयोग करते हैं और आदरार्थ बहुवचन के लिये ‘लोग’ या ‘लोगन’ लगाकर बनाये गये रूपों का प्रयोग किया जाता है।
अन्य पुरुष आदरार्थ में जो (एक वचन) और ‘जे लोग’ (बहु वचन) के स्थान पर क्रम से मध्यम पुरुष की तरह ‘आप’ और ‘आप लोग’ अथवा ‘अपुन’ और ‘अपुन लोग’, या ‘अपुन औरें” का भी प्रयोग होता है, यदि उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष के साथ ही अन्य पुरुष भी उपस्थित हो। जैसे-स्यांम तुम जाव, अपुन लोग भी जा रय हैं या अपुन-ऊं जा रय हैं (श्याम तुम जाओ, आप लोग भी जा रहे हैं या आप भी जा रहे हैं)।
पुरुष वाचक सर्वनाम के ही अन्तर्गत निज वाचक सर्वनाम भी आता है। इससे अपना या निज का बोध होता है। आप, स्वयं, स्वतः तथा ‘खुद’ इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
आदरार्थ– ‘आप‘ तथा निज वाचक ‘आप‘ में भिन्नता— जैसा कि पहले कहा गया (हिन्दी में) आदरार्थ ‘आप’ का प्रयोग होता है, परन्तु उस ‘आप’ से निज वाचक ‘आप’ में भिन्नता है। यह भिन्नता तीन प्रकार की है-
(क) पुरुष वाचक आप’ एक वचन होकर भी बहुवचन रूप में प्रयुक्त होता है, जैसे- राम ने श्याम से पूछा, आप कहां जा रहे हैं? पर निज वाचक ‘आप’ एक ही रूप से दोनों वचनों में आता है। जैसे- मैं आप आ जाऊंगा या वे लोग आप आ जायेंगे।
(ख) पुरुष वाचक आप प्रमुखतः मध्यम पुरुष और कभी-कभी अन्य पुरुष के लिए आता है, पर निज वाचक आप तीनों पुरुषों के लिये। जैसे- ‘तुम अपने आप खा लेना’, ‘मैं अपने-आप चला जाऊंगा’ तथा ‘वह अपने आप चला गया।’
(ग) पुरुष वाचक आदर सूचक ‘आप’ वाक्य में अकेले आता है- ‘आप कहां जा रहे हैं? परन्तु निज वाचक ‘आप’ दूसरे सर्वनाम या संज्ञा के साथ आता है। वह आप (या अपने-आप) कहां जा रहा है? या ‘राम आप आ रहा है।’
बुंदेली में आदरार्थ बहुधा ‘अपुन’ (आप) सर्वनाम का प्रयोग होता है। ‘आप’ या ‘आप लोग’ भी आज कल के हिन्दी के प्रवाह के कारण सुशिक्षित बुन्देले नागरिकों द्वारा प्रयोग में लाया जाने लगा है।
(ग) अन्य पुरुष
उत्तम और मध्यम पुरुष को छोड़कर सभी सर्वनाम (और संज्ञाएं भी) अन्य पुरुष होते हैं। पुरुष वाचक सर्वनामों में ऊ, बौ, (वह) तथा जौ (यह) अन्य पुरुष के उदाहरण हैं। उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष को प्रधान और शेष को अप्रधान पुरुष कहते हैं।
- 3. निश्चय वाचक सर्वनाम
ऐसा सर्वनाम जिससे दूर या समीप की किसी वस्तु के सम्बन्ध में निश्चित बोध हो, निश्चयवाचक सर्वनाम है। जैसे- जौ (यह) ऊ, बौ (वह)। इसके दो भेद हैं- (1) प्रत्यक्ष उल्लेख सूचक सर्वनाम, निकट या समीप को वस्तु के लिये; जैसे- जौ (यह) तुम लै लेव (यह तुम ले लो (2) परोक्ष उल्लेख सूचक सर्वनाम दूर की वस्तु के लिये; जैसे-ऊ, बौ, (वह) जैसे-ऊ, या बौ तुम लिआव (वह तुम ले आओ)।
अप्रधान पुरुष वाचक सर्वनामों में निश्चय वाचक सर्वनाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है।
(क) प्रत्यक्ष उल्लेख सूचक सर्वनाम – जौ (यह)
एक वचन बहुवचन
कर्ता जौ (विभक्ति रहित) जे, जे लोग, जे और,
कर्तृ ई नें (विभक्ति सहित) इननें, इनननें, इन औरन नें’,
कर्म इयै, ईकों, ईखों, ईखां इनकों, इनखों, खां, इननकों, खों,
इनके लानें, इनन के लाने लाजें।
करण ईसें इनसें, इनन सें, इन लोगन सें, इन
औरनसें’,
सम्प्रदान (कर्म की तरह)
अपादान ई सें, इन सें, इनन सें, इन लोगन सें
इन औरन से,
सम्बन्ध ई कौ, ई, के ईकी, इनकौ, इननकौ, इन लोगन कौ,
इन औरन को, इनके, इनकी,
इनन की, इन लोगन की,
इन औरन की।
अधिकरण ई में, पैं, लो इनमें, पै, लौ, इननमें, इनन पै, इनन लो।
(ख) परोक्ष या दूरत्व उल्लेख सूचक सर्वनाम
ऊ, बौ (वह) अन्य पुरुष
एक वचन बहुवचन
कर्ता ऊ, बौ : (विभक्ति रहित) वे, उन, विन
कर्तृ ऊनें, बानें, ओनें, ऊनें, ओईनें ननें, विननें, उनननें, उन
(विभक्तिः सहित) औरन नें।
कर्म ऊहां, ऊखों, ओईखों, ओखों, उनखों, उननखों, उनहां, उननहां,
ओकों, उयै, ऊकों, बाय, बाखों उनकों, बिनखां, उनखां, उनके
लानें, काजें, लाजें।
करण ऊसें, ओसें, ओसों, बासें, बासों उनसें, उननसें, उन औरन सें,
उनसों, बिनसें, बिनसों।
सम्प्रदान- ऊखों, ओखों, ऊकेलानें, ऊ के उनें, बिनें, उनके लानें, काजें,
काजें, ऊयै, ऊखां, ऊकों, बाय, उनके लाजें।
अपादान- ऊसें, ओसें, बासों, बासें, ऊसौं उनसें, उनन सें, उन औरन सें,
वामें सें। बिनसें, उनसें, ऊमें सें
सम्बन्ध – ऊ कौ, के, की, उनकौ, के, की।
ओ कौ, के, की, विनकौ, के की।
विन कौ, के, की, उन, विन औरन कौ, के, की।
उन लोगन कौ, के, की।
अधिकरण- ऊमें, ओमें, ऊपै, ओपै, ऊलों उनमें, पै, लौ, उननमें, पै, लौ, उन
ओलों, बामें, बापै, बालों औरन में, पै, लौ विनमें, पै, लौ।
विशेष
(1) परोक्ष या दूरत्व उल्लेख सूचक सर्वनाम के लिये अन्य पुरुष का ही प्रयोग होता है।
(2) इस सर्वनाम को दूरवर्ती निश्चय वाचक सर्वनाम भी कहा जाता है।
(3) स्त्रीलिंग में यह ‘बौ’ ‘बा’ के रूप में परिवर्तित हो जायगा। जैसे-‘बौ’ को है (वह कौन पुरुष है) ‘बा को है’ (वह कौन स्त्री है ?)
(4) बहुवचन पुल्लिंग जौर स्त्रीलिंग में इसका रूप ‘बे’ हो जायगा।
दूर की वस्तु या व्यक्ति के लिये ऊ, बौ (वह) के अतिरिक्त ‘सो’ का भी प्रयोग कभी-कभी देखा जाता है। ‘सो’ सर्वनाम प्रायः सम्बन्ध वाचक सर्वनाम (जो, जिस, जिन, आदि) के साथ आता है। जैसे जो जैय, (जैहै) सो पाय, (पाहै) (जो जावेगा सो पावेगा)। सो, एक वचन तथा बहुवचन में एकसा ही रहता है। जैसे- जो जैसे सोंय सो खोंय (जो जैसे सोवेंगे सो खोवेंगे)।
‘सो’ का प्रयोग बहुत सीमित है। प्रायः केवल कर्ताकारक में प्रयुक्त होता है, किसी अन्य कारक में नहीं। और कर्ता कारक में भी केवल ऐसे प्रयोगों में जहाँ कर्ता कारक का चिन्ह – ‘नें’ न लगा हो।
आजकल ‘सो’ के स्थान पर ‘ऊ’ तथा ‘बौ (बह) का प्रयोग देखने में आता है। जैसे- जो जन्में ‘ऊ’ मरै, जो जन्में बौ मरै (जो जन्मेगा वह मरेगा)।
कभी-कभी ‘सो’ का प्रयोग तौ (तब) या ईसें (इसलिये) आदि के अर्थ में समुच्चय बोधक के समान होता है। जैसे- वे लोग आ गय, सो तुमउं तैयार हो जाव (वे लोग आ गए, सो तुम भी तैयार हो जाओ) आजकल इस प्रकार का प्रयोग पुराना पड़ गया है और इस ‘सो’ के स्थान पर ‘ई से” इसी सें, अतः (इसलिये) तथा तौ (तव) आदि का प्रयोग होता है।
पुरानी भाषा में ‘जो’ (यह) के स्थान पर ‘जौंन’ और ‘सो’ के स्थान पर ‘तोंन’ का रूप प्रयुक्त होने लगा है (जैसे- जोंन आव, तोंन गव (जौंन आया तौन गया) तोंन के रूप तीनें (तिसनें) तिननें, तिनन नें (तिन्होंने) तियै (तिसे) तीकी (तिसकी) तीमें (तिसमें) आदि होंगे। कर्ता कारक के ‘नें” विभक्ति के साथ प्रयोग में तथा अन्य कारकों में ‘सो’ के स्थान पर ‘तौन’ के इन रूपों का प्रयोग पुरानी भाषा से बुंदेली में भी कहीं कहीं प्रचलित मिलता है।
4. साकल्य वाचक सर्वनाम
सब (सब–सर्व–सभी)
एक वचन बहुवचन
कर्ता ….. (विभक्ति रहित) सब
कर्तृ ….. (विभक्ति सहित) सब ने
कर्म ….. सबकों, खों, खां, सबै, सबके
….. लानें, काजें, लाजें
करण ….. सबसें, सबसों
सम्प्रदान ….. सबकों, खों, खां, सबै, सबके
लानें, काजे, लाजें,
अपादान …… सबसें, सबसों
सम्बन्ध …… सबकौ, सबई कौ, के, की।
अधिकरण …… सबमें, सबपै, सबलों।
विशेष– तब (सभी) शब्द बहुवचनान्त है अतः एक वचन में इसके रूप नहीं बनते। ‘सब’ के समानान्तर में ‘सबरे’ शब्द का भी प्रयोग होता है।
5. सम्बन्ध वाचक सर्वनाम
जौन, जॉन (जो)
परिभाषा— जो सर्वनाम किसी दूसरी संज्ञा या सर्वनाम से सम्बन्ध दिखाने के लिये प्रयुक्त हो, वह सम्बन्ध वाचक सर्वनाम है। जैसे- जॉन (जो) जोंन पड़ै ओई पास हुइयै (जो पढ़ेगा वही पास होगा) ऊ जोंन आव हतो, अब्बई इतैसें गव (वह जो आया था, अभी यहाँ से गया) ओई रावंन जोंन सूदें नें हेरत तो, भगुवान नें वान मारो सो धरती में लुइकैयां खान लगो। (वही रावण जो सीधे नहीं देखता था, भगवान (श्रीराम) ने बाण मारा तो धरती पर लुढ़कने लगा)।
एक वचन बहुवचन
कर्ता जोंन (विभक्ति रहित) जोंन, जोंन सौ, जोंन-सी,
कर्तृ जोननें, जी नें (विभक्ति सहित) जोन नें, जिननें, जिनन नें।
कर्म जियै, जी हां, जी खों, जी कों, जिनकों, खों, खां, जिनन हां,
जिनन कों, जिनन खों, खां, जिनें
करण जी सें जिन सें, सों, जिनन सें, सों
सम्प्रदान जियै, जी के लानें, काजें जोंनके जिन के लाने, काजें, लाजें,
लानें, काजें, लाजें काजें, लाजें जिनन के लानें
अपादान जी सें जिन सें, सों; जिनन सें सों
सम्बन्ध जी को, जीकी, जी के जिन कौ, जिनकी, जिनन कौ के, की,
अधिकरण जीं में, जी पै, जी लों जिन में, पै, लों, जिनन में, पै लों।
हिन्दी में जैसे केवल ‘जो’ ही एक सम्बन्ध वाचक सर्वनाम है, वैसे बुंदेली में भी केवल जोंन (जो) ही एक सम्बन्ध वाचक सर्वनाम है। अब हिन्दी के प्रभाव से ‘जौन’ की अपेक्षा ‘जो’ का प्रयोग संक्षिप्त रूप में होता है। हिन्दी का अनुसरण भी प्रभावशाली है अतः ‘जोन’ का स्थान अब ‘जो’ लेता जा रहा है। और यह ‘जो’ का प्रयोग प्रायः ‘सो’ के साथ होता है। जैसे—- जोंन जैय सो पाय’ के बदले ‘जो जैय सो पाय’ (जो जायगा सो पायगा) रूप अधिक सुनने को मिलता है।
जोंन (जो) का प्रयोग समुच्चय बोधक के रूप में भी होता हैं। जैसे-हर कोऊ की हिम्मत नइयां जोंन मोसे बात करै’ (हर किसी की हिम्मत नहीं जो मुझसे बात करे)।
विशेष
(क) जो (यह) ऊ, बो, (वह) से निश्चय प्रतीत होता है। जबकि कोऊ (कोई) से अनिश्चय की प्रतीति होती है।
(ख) ‘सोई’ और ‘कछू’ यह भी संकेत वाचक हैं। लेकिन् ‘सोई’ के स्थान में ‘ऊ’ ‘बौ’ का प्रयोग होता है। तथा ‘कछू’ का प्रयोग विशेषण के समान होता है।
6. पारस्परिक सम्बन्ध वाचक सर्वनाम
‘सो‘
तुलसीदासकृत ‘रामचरित मानस’ में ‘सोई’ (वही) जोर देकर उच्चारण के कारण है। तथा इसकी व्युत्पति ‘सः एव’ है। इसी प्रकार बुंदेली में जोर देकर उच्चारण करने के कारण ‘सोऊ’ की स्थिति है। यहाँ भी ‘सः एव’ से ‘सो ऊ‘ की व्युत्पत्ति प्रतीत होती है।
“जो जैसी करनी करै, सो ऊँसई फल पाय।”
जो करै सोऊ पायः, दूसरन खाँ का पाऊ ने’ ?
आगे चलकर ‘सोऊ’ से ‘ओउ’ और ‘सोई’ के अनुकरण से ‘ओई’ के रूप भी मिलने लगते हैं। कारक विभक्तियों के अन्तर्गत इसके रुप इस प्रकार होंगे-
एक वचन बहुवचन
कर्ता सो, सोऊ, ओऊ (वही) ओऊ नें बेऊ, बेई, उनई नें।
ओई नें
कर्म ओइयै, ओऊ कों, खों, खां, हां, उनई कों, खों, खाँ, हाँ
ओई कों, खों, खाँ, हां
करण ओऊ सें, ओई सें, ओउ सों, ओई सों उनई सें, उनई सों।
सम्प्रदान ओइयै, ओई कों, खों, खां, हाँ, उनई कों, खों, खाँ, हां, उनईं
ओई के लानें, के के लानें, काजें, लाजें।
काजें, के लाजें।
अपादान ओउ सें, ओऊ सों उनई सें, उनई सों,
सम्बन्ध ओऊ कौ, के, को, ओई कौ, के, की उनई कौ, के की।
अधिकरण ओऊ में, पैं, लों, ओई में, पै, लो उनई में, पै, लों।
विशेष
(1) इसी प्रकार ‘जो’ से जोऊ ‘जेई’ की स्थिति भी प्रतीत होती है।
(2) ‘सोऊ’ का प्रयोग अव्यय के रूप में भी प्रत्येक पुरुष के प्रत्येक वचन के साथ होता है। जैसे- मैं सोऊ चलों, हम सोउ चलें, तें सोऊ चल, तुम सोऊ चलियौ, ऊ सोऊ चलो हतो, वे सोऊ चले हते, आदि। ध्यान देने की बात यह है कि ‘सोऊ’ का अर्थ ‘वही’ था परन्तु अव्यय के रूप में प्रयुक्त होने पर ‘सोऊ’ का अर्थ ‘भी’ हो गया है।
7. प्रश्न सूचक सर्वनाम
परिभाषा – जिस सर्वनाम का प्रयोग प्रश्न पूछने के लिये हो उसे प्रश्न वाचक कहते हैं, जैसे- कोंन (कौन), का (क्या)। ‘कोंन’ के स्थान पर उसका संक्षिप्त रूप ‘को’ खटोला क्षेत्र में अधिकता के साथ प्रयुक्त होता है जैसे–‘बौ कोंन आय’ ? के बदले ‘बौ या ऊ को आय ? (वह कौन है) ?
कोंन (कौन)
एक वचन बहुवचन
कर्ता कोंन (विभक्ति रहित) कोंन-कोंन
कर्तृ कोनें, कोंन नें (विभक्ति सहित) कोंन कोंन नें, किननें, किनन नें,
कर्म कियै, की हां, की खों, कोंन खों, कोंन हों, खों, किन हां, किनन
हां, कों, किन खों, किनें किन-किन-खों।
करण की सें, कोंन सें किन सें, किननसें, कोन सें, सों,
सम्प्रदान कियै, की के लाने, कोंनके लानें, किनके लानें, किननके लानैं,
की खों, खाँ, हाँ, कोंन-कोंनके लानें, किन खों, खाँ, हाँ।
अपादान कीसें, कोंन सें किनसें, किननसें, कोंन-कोंनसें।
सम्बन्ध की कौ, कीके, की की, कौन किनन की, कोंन-कोंन कौ, कोंन-
को, कोंन के, कोंनकी, कोन के, की।
अधिकरण की में, पै, लों, कोंन में, पै, लों, किनमें, पै, लों, कोन में, पै,, लों।
का (क्या)
एकवचन बहुवचन
कर्ता का (विभक्ति रहित) …..
कर्तृ काय (विभक्ति सहित) …..
कर्म काय खों …..
करण काय सें …..
सम्प्रदान काय खों, काय के लानें …..
अपादान काये सें, काय सें, कायसों …..
अधिकरण काय में, पै, लों …..
8. अनिश्चय वाचक सर्वनाम
जिस सर्वनाम से किसी वस्तु या व्यक्ति का निश्चित बोध न हो वह अनिश्चय वाचक सर्वनाम है; जैरो- कोऊ (कोई) कछू (कुछ)। कोऊ जैय (कोई जायगा) वाक्य में ‘कोऊ’ के प्रयोग से यह निश्चित नहीं होता कि कोंन जायगा। इसी प्रकार कछू देव’ (कुछ दो) में ‘कछू’ से भी किसी एक विशेष वस्तु का निश्चित बोध नहीं होता कि क्या दो? अनिश्चय वाचक सर्वनामों में ‘कोऊ’ का मनुष्य, शेर, कुत्ता आदि चेतन और बड़े-बड़े पेड़ों के लिये तथा ‘कछू’ का प्रयोग जड़ तथा छोटे जन्तुओं या कीड़ों आदि के लिये प्रायः होता है। यद्यपि इसके विरोधी प्रयोग भी मिलते हैं। जैसे- कोऊ चीज इतै हैं (कोई चीज यहाँ है) कछू आदमी आय हैं (कुछ आदमी आये हैं) आदि। रूपावली इस प्रकार है-
कोऊ (कोई)
एकवचन बहुवचन
कर्ता कोऊ (विभक्ति रहित) ….
कर्तृ कोऊ नें (विभक्ति सहित) ….
कर्म कोऊ-अै, कोऊ हां, खों, खां ….
करण कोऊ सें, कोऊ सों ….
सम्प्रदान कोऊ हां, कोऊ खों, कोऊ-अै ….
अपादान कोऊ सें, कोऊ सों, ….
सम्बन्ध कोऊ कौ, कोऊ के, कोऊ की ….
अधिकरण कोऊ में, कोऊ पै, कोऊ लों ….
विशेष
संयुक्त अनिश्चय सूचक ‘जो- कोऊ’ पुल्लिंग में बनेगा तथा ‘जो कोऊ’ जा कोऊ’ स्त्रीलिंग में बनेगा। ‘जो-जो कोऊ’ रूप भी देखने में आते हैं। ‘जो कोऊ’ की तरह इस ‘जो-जो कोऊ’ को भी संयुक्त अनिश्चय वाचक सर्वनाम कहा गया है और उसके रूप भी दिये गये हैं[1]। जैसे—
एकवचन बहुवचन
कर्ता जो-जो कोऊ (विभक्ति रहित) ….
कर्तृ जोंन कोऊ नें (विभक्ति सहित) ….
(जिस किसीनें)
कर्म जो कोऊ हां, खां, खों (जिस ….
किसी को)
करण जिनन सें (जिन किसी से) ….
सम्प्रदान जिन हां, जिन के लानें (जिस ….
किसी को, जिस किसी के लिए)
अपादान जिनन सें (जिस किसी से)
सम्बन्ध जिनन कौ, के, की, (जिस किसी का) …..
अधिकरण जिनन में, पै, लों (जिस किसी में, …..
पर, तक)
कर्म तथा सम्प्रदान में ‘जो-कोऊ’ अै’ जी कोऊ अै ‘और’ जिनें (जिन्हें) रूप भी मिलते हैं।
कुछ लोगों की सम्मति के अनुसार ‘कोऊ’ के प्रयोग एक वचन में ही होते हैं अर्थात् ‘कोऊ’ का बहुवचन नहीं होता परन्तु व्यवहार में देखा जाता है; जैसे-कोऊ चार चीजें लेत आव (कोई चार वस्तुएं लेते आइये)। ‘कोऊ’ का बहुवचन ‘कोऊ-कोऊ’ माना जाना चाहिये। आदरार्थ ‘कोऊ’ अकेला भी बहुवचन में प्रयुक्त माना जायगा; जैसे- कोऊ आय हैं।’
डॉ. भोलानाथ तिवारी ने कोई ‘कोऊ’ के रूप निम्न प्रकार दिये हैं-
एक वचन बहुवचन
कर्त्ता कोई (कारक चिन्ह रहित) कोई
किसी ने (कारक चिन्ह सहित) किन्हीं ने
शेष आगे के रूपों के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि सम्बोधन के अतिरिक्त अन्य सभी कारकों के रूप एक वचन में ‘किसी’ के आगे कारक चिन्ह तथा बहुवचन में किन्हीं से आगे कारक चिन्ह लगाकर बनाये जाते हैं। जैसे किसी को मत मारो, किसी की चीजें मत उठाओ। आज कल प्रायः कोई तथा उसके कारक चिन्हों के साथ के रूप ‘किसी’ का ही प्रयोग चलना है। ‘किन्हीं’ का नहीं। दूसरे शब्दों में यह अनिश्चय वाचक सर्वनाम (कोई) केवल एक वचन में प्रयुक्त होता है। हां, कभी-कभी दो बार कह कर बहुवचन का भाव व्यक्त कर लेते हैं; जैसे-कोई-कोई कहते हैं।’ तो क्या बुंदेली में ‘कोऊ’ का बहुवचन’ ‘कौनऊँ’ हो सकता है? या ‘कोउअन’ ? कभी-कभी इसका द्विरुक्त प्रयोग भी होता है; जैसे- ‘कोऊ कोऊ’। विकल्पतः कहीं ‘कोऊ’ के स्थान पर ‘काऊ’ का प्रयोग भी होते देखा जाता है।
कछू (कुछ)
एक वचन बहु वचन
कर्ता कछु (विभक्ति रहित) ….
कर्तृ कछू नें (विभक्ति सहित) ….
कर्म कछू कों, कछू खों, कछूखां ….
करण कछू सें, कछू सों ….
सम्प्रदान कछू के लानें ….
अपादान कछू सें, कछू सों ….
सम्बन्ध कछू कौ, कछू के, कछू की, ….
अधिकरण कछू में, पैं, लौं ….
विशेष
‘कछू’ शब्द में कोई परिवर्तन नहीं होता, केवल विभक्तियां जोड़ी जाती हैं। कभी-कभी यह सर्वनाम द्विरुक्त भी होता है। जैसे- कछू-कछू। ‘कछू’ के प्रयोग के सम्बन्ध में तीन बातें स्मरण रखने की है—
(क) कर्ता कारक में ‘कछू’ का प्रयोग दोनों वचनों में देखने में आता है, जैसे-बिछोंना पै कछू है (एक वचन) ‘कछू कत हैं’ (कुछ लोग कहते हैं) परन्तु यह बहुवचन के रूप में ‘कछू’ का प्रयोग अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण का भाव रखता है, सर्वनाम का नहीं।
(ख) कर्म कारक में भी दोनों वचनों में प्रयोग देखने में आता है परन्तु कर्ता की ही भांति बहुवचन प्रयोग में इसमें अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण का ही भाव रहता है।
(ग) सम्बोधन को छोड़कर अन्य कारकों में ‘कछू’ का प्रयोग केवल बहु-वचन में ‘कोऊ’ के अर्थ में होता है। जैसे- ‘कछू में पानी हैं।’ या ‘कछू की आँखें ठीक हैं’ ‘यहाँ भी यह बात ध्यान देने की हैं कि ‘कछू’ का प्रयोग अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण के रूप में हैं, जिसके कि विशेष्य (संज्ञा) का लोप हो गया है।
प्रयोग की इन तीनों बातों के आधार पर स्पष्ट होता है कि ‘कछू’ का प्रयोग केवल कर्ता और कर्म कारक में विभक्ति रहित रूप में प्रयुक्त होता है। अन्यत्र ‘कछू’ का प्रयोग होता तो है परन्तु उसे सर्वनाम नहीं कहा जा सकता।
संयोग
मूलक सर्वनाम
द्विरुक्त सर्वनाम की चर्चा की गयी है।
इसी प्रकार के एक भेद संयोग मूलक सर्वनाम का उल्लेख भी मिलता है। उनका परिगणन इस प्रकार
है–
अपने–आप, अपनों–आप, आप–ई–आप, आपसें–आप, अपने– आपखों, अपनें–आपसे, जो–जो, कोऊ–कोऊ, कोंन–कोंन, का–का, कछू–कछू, जो– कोऊ, जो–कछू,
की–की खों, जी–कोऊ खों (जिस किसी को) कोऊ–नें कोऊ, कछू नें कछू, कछू–कौ–कछू, कछू–सें–कछू, का–सें का।
3. विशेषण
परिभाषा
- 1. जो शब्द किसी संज्ञा की विशेषता बतलावे उसे ‘विशेषण‘ कहते हैं। जैसे-हरीरौ उन्नां (हरा कपड़ा) लम्बौ आदमी (लम्बा आदमी) कैऊ पोथीं (कई किताबें) थोरौ पानूं (थोड़ा पानी)। यहाँ ‘हरीरौ’ से उन्नां की, ‘लम्बौ’ से आदमी की ‘कैऊ’ से पोथी की और ‘थोरौ’ से पानूं की विशेषता प्रकट होती है। अतः हरीरौ, लम्बौ, कैऊ और थोरौ शब्द विशेषण हैं।
- 2. विशेषण जिस शब्द की विशेषता बतलावे उसे ‘विशेष्य‘ कहते हैं। उक्त उदाहरणों में उन्ना, आदमी पोथी और ‘पानूं’ विशेष्य हैं। जौ सुन्दर है (यह सुन्दर है) ऊ पीरौ है (वह पीला है) तुम मैले हो (तुम मैले हो) में सुन्दर, पीरौ, तथा मैले ‘जौ’ ‘ऊ’ और ‘तुम’ की विशेषता बतला रहे हैं। यहाँ यह समझना गलत है कि ये विशेषण सर्वनाम की विशेषता बतला रहे हैं। सर्वनाम की विशेषता बतलाने वाले शब्द यथार्थतः उस संज्ञा की विशेषता बतलाते हैं जिसके स्थान पर सर्वनाम का प्रयोग होता है।
3. श्री गुरु के मत से जिस विकारी शब्द से संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है, उसे ‘विशेषण’ कहते हैं। जैसे- बड़ा, काला, कृपालु, भारी, एक, दो, सब। विशेषण के द्वारा जिस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है उसे ‘विशेष्य’ कहते हैं। जैसे- ‘काला घोड़ा’ वाक्यांश में ‘घोड़ा’ संज्ञा ‘काला’ विशेषण का विशेष्य है। ‘बड़ा घर में’ ‘घर’ विशेष्य है। कुछ वैयाकरणों ने विशेषण को भी एक प्रकार की संज्ञा माना है, और यह अप्रत्यक्ष संज्ञा है भी परन्तु इसका उपयोग संज्ञा के बिना नहीं हो सकता और इससे संज्ञा का केवल धर्म ही सूचित होता है, जैसे- काला कहने से घोड़ा, कपड़ा, दाग आदि किसी भी वस्तु के धर्म, कालेपन की कल्पना मन में उत्पन्न हो सकती है, परन्तु उस धर्म का नाम ‘काला’ नहीं है, किन्तु ‘कालापन’ है। जब विशेषण अकेला आता है तब उससे पदार्थ का बोध होता है और उसे ‘संज्ञा’ कहते हैं। उस समय उसमें संज्ञा के समान विकार भी होते हैं। जैसे- इसके बड़ों का संकल्प है।
विशेषण के भेद
- निम्नांकित दृष्टियों से विशेषणों के भेद इस प्रकार हैं—
(क) उपयोगिता की दृष्टि से तीन भेद होते हैं- 1.सार्वनामिक, 2.गुण वाचक, और 3.संख्या वाचक।
(ख) अर्थ की दृष्टि से चार भेद होते हैं- 1.गुण बोधक, 2.संख्या बोधक, 3.परिमाण बोधक और 4.सार्वनामिक।
इनमें तीन पूर्वोक्त ही हैं, केवल परिमाण बोधक अधिक है। इस प्रकार कुल मिलाकर 4 भेद हुये।
(ग) स्थान की दृष्टि से दो भेद होते हैं- 1.विशेष्य-विशेषण और 2.विधेय-विशेषण।
(घ) रचना की दृष्ठि से दो भेद होते हैं- 1.रूढ़ 2.यौगिक।
(1) सार्वनामिक विशेषण
पुरुष वाचक और निज वाचक सर्वनामों को छोड़कर शेष सर्वनामों का प्रयोग विशेषण के समान होता है। जब ये शब्द अकेले आते हैं, तब सर्वनाम प्रयोग होता है और जब इनके साथ संज्ञा आती है तब ये विशेषण होते हैं। जैसे-‘कोऊ खों बुलाव’ (किसी को बुलाओ) और ‘कोऊ बामन खों बुलाव’ (किसी ब्राह्मण को बुलाओ) यहाँ पहले वाक्य में ‘कोऊ’ सर्वनाम है जबकि दूसरे वाक्य में ‘कोऊ’ विशेषण है।
सार्वनामिक विशेषणों के भेद
सर्वनामिक विशेषण व्युत्पत्ति के आधार पर दो तरह के होते हैं-मूल और यौगिक अर्थात् साधित।
मूल सर्वनाम – जो बिना किसी रूपान्तर के संज्ञा के साथ आते हैं, जैसे-ऊ घर, बौ लरका, कोऊ नौकर, कछू काम आदि।
यौगिक सर्वनाम– जो मूल सर्वनामों में प्रत्यय लगाने से बनते हैं और संज्ञा के साथ आते हैं। जैसे- ऐसौ आदमी, कैसौ घर, उतनों काम, जैसो देस, वैसौ भेस।
सारांश यह कि जो सर्वनाम विशेषण का काम करते हैं, वे सार्वनामिक विशेषण कहे जाते हैं। जौ (यह) बौ (वह) जो, कौन (कौन) का (क्या) कोऊ (कोई) कुछ आदि ऐसे ही सर्वनाम हैं। ये शब्द सर्वनाम रूप में प्रयुक्त होते हैं या विशेषण रूप में, इसके जानने के लिये हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि सर्वनाम अकेले आते हैं, पर संज्ञा विशेषण संज्ञा के साथ। अर्थात् ये शब्द अकेले आयें तो सर्वनाम होंगे और संज्ञा के साथ आएं तो विशेषण। उदाहरण के लिये- ‘जौ ले लेव (यह ले लो) ‘ऊ आ रओ है’ (वह आ रहा है) जो चाय ऊ जाय (जो चाहे वह जाय) कोउ कैय (कोई कहेगा) तथा ‘कछू जात हैं’ (कुछ जाते हैं)’ मैं ये शब्द सर्वनाम हैं, पर ‘जा सूरत देखौ’ (यह सूरत देखो) ऊ मकान गिर रओ है, जो आदमी गओ तो, ऊ आ गओ, ‘कोऊ आदमी आ रओ है’, तथा ‘कछू कुत्ता दौर रय हैं (कुछ कुत्ते दौड़ रहे हैं)’ में विशेषण हैं।
प्रायः सभी सर्वनाम विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। सार्वनामिक विशेषण दो प्रकार के पहले बताये हैं- (क) मूल और (ख) यौगिक या साधित। इन्हीं के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा क्रमशः प्रस्तुत है।
(क) मूल सार्वनामिक विशेषण
सभी सार्वनामिक विशेषण विकारी रुप में प्रयुक्त होते हैं। सार्वनामिक विशेषणों में जहाँ सम्बन्ध-वाची कौ-के-की, तथा रौ, रे री, विशेषक जुड़ते हैं वहाँ ये सम्बन्ध सूचक विशेषण होते हैं। यह सिद्धान्त सभी प्रकार के सार्वनामिक विशेषणों के सम्बन्ध में है।
पुरुष वाचक सर्वनामों के (उत्तम एवं मध्यम) अविकारी रूप विशेषणों की भाँति प्रयुक्त नहीं होते। बौ, बा (वह) बे तथा इनके विकारी रूप ऊ, (वह) उन, एक ओर अन्य पुरुषवाची सर्वनामों की भाँति प्रयुक्त होते हैं तो दूसरी ओर दूरार्थी संकेत सूचक विशेषणों की भाँति।
(ख) यौगिक या साधित सार्वनामिक विशेषण
वे हैं जो मूल सर्वनामों से बनाये जाते हैं। जैसे—
वे हैं जो मूल सर्वनामों से बनाये जाते हैं। जैसे—
मूल सर्वनाम से साधित सार्वनामिक विशेषण
गुणवाची परिमाण वाची
जौ (यह) एसौ, ऐसे इतनों, इतनें
जा (स्त्रीलिंग) ऐसी, ऐसीं इतनी, इतनीं
बो (वह) वैसौ, वैसे उतनों, उतनें
वा (स्त्री.) वैसी, वैसीं उतनी, उतनीं
कोंन कैसो, कैसे, कितनों, कितनें
कोंन (स्त्री.) कैसी, कैसीं कितनी, कितनीं
ऐसौ, ऐसे आदि सभी सर्वनामिक विशेषण प्रणाली या प्रकार बोधक हैं।
इसी प्रकार जितौ, कितौ, कित्ते, जित्ते, उत्तौ, उत्ते, इतौ, इत्ते, तथा इन्हीं के स्त्रीलिंग में जित्ती, जित्ती कित्ती, कित्तीं, इत्ती, इत्तीं, उत्ती, उत्तीं आदि अनिश्चित परिमाण बोधक हैं।
सर्वनामिक विशेषणों के साधित रूप दो प्रकार के होते हैं- गुणवाची और परिमाण वाची। सौ, से सी, अन्त्य वाले सार्वनामिक विशेषण गुणवाची होते हैं तथा नौ, ने नी, अन्त्य वाले साधित सार्वनामिक विशेषण परिमाण वाची होते हैं।
(2) गुण वाचक विशेषण
जो विशेषण संज्ञा (विशेष्य) के गुण आकार, रंग, दशा, काल और स्थान, का बोध करायें, उन्हें गुणवाचक विशेषण कहते हैं। जैसे – सुन्दर फूल, ऊँचौ मकान। ‘गुण’ का अर्थ यहाँ अच्छाई से न होकर कैसी भी विशेषता से है। अच्छौ (अच्छा) बुरओ (बुरा) नें अच्छौ (न अच्छा) ने बुरओ (न बुरा) सभी प्रकार के गुण इसके अन्तर्गत हैं। गुण अपने रूप में कई प्रकार का हो सकता है। उसी आधार पर गुण वाचक विशेषण को प्रमुखतः निम्नांकित भेदों में बांटा जाता है-
(क) गुणवाचक – जिससे किसी संज्ञा के गुण का बोध हो। जैसे-सुन्दर बिटिया, भलौ आदमी, सांचौ लरका, आदि। ईलौ, ईले, ईली प्रत्यय के योग से पुल्लिंग में छबीलौ, छबीले, सुरीलौ, गठीलौ तथा इन्ही के स्त्री लिंग में छबीली, सुरीली, गठीली, आदि रूप बनेंगे।
‘आउ’ प्रत्यय के योग से कटाऊ, खटाऊ, जलाऊ आदि विशेषण सम्पन्न होते हैं। दुर्गुण वाचक विशेष्य भी इसी के अन्तर्गत हैं। जैसे अनचित काम, झूंटौ मौड़ा, पापी मनंख, लटौ आदमी (उपद्रवी मनुष्य)।
(ख) आकार वाचक– जिससे आकार सम्बन्धी गुण का बोध हो। जैसे-गोला गेंद, चौखूंटौ चौका, सुडौल आदमी, समान जागां (स्थान) पोलौ बांस, सुन्दर कमल, नुकीलो खोलो, इसी प्रकार ऊँचौ, नेंचौ, ठुमकौ, लम्बौ, चोंरौ, सकरौ, सूदौ, टेड़ौ, इक्कर, दूनर आदि।
(ग) रंग या वर्ण वाचक– जिससे किसी संज्ञा का वर्ण (रंग) ज्ञात हो। जैसे- पीरौ पिछोरा, हरीरे पत्ता, सुपेत (सफेद) लाल फूल, लीलौ–आसमान, करिया केवला (कोयला), बेंगनी भटा आदि। ऊजरौ, मैलौ, गोरौ, भूरौ आसमानी, गुलाबी, मटया, मटमैलौ आदि।
(घ) दशावाचक – जिससे किसी की दशा का बोध हो। जैसे- रोगिया (रोगी) मनंख (रुग्ण मनुष्य) दूबरौ मौड़ा (दुबला लड़का), पतरौ नाज (पतला अनाज-कोदों कुटकी आदि), गाड़ौ दूद (गाढ़ा दूध), सूकौ बांस (सूखा बांस), इसी प्रकार मोंटौ, जबर, पतरौ, ‘इकारी, दुआरौ, कर्रौ, कोंरों, पिल-पिलौ, कट-कटौ, गदरौ, कच्चौ, अदपको, करकरौ, दर-दरौ, खर-खरौ, खुरदरौ, गिल-गिलौ, गरओ, चोकनौ, फुल्लामी, सपाट, गलो गिलगलो, गीलौ, गुलगुलौ, चिन्टोलौ, तींतो, निचरो, नोनों, नीकौ, तीखौ, सरो, सरो-गलो, तातौ, सिरानों, जूड़ौ, ठंडी, तत्तासीरौ, कटो, कुटो, पिसो, चलो, छनों, चलो-छनों, आदि। इनके स्त्रीलिंग में सूकी, मोटी, नोंनी आदि रूप होंगे।
‘ओंय’ प्रत्यय के योग से भी दशा वाचक विशेषण बनते हैं। जैसे-कटोंय, (काटने योग्य) कुटोंय, घलोंय, छनोंय, घटोंय, मरोंय, रुकोंय, लुकोंय, दुकोंय, लुकोंय-चुकोंय, आदि।
(ङ) काल वाचक– जो समय या काल सम्बन्धी गुण बतलाये। जैसे- नओ घर, पुरानौ उन्नां, सरो आम, सरी सुपारी, आदि। लोरौ लरका, वारौ कनैया।
(च) स्थान वाचक – जो स्थान विषयक गुण बतलाये। जैसे- ऊँचौ मकान, नेचौं दरवाजौ, चौरौ आंगन, सकरी गैल, सूदौ दोरी, सकरौ उसरा, भीतरौ कोठा, बायरौ फरकौ, बनारसी सारी, छत्तपुरी वासन-भाँड़े, आदि।
(3) संख्या वाचक विशेषण
जो विशेषण किसी संज्ञा की संख्या विषयक विशेषता बतलावें : जैसे-एक अमियां, दो जनें।
संख्या कभी तो निश्चित हो सकती है जैसे- एक, दो आदि। परन्तु कभी अनिश्चित भी हो सकती है। जैसे- कछू (कुछ) थोरे (थोड़े)। इन्हीं आधारों पर सख्या वाचक विशेषण के निश्चित संख्या वाचक और अनिश्चित संख्या वाचक दो भेद किये जा सकते हैं।
- . निश्चित संख्या वाचक विशेषण के 6 भेद होते हैं-
(क) गणना वाचक
ये विशेषण वस्तुओं की गिनती बतलाते हैं। जैसे– दो लरके, चार धोरे, पाँच पोथीं, आदि।
गणना वाचक के दो भेद होते हैं- (1) पूर्णांक वाचक और (2) अपूर्णांक वाचक।
1. पूर्णांक गणनात्मक
पूर्णांक गणनात्मक विशेषणों से पूर्ण संख्या का बोध होता है। जैसे -एक, दो, तीन, चार, पाँच, छै, सात, आठ, नौ, दस, सौ, हजार, लाख, किरोर, आदि।
ग्यारह (11) से निन्यानवे (99) तक की संख्याएँ एक से दस तक की संख्याओं में से किन्हीं दो संख्याओं के योग से बनतीं है। परन्तु बुंदेली में संख्याओं का जो उच्चारण होता है उससे उक्त तथ्य का पता तब तक नहीं चलता जब तक कि संख्या वाचक शब्दों को व्युत्पत्ति के लिये संख्या वाचक संस्कृत शब्दों को न देखा जाय। जैसे- बुंदेली की 11 संख्या का उच्चारण ‘ग्यारा’ होता है जब संस्कृत के ‘एकादश’ (1+10=11) को देखा जायगा तभी इसके उच्चारण की पद्धति का परिज्ञान का हो सकेगा। अस्तु बुंदेली की 100 तक संख्या का उच्चारण इस प्रकार होगा-
1.एक 18.अठारा 35.पें तीस 52– बाँउन
2.दो 19उनईस 36.छत्तीस 53.त्रेपन
3.तीन 20-बीस 37.सेंतीस 54.चउअन
4.चार 21.इकईस 38.अड़तीस 55.पचपन
5.पाँच 22.बाईस 39उन्तालीस 56.छप्पन
6.छै 23.तेईस 40-चालीस 57.संत्तावन
7.सात 24.चौबीस 41.इकतालीस 58. अंठाउन
8.आठ 25.पच्चीस 42.ब्यालीस 59. उनसट
9नों 26.छव्वीस 43.तेंतालीस 60. साट
10.दस 27.सत्ताईस 44.चबालीस 61.इकसट
11.ग्यारा 28.अट्ठाईस 45.पेंतालीस 62.बासट
12.बारा 29उन्तीस 46.छयालीस 63.त्रेसट
13.तेरा 30. तीस 47.सेंतालीस 64.चोंसट
14.चौदा 31.इकतीस 48.अड़तालीस 65.पेंसट
15.पन्द्रा 32.बत्तीस 49. उनंचास 66.छ्यासट
16.सोरा 33.तेंतीस 50. पचास 67.सरसट
17.सत्रा 34.चोंतीस 51. इंक्याउन 68.अरसट
69 उनत्तर 78.अठत्तर 87.सतासी 96.छ्यानबे
70-सत्तर 79उन्यासी 88.अठासी 97.सन्तानबे
71.इकत्तर 80-अस्सी 89नवासी 98.अंठानबे
72.बहत्तर 81.इक्यासी 90-नब्बे 99. निन्यानबे
73.तिहत्तर 82.व्यासी 91.इकानवे 100. सौ
74.चुहत्तर 83.तेरासी 92.बांनबे 1000. हजार
75.पचत्तर 84.चोंरासी 93.तेरानवे 10000. दस हजार
76.छियत्तर 85.पचासी 94.चौरानवे 100000 लाख
77.सतत्तर 86.छ्यासी 95.पंचानबे 10000000 करोड़
पूर्णता बोधक विशेषण शब्दों में संख्या के साथ ‘ठौ, ठौल, या ‘ठौआ’ ठैया और ठइयां, जोड़ कर भी बोला जाता है। जैसे-
- एक ठौ, ठौल या ठौआ आम।
- एक ठैया अमियां या कैऊ ठइयां अमियां आदि।
सौ से आगे की संख्या के कुछ विशिष्ट और विचित्र उच्चारण यहाँ सुनने को मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि कुछ तो संस्कृतगणना वाचक शब्दों के अपभ्रष्ट रूप हैं, और कुछ देशी भाषा शब्दों के रूपान्तर हैं। बुंदेलीभाषी छात्र जब पहाड़े का सस्वर पाठ करते हैं तब कुछ विशिष्ट शब्द सुनने को मिलते हैं; जैसे-
पहले 15 के पहाड़े को ही लीजिये। बच्चों द्वारा उसे पढ़ते सुनकर बच्चों को ही क्या; वयोवृद्धों को भी बहुत आनन्द आता है। आप भी आनन्द लीजिये, प्रस्तुत है 15 का पहाड़ा-
पन्द्रा एकम पन्द्रा (15×1 =15)
पन्द्रा दूनी तीस (15×2 =30)
पन्द्रा तीयां पेंतल्ला (15×3 =45)
पन्द्रा चौको साट (15×4 =60)
पन्द्रा पना पचहत्तर (15×5 =75)
पन्द्रा छक्कें नब्बे (15×6 =90)
पन्द्रा सात पचोकड़ सौ (15×7 =105)
पन्द्रा अट्ठे बीसा सौ (15×8 =120)
पन्द्रा नौ पेंतीसा सौ (15×9 =135)
पन्द्रा धाम धूम धड़क्का डेढ़ सौ (15×10 =150)
और अब सुनिये 11 से 39 तक के पहाड़े में आने वाली विशिष्ट बुंदेली शब्दावली को-
17 x 6 = 102 सत्रा छंग दुमंकड़–सौ (द्वयुत्तरशतम्)
13 x 8 = 104 तेरा आठ चलोतर–सौ (चतुरुत्तरशतम्)
15 x 7 = 105 पन्द्रा सात पचोकड़–सौ (पञ्चोत्तरशतम्)
12 x 9= 108 बारा नाम अठोकड़–सौ (अष्टोत्तरशतम्)
11 x 10 = 110 ग्यारई धाम दहोकड़ सौ (दशोत्तरशतम्)
37 × 3 – 111 सेंतीस ती गिरोल-सौ (एकादशोत्तरशतम्)
16 x 7= 112 सोरा सात बलोत्तर–सौ (द्वादशोत्तरशतम्)
19 x 6 = 114 उनईस छंग चौदोकड़–सौ (चतुर्दशोत्तरशतम्)
23 x 5 = 115 तेईस पना पन्द्रौल–सौ
29 x 4 = 116 उन्तीस चौको सोलसौ,
13 x 9 = 117 तेरा नाम सत्रोल–सौ,
17 × 7 = 119 सत्रा सात उनईसा–सौ,
12 x 10 = 120 बारा धाम बीसा–सौ,
11 x 11 = 121 गेरं-गेर इकईसा–सौ
16 x 9 = 144 सोरा नाम चबाल-सौ
37 x 4 = 148 सैतीस चौक अड़ताल-सौ,
17 x 9 – 153 सत्रानाम त्रपन्ना–सौ,
31 × 5 = 155 इकतीस पाँच पचपन्न–सौ,
39 x 4 = 156 उन्तालीस चौक छप्पन्ना–सौ,
(2) अपूर्णांक वाचक
विशेषणों में पौवा (पाव 1/4), अद्धा (आधा 1/2), पोंना (पोंन 3/4), तिहाई (1/3), सबाऔं (सबाया 1.1/4), ड्यौड़ी (ड्योढ़ा 1.1/2), आदि हैं। चौथाई, आदी, पोंनी, तिहाई, सवाई, डयोड़ी आदि रूप स्त्रीलिंग में होंगे।
(ख) क्रम वाचक
क्रमवाचक विशेषण क्रम के अनुसार संज्ञा का स्थान बतलाते हैं। जैसे-पैलौ लरका, दूसरौ भैया आदि। इसी प्रकार पुल्लिंग में तीसरौ, चौथौ, पांचँव, छटँव, सातँव, आठँव, नबँव, दसँब, आदि तथा स्त्रीलिंग में पैली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचमी, छठँई, सातँई, आठँई, नवई, दसँई, आदि रूप होंगे।
(ग) आवृत्ति वाचक
आवृत्ति वाचक विशेषण ‘गुना’ का बोध कराते हैं। अर्थात् एक वस्तु से दूसरी वस्तु कितनी गुनी है ? जैसे दुगनौ, तिगुनौ, चौगूनौ, पचगूनौ, छगुनौ, सतगुनौ अठगुनौ, नौंगुनौ, दसगुनों आदि। इसी के स्त्रीलिंग में अन्त के ‘औ’ को ‘ई’ कर देने से दुगनी, तिगुनी, चौगुनी, पचगुनी, छैगुनी, सतगुनी, अठगुनी, दसगुनी, आदि रूप होंगे। इकारौ, दुआरौ, इकरौवल, दुबरौवल, चौअर, पचउअर आदि।
(घ) समुदाय वाचक
समुदाय वाचक विशेषण गणना-बोधक संख्या के समुदाय का बोध कराते है। जैसे-दोई आदमी (दोनों ही आदमी), तीन-ई (तीनों ही) चोर। इसी प्रकार चार-ई, पाँच-ई, छै-ई, सात-ई, आठ-ई, दस-ई आदि हिन्दी की तरह दोनों, तीनों चारों आदि रूप भी विकल्प से सुनने में आते हैं।
(ङ) समूह वाचक
इस वर्ग के विशेषण गणनाबोधक संख्या के समुदाय के बोधक है; जैसे–
(1) एक जोर या जोरी (जोड़ या जोड़ी-दो का समूह) एक जोरी जूता, (2) गंडा (चार का समूह) एक गंडा पैसा (चार पैसे या पुराना एक आना)। पुराने एक रुपये के 64 पैसों को 16 आनों में विभक्त करने के लिये यह पद्धति थी।
(3) गड़ा (5 का समूह) एक गड़ा आम। 100 या एक सैकड़ा को 20 हिस्सों में विभाजन के लिये यह पद्धति थी।
(4) दर्जन (12 का समूह) एक दर्जन माचिस का बण्डल।
(5) कोरी (20 का समूह)
(6) विसी (20 का समूह)
इसी प्रकार तांस के पत्तों में इक्का, दुप्पी, तिप्पी, चौआ, पंजा, छक्का, सत्ता, अट्ठा, नहा, दहा तथा अन्यत्र दुक्की, तिक्की, तिकड़ी, चौकड़ी, छकड़ा–छकड़ी, बीसा, बत्तीसा, बत्तीसी, चालीसा, सैकरया हजारा, लाखा आदि।
(च) प्रत्येक वाचक
इसके द्वारा कई चीजों में से हर एक का बोध होता है। जैसे- हरएक आदमी, एक–एक लरका, हर हप्ता (प्रति सप्ताह) हर मइनें, (हर महीने) दिन-
भर, रातभर आदि शब्द भी समझिये। एक-एक, दो-दो, तीन-तीन चार-चार, पाँच-पाँच आदि पूर्णांक तथा सवा-सवा, देढ-डेढ़, ढाई-ढ़ाई आदि अपूर्णांक संख्या वाचक शब्द भी इसमें परिगणित होते हैं।
2. अनिश्चित संख्या वाचक
जिन शब्दों से निश्चित संख्या का बोध न हो; जैसे- कछु (कुछ चीजों), सब लोग, थोरौ (थोड़ा) सामान, भौत (बहुत) जनें, अनेक तरा के लोग, कई अथवा ‘कैऊ‘ जनें’। इस प्रकार दसक, बीसक, बीसन, विसन आदि अनिश्चित संख्या वाचक शब्द हैं।
(क) संख्या वाचक विशेषण – ‘एक’ भी निम्न प्रकार के प्रयोगों में अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण है; जैसे —
(1) करजा ऐसो पांवनों है जो एक बेर आकें फिर जैवे कौ नांव नई लेत (कर्ज एक ऐसा पाहुना है जो एक बार आकार फिर जाने का नाम नहीं लेता)।
(2) एक जा रओ है, एक आ रओ है।
(ख) संख्या वाचक विशेषण
एक-अव्यय (‘मात्र’, ‘सी’ आदि) अन्य शब्दों के साथ जोड़े जाने पर भी अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण बनते हैं। जैसे- एक–मात्र, एकसी, एक दूसरे से, कईयक (कई-एक) कितेक (कतने-एक)।
(3) संख्या वाचक विशेषण जब द्वित्व रूप में आता है तब वह अनिश्चित संख्या वाचक भी विशेषण माना जाता है। जैसे-एक–एक खों अच्छी तरां समज लैवी (एक-एक को अच्छी तरह समझ लूँगा)।
(4) संख्या वाचक विशेषण के साथ दूसरा संख्या वाचक विशेषण जोड़े जाने पर अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण बनते हैं जैसे- दस एक दिन, पचास–साट रुपैये, चार–छै घंटे, आठ–दस सेर, दस–बीस मन आदि।
(5) अन्य सूचक ‘और’ ‘आन’ (अन्य) तथा ‘दूसरौ’ के साथ अन्य शब्द भेद जोड़ने पर भी अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण बनते हैं; जैसे-
(क) राम नई और लरका आव है।
(ख) ई से का सनमन्द, जा आन बात है।
(ग) कोंमऊ दूसरी लुगाई ले आय हो।
(घ) एक मोंडा पड़त है, दूसरौं खेलत रत है।
(ङ) जौ-काम और–कोऊ ने करो है।
(च) राष्ट्रपति कोऊ और है।
(छ) तुमें और कछू कानें है ?
(ज) तुमाए संगै और कौन आदमी है ?
(झ) हिन्दी के संगै और–का विषय लओ है?
(ट) घड़ी के सगै और–का–का (और क्या-क्या) सामान खोव है ?
(ठ) झगड़ा बड़ावे के लानें और की और बातें नें कव।
(6) सर्व सूचक शब्द भी अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण माने जाते हैं।
जैसे— सब, सबकोउ, सब कछू, सबकौ सब, सब–ई, सबरे, कुल्ल, पूरे, सकल आदि।
(7) आधिक्य और न्यूनता सूचक शब्द अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण माने जाते हैं, जैसे- भौत, (बहुत) भौत से (बहुत से) भौत सारे (बहुत सारे) भौत थोरी (बहुत थौड़ी) भौत थोरीसी (बहुत थोरी सी) कछू जादां (कुछ ज्यादा) कम सें कम (कम से कम) आदि।
(8) अनेकता सूचक शब्द अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण माने जाते हैं। जैसे-अनेक, अनेकन, अनगिनें, अनगिनते, असंक (असंख्य) आदि, और इत्यादि।
(9) निश्चित गणना वाचक विशेषण भी अनिश्चित संख्या वाचक विशेषणों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे- सौ–एक आदमी, एकाद (एकाध) दिन, दस–बीस रुपइया, उनईस–बीस कौ फरक, तीन–तेरा, पच्चीसन, पचासन, सैकरन तथा हजारन, लक्खन, किरोरन आदि।
4. परिणाम वाचक विशेषण
जो विशेषण किसी वस्तु की तौल या नाप की विशेषता बतलाए, जैसे — सेर भरो आटौ, थोरो दूद। इसके भी (1) निश्चित परिमाण वाचक और (2) अनिश्चित परिमाण वाचक ये दो भेद होते हैं।
दो हाथ जागां, तोला भर सोनों, चार सेर दूद, चालीस–चालीस गज उन्नां (कपड़ा) आदि निश्चित परिमाण वाचक है। और, सब, सबरौ, समूचौ अधक (अधिक) भौत, कछू, थोरे, सेरन (सेरो) मनन (मनों) भौत सारो (बहुत सारा) तनक, मुतके, कछू, गल्लन, ढेरन, विलात, कुल्तकौ, सबरौ, हांतक, मनक, सेरक, टिपरियन, टिपरियाक, घुटनाँ, करयन, घिचन, घूंटन, छातन, गरेलौ, गरन, डुब्वान, डूवां, गरेंट, थोरो-भौत (थोड़ा बहुत) कमजादा (कम ज्यादा) कमती-जादां, भौत-सी (बहुत सा) थोरी सौ (थोड़े से) आदि अनिश्चित परिमाण वाचक विशेषण हैं।
इस वर्ग के अनिश्चित परिमाण सूचक विशेषण अनिश्चित संख्या वाचक भी है। जैसे- कछू, सब, थोरे, भौत, मुतकौ, विलात आदि ऐसे ही विशेषण हैं। कछू रोटी, सब आम, थोरे लरके, भौत छोटे, आदि वाक्यों में कछु, सब, थोरे, और भौत शब्द अनिश्चि संख्या वाचक हैं परन्तु कछू दूद, सबरो आटौ, थोरे आम और भौत पानूं आदि वाक्यों में ये सब शब्द अनिश्चित परिमाण वाचत हैं।
विशेषण के रूपान्तर
13. रूप की दृष्टि से विशेषण के दो भेद किये जाते हैं-विकारी और 2.अविकारी।
14. सभी विशेषण विकारी शब्द नहीं हैं परन्तु जब विशेषणों का प्रयोग संज्ञा के समान होता है और उनमें रूपान्तर होता है तब उन्हें विकारी कहा जाता है। जिन विशेषणों के पुल्लिंग रूप में ‘औ’ होता है उनका ‘औ’ लिंग, वचन और कारक के हिसाब से बदल जाता है। इसलिये ऐसे विशेषणों को विकारी कहते हैं। जैसे- बड़ौ घोड़ा, का ‘बड़े घोड़े’, रूप बहुवचन में होगा। तथा ‘बड़ी मौंडी’ का रूप ‘बड़ीं मौंडीं’ बहुवचन होगा। यहाँ यह स्पष्ट है कि ‘बड़ौ’ शब्द के बहुवचन में ‘औ’ के स्थान पर पुल्लिंग में ‘ए’ और स्त्रीलिंग में एक वचन में ‘ई’ और बहुवचन में ‘ईं’ हो गया है।
15. सार्वनामिक विशेषण भी वचन और कारक के अनुसार उसी तरह रूपान्तरित होते हैं जिस तरह ऐसे सर्वनाम, जैसे-ऊ लरका, ऊ लरका कौ, वे लरके, उन लरकन खों।
16. शेष सब विशेषण भी अविकारी होते हैं जैसे- गोल चैरा (चेहरा), गोल गेंद, गोल ठप्पे, भारी गठरिया, भारी गट्ठे, सुन्दर लरका, सुन्दर लरके, सुन्दर लरकी, सुडौल शरीर, सुडौल उंगरिया तादि।
17. जब संज्ञा का लोप रहता हैऔर विशेषण संज्ञा का काम देता है, तब उसका रूपान्तर विशेषण के ढंग से ही होता है। साधारणतया विशेषण के साथ परसर्ग न लगाकर विशेष्य के साथ लगाया जाता है। किन्तु संज्ञा बन जाने पर विशेषण पद के साथ परसर्ग लगता है। जैसे- बड़न की बात मानों चाईये। वीरन नें सब कछु करके दिखादव।
18. स्थान के आधार पर विशेषण के 2 भेद होते हैं-विशेष्य और विशेषण और 2. विधेय विशेषण1. विशेष्य विशेषण— जो विशेष्य के तुरन्त पहले आये वह विशेष्य विशेषण कहलाता है। जैसे- हरी घांस, भोरे-भोरे लरका।
2. विधेय विशेषण— जो विशेषण विशेष्य के बाद क्रिया के पूरक के रूप में आये वह विधेय विशेषण कहलाता है। जैसे-ऊ लरका आलसी है। पैलां के आदमी साहसी होत हते।
विशेषण–निर्माण के आधार
रचना की दृष्टि से विशेषण दो प्रकार के होते हैं- रूढ़ और यौगिक।
रूढ़ — रूढ़ विशेषण वे कहलाते हैं, जो मूलतः विशेषण हैं और जिनके खण्डों में कोई अर्थ नहीं होते, जैसे अच्छौ, बुरौ पीलौ, हरीरौ आदि।
यौगिक— यौगिक विशेषण वे कहलाते हैं जो दूसरे शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बनाये जाते हैं। विवरण इस प्रकार है-
(क) संज्ञा से
(1) व्यक्ति वाचक संज्ञा के आधार पर — ई प्रत्यय के योग से छतरपुर से छत्तरपुरी, छत्तपुरी, रामानन्द से रामानन्दी आदि।
(2) जातिवाचक संज्ञा से — सोने से सुनहरौ, पानी से पनीलौ, कागद से कागदी, किताब से किताबी, घर से घरू, घरेलू, जंगल से जंगली आदि।
(3) भाव वाचक संज्ञा से— कृपा से किरपाल (कृपाल), दया से दयाल आदि।
(ख) सर्वनाम से
यह पहले स्पष्ट हो चुका है कि पुरुष वाचक तथा निजवाचक सर्वनामों को छोड़कर सभी अन्य सर्वनामों का प्रयोग विशेषण सा होता है ! पर कुछ सर्वनामों के आधार पर नये विशेषण भी बनाये जाते हैं।
जैसे-
सर्वनाम विशेषण
गुण या प्रकार वाचक, संख्या वाचक, परिमाण वाचक, सार्वनामिक
जौ (यह) ऐसौ इतनें इतनौ जौ, ई
ऊ, वौ (वह) ऊसौ, वैसौ उतनें उतनौ वह, ऊ
को, कौन कैसौ कितनें कितनों जो, जी
जो, जोंन जैसौ जितनें जितनों कौन, की
(ग) क्रिया के आधार पर
क्रिया विशेषण उदाहरण
चलबो (चलना) चलतू (चलतू बैल)
चालू (चालू गाड़ी)
चालू (चालू सिक्का)
बढ़बौ (बढ़ना) बड़तौ (बड़तौ खरचा)
बीतबौ (बीतना) बीतो (बीतो समव-समय)
जाबौ (जाना) गओ (गऔ समव)
भगवौ (भागना) भगैलो, भगेलू (भगैलौ आदमी)
भगेलू (भगेलू लुगाई)
भगेलुवा भगेलुवा गैलारो
(2) ‘आरौ’ तथा ‘ऐया’ लगाकर भी विशेषण बनाये जाते हैं। जैसे—
दौरबौ (दौड़ना) दौरबे बारौ, दौरेया,
हंसबौ (हसना) हंसवे वारौ, हंसैया,
करबौ (करना) करवे वारौ, करैया आदि !
(3) प्रेरणार्थक धातु के अन्त में अनुस्वार रख देने से विशेषण बनते हैं।
जैसे-
क्रिया प्रेरणार्थक विषेषण
बेलबौ (बेलना) से बिलवा बिलवां
ढारबौ (ढालना) से ढरवा ढरवां
इसी प्रकार फुलवां, चुरवां, कटवां, भरवां, आदि।
(4) सम्बन्ध कारकीय संज्ञाएं और सर्वनाम से– जैसे-लोय कौ फाटक, नकरिया कौ खिलौना, ऊ कौ हांत, मोरौ घर, अपनौ मकान,
(5) विशेषण से जैसे- घनिष्ठ।
(6) अव्यय से — भीतरौ, वायरौ।
अन्य शब्द भेद विशेंषणों के रूप में–
इसके अतिरिक्त अन्य शब्द भेद भी कभी स्वतन्त्र रूप में और कभी अन्य तत्वों के योग से विशेषण के समान प्रयुक्त होते हैं।
(क) क्रिया वाचक विशेषण–
(1) चलतू गाड़ी से चड़त उतरत रत है (चलती गाड़ी से चढ़ता उतरता रहता है)।
(2) गओ समय हांते नई आउत (गया समय हाथ नहीं आता) आदि।
(ख) संज्ञा और सर्वनाम –
विभक्ति या ‘सौ‘ ‘सी‘ प्रत्ययों के योग के वाद भी विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते है जैसे–
(1) हिन्दी– साहित्य कौ इतहास एक हजार वर्ष कौ है।
(2) तुम सौ मूरख और कोऊ नइयां।
(ग) ‘सौ‘ के स्थान पर ‘जैसे‘ और ‘सरीखौ‘ शब्दों का प्रयोग भी होता है। जैसे (1) तुम जैसौ तो दूसरौ देखवे में नई आवे। (2) अरजुन सरीखौ धनुसधारी और कौ है ?
(3) भोज सरीखौ प्रतापी राजा नई भओ।
(घ) अन्य शब्द भेदों में ‘कैं–सौ, कैं–से, और ‘कैंसी‘ के योग से भी विशेषण बनते हैं। जैसे—
(1) इकदम बंदरा कैंसौ मों है (एक दम बन्दर कैसा मुँह है)
(2) राजन कैंसे उन्ना पैरत (राजाओं कैसे वस्त्र पहिनता है)
(3) कोल कैंसी मीठी बोली है (कोयल कैसी मीठी बोली है)
(4) नाटक कैंसी पोसाकें हैं।
विशेषण– ‘सौ‘ आदि हीनता सूचक—विशेषण के साथ सौ, से, सीं, प्रत्यय जोड़े जाने पर हीनता का बोध होता है। जैसे —
(1) रुपैया खोटौ–सौ लग रओ है। (रुपया खोटा–सा लग रहा है)
(2) छोटे से मकान अब मांगे हो गय है।
(3) चाँदी खोटी–सी है ?
(4) जे मोंड़ीं भौत दूबरीं सीं है। (ये लड़कियां बहुत दुबली सीं हैं)
विशेषण–द्वित्व और विशेषण–युग्मक प्रयोग
अपने कथन में प्रयुक्त ‘विशेषण’ को विशेष प्रभावशाली बनाने के लिये विशेषण को ‘द्वित्व’ अथवा युग्मक रूप में प्रयुक्त करते हैं। जैसे—
(क) विशेषण द्वित्व –
(1) हरे–हरे खेत लहरियां ले रय हैं।
(2) छोटे–छोटे मोंड़ा-मोंड़ी किलोलें कर रये।
इसी प्रकार पीरी-पीरी, लाल-लाल, बड़े-बड़े, नय-नय, कोऊ कोऊ, कैसौ-कैसौ, भारी-भारी, गज-गज, दो-दो, चार-चार।
(ख) विशेषण युग्मक –
(1) लाल–पीरीं आँखें काय पै दिखाउत ?
(2) गिने–चुने कवि लोग कवि सम्मेलन में आय हैं।
(3) इने–गिनें – लोग दूसरन की सहायता करत।
रूपहलौ-सुनहरी, लाल-हरीरौ आदि शब्द भी इसी प्रकार समझिये-
बल द्योतक गुणवाची विशेषण
इन विशेषणों में पहला पद (बुंदेली का होता है और दूसरा वही अर्थ रखने वाला फारसी का है। जैसे-
(1) ऊ की आँखें लाल सुरक्क (लाल सुर्ख) हो रई हैं, ईगुरसीं। कभी-कभी विशेष बल देने के लिये विपरीत प्रयोग ‘सुरक्क-लाल’ भीं सुनने में आता है। जैसे-डाकुअन की आँखें, सुरक्क लाल-हतीं, अंगरा सीं।
तुलनात्मक विशेषण
दो वस्तुओं के गुणों (या अवगुणों) के मिलान को तुलना कहते हैं। सीता राधा सें अधक गोरी-नारी हैं। वाक्य में ‘सीता और राधा’ के गौरवर्ण की तुलना की गई है। ‘कल्लू मल्लू से जादां करिया है।’ वाक्य में कल्लू और मल्लू के कृष्ण वर्ण की तुलना है। तुलना की दृष्टि से विशेषण की तीन अवस्थाएँ हो सकतीं हैं-
(1) मूलावस्था — इसमें तुलना के भाव का अभाव रहता है। अतः केवल विशेषण रख दिये जाते हैं। कभी संज्ञा के पूर्व, कभी पश्चात। जैसे – सीता सुन्दर है। सुन्दर सीता खेल रई है।
(2) उत्तरावस्था — इसमें दो की तुलना रहती है। जिससे कभी-कभी साम्य, कभी आधिक्य और कभी न्यूनता का परिज्ञान होता है; जैसे —
(क) साम्य सूचक — लछमन जू जितने वीर ते, उतनें-ईचंचल ते।
(ख) आधिक्य सूचक — राम लछमन जू सें जादां सान्त हते।
(ग) न्यूनता सूचक — राम सुन्दरताई में कामदेव से कम नई ते।
उत्तरावस्था में आधिक्य या न्यूनता को बतलाने के लिये अर्थात् दो की तुलना के लिये अधिकतर अपादान कारक का चिन्ह ‘सें’ का प्रयोग होता है जैसे- राम मोहन से अच्छौ है। इसके अतिरिक्त ‘सें अधक’ (से अधिक) सें जांदा (से ज्यादा) से भी अधक (से भी अधिक) सें-कम, सें-कछूकम, सें-कमती, सें बडकें (से बढ़कर) से घटकें (से घटकर) आदि शब्दों का प्रयोग होता है।
(3) उत्तमावस्था— उत्तमावस्था में समुदाय से तुलना होती है। इसमें उत्कृष्टता, हीनता, या किसी भी विशेषता में किसी संज्ञा को प्रायः बहुतों से बढ़कर दिखाते हैं। इसके दो रूप सम्भव हैं- (1) सापेक्ष और (2) निरपेक्ष।
(क) सापेक्ष — जिसमें दूसरों की तुलना में विशेषता अधिक हो। जैसे — ऊ सबसें सुन्दर है (वह सबसे सुन्दर है)।
(ख) निरपेक्ष – जिसमें बिना दूसरों की तुलना के ही विशेषता का आधिक्य दिखाया हो। जैसे-ऊ भौतऊ सुन्दर है (वह बहुत ही सुन्दर है)।
सापेक्ष के लिये ‘सबसे’ (जैसे वह सबसे सुन्दर है) या ‘सब’ के बाद जिसकी तुलना में विशेषता दिखानी हो उसका अपादान कारक बहुवचन का रूप रखकर ‘सें’ का प्रयोग करते हैं। जैसे-ऊ लरका सब लरकन से अच्छौ है। ‘सब’ के स्थान पर जोर देने के लिये ‘सब-ई’ (सभी) का भी प्रयोग किया जाता है। जैसे-ऊ सब-ई लरकन से अच्छौ है (या बुरओ है)
कभी-कभी अपादान कारक के स्थान पर अधिकरण का भी प्रयोग किया जाता है। जैसे— ऊ सब लरकन में अच्छी है। या सब–ई लरकन में अच्छौ है।
उत्तमावस्था के विशेषण ‘सबसे’ के साथ कोई विशेषण जोड़कर एक विशेषण के साथ ‘सें’ जोड़ने के पश्चात् उसी विशेषण को पुनः जोड़कर (विशेषण + सें+ विशेषण) बनाये जाते हैं। जैसे सबसें बड़ौ, सबसें छोटौ, अधक सें अधक (अधिक से अधिक) ऊँची-से-ऊँची, नेंची सें नेंची, गरीब सें गरीब, छोटे सें छोटौ, बुरओ से बुरओ, आदि।
उत्तमावस्था में संस्कृत के ‘तर’ प्रत्यय तथा उत्तमावस्था में ‘तम’ प्रत्यय का प्रयोग बुंदेली में नहीं होता।
- 4. क्रिया
परिभाषा
‘क्रिया’ वह विकारी शब्द है जिससे किसी का कुछ करना या होना ज्ञात हो। जैसे- राम दौरत है (राम दौड़ता है) वाक्य में राम के दौड़ने का कार्य ज्ञात होता है। इसी प्रकार ‘पोथी टेवल पै है’ इस वाक्य में पोथी के टेवल पर होने का ज्ञान होता है।
वार्तालाप के प्रसंग में मुख्यशब्द- ‘क्रिया’ ही रहती है। इसके बिना भाबों का व्यक्तीकरण असंभव है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बिना क्रिया के वाक्य हो ही नहीं सकते। क्रिया चाहे प्रगट रूप में हो या अप्रगट रूप में। जहाँ क्रिया प्रकट रूप में नहीं होती वहाँ उसका अभाव आभासितहोने लगता है परन्तु वस्तुतः अभाव होता नहीं है। अपितु उसका अस्तित्व छिपा हुआ रहता है। जैसे—
(क) मोहन ‘राम ! तुम का घरै जैव ? (राम क्या तुम घर जाओगे ?) राम-‘हाँ’
(ख) उनसें जा बात कैवे-कुआवे की जरूरत नइयां (उनसे यह वात कहने– कहाने की आवश्यकता नहीं है)
उक्त दोनों ही उदाहरणों में क्रिया का बोधक कोई शब्द नहीं है। पहले उदाहरण में राम ने केवल ‘हां’ कहा है। इसी प्रकार दूसरे वाक्य में भी क्रिया नहीं है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यहाँ क्रिया है ही नहीं। क्रियाएं दोनों ही वाक्यों में है, पर प्रत्यक्ष या प्रगट नहीं हैं। ‘हां’ का अर्थ है- ‘हां चलूंगा’ और ‘जरूरत नइयाँ’ का अर्थ है- ‘जरूरी नहीं है।’ इसका अ.शय यह है कि जहाँ क्रिया नहीं भी दिखायी पड़ती वहाँ उसका अस्तित्व छिपा हुआ रहता है और सुनने या पढ़ने वाला उस छिपे हुये अस्तित्व के आधार पर ही उसका अर्थ समझता है।
धातु
क्रिया का मूल ‘धातु’ है। ‘धातु’ उस अंश को कहा जाता है जो किसी क्रिया के प्रायः सभी रूपों में पाया जाय। उदाहरण के लिये चला, चली, चलूं, चलो, चलते, चलें, चलूंगा, चलेंगे, चलैंगी, आदि एक ही क्रिया के रूप है। यदि ध्यान दें तो ज्ञात हो जायगा कि उक्त सभी रूपों में ‘चल्’ का अंश विद्यमान है। इस ‘चल्’ में ही ‘आ’, ई, ‘ऊं’, ओ, आदि जोड़कर विभिन्न रूप बनाये गये हैं। अतः इन क्रिया रूपों या इस क्रिया का आधार ‘चल्’ धातु’ है। इसी प्रकार देख (देखा, देखी, देखेंगे, देखते) खा (खा, खाया, खाई, खाते) या (पाना, पाया, पाता, पायेंगे) आदि भी धातुएं हैं।
रूपरचना
बुंदेली की क्रिया का सामान्य रूप कहीं ‘बो’ और कहीं ‘बौ’ जोड़कर बनाया जाता है। जैसे ‘चलेबो’ या ‘चलबौ’ (चलना) ‘देखबो’ या ‘देखबौ’ (देखना) ‘पाबो’ या ‘पाबौ’ (पाना) ‘खाबो’ या ‘खाबौ’ (खाना) आदि। इन सामान्य रूपों में से ‘बो’ या ‘बौ’ निकाल कर भी धातु का रूप ज्ञात किया जा सकता है।
रूपों का प्रचलन
क्रिया के मूल रूप या धातु के अर्थ में सागर की ओर ‘ओ’ और छतरपुर की ओर ‘औ’ संयुक्त रूप ही प्रचलित हैं। अतः समझने में सरलता के लिये इस ग्रन्थ में उन्हीं ‘बो’ और ‘बौ’ संयुक्त धातुओं का प्रयोग किया गया है। जहाँ भी धातु रूप में ये ‘बो’ या ‘बौ’ संयुक्त रूप में प्रयुक्त हुये हैं, प्रयोग की दृष्टि से उन्हे ‘बो’ या ‘बौ’ निकाल कर ही धातु मानना चाहिये।
‘बो’ और ‘बौ’ के प्रयोग के सम्बन्ध में यह स्पष्ट कर देना आवश्यक हैं कि वस्तुतः हिन्दी में जैसे ‘ना’ जोड़कर कर+ना, (करना) धर+ना (धरना) आदि रूप बनाये जाते हैं उसी प्रकार बुंदेली में क्रिया का सामान्य रूप ‘बो’ जोड़कर कर + बो (करबो =करना) धर+बो (धरबो– धरना) बनाये जाते हैं। परन्तु खटोला बुंदेली के क्षेत्र से लेकर छतरपुर, टीकमगढ़ और झाँसी तक यह ‘बो’ ‘बौ’ के पूर्व रूप की स्थिति में उच्चारण किया जाता है। पूर्ण रूप से ‘बौ’ का उच्चारण नहीं हो पाता। कहने का तात्पर्य यह कि ओकारान्त और औकारान्त के उच्चारण की मध्यम वाली स्थिति होती है। जिसके उच्चारण के लिये कोई स्वतन्त्र संकेत चिह्न नहीं है। ‘करबो’ और ‘करबौ’ को बार-बार उच्चारण करके ही दोनों के उच्चारण को ध्यान में रखते हुए ‘ओ’ के बाद और ‘औ’ के पूर्व की उच्चारण स्थिति का अनुभव मात्र किया जा सकता है। उसे गूंगे के गुड़ के स्वाद की तरह ‘अवक्तव्य’ ही मानना अधिक उपयुक्त है, अस्तु।
बुंदेली क्रिया-विधान के सम्बन्ध में भाषा वैज्ञानिकों का कथन है कि साधारणतया हिन्दी तथा हिन्दी-प्रदेश को अन्यान्य क्षेत्रीय बोलियों के क्रिया-पदों में काल-वाच्य, अर्थ, पुरुष, वचन तथा लिंग द्योतक रचनात्मक प्रवृत्तियों का विधान रहता है। आवश्यक नहीं कि प्रत्येक क्रियापद उक्त सभी विशेषताओं से युक्त हो, पर अनिवार्यतः कई एक प्रवृत्तियां किसी एक पद में परिलक्षित हो जाती हैं।
रूप रचना की दृष्टि से बुंदेली क्रियाएं दो वर्गों में विभाजित करके देखी जा सकती हैं-
(1) साधारण अथवा मूल धातुएं,
(2) यौगिक अथवा साधित धातुएं,
प्रकारान्तर से उक्त वर्गों के भी दो वर्ग बनते हैं- 1. स्वरान्त और 2. व्यंजनान्त।
क्रिया के प्रकार
प्रयोग की दृष्टि से धातुओं का वर्गीकरण पहले प्रदर्शित किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि समस्त क्रियाएं प्रमुखतया दो प्रकारों में विभाजित की जा सकतीं हैं-
(1) अकर्मक तथा (2) सकर्मक। और उसी का एक तीसरा भेद ‘उभयविध’ (अकर्मक-सकर्मक) भी बताया गया था। जहाँ क्रिया से होने वाले व्यापार का फल कर्ता से निकल कर कर्म पर पड़ता है वे क्रियाएं सकर्मक हैं और जहाँ क्रिया से होने वाले व्यापार का फल कर्म पर न पड़कर कर्ता पर पड़ता है वे क्रियाएं अकर्मक हैं।
अधिकांश सिद्ध धातुओं से बनीं क्रियाएं अकर्मक होती हैं। परन्तु अपवाद स्वरूप कुछ अकर्मक क्रियाएं ऐसी भी हैं जो साधित घातुओं से बनती हैं। जैसे-चलबो, बैठबो, नचबो, खेलबो, कूंदबो, हंसबो, रोबो आदि।
साधित धातुओं से बनने वाली क्रियाएं सकर्मक होती हैं। जैसा कि पहले कहा गया है सकर्मक क्रिया में कर्ता के व्यापार का फल कर्म पर पड़ता है, जबकि अकर्मक क्रिया के कर्ता का व्यापार का फल कर्ता पर पड़ता है जैसे—
अकर्मक क्रिया-नारायन लिखत (नारायण लिखता है) सकर्मक क्रिया-स्यांमूं-रामूं खों मारत (श्याम राम को मारता है)।
अकर्मक क्रियाएँ पूर्ण और अपूर्ण के भेद से दो प्रकार की होतीं हैं। इसी प्रकार सकर्मक क्रियाएँ भी पूर्ण, अपूर्ण और द्विकर्मक के मेद से तीन प्रकार की होती हैं। क्रमशः उदाहरण इस प्रकार हैं-
(1) पूर्ण अकर्मक— लरका आउत (लड़का आता है)।
(2) अपूर्ण अकर्मकण— ऊ आदमी राजा है (वह आदमी राजा है)।
प्रथम में अर्कमक क्रिया स्वयं पूर्ण है, द्वितीय में क्रिया का अर्थ स्पष्ट करने के लिये कर्ता के अतिरिक्त अन्य विशेषण का प्रयोग करना पड़ा।
(1) पूर्णसकर्मक— मोहन रोटी खात (मोहन रोटी खाता है)।
(2) अपूर्ण सकर्मक— मैंने ऊ साधू खां चोर समजो (मैंने उस साधु को चोर समझा)।
(3) द्विकर्मक— उन लरकियन की मताई खों उन्ना दओ (उन लड़कियो की मां को कपड़ा दिया)।
प्रथम में एक ही कर्म से क्रिया का आशय स्पष्ट है जबकि द्वितीय में ‘साधु’ कर्म है परन्तु ‘समजो’ क्रिया का आशय स्पष्ट करने के लिये ‘चोर’ शब्द का प्रयोग पूर्ति के रूप में किया गया है तथा तृतीय में ‘उन्ना’ मुख्य कर्म है परन्तु केवल इस एक कर्म से ही ‘दओ’ क्रिया का आशय स्पष्ट न होने के कारण ‘मताई ‘कर्म भी उनके साथ आया है। इसे द्विकर्मक क्रिया भी कहा जाता है।
द्विकर्मक क्रियाओं का गौण कर्म सदैव सम्प्रदान में होता है परन्तु पूंछवो, कहबो, आदि कुछ ऐसी सकर्मक क्रियाएं हैं जिनका गौंण कर्म अपादान में होता है। प्रकृत उदाहरण में ‘मताईखों’ ‘गौण कर्म का प्रयोग सम्प्रदान में हुआ है। जबकि निम्नांकित उदाहरणों के गौण कर्म अपादान में है—
(1) ऊ नें मों सें एक बात पूंछी !
(2) गोपाल ने गैया सें दूद दोओ।
(3) दद्दा नें मोंसें एक किसा कई।
कुछ क्रियाएं अकर्मक और सकर्मक दोनों ही होती हैं। उनका प्रयोग देखकर ही उन्हें अकर्मक कहा जा सकता है।
अकर्मक से सकर्मक
बुंदेली में अकर्मक धातुएं निम्नांकित प्रकार से सकर्मक हो जाती हैं—
(1) धातु के आदि स्वर को दीर्घ कर देने से। जैसे कटवो-काटवो, पिटबो-पीटबो, दवबो-दावबो। मरबो-मारबो आदि।
(2) तीन अक्षर वाली धातु के द्वितीय वर्ण के स्वरान्त को दीर्घ कर देने से। जैसे- उखरो, उखारो, उखारबो। निकरवो-निकारबो। विगरबो-विगारबो, आदि।
(3) किसी धातु के आदि स्वर ‘इ’ या ‘उ’ को गुण कर देने से। जैसे-घुरवो, घोरबौ। मुरबो-मोरबो। फिरबो-फेरबो, आदि।
(4) कुछ धातुओं के अन्त्य व्यंजन ‘ट’ को ‘ड़’ कर देने से। जैसे-छूटवो-छोड़बो। फूटवो-फोड़वो आदि।
बुंदेली में ‘ड़’ के स्थान में ‘र’ का प्रयोग बहुलता से होता है अतः छोरबो, फोरबो, रूपों का प्रयोग अधिक युक्तियुक्त होगा।
विविध क्रियाएँ
कभी-कभी जो क्रियाएं अकर्मक होती हैं, वही कभी दूसरे स्थानों में प्रयुक्त होने पर सकर्मक हो जाती हैं। यह परिवर्तन प्रयोग पर निर्भर करता है। जैसे—
अकर्मक सकर्मक
कुआं भरत है। नोंकर पानी भरत है।
घड़ी घिसत है। पुजारी चन्दन घिसत है।
मोरौ मन ललचाव। ऊ नें मोंड़ा खां ललचाव।
रस्सी ऐंठत है। मेंड़ा रस्सी ऐंठत है।
ई समय मैं भूल रओ हों। मैं सवरीं बातें भूल रओ हों।
उक्त वाक्यों में भरबौ (भरना), घिसबो (घिसना), ललचाबौ (ललचाना), ऐंठबौ (ऐंठना) और भूलबौ (भूलना) विविध क्रियाएं हैं।
क्रिया का रूपान्तर
क्रिया विकारी शब्द है। संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण की तरह क्रिया के रूपों में भी विकार या परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन 1.लिंग, 2.वचन, 3.पुरुष, 4.वाच्य, 5.कृदन्त, 6.भाव या अर्थ और 7.काल के आधार पर होते हैं।
(1) लिंग
विशेषण की तरह क्रिया का भी रूप संज्ञा के अनुसार परिवर्तित होता है, जैसे-बौ गओ हतो, बा गई हती, सिमो भओ कुरता, सिमी भई कुरती।
(2) वचन
संज्ञा के अनुसार सभी क्रियाओं के वचन भी बदलते हैं, जैसे- मैं हों, हम हैं। बौ गयो, हम गये। बौ जाय, वे जांय। तें जा, तुम जाव। घुरिया दौरी, घुरियां दौरीं। को जात है, कोंन जात हैं, बो जा रओ तो, बे जारय ते ! बा खेलत है, वे खेलतीं हैं। तें जैय, तुम जैव।
(3) पुरुष
सर्वनाम के प्रकरण में उत्तम, मध्यम और अन्य ये तीन भेद पुरुष के बताये गये हैं। इनके आधार पर भी क्रिया के रूप परिवर्तित होते हैं, जैसे- मैं हों, हम हैं, तें है, तुम हो। बौ है, वे हैं। मैं जांव, हम जांय। तें जा, तुम जाव। बौ जाय, वे जांय।
‘आप’ और ‘अपुन’ के साथ प्रायः अन्य पुरुष के बहुवचन के रूप लगते हैं। समस्त संज्ञाएं भी अन्य पुरुष के अन्तर्गत परिगणित होती हैं।
लिंग और वचन के सम्बन्ध में पहले विस्तृत रूप में विचार हो चुका है। शेष प्रकरण विस्तृत चर्चा के विषय हैं।
(4) वाच्य
‘वाच्य’ क्रिया का वह रूप है, जिससे किसी वाक्य में कर्ता, कर्म या भाव की प्रधानता के विधान का पता चलता है। अर्थात् जिससे जाना जाय कि क्रिया का मुख्य विषय कर्ता है या कर्म या भाव।
वाच्य के विचार से हिन्दी में तीन ही वाच्य होते हैं परन्तु बुंदेली में चार वाच्य होते हैं। एक चौथा वाच्य और होता है जिसे कर्म-कर्तृ वाच्य कहना चाहिये। क्रमशः विवरण प्रस्तुत है—-
1—कर्तृ वाच्य
जिस क्रिया में कर्ता की प्रधानता रहे, अर्थात् क्रिया का सम्बन्ध कर्ता से रहे, वह कर्तृवाच्य है। यह सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार की क्रियाओं के व्यवहार में होता है; जैसे—
(क) रामू रोटी खात है। (रामू रोटी खाता है)
(ख) नरेसचन्द्र सोऊत है। (नरेशचन्द्र सोता है)
2— कर्म वाच्य
जिस क्रिया में कर्म की प्रधानता रहे अर्थात् क्रिया का सम्बन्ध कर्म से रहे वह कर्मवाच्य है। वह केवल सकर्मक क्रियाओं के व्यवहार में ही होता है। जैसे-
(क) मोंसें आम खाओ जात है। (मुझ से आम खाया जाता है)
(ख) तो सें पेरा खाय जात हैं। (तुम से पेड़े खाये जाते हैं)
(ग) राम सें रोटी खाई जात है। (राम से रोटी खाई जाती है)
(घ) लरकियन सें लुचई नईं खाईं जात हैं। (लड़कियों से पूड़ियां नहीं खाई जातीं)
इसमें अकर्मक क्रिया का व्यवहार नहीं होता कारण कि अकर्मक क्रिया का कर्म होता ही नहीं।
कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य
कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य बनाने के लिये कर्ता के आगे ‘सें’ और सामान्य भूत क्रिया के आगे कर्म के लिंग, वचन, पुरुष के अनुसार ‘जाबो’ क्रिया के रूप जोड़ दिये जाते हैं; जैसे-
मोसें, तोसें, ऊ सें पेरा खाओ जात है, पेरे खाये जात हैं, रोटी खाई
जात है (मुझ से, तुझ से, उससे पेड़ा खाया जाताहै,
पेड़े खाये जाते हैं, रोटी खाई जाती है)।
हमन सें, तुमन सें, उनन सें मिठाई खाई जात है (हमसें, तुमसें, उनसें मिठाई खाई जाती है)।
विशेष
इसी प्रकार अन्य कालों तथा विधि में रूप बना लेना चाहिये।
- 3. भाववाच्य
भाववाच्य वह है जिसमें भाव अर्थात् क्रिया प्रधान रहे। यह केवल अकर्मक क्रियाओं के व्यवहार में होता है। साथ ही भाववाच्य क्रिया सदा पुल्लिंग एक वचन में रहती है, जैसे-
(क) तो सें दोरो जात है। (तुझ से दौड़ा जाता है)।
(ख) मोसें नई दोरो जात है। (मुझसे नहीं दौड़ा जाता है)।
(ग) ऊसें लिखो नई जात है। (उससे लिखा नहीं जाता)।
(घ) रोगी से सोओ नई जात है। (रोगी से सोया नहीं जाता)।
कर्तृवाच्य से भाववाच्य
कर्तृवाच्य से भाववाच्य बनाने में भी वही नियम लगता है जो कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य बनाने में लगा है। परन्तु कर्म के अभाव के कारण ‘जाओ’ क्रिया बराबर अन्य पुरुष, पुल्लिंग, एक वचन में समान रहेगी। केवल काल भेद के कारण रूप में आवश्यक परिवर्तन अवश्य होगा। जैसे—
मो सें, तो सें, ऊ सें, हमन सें, दौरो जात है, जा रओ है, गओ,
तुमन सें, उनन सें गओ हतो, गओ हुए, जै है, जाये आदि।
- 4. कर्म–कर्तृ वाच्य
जब एकही व्यक्ति कर्तृ और कर्म दोनों होकर प्रयुक्त हो तब वह कर्म–कर्तृ वाच्य कहा जाता है। जैसे-
(क) नकरिया फटत है (नकरिया फटती है)
(ख) रोटी पकत है (रोटी पकती है)
विशेष
हिन्दी की तरह बुंदेली में भी कर्तृवाच्य का प्रयोग अधिक होता है। कर्म-वाच्य का प्रयोग निम्नांकित स्थितियों में होता है-
1— जब कर्ता को प्रकट करने की आवश्यकता न हो या वह अज्ञात हो, जैसे- चोर पकरो गव (चोर पकड़ा गया) दुसमन के सिपाई मारे गय। मोरौ सामान चोरी चलो गव (मेरा सामान चोरी चला गया)।
2— अधिकारियों के आदेशों जैसे- भ्यानें निरनय सुनाव जैय (कल निर्णय सुनाया जायगा) भ्यानें लों ई की रपट करी जाय (कल तक इसकी रिपोर्ट की जाय) अपुन खों जाहर करो जात है कै…… (आपको सूचित किया जाता है कि…..)।
भाववाच्य शक्यता या अशक्यता प्रकट करता है, जैसे- खाव जात है, पियो नई गव (खाया जाता हैं, पिया नहीं गया) परन्तु इसका प्रयोग विरले होता है।
कृदन्त के सम्बन्ध में ‘शब्द रचना’ प्रकरण के अन्तर्गत प्रत्ययों के प्रसङ्ग में आगे सोदाहरण वर्णन दृष्टव्य है।
(5) भाव या अर्थ
क्रिया के अनेक अर्थ या भाव हो सकते हैं अतः क्रिया के विधान करने की रीति बतलाने वाले क्रिया के रूपान्तर ‘अर्थ‘ कहलाते हैं। बुंदेली में वह निम्न प्रकार हैं—
(1) निश्चयार्थ — विधान का निश्चय व्यक्त करने वाला क्रिया का रूपान्तर। सामान्य भूतकाल, पूर्ण भूतकाल, अपूर्ण भूतकाल, सामान्य वर्तमान और सामान्य भविष्य काल की क्रियायें इसके उदाहरण हैं। कथन, वर्णन, प्रश्न और निषेध आदि निश्चय के अन्तर्गत आते हैं।
(2) संभावनार्थ — विधान की संभावना व्यक्त करने वाली क्रिया का रूप। संभाव्य वर्तमान और संभाव्य भविष्यत् काल की क्रिया में संभावनार्थ होता है जैसे-ऊ लिख रओ हुइये ? मैं लिखों आदि।
(3) संदेहार्थ — क्रिया के जिस रूपान्तर के विधान में संदेह प्रतीत हो, वहाँ संदे हार्थ होता है। संदिग्ध भूतकाल और संदिग्ध वर्तमान काल इसके उदाहरण हैं। जैसे- मैंने लिखो हुइयै। तें लिखत हुइये ? आदि।
(4) संकेतार्थ — जब क्रिया के रूपान्तर द्वारा दो घटनायें कार्यकारण की क्रियाएं जान पड़ती हैं तब उनमें संकेतार्थ होता है। हेतुहेतुमद्भूतकाल की क्रियाएं इसकी उदाहरण हैं। जैसे- मोहन पड़त तो तौ मास्टर बन जातो।
(5) आज्ञार्थ— आदेश, निषेध, उपदेश या निवेदन व्यक्त करने वाली क्रिया में आज्ञार्थ से प्रायः आदेश सूचित होता है। परन्तु आग्रह या निर्देश, अनुमति, सम्मति भी उक्त अर्थों के अतिरिक्त होते हैं।
(6) काल
क्रिया के उस रूपान्तर को ‘काल‘ कहते हैं जिससे क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण या अपूर्ण अवस्था का बोध होता है, जैसे- मैं जाता हूँ (वर्तमान काल), मैं जाता था (अपूर्ण भूतकाल), मैं जाऊँगा (भविष्यत् काल)।
हिन्दी की प्रधान शाखा बुंदेली में कालों के मुख्य तीन भेद होते हैं-
(1) वर्तमान काल, (2) भूतकाल, (3) भविष्यत् काल।
क्रिया की पूर्णता या अपूर्णता के विचार से पहले दो कालों के दो-दो भेद और होते हैं। भविष्यत् काल में व्यापार की पूर्णता और अपूर्णता की अवस्था को सूचित करने के लिये बुंदेली में क्रिया के कोई रूप नहीं पाये जाते, इसलिये इस काल के कई भेद नहीं होते, अस्तु। क्रिया के समय और व्यापार की पूर्ण अथवा अपूर्ण व्यवस्था के आधार पर काल के निम्न प्रकार 7 भेद होते हैं-
- 1. सामान्य वर्तमान काल— व्यापार का आरम्भ बोलने के समय से होना सूचित करता है। जैसे- हवा चलत है (हवा चलती है)।
- 2. अपूर्ण वर्तमान काल— से ज्ञात होता है कि वर्तमान काल में व्यापार हो रहा है। जैसे गाड़ी आ रई है (गाड़ी आ रही है)।
- 3. पूर्ण वर्तमान काल — से ज्ञात होता है कि व्यापार वर्तमान काल में पूर्ण हुआ है। जैसे- नौकर आव है (नौकर आया है)।
- 4. सामान्य भूतकाल — से ज्ञात होता है कि व्यापार बोलने वा लिखने के पहले हुआ, जैसे- पानी गिरो (पानी गिरा), गाड़ी आई।
- 5. अपूर्ण भूतकाल — से ज्ञात होता है कि व्यापार गतकाल में पूरा नहीं हुआ, किन्तु जारी रहा, जैसे- गाड़ी आउत ती (गाड़ी आती थी)।
- 6. पूर्ण भूतकाल– से ज्ञात होता है कि व्यापार को पूर्ण हुए बहुत समय बीत चुका, जैसे- नौकर चिठिया ल्याव हतो (नौकर चिट्ठी लाया था)।
- 7. सामान्य भविष्यत् काल— से ज्ञात होता है कि व्यापार का आरम्भ होने वाला है जैसे- चिठिया भेजी जैय (चिट्ठी भेजी जायगी)।
क्रिया रूपों से केवल समय की पूर्ण अथवा अपूर्ण अवस्था ही का ज्ञान नहीं होता अपितु निश्चय, संभावना, संदेह, आज्ञा और संकेत क्रियाओं के इन पाँच मुख्य अर्थों का भी बोध होता है। इस प्रकार क्रिया के इन रूपों से काल का भी बोध होता है और अर्थ का भी और किसी-किसी रूप में ये दोनों इतने मिले रहते हैं कि उनको अलग-अलग करके बताना कठिन हो जाता है। अतः काल और अर्थ के आधार पर वर्गीकरण एक प्रशस्त आधार स्वीकार किया गया और निम्न प्रकार सब अर्थों के अनुसार कालों के भेद निरूपित किये गये—
निश्चयार्थ | संभावनार्थ | संदेहार्थ | आज्ञार्थ | संकेतार्थ |
1. सामान्य- वर्तमान | 7. संभाव्य वर्तमान | 10. संदिग्ध वर्तमान | 12. प्रत्यक्ष विधि | 14. सामान्य संकेतार्थ |
बौ चलत है | बौ चलत होय | बौ चलत हुइयै | तें चल | कऊं में बोलता तो |
(वह चलता है) | (वह चलता हो) | (बह चलता होगा) | (तूं चल) | (यदि मैं बोलता तों) |
2. पूर्ण वर्तमान | 8. संभाव्यभूत | 11. संदिग्ध भूत | 13. परोक्ष विधि | 15. अपूर्ण संकेतार्थ |
बौ चलो है | बौ चलो होय | बौ चलो | तें चलिये | बौ चलत होतो |
(वह चला है) | (वह चला हो) | (वह चला) | (तू चलना) | (वह चलता होता) |
3. सामान्य भूत | 9. संभाव्य भविष्यत् |
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| 16. पूर्ण संकेतार्थ |
बौ चलो | बौ चलै |
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| बौ चलत होतो |
(वह चला) | (वह चले) |
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| (वह चलता होता) |
4. अपूर्ण भूत |
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बौ चलत हतो |
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(वह चलता था) |
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5. पूर्णभूत |
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बो चलो हतो |
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(वह चला था) |
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सामान्य 6 |
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भविष्यत् |
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बौ चलै |
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(वह चलेगा) |
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काल रचना
क्रिया के वाच्य, अर्थ, काल पुरुष, लिंग और रचना के कारण होने बाले शब्द रूपों का संग्रह करना ‘काल रचना‘ कहलाती है। रचना के विचार से प्रदर्शित उक्त सोलह काल तीन भागों में वर्गीकृत किये जाते हैं। पहले बर्ग में वे काल आंते हैं जो धातु में प्रत्ययों के लगाने से बनते हैं, जैसे- (1) संभाव्य भविष्यत्, (2) सामान्य भविष्यत्, (3) प्रत्यक्ष विधि, (4) परोक्ष विधि। दूसरे वर्ग में वे काल रखे जाते हैं जो वर्तमान कालिक कृदन्त में सहकारी क्रिया ‘होना’ के रूप लगाने से बनते हैं, जैसे—
(1) सामान्य संकेतार्थ (हेतुहेतुमद् भूतकाल), (2) सामान्य वर्तमान, (3) अपूर्णभूत, (4) संभाव्य वर्तमान, (5) संदिग्ध वर्तमान, (6) अपूर्ण संकेतार्थ और तीसरे वर्ग में वे काल आते हैं जो भूत कालिक कृदन्त में उसी सहकारी क्रिया के रूप जोड़कर बनाये जाते हैं। जैसे-सामान्य भूत (2) आसन्नभूत (पूर्ण वर्तमान)।
कालों की संख्या और नाम
संभाव्य भविष्यत्, सामान्य भविष्यत्, प्रत्यक्ष विधि, सामान्य संकेतार्थ और सामान्य भूत केवल प्रत्ययों के योग से बनते हैं अतः ये 6 काल साधारण काल कहलाते हैं और शेष 10 काल सहकारी क्रिया के योग से बनते हैं अतः संयुक्त काल कहलाते हैं।
उक्त सभी कालों के अर्थ और प्रयोग श्री गुरू ने अपनी हिन्दी व्याकरण के वाक्य विन्यास प्रकरण में विस्तृत रूप से दिये हैं1।
हिन्दी में कालों की संख्या और नामों के सम्बन्ध में वैयाकरण एक मत नहीं है। डॉ. बाहरी[1] ने 4 कालों के संख्यानाम बदल कर, शेष पूर्वोक्त स्वीकार किये है। डॉ. भोलानाथ तिवारी और डॉ. उदयनारायण तिवारी ने 17.17 भेद कुछ के नाम बदल कर, कुछ बढ़ाकर, शेष पूर्ववत् स्वीकार किये हैं। डॉ. उदयनारायणजी द्वारा स्वीकृत वर्गीकृत नामावली का आधार इस प्रबन्ध में कर्तृवाच्य की धातु रूपावली के प्रदर्शन में अपनाया गया है। उनके नामों से ही उन सभी कालों का अर्थ स्पष्ट है।
सहायक क्रिया
वाक्य में जिन क्रियाओं के अर्थ की प्रधानता होती है वे मुख्य क्रियाएं कहलाती हैं और मुख्य क्रिया के रूप को पूरा करने में जो सहायक होतीं हैं वे सहायक क्रियाएं कहलाती हैं। जैसे-ऊ जात है, मैने खाव हतो, तुम सोय भय ते, वे सुन रय ते। इनमें जाना, खाना, सोना, और सुनना मुख्य क्रियाएं हैं। शेष क्रियाएं हैं, हतो, भय ते, रय ते, सहायक क्रियाएं हैं।
संयुक्त क्रियाओं में दूसरी क्रियाएं-डारबौ (डालना) चुकबौ (चुकाना) सकबौ (सकना) पाबौ (पाना) लेबौ (लेना) देबौ (देना) उठबौ (उठन्ना) होबौ (होना) करबी (करना) रैबौ (रहना) रखबौ (रखना) पढ़बौ (पढ़ना) आदि भी सहायक क्रियायें होती हैं।
वाक्य में सहायक क्रियाओं का प्रयोग बड़ा व्यापक होता है। इनके यत्-किंचित भी परिवर्तन से क्रिया का अर्थ भी बदल जाता है।
बुंदेली में लिंग एवं लिंग व्यवस्था
रमा जैन एवं कैलाश विहारी द्विवेदी
लिंग
परिभाषा
कोई शब्द पुरुष जाति का है या स्त्री जाति का, यह जिससे जाना जाय वह ‘लिंग‘ है।
लिंग के भेद
हिन्दी के समान बुंदेली में भी केवल दो ही लिंग होते हैं- पुल्लिंग और स्त्री लिंग।
(1) पुल्लिंग – जो पुरुष जाति का बोध कराये, जैसे- मोंडा (लड़का), बाप (पिता), हांती (हाथी)।
(2) स्त्री लिंग– जो स्त्री जाति का बोध कराये, जैसे- मौड़ी (लड़की), मताई (माता), हतनी (हथिनी)।
संस्कृत या अंग्रेजी आदि बहुत-सी भाषाओं में एक नपुंसक लिंग भी होता है जिसमें निर्जीव पदार्थ रखे जाते हैं, जैसे- फल, लकड़ी आदि। और हिन्दी की भाँति बुंदेली में भी प्राण हीन वस्तुओं की नाम सूचक संज्ञाएँ भी इन्हीं दो लिंगों के अन्तर्गत आती हैं, जैसे-
पुल्लिंग – चांवर (चावल), गोंऊ (गेहूँ), पहार (पहाड़), सूरज, आकास आदि।
स्त्री लिंग– दार, (दाल) नदी, इमारत आदि।
ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि हिन्दी की भाँति बुंदेली में भी लिंग भेद का ठीक ज्ञान शब्द व्यवहार (शब्द प्रयोग) से ही हो सकता है। ऐसा कोई व्यापक नियम नहीं है, जिसके आधार पर स्त्री लिंग, पुल्लिंग शब्दों को बिना किसी कठिनाई के साफ-साफ पहचाना जा सके। विदेशी भाषा के वे शब्द जिनका लिंग विवादास्पद है बुंदेली में ग्रहीत भाषा, भाव के अनुसार इन्हीं दो लिंगों के अन्तर्गत आवेंगे। किसी भी भाषा के परिज्ञान के लिये लिंग ज्ञान बहुत ही आवश्यक है अतः इस सम्बन्ध में कुछ मोटे-मोटे नियम यहाँ दिये जा रहे हैं।
1. साधारण नियम
आदमी तथा बड़े जानवरों में नर पुल्लिंग होते हैं; जैसे-पुरुष, लरका, हांती (हाथी), ऊंट, बैल आदि। और मादा-स्त्री लिंग; जैसे- तिरिया (स्त्री) लरकी, हतिनी, उटनी, गइया। परन्तु छोटे कीड़े और पक्षियों में यह भेद नहीं है। ऐसे बहुत से छोटे-छोटे जीव-जन्तु हैं जो पुल्लिंग हैं, जैसे- सांप, सुआ (तोता) बाज, कौवा, झींगुर, बगदर (मच्छर) आदि। दूसरी ओर ऐसे भी बहुत से छोटे जीव-जन्तु हैं जो हिन्दी की तरह बुंदेली में भी स्त्री लिंग माने जाते हैं। जैसे- छछूंदर, मिदरिया, गौरइया, चील, कोल (कोयल) मछरिया। इसके अतिरिक्त अप्राणिवाचक संज्ञाओं के लिंग निर्देश भी स्पष्ट करना आवश्यक है अतः प्राणिवाचक एवं अप्राणीवाचक के आधार पर एक विश्लेषित वर्गीकरण प्रस्तुत करना उपयुक्त है।
प्राणिवाचक, अप्राणिवाचक के आधार पर वर्गीकृत स्पष्ट निर्देश
विशेषण या क्रियाओं के कृदन्ती रूप संज्ञा का लिंग ज्ञान कराते हैं। कुछ संज्ञाओं के पुल्लिंग तथा स्त्री लिंग के रूप भिन्न-भिन्न होते हैं। प्राणिवाचक संज्ञाओं में प्राणियों के लिंग के अनुसार ही लिंग माना जाता है। परन्तु छोटे-छोटे जानवरों चिड़ियों, पतंग आदि के लिंग का कोई स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता अतः पुल्लिंग और स्त्री लिंग में एक समान ही रूप रहते हैं। कुछ स्पष्ट निर्देश इस प्रकार हो सकते हैं-
प्राणि–वाचक पुल्लिंग संज्ञा शब्द
(1) पुरुषों के नाम-राम, घनस्याम, बलराम आदि।
(2) कुछ मनुष्येतर प्राणी- कौआ, लीलकण्ठ, तीतुर, उल्लू, खटकीरा, कछुआ आदि।
(3) प्राणियों के समूह-कुटुम (कुटुम्ब), बंस (वंश), परवार (परिवार) समाज वाची संज्ञा शब्द-झुण्ड आदि।
इसके विपरीत पंचायत, टोली, सभा, भीड़, स्त्री लिंग हैं।
अप्राणि वाचक पुल्लिंग संज्ञा शब्द
निम्नांकित अप्राणिवाचक संज्ञा शब्द पुल्लिंग होते हैं-
(1) अप्राणि वाचक आकारान्त शब्द — घैला (घड़ा), हड़ा, बेला, तबेला, थरा, कुरता, गदेला, डोरिया, टोपा, सलूका, पोलका, रेजा आदि।
(2) सभी ग्रह तथा तारागण के नाम — सूरज, मंगल, राहु, केतु आदि। परन्तु ग्रहों में पृथ्वी अपवाद है।
(3) सभी धातुओं के नाम — सोनों, लोहौ, तामों, पारौ, पीतर, कांसौ आदि। इसके विपरीत चाँदी और माटी स्त्रीलिंग हैं।
(4) सभी पहाड़ों के नाम — विन्ध्याचल, सतपुरा, हिमालय आदि।
(5) सभी वृक्षों के नाम — आम, सगोंना, गुलाब आदि। इसके विपरीत इमली, बरिया, जामुन, नीम, चमेली आदि स्त्रीलिंग हैं।
(6) सभी द्रव्यों के नाम जैसे — कागज, समाचार-पत्र आदि। इसके विपरीत स्याही आदि स्त्रीलिंग हैं।
(7) सभी शरीर के अंगों के नाम जैसे— हाँत, पाँव, मों आदि। इसके विपरीत आँख, नाक, जीव (जीभ), जाँग, ठेवनी (टिहुनी), पिड़री, करयाई (कमर), छाती आदि स्त्रीलिंग हैं।
(8) अधिकांश पतले पदार्थों के नाम पुल्लिंग होते हैं- जैसे— पानी, घी, दूद, दई, मठा, सरवत आदि।
(9) रत्नों के नाम— हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज आदि। मनी आदि कुछ अपवाद हैं।
(10) सभी महीनों और दिनों के नाम — फागुन, चैत, बैसाख, मंगल, बुद्ध आदि।
(11) सभी देशों और प्रदेशों के नाम— जापान, अमेरिका, रूस, भारत आदि। जर्मनी, टर्की आदि अपवाद है। पंजाब, बंगाल, मध्य प्रदेश आदि।
(12) सभी समुद्रों के नाम — अरब सागर, लाल सागर आदि।
(13) अधिकांश अनाजों के नाम — गोंऊ, चना, बाजरा आादि। इसके विपरीत राहर, मसरी, मूंग, जुनई, मका आदि स्त्रीलिंग हैं।
(14) वे शब्द जिनके अन्त में ‘आन’ हो। जैसे— खान-पान, मान-सनमान, लगान, मिलान आदि।
- 2. (क) संस्कृत से परिगृहोत ऐसी संज्ञाएँ जिनके अन्त में आय, आर, आस, ख, ज, न, मा त (त्व) न या व हो पुल्लिंग होती हैं। जैसे-
जिनके अन्त में ‘आय’ — उपाय, उपाध्याय, समदाय, अध्याय आदि।
” आर — सार, विचार, आकार, प्रकार, उपगार (उपकार)।
” आस — विकास, त्रास, हांस, परहांस, विनास, प्रकास
” ख— सुख, दुख, लेख, नख, मुख
” ज — पंकज, उरोज, सरोज
” न — पोखन (पोषण), कंकन (कंकण), आभूसन (आभूषण)
” त — स्वागत, मत, गनित (गणित), गीत
” त्र — पत्र, चित्र, मित्र, गोत्र, पात्र।
” त्त (त्व) — अपनत्त, महत्त (महत्व), तत्व।
” न — नेंन (नयन), आगमन, दमन।
” व — गौरव।
(ख) हिन्दी से परिगृहीत ऐसी भाव वाचक संज्ञाएं जिनके अन्त में आव, औ, पन या पौ हो, पुल्लिंग होती है, जैसे-
जिनके अन्त में— आव— घटाव, बहाव, ताव, लठयाव, पथराव आदि।
” औ— खाबौ, मरवौ, जीवौ, रोवौ, सोवौ आदि।
” पन— बड़प्पन, लरकपन, मुरापन, गदापन, मूरखपन आदि।
” पौ— रंडापौ, बुड़ापौ आदि।
(ग) ऐसी आकारान्त संज्ञाएं जिनके अन्त में ‘इया’ न हो जैसे- पुरिया, डबिया, ढुलिया, चपिया, मटकिया, थरकिया, तथा जो कुछ हिन्दी में आकारान्त थीं परन्तु बुंदेली में औकारान्त हो जाती हैं; पुल्लिंग होती हैं; जैसे- आटौ (आटा) भाटौ (मैदान)।
3. (क) प्राणि वाचक स्त्री लिंग संज्ञा शब्द
बुंदेली के निम्नांकित प्राणि वाचक संज्ञा शब्द स्त्री लिंग होते हैं—
(1) स्त्रियों और बालिकाओं के नाम – केसर, कस्तूरी, रामबाई, स्यामबाई, रामप्यारी, लच्छा गौरा, लच्छमी, (लक्ष्मी) सीता आदि।
(2) कुछ मनुष्येतर प्राणी स्त्री लिंग ही होते हैं। जैसे- मांछो, दुरकचिया कोल (कोयल) चील, मछरिया, मैना आदि जैसा कि पहले भी कहा गया है।
अप्राणि वाचक स्त्री लिंग संज्ञा शब्द
निम्नांकित अप्राणि वाचक संज्ञा शब्द स्त्री लिंग होते हैं। जैसे—
(1) कुछ ईकारान्त संज्ञा शब्द— छड़ी, घड़ी, नदी, बोली, चिट्ठी, हंसी, बकरी, छुरी आदि।
जी (प्राण) पानी, घी, मोती, दई, मई इसके अपवाद हैं।
(2) बुंदेली में प्रयुक्त निम्न तत्सम और अर्ध-तत्सम शब्द स्त्रीलिंग हैं।
जैसा-दया, माया, वेदना आदि।
(3) सकारान्त संज्ञा शब्द प्यास, रास, आदि। निकास, कास आदि इसके अपवाद हैं।
(4) क्रिया से बने नकारान्त संज्ञा शब्द जैसे- रहन-सहन, जलन आदि।
(5) कृदन्त की कुछ अकारान्त संज्ञाएँ – लूट, दौड़, रगड़ आदि।
(6) कुछ खकारान्त संज्ञाएँ- जैसे राख, लाख आदि।
(7) सभी नदियों के नाम जैसे- गंगा, जमुना, नरबदा, बीला, धसान, काठिन, स्यामली, सुक्कू।
(8) सभी तिथियों के नाम- दोज, तीज, चौथ आदि।
(9) कुछ फारसी से गृहीत आकारान्त शब्द जैसे- हवा, जमा, दवा, सजा, दुनिया आदि। कुछ ईकारान्त शब्द जैसे गरीबी, बीमारी, चालाकी तथा कुछ तकारान्त शब्द जैसे- दौलत, कसरत, अदालत, हजामत आदि। इसके विपरीत तख्त, बख्त आदि पुल्लिंग हैं।
(ख) संस्कृत से परिगृहीत ऐसी संज्ञाएँ जिनके अन्त में-आ, उ हो प्रायः स्त्री लिंग होती हैं, जैसे—
जिनके अन्त में आ— किरपा (कृपा), दया, प्रार्थना (प्रार्थना) वंदना, सुन्दरता, आतमा। पिता और भरता (पति) इसके अपवाद हैं।
उ— आयु, मृत्यु, वस्तु, ऋतु, बुंदेली में इनके उच्चारण क्रमशः आव, म्रित्यु, बंसत, रित होते हैं। (मधु, हेतु आदि इसके अपवाद हैं)।
(ग) हिन्दी से परिगृहीत ऐसी संज्ञाएँ जिनके अन्त में या, त, ऊ, ख, हो प्रायः स्त्री लिंग होते हैं, जैसे—
जिनके अन्त में—या— फुरिया (फुड़िया) तखरिया, तरकिया, मलिया,
मटकिया (मटकी), मचिया, डविया (डिविया)।
जिनके अन्त में —त— रात, बात, लात, बरात, परांत, छत, सूरत, दौलत
(भात, खेत, सूत, गात, दाँत, इसके अपवाद हैं)।
” — ऊ— लू, बारू (बालू), गेवरू, (गेरु) झारू (झाडू)।
आड़ू, आलू, आँसू आदि इसके अपवाद हैं।
” —ख— ईख, काँख, राख, कूँख।
हिन्दी से परिगृहीत ऐसी भाव वाचक संज्ञाएँ जिनके अन्त में ‘उट’ आट या ‘ट’ हो प्रायः स्त्री लिंग होती हैं। जैसे-
जिनके अन्त में ‘उट’ — सजाउट, बनाउट, गिराउट, दिखाउट, लखाउट आदि।
” आट — खुजलाट (खुजलाहट) खिसयाट (खिसियाहट) खुंसयाट
(खुंशयाहट) मुसक्याट (मुसकाहट) चिकनाट (चिकनाहट)
घबराट (घबड़ाहट) भैराट (भैराहट) सकचाट (सकुचाहट)
उखताट (उकताहट) हड़बड़ाट (हड़बड़ाहट) आदि।
” ट— झंजट (झंझट)
(घ) भाववाचक शब्द जिनके अन्त में ‘आई’ अथवा ‘ता’ हो जैसे- सुनवाई, धुवाई (धुलाई), चराई, वीरता, कोमलता आदि।
(ङ) अधिकांश ईकारान्त शब्द चाहे प्राणि वाचक या अप्राणि वाचक हों, स्त्री लिंग होते हैं।
(च) किसी भी भाषा का नाम स्त्री लिंग होता है।
(छ) क्रिया से बनने वाले अधिकांश अकारान्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-लूट, मार आदि। खेल, चलन आदि अपवाद हैं।
4. स्वतन्त्र लिंग वाचक संज्ञाएँ
बुंदेली में ऐसी संज्ञाएँ भी हैं, जिनका लिंग पूर्व निर्दिष्ट होता है अर्थात् पुल्लिंग और स्त्री लिंग के लिये स्वतन्त्र शब्द प्रयुक्त होते हैं-
राजा-रानी, बाप-मताई, पत-पतनी (पति-पत्नी), दूला-दुलैया (दूल्हा-दुल्हैया) औरत-आदमी (स्त्री-पुरुष)।
कुछ विशेषण स्त्रीलिंग संज्ञाओं के लिये रूढ़ हो गये हैं। इनके पुल्लिंग शब्द होते ही नहीं हैं। जैसे- सती, सुहागिन, अप्सरा।
जड़ पदार्थों के नाम, तथा भाव वाचक, समुदाय वाचक और द्रव्य वाचक संज्ञाओं के लिंग मुख्यतः प्रयोग से निश्चित होते हैं। सामान्य तथा दीर्घाकार और शक्ति सम्पन्न पदार्थ पुल्लिंग और अपेक्षाकृत लघु आकार के तथा कोमल और शक्ति हीन पदार्थ स्त्रीलिंग में परिगणित होते हैं।
जड़ पदार्थों के नाम जैसे- रस्सा-रस्सी, कटोरा-कटोरी, पोथा-पोथी, झण्डा-झंडी।
भाव वाचक संज्ञाएँ, जैसे- प्यार, विश्वास।
समुदाय वाचक संज्ञाएँ जैसे- सभा, सेंना, भीड़, समूह, दल, कुटम (कुटुम्ब) परवार (परिवार)।
द्रव्य वाचक संज्ञाएँ जैसे— पानूं, सोनों, चाँदी, स्याई (स्याही)।
अधिकांश विदेशी संज्ञाओं का लिंग वही होता है जो उनकी पर्यायवाची हिन्दी संज्ञाओं का। जैसे—
पुल्लिंग — अंक-नम्बर, अंगरखा, कोट, व्याख्यान, लैक्चर।
स्त्री लिंग — गाड़ी-रेलगाड़ी, जंजीर-चेंन, दक्षिणा-फीस, सभा-मीटिंग।
सामान्य लिंग की दृष्टि से सम्बद्ध प्रतीत होने वाले कुछ असम्बद्ध प्रयोग ऐसे भी होते हैं जिनमें रूप की दृष्टि से पारस्परिक लिंगगत सम्बन्ध प्रतीत होता है, लेकिन् अर्थ की दृष्टि से उनमें कोई सम्बन्ध नहीं होता; जैसे—
पुल्लिंग स्त्रीलिंग
मकरी (मकड़ी) कौ जारौ लोय (लोहे) की जारी
माटी (मिट्टी) कौ घड़ा समय देखवे की घड़ी, बेला
नदी कौ किनारौ सारी (साड़ी) की किनारी
चिरैया (चिड़िया) को अंडा कुरता के लानै 3 गज अंडी (विशेषवस्त्र)
पान कौ बीड़ा पीने की बीड़ी
मुंदरी (अंगूठी) में जड़ौ पन्ना चमकदार कागजी पन्नी
पोथी (किताब) कौ पत्ना
नदी कौ घाट पहार (पहाड़) की घाटी
सामान कौ चिट्ठा दद्दा की चिट्ठी
रसोई घर कौ चौका बैठबे की चौकी
गाँव कौ टोला लरकन की टोली
बैठने कौ पीड़ा (पीढ़ा) पुरानी पीड़ी (पीढ़ी)
काल (कल) कौ बदलौ सावन की कारी बदली
मों (मुँह) देखत कौ सीसा दवाई की सीसी
गोंखर की सांड़ बहादुर औरत सांड़नी
गाड़ी कौ भारौ वजन में भारी
छिम्में कौ सारौ (साला) छिमा बाई की सारी (साड़ी)
9. लिंग सम्बन्धी अन्य विशेषताएँ
लिंग सम्बन्धी कुछ अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
प्राणि वाचक युग्म संज्ञा शब्दों में प्रथम शब्द पुल्लिंग और द्वितीय शब्द स्त्रीलिंग होता है। जैसे-मौड़ा-मौड़ी, भैया-बेंन, बाप-मताई, मुंस-लुगाई, घुरवा-घुरिया, कुत्ता-कुतिया आदि।
इसके विपरीत निम्नांकित शब्दों में प्रथम शब्द स्त्रीलिंग और द्वितीय पुलिंग है-सीता-राम, राधा-किसुन, पारवती-महादेव, मताई-बाप, स्त्री-पुरुष, भौजी-भैया आदि।
10. बुंदेली के यौगिक शब्दों के लिंग उनके अन्तिम शब्द के लिंग अथवा प्रत्यय से जाने जाते हैं। जैसे पड़वे वारौ ‘पड़वे वारी’। प्रथम यौगिक शब्द का प्रत्यय से अन्तिम शब्द ‘वारौ’ पुल्लिंग और द्वितीय का अन्तिम ‘वारी’ स्त्री लिंग है। इस लिये प्रथम पूर्ण शब्द ‘पड़वे वारौ’ (छात्र) पुलिंग और द्वितीय पूर्ण शब्द पड़वे वारी (छात्रा) स्त्री लिंग है। ‘आत्मा’ के योग से बनने वाले शब्द सदा पुल्लिंग होते हैं। जैसे- परमातमा, जीवातमा, दुरातमा आदि।11. पुल्लिग से स्त्री लिंग बनाने के नियम
प्राणि वाचक पुल्लिंग संज्ञाओं में कुछ प्रत्यय जोड़ने पर स्त्री लिंग के रूप बन जाते हैं। जैसे –
(1) अकारान्त संज्ञाओं में ‘अ’ के स्थान पर ‘इनी’ प्रत्यय जोड़ने से— जैसे-ग्वाल से ग्वालिनी, सौंर से सौंरिनी, भील से भीलिनी आदि। परन्तु कहीं-कहीं इनका उच्चारण ग्वालनी, सोंरनी, भीलनी होता है।
(2) अकारान्त संज्ञाओं में ‘आ’ के स्थान पर ‘ई’ जोड़ने से। जैसे— लरका से लरकी आदि।
(3) ईकारान्त संज्ञाओं में ‘ई’ के स्थान पर ‘अन’ जोड़ने से। जैसे माली से मालन, तेली-तेलन, कोरी-कोरन, काछी से काछन, मोची से मोचन, धोबी से धोबन।
(4) उकारान्त संज्ञाओं में ‘उ’ के पश्चात् ‘न’ जोड़ने से। जैसे ‘नाउ’ से नाउन।
(5) औकारान्त संज्ञाओं में ‘औ’ के स्थान पर ‘इ’ जोड़ने से जैसे भतीजौ से भतीजी, सारौ से सारी, गाड़ौ से गाड़ी आदि। परन्तु कुछ शब्दों में ‘इया’ का संयोग करने से। जैसे-मेंदरौ से मिदरिया और कुंजरौ से कुंजरिया आदि।
(6) उपनाम वाचक पुल्लिंग शब्दों के अन्त में अन्त्य स्वर का लोप कर ‘अन’ या ‘आन’ जोड़ने से स्त्री लिंग बनते हैं; जैसे- तिवारी से तिवारन, गौतम से गौतमन, ठाकुर से ठकुरान और मिसर से मिसरान आदि।
(7) पुल्लिंग से स्त्री लिंग बनाने के लिये कुछ उपनामों के साथ ‘आनी’ भी जोड़ा जाता है। जैसे- सेठ से सेठानी, मेंतर से मेंतरानी आदि।
(8) कुछ प्राण हीन वस्तु वाचक पुल्लिग संज्ञाएं अपनी अपेक्षा छोटी-वस्तु सूचक संज्ञाओं के स्त्रीलिंग रूप लेकर सनातन से सिद्ध हैं। जैसे- कराहा-करहिया (करैया), कटोरा-कटुरिया, कुदरा-कुदरिया, कोठा कुठरिया, किवार-किवरिया, कुनेतौ-कुनैतिया, कंसरा-कंसरिया, खाट खटिया, खटुलिया, गदेला-गदिलिया, गंज-गंजिया, घंटा–घंटिया, छूटा-छुटिया, जांतो-जतरिया, झारौ–झरिया, ठेला-ठिलिया, डोरा-डुरिया, ढोल-ढुलिकिया, तबेला-तबिलिया, थरा-थरकिया, थरैया, पलका-पलकिया, बेला-बिलिया, बका-बकिया, मटका-मटकिया मडूला-मडुलिया, लठ्ठ-लठिया, लोटा-लुटिया, सरोता-सरौतिया, सूजो-सुजिया, संसा-संसिया, सिन्दूक-सिन्दुकिया और हँसियां-हँसुलिया आदि सैकड़ों शब्द रूप दिखते हैं।
(9) पुल्लिंग की अपेक्षा शब्दों का लघु स्त्री वाची रूप ज्यादा प्रिय माना जाता है तथा उक्त ‘इया’ प्रत्ययान्त शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
(10) ‘इ’ तथा ‘इया’ प्रत्यय जोड़ने से जैसे- पोथा-पोथी, आदि। बिलिया, लठिया आदि।
(11) नी’ प्रत्यय जोड़ने से जैसे- शेर-शेरनी, मोर-मोरनी आदि। ‘अनी’ प्रत्यय जोड़ने जैसे- लरका–लरकनी।
(12) ‘आनी’ प्रत्यय जोड़ने से – जैसे- पण्डित पण्डितानी, इन्द्र-इन्द्रानी आदि।
(13) जो विदेशी शब्द बुंदेलखंड में बोले जाते हैं उनके साथ ‘अनी’ प्रत्यय जोड़ने से– जैसे- मास्टर मास्टरनी, डाक्टर-डाक्टरनी आदि। इस तरह पुल्लिंग से स्त्री लिंग बनाने के लिये इ, इनी, इन, ई, नी, अनी और आनी प्रत्यय काम आते हैं।
(14) व्यवसाय वाची अकारान्त पुल्लिंग शब्द के अन्त में ‘अन’ जोड़ने से-सुनार-सुनारन, कुमार-कुमारन, खवास-खवासन, लुहार-लुहारन आदि।
(15) कुछ ऐसे पुलिंग शब्द भी हैं जिनका स्त्री लिंग सर्वथा निश्चित रहता है। जैसे-राजा-रानी, भैया-भौजी, भौजाई आदि।
12. स्त्री लिंग से पुल्लिंग बनाने के नियम
बुंदेली के कुछ स्त्री लिंग शब्द निम्न रूप से पुल्लिंग बनाये जा सकते हैं-
(1) कुछ प्राणि वाचक स्त्रीलिंग शब्दों में ‘एऊ’ लगाने से जैसे- नन्द से नन्देऊ, बैन से बैनेऊ आदि।
(2) कुछ स्त्री लिंग शब्दों के पुल्लिंग शब्द सर्वथा पृथक् होते हैं; जैसे मताई-बाप, भइया-बैंन आदि।
बुंदेली में लिंग व्यवस्था
अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की भाँति बुंदेली में भी पुलिंग और स्त्रीलिंग केवल दो ही लिंग होते है; स्त्रीलिंग के अन्तर्गत अवश्य कई उपभेद पाये जाते हैं। इनके निर्धारण का कोई निश्चित नहीं है। प्राकृतिक लिग के अनुसार ही वैयाकरणिक लिंग का निर्धारण होता है। किन्तु यह नियम भी सीमित है। महत्वपूर्ण और दीर्घकाय प्राणियों के लिये यह नियम ठीक अर्थ में प्रयुक्त होता है, किन्तु छोटे आकार के प्राणियों में उसी वर्ग के आकार की सापेक्षता के आधार पर लिंग परिवर्तित होता है। इसका प्राकृतिक लिग से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है।
उदाहरण – चोंखरो (पु.) चुखरिया (स्त्री) मेंदरौ (पु.) मिदरिया (स्त्री)
अतिलघु या महत्वहीन प्राणियों को केवल एक ही लिग के अन्तर्गत रवखा जाता है। यह नियम बहुत ही शिथिल है; न तो इसमें लघुता ही ठीक आधार ठहरता है और न ही महत्व हीनता आकार के आधार पर तिलूला या मखुद्मा का पुलिंग होना और चील जैसे बड़े प्राणी का स्त्रीलिंग होना, इसी प्रकार महत्व के आधार पर मछरिया का स्त्रीलिंग होना अपवाद प्रस्तुत करते हैं।
पुलिंग के अन्तर्गत आने वाले शब्दों के उदाहरण:- उँगरकटा, तिलूला या तिरूला, कछवा, करआ, मखुश्रा; केंचुआ
स्त्रीलिंग के अन्तर्गत आने वाले शब्दों के उदाहरण :-
इल्ली, सुड़ी, मछरिया (कभी कभी बड़ी मछली को मच्छ भी कहा जाता है) मैना, बटेर, कोइल, चील।
सम्भवतः इन प्राणियों में नर मादा की स्पष्ट पहचान न होने के कारण इन्हें एक ही लिंग में मान लिया गया है। किन्तु लिंग विशेष के अन्तर्गत ही क्यों माना गया है? यह एक प्रश्न उपस्थित होता है।
मनोरंजक बात तो यह हैं कि एक वर्ग के प्राणी को पुल्लिंग और दूसरे वर्ग के प्राणी का उसका स्त्रीलिंग समझा जाता है जैसे पहले वर्ग में ‘चिंटा’ (पु.) और दूसरे वर्ग में ‘चिन्टी’ (स्त्री) मानी जाती है।
इसी प्रकार दूसरा मनोरंजक उदाहरण प्राकृतिक लिंग विपर्यय का यह है कि ‘मोर’ (नर) को स्त्रीलिंग और ‘लिडोरा’ (मादा) को पुलिग के रूप में अभिहित किया जाता है।
जड़ वस्तुओं में लिंग निर्धारण का कोई वैज्ञानिक आधार समझ में नहीं आता है। ऐसा लगता है कि केवल परम्परा ही इसका आधार हैं। परम्परा चल पड़ने के पूर्व चाहे कोई मनोवैज्ञानिक आधार भले ही रहा हो उदाहरणों का अध्ययन करने से बुंदेली में लिग निर्धारण की की निम्न तीन समस्याएँ सामने आती है; जो विद्वानों के लिये विचारणीय हैं।-
- किसी भी लिंग के अन्तर्गत प्रचलित शब्दों को नियम की परिधि में लेना।
- मनुष्य और उसके उपयोग के मनुष्येतर प्राणियों के अतिरिक्त प्राणियों के सामूहिक लिंग निर्धारण का आधार खोजना।
- जड़ पदार्थ के लिंग निर्धारण का आधार खोजना।
पुलिंग शब्द – पुल्लिंग शब्दों के निर्णय में किसी निश्चित नियम का आधार नहीं माना जा सकता है किसी भी नियम को निर्धारित करते ही इतने अधिक अपवाद सामने आते हैं कि नियम निरर्थक हो जाता हैं।
पुलिंग के कुछ निश्चित नियम निम्न प्रकार हैं-
(1) औकारान्त शब्द – घामौं, प्यादौ, छकौ, गाड़ौ, (गाड़ी)
(2) वाकारान्त शब्द – बैलवा, चिरवा, घुरवा, (घोड़ा विकल्प युक्त)
(3) रकारान्त शब्द – संज्ञायें अधिकांश कर्म या व्यवसाय की द्योतक होती है। व्यवसाय की आधार बस्तु के नाम के साथ ‘आर’ प्रत्यय लगाकर सज्ञा बनती है। ‘आर’ सस्कृत के ‘कार’ प्रत्यय का विकसित रूप है। उदाहरणः- सोना = सुनार, लोहा = लुहार, चाम = चमार, बंश = बरार (वंशकार का विशित रूप)
खँगार में ध्वनिसाम्य है किन्तु वह इस वर्ग का शब्द नहीं है।
कुछ व्यवसाय वाची संज्ञायें पहले प्रकार के अन्तर्गत औकारान्त होती हैं और उनमें ‘एरौ’ प्रत्यय के रूप में मिलता है।
सम्भवतः यह भी ‘कार’ प्रत्यय से ही विकसित हुआ है किन्तु बुंदेली की औकारान्त प्रवृत्ति के कारण इसका रूपान्तरण ‘आर’ के रूप में न होकर कहीं कहीं ‘एरौके रूप में हो गया है।
उदाहरण –
कांस्य = कसेरौ, कांच = कचेरौ, ताम्र = तमेरो
काष्ठ – कड़ेरौ, चित्र – चितेरौ, साँप – सपेरो
लाख – लखेरौ
वंश = बसोर का रूपान्तरण भिन्न प्रकार से हुआ है। इस प्रकार के शब्दों में स्वरों अथवा व्यंजनों का प्रतिस्थापन तथा कहीं व्यंजन वियोजन (लोप) हुआ है और सीधी मिलने वाली ध्वनियों के अतिरिक्त ध्वनियाँ भी प्रभावित हुई है अन्य व्यवसाय करने वाली जाति का नाम यदि व्यवसाय को आधार वस्तु का यौगिक शब्द नही है तो यह नियम उनके साथ लागू नहीं होता।
उदाहरण – बाड़इ, बनियां
कुछ पुलिंग शब्द स्त्रीलिंग शब्दों के साथ प्रत्यय जोड़ कर बनाये जाते हैं। इसका कारण यह है कि ये स्त्रीलिंग शब्द कारण रूप में हैं।
उदाहरण – बैन- बैंनेउ, मौसी – मौसिया
फुआ-फूफा, नन्द-नन्देउ
जिज्जी- जीजा, बिटिया-दमाद
तिरस्कार वाची पुलिंग शब्द बनाने के लिये शब्द की अतिम ध्वनि दीर्घ हो जाती है और उसके पूर्व को ध्वनियों में स्वर प्रतिस्थापन हो जाता है
उदाहरण – बामन-बमना, सुनार – सुनरा
अहीर – अहिरा, ढीमर – ढीमरा, नाउ-नउआ
तिरस्कार की अधिक तीव्रता और क्रोध की स्थिति में ‘ट्टा’ प्रत्यय के रूप में जुड़ जाता है।
उदाहरण – अहीर -अहिट्टा, खंगार खंगट्टा
लुहार – लुहट्टा, नाउ-नउट्टा
ऐसे शब्दों में अन्तिम ध्वनि यदि व्यंजन होती है तो उसका लोप होजाता है और जुड़ने वाले ‘टा’ में द्वित्व हो जाने के रूप में उसकी क्षति पूर्ति हो जाती है। उसके स्वर में प्रतिस्थापन हो जाता हे यदि शब्द स्वरान्त होता है तो ‘टा’ द्वित्व नहीं होता है।
इन उदाहरणों से बुंदेली की सम्पन्न अर्थवत्ता पर प्रकाश पड़ता है।
‘इया’ प्रत्यय जोड़कर भी तिरस्कार वाची पुलिंग शब्दों की रचना होती है।
उदाहरण बढ़ई-बड़इया
व्यक्ति वाचकपुंलिंग में केवल अन्तिम ध्वनि दीर्घ कर दी जाती है जैसे- बलदेव बलदेवा। कभी-कभी इसके पूर्व के स्वरों में परिवर्तन भी हो जाता है जैसे-रामप्रसाद रामपरसदा यह वास्तव में ध्वनि विपर्यय है। जिन शब्दों को अन्तिम ध्वनि दीर्घ होती है उसके आंगे ‘आ’ और जुड़ जाता है
उदाहरण – रमू रमुनां, कलू-कलुआ, पूर्व ध्वनियों में परिवर्तन हो जाता है।
‘उ’ प्रत्यय लगाकर व्यंग्यात्मक सम्बोधन बनाये जाते हैं।
उदाहरण- ससुर-ससरउ, चमार-चमरउ, बेटा-बिटउ, कलार-कलरउ, बामन-बमनउ
स्त्रीलिंग शब्द-इसी प्रकार स्त्रीलिंग शब्दों के कुछ निश्चित नियम हैं जो संस्कृत के विकसित रूपों पर आधारित है यद्यपि इनमें से कुछ के अप-वाद हैं, जिनका यथा स्थान निर्देश किया जायगा।
‘ई जोड़ कर बनाये जाने वाले स्त्रीलिंग शब्द:- जैसे-मोड़ा-मौड़ी चेला-चेली, सारौ सारी।
कुछ पुलिंग शब्द ईकारान्त होते है और इस नियम से निर्मित स्त्रीलिंग शब्दों के साथ ध्वनि साम्य होने के कारण भ्रम उपस्थित करते हैं। जैसे-माली, पापी।
कुछ शब्दों के साथ ‘ई’ जुड़ता है तो उसकी प्रकृति (मूल शब्द) में स्वर प्रतिस्थापन हो जाता है। उदाहरण- लोग लुगाई-इसमें ‘ई’ की पूर्व-वर्ती दोनों ध्वनियों ‘ल’ और ‘ग’ में स्वर परिवर्तन हो गया है।
इया’ प्रत्यय जोड़कर बनाये जाने बाले स्त्री शब्द :-
‘ये शब्द लघुता, हीनता या तिरस्कार के द्योतक होते हैं।
ह्वस्व स्वरान्त या व्यंजनान्त शब्दों में जब इया प्रत्यय जुड़ता है तब शब्द की मूल प्रकृति में कोई अन्तर नहीं आता है।
जैसे-बंद-बंदिया केवल सन्धि हो जाती है।
दीर्घ स्वरान्त या व्यंजनान्त शब्दों में जब ‘इया’ जुड़ता है तो प्रत्यय के पूर्व भी एक या दो ध्वनियों में स्वर प्रतिस्थापन हो जाता है। जैसे –
कुआ – कुइया, अरा – अरइया, आरो-अरिया, गदेला – गदिलिया, पुतरा – पुतरिया, बेला – बिलिआ
द्वित्व या संयुक्त व्यंजनान्त शब्दों में जब ‘इया’ जुड़ता है तब वियोजन (लोप) हो जाता है।
उदाहरण – कुत्ता – कुतिया
लचुता हीनता या तिरस्कार द्योतक उदाहरण –
लघुता-बेला = बिलिया, तला- तलइया
हीनता – राजा- रजइया
तिरस्कार-सजा-रजइया
तिरस्कार द्योतक उदाहरण से स्पष्ट है कि यह प्रत्यय स्त्रीलिंग शब्द के आगे जुड़ जाता है। इसी प्रकार पुलिंग शब्द के आगे भी जुड़ जाता है
उदाहरण- बाड़इ-बड़इया।
इया’ मे स्त्रीलिंग बनता है किन्तु पुंलिंग बनने के भी अपवाद हैं।
उदाहरण – मौसी (स्त्री.) मौसिया (पु.)
गाड़र (स्त्री) गड़रिया (पु.)
इसके अतिरिक्त यह प्रत्यय ‘वाले’ के अर्थ में भी बाता है। :-जैसे रखबइया ( रखने वाला) सुबइया (सोनेवाला) बड़गँइयाँ (बड़गाँव का रहने वाला)
‘न’ प्रत्यय से बनने वाले स्त्रीलिंग शब्द ऐसे शब्दों में यदि प्राति-पादिक शब्द ह्रस्व स्वरान्त या हृस्व व्यंजनान्त होता है तो मूल शब्द में कोई अंतर नहीं आता है और यदि यह दीर्घ स्वरांत या व्यंजनान्त होता तो इसमें स्वर प्रतिस्थापन हो जाता हैं।
उदाहरण – नाउ-नाउन-नान, कलार-कलारन, लुहार-लुहारन, महराज-महराजन खबास-खबासन,।
प्रतिस्थापन के उदाहरण -बाड़इ-बाड़ैन, माते-मातैन, गड़रिया-गडैन, राउत-रौतान, माली-मालिन मालन-मुंसी, मुंसिन मुंसन’नी’ प्रत्यय जोड़ कर वनाये जाने वाले स्त्रीलिंग शब्द डाक्टर-डाक्टरनी कलट्टर- कलट्टरनी, मास्टर मास्टरनी,
इस प्रकार के सभी शब्द जों ह्स्व व्यंजनान्त हैं अपनी अन्तिम ध्वनि खो देते हैं और ‘नी’ में द्वित्व होकर उसको क्षतिपूर्ति हो जाती है। इन सभी उदाहरणों में बोलचाल में ‘र’ का लोप रहता है। इस नियम की पुष्टि केलिए निम्न उदाहरण विचारणीय हैं। हिरन (पु.) हिन्नी (स्त्री) हिन्ना (पु.)
दीर्घान्त शब्दों में स्वर का प्रतिस्थापन और अन्तिम व्यंजन का लोप हो जाता है।
‘आनी’ प्रत्यय जोड़कर बनाये जाने वाले स्त्रीलिंग शब्द
उदाहरण :- पण्डित – पण्डितानी, मैंतर-मैतरानी
‘ली’ तथा लिया प्रत्यय जुड़कर बनने वाले स्त्रीलिंग शब्द ऐसे सभी शब्द लघुता द्योतक और स्त्रीलिंग होते हैं।
‘ली’ का उदाहरण-रुपइया – रुपल्ली (या का लोप इ का ल से प्रतिस्थापन होकर ‘ली’ जुड़ गया है।)
‘लिया’ का उदाहरण
दिया – देवलिया (छोटा दीपक)
सूपा – सुपूलिया (,, सूपा)
हँसिया – हॅसुलिया (;, हँसिया)
घर- घरुलिया (घर)
स्वर प्रतिस्थापन तथा व्यंजन लोप के नियम इन उदाहरणों में क्रिया शील है।
कभी कभी यह प्रत्यय स्त्रीलिंग शब्दों के साथ भी जुड़ता है और लघुता का द्योतक होता है उदाहरण – कुठीला (पु.) कुठिया (स्त्री) कुलिया (लघुता वाची स्त्री)
‘उ’ प्रत्यय जुड़कर बनने वाले स्त्रीलिंग शब्द :- दो शब्द गुण वाची स्त्रीलिंग होते हैं।
उदाहरण – उचक्का-उचक्कू, लुच्चा-लुच्चू, सेंटा– सेंटू
भँडया-भंड़ऊ, झुट्टा-झूट्टू, बब्बा बऊ (वृद्धावस्था का गुण स्पष्टीकरण के लिये निम्न उदाहरण विचारणीय है और अधिक :- आवाज के गुण के कारण बनने बाले स्त्रीलिंग – बिलवा या बिलार (पु.) बिलइया (स्त्री.) म्याँऊं (स्त्री.) चिरवा (पु.) चिरइया (स्त्री.) चूँ चूँ (स्त्री.) ‘ओ’ प्रत्यय लगाकर बनने वाले स्त्रीलिंग शब्द :-ये संबोधन के द्योतक होते है
उदाहरण – राँड़ – रड़ो, लाड़ – लाड़ो, मोटी मुट्टो
संस्कृत के कुछ सामासिक स्त्रीलिंग वाची पदों के विकसित रूप भी बुंदेली में पाये जाते हैं।
जैसे- सारौ साराज (श्याल जाया), भैया भौजी (भ्रातृ जाया)
स्वतंत्र स्त्रीलिंग शब्द
भइया बैन, बाप मताई, बेल गड्या, कठवा लकरिया, ससुर-सास, पढ़ा–भैंस, लरका-बिटिया (बेटा का स्त्रीलिंग भी है)
एकाध उदाहरण सम्बन्ध वाची स्त्रीलिंग शब्दों के भी पाये जाते हैं। जैसे- धोती (स्त्री. से धुतिया शब्द बनता है। इसका कारण संभवतः स्त्रियों द्वारा उसका उपयोग है।
उपरोक्त उदाहरणों का अध्ययन करने से यह निकर्ष निकलता है कि बुंदेली में पुलिंग और स्त्रीलिंग दो ही लिंग होते हैं किन्तु उनके निम्न लिखित उपभेद होते हैं।
पुलिंग –
(1) सामान्य पुंलिंग (2) तिरस्कार वाची पुंलिंग (3) सम्बोधन वाची पुलिंग
स्त्रीलिंग –
(1) सामान्य स्त्रीलिंग, तिरस्कार वाची स्त्रीलिंग
(2) लघुता वाची स्त्रीलिंग
(3) गुण वाची स्त्रीलिंग
(4) संबोधन वाची स्त्रीलिंग
(5) सम्बन्ध वाची स्त्रीलिंग
बुंदेली में संज्ञा के अनुसार सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, सहायकक्रिया तथा संबोधन के लिंग भी प्रभावित होते हैं। इनके उदाहरण निम्न वाक्यों में प्रस्तुत हैं -:
(1) काय रे। बौ कारो बेलवा दिखानों जोंन मैनें लऔ तौ?
(2) काए री। बा पीरी पिछौरिया देखी जिऐ तें मेले ले गई ती ?
बुंदेली में वचन
डॉ. श्रीमती रमा जैन
परिभाषा
शब्द के रूप का वह विधान, जिससे उसके अर्थ में एक या अनेक का बोध हो ‘वचन‘ है।
पश्चिमी हिन्दी की अन्य बोलियों के अनुसार बुंदेली में भी दो वचन हैं-
1. एक वचन — जिससे एक का बोध हो, जैसे- लरका, पोथी, टाठी (थाली)
2. बहुवचन— पोथीं (पोथियाँ), टाठीं (थालियाँ)। सारांश यह है कि एक वस्तु या कर्ता के लिये एक वचन तथा उससे अधिक के लिये बहुवचन का प्रयोग होता है। यह साधारण नियम है। विशेष यह कि बुंदेली में आदर के लिये भी एक वचन के स्थान पर बहुवचन का रूप रखने का नियम है। उदाहरण के लिये ऊ कौ लरका आओ है (उसका लड़का आया है) और प्रधान मंत्री के लरके आये हैं। या तूं बच्चा है ‘तुम बच्चे हो’ इन वाक्यों में ‘लरका’ लरके, बच्चा, बच्चे शब्दों का प्रयोग किया गया। यहाँ लरके और बच्चे बहुवचन के रूप हैं जबकि यहाँ एक वचन हैं परन्तु आदर के अर्थ में इस रूप में प्रयुक्त हुये हैं।
परन्तु कुछ विशेष नियमों के अनुसार यह नियम प्रभावशाली नहीं होता। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार आदरार्थ में विशेषण या क्रिया का बहुवचन एक वचन की संज्ञा के साथ तथा सर्वनाम के एक वचन के रूपों के स्थान पर बहुवचन के रूप स्वतंत्रता पूर्वक व्यवहृत होते हैं।
रूप रचना
डॉ. उदय नारायण तिवारी के अनुसार- हिन्दी की भाँति ही बुंदेली संज्ञाओं के रूप भी बनते हैं। ओकारान्त पुल्लिंग तद्भव शब्दों के रूप, तिर्यक् एक वचन तथा कर्ता बहुवचन में ए संयुक्त करने से सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार तिर्यक् बहुवचन के रूप में ‘अन’ प्रत्यय लगता है। नीचे बुंदेली घोरो शब्द के रूप दिये जाते हैं-
एक वचन बहुवचन
कर्ता घोरो घोरे
तिर्यक् घोरे घोरन
अन्य पुल्लिंग संज्ञा पद एक वचन तथा कर्ता बहुवचन में अपरिवर्तित रहते हैं। किन्तु तिर्यक् बहुवचन में ये ‘अन’ प्रत्यय संयुक्त करते हैं। सामान्य नियम यही है। परन्तु कभी-कभी आकारान्त संज्ञा पदों के कर्ता बहुवचन के रूप ‘आं’ अथवा ‘अन’ संयुक्त करने से सम्पन्न होते हैं। जैसे – हिन्ना (हिरण) कर्ता, बहुवचन हिन्नां (हिरणों), कुत्ता कर्ता तथा तिर्यक बहुवचन कुत्तन।
‘इया’ अन्त वाले स्त्री लिंग शब्दों के रूप कर्ता बहुवचन में ‘इया’ तथा तिर्यक् बहुवचन में – इयन संयुक्त करने से सम्पन्न होते हैं। अन्य स्त्री लिंग संज्ञा पदों के कर्ता के बहुवचन के रूप ‘ऐं’ किन्तु यदि वे इकारान्त हैं तो ‘ई’ तथा तिर्यक् बहुवचन के रूप ‘अन’ या ‘इन’ संयुक्त करने से सम्पन्न होते हैं। इनके उदाहरण नीचे दिये जाते हैं-
एक वचन एक वचन बहुवचन बहुवचन
कर्ता तिर्यक् कर्ता तिर्यक्
लौरौ (छोटा) लौरे लौरे लौरन
दद्दा (पिता) दद्दा दद्दा दद्दन
कुकरम (कुकर्म) कुकरम कुकरम कुकर्मन
चाकर (नौकर) चाकर चाकर चाकरन
सांड सांड सांड़न सांड़न
रहाइया (रहने वाला) रहाइया रहाइया रहाइयन
उँगरिया (उंगली) नुगरिया नुगरियाँ नुगरियन
हुरकिनी (वेश्या) हुरकिनी हुरकिनी हुरकिनन
गतिकी (धौल–धमाका) गतिकी गतिकी गतिकिन
कभी-कभी हिन्दी के साधारण प्रयोग भी इसमें मिलते हैं। यथा बातें, हेतियों के संग (मित्रों के साथ) पांवों में (पैरों में) आदि। इसी प्रकार मरे भूखन के मारें, आदि रूप भी उल्लेखनीय हैं।
रूपों का प्रयोग
संज्ञा के मूल रूपों का प्रयोग कर्ता तथा कर्म कारकों और सम्बोधन के लिये होता है। संज्ञा के विकृत रूप कर्ता के अतिरिक्त अन्य सब कारकों में परसर्गों के बिना तथा परसर्ग के साथ दोनों प्रकार से प्रयोग किये जाते हैं।
एक वचन से बहुवचन में प्रायः संज्ञा शब्दों का रूप बदल जाता है। ‘औ’ के स्थान पर ‘ए’ अथवा ‘अन’ हो जाता है जैसे ‘घोरौ’ एक वचन है उसका बहुवचन ‘घोरे’ होगा और ‘लरका’ एक वचन है उसका बहुवचन ‘लरके’ होगा। परन्तु इसके विरुद्ध कुछ शब्दों के दोनों वचनों में एक से ही रूप रहते हैं, जैसे-बालक, चोर। परन्तु कारक चिन्हों के साथ आने पर इन शब्दों के भी रूप बदल जाते हैं; जैसे-
एक वचन बहुवचन
कारक चिन्ह रहित बालक गओ बालक गये
कारक चिन्ह सहित बालक को दो बालकन को दो
मूलतः एक वचन से बहुवचन बनाने के नियम कारक चिन्हों के रहने या न रहने तथा लिंग पर आधारित हैं।
एक वचन से बहु वचन बनाने के नियम
(क) कारक चिन्हों से रहित पुल्लिंग शब्द –
(1) संस्कृत तथा हिन्दी की परम्परा से बुंदेली में आये निम्नांकित पुल्लिंग शब्द कारक चिन्हों से रहित होने पर एक वचन तथा बहु वचन दोनों में एक से रहते हैं। जैस—
अकारान्त — घर, नर, मकान, बालक आदि।
इकारान्त — कवि, मुनि आदि।
ईकारान्त — भाई, तेली, माली, धोबी आदि।
उकारान्त— साधु, गुरु आदि।
ऊकारान्त— उल्लू, डाकू, आलू, भालू आदि।
एकारान्त — चौबे, दुबे।
ओकारान्त— कोदों, भादों
औकारान्त — जौ पौ
उदाहरणार्थ कुछ निम्नांकित प्रयोग –
एक वचन बहु वचन
घर बन रओ है (घर बन रहा है) घर बन रय हैं (घर बन रहे हैं)
कवि गा रओ है (कवि गा रहा है) कवि गा रय हैं (कवि गा रहे है)
जौ पीक रओ है (जौ उग रहा है) जौ पीक रय हैं (जौ उग रहे हैं)
(2) बुंदेली के उन आकारान्त शब्दों में जो संस्कृत के नहीं हैं, बहुवचन बनाने में ‘आ’ के स्थान पर ‘ए’ कर देते हैं, जैसे- ‘पैसा’ से ‘पैसे’, लरका से लरके आदि। परन्तु कुछ ऐसे भी आकारान्त शब्द है जिनके रूप दोनों वचनों में एक से रहते हैं। जैसे- अगुआ, अजा (आजा); दद्दा (दादा); कक्का (काका) चच्चा (चाचा), बब्बा (बाबा), मम्मा (मामा), लल्ला (लाला), मुखिया, सूरमा आदि।
(ख) कारक चिन्हों से रहित स्त्री लिंग शब्द
(1) अकारान्त स्त्री लिंग संज्ञाओं में एक वचन से बहुवचन बनाने में अन्तिम ‘अ’ के स्थान पर ‘ऐं’ कर देते हैं। जैसे-
रात-रातें आँख-आँखें किताब-किताबें आदि।
(2) ‘इया’ प्रत्ययान्त स्त्रीलिंग संज्ञाओं में एक वचन से बहुवचन बनाने के लिये अन्त में अनुस्वार और जोड़ देते हैं; जैसे-
कृतिया-कुतियां खुटिया-खुटियां
गइया-गइयां गुटिया-गुटियां
चुटिया-चुटियां धुतिया-धुतियां
बिटिया-बिटियां आदि।
(3) इकारान्त स्त्री लिग संज्ञाओं में एक वचन से बहुवचन बनाने के लिये ‘इ’ के स्थान में ‘ई’ करके अनुस्वार और जोड़ देते हैं। जैसे तिथि-तिथीं, मिति-मितीं, रासि (राशि) – रासीं।
(4) ईकारान्त स्त्री लिंग संज्ञाओं को बहुवचन में केवल अनुस्वार सहित किया जाता है। जैसे- गारी (गाली), गारीं, टोपी-टोपीं, मताई (महतारी), मताई।
(5) ‘इया’ प्रत्ययान्त संज्ञाओं को छोड़कर शेष अकारान्त, आकारान्त, उकारान्त, ऊकारान्त और औकारान्त स्त्री लिंग संज्ञाओं का बहुवचन बनाने के लिये अन्त में ‘एँ’ जोड़ते हैं। यदि संज्ञा अकारान्त है तो ‘एँ’ जोड़ने के पूर्व संज्ञा को उकारान्त (ऊ से उ) कर देते हैं। जैसे-
एक बच्चन बहुवचन
कथा कथाएँ
माता माताएँ
वस्तु वस्तुएँ (प्रयोग में ‘बसतें’ आता है)
बहू बहुएँ (प्रयोग में ‘बऊयें’ आता है)
गौ गउएँ (प्रयोग में ‘गइयें’ आता है)
वे आकारान्त तथा ओकारान्त संज्ञाएँ जिनके साथ अनुस्वार (ं) लगा है एकवचन तथा बहुवचन में एक-सी रहती हैं, जैसे-
एकवचन बहुवचन
सानुस्वार आकारान्त- सरसवां (सरसों) सरसवां
सानुस्वार ओकारान्त – कोदों कोदों
भादों भादों
(ग) कारक चिन्हों के सहित पुल्लिंग तथा स्त्री लिंग शब्द
कारक चिन्हों से युक्त होने पर भी संज्ञा शब्दों का बहुवचन का रूप बनाने में लिंग के कारण कोई अन्तर नहीं पड़ता।
अकारान्त, आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, एकारान्त औकारान्त संज्ञाओं में अन्तिम अ, आ, ए, औ तथा अ के स्थान पर बहुवचन बनाने में ‘अन’ कर देते हैं।
एकवचन बहुवचन कारक चिन्हों के साथ प्रयोग
अकारान्त — चोर चोरन चोरन नें मारो, चोरन खों मारौ।
कारान्त— लरका लरकन लरकन नें मारो आदि।
इकारान्त— मुनि मुनन मुनन कौ संग आव
(मुनियों का संघ आया है)।
ईकारान्त— गारी गारन ऐसी गारन की बुराई नें मानों।
एकारान्त— दुबै, चौबे, दुवन, चौवन दुवन कौ पुरा, चौबन कौ मुहल्ला।
औकारान्त— सारौ सारन देखत हों अवई सारन खों।
बहुवचन विषयक अपवाद
कभी-कभी बहुवचन बनाने के लिये शब्दों में परिवर्तन न करके जन, गन (गण) या लोग आदि शब्द अन्त में जोड़ देते हैं। ऐसे बहुवचनों का प्रयोग कारक चिन्ह रहित होने पर होता है। कारक चिन्ह सहित होने पर इनके अन्तिम ‘अ’ का ‘अन’ कर देते हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
एक वचन बहुवचन बहुवचन
(कारक चिन्ह रहित) (कारक चिन्ह सहित)
गुरू गुरूजन गुरूजनन खों पान सुपाई देव।
सिक्छक (शिक्षक) सिक्छकगन सिक्छकगनन खों परनामकरी।
राजा राजा लोगन राजालोगन की अवाई भई।
संज्ञा के भेदों में प्रायः केवल जातिवाचक संज्ञा का ही बहुवचन में प्रयोग होता है परन्तु इसके अपवाद भी देखने में आते हैं।
कारक
1. कारक की परिभाषा एवं संख्या के सम्बन्ध में संस्कृत तथा हिन्दी के वैयाकरणों में बहुत मतभेद हैं। यही नहीं हिन्दी के वैयाकरणों में तो आपस में एकता है ही नहीं। अतः संस्कृत एवं हिन्दी के वैयाकरणों द्वारा दी गयी परि-भाषाओं पर बुंदेली के सन्दर्भ में पूर्वापर विचार करना आवश्यक है।
परिभाषा
कारकं स्यात् क्रिया मूलम्।
क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्।
कारकत्वं क्रियाजनकत्वम्, करोति = क्रियां निर्वर्त्तयतीति
भाष्ये व्युत्पत्ति दर्शनात्।
उक्त परिभाषाओं के सारांश के अनुसार ‘क्रिया कारक से सम्बन्धित’ मानी गयी है। या कहिये कि ‘कारक क्रिया से अन्वित’ रहता है। वस्तुस्थिति यह है कि क्रिया का नाम-पद से सम्बन्ध ‘कारक‘ कहलाता है। जिस विकारक तत्त्व से यह अन्वय सूचित होता है, उसे ‘विभक्ति’ या ‘पर-सर्ग’ कहा जाता है।[4]
कारक विषयक इस परिभाषा से जो अनेक हिन्दी वैयाकरण भी सहमत हैं उनके मत निम्न प्रकार हैं-
(क) वाक्य में नाम-पद का क्रिया के साथ जो सम्बन्ध हो उसे ‘कारक’ कहते हैं।
(ख) वाक्य में प्रयुक्त उस नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण) को ‘कारक’ कहते हैं। जिनका अन्वय या सम्बन्ध साक्षात्कार वा परम्परा से आख्यात क्रिया वा कृदन्त क्रिया के साथ होता है।
(ग) क्रिया के साथ जिसका सीधा सम्बन्ध हो उसे कारक कहते हैं।
2. पं. कामता प्रसाद गुरू प्रभृति हिन्दी वैयाकरण नामपद और आख्यान के सम्बन्ध को अनिवार्य नहीं मानते। वे वाक्य में किन्ही भी दो पदों के सम्बन्ध को ‘कारक’ मानते हैं। इस प्रकार की परिभाषाएँ देखिये –
(क) संज्ञा (या सर्वनाम) जिस रूप से उसका सम्बन्ध वाक्य के किसी दूसरे शब्द के साथ प्रकाशित होता है, उस रूप को कारक कहते हैं; जैसे- रामचन्द्र जी ने खारी जल के समुद्र पर बन्दरों से पुल बँधवा दिया है।
(ख) संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सम्बन्ध वाक्य के किसी अन्य शब्द के साथ प्रकट होता है, ‘कारक’ कहलाता हैं।
(ग) ‘कारक’ संज्ञा (अथवा सर्वनाम) का वह रूप है जो कि वाक्य के किसी अन्य शब्द से अपना सम्बन्ध प्रगट करे।
(घ) संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सम्बन्ध वाक्य के दूसरे शब्द अथवा क्रिया के साथ प्रगट किया जाता है, उसे ‘कारक’ कहते हैं।
कुछ अंग्रेजी के वैयाकरण भी इस प्रकार की धाराओं के पोषक हैं जिनमें स्टाक तथा जैसपर्सन प्रमुख हैं परन्तु ये परिभाषाएँ मान्य नहीं होना चाहिये, कारण कि दो पदों का सम्बन्ध तो विशेषण-विशेष्य का अथवा क्रिया-विशेषण और क्रिया का भी हो सकता है; जैसे-
‘इसका कारण याद आ गया है इस वाक्य में ‘इसका’ और ‘कारण’ विशेषण-विशेष्य का सम्बन्ध वाले हैं।
फिर ‘एकाएक सिकुड़ कर अधबैठी रह गई‘ इस वाक्य में ‘अधबैठी’ और ‘रह गई’ क्रिया विशेषण और क्रिया का सम्बन्ध वाले हैं। साथ ही यह भी विचारणीय है कि क्रिया में काल, अर्थ, वाच्य, आदि सभी की मान्यता रहती है। अतः वाक्य में किन्हीं दो पदों का सम्बन्ध करना कारक के सम्बन्ध में कोई अर्थ नहीं रखता क्योंकि कारक स्वाभाविक रूप से अनिवार्यतः क्रिया से अन्वित रहेगा।
कारक के भेद
कर्ता कर्म च करणं च सम्प्रदानं तथैव च।
अपादानाधिकरणे, इत्याहुः कारकाणि षट्।।
(मध्य सिद्धान्त कौमुदी, प्रभाकरी टीका)
3. संस्कृत वैयाकरणों ने 6 कारक गाने हैं
(1) कर्ता (2) कर्म (3) करण (4) सम्प्रदान (5) अपादान, और (6) अधिकरण। सामान्यतया हिन्दी वैयाकरणों ने भी छः कारक ही माने हैं। श्री गुरु ने सम्बन्ध और सम्बोधन को भी कारक मानते हुए आठ कारक माने हैं। सम्बन्ध और सम्बोधन को कारक नहीं मानने में वैयाकरणों का तर्क यह है कि इनका सम्बन्ध क्रिया से नहीं होता। अपितु सम्बन्ध कारक से किन्हीं संज्ञा या सर्वनाम रूपों का परस्पर सम्बन्ध व्यक्त होता है और सम्बोधन से केवल आह्वान सूचकभाव का ही बोध होता है। इसके अतिरिक्त श्री गुरु द्वारा ही सम्बन्ध और सम्बोधन कारक की जो परिभाषाएँ दी गयी है उनके अनुसार वे कारक की आवश्यकताएँ पूरी नहीं करते। परिभाषाओं के अन्तर्गत उदाहृत वाक्यांशों को यदि पूरे वाक्य का रूप प्रदान किया जाय तो स्पष्ट हो जायगा कि-राजा का महल, लड़के की पुस्तक, पत्थर के टुकड़े आदि में जिनको कारक समझा जा रहा है वे वस्तुतः विशेषक हैं क्योंकि क्रिया से अन्वित नहीं है। जैसे-
राजा का महल बन गया।
लड़के की पुस्तक फट गई।
पत्थर के टुकड़े पानी में डूब गये।
उपर्युक्त उदाहरणों में तथा कथित सम्बन्ध-कारक ‘राजा-का’, ‘लड़के-की’ और ‘पत्थर के’ — क्रमशः ‘बन गया‘ ‘फट गई‘ और ‘डूब गई‘ क्रिया से अन्वित नहीं हैं। ये तीनों संज्ञाओं के सम्बन्ध सूचक विशेषणों के रूप में प्रयुक्त हुये हैं। अतः का, की, के आदि विशेषक हैं, सम्बन्ध कारक नहीं।
4. श्री गुरू द्वारा प्रस्तुत सम्बोधन कारक की परिभाषा में प्रयुक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि ‘हे नाथ’ अविकारी कर्ता के समान प्रयुक्त हुआ है और इसी वर्ग का है। अत सम्बोधन भी कोई कारक नहीं है। इसे अविकारी कर्ता में ही समाहित किया जा सकता है। इस प्रकार हिन्दी में सामान्यतः छह कारकों की स्वीकृति है-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण। कुछ विद्वानों के मत से इन छह कारकों में से सम्प्रदान को भी स्वतंत्र कारक मानने के स्थान पर कर्म कारक में ही समाहित कर दिया गया है क्योंकि उनके मत में कर्मकारक के दो भेद हैं- (1) मुख्य कर्म और (2) गौण कर्म। यह गौण कर्म ही व्याकरण सम्पत सम्प्रदान कारक है। इस प्रकार कारकों की संख्या पाँच ही रह जाती है, कर्ता (2) कर्म-मुख्य कर्म तथा गौण कर्म, (3) करण (4) अपादान और (5) अधिकरण। इन कारकों में कर्ता और कर्म, अविकारी और विकारी।
1. संज्ञा के जिस रूप से उसकी वाच्य वस्तु का सम्बन्ध किसी दूसरी वस्तु के साथ सूचित होता, उस रूप की सम्बन्ध कारक कहते हैं। जैसे- राजा का महल, लड़के की पुस्तक, पत्थर के टुकड़े इत्यादि। पूर्वोक्त पृ. 221 संज्ञा के जिस रूप से किसी को चेताना वा पुकारना सूचित होता है उसे ‘सम्बोधन कारक‘ कहते हैं। जैसे हे नाथ! मेरे अपराधों को क्षमा करना। दोनों रूपों में प्रयुक्त होते हैं अन्य तीनों केवल विकारी रूप में। अविकारी कारक ‘पर-सर्ग’ रहित और ‘विभक्ति’ रहित रहते हैं, विकारी कारक प्रयोगों में परसर्ग अथवा विभक्ति का योग रहता है। कुछ स्थलों पर विकारी कारकों के परसर्ग या विभक्तियाँ भी लुप्त हो जाती हैं।
डॉ. द्विवेदी ने हिन्दी में 2 अथवा 3 ही कारक मानने के कारण का विश्लेषण करते हुये लिखा है कि संस्कृत में 8 कारक थे जिनके लिये आठ विभक्तियों का रूपायन होता था। ये कारक थे-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण, सम्बोधन। हिन्दी में वाक्य स्तर पर कुछ वाक्यांशों का सम्बन्ध भिन्न-भिन्न प्रकार से क्रिया से जोड़ा जा सकता है। और इस प्रकार कारकों की कल्पना की जा सकती है, किन्तु भाषा-वैज्ञानिक स्तर पर गठन की दृष्टियों से हिन्दी में तीन ही कारक हैं। उदाहरणार्थ-लड़क्
एक वचन बहुवचन
सरल कारक 1.लड़का लड़के
तिर्यक् कारक 2.लड़के लड़कों
सम्बोधन 3.लड़के लड़को
इसके उदाहरण
- लड़का गया। मैंने वहाँ एक लड़का देखा।
- लड़के ने कहा। लड़के पर बात न टालो।
- ए लड़के ! यहाँ आ।
- लड़के चले गये। मैंने सैकड़ों लड़के देख लिये।
- लड़कों ने कहा। लड़कों से क्या होगा।
- ए लड़को ! चुप रहो !
जिन लोगों की भाषा में ‘लड़को’ ‘वीरो’, ‘भाइयो’ जैसे रूपों के स्थान पर लड़कों, वीरों, भाइयों- जैसे रूपों का प्रयोग सम्बोधन में भी होता है; उनकी भाषा में दो ही कारक हैं- सरल और तिर्यक्।अस्तु।
6. परसर्ग और विभक्ति
प्रकरण प्राप्त ‘परसर्ग’ और ‘विभक्ति’ की परिभाषा एवं अन्तर स्पष्ट करना आवश्यक है।
संस्कृत में केवल विभक्तियाँ कारकीय सम्बन्ध व्यक्त करती हैं परन्तु हिन्दी में ‘परसर्ग’ और ‘विभक्ति ‘दोनों का प्रयोग होता है। ‘परसर्ग’ और ‘विभक्ति’ में अन्तर है। ‘परसर्ग‘ स्वतंत्र शब्दों से विकसित होकर निर्माण के हेतु अलग से जुड़ता है। इसके योग से मूल शब्द में विकार नहीं होता। कारक निर्माण के हेतु जो विकार मूल शब्दों में हो जाता है, वह ‘विभक्ति‘ है। यथा-
यह काम तुमको करना है। (परसर्ग)
यह काम तुम्हें करना है। (विभक्ति)
हिन्दी के नें, को, के लिये, से, में, पर-परसर्ग लिंग, वचन, एवं पुरुष के भेद होने पर भी अपरिवर्तित रहते हैं।
संज्ञा या सर्वनाम का सम्बन्ध क्रिया या दूसरे शब्द से बताने के लिये उसके साथ जो अक्षर अर्थात् चिन्ह लगाया जाता है उसे ‘विभक्ति’ कहते है।
7. परसर्गों की सार्थकता या उपयोग
कारकों के अर्थ प्रगट करने के लिये परसर्गों का प्रयोग होता है। कर्ता के कुछ रूपों को छोड़कर शेष कारकों के अर्थ, संज्ञा तथा संज्ञा (मोंड़ा की मताई), संज्ञा तथा सर्वनाम (ऊ कौ बैलवा), संज्ञा तथा क्रिया (मगरा नें खा लई), क्रिया-विशेषण तथा क्रिया (पाछें से चलतौ बनों), के बीच विभिन्न परसर्गों के द्वारा व्यक्त किये जाते हैं। ये परसर्ग संज्ञा अथवा सर्वनाम के विकृत रूपों के साथ जुड़कर कारकों के अर्थ स्पष्ट करते हैं। इन अर्थों में प्रचलित कारकों के अतिरिक्त भी अन्य व्याकरणात्मक तथा प्राकृतिक सम्बन्ध हैं, जिनके लिये कोई विशिष्ट कारक नहीं है। जैसे- राम का लड़का पढ़ता है (पिता-पुत्र सम्बन्ध), कपड़े का थैला (कारण कार्य सम्बन्ध), बोतल का पानी (आधार आधेय सम्बन्ध), प्रेस की स्याही (उपयोग उपयोजक सम्बन्ध)।
8. कारक, विभक्ति और परसर्ग
उक्त तीनों ही शब्दों की परिभाषाएँ सोदाहरण दी गई हैं। विभक्ति और परसर्ग का अन्तर भी स्पष्ट किया गया है। विभक्ति और कारक को समझने में भूल न हो अतः विभक्तियों के उपयोग में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ‘विभक्तियों’ से ‘कारक’ आदि का बोध होता है। यदि ये विभक्तियाँ न हों तो संज्ञा मात्र से काम न चले। विभक्तियों को कारक समझ लेने से बड़ी गड़बड़ पैदा हो जायगी। ‘को’ आदि विभक्तियाँ ‘कर्म’ में ही नहीं, ‘कर्ता’ आदि कारकों में भी आती हैं। देखिये-
(1) राम ने गोविन्द को देखा (कर्म कारक)
(2) वह तो रात को जायगा (अधिकरण कारक)
(3) राम ने गोविन्द को पुस्तक दी (सम्प्रदान कारक)
(4) राम को तो यह पुस्तक पढ़ना ही है (कर्ता कारक)
इस तरह विभिन्न कारकों के व्यक्त करने में ‘को’ विभक्ति आती है। इसे ‘कर्म’ कारक कैसे कहा जा सकता है ? इसी तरह ‘से’ आदि विभक्तियाँ विभिन्न कारकों को प्रकट करती हैं-
(1) राम चाकू से कलम बनाता है (करण कारक)
(2) पेड़ पर घर से आकर तोता बैठ गया (अपादान कारक)
(3) मुझ से तो सब देखा नहीं जाता (कर्ता कारक)
(4) सबसे बढ़कर तो राम रहा (अपेक्षा)
इस प्रकार विभिन्न कारकों तथा सम्बन्ध आदि का बोध विभक्तियाँ कराती हैं। वे खुद कारक नहीं हैं।1
संक्षेपतः कारक वस्तुतः नाम-पदों के वे रूप हैं, जो उन्हें वाक्यान्तर्गत क्रिया से जोड़ते हैं। प्रयोगान्तर्गत कारकों को सक्रियता भी बड़ी महत्वपूर्ण है। रुढ़ एवं परम्परागत प्रयोगों के अतिरिक्त कारकों के नव्य प्रयोग हिन्दी वाक्य विन्यास में प्रचुरता के साथ पाये जाने लगे हैं। कारक की व्याकरणिक व्यवस्था को समुचित रूप से प्रस्तुत करने का यह एक प्राथमिक एवं मौलिक प्रयास है।
9. कारक की परिभाषा के सम्बन्ध में डॉ. अग्रवाल ने “ए बेसिक ग्रामर आँव मॉडर्न हिन्दी” में दी गई निम्नांकित परिभाषा को बुंदेली के सम्बन्ध में मान्य किया है-
“कारक संज्ञा (अथवा सर्वनाम) का वह रूप है जो कि वाक्य के किसी अन्य शब्द से अपना सम्बन्ध प्रकट करे”। उनका कहना है कि वह आधुनिक आर्य-भाषाओं के लिये अधिक समीचीन कही जा सकती है।
वस्तुतः इन संज्ञा रूपों के द्वारा जो सम्बन्ध स्पष्ट किये जाते हैं वे तो अनेक हैं और अनेक प्रकार के हैं। जैसे- कर्ता कृतित्व का, साधन साध्य का, सम्बन्ध सम्बन्धी का, अधिकार अधिकारी का, और आधार आधेय का आदि। परन्तु हिन्दी तथा उसकी क्षेत्रीय बोलियों में किसी भी संज्ञा के किसी एक वचन में दो या तीन से अधिक रूप देखने में नहीं आते। इसलिये “बुंदेली में दो या अधिक से अधिक तीन कारक ही कहे जा सकते हैं।” कहते हुये डॉ. अग्रवाल ने कारक के 1. मूल रूप, 2.विकारी रूप और 3.सम्बोधन रूपों की सोदाहरण विस्तृत चर्चा की है। साथ ही 1.कर्म तथा सम्प्रदान 2.अपादान, और 3.कर्म तथा अधिकरण की बुंदेली में सक्रियता के ऐसे उदाहरण भी दिये हैं जिनसे कि प्रमुखतया इन्हीं का अस्तित्व प्रतीत होता है1।
10. परसर्गीय समानता के द्वारा सदृश अर्थ प्रतीति के कारण (1) कर्म-सम्प्रदान-अधिकरण (2) करण-अपादान और (3) सम्बन्ध, इस प्रकार बुन्देलीं में तीन कारक समूह कभी-कभी उनके स्वरूप को एकाएक ग्रहण नहीं करने देते अतः उनके स्पष्ट रूप दिग्दर्शन हेतु बुंदेली के कारक, विभक्ति, और परसर्ग की परिभाषाएँ, अन्तर की चर्चा के पश्चात् यहाँ कारकीय परसर्गावली देना उचित प्रतीत होता है।
बुंदेली परसर्ग
अविकारी या मूलकर्ता कारक, विकारी या तिर्यक्
कर्ता कारक— ने, नें।
कर्म कारक — कों, खों, खां, हां, अै।
करण कारक— सें, सों।
सम्प्रदान कारक — कों, खों, खाँ, अै, के-लानें, के-लाजें, के-काजें।
अपादान कारक— सें, सों।
सम्बन्ध कारक — कौ, के, की, रो, रे, री।
अधिकरण कारक — में, पै, लौ।
सम्बोधन कारक— ये, हो, ओ, अरे, ओरे, येरे, अरी, येरी।
11. परसर्गों का प्रयोग
पर-सर्गों का प्रयोग हिन्दी की तरह बुंदेली में भी कारकीय अवस्था और सामान्य स्थिति का द्योतन करता है; जैसे-
(क) कारकीय अवस्था का द्योतन
(1)लरका नें रोटी खाई, — (कर्ता कारक)
(2)लरका खों बुलाव, लरकै बुलाव (कर्म कारक)
(3) लरका सें लिखवाव, – (करण कारक)
(4) लरका के लानें पोथी ल्याव,
लरकै पोथी ल्याव (सम्प्रदान कारक)
(5) लरका के हांत सें पोथी गिर गई (अपादान कारक)
(6) लरका कौ दद्दा इतै आव (सम्बन्ध कारक या विशेषक)
लरका की मताई कऊँ गई हुईये, ”
(7) लरका के भैंयन में लराई होत, ”
(8) लरका में काउ कौ विसवास नइयां, (अधिकरण कारक)
लरका पै इतनी बड़ी गठरिया धर दई।
(9) ये लरका ! ऊदम करो तो पिटो (सम्बोधन)
उक्त उदाहरणों में प्रयुक्त नै, खों; सें आदि परसर्ग कारकीय विभिन्न अवस्थाओं का द्योतन कर रहे हैं।
सामान्य स्थिति का द्योतन
जौ पेड़ौ ऊ पेड़े सें छोटो है। इस वाक्य का ‘पेड़े सें’ का ‘सें’ परसर्ग कारकीय स्थिति का द्योतन न करके सामान्य स्थिति में है।
पूर्व सर्ग और परसर्ग
कभी-कभी कुछ परसर्ग पूर्व सर्ग के रूप में भी प्रयुक्त होता हैं। जैसे— तुम बिना परदनियां के सपरौ ? मानस में तुलसी दास जी ने ‘बिनु’ परसर्गका प्रयोग पूर्वसर्ग और परसर्ग दोनों ही रूपों में एक ही चौपाई में किया है—
बिनु पद चलई, सुनइ बिनु काना (पूर्वसर्ग)
कर बिनु करम करइ विधि नाना (परसर्ग) बालकाण्ड 118।5
12. परसर्गों के समान व्यवहृत शब्द
साधारणतया निम्नांकित शब्द ‘के‘ अथवा ‘की‘ के बाद प्रयोग में आते हैं-
के आगें — ई घर के आगें।
बिन — तुमाये बिन को संग दैहे।
बिना — अपने बिना को की कौ भयो।
भर — उम्मर भर को ऊयै सिर पै लादै।
बीच — खेत के बीच बेरी कौ पेड़ौ है।
ढिंगा — हमें काऊ के ढिंगा नई रानें।
लौ (के पास) — कान लौ लगा कैं सुनौ तौ घरी की आवाज सुन परहै।
लों (तक) — बजार लों हो आइये फिर अबइ आउत हैं।
सैत (सहित) — कुटम कवीला सैत तीरथन खों गय हैं।
सें — मिठाई सें मीठे, खटाई सें खट्टे।
सी — विष सी करई बातें कुआवे की गुंजास हमें नइयां।
सौ — अपनो सौ मों लेकें रै गये।
तरें— अपने चरनन तरें डरो रान देव तो आदमी हो जैब।
घांई (समान, तरह) — तुम तो जानत के तुमाय घांई सबै आ हैं।
13. संयुक्त परसर्ग तथा परसर्गों के समान व्यवहृत शब्दों के अतिरिक्त संज्ञा के विशिष्ट संयोगात्मक रूप भी मिलते हैं। जिनसे कारकों का अर्थ स्पष्ट होता है;
जैसे-
(1) भूकन मरे (करण-से) (भूखों से मरे)
(2) सपरबे आये (संप्रदान के लिये) (सपरने-स्नान करने के लिये आये)
(3) सबरे सामानें घरै लै जाव (कर्म-को) (सारे सामान को घर ले जाओ)
(4) ऊ घरै जानें (कर्म-को) (उस घर को जाना है)
(5) वे दौरें अड़े ठांडे़ (अधिकरण-पर) (वे द्वार पर खड़े हैं)
14. कुछ विकृत रूप संज्ञाओं में परसर्ग जोड़े बिना ही कारक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है; जैसे- ऐसे गुनन काऊ जनम बामुन नें होवें (ऐसे गुणों किसी जन्म में ब्राह्मण न होवें) यहाँ अधिकरण ‘में’ का अर्थ स्पष्ट आभासित होता है।
15. बुंदेली संज्ञा शब्दों की कारक–रचना
लरका (पुल्लिंग)
कारक एक वचन बहुवचन
मूल-कर्ता लरका लरकन
तिर्यक्-कर्ता लरका नें, लरकन नें,
कर्म लरका कों, खों, खां, हाँ, अँ, लरकन कों, खों, खां, हां, अै,
करण लरका सें, लरका सों, लरकन सें, लरकन सों
सम्प्रदान लरका कों, खों, खां, हां, अै, लरकन कों, खों, खां, हां,
अै, के लानें, के काजें, के लाजैं के लानें, के-काजें, के-लाजैं,
अपादान लरकन सें, लरकन सों, लरकन सें, लरकन सों,
सम्बन्ध लरका कौ, के, की, लरकन-कौ, के, की,
अधिकरण लरका में, पै, लौं, लरकन में, पै, लौं,
सम्बोधन ओ लरका ! ओ लरका हौ ! लरका हरौ !
लरकी स्त्री लिंग
कारक एक वचन बहुवचन
मूल-कर्ता लरकी, लरकनी लरकीं, लरकनीं
तिर्यक्-कर्ता लरकी, लरकी नें लरकियन नें,
कर्म लरकी कों, खों, खां, हां, अै, लरकियन कों, खों, खां, हां, अै,
करण लरकी सें, लरकी सों लरकियन सें, लरकियन सों,
सम्प्रदान लरकी कों, खों, खां हां, अैं, लरकियन कों, खों, खां, हां, अै,
के-लानें, के-काजें, के-लाजैं, के-लानें, के-काजें, के-लाजें,
अपादान लरकी सें, लरकी सों लरकियन सें, लरकियन सों,
सम्बन्ध लरकी कों, के, की लरकियन कों, के, की।
अधिकरण लरकी में, पै, लों, लरकियन में, पै, लों,
सम्बोधन ओ लरकी ! ओ लरकियन हौ !
ओ लरकियन हरौ।
विशेष – घर (अकारान्त पुल्लिंग में) घर घरनें, घरनें, घरन-नें, तथा मेज (अकारान्त स्त्रीलिंग में) मेज, मेजें, मेजने, मेजन नें आदि रूप बनेंगे।
16. संयुक्त परसर्ग
संयुक्त परसर्ग अधिकतर दो परसर्गों के संयोग से अथवा परसर्गों के समान प्रयुक्त शब्दों के पूर्व जोड़ कर बनते हैं।
‘में’ तथा ‘पै’ का ‘सें’ के साथ संयोग भी देखने में आता है। जैसे-ऊ घर में–सें गल्लौ ऐंच के बजारै ले गओ। सींके पै–सें दूद कौ बासन बिलैया ने पटक दओ।
‘के’ के साथ ‘लानें’ तथा ‘काजें’ मिला कर जो’के लानें,’ ‘के-काजें’ संप्रदान का परसर्ग माना जाता है, वह वस्तुतः संयुक्त परसर्ग है।
निम्नलिखित संयुक्त परसर्ग बुंदेली में मिलते हैं-
(1) के अर्थ — विद्या सादन के अर्थ तुषार कान्त रात दिन लगो रात।
(2) के पाछें — अपसर के आगें और घोड़ा के पाछें न रओ चाइये।
(3) के संग — गमारन के संग ना जाओ चाइये।
(4) के साथ— सज्जन के साथ सज्जन, दुरजन के साथ दुर्जन।
(5) की नाईं— पगलन की नांई काम करवौ मूरखता आय।
(6) के लानें— पंच्याटें बनाई गई तीं सुदार के लानें।
(7) के काजें — पड़ाई के काजें किताबें चानें।
(8) के जरौं (के पास) — हमें कक्का के पास नई रानें, दद्दा लौं जानें।
(9) के बिना — मताई के बिना सिंसार में कोऊ सगौ नइयां।
(10) के बीच — दोई खेतन के बीच एक मेंड़ है।
(11) के बीच में — दोई गाँवन के बीच में-सें होत सूदे चले जइयौ।
(12) के मारें— खटकीरन के मारें नींद-ई नईं आउत।
(13) के पल्लें— ऊ के पल्लें, अब का धरो जब कुड़की हो गयी।
(14) के संग— “धोबी के संग धोबी नईं होनें परत”, सुबोध ने समजाओ।
(15) के तरें— (क) आम के पेड़े के तरें नें बैठो, ऊपर से व्यामटे गिरे।
(ख) ऊ के तरें अब एकऊ पैसा बांकी नईं निकरत।
(16) के नामें — ऊ के नामें अब एकऊ पैसा बांकी नई निकरत।
(17) के इतै — सुमति के इतै लौ चले जा।
(18) तरे सें — बिछौना तरे सें दरी ऐंच लेव।
(19) में कौ —पानूं में कौ कूरा मेंक देव।
(20) में सें — उन लरकन में से एक नें कई कै मोय लड्डुवा खानें।
कारकों के सम्बन्ध में ज्ञातव्य
17. कर्ता–कारक
करने वाले को ‘कर्ता’ कहते हैं। यह कारक दो प्रकार का होता है-
(क) अविकारी, और
(ख) विकारी कारक।
अविकारी कर्ता कारक में नाम पद के मूल रूप का प्रयोग होता है। इसके विपरीत विकारी कर्ता कारक में नामपद में ‘ने’ परसर्ग जोड़ा जाता है। जैसे-
अविकारी कर्ता कारक उसी समय श्री राम माता कौंसिल्या के सामूं आकें ठाँड़े (खड़े) हो गये।
विकारी कर्ता कारक- श्री रामनें रावण खों मारो !
दोनों ही उदाहरणों में ‘श्रीराम’ कर्ता हैं। परन्तु दूसरे वाक्य में ‘श्रीराम’ के साथ ‘नें’ परसर्ग जोड़ा गया है। इसका कारण यह है कि कर्म वाच्य प्रयोगों में कर्तृपद विकारी रहता है अर्थात् नाम पद में ‘नें’ परसर्ग जोड़ा जाता है। ‘ने’ कर्ता कारक का चिन्ह है। परन्तु यह सर्वत्र नहीं जोड़ा जाता। इस सम्बन्ध में कुछ बातें स्मरण रखने की हैं-
(1) अकर्मक क्रियाओं के कर्ता के साथ ‘नें’ नहीं जोड़ा जाता जैसे- मोहन हँसत है। राम गए। सीता जू आयें (सीता जी आयेंगी)।
(2) सकर्मक क्रियाओं के कर्ता के साथ वर्तमान तथा भविष्य काल में ‘नें’ नहीं जोड़ा जाता। जैसे- मैं पानी पियत हों। किसुन रोटी खात है।
(3) नहावौ, छींकवो, तथा खाँसवौ इन तीन अकर्मक और लगभग सभी सकर्मक क्रियाओं के कर्ता के साथ केवल सामान्य भूत, आसन्नभूत, पूर्णभूत, संदिग्ध भूत, पुराघटित सम्भाव्य भूत तथा सम्भाव्य भूत काल में ही ‘नें’ विभक्ति लगाई जाती है भूतकाल के अन्य रूपों में नहीं; जैसे-
मोहन नें पानूं गिराव, (सामान्यभूत)
मोहन नें पानूं गिराव है, (आसन्नभूत)
मोहन नें पानूं गिराव हतो, (पूर्णभूत)
मोहन नें पानूं गिराव हुइये ? (संदिग्धभूत)
जो मोहन नें पानूं गिराव हो तो, (पुराघटित संभाव्य भूत)
मोहन नें पानूं गिराव होय, (सम्भाव्य भूत)
(4) बोलवो (बोलना), भूलबो (भूलना) तथा ल्यावौ (लाना) ये सकर्मक क्रियाएं उपरोक्त नियम नं0 (3) के अपवाद हैं। अर्थात् उक्त क्रियाओं के आने पर उक्त छहों कालों में ‘नें’ विभक्ति नहीं लगाई जाती; जैसे–
मोहन बोलो, (सामान्य भूत)
मोहन बात भूल गव है, (आसन्न भूत)
मोहन किताब ल्याव हतो, (पूर्ण भूत)
मोहन किताब ल्याव हुइयै ? (संदिग्ध भूत)
जो मोहन किताब ल्याव हो तौ, (पुराघटित संभाव्य भूत)
मोहन किताब ल्याव होय, (सम्भाव्य भूत)
(ङ) जिन वाक्यों में लगवौ (लगना) सकवौ (सकना) जावौ (जाना) तथा चुकबौ (चुकना) सहायक क्रियाएँ आती हैं, उनमें भी ‘नें’ का प्रयोग नहीं होता; जैसे-
मोहन रोटी खा चुको, किसुन पांनू पियन लगो, रधिया दवात गिरा गई, आदि।
18. कर्म–कारक
जिस वस्तु पर कर्ता के व्यापार का फल पड़े, उसके लिए प्रयुक्त संज्ञा या सर्वनाम को ‘कर्म’ कहा जाता है; जैसे- रामनें रावन खों मारो’ यहाँ कर्ता राम है और उनके व्यापार (मारने) का फल रावन पर पड़ता है अतएव ‘रावन’ कर्म है। यहाँ ‘रावन’ के साथ कर्म कारक के चिह्न ‘खों’ का प्रयोग हुआ है। परन्तु सभी कर्मों के साथ ‘खों’ का प्रयोग नहीं होता। प्रायः चेतन या सजीव प्राणियों के साथ यह ‘खों’ जोड़ा जाता है। निर्जीव या अचेतन पदार्थों के साथ ‘खों’ नहीं जोड़ा जाता। जैसे- मोहन ने केरा खाव (मोहन ने केला खाया)। कभी-कभी चेतन प्राणियों के साथ भी इसको नहीं जोड़ा जाता। जैसे- मोहन नें हांती देखो (मोहन ने हाथी देखा), कलुआ ने सांप माड्डारो (कलुआ ने सांप मार डाला) यद्यपि इसके विपरीत के वाक्य ‘खों’ जोड़ कर भी बोले जाते सुनने में आते हैं।
19. करण–कारक
संज्ञा का वह रूप ‘करण‘ कहलाता है जिससे किसी क्रिया के साधन का बोध होता है। जैसे- रामनें रावन खों बांन से मारो (राम ने रावण को वाण से मारा) वाक्य में बान के द्वारा मारे जाने का उल्लेख है; अतएव ‘बान’ करण कारक हुआ। ‘सें’ करण कारक का चिह्न है। यह चिह्न प्रायः सदा लगाया जाता है। भूख, प्यास, जाड़ा, हाथ, कान, आँखें आदि कुछ शब्द अपवाद हैं। बहुवचन में जब इनका प्रयोग करण के रूप में होता है तब ‘सें’ विभक्ति नहीं लगाई जाती। जैसे- मैंने सबरौ तमासौ अपनी आंखन देखो है। सबरी बातें अपने कांनन सुनी है।
बकबौ (बकना) बोलबो (बोलना) पूंछबो (पूंछना) कैबौ (कहना) विन्ती या प्रार्थना करना तथा बात करना आदि क्रियाओं के वाक्य में, जिससे ये क्रियाएँ की जाँय, उनके लिये प्रयुक्त संज्ञा या सर्वनाम के साथ भी ‘सें’ जोड़ा जाता है। जैसे- राम सें प्रार्थना करी। सीता जू नें राम सें बिन्ती करी। सुदामा ने भगवान सें पूंछी आदि।
दुआरा (द्वारा) जरियें (जरिए) मारें (मारे) कारन (कारण) जोंन कोंनऊँ तरां (येन केन प्रकारेण) आदि शब्दों के प्रयोग भी ‘सें’ के स्थान पर होते हैं।
20. सम्प्रदान कारक
संज्ञा या सर्वनाम का वह रूप ‘सम्प्रदान‘ कहलाता है जिसके लिये कोई क्रिया की जाय। खाँ, के लानें, के-काजें, के-वास्ते, की-अथवा के खातर आदि इसके चिन्ह हैं। जैसे- ‘राम ने गरीबन खों दान दव’ (राम ने गरीबों को दान दिया) में ‘गरीबन खों’ सम्प्रदान है। इसका चिन्ह सदा लगता है। ऊ-के लानें, काजै, वास्ते या खातर आदि इसके अन्य उदाहरण हैं।
परसर्ग ‘के लानें’ के स्थान पर अन्य शब्द युक्त नामपदों का भी प्रयोग होता है। जैसे-तुमाय बास्ते, ऊ के पीछूं, तुमाय लेखें, सफलता हेतु, धन के अर्थ, पूजाके निमित्त, जीवन के प्रति, आदि।
21. अपादान कारक
संज्ञा या सर्वनाम का यह रूप ‘अपादान‘ कदलाता है जिससे दूर होने, निकलने, डरने, रक्षा करने, विद्या सीखने या तुलना करने के अर्थ आदि का बोध हो। इसका चिन्ह ‘सें’ है। जैसे- मैं दिल्ली सें आव (मैं दिल्ली से आया) नदी परवत सें निकरत (नदी पर्वत से निकलती है) मैं तुमसें डरात हों (मैं तुमसे डरता हूँ) तुमने मोय मौत सें बचाव (तुमने मुझे मृत्यु से बचाया) इन वाक्यों में ‘दिल्ली’ ‘परबत’ ‘तुम’ तथा ‘मौत’ अपादान कारक है। इसका चिन्ह ‘सें’ सदा लगाया जाता है। कहीं इसके अपवाद भी मिलते हैं; जैसे कड़ी ओंठन, चड़ी कोठन (कड़ी ओठों, चढ़ी कोठों)।
22. सम्बन्ध कारक या विशेषक
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सम्बन्ध किसी और वस्तु से प्रगट है, वह सम्बन्ध कारक या विशेषक है। इसका चिन्ह को, के, की है जिनको विशेषक कहा जाना अधिक उपयुक्त है। जैसे- मोहन कौ लरका, ऊ के बैलवा, मौड़ी की पोथी। इन वाक्यों में ‘मोहन’ ‘ऊ’ तथा ‘मौड़ी’ सम्बन्ध-कारक हैं। सम्बन्ध कारक से अधिकार, रिश्ता, प्रयोजन, तथा परिमाण आदि प्रकट होते हैं। सम्बन्ध कारक में विभक्ति सदा लगाई जाती है। विभक्ति लगाये जाने के सम्बन्ध में कुछ बातें स्मरणीय हैं।
(1) ऐसी पुल्लिंग एक वचन संज्ञा के पूर्व ‘कौ’ विभक्ति लगाई जाती है जिसके बाद कारक की कोई विभक्ति न हो। जैसे-मोहन कौ लरका स्कूल में है। यहाँ ‘लरका’ के बाद कोई विभक्ति नहीं है। यदि पुल्लिंग एक वचन सज्ञा के पूर्व कोई विभक्ति हो तो उसके पहले ‘कौ’ के स्थान पर के’ हो जायगा। जैसे- मोहन के लरका खों पकरौ। यहाँ ‘लरका’ के बाद ‘खों’ विभक्ति है अतः लरका के पूर्व की ‘कौ’ विभक्ति ‘के’ हो गई है। बहुवचन के पूर्व ‘के’ जोड़ा जाता है; जैसे- राजा के हांती जारय हैं (राजा के हाथी जा रहे हैं)।
(2) स्त्री लिग संज्ञा (एक वचन और बहुवचन) के पूर्व ‘की’ विभक्ति आती है। जैसे- मोहन की मोंडी, मोहन की बिटिया।
(3) विशेषकों के साथ अन्य शब्द युक्त नामपद भी देखने में आते हैं। जैसे-अपनें ऊपर, समुन्दर के अन्दर, घर के भीतर, नदिया के बीच आदि।
23. अधिकरण कारक
संज्ञा या सर्वनाम का वह रूप ‘अधिकरण‘ है जो क्रिया का आधार हो।
इसकी विभक्तियाँ में, पै, लौ, और ‘लौक’ ‘से’ जैसे- मगरा नदी में है। चिरइयाँ डार पै बैठी है। वाक्यों में ‘नदी’ और ‘डार’ अधिकरण कारक हैं। यहाँ मगरा के होने का आधार ‘नदी’ तथा चिरइयों के होने का आधार ‘डार’ है। अधिकरण कारक की विभक्ति सर्वत्र लगती है। किन्तु यदि अधिकरण कारक की संज्ञा का प्रयोग दो बार हो तो विभक्ति का लोप हो जाता है। सेर बन-बन डोलो। इसी प्रकार कभी-कभी कुछ अकारान्त संज्ञाओं के साथ भी (जिनसे कि स्थान या काल का बोध हो) विभक्ति नहीं लगती। जैसे-ई जागां बड़ी भीर है। ऊ बेरां मोय टिक्का नें हतो (उस समय मुझे स्मरण नहीं था) ऊ समय मोरी सुद लौट गई ती। मोय कछू नजर नहीं आउत। अकबर के हांत सबरे-ई किले आ गय। चिठिया तौ काल दुपरै-ई आ गई ती। ऊ रात भौत देर लौ काम करो। नदिया लौ मोरे संगे चलौ (नदी तक मेरे साथ चलो) नदिया लौक मोरे संगे चलौ, आदि प्रयोग ज्ञातव्य है। अन्य जिन अनेक अर्थों में अधिकरण कारक का प्रयोग होता है उनके प्रयोग नीचे दिये जा रहे हैं; जैसे-चिठिया तौ काल दुपरै-ई आ गई ती।
24. सम्बोधन कारक
संज्ञा के जिस रूप से किसी को पुकारना, चेतावनी देना, या सम्बोधित करना आदि सूचित हो वह सम्बोधन है। जैसे- ये राम रच्छया करौ (हे राम ! रक्षा करो) अथवा अरे मूरख समर जा (अरे मूर्ख ! संभल जा) ‘ये राम’ और ‘मूरख’ सम्बोधन कारक हैं। सम्बोधन कारक चिन्ह – ‘ये’ (हे) ‘अरे’ आदि संज्ञा के पूर्व आते हैं। जैसे- ‘ये मैया !’ परन्तु ‘रे’ आदि कुछ सम्बोधन शब्द संज्ञा के पूर्व और पश्चात् दोनों ही प्रकार से आते हैं। ‘रे मैया’! या ‘मैया रे’। कहीं-कहीं ‘रे’ के पूर्व ‘काय’ प्रश्न वाचक भी विशेष बल देने के लिये जोड़ दिया जाता है। जैसे- काय रे दुस्ट !
सम्बोधन की विभक्ति सदा नहीं लगाई जाती है। जैसे ‘राम’ तुम कितै चले गये (राम तुम कहाँ चले गये) ?
यह पहले कहा गया है कि कुछ विद्वान् सम्बन्ध की तरह सम्बोधन को भी कारक नहीं मानते क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध क्रिया से नहीं होता। दूसरी बात यह है कि कहीं उसका अन्त भी कर्ता आदि कारकों में हो जाता है और कहीं सम्बोधन मात्र रहता है अतः इसको प्रयोग सम्बन्धी अपनी कोई विशेषता नहीं है।
हिन्दी की तरह बुंदेली में भी विस्मयादि बोधक अव्यय सम्बोधन कारक के रूप में प्रयुक्त होते हैं। परन्तु वस्तुतः इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
कारकों की विभक्ति के सहित और रहित होने पर दोनों वचनों तथा दोनों लिगों में संज्ञा शब्दों में विचार किया जा चुका है।
25. कारकों में दो–दो परसर्गों का एक साथ प्रयोग
कभी कभी दो-दो परसर्गों का एक साथ प्रयोग भी देखने में आता है; जैसे—
गड़ई में सें पानूं ले लेव। पेड़े पै सें आम गिरन लगे। मोंडा छत पै सें गिर परो। दोई में सें उतै कोऊ नें हतो। ऊ बड़ी गरीब हालियत में सें कैसऊं कें अपनी जिन्दगी टेर करत। कुजानें इन में सें कौन लरका कैसौ कड़त ? कछू दूर पै सें-ई ऊ नें मोय देखो। माटी में कौ डरो नांज नई खात। छत पै खों चड़कें बंदरा ऊदम दंय रात।
26. बुंदेली कारकों का प्रयोग
(क) मूल कर्ताकारक
कर्ता कारक के मूल तथा विकृत दोनों ही रूप बुंदेली में मिलते हैं। मूल (विभक्ति हीन) कर्ता कारक निम्नांकित अर्थों में प्रयुक्त होता है-
(1) वस्तु के उल्लेखमात्र में— लरका, लरकी, पाप, पुन्य आदि।
(2) उद्देश्य के अर्थ में — पानी बरसो।
(3) उद्देश्य पूर्ति में — बड़े लाट साब बन गये।
(4) स्वतंत्र कर्ता के अर्थ में — रात होई नें पाई कै पई-पावनों आगओ।
(5) स्वतंत्र उद्देश्य पूर्ति के रूप में — उनकौ सिरपंच बनवो कोऊ खों अच्छौ नई लगो।
(6) सपरबो, छींकबो आदि कुछ शरीर व्यवहार सूचक क्रियाओं के भूत कालिक कृदन्त से बने कालों को छोड़कर शेष अकर्मक क्रियाओं तथा बकवो, भूलवो, आदि कुछ सकर्मक क्रियाओं के सब कालों में प्रधानकर्ता ही प्रयुक्त होता है। जैसे- हम जात। ऊ कछू नें बोलो।
27.कर्मकारक
कर्ता कारक की तरह कर्म भी मूल और विकृत दोनों रूपों में मिलता है।
जैसे—
(1) मूल कर्मकारक
(1) प्रमुख कर्म के रूप में — राम नें किस्सा कई।
(2) कर्म की पूति के रूप में — राजा ने फकीर खां राज दे दओ।
(3) अकर्मक क्रियाओं के साथ सजातीय कर्म के रूप में— सिपाई नें चोर खों खूब मार मारी।
(4) अपरिचितअथवा अनिश्चित कर्म के रूप में—दद्दा एक लरकनी ढूढ रये हैं।
(2) विकृत कर्म कारक
(1) निश्चितकर्म के रूप में – मास्टर सा0 ने लरकन खों मारो।
(2) व्यक्तिवाचककर्म के रूप में — हमराम खां जानत।
(3) अधिकार वाचक कर्म के रूप में — सिपाई सादू खों खोज रओ।
(4) सम्बन्धवाचक कर्म के रूप में — बाप ने लरका खों बुलाओ।
(5) मनुष्यवाचीसार्वनामिक कर्म के रूप में — वे तुमें ढूंढ रय ते।
(6) कर्म वाच्य के भी वे प्रयोग के उद्देश्य के रूप में — कभऊं–कभऊं हमें सोऊ बुला लेत जाओ।
(7) संज्ञा के समान प्रयुक्त किये जाने वाले विशेषण शब्दों में— गरीब की को सुनत ?
(8) बुलाबो, सुआबौ, जगावौ आदि कुछ रूढ़और यौगिक क्रियाओं के साथ भी गौंण कर्म आता है। जैसे– मताई ने मोड़ा खों सुआवो है, ऊखों नें जगाइयो।
28.करणकारक
बुंदेली में करण कारक का प्रयोग निम्नांकित रूपों में होता है–
(1) साधन के रूप में— बन्दूक सें सेर मारो।
(2) कारण प्रदर्शन के लिये— विद्या सें मान वड़त।
(3) रीति प्रदर्शन के रूप में — धीरज सें काम लेओ, हमाई बात ध्यान से सुनो।
(4) परिवर्तनसूचना में— साव कौ लरका नौकर से अपसर हो गओ।
(5) दशा दर्शाने में — पंडित जी सुभाय सें अच्छे मीठे हैं।
(6) कर्मवाच्य,भाववाच्यऔर प्रेरणार्थक क्रियाओं के कर्ता रूप में— राम सें उठो नई जात। ऊ काम मोसें नई हो सकत। चोर सें घर की रखाई,नौकर सें खेती कराई।
(7) कैबो (कहना) पूछबौ आदि क्रियाओं के साथ गौण कर्म के रूप में—ऊनें मारे से यैसीई कई। सुन्दर नें नौकर सें सब बातें पूंछीं। तुम मोसें यैसी बात कैसें बोलीं ?
29.सम्प्रदानकारक
बुंदेली में सम्प्रदान का प्रयोग निम्नांकित रूप में होता है—
(1) द्विकर्मकक्रिया के गौण कर्म के रूप में— सेठ जी ने बामन खों दान दयो। बरेदों ने गैया खों चारो डारो।
(2) अपूर्ण सकर्मक क्रिया के मुख्य कर्म के रूप में— रामगोपाल खों अपनो भैया बताउत। ऊ अपने बाप खों गदा समजत।
(3) उद्देश्य प्रदर्शन— सोवा (शोभा) के लाने बगीचा लगाउनें परो। मोय रैवे (रहने) के लानें घर चानें।
(4) अवधारणाके अर्थ में—मुख्य क्रिया को क्रियार्थक संज्ञा के साथ सम्प्रदान कारक का प्रयोग होता है– हम चिठिया लिखवे के लानें बैठे।
(5) निम्नांकित क्रियाओं के साथ उद्देश्य प्रायःसम्प्रदान कारक में आते हैं–
(क) आवश्यकताबोधक क्रिया के साथ— तुमें ऊ काम करने परै।
(ख) पढ़बो और आबो (आना) क्रियाओं के योग से बनी अवधारणा बोधक क्रियाओं के साथ— ऊ की दसा देखकैं मोखोंरो–आई–परी।
(ग) दैबौ या परबौ क्रियाओं से बनी संयुक्त क्रियाओं के साथ—मो खों बाजौ सुनाई परो। ऊ खों गरीब अमीर एकई सौ दिखाई देत।
30. अपादान कारक
बुंदेली में अपादान कारक का प्रयोग निम्नांकित रूपों में होता है-
(1) काल अथवा स्थान के निर्देश के लिये— ऊ काल सें घरै नइयां। हम लखनऊ सें आये।
(2) भिन्नता प्रदर्शन के लिए — पेड़े सें फल गिराे। गाँव सें बरात चली गई।
(3) तुलना के लिये— ऊ घर सें बड़ौ घर अच्छो है। तै ऊ सें बड़ौ नई हो सकत।
(4) निर्धारण के लिये — इन किताबन में से तुमें कोंन अच्छी लगत ?
(5) मागवो, लैवो, बचवो, रोकवो आदि क्रियाओं के साथ अथवा कारण दर्शन में — बुरए सें बचकें चलौ। ऊ मो सें रुपैया लेगव।
(6) बायरें (बाहर) दूर, आगे, अव्ययों के साथ — घर सें बायरें जाबो पाप है। मोरौ खेत गाँव सें दूर है। खेत सें आगें डांग है।
31. सम्बन्ध कारक
सम्बन्ध-कारक का प्रयोग अन्य कारकों की अपेक्षा अधिक व्यापक रूप में निम्नांकित रूपों में होता है-
(1) अधिकार प्रदर्शन में— हमाओ गाँव। बाप को धन। लरकन कौ बाप।
(2) सम्बन्ध व्यक्त करने में — घर कौ आदमी। हांत की उंगरिया।
(3) कार्य–कारण भाव में — ईंट कौ घर-सोने को गानों (जेवर) नकरिया के किवार।
(4) पारिवारिक सम्बन्ध के व्यक्तीकरण में — सेठ जी की घरवारी। हमाओ हलकौ भैया।
(5) आधार आधेय भाव प्रदर्शन में — बामनन को पुरा। घी की चपिया।
(6) गुण–गुणी भाव में — सेनां की बड़ाई। भरोसे (विश्वास) को नौकर, चाकर। घी की चिकनाई।
(7) सेव्य सेवक भाव में— भगवान कौ भगत। सेट जी कौ डिलाईवर (ड्राईवर)।
(8) प्रयोजन प्रदर्शन में — खेती के बैलवा। पियत कौ पानी।
(9) परिमाण प्रदर्शन में — दो हाँत जांगां। चार पैली को खेत।
(10) वाह्य वाहक भार में — गाड़ी कौ घोड़ा। हर के बैल।
(11) मूल्य प्रदर्शन में— रुपैया को दो सेर गोऊँ।
(12) काल अथवा अवस्था बतलाने में — पुराने जमाने की बात। पाँच बरस कौ लरका।
(13) सम्पूर्णता प्रदर्शन के लिये— घर के घर, गाँव के गाँव।
(14) अवधारण के अर्थ में — रांड़ की रांड़ गई, चार हाँत कौ नुंगरी-ऊ लै गई।
(15) नियमितता प्रदर्शन में — मईना (महीना) के मईनां, बरस के बरस।
(16) विशेषता प्रदर्शन में — कान को कच्चौ। बात कौ पक्कौ।
(17) असम्भावना व्यक्त करने के अर्थ में — सम्बन्ध कारक प्रायः नईं के साथ आता है- जा बात नईं होनें। ऊ नईं मरत।
क्रियार्थक संज्ञा और भूत कालिक कृदन्त जब विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं तब सम्बन्ध कारक दूसरे कारकों का प्रतिनिधित्व करने लगता है जैसे—
(क) कर्ता के लिये — भगवान कौ दऔ सब-ई है।
(ख) कर्म के रूप में — हमाए गाँव की लूट मची है।
(ग) करण के रूप में— भूक (भूख) कौ मारो का नई करत ?
(घ) अपादान के रूप में — डार कौ चूकौ बंदरा, असाड़ कौ चूकौ किसान।
(ङ) अधिकरण के रूप में — खेत में नाज (अनाज)।
क्रिया द्योतक और तत्काल बोधक कृदन्त अव्ययों के साथ सम्बन्ध कारक कर्ता और कर्म के रूप में आता है; जैसे—
कर्ता के रूप में— हमाये रात तुमाओ कोंन का बिगार सकत।
कर्म के रूप में— चिठिया लिखत लिखत रामू आ गओ।
32. अधिकरण कारक
बुंदेली में अधिकरण कारक की दो विभक्तियों में, पै अथवा ऊपर, का प्रयोग होता है। पर इन दोनों के प्रयोग की अपनी अपनी विशेषताएं हैं-
कहीं ‘लों’ का भी प्रयोग देखने को मिलता है। ‘में’ का प्रयोग निम्नांकित रूपों में होता है-
(1) अभिव्यापक आधार में— गुर में मिठास, तिलों में तेल। खेत में नाज।
(2) औपश्लेषिक आधार में— ऊ नदिया में उन्नां कपरा धोउत।
(3) वैषयिक आधार में — भजन में रुची। काम में ध्यान।
(4) मूल्य बतलाने में — दस रुपैया में गओ।
(5) स्थान निश्चित करने में — सतियन में सीता। राजन में भोज।
(6) कारक प्रदर्शन में — किरोध (क्रोध) सें आदमी टेड़ौ हो जात।
(7) मेल अथवा अन्तर बतलाने में— आतमा और परमात्मा में कछू भेद नइयां। बाप बेटा में नई बनत।
(8) स्थिति प्रदर्शन में— मैं बड़ी मुसीबत में फँस गओ।
(9) भरवौ, समावो, घुसबो, मिलवो आदि कुछ क्रियाओं के साथ व्याप्ति के अर्थ में भी अधिकरण कारक की विभक्ति ‘में’ का प्रयोग होता है। जैसे-घर में धन भरो है। भले में बुरओ नई समात। करिया में कौनऊं रंग नई मिलत।
‘पर’ अथवा ‘ऊपर’ विभक्तियों का प्रयोग निम्नांकित स्थानों में होता है-
(1) स्थान प्रदर्शन में — मोरो घर सड़क के ऊपर है।
(2) एकादेशाधार में — कोनऊँ घर पै बैठो है।
(3) दूरी बतलाने में— दो कोस पै हमाओ गाँव है।
(4) विषयाधार में — हमाओ तुम पै विश्वास है।
(5) कारण द्योतक में — छोटी सी बात पै झगड़ा हो गयो।
(6) अधिकता के अर्थ में— दिन पै दिन कड़ गये। तगादे पै तगादे भेजे।
(7) स्वभाव प्रदर्शन में— वड्डन की चाल नईं चलो जात।
(8) विरोध अथवा अनादर प्रदर्शन में — जले पै नोंन। ऊ समजाय पैई नें मानो (वह समझाने पर भी नहीं माना)।
(9) अनन्तरता प्रदर्शन में — दवाई पै परेज। अपने आप पै काम होजैय।
(10) निश्चित काल बतलाने में — घंटा घंटा पै दवाई देनें।
(11) चढ़वो, मरवो, छोड़वो, आबो आदि क्रियाओं के पूर्व प्रायः ‘पै’ विभक्ति का ही प्रयोग होता है। जैसे घर पै चड़वो। नाम पै मरवो। दूसरन पै काम छोड़वो। बुलाय पै आवो।
कहीं बुंदेली में हिन्दी की ही तरह ‘पर’ का भी प्रयोग होता है।
‘हमारे लौ’ ‘उतै लौ’ आदि प्रयोगों में ‘लौ’ का व्यवहार भी देखने में आता है, जो प्रयोगों के अनुसार अपनी सार्थकता को सूचित करता रहता है। परन्तु इसका प्रचलन अधिकरण के परसर्ग के रूप में कम हो चला है।
33. सम्बोधन–कारक
वस्तुतः सम्बोधन कारक की कोई स्वतन्त्र विभक्ति नहीं है। अन्य बोलियों की तरह इसमें में विस्मयादि बोध अव्यय सम्बोधन कारक की विभक्ति के रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं।
अविकारी शब्द
रमा जैन
अव्यय
बुंदेली में शब्द ‘विकारी’ होते हैं और कुछ ‘अविकारी’। ‘अविकारी’ का अर्थ होता है कि जिसमें विकार या परिवर्तन न हो। ये अविकारी शब्द ही ‘अव्यय‘ कहे जाते हैं। ‘अव्यय’ का अर्थ है- जिसमें व्यय (अर्थात् परिवर्तन या हेर-फेर) न हो।
कहा है कि-
“सदृशं त्रिषु लिगेंषु, सर्वासु च विभक्तिषु।
वचनेषु च सर्वेषु, यन्नव्येति तदव्ययम्।।”
“यन्नव्ययेति तदव्ययम्’ की व्याख्या से भी स्पष्ट है कि ‘अव्यय’ एक प्रकार की नाम शब्दावलि है। यह तथ्य भाषा इतिहास से भी प्रकट होता है। वस्तुतः संस्कृत तथा हिन्दी में प्रचलित चिरम्, पूर्णतया, सर्वतः, आदि नाम शब्दों के क्रमशः द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी कारक-विभक्ति-युक्त पद ही हैं, पर इन्होंने अपनी विभक्तयात्मकता समाप्त करके एक रूपता अपना ली है। अतएव अविभक्तक (Indeclinables) कहला रहे हैं। अपनी इस अविभक्त्यात्मकता के कारण ये व्याकरणिक सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिये वाक्य में प्रयुक्त दूसरे पदों का आश्रय लेते हैं। वस्तुतः आधुनिक भाषाशास्त्रियों ने इसीलिये इन शब्दों को वाक्यान्तर्गत शब्द (Syntactical classes) के अन्तर्गत रखा है।
संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि में नाम, सर्वनाम शब्दों के परे तद्धित के कतिपय प्रत्यय लगाने से अव्यय बन जाते हैं। प्राचीन भाषाओं की यह विशेषता आधुनिक भारतीय-आर्यभाषाओं एवं बोलियों में भी पूर्णतया सुरक्षित है और यहाँ भी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा प्राचीन अव्ययों से ही अव्यय बनते हैं। अव्यय के चार भेद हैं-
- क्रिया-विशेषण,
- सम्बन्ध सूचक,
- समुच्चय बोधक,
- मनोभाव व्यंजक ये चार भेद हैं।
- 1.क्रिया–विशेषण
परिभाषा – क्रिया विशेषण उन शब्दों को कहते हैं जो क्रिया की विशेषता बतलावें। जैसे ‘ऊ आदमी हरां-हरां आ रओ है’ ( वह व्यक्ति धीरे-धीरे आ रहा है) इस वाक्य में ‘हरां-हरां’ शब्द व्यक्ति के आने (क्रिया) की विशेषता बतला रहा है। अतएव यह (हरां-हरां) क्रिया-विशेषण है। परन्तु कुछ क्रिया विशेषण ऐसे भी हैं जो विशेषण अथवा दूसरे क्रिया-विशेषण की भी विशेषता बतलाते हैं। अतः क्रिया विशेषण की अधिक ठीक परिभाषा इस प्रकार होगी- जो शब्द किसी क्रिया की या विशेषण की, या किसी दूसरे क्रिया-विशेषण की विशेषता का बोध करावें, वे क्रिया-विशेषण हैं। उदाहरणार्थ-
(क) क्रिया की विशेषता — जैसे-ऊ हरां-हरां आ रओ है (वह धीरे-धीरे आ रहा है)।
(ख) विशेषण की विशेषता— जैसे- मोहन बड़ौ अच्छौ लरका है। (मोहन बड़ा अच्छा लड़का है) इस वाक्य में ‘बड़ौ’ शब्द ‘अच्छौ’ विशेषण की विशेषता बतला रहा है।
(ग) क्रिया–विशेषण की विशेषता— जैसे, मोहन भौत धीरें चलत (मोहन बहुत धीरे चलता है) इस वाक्य में ‘भौत’ शब्द ‘धीरे’ क्रिया विशेषण की विशेषता बतला रहा है।
उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि परम्परागत व्याकरणों में वैयाकरणों यहाँ तक कि अनेक भाषा-शास्त्रियों द्वारा भी ‘क्रिया विशेषण’ को अव्यय कहा जाता रहा है। लेकिन इस कोटि के अन्तर्गत परिगणित शब्दों का प्रयोग उक्त परिभाषा के अनुसार विकारी रूप में भी होता है तथा वे अन्य शब्द भेदों की भाँति भी प्रयुक्त होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रचलित हिन्दी भाषा के क्रिया-विशेषणों का प्रयोग रूढ़ वैयाकरणिक अव्ययों की भाँति ही नहीं हो रहा है; अपनी अभिव्यंजना सामर्थ्य बढ़ाने के लिये क्रिया विशेषण भी भाषा में परम्परा से हटकर नवीन रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं।
डा. बाहरी का कहना है कि कुछ लोग विशेषण के विशेषण को भी क्रिया-विशेषण कहते हैं। किन्तु यह सही नहीं है। ‘वह बहुत अच्छा आदमी है’ में ‘अच्छा’ पर बल देने के लिये ‘बहुत’ शब्द लाया गया है। एक तरह से यह दोहरा विशेषण है। हिन्दी की प्रकृति के अनुसार एक से अधिक विशेषण एक साथ आ सकते हैं। उनसे अर्थ में बल आता है। उदाहरण-
लम्बा— चौड़ा, सीधा-सादा, चंगा-भला।
इसी तरह दो क्रिया-विशेषण भी एक-साथ आ सकते हैं, जैसे वह बहुत तेज दौड़ा, वह बड़ी सावधानी से आगे बढ़ा। ये संयुक्त या सामासिक क्रिया-विशेषण हैं।
इस प्रकार डा. बाहरी ने क्रिया विशेषण को अधिक महत्वपूर्ण अव्यय मानते हुए क्रिया विशेषण की पूर्वोक्त प्रथम परिभाषा के अनुरूप ही ‘क्रिया की विशेषता बतलाने वाला’ क्रिया विशेषण माना है, तुलना कीजिये –
लड़का जाता है, और लड़का वहाँ जाता है। (कहाँ ?)
मैं लिखता हूँ, और मैं सावधानी से लिखता हूँ। (कैसे ?)
मैं आउंगां, और मैं आज आऊँगा (कब ?)
मैं जानता था, और मैं कुछ जानता था (कितना ?)
ऊपर के वाक्यों में ‘वहाँ’ ‘सावधानी से’ ‘आज’ और ‘कुछ’ क्रिया-विशेषण हैं क्योंकि ये किसी न किसी क्रिया में एक विशेष बात जोड़ते हैं।
क्रिया विशेषण शब्दों का विभाजन
बुन्देली के समस्त क्रिया विशेषण शब्दों का तीन प्रकार से विभाजन किया जा सकता है-
- प्रयोग की दृष्टि से,
- रूप की दृष्टि से और
- अर्थ की दृष्टि से।
- प्रयोग की दृष्टि से बुन्देली में तीन प्रकार के क्रिया विशेषण मिलते हैं- 1. साधारण 2 संयोजक और 3. अनुबद्ध क्रिया विशेषण। विवरण निम्न प्रकार है।
साधारण क्रिया–विशेषण
वाक्य में जिन विशेषणों का प्रयोग स्वतंत्र रूप में होता है उन्हें साधारण क्रिया-विशेषण कहा जाता है। जैसे-ऊ भौत हँसत। गाड़ीं धीरे-धीरें चलत। तुम काँ गय ते ? आदि।
संयोजक क्रिया–विशेषण
जो क्रिया-विशेषण किसी उप वाक्य से सम्बन्धित होते हैं वे संयोजक क्रिया विशेषण कहलाते हैं। जैसे जितै पैलऊँ गाँव हतो उतै अब मेंदान है। जैसौ काम ऊ सौ नाँव (जैसा काम, वैसा नाम)
अनुबद्ध क्रिया–विशेषण
जो क्रिया-विशेषण शब्द समुच्चय-बोधक अव्ययों को छोड़ कर अन्य किसी भी शब्द भेद के साथ अवधारण के लिये आते हैं वे अनुबद्ध क्रिया-विशेषण कहलाते हैं। जैसे-तुमाये आवे भर की देर है। गोपाल काल सोऊ आव तो।
रूप की दृष्टि से भी क्रिया विशेषण के तीन प्रकार सम्भव हैं, जैसे- (1) मूल क्रिया विशेषण, (2) यौगिक क्रिया विशेषण और (3) स्थानीय क्रिया विशेषण।
1. मूल क्रिया–विशेषण
जो क्रिया-विशेषण शब्द के मेल से नहीं बनते वे मूल क्रिया विशेषण कहलाते हैं। जैसे-तुमाव घर नीरो है। हम पाछू लौट गय। सदां, निरन्तर, फौरन, झट्टपट्ट, जल्दी, तड़ातड़, बिरोबर, जरा, हमेसां, भीतरी, बायरें, अब, तब, कब, जब, कां, कऊं, इतै, इतई, उतै, उतई, काय (क्या) तौ, हओ (हां) अवस्य, जरूर, नई आदि।
कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने क्रिया विशेषण द्विरुक्त तथा क्रिया विशेषण-युग्मक को भी मूल क्रिया विशेषणों के अन्तर्गत परिणित किया है परन्तु रूप की दृष्टि से वर्गीकरण के आधार पर इनका परिगणन वस्तुतः यौगिक क्रिया-विशेषणों के अन्तर्गत किया जाना चाहिये।
2. यौगिक क्रिया–विशेषण
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया की धातु, अव्यय और शब्दों की पुनरुक्ति आदि दूसरे शब्दों के मेल से बने क्रिया विशेषण शब्द यौगिक क्रिया–विशेषण कहलाते हैं जैसे-
(क) 1. संज्ञा से — रातलों, दिनभर, छिनभर, स्यात आदि।
- सर्वनाम से — इतै, उतै, कितै, जैसो, कैसो आदि।
- विशेषण से — पैलो, धोरो आदि।
- क्रिया की धातु से— जात, बोलत, बैठो आदि।
- अव्यय से — इतै तक, इतैलों, कब को, झट्ट, पट्ट, आगें, आंगू, अंगारू, अंगाऊ, सामनें, सामूं, बाद, आज, काल, तुरत, बेर-बेर, अब, अब-ई, कब, जब, तब आदि।
(ख) शब्दों की पुनरुक्ति से भी यौगिक क्रिया-विशेषण शब्द बनते हैं। जैसे-
- संज्ञा की पुनरुक्ति से — घर-घर, घरीं-घरीं, रोज-रोज आदि।
- दो भिन्न संज्ञा शब्दों के मेल से — रात-दिन, देश-विदेश, अथँय–अँदियाई, संजा-सकारें आदि।
- विशेषणों को पुनरुक्तित से थोरी-थोरी, ठीक-ठीक, साप-साप, (साफ-साफ)।
- क्रिया विशेषणों की पुनरुक्ति से— धीरें-धीरें, कभऊं-कभउं, (कभी-कभी), पीछूं-पोछूं, पाछूं-पाछूं, पीछें-पीछें, जल्दी-जल्दी, बेर-बेर, कउं-कउं, कितै-कितै, का-का, कबै-कबै, जब-जब, तब-तब, ज्यों-ज्यों, त्यों-त्यों आदि।
- दो भिन्न क्रिया-विशेषणों के योग से इतै-उतै, नांय-मांय, नेचैं-ऊपरै, आंगू-पाछूं, जां-कऊं, तौ-फिर, तब-कऊं, जब-तब, जितनौ-उतनो, जितनी-उतनी आदि।
- विशेषणों और संज्ञा शब्दों के योग से— एक-संग, हर घरीं, एक वेर आदि।
- अव्यय के साथ अन्य शब्दों के योग से — भरपेट, हररोज, नितरोज बिन जानें, आदि।
- 8. विशेषण और पूर्व कालिक कृदन्त के योग से— भौतेक (बहुतेक) खास कें, खासकर, एक एक करकें आदि।
- क्रिया-विशेषणों के साथ परिसर्ग जोड़ने पर भी क्रिया विशेषण जैसे-आगे खों, (आगे को) उतै खों (उधर को) जितै खां (जिघर को) कांसें (कहाँ से) उतई सें (वहीं से) धीरे सें, कब सें, पास सें, कितै-पे (कहाँ पर) दूर पैसें (दूरपर से) आदि।
- क्रिया-विशेषणों के साथ विशेषक जोड़ने पर भी यौगिक क्रिया-विशेषण बनते हैं। जैसे- अबकौ, कबकौ, अबकी, कबकी, जबको, तबकौ, जबकी, तबकी आदि।
- उपसर्ग जोड़कर क्रिया विशेषण बनाये जाते हैं, जैसे- प्रतिदिन, सनमुख, तत्काल, अलग, बेकार, बिरथां, भरपेट आदि।
- 3.स्थानीय क्रिया–विशेषण
जब संज्ञा सर्वनाम आदि किसी परिवर्तन के बिना क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं तब वे स्थानीय क्रिया विशेषण कहे जाते हैं। जैसे—
(1) संज्ञा— तुम पड़ियो सिर। ऊखों पथरा आउत। मोय आज जानें हैं। मैं भ्यानें (कल) जेंव। मैं रोज घूमवे जात्तो (जाता था) परों (परसों) सब चले जैंय (जावेंगे)।
अन्य तत्व-संयुक्त संज्ञाएं भी क्रिया विशेषणों के रूप में प्रयुक्त होती हैं। जैसे- अन्त में ऊ नें सब कछू के दई। हज्जू सबेरे–ई घूमवे चलो जात। दिनभर परो रओ (रहा) घंटा भर में लौट आव। महात्मा काम कौ बौलत। दिन डूबे–लौ लौट आव। संजा–लौ (संध्या तक) इतैं को बैठो रैय ? ऊ मनई–मन सोचत। मौड़ी को रोवौ किरम–सें (क्रमशः) धीरौ हो गव। ऊ के मन में घरी घरी एकई बात उठरई। आज काल ऐसो जमानौ आ गव कै का कइये ?
(2) सर्वनाम – हऔ तुम चलो। ऊ कौ कछू हिरा गओ। जीवन की पूरनता पै कोऊ पोंचो है ? (कोऊ नई) ऊ खुदई नई जानत कै का हो रओ है। तुम संगीत का सीक हौ, नईं सीक पाव (पाओगे) अपनी गैल स्वयं बनाउने परत। जो-जो दिखात सबई में सारांस नई होत। नें कछू कोऊ कर रओ, नें कछू कै रओ (कह रहा है) लेब साव मैं जौ चलो (लीजिये साहब मैं यह चला)।
अन्यतत्व – संयुक्त सर्वनाम भी क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे- कछू भी हो जाय मैं तों जेंव। इतने झेल मैं तौ भौत कछू हो सकत। सबरे-ई दिन कछू-नें कलू करत-ई रात। का-सें का हो गव? मैं अपनें आप देख लेंव। धरती आप–ई–आप नई फूलत फरत। खदरा-आप सें–आप नई भरत। ऊ ई–तरां नई पकरो गव। अपन खां का करनें? ऊ को मन मांय खां जान लगो।
(3) विशेषण – लरका अनमनों (उदास) बैठो है। वे और भूके हैं। मो सें कैसें बचहौ (बचोगे)। ऊ ऐसें भगो कै मुरक के पाछूं खों नई देखो। मैं जैसी हों ऊसई (वैसी ही) काय (क्यों) नई रन देत ? उनें जैसें मोरौ पतौ नें परो होय ? जैसें दद्दा बऊ मानवें, ऊसई करियौ। ओस की बूंद कैसी चमकत ? जुर इतनो हतो कै का कइये ? इतने से काम कौ कितनों लैव? काम जितनौ बिगरत है उतनो बनत नइयां। महात्मा थोरौ-बोलत। ऊ ठीक कात। खम्भा सूदे गाड़ौ। आलस ऊँचौ नई उठाउत। ऊ पैलें जात (वह पहले जाता है)।
अन्य तत्व – संयुक्त विशेषण भी क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे वैसे–ई जंजर-पंजर बैठो। वैसें–तौ मोय कछू डर नइयाँ। बिश्वास आदमन खों उतनों–ई (उतना ही) बनाउत। संजा में पैलें-पैलें जाव। प्रश्न तो सूदो सादो पूछो जा सकत। जुम्मेदारी है कै नई, कम–सें–कम वे मानतीं तौ हैं। अधक–से–अधक साउन से कातिक लौ की टिया टार देव। बे बिरकुल्ल ने खेंय, थोरौ-सौउ नईं (वे बिल्कुल नहीं खावेंगे, थोड़ा सा भी नहीं)। बीज किसानन के लानें-भौत-जरूरी है। सब ठीक-ठाक भव जात। कछू पैलें–ई दूकान बन्द कर दई। थोरौ सौ चक्कर काटो। सामूं नरवा को करकौ थोरौ–सौ दिखा परत तो। पैले से जानत।
(4) वर्तमान कालिक कृदन्त — ऊ रोउत आव। हांती झूमत चलत।
(5) भूत कालिक कृदन्त – सबरे सोय परे ते। ऊ घबराओ भव भगो।
(6) पूर्वकालिक कृदन्त- तुम दौरोंके नें चलौ। (तुम दौड़कर मत चलो)। बिचारौ गिरकें मर गयौ (बेचारा गिरकर मर गया)।
(7) क्रिया- तांगा दौरो चलो आउत्तो (तांगा दौड़ा चला आता था) ऊ लिखत जात रओ है (वह लिखता जाता रहा है)।
(8) क्रिया के साथ क्रिया, क्रिया के साथ अन्य तत्व तथा अन्य तत्वों के साथ क्रिया के संयोग से भी स्थानीय क्रिया विशेषण पाये जाते हैं। जैसे-सबेरे सें दौरत-दौरत हार गओ (सबेरे से दौड़ते दौड़ते थक गया)।
कर्रे–परकें— ऊनें कई (कड़े पड़कर उसने कहा)।
ऊ खोव–सौ बोलो (वह खोया सा बोला)।
फिर एकाएक सकुरकें अद बैठी रै गई। (फिर एकाएक सकुड़ कर अध बैठी रह गई)।
गिरबे सें पैल समर जाव (गिरने से पहले संभल जाओ)।
चीजन खों उल्टवे पल्टवे में का धरो है ? (चीजों को उलटने पलटने में क्या धरा है)।
ऊसई देखत भय ! रै जात (वैसे ही देखता हुआ रह जाता है)।
ब्रजवासी कनैया जू खों सिर आँखन पै लैवे के लानें उमर–उमर आउत हैं।
बेसरम-ई बैठें–बैठें खा सकत।
चलत–चलत ऊनैं कई (चलते चलते उसने कहा)।
ठाडें–ठाड़ें हार गय हुइयो ? (खड़े-खड़े थक गये होगे ?)।
जे बातें मैने जान–मान कें कई (ये बातें मैने जान मान कर कहीं)।
मै तौ खोजत–खोजत हैरान हो गओ।
सब हँसंत–खेलत-टीले पै चड़ गय (सब हंसते-खेलते टीले पर चढ़ गये)।
रोउत–रोउत घरै आव (रोता-रोता घर आया)।
ये मनमेसुर ! धरम पै चलत–चलत, अर कै चलवे की कोंसट करत–करत में दिन जावें तो भौत बड़ी बात है (हे परमेश्वर ! धर्म पर चलते-चलते या कि चलने की कोशिश करते-करते दिन जावें तो बहुत बड़ी बात है)।
किवारे लगा–ई देव (किबाड़ लगा ही दो)।
एक लरका नें आकें पूंछी कै दद्दा कितै हैं (एक लड़का ने आकर पूंछा कि दादा कहाँ हैं ?)
दद्दा ने सोचत–भय–से कई (दादा ने सोचते हुए-से कहा)।
काय झेंपे से रै गय (क्यों झेंपे से रह गये ?)
बौ फट–सौ जात्तो (वह फट सा जाता था)
लरका दौर–कें आ। (लड़का दौड़कर आया)।
ऊ ने हंस कें कई (उसने हंस कर कहा।
अर्थकी दृष्टि से क्रिया-विशेषण चार प्रकार के होते हैं- (1) स्थान वाचक, (2) काल वाचक, (3) परिमाण वाचक और (4) रीति वाचक।
यह सभी क्रिया-विशेषण संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अव्यय आदि से निष्पन्न होते हैं जैसा कि उनके स्वरूप से ही स्पष्ट होता है।
(1) स्थान वाचक क्रिया–विशेषण— स्थिति और दिशा को सूचित करते है।
(2) काल वाचक क्रिया–विशेषण— समय, अवधि, और पौनःपुन्य की प्रवृत्ति को द्योतित करते हैं।
(3) परिमाण वाचक क्रिया–विशेषण— अधिकता, न्यूनता, पर्याप्ति, तुलना और श्रेणी को ज्ञापित करते हैं।
(4) रीति वाचक क्रिया विशेषण— प्रकार, निश्चय, अनिश्चय, स्वीकृति, कारण, निषेध और अवधारणा अर्थ को प्रकट करते हैं।
क्रिया–विशेषणों का वर्गीकरण
उक्त सभी प्रकार के क्रिया विशेषणों का वर्गीकृत विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है-
(1) स्थान वाचक क्रिया–विशेषण
स्थान वाचक क्रिया-विशेषणों से किसी स्थान या दिशा का बोध होता है। स्थान का बोध, जैसे-ऊ इतै है (वह यहाँ है) वाक्य में ‘इतै’ शब्द स्थान का बोध करा रहा है। दिशा का बोध, जैसे- रमुआं ऊ कुदाई गओ है (रमुआं उधर गया है) वाक्य में ‘ऊ कुदाई’ दिशा का बोध करा रहा है।
उक्त आधारों पर स्थान वाचक क्रिया –विशेषण के दो भेद किये जा सकते हैं- (क) स्थिति वाचक और (ख) दिशा वाचक। विशिष्ट परिगणन क्रमशः इस प्रकार हैं-
(क) स्थिति वाचक क्रिया–विशेषण
इतै, उतै, जितै, तितै, कितै, आगें, आंगू, पीछूं, ऊपर, नीचें, सामनें-आस-पास, सबत्तर, (सर्वत्र) कऊं, (कहीं) कऊं, कऊं (कहीं-कहीं) कऊं न कऊं (कहीं-न-कहीं) नजीक, नीरो, (पास में)।
(ख) दिशा वाचक क्रिया–विशेषण
ईतरफ, (इधर) ऊतरफ (उधर) की तरफ (किधर) जीतरफ (जिधर) दूर, परें, अलग, आर पार, ई जगहं, आन जगां (अन्यत्र) और कऊं (और कहीं)।
(2) काल वाचक क्रिया–विशेषण
परिभाषा – काल वाचक क्रिया विशेषण काल का बोध कराते हैं। जैसे- ऊ काल आव हतो (वह कल आया था) मैं परों जैंव (मैं परसों जाऊगा) उदाहृत
वाक्यों में ‘काल’ तथा ‘परों’ शब्द क्रिया विशेषण हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं- समय वाचक, अवधि वाचक और पौनः पुन्य वाचक।
(क) समय वाचक क्रिया–विशेषण
आगें, आज, काल, परों, नरों, अबै, (अब) कबै (कब) अबई-अबई, अब्बई (अभी), कभऊं (कभी) कबई, जबई (जभी) तबई, (तभी) फिर, फिरकें, तुरत, तुरन्त, तुरतई, सबेरें, सकारें, कभऊं (कभी) जब कभऊं (जब कभी) कभऊं-कभऊं (कभी-कभी) कभऊं-नें-कभऊं (कभी न कभी)।
(ख) अवधि वाचक क्रिया–विशेषण
आजकल, नित्त, रोज, नित्तरोज, हररोज, अवलों, अबैलों, जबलौं, जबैलों, सदां, निरन्तर, तबलों, तबैलों, कबैलों, लगातार, दिनभर, कबकौ, जबकौ, तबकौ, अबैके, जबैके, कबैके, तबै कै।
(ग) पौनः पुन्य सूचक क्रिया–विशेषण
बेर बेर (बार बार) हर बेर, हर बेरां, हर बिरियां, कैउ बेरां, पेलउं, (पहले) फिर, एक दूसरें, तीसरें, कैऊबिरियां, हर दफां, हर दफें।
काल वाचक क्रिया-विशेषण निम्नांकित शब्दों से बनते हैं। जैसे—
(क) संज्ञा से — छिन, छन (क्षण) समव (समय) पार (पहर), जल्दी, फुर्ती, चट्ट, (चट) चट्ट-पट्ट, देर, सबदिन, हमेसां रोज (प्रतिदिन) हररोज, हरमईनां (प्रतिमहीना) वख्त (समय) हरबखत, काल (कल) परों (परसों) नरों (नरसों) गई साल (गतवर्ष) संजा (सांझ) सबेरौ आदि।
(ख) सर्वनाम से— अब, जब, कब, तब, अबई, (अभी) अबकी, तबई (तभी) तबकी, कभऊं (कभी) कभऊं कौ, कभऊं की, जबई, (जभी) तबई, तबकी, फिर, फिरकी, फिरकें, फिरकेंई आदि।
(ग) विशेषण से— पैले (पहले) आंगू (ओगें) पाहूं (पीछे) ईतरां (इस तरह) ऊ तरां (उस तरह)।
(3) परिमाण वाचक
परिभाषा– परिमाण वाचक क्रिया विशेषणों से परिमाण का बोध होता है। जैसे ऊ इतनों नौनों है कैं का कई जाय’ (वह इतना सुन्दर है कि क्या कहा जाय) वाक्य में ‘इतनों’ शब्द नौनेपन की मात्रा या परिमाण का बोध करा रहा है अतः यह परिमाण वाचक क्रिया विशेषण है। परिमाण वाचक क्रिया विशेषण निश्चित न होकर अनिश्चित होते हैं। ऊपर के उदाहरण में ‘इतनों’ से नौनेपन के परिमाण का निश्चित बोध नहीं होता। इससे अधिकता, न्यूनता, पर्याप्ति, तुलना और श्रेणी का बोध होता है अतः यह पाँच प्रकार का होता है।
(क) अधिकता बोधक— और, भौत, जादां, कम, अति, बड़ौ भारी, बहुतायत सें, कुल्ल, बिलकुल्ल, बिरकल्लमें, बिरकुल्लसें, बिरकल्लखों, बिरकुल्लई, निरां, खूब, निपट, निचाट, अतयंत, ऐंन।
(ख) न्यूनता बोधक— कछू, थोरो, जरा, हलकौ आदि।
(ग) पर्याप्ति वाचक— केबल, बस्स (बस) यथेस्ट (यथेष्ट) बिरोबर, ठीक, काफी, पूरौ आदि।
(घ) तुलना वाचक— अधक (अधिक) कम कमती, इतनों, उतनों जितनों, कितनों, इत्तौ, उत्तौ, जित्तो, कित्तौ बड़कें, और, आदि।
(ङ) श्रेणी वाचक — थोरे-थोरे, किरम-किरम सें (क्रम-क्रम से) बारी-बारी, पारी-पारी सें, तिल-तिल कें, फटा-फटा सें, कन-कन (कण-कण) कनूंका-कनूंका सें, दानें-दानें सें, एक-एक करकें, जथा किरम (यथा क्रम) भौत-भौत (बहुत-बहुत)।
उदाहृत परिमाण वाचक क्रिया विशेषणों में बहुत से ऐसे भी हैं जो विशेषण भी हैं, जैसे- जादां, बड़ौ, अधक आदि। इस प्रकार के शब्द विशेषण और क्रिया-विशेषण दोनों हैं। इनका अन्तर प्रयोग से स्पष्ट होता है। जहाँ ये संज्ञा की विशेषता बतलावें वहाँ ये विशेषण होंगे और जहाँ किसी अन्य की विशेषता बतलावें वहाँ ये क्रिया-विशेषण होंगे। उदाहरण के लिये-
विशेषण क्रिया विशेषण
अधक दूद अधक है (दूध-अधिक है) ऊ अधक सुन्दर है
जादां जादां मिठाई नें खाव मिठाई जादां मांगी है।
(ज्यादा मिठाई न खाओ)
बड़ौ बड़ौ डंडा लिआव ऊ पथरा बड़ौ भारी है
(बड़ा डंडा ले आओ)
सुन्दर लरका सुन्दर है ऊ सुन्दर गाउत है।
कभी-कभी स्थानवाचक (इतै, उतै आदि) तथा कालवाचक (अब, तब आदि) क्रिया-विशेषण संज्ञा के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं। इतै की कुर्सी कितै गई ? (यहाँ की कुर्सी कहाँ गई) वाक्य में ‘इतै’ का अर्थ है ‘इस जगह’। इसी प्रकार ‘उतै पै का है’ (वहाँ क्या है) वाक्य में ‘उतै’ का अर्थ है ‘उस जगह’। कालवाचक क्रिया-विशेषण के संज्ञा रूप में प्रयुक्त होने का उदाहरण भी देखिये-‘अबकी गलती माफ करौ’ यहाँ ‘अब’ शब्द का अर्थ है- इस समय।
यह पहले स्पष्ट किया गया है कि पूर्व वैयाकरण क्रिया-विशेषण को अविकारी या अव्यय मानते हैं और कुछ अंशों में उनकी यह मान्यता ठीक भी है परन्तु सभी क्रिया-विशेषण अविकारी नहीं होते। उदाहरणार्थ- जौ पथरा बड़ौ भारी है तथा ‘जा किताब बड़ी छोटी है’ वाक्य में बड़ौ और बड़ी क्रिया-विशेषण हैं। स्पष्ट है कि ‘बड़ौ’ का विकारी रूप ही ‘बड़ी’ है। विकारी क्रिया-विशेषण निम्नांकित है –
(क) औकारान्त विशेषण (बड़ौ, छोटौ, अच्छौ आदि) जो क्रिया विशेषण का काम करें।
(ख) परिमाण वाचक सानुस्वार ओकारान्त क्रिया विशेषण- इतनों, उतनों, जितनों, कितनों आदि।
(ग) रीति वाचक ओकारान्त क्रिया विशेषण – जैसो, वैसो आदि।
(4) रीति वाचक
परिभाषा – रीतिवाचक क्रिया-विशषणों से रीति, ढंग या विधि का बोध होता है। जैसे- मकान ऐसौ बनाव जैय (मकान ऐसा बनाया जायगा)। प्रमुख रीति वाचक क्रिया-विशेषण प्रकार, निश्चय, अनिश्चय, स्वीकृति, कारण, निषेध और अवधारण अर्थ में निम्न सात प्रकार के होते हैं-
(क) प्रकार अर्थ में
ऐसे, वैसे, कैसे, तैसे, जैसे-तैसे, मानों, धीरें, अंचानक, विरथां, (वृथा) सहज साक्षयात् (साक्षात) संतमेंत, ऐसई, यों ही) पैदल, जैसे, तैसे, परसपर (परस्पर) आपई आप, एक-साथ, येकायेक, मनसें, (ध्यानपूर्वक), संदेसौ (संदेश) हंसकें, मुसक्याकें (मुस्कराकर) फटाफट, झट्ट सें, (झटसे) कैसउ-कें, हांत जोरकें बिनें पूरबक (विनय पूर्वक)।
(ख) निश्चय अर्थ में
अबस्यकें, अबस्यकरकें, अटककें, अवस्य, सई (सही) सचमुच, बेसक, जरूर मुख्य कर कें, खास करकें, बिसेक (विशेष) करकें, दर असल में, हकीकत में।
(ग) अनिश्चय अर्थ में
स्यात्, भौत कर कें, जथा – संभव, स्यात्-ई (शांयद ही) कदाचित्।
(घ) स्वीकार अर्थ में
हां, हओ, हओ जू, अच्छी, अच्छा, सांचऊं (सच), हां, अबस्य कें, निच्चें, निच्चय सें, ठीक, अटक कें, खबरकें।
(ङ) कारण अर्थ में
ई सें (इसलिये) काय या काये (क्यों) काय खों (काहे को) अतयेव।
(च) निषेध अर्थ में
न, नां, नई, नें, मत, जिन, जिनों, कबऊं नई, (कभी नहीं) नई-तो, नई तर, नांतर, नन्तर (नहीं तो)।
(छ) अवधारण अर्थ में
अवधारण का अर्थ है निश्चय करना या सीमा बाँधना। जैसे- तो, भर, तक, लौ या लों, मात्र।
बुन्देली के रीति वाचक क्रिया विशेषण निम्नांकित शब्द-भेदों से बनते हैं—
1. संज्ञा से— अच्छी तरां (अच्छी तरह) सांचे मन सें, ध्यान सें, ध्यान पूरबक,
2. सर्व नाम से— ऐसौ, ऊसौ, जैसौ, कैसो, तैसौ, अपनें-आप।
3. विशेषण से – बिरथां (व्यर्थ) एक सात, एक संग, एकई संगे (एक साथ) दरअसल, बासतव में (वास्तव में)
4. अव्यय से– तौ, भर, तक।
बुन्देली क्रिया–विशेषण प्रयोग – एक समीक्षण
क्रिया-विशेषण प्रकरण में उदाहृत बुन्देली के कुछ क्रिया-विशेषण शब्दों के सम्बन्ध में अर्थ एवं प्रयोग की दृष्टि से एक समीक्षा आवश्यक है जिससे कि उनके अर्थ एवं प्रयोग विधि में और भी स्पष्टता हो जाय, अस्तु।
1. काल परों (कल-परसों)
इन काल वाचक क्रिया-विशेषणों का प्रयोग जब ये एक साथ आते हैं तब हिन्दी की तरह भूत और भविष्य दोनों कालों में होता है। परन्तु जब ये अलग-अलग प्रयुक्त होते हैं तब ‘काल’ शब्द का प्रयोग केवल भूत काल में होता है। भविष्य द्योतक (आगामी) ‘काल’ शब्द के लिये, ‘भ्यानें’ शब्द का प्रयोग होता है। जैसे-
(1) भूत काल में— हम काल-परों तौ आये-ई ते (हम कल परसों ही तो आये थे) मैं काल-ई तौ आओ तो।
(2) भविष्य के अर्थ में — अरे, चले जइयौ कालपरों लों, का उलात मचांय ? मोय भ्यानें अटक-कें चलो जानें (मुझे कल अवश्य ही चला जाना है)।
2. आगें–पाछें (आगे पीछे)
इनका प्रयोग स्थान वाचक और काल वाचक दोनों प्रकार के क्रिया-विशेषणों में होता है। जैसे-
(1) स्थान वाचक— हमाओ घर तुमाय घर के आगें है। तुमाय घर के पाछे नीम कौ पेड़ौ है।
(2) कालवाचक— आज की बात तौ ठीक है, कछू आगें-पाछें भी तो सोचो का-का भयौ और अब का-का हुइयै ?
3. पास–दूर
इनका प्रयोग भी स्थान वाचक और काल वाचक दोनों में होता है। जैसे-
स्थान वाचक— हमाओ घर पास है, बजार दूर है।
कालवाचक — दिवारी पास है कै दूर ?
4. तो, फिर
ये दोनों समानार्थी कालवाचक क्रिया-विशेषण हैं परन्तु कभी-कभी ये दोनों एक साथ ही प्रयुक्त होते हैं। जैसे— तौ-फिर तुमनें का करो ?
5. कभऊं (कभी)
(कभी) बलान्विति तत्व अन्तर्निहित, अनिश्चित कालवाचक क्रिया-विशेषण है। यह स्वीकृति, निषेध तथा क्रमागत काल द्योतक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे—
स्वीकृति — मैं कभऊँ आ जेंव (मैं कभी आ जाऊँगा)
निषेध— ऐसौ काम कभउँ नें करियो (ऐसा काम कभी मत करना)
क्रमागत काल— कभऊं दुःख, कभऊँ सुक्ल जौ तौ चलतई रात (कभी दुख, कभी सुख, यह तो चलता ही रहता है)
6. कां (कहाँ)
‘कां’ का प्रयोग स्थान तथा अन्तर प्रदर्शन में होता है।
स्थान प्रदर्शन — तुम कां जात ?
अन्तर प्रदर्शन— कां राजा भोज, कां गंगू तेली।
7. कऊं (कहीं)
‘कऊं’ का प्रयोग स्थान प्रदर्शन, आधिक्य तथा दो बातों का विरोध प्रदर्शन में होता है। जैसे—
स्थान प्रदर्शन — ऊ कऊं गव है (वह कहीं गया है)।
आधिक्य प्रदर्शन — ऊ मोसें कऊं सुकी है-ई। (वह मुझसे कहीं सुखी है ही)
दो बातों का विरोध प्रदर्शन— भगवांन की माया, कऊं घामों, कऊं छाया।
8. इतै, उतै (यहाँ–वहाँ)
इन शब्दों का प्रयोग यहाँ-वहाँ के अर्थ में पृथक्–पृथक तथा एक साथ भी होता है।
पृथक–पृथक — घड़ी इतै है, उतै कां देखत।
एक साथ — एक साथ प्रयोग वैविध्य प्रदर्शन में होता है। जैसे- इतै, उतै गय सें का फायदा, अरकै का निकसान है? कछू सोचे तो चाइये। नें इतै सुक्ख, नें उतै दुक्ख।
9. नांय, मांय (इधर-उधर) इन का प्रयोग भी इधर-उधर के अर्थ में पृथक-पृथक तथा एक साथ भी होता है।
पृथक–पृथक — नांय निगौ, मांय नें मौर। (इधर आओ, उधर मत जाओ)।
एक साथ— जौ लरका बड़ौ चंचल है नाय मांय चंग सी मंड़रात फिरत।
10. जौ लौं (जब तक)
इस क्रिया विशेषण शब्द का प्रयोग निषेधात्मक तथा समानाधिकरण के अर्थ में होता है। जैसे—
निषेधात्मक— जौ लौं बो में काबै तौलौ तुम इतई बैठे रइयो (जब तक वह न कहे तब तक तुम यहीं बैठे रहना)।
समानाधिकरण — जौ लौं दिन डूबत, तो लौं तुम जौ काम कड्डारी। (जब तक दिन डूबता है तब तक तुम यह काम कर डालो)।
11. ई सें (इसलिये)
इस शब्द का प्रयोग क्रिया विशेषण और समुच्चय बोधक अव्यय दोनों के रूप में होता है। जैसे-
क्रिया–विशेषण के रूप में — ऊई सें उतै गव है कै कछू फायदा हो जाय (वह इसलिये वहाँ गया है कि कुछ लाभ हो जाय)।
समुच्चय बोधक अव्यय के रूप में— तुम गरीब हौ ई सें तुमाई सहायता तौ करे-ई चाइये (तुम गरीब हो, इसलिये तुम्हारी सहायता तो करना ही चाहिये)।
12. नें, नई
इन क्रिया- विशेषण शब्दों का प्रयोग निषेधावस्था में ही होता है। इनपें से ‘नें’ का प्रयोग दो उपवाक्यों के आरम्भ में भी होता है जैसे —
नें वे आय, नें तुम आय (न वे आये, न तुम आये) मोहन नई आव (मोहन नहीं आया)।
13. तौ (तो)
इसका प्रयोग निश्चय और आग्रह के अर्थ में, समुच्चय बोधक अव्यय के रूप में तथा किसी भी शब्द भेद के साथ होता है। जैसे-
निश्चय अर्थ में— तुम गय तौ हते (तुम गये तो थे)।
आग्रह अर्थ में— तुमें तौ आऊनें-ई परै, चाय कछू हो जाय (तुम्हें तो आना ही पड़ेंगा चाहे कुछ हो जाय)।
समुच्चय बोधक अव्यय के रूप में— तुम जैव तौ ऊ आय (तुम जाओगे तो वह आयेगा।
संज्ञा के साथ— धन तौ सब-ई के पास है।
सर्वनाम के साथ — बौ तौ आज— ई आव है (वह तो आज ही आया है)
विशेषण के साथ— ऊ उन्नां कौ रंग करिया तौ है— ई, पै भद्दौ भी है। (उस कपड़े का रंग काला तो है ही, परन्तु भद्दा भी है)
14. भर
इसका प्रयोग ‘सब’ तथा ‘केवल’ के अर्थ में होता हैं। जैसे—
सब के अर्थ में — मेला में गाँव भर इकठ्ठौ हो गव (मेला में गाँव भर इकठ्ठा हो गया)
केवल अर्थ में— और तो सब चोरी चलो गव, उन्नां भर रै गय (और तो सब चोरी चला गया, कपड़े भर रह गये)।
‘भर’ शब्द जब परिमाण वाचक संज्ञा के साथ प्रयुक्त होता है तब विशेषण बन जाता है। जैसे— मुठी भर नांज दै-राखौ, सेर भर दूद पी लेव।
15. लौ (तक)
जा बात तौ मूरख लौ समज सकत।
16. सौ (सा)
इसका प्रयोग कभी प्रत्यय, कभी क्रिया-विशेषण और कभी सम्बन्ध सूचक अव्यय के रूप में होता है। जैसे-
प्रत्यय के रूप में — मौंड़ा फूल सौ सुन्दर है। (लड़का फूल की तरह सुन्दर है)
सम्बन्ध सूचक अव्यय के रूप में — बच्चन कै सौ किल-किलाटौ सुनाई परत। ‘सौ’ का प्रयोग परिमाण वाचक विशेषणों के साथ अवधारणा के अर्थ में होता है। जैसे – भौत सौ धन, थोरौ सौ पैसा आदि।
17. बलान्विति तत्व अन्तर्निहित क्रिया विशेषण
अब–ई (अभी) – मैं अबई तौ आ इतै आव (मैं अभी ही तो यहाँ आया हूँ)
कभऊं (कभी) – कभउं तो हमारे इतै आव (कभी तो हमारे यहाँ आइये)
तब–ई (तभी) – जबई के मैं गव, तबई वे उतै आय (जभी मैं गया, तभी वे वहाँ आये)
18. बलान्विति मूलक क्रिया–विशेषण
ई (ही) – कछू पैले-ई जगो हों (कुछ पहले ही जगा हूँ)
लों (तक) – भौत देर लौं रुको (बहुत देर तक रुका)
सोऊ (भी) – अबै सोऊ वौ ऐस-ई रात (अभी भी वह ऐसा ही रहता है)
सौ, सें, सी— जरा सौ मौड़ा सोचत भय सें बोलो कै अपुन जरा सी बात पै काय अटक गय। (जरा सा लड़का सोचेते हुये से बोला कि आप लोग जरा सी बात पर क्यों अटक गये?
तौ— भोजन के संगै भजन-ऊं होंय तौ भौत ऊ अच्छी बात है। (भोजनों के साथ भजन भी हों तो बहुत ही अच्छी बात है)
तब तौ— मौड़ी के भाग्गन घर-बर दोई अच्छे हैं, तब तौ सोनें में सुगंद ई है। (लड़की के भाग्य से घर और वर दोनों ही अच्छे हैं तब तो सोने में सुगन्ध ही है)
19. द्विरुक्त मध्य सर्गंक क्रिया विशेषण
कभउं नें कभउं (कभी-न-कभी) – कभउं तौ मौका मिले ? (कभी तो अवसर मिलेगा ?
कां–से–कां (कहाँ से-कहां) – थोरे ई से पुरखारत में आदमी कां-सें-कां पोंच जात (थोड़े से पुरुषार्थ से आदमी कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है ?)
कऊंनें–कऊं (कहीं-न-कहीं) और ‘कऊं-की-कऊं’ (कहीं-कीं-कहीं) आदि
प्रयोग सोदाहरण दृष्टव्य हैं-
कऊं (अगर) (यात्री) सांचे मन से तीर्थ जात्रा में कउं की बातें नें करै, एक चित हो कें भगुवान कौ घ्यांन धरै, तो कउं-नें-कऊं कभऊ-नें-कभऊ भगुवान दरसन अवस्य कें देंय, और में जानें वे कां-से-कां औतार लेंय।
2. सम्बन्ध सूचक अव्यय
परिभाषा
संज्ञा या संज्ञा के समान प्रयोग में आने वाले सर्वनाम, क्रिया, विशेषण तथा क्रिया-विशेषण आदि शब्दों के साथ जो अव्यय सम्बन्ध सूचित करने के लिये आते हैं, उन्हें सम्बन्ध सूचक अव्यय कहते हैं। जैसे- लरका खों मारौ, गाँव लौ जाव, घुरवा पै को है ? काल रात भर जगत रओ, आदि वाक्यों में खाँ, लौ, पै, भर इसी प्रकार के शब्द हैं। सम्बन्ध सूचक अव्यय के सम्बन्ध में निम्नांकित बातें याद रखने की हैं-
(क) कारक चिन्ह (नें, खों सें, का, के, की, में, पै आदि) सम्बन्ध सूचक अव्यय हैं। यद्यपि इनमें सम्बन्ध कारक के चिन्ह का वचन और लिंग के आधार पर परिवर्तन होता है।
(ख) बहुत से क्रिया-विशेषण सम्बन्ध सूचक भी होते हैं। इनका यह अन्तर प्रयोग के आधार पर जाना जा सकता है। ये शब्द किसी संज्ञा या संज्ञा रूप में प्रयुक्त अन्य शब्दों के साथ आवें तो सम्बन्ध सूचक होते हैं, परन्तु यदि स्वतंत्र रूप में आकर क्रिया की विशेषता बतलावें तो क्रिया-विशेषण होते हैं।
स्पष्टता के लिये उदाहरण लीजिये –
सम्बन्ध सूचक क्रिया विशेषण
1. मोहन घर के भीतर है। मोहन भीतरै है।
2. बौ राय के इतै रत है। बौ इतै रत है।
3. बगीचा के बायरों को है ? बायरें को है ?
4. सोवे के पैलें खा लेव। पैलें खा लेव।
(ग) कभी-कभी संज्ञा शब्द भी सम्बन्ध सूचक अव्यय के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-
संज्ञा सम्बन्ध सूचक
1. लराई कौ कारन का हतो ? ऊ के कारन मोय आनें परो।
2. ऊ कौ हांत मजबूत है। ऊ के हांत कछू नें भेजियो।
(घ) कभी-कभी विशेषण शब्दों का भी सम्बन्ध सूचक अव्यय के रूप में प्रयोग होता है। जैसे-
विशेषण सम्बन्ध सूचक
1. लरका लायक है। ऊ के लायक बनो।
2. काम-काज अनकूल है। ऊ के अनकूल करो।
(ङ) सम्बन्ध सूचकों या सम्बन्ध बोधकों को परसर्ग भी कहा जाता है। जो अव्यय संज्ञा या सर्वनाम के बाद लगकर उसका सम्बन्ध वाक्य में आये हुये दूसरे शब्दों के साथ निर्धारित करते हैं उन्हें सम्बन्ध सूचक या परसर्ग कहते हैं। क्योंकि ये संज्ञा या सर्वनाम के बाद (पर) जोड़े (सर्ग) जाते हैं, जैसे-घर में, मुझ में, घर के पास, मेरे घर की ओर, मेरी ओर इत्यादि।
(च) लेखन पद्धति में ये संज्ञा में अलग करके और सर्वनाम से सटाकर लिखे जाते जैसे-लड़के ने, उसने, आदमी से, मुझसे।
रूप की दृष्टि से बुन्देली के सम्बन्ध सूचक दो प्रकार के होते हैं-
1- मूल और 2- यौगिक।
1. मूल सम्बन्ध सूचक अव्यय
जो सम्बन्ध सूचक अव्यय शब्द स्वतंत्र अर्थात् बिना किसी अन्य शब्द के मेल से होते हैं, वे मूल सम्बन्ध सूचक अव्यय कहे जाते हैं। जैसे- बिना, तक आदि।
2. यौगिक सम्बन्ध–सूचक अव्यय
जो अव्यय शब्द संज्ञा, विशेषण, क्रिया और विशेषण शब्दों के मेल से बनाये जाते हैं अर्थात् जिनका अपना स्वतः सिद्ध स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता वे यौगिक संबंध सूचक अव्यय कहे जाते हैं। जैसे-
(क) संज्ञा से बने— बास्ते, पलटें, बल्दें, तरफै, नामें, मारफत, बदलें आदि।
(ख) विशेषण से बने— समान, सरीखौ, जैसौ, ऐसौ, उल्टौ, लायक आदि।
(ग) क्रिया से बने— लानें, मारें आदि।
(घ) क्रिया विशेषण से बने— बायरें, (बाहर) भीतरै, (भीतर) ऊपर, इतै, उतै, पास, दूर, आगूं, पांछूं आदि।
प्रयोग की दृष्टि से बुन्देली सम्बन्ध सूचक अव्यय शब्दों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है (1) सम्बद्ध संबन्ध सूचक और (2) अनुबद्ध सम्बन्ध सूचक।
1. सम्बद्ध सम्बन्ध सूचक अव्यय
(क) जिन सम्बन्ध सूचक अव्ययों के पूर्व कारकों की विभक्तियाँ आती हैं, वे सम्बद्ध सम्बन्ध सूचक अव्यय कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में जो संज्ञा या संज्ञा-रूप के बाद आते हैं, जैसे-नें, खों, सें, में, लौ (तक) आदि जैसे- रम्मू खां मारौ, घोरे पै चड़ौ, उन लौ मोरी पौंच नइयां।
कुछ ऐसे भी सम्बन्ध वाचक अव्यय हैं जो कभी पहले और कभी बाद में आते हैं; जैसे- सिवाय, बिना, मारें। जैसे- सिवाय उनके जौ काम कोऊ नईं कर सकत (सिवा उनके यह काम कोई नहीं कर सकता) या उनके सिवाय जौ काम कोऊ नई कर सकत। जो सम्बन्ध सूचक अव्यय संज्ञा रूप के बाद आते हैं उनके भी दो भेद होते हैं-
1. जो अकेले आते हैं। जैसे-नें, खों, में, पै, का, खां, जैसे- रामनें मारौ, घर में है, छत पै कूंदो।
2. जो किसी और सम्बन्ध सूचक अव्यय के साथ आते हैं। इस प्रकार के सम्बन्ध सूचक अव्यय बहुत से हैं। ये प्रायः के, सें, की, इन तीन कारक चिन्हों के बाद आते हैं।
कारक चिन्ह ‘के’ के बाद आने वाले अव्यय निम्नलिखित हैं-
आगें, पाछें, पूरब, (पूर्व) अन्तर, मारें, (मारे), समान, ऊपर, नेचें, बायरे, भीतरे, पैले, बाद, कारन, पास, निकट, इतै (यहां) हात, सहारे, दुआरां (द्वारा) अनसार (अनुसार) बदलें, बिना, परे, अनन्तर पच्छात (पश्चात्) उपरान्त, बीच आदि।
कारक चिन्ह ‘से’ के बाद आने वाले अव्यय निम्ननिखित हैं-
दूर, पैलें (पहले) पूरब (पूर्व) नेंचें (नीचे) निकट, बायरे (बाहर) अलग, परें आदि।
विशेष
कारक चिन्ह के बाद आने वाले सम्बन्ध सूचक अव्ययों में कुछ ‘सें’ के बाद भी आते हैं जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है और प्रायः वही अर्थ देते हैं पर साथ ही ‘के’ के बाद आने वाले अव्ययों में अनन्तर, बाद, पच्छयात, उपरान्त, भी, सहारें, तथा मारें आदि बहुत से ऐसे अव्यय हैं जो ‘सें’ कारक चिन्ह के बाद नहीं आते। जबकि ‘से’ के बाद आने वाले प्रायः सभी सम्बन्ध सूचक अव्यय ‘के’ कारक चिन्ह के बाद आते हैं।
कारक चिन्ह ‘की‘ के बाद आने वाले अव्यय निम्नलिखित हैं–
अपेच्छा (अपेक्षा) तरां (तरह) भांत (भांति) घांई, नांई तरफ, और खातर (खातिर) मारफत, जवानी, जगां (जगह) आदि। जैसे- इनकी अपेच्छा तो बेई अच्छे हैं। उन ई की तरफ चलौ, उनई की ओर देखो तकौ, उनकी जागां जे नई लै सकत। उनके घांई (तरह या समान) कोऊ हौ तौ लेवै।
विशेष
(क) सर्वनामों में ‘के’ ‘की’ के स्थान पर ‘रे री’ मोरे (मेरे) तुमारे, (तुम्हारे) तुमारौं, (तुम्हारा) तुमारी (तुम्हारी) आते हैं। उनके साथ भी ‘के’ और ‘की’ के नियम लागू होते हैं।
(ख) सर्वनामों के साथ आने पर कारक चिन्ह अलग न रहकर रूपों में प्रयुक्त सम्बन्ध-सूचक अव्यय में मिल जाते हैं। जैसे-ऊनें, ऊखां, ऊसें आदि।
(ग) सम्बन्ध वाचक शब्दों का रूपान्तर नहीं होता।
(घ) सम्बन्ध कारक वाले संज्ञा, सर्वनामों का सम्बन्ध इन्हीं से रहता है।
(ङ) साधारण वाक्य में ये शब्द सम्बन्ध कारक चिन्हों के बाद उनसे लगे हुये आते हैं। जैसे— तुमाए सामूं हमाओ घर है। घर के भीतरै को है ?
(च) विशेष जोर यदि कहीं देना हो तो ये आगे, पीछे भी आ सकते हैं।
(छ) यदि इन शब्दों के साथ सम्बन्ध कारक वाले संज्ञा-सर्वनाम शब्द न हों तो ये क्रिया-विशेषण बन जाते हैं।
सम्बन्ध सूचक–अव्यय–कुछ खास नियम —
इस सम्बन्ध में बुन्देली में निम्नांकित बातें स्मरणीय हैं—
(क) कभी-कभी मारें (मारे) सिबाय और बिना सम्बन्ध सूचकों के पूर्व कारकों की विभक्तियां नहीं होतीं। जैसे- मारें पानी कींच मच गयी। तुमाये सिबाय मोखों को पूंछत। बैलन के बिना खेती कैसें हो सकत ?
(ख) मारें, और सिबाय शब्द जब सर्वनाम शब्दों से सम्बन्धित होते हैं तब उनके पहले कारकों की विभक्तियाँ स्पष्ट नहीं देखी जातीं। जैसे- तुमाये बिना हम तरस गय। तुमाये सिबाय हमाओ को है।
(ग) बिना, अनसार (अनुसार), पाछूँ, शब्द जब भूतकालिक कृदन्त के रूप के पश्चात् आते हैं तब उनके पूर्व विभक्ति नहीं होती। जैसे- तुमाये गये बिना काम नई चल है। हम तुमाये कय (कहे) अनसार काम कर हैं। उतै गयें पाहूँ बात मालूम पर है।
(घ) ‘लाख’ (लायक) शब्द क्रियार्थक संज्ञा के विकृत रूप के पश्चात् आने पर उसके पूर्व विभक्ति नहीं होती। जैसे— जा पोथी (पुस्तक) पड़वे लाख नइयाँ।
(ङ) जैसा कि पहले कहा गया है- सम्बन्ध सूचक अव्यय शब्दों के पूर्व प्रायः सम्बन्ध कारक की विभक्तियों का प्रयोग होता है। जैरो-मोहन के घर के पछारूं नीम कौ पेड़ौ है। रामू के सिवाय को आय ?
(च) आगें, पाछें, बायरें (बाहर) ऊपरै (ऊपर) आदि शब्दों के पूर्व कभी-सम्बन्ध कारक की विभक्तियाँ- का, के की, के स्थान में ‘से’ का प्रयोग होता होता है। जैसे-ऊ सें आगें हम आय, रामू सें पाछें को आव ? घर सें बायरें नें कड़ियो। भगुवान से उपरै को है ?
2. अनुबद्ध सम्बन्ध-सूचक अव्यय
संज्ञा शब्दों के विकृत रूप के साथ आने वाले सम्बन्ध सूचक अव्यय अनुबद्ध सम्बन्ध-सूचक कहलाते हैं।
इस वर्ग के सम्बन्ध सूचक अव्यय शब्द निम्न भागों में विभाजित हो सकते हैं-
काल–वाचक— आगें, पाछें, अंगारू, पछारूं, अंगाई, पछाई, बाद, पैले (पहले) पश्चात् (पश्चात्) उपरान्त।
स्थान वाचक— आगें, पाछें, ऊंचै, नैचें, तरें, ऊपरै, सामूं, सामनें, पास, निकट, नजीक, ऐंगर, लिंगां, ढिंगां, इतै, उतै, बीच में, बायरें, उतै, कितै, जितै, तितै, इतांय, उतांय, कितांय, जितांय, तितांय, कुंदाई, तरफे, परें, पल्लें, दूर, भीतरै, अन्त, आस-पास।
दिशा वाचक— और तरफै, पार, आर-पार, ई पार, ऊपार, आस-पास, इतई।
साधन वाचक— जरिये, हांत (हाथ) मारफत, जुबानी (जवानी) सहारें।
हेतु वाचक— के लानें, निमित्त, बास्तें, कारन, सबब, मारें (मारे)।
विषय वाचक — बाबत, निस्पत (निस्बत) बिसय (विषय) लेखे, जान, भरोसे, मध्यें।
व्यतिरेक वाचक— सिबाय, अलबत्तां, बिना।
विनिमय वाचक— पलटें, बदलें, जगां, एबज में।
सादृश्य वाचक— समान, तरां, भांत, घांई, बिरोबर, जोग, जोग्य, लाख
(लायक) अनसार, अनुकूल, देखा-देखी, सरीकी (सरीखी) सौ (सा) से, सी (सी) ऐसौ, ऊसौ, जैसौ।
विरोध वाचक — बिरुद्द (विरुद्ध) खिलाप (खिलाफ) उलटो।
संग्रह वाचक— तक, लों, (पर्यन्त) सुद्दाँ, भर।
सहचार वाचक— संग, साथ, समेत, सहित, आधीन, स्वाधीन, बस।
तुलना वाचक— अपेक्षा, बनिस्पत, आगें, सामनें।
विशेष
बुन्देली के कुछ सम्बन्ध सूचक अव्यय फारसी से भी गृहीत हैं। जैसे-नजीक, बाद, तरें, बास्तें, जरिये, एबज, अलाबा आदि।
बुन्देली सम्बन्ध–सूचक अव्यय–एक समीक्षण
बुन्देली में प्रयुक्त कुछ सम्बन्ध सूचक अव्ययों का प्रयोग इस प्रकार होता है-
1. आंगें, पाछें (आगे, पीछे) — ये दोनों ही अव्यय काल वाचक और स्थान वाचक दोनों ही प्रकार के होते हैं; जैसे—
काल वाचक — दसहरा के आगें ई तुम आ जइयौ (दशहरा के आगे ही तुम आ जाना। तुमाय आवे के पाछें हम आय (तुम्हारे आने के पीछे हम आये)।
स्थान वाचक – घर के आग, बगीचा के पाछे।
2. बायरें, भीतरै (बाहर, भीतर) ये दोनों ही सम्बन्ध सूचक अव्यय काल वाचक तथा स्थान वाचक हैं। जैसे—
काल वाचक— समव के बायेरें बात पूरी भई तौ का फायदा ? (समय के बाहर बात पूरी हुई तो क्या लाभ) मईनां भर के भीतरै रुपैया चुका दियौ (महीना भर के भीतर रुपये चुका देना)।
स्थान वाचक — गाँव के बायरें, घर के भीतरै।
3. ऊपर नेचें (ऊपर नीचे)— इन दोनों अव्ययों का प्रयोग प्रायः स्थान वाचकों के रूप में हो होता है। पदों की श्रेष्ठता एवं लघुता के व्यक्तीकरण में भी इनका प्रयोग होता है। जैसे— मास्टरन में हेड मास्टल साब सब सें ऊपर हैं और रामू बाबू (लोअर डिवीजन टीचर) सब सें नेंचें हैं।
4. पास— इस अव्यय का प्रयोग स्थान की दूरी तथा वस्तु पर अपना स्वामित्व व्यक्त करने में होता है। जैसे- हमाओ घर पास में है। हमाये पास दो मकान हैं।
5. सिबाय — (अतिरिक्त) तुमाय सिबाय ऊ कौ को बैठो ? (तुम्हारे सिवा उसका और कौन बैठा है ?)
6. सात — (साथ) हाट में उन्नां ल्याइयो सात-ई में तनक डोरा लँय आइओ (बाजार से कपड़ा लाना तथा साथ ही कुछ धागा भी लाना)।
इस अव्यय का प्रयोग कभी ‘संग’ शब्द के साथ संयुक्त हो कर सात के रूप से होता है। जैसे- हम तुमाये संग-सात बजार चलबी (हम तुम्हारे साथ बाजार चलेंगे)।
7. समान–लाख— ये दोनों ही विशेषण से बने सबन्ध सूचक अव्यय हैं। बुन्देली में यद्यपि इनका प्रयोग सम्बन्ध सूचक अव्ययों के रूप में होता है परन्तु ये संज्ञा की विशेषता बतलाते हैं। जैसे-जौ लरका अपनें बाप के समान हैं। जौ बड़न के लाख घर नइयां। (ये बड़ों के लायक घर नहीं है)।
8. सड़ीसौ (सरीखौ) तुम सड़ीसौ और कोऊ नइयां।
ऐसौ, ऊसौ, जैसी— इन सम्बन्ध सूचक अव्ययों का प्रयोग विशेषण की तरह भी होता है। जैसे-ऐसौ आदमी, ऊसौ घर, जैसौ मेला ऊसई भीर भरक्कत।
9. बिना — जब यह अव्यय कृदन्त अव्यय के साथ आता है तब क्रिया विशेषण हो जाता है। जैसे- बिना कोंनऊं बात कौ कारन जानें, बीच में बोलबौ अच्छौ नइयां (बिना किसी बात का कारण जाने बीच में बोलना अच्छा नहीं है)।
3. समुच्चय बोधक अव्यय
परिभाषा
जो अव्यय दो शब्दों, वाक्यांशों या वाक्यों को जोड़ते हैं वे समुच्चय बोधक अव्यय कहलाते हैं। जैसे –
(क) दो शब्दों को जोड़ना— राम अर स्यांम जा रय हैं। (राम और श्याम जा रहे हैं)।
(ख) दो वाक्यांशों को जोड़ना— मैं जातो पै ऊ अबै लों नई आव। (मैं जाता पर वह अभी तक नहीं आया)।
(ग) दो वाक्यों को जोड़ना— बे आये हैं ई-सें मै-ई चलो। (वे आये हैं इससे मैं भी चला)।
उक्त वाक्यों में (क) में ‘अर’, राम और श्याम, दो शब्दों को जोड़ते हैं। (ख) में ‘पै’ (1) मैं जातो (2) ऊ अबै लों नई आव, इन दो वाक्यांशों को जोड़ता है। (ग) में ‘ई सें’ (1) वे आय हैं, (2) मैं-ई चलो, इन दो वाक्यों को जोड़ता है अतः ये तीनों ही समुच्चय बोधक अव्यय हैं।
बुन्देली में समुच्चय बोधक अव्यय मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। (1) समानाधिकरण समुच्चय बोधक और (2) व्यधिकरण समुच्चय बोधक।
1. समानाधिकरण समुच्चय बोधक अव्यय
जो समुच्चय बोधक शब्द दो वाक्यों को जोड़ते पा अलग करते हैं वे समानाधिकरण समुच्चय बोधक अव्यय कहलाते हैं। प्रयोग के अनुसार इनको चार वर्गों में विभाजित किया जाता है। (क) संयोजक, (ख) वियोजक (ग) विरोध दर्शक और (घ) परिमाण दर्शक।
(क) संयोजक
इनसे दो शब्दों, वाक्यांशों या वाक्यों का संग्रह होता है, या उन्हें जोड़ा जाता है। प्रमुख संयोजक उर, अर (और) ‘बा’ (व) जैसई-बैसई, तथा, एवं, नां, फिर आदि हैं। जैसे बेंन उर भैया, वे जैंय अर आंय। राम बा स्यांम गय ते (राम और श्याम गये थे)। मताई तथां बिन्नू आई। कागद अर किताबें लेताइयौ (कागज और किताबें लेते आइयो)। ऊ नें रात नां दिनां एक ई तो करडारो (उसने रात और दिन एक कर डाला) ऊ गव फिर मैं आगव (वह गया फिर मैं आ गया)। डॉ. अग्रवाल के अनुसार द्वितीय खां क्षेत्र में यह ‘फिन’ होता है।
(ख) वियोजक या विभाजक
वियोजक संयोजक का उल्टा है। इसके द्वारा दो शब्दों दो वाक्यांशों या वाक्यों में एक या दोनों का त्याग होता है। प्रमुख वियोजक या… या, कै….कै, चाय….चाय, धों…धौं, ना….ना, नें….नें, नई तो, नन्तर, नांतर, आदि हैं। प्रयोग देखिये –
या राम या मोहन काऊ खों भेजौ।
कै लटोरा कै घसीटा, कोऊ चलो आबै, का कन्नें ?
चाय देवरानी चाय जिठानो, नन्दबाई सबई-सें लरतीं।
धौं– बिन्नूं (छोटी बहिन) धौं जिया (बड़ी बहिन) कोऊ आ जाय।
ना तो सें ना मों सें; ऊ की काऊ सें तो नई बनत।
नें राम खों भेजौ नें मोहन खों। रुक जाव नई–तो काम नें हुइयै।
मान जाव, नांतर पिटाई घलै। (मान जाओ नहीं तो पिटाई लगेगी)
चले जाव, नन्तर ठीक नें हुईयै। (चलें जाओ नहीं तो ठीक न होगा)
(ग) विरोध दर्शक
जब दो वाक्यों में पहले वाक्य के अर्थ का दूसरे से निषेध करना होता हैं तब इसका प्रयोग करते हैं। प्रमुख विरोध दर्शक पै, लेकिन परंत (परन्तु) किंत (किन्तु) अकेले, मगर, बल्कें (बल्कि) आदि हैं। जैसे- प्रयोग देखिये –
ऊ आउतो किंत में लेबे गय ई नइयां, (वह आता किन्तु मैं लेने गया ही नहीं)
हाड़ फूट जांय पै पुलिस की मार सें सांची कैवे बारौ नइयां। हर तरां मनाओ अकेलें बा नें मानी। (हर तरह मनाया अकेले वह नहीं मानी)
(घ) परिणाम दर्शक
परिणाम या फल सूचक समुच्चय बोधक परिणाम दर्शक कहलाते हैं। ई कारन सें, सोऊ, ईसें (इसलिये) आदि प्रमुख परिणाम दर्शक हैं। प्रयोग देखिये —
मोरी मोंड़ी की जी नोनों नइआं, ईसें मैं आज नई आ सकत (मेरी लड़की का स्वास्थ्य आज ठीक नहीं है इसलिये मैं आज नहीं आ सकती)।
(2) व्यधिकरण समुच्चय बोधक अव्यय
इसके चार प्रकार होते हैं—
(क) कारण वाचक
(ख) उद्देश्य वाचक
(ग) संकेत वाचक
(घ) स्वरूप वाचक
उक्त सभी प्रकार के व्यधिकरण समुच्चय बोधक अव्ययों का वर्गीकृत विभाजन इस प्रकार हो सकता है—
कारण वाचक— कारण सूचक समुच्चय बोधक कारण वाचक कहलाते हैं। काय कै (क्योंकि) जो कै (जो कि) ई सें कै (इसलिये कि)।
उद्देश्य वाचक— इस वर्ग के समुच्चय बोधक के बाद आने वाला वाक्य पहले का उद्देश्य सूचित करता है। प्रमुख समुच्चय दर्शक ये हैं—
कै (कि) जो, ताकै (ता कि) ई से कै (इसलिये कि) काय सें कै।
संकेत वाचक— जिन सम्बन्ध सूचकों से जोड़े हुए दो वाक्यों में एक का संकेत दूसरे से हो। प्रमुख संकेत सूचक निम्न हैं— तौ, जौ-तौ, तथापि। इसी प्रकार अगर, जदि, तो, चाहे, परन्त आदि। प्रयोग आसान है। तुम नई मानें तौ खट्टी खा जैव।
स्वरूप वाचक— जिन सम्बन्ध सूचकों से जुड़े हुये वाक्यों या शब्दों में पहले वाक्य या शब्द का स्वरूप बाद वाले से स्पष्ट होता है वे स्वरूप वाचक समुच्चय बोधक कहलाते हैं।
कै, जो, अर्थात, यानें, मानों आदि स्वरूप वाचक हैं। जैसे- मोय डर लगत कै कऊँ बौ मर नें जाय। ऊ गदा अर्थात मूरख है।
डॉ. अग्रवाल ने समुच्चय बोधक अव्ययों में एक अनुमोदक (Concessives) भेद स्वीकार करते हुये उसके उदाहरण इस प्रकार दिये हैं-
घाल…. पै–हालांकि…..पर।
घाल मौका न तो पै काम बन गओ।
— यद्यपि उपयुक्त अवसर न था पर काम बन गया।
स्यात्…..तौ…… ता-यदि……तो।
स्यात गाड़ी रुक गई तो…… यदि गाड़ी रुक गई तो……
जौ……तौ……ता……यदि…….तो
जौ ऊ आ गओ तौ…… यदि वह आ गया तो…..
कजन्त-कजन…..तौ……तो……।
कजन्त ऊ आ गओ तौ…… अगर वह आ गया तो……।
कभी-कभी वाक्यांश बदल कर इनमें से किसी एक शब्द से भी काम चला लिया जाता है। यथा-
मौका न तो तै काम बन गओ।
अथवा
काम बन गओ घाल मौका न तो।
समुच्चय बोधक अव्यय– एक भाषा वैज्ञानिक वर्गीकरण
कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने समुच्चय बोधक अव्ययों का वर्गीकरण करते हुए उसको केवल दो प्रकार का माना है। 1-मूल और 2-यौगिक। साथ ही यह भी स्वीकार किया है कि कुछ अन्य शब्द भेद भी हैं, जिनका प्रयोग समुच्चय बोधक अव्ययों की भाँति होता है।
सम्बन्ध सूचक अव्यय प्रकरण में ‘मूल’ तथा ‘यौगिक’ की परिभाषा दी जा चुकी है। वर्गीकृत परिगणन इस प्रकार है-
1. मूल समुच्चय बोधक अव्यय
अर (और) उर (और) बा (व) तथां (तथा), एवं, या करकैं (या कि किंवा) (अथवा) के (कि) चाय (चाहे) मगर, पै (पर) परंत (परन्तु) किंत (किन्तु) ईसें (इसलिये) ईसै (अतः) काय कै (क्योंकि) ताकै (ताकि) जो, मानौ, अरथात (अर्थात्) यानें (यानी) बल्कैं (बल्कि)।
2. मूल–एकाधिक सम विविक्त समुच्चय बोधक अव्यय
एक ही समुच्चय बोधक जब एक ही लम्बे वाक्य में एक से अधिक बार आता है-पुनरुक्त होता है। जैसे-प्यार सोऊ या घटत है, या बड़त है, या बदलन लगत है। इस वाक्य में ‘या’ की पुनरुक्ति अनेक बार है। इसी प्रकार नें…..नें का प्रयोग देखिये- नें दोस्ती कौ खिचाव है, नें दुश्मनी कौ सकोच।
अन्य प्रयोग भी देखे जा सकते हैं। जैसे—
चाय (चाहे)…………..चाय (चाहे)…………..
चाय जा अपनी बात कौ जुवाप पावे की ऐंन इंछा [इच्छा] रई होवे
चाय-कछू घूमवे फिरवे भर की बात सोची होय ?
3. मूल–एकाधिक विषम विविक्तः
एक ही लम्बे वाक्य में जहाँ एक से अधिक विषम-विभिन्न प्रकार के अव्ययों का प्रयोग देखा जाता है। जैसे—
पै– सवाल ऊ मोटी बात कौ नइयां जो देस या प्रान्त, या हम हैं, सवाल भावना कौ है या कर्तव्य कौ।
फालतू कामन में पड़ाई-लिखाई, तथा समव और धर्म की निकसानी होत है। बस्ती अरथात जनस्थान या जनपद कौ तौ नाम-ई मुसकल से मिलत।
4. मूल युग्मक तथा मूल एकाकी विविक्त
जहाँ दो मूल समुच्चय बोधक एक साथ प्रयुक्त होते हैं तथा मूल समुच्चय बोधक एकाकी रूप में एक ही लम्बे वाक्य सें प्रयुक्त होते हैं। जैसे
तुम हमें जानें का जानत ? लेकिन अगर तुम जान पाउते कै हम का सोचत है ?
5. अन्य शब्द भेद–युग्मक
जहाँ एक ही लम्बे वाक्य में अन्य शब्द भेदों के योग से बने दो समुच्चय बोधक अव्यय एक साथ प्रयुक्त हों। जैसे—
(क) जैसें कोंनऊ भीतरौ घाव में ककरा गड़ै, एस-ई जी संसव ऊ के भीतर गड़त तो…. नई-तो मैं काय एसौ जी छोड़कें रोउलो ?
(ख) मन में थोरौ आदर भी हतो, जीके कारन मैं कैऊ बेर ऊके घरै गव।
6. अन्य शब्द भेद–एकाकी
अन्य शब्द भेद के योग से बना समुच्चय बोधक जहाँ अकेला प्रयुक्त होता है; जैसे—
ठीक का है सो ई के बारे में साधारन नियम कठन है।
7. अन्य शब्द भेद–विविक्त
जहाँ एक लम्बे वाक्य में अन्य शब्द में दो संयोग से बने अनेक विभिन्न समुच्चय बोधक अव्ययों का प्रयोग हो। जैसे—
(क) आज सोऊ जब कोऊ सांची बात कै उठत तब लराई हो परत।
(ख) जब भावना अर सुन्दरता के पुजारी खों बुद्धि अर सचाई की परख समज में आउत है तब ऊयै अपनी भूल बिसर कौ पतौ परत।
(ग) आज बीमार हों तो कुरसी उठा रय हो, मर जांव तौ अरबी उठावे आइयो, अन्तर नरकन जैव।
8. मूल तथा अन्य शब्द भेद–विविक्त
जहाँ एक ही लम्बे वाक्य में अनेक मूल तथा यौगिक समुच्चय बोधक अव्ययों का प्रयोग हो जैसे-
(क) मीराबाई की महमां ई में नैयां कै बे बिस पी कें जियत रई; बल्कें ई बात में है कै उनें बिस पियत में कौंनऊ डर नई लगो।
(ख) हम कछू कर सकत हैं तौ जेऊ कै ऊकौ कबच कस दैबें, अगर ऊ के लिंगा दिया है तौ ऊ की बाती उसकीर देबें।
9. अन्य शब्द भेद एवं मूल युग्मक
जहाँ एक ही वाक्य में यौगिक एवं मूल समुच्चय बोधक अव्ययों का एक साथ युग्म रूप में प्रयोग हो। जैसे
कौनऊं चित्र के, विचार के, कविता के, गीत के, धुन के, सुन्दर सपने के जो कै हमारौ-ई है के बारे में चरचा विचार करबौ हमें अच्छी लगत।
10 अन्य शब्द भेद–मूल
जहाँ एक ही लम्बे वाक्य में यौगिक एवं मूल समुच्चयबोधक अव्ययों का अलग-अलग रूप में प्रयोग हो जैसे—
(क) तौ लौ समस्या है जौ लौ कै सुरजावे कौ मजबूत उपाव समज में नें आ जाय।
(ख) ऊ के रंगे भय पन्नन को ढेर लगन लगो इतै तक कै ऊनें अपनी लिखी भई काफिया एक सिन्दूका में भरबो सुरू कर दव।
विशेष
उक्त वर्गीकृत विभाजन के प्रकरण में समागत परिभाषाओं और उदाहृत वाक्यों से स्पष्ट है कि समुच्चय बोधक अव्यय वाक्य की सभी सार्थक इकाइयों को (पद, वाक्यांश, वाक्य, उपवाक्य) संयोजित करने वाले महत्वपूर्ण अवयव हैं।
4. मनोभाव वाचक-अव्यय
परिभाषा
विस्मय, आश्चर्य, हर्ष, शोक, आशीर्वाद आदि प्रकट करते हुये हम ऐसे शब्द बोल देते हैं, जिनका वाक्य में कोई व्याकरणिक सम्बन्ध नहीं होता, जैसे—
वाह क्या बात है ! हाय यह क्या हो गया? ‘वाह, हाय’ आदि मनोभाव वाचक अव्यय है। अर्थ की दृष्टि से इनके मुख्य भेद निम्न प्रकार हैं-
1. सम्मति ज्ञापक
हाँ, हूँ, हओ, भौत अच्छा, भौत अच्छी।
2. असम्मति ज्ञापक
ना, नें, नई, आँहाँ, ऊंहूँ।
3. अनुमोदन ज्ञापक
ठीक, बाभा, बाभा-बाभा, ओहो, स्याबास, स्याबात, अच्छा, हाँ–हाँ।
4. घृणा या विरक्ति ज्ञापक
थू-थू, राम-राम, ध्रिकाल, धिरकाल, धिक्कार, हट, भग, चुप।
5. भय, यंत्रणा या अन्तर्व्यथा ज्ञापक
आह, ओह, ओ दद्दा, ओ मताई, ओ बऊ, ओ दद्दा रे, मर गये, ओ मताई भर गये, अरे दोरियो रे मर गये, बचाओ, बचाओ, कोऊ बचाले रे, है नईयां रे कौन-ऊँ !
6. आश्चर्य सूचक
हैं, ऐं, ओहो, अरे राम, ओ बाप रे, बाभा-बाभा, का।
7. करुणा ज्ञापक
आ, हाय राम, अरे बाप रे।
8. आह्वान या सम्बोधन ज्ञापक
काँव-काँव, चेंभे-चेंभे, बड़-बड़, धम्म-धम्म, छल्ल-छल्ल, कल्ल-कल्ल।
9. अव्यय की भाँति प्रयुक्त होने वाले शब्द
जान कें, जान बूझ कें, जानमान कें, मिल कें; मिल-मिल कें, मिल-जुर कें, मेन्त कर कें, खास कें, एक-एक कर कें, नेचों मों कर कें।
पूर्व निश्चयात्मक
जेई, जेऊ, जोई (यह ही या यही) बोई (वही)।
विशेष
(क) इन सभी का विशिष्ट अर्थ बोलने की रीति से प्रकट होता है।
(ख) उदाहृत अव्ययों में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रियाएँ, क्रियाविशेषण आदि संयोजित और वाक्य-सभी तरह के शब्द पाये जाते हैं।
डॉ. अग्रवाल ने ‘निपात’ और ‘परसर्गों’ को पृथक-पृथक रूप से अव्यय मानते हुये उनका सोदाहरण प्रयोग प्रकार प्रदर्शित किया है। इस ग्रन्थ में भी यथा स्थान उनकी सोदाहरण चर्चा अपने ढंग से की गयी है।
शब्द रचना
कुछ शब्द तो बने बनाये होते हैं; जैसे हार, मूर्ख, रसोई, घर, परन्तु कुछ शब्द बनाये जाते हैं। यह शब्दों का बनाना ही ‘शब्द रचना‘ कहलाता है।
संस्कृत तथा हिन्दी की तरह बुन्देली के सभी शब्द धातुज नहीं है। धातुज और अधातुज दोनों प्रकार के हैं। निम्न चार्ट द्वारा बुन्देली शब्दों की रचना विधि को भाषा वैज्ञानिकों ने स्पष्ट करते हुये विश्लेषण किया है—
धातुज मूल शब्द प्रकृति
शब्द प्रकृति यौगिक शब्द प्रकृति+प्रत्यय
अधातुज समास शब्द प्रकृति+प्रकृति
सामान्य यौगिक तथा हृस्वीकृत धातुओं पर आधारित शब्द घातुज कहलाते हैं। जैसे— चरइया, चरवइया तथा खबइया आदि। उक्त सभी शब्द यौगिक हैं। खेल, मार, दौड़, हार कसक आदि मूल शब्द हैं जो सामान्य घातुओं पर आधारित संज्ञा शब्द है। घर-घुसा, दिन लौटें, दौरा-पदौरी आदि सामासिक पद हैं। राजा, रानी, काम, घर, ईटा, पथरा, हांत, पांव आदि बुन्देली के अधातुज मूल शब्द हैं। कमाई, चमरौला आदि यौगिक शब्द हैं। अधातुज कोटि में आने वाली सामासिक पदावलि भी बुन्देली भाषा में प्रचुर मात्रा में मिलती है। जिसके उदाहरण यत्र-तत्र बहुत मिलते हैं, अस्तु।
रचना या बनावट के आधार पर शब्दों के तीन भेद किये जाते हैं। 1-रूढ़ 2-यौगिक और 3-योग रूढ़। इस प्रकरण में केवल इस बात का विचार किया जाता है कि भाषा का प्रचलित शब्द भाषा के अन्य प्रचलित शब्द से किस प्रकार बना है ? अतः रूढ़ और योगरूढ़ शब्द इसके अध्ययन क्षेत्र की परिधि में नहीं आते। इन दोनों के अतिरिक्त केवल यौगिक शब्द शब्द-रचना के विषय माने जाते हैं।
यौगिक का अर्थ है- जुड़ा हुआ। जब किसी रूढ़ शब्द के साथ कोई और शब्द या शब्द-खण्ड (उपसर्ग या प्रत्यय) जुड़ता है, तो वह यौगिक शब्द बन जाता है। जैसे सहपाठी, कृपालु, राजपुरुष। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि एक ही भाषा के किसी शब्द से जो दूसरे शब्द बनते हैं वे बहुधा तीन प्रकार से बनाये जाते हैं-
(क) किसी-किसी शब्द के पूर्व एक-दो अक्षर लगाने से नये शब्द बनते हैं। ये उपसर्ग कहलाते हैं। जैसे हार में ‘प्र’ जोड़कर ‘प्रहार’, ‘वि’ जोड़कर ‘विहार’, ‘सं’ जोड़कर संहार’ आदि बनाये जाते हैं।
(ख) किसी-किसी शब्द के पश्चात् एक दो अक्षर मिलाने से नये शब्द तैयार होते हैं। ये ‘प्रत्यय‘ कहलाते हैं। कृत और तद्धित प्रत्यय इसके वर्ण्य विषय है।
(ग) किसी-किसी शब्द के साथ दूसरा शब्द मिलाने से नये संयुक्त शब्द तैयार होते हैं। ये ‘समास‘ कहलाते हैं। जैसे- घोड़ा-गाड़ी, डाकखाना आदि।
क्रमशः इन्हीं के सम्बन्ध में विचार करना इस प्रकरण का विषय है।
1. उपसर्ग
जो शब्दांश किसी शब्द के पहले जुड़ते हैं उन्हें ‘उपसर्ग‘ कहते हैं। उपसर्ग अपने में सार्थक नहीं होते किन्तु जिस शब्द के साथ जुड़ते हैं, उसमें एक विशेषता ला देते हैं जैसे-हार, के पहले ‘प्र’ जोड़ने से ‘प्रहार’ ‘वि’ जोड़ने से विहार’ ‘सं’ जोड़ने से ‘संहार’ ‘आ’ जोड़ने से ‘आहार’ आदि शब्द बनते हैं।
संस्कृत और फारसी आदि के उपसर्ग भी मिलते हैं, फिर भी हिन्दी के उपसर्गों से कम। लोक भाषा की स्वाभाविक सरलता के कारण संस्कृत उपसर्गों को सरल रूप से सरल बना दिया है।
1. बुन्देली में प्रयुक्त संस्कृत उपसर्ग
अति— अत्याचार
अधि— अधकार (अधिकार), अध्याव (अध्याय)
अनु— अनसार, अन भौ (अनुभव) अनदान (अनुदान)
अप— अपजस, अपमान, अपराध
अभि— अभमान (अभिमान) अभ्यास, अभलाखा, अबलाखा
आ— आकास, आचरन, आडम्बर, आजीवन, आदर, आसरम, आज्ञा
इति— इतहांस, इतिहास
उत— उन्नति, उत्पत्ति, उत्तम, उत्पात, उत्सव
उप— उपकार, उपदेस, उपजोग, (उपयोग) उपमंत्री, उपसर्ग, उपवास
कु— कुकरम, कुरूप, कुचीदौ, कुलच्छ
दुर— दुरबल, दुरगुन, दुरदसा, दुरजन, दुरलभ
नि— निदांन, निवास, निरोग, निद्रा, निवेदन, निकाम
निर— निरभय, निरवाह, निरदोस
परा— पराक्रम, (पराक्रम) पराधीन
परि— परकम्मा (परिक्रमा) परनाम, परमान
प्र— परतिग्यां, परकास, परचार, परबस, परलय, परसिद्ध (प्रसिद्ध) पछार
वि— बिधबां, बिबाद, बिसेस, बिदेस, बिरथां, बिनास, बिधान, बिहार
सम— सन्तोष, संजोग, संन्यास, संसकार, संगीत, संचय
सु— सुलभ, सुपूत, सुगम, सुबोध, सुबदा (सुविधा)
एक से अधिक उपसर्गों का प्रयोग भी किन्हीं शब्दों के साथ मिलता है।
जैसे-वि + आ + करण व्याकरण। सम आचार समाचार। सम + आ + धान = समाधान।
बुन्देली में प्रायः हिन्दी के सभी उपसर्ग देखने में आते हैं।
2. बुन्देली में प्रयुक्त हिन्दी उपसर्ग
अ— अबोध, अजान, अचेत, अकाल, अबेर, अलग्ग, अछूत, अनाथ, अमर
अति— अत अन्त (अत्यन्त), अत अधक (अत्यधिक)
अध— अदपको, अदमरो, अदकच्चो, अदकचरा, अस्सेरा
अन— अन-गिनते, अनमोल, अनरीत, अनमनी, अनपढ़, अनबन, अनुसुनी, अनारी।
उन— उन्सीस, उन्तालीस, उनंचास, उनसट, उनहत्तर, उन्न्यासी।
अव— (औ) औगन (अवगुण) औतार (अवतार) औगड़, औघट, औहर।
कु— कपूत, कुटेक, कुटेंम, कुढंग, कुठौर।
कु— कुचाल, कुचैलो, कुलच्छी, कुलच्छन।
दु— दुरबल, दुलार, दुरबुद्धि, दुरगत, दुकाल।
दू — दूबरौ।
नि— निरदय, निरबल, निरोग, निधड़क, निकम्मौ, निरोगी, निडर।
भर— भरपेट, भरपूर।
बिन— बिन जानों, बिन देखो, बिन बुलाओ, बिनब्याव।
स— सपूत, सगुन।
सु— सुपूत, सुकाल, सुबरन, सुफल, सुजान, सुडौल।.
उपर्युक्त उपसर्ग वास्तव में संस्कृत से ही निष्पन्न हैं। आधुनिक हिन्दी में इनके प्रयोग की अधिकता के कारण यहाँ हिन्दी के उपसर्ग मान लिया है और ये इसी प्रकार बुन्देली में यथा स्थान यत् किंचित् परिवर्तन के साथ देखने को मिलते हैं।
- 3. बुन्देली में प्रयुक्त विदेशी उपसर्ग
अल— अलवत्तां, अलाल।
ऐन— ऐंनवक्त।
कम— कम उमर, कमजोर, कम कीमत, कम हिम्मत, कमबख्त, कम अक्ल।
खुश— खुस खबर, खुसदिल, खुसकिस्मत, खुसहाल, खुसामद, खुसबू।
गैर— गैर-बाजब, गैर-समाज, गैर-आबाद, गैर हाजिर, गैर जगह।
दर— दर-खास, दर असल, दरकार, दरबार, दर-रोज, दरहकीकत।
ना— नादांन, नापसंद, नाराज, ना-उम्मेद, नाबालिग, नालायक।
ला— लापता, लाइलाज, लाबारस, लापरवाह।
बद— बद किस्मकत, बदमांस, बदनाम, बद-नामी, बद-इन्तजाम, बदहजम, बदचलन, बदतमीज, बदसकल, बदसूरत, बदकिस्मती।
बर— बरखास, बरदास।
बिल— बिल्कुल।
बिला— बिला इजाजत, बिला कसूर, बिला बजह, बिला शक, बिला शर्त।
वे— बेईमान, बेचारे, बेरहम, बेधड़क, बेचेंन, बेजान, बेखटकें, बेहद, बेजोड़।
ला— लाचार, लाबारस, लापरवाह, लापता।
फी— फी मकान, फी रुपया, फी आदमी।
हर— हर रोज, हरसाल, हरतरा, हरआदमी, हरधरी, हर एक।
कभी-कभी इन उपसर्गों से विशिष्ट अर्थ विकसित हो जाते हैं, जैसे अत्याचार, अधिकार, अध्ययन, अनुभव, अपराध, अभिप्राय, अभिनय, अवकाश, अवसर, आदर, आकाश, उज्ज्वल, उत्सव, उपयोग, उपवास, निद्रा, निवेदन, निर्णय, परामर्श, परिच्छेद, प्रकृति, प्रभात, विनोद, विहार, समय, संस्था।
कुछ शब्दों की रचना एक से अधिक उपसर्गों के प्रयोग से होती है, जैसे— अधि + नियम (अधि+नि+यम) उदाहरण (उद्+आ+हरण) अभ्यागत (अभि+आ+गत) उपन्यास (उप+नि+आस) (निरअभिमान) दुष्प्रयोग (दुष्+प्र+योग) सुविख्यात (सु+वि+ख्यात) निसंदेह (निः+सं+देह) सुप्रसिद्ध (सु+प्र+सिद्ध) सुप्रचलित (सु+प्र+चलित)।
कभी प्रचलित शब्द को विशेष प्रभावोत्पादक बनाने के लिये एक ही उपसर्ग की पुनरावृत्ति भी की जाती है, जैसे- सुस्वागतम् (सु+सु+आगतम्)। परिनिष्ठित हिन्दी के प्रभाव से उक्त सभी उपसर्ग अब इसी रूप में अथवा स्थानीय उच्चारण की कुछ विभिन्न बोली रूपों के साथ बुन्देलखण्ड के बुन्देली भाषियों द्वारा भी प्रयोग में लाये जाते हैं।
गतिशब्द
उपसर्गों के अतिरिक्त कुछ विशेषण और अव्यय ऐसे हैं जो उपसर्गों की भांति प्रयुक्त होते हैं, उन्हें ‘गति शब्द’ कहते हैं। कुछ प्रमुख गति शब्द इस प्रकार हैं-
गतिशब्द अर्थ उदाहरण
अ नहीं (व्यंजन के पूर्व) अग्यान (अज्ञान) अधरम
(अधर्म) अकाल, अमर, अचल।
अन …. (स्वर के पूर्व) अनांचार, अनांद, (अनादि)
अनेक, अनपम (अनुपम)
अधः नीचें अधोगति
अन्तः भीतर अन्तर्जामी (अन्तर्यामी) अंतरंग (अन्तरङ्ग)
कु बुरा कुकरम (कुकर्म) कुपूत, कुरूप, कुमत (कुमति)
तत् वह ततकाल (तत्काल) तदनसार (तदनुसार)
तल्लीन, तनमय (तन्मय)
पर दूसरा परलोक, पराधीन, परदेसी, परोपकार
पुनः फिर पुनरजनम (पुनर्जन्म)
पूर्व पहला पूर्वारध (पूवार्द्ध)
बहु बहुत बहुमूल्य
स साथ सरम, सजीव, सचेत, सफल, सगोत्र
सह साथ सहजोग (सहयोग) सहानभूत (सहानुभूति)
सैपाटी (सहपाठी) सैकारता (सहकारिता)
सत् अच्छा सत्पुरख (सत्पुरुष) सतसंग (सत्संग)
स्व अपना सुंतंत्र (स्वतंत्र) सुदेस (स्वदेश)।
2. प्रत्यय
पहले कहा गया है कि प्रत्यय उस शब्दांश को कहते हैं, जिसे किसी शब्द या धातु के पीछे जोड़कर यौगिक शब्द बनाये जाते हैं। जैसे- मूर्ख में ‘ता’ प्रत्यय जोड़कर ‘मूर्खता’ अच्छा में ‘ई’ प्रत्यय जोड़कर ‘अच्छाई’, कर में ‘नी’ प्रत्यय जोड़कर ‘करनी’ ‘चल’ में ‘अन’ प्रत्यय जोड़कर ‘चलन’ आदि यौगिक शब्दों की रचना की जाती है।
प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं। ‘कृत्’ और ‘तद्धित’। जो प्रत्यय क्रिया धातु या मूल क्रिया के साथ लगते हैं, उन्हें ‘कृत्’ प्रत्यय कहते हैं और इनसे बने यौगिक शब्दों को ‘कृदन्त‘ शब्द कहते हैं। जैसे- आट (आहट) प्रत्यय लगाकर घबरा (बौ) से घबराट (घबराहट) चिल्ला (बौ) से चिल्लाट (चिल्लाहट) बौखला (बौ) से बौखलाट (बौखलाहट) और इसी प्रकार लड़खड़ाट आदि कृदन्त शब्द बनाये जाते हैं।
दूसरे प्रकार के प्रत्यय वे हैं, जो क्रिया से भिन्न शब्द (अर्थात् संज्ञा, सर्व नाम, विशेषण या अव्यय के साथ जुड़ते हैं। इन्हें तद्धित प्रत्यय और इनकी सहायता से बने यौगिक शब्दों को ‘तद्धितान्त’ शब्द कहते हैं। जैसे-‘य’ प्रत्यय जोड़कर ‘स्वस्थ्य’ से ‘स्वास्थ्य’ (भाववाचक संज्ञा) ‘दन्त’ से ‘दन्त्य’ (विशेषण) बन गया है।
बुन्देली ने संस्कृत, हिन्दी तथा विदेशी प्रत्ययों के संयोग से बने यौगिक शब्दों के सादर समावेश पूर्वक अपने ‘शब्द-भंडार’ को समृद्ध बनाया है अतः जिन प्रत्ययों का बुन्देली में प्रचलन है उन्हीं के सम्बन्ध में चर्चा करना सामयिक है।
कृदन्त
क्रिया में प्रत्यय लगाने से जो शब्द निष्पन्न होते हैं वे कृदन्त कहलाते हैं। जैसे-दौर से दौरत, दौरो, दौरबो, दौरबे बारौ, दौरतभय, दौरकें आदि। क्रिया को रचना में इनका प्रयोग होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-
1. क्रियार्थक संज्ञा— जो धातु में ‘बौ’ जोड़ने से बनती है। लिखबौ, पड़बौ, कैबौ, सुनबौ आदि जब संज्ञा की तरह वाक्य में प्रयुक्त होते हैं तब यह क्रियार्थंक संज्ञा कहलाते हैं। जैसे- पोथी पड़बौ सीकौ, (पुस्तक पढ़ना सीखो) अपनें सें बड़े लोगन कौ कैबौ मानों (अपने से बड़े लोगों का कहना मानो) आदि।
यह है तो क्रिया ही परन्तु कभी-कभी यह संज्ञा के अर्थ में और कभी-कभी विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होती है। इससे संज्ञा तथा विशेषण वाले रूपान्तरित प्रयोगों में भी किया का अर्थ अवश्य रहता है, इसीलिये इसे क्रियार्थक संज्ञा कहते हैं।
संयुक्त कियाओं में चाहवौ, हाेबों, पड़बौ, चाइये, से पहले इसका प्रयोग होता है; जैसे- ल्याव चाउत हों (लाना चाहता हूँ) ऐसौ करनें परत है (ऐसा करना पड़ता है) बात करनी चाइये (बात करना चाहिये)।
ऊ जाबे बारौ नइयां (वह जाने का नहीं अर्थात् कभी नहीं जायगा) और गाड़ी जावे खों है (गाड़ी जाने को है) इन दोनों वाक्यों में कियार्थक संज्ञा का प्रयोग ध्यान पूर्वक समझना चाहिये।
संज्ञा रूप में प्रयुक्त होने पर इसे पुल्लिंग एक वचन माना जाता है, जैसे— दौरबो अच्छौ है या भौत हंसबौ बुरौ है। कारक चिन्हों के साथ प्रयोग करने के लिये अन्तिम ‘औं’ को ‘बे’ कर देते हैं, जैसे- दौरबे से तबियत अच्छी रात, (दौड़ने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है) या ‘लरबे में का रक्खो है? (लड़ने में क्या रखा है)।
कियार्थक संज्ञा का प्रयोग जब विशेषण रूप में होता है तब—
(क) यदि अकर्मक किया से वह संज्ञा बनी है तो उसका रूप पूरक के लिंग और वचन के अनुसार होता है जैसे- बात होनी है, बातें होतीं हैं, काम होना है, काम होनें हैं।
(ख) यदि सकर्मक किया से वह कियार्थक संज्ञा बनी है तो उसका रूप कर्म के अनुसार होता है; जैसे- चिठिया पड़ना है, चिठियां पड़ने हैं, पोथी पड़ने है, पोथीं पड़नें हैं।
2. कर्तृवाचक संज्ञा
किसी क्रिया के आधार पर बनी हुई ऐसी संज्ञायें जिससे क्रिया के करने वाले कर्ता का बोध हो वे कर्तृत्राचक संज्ञायें कहलाती हैं।
क्रियार्थक सज्ञा के- ‘वे’ संयुक्त साधारण रूप के आगे ‘बारौ’ जोड़ने से तथा क्रिया के साधारण रूप के साथ ‘ऐया’ जोड़ने से बनती है। जैसे— गाबे बारो, करबे बारो, कटैया, मरैया, बचैया आदि।
अन्य आकारान्त संज्ञाओं के अनुरूप लिंग, वचन और कारक में इसके भी रूप बदलते हैं, जैसे- दौरबेबारौ, चल बसो, भगबे बारन खों पकरौ, गाबे बारी आ रई है। पाबे बारै को पतौ लिखौ। इनके प्रयोग विशेषण के रूप में भी हो सकते हैं, जैसे- चोरी करबे बारौ आदमी पकरो गओ। पड़बे बारे या पड़ैया लरकन कौ ध्यान राखौ। खाबे बारौ सोरा ल्याव।
सहायक क्रिया से पहले इसका अर्थ ‘जाने को तैयार’ होता है, जैसे- मैं डिल्ली जावे बारौं हों। बौ जेई पूछबे बारौ हतो।
3. भाव वाचक संज्ञा
जिन शब्दों से भाव, धर्म या व्यापार का बोध हो वे भाव वाचक संज्ञायें कहलाती हैं।
यह या तो धातु के रूप में रहती हैं; जैसे- दौर, लेन, देंन, खेल, कूंद। या धातु के आगे आव, आई, बट, आबट, ई आदि जोड़ने से बनतीं हैं। जैसे-मिलाव, सुनाई, ठगाई, थकाबट, मिलाबट आदि।
4. करण वाचक संज्ञा
जिन शब्दों के द्वारा कार्य सिद्ध होने का अभिप्राय प्रगट हो उन्हें करण वाचक संज्ञा कहा जाता है। धातु में आ, ई, अनी, आनी, ना, न, नी, आदि जोड़ने से बनतौ हैं। जैसे ढकना, रेती, ओढ़नी, बेलनी, कतन्नी, लेखनो, सुमरनी आदि।
5. वर्तमान कालिक कृदन्त (अपूर्ण कृदन्त)
जो कृदन्त धातु में तौ, ते, ती और तीं प्रत्यय वचन और लिंग के अनुसार यथा स्थान जुड़ने से बनते हैं, वे वर्तमान कालिक कृदन्त कहलाते हैं जैसे- खात है, खाते, पीती और पीतीं। इन के साथ भय, भये, भई और भईं भी जुड़ सकते हैं।
इनका प्रयोग संज्ञा के रूप में भी होता है, जैसे- डूबते खों तिनके कौ सहारौ, मरता का नैं करता, आदि।
क्रिया की सहायक क्रियाओं के योग से इसमें वर्तमान काल की विविधता आ जाती है, जैसे-आउत, आउत, है, आउत तो, आउत हुइयै, आउत रओ, आउत रैय, आउत रत तो, आदि। आतीं, करतीं (स्त्री. बहुवचन) रूप तभी होते हैं जब सहायक क्रिया न हो।
इसका प्रयोग विशेषण के रूप में भी होता है, जैसे-चलती चक्की, दौरते लरका। वर्तमान कालिक कृदन्त विशेषण, पूर्व कालिक, तात्कालिक कृदन्त और मध्य कालिक कृदन्त प्रकरण इस सम्बन्ध में पठनीय हैं।
6. वर्तमान कालिक कृदन्त विशेषण
जिन शब्दों के वर्तमान काल में क्रिया का होना प्रतीत होता हो पर वह मुख्य क्रिया न होकर विशेषण मात्र हों, ऐसे शब्द वर्तमान कालिक कृदन्त विशेषण कहलाते हैं।
क्रिया को पुल्लिंग में ओकारान्त तथा स्त्रीलिंग में इकारान्त करने से यह बनते हैं। जैसे— रमतो जोगी, बहतो पानी, चलती चक्की आदि।
यह वर्तमान काल में तो रहते हैं परन्तु अपने ही कर्ता की विशेषता निम्नांकित रूप में बताते हैं।
7. पूर्व कालिक कृदन्त
जिन शब्दों से यह ज्ञान हो कि पूर्व काल में कोई क्रिया हुई है, इसीलिये इसे पूर्व कालिक कृदन्त कहते हैं, जैसे- चलकें (चलकर) लिखकें (लिखकर) आदि।
ये धातु के अन्त में ‘कें’ कर या ‘करके’ जोड़ने से बनते हैं। जैसे-घरै चलकें मैं तोय एक पोथी देंव।
प्रायः ‘कर’ जोड़ना अधिक शुद्ध माना जाता है। परन्तु ‘कर’ क्रिया के साथ पुनः ‘कर’ न जोड़कर ‘कें’ जोड़ते हैं, जैसे काम करकें जइयौ।
कभी-कभी ‘कर’ न जोड़कर अर्थात् केवल धातु से पूर्व कांलिक क्रिया का काम चलाया जाता है, जैसे— घर छोड़ ऊ कां जातो? मोंड़ा खों मोरी ओली में डार नें जानें वा कितै बिला गई ?
दो-दो क्रियाओं के योग से सामासिक रूप बनते हैं, जैसे- खा-पी कें, पड़-लिखकें, लै-दैकें, पी-पी कें, सोच-सोच कें।
वाक्य में पूर्व कालिक कृदन्त क्रिया विशेषण का काम देते हैं, जैसे- बौ दौरकें आव (वह दौड़ कर आया)।
पूर्व कालिक कृदन्त के कुछ विशिष्ट प्रयोग—
विसेख कें (विशेष कर) ईसें वड़कें (इससे बढ़कर)
पुल सें हो कें (पुल से होकर) डिल्ली सें होकें (दिल्ली से होकर)
दो-दो करकें इते सें चलकें उतै तक
विशेष— चलत-चलत, उड़त उड़त, भगत-भगत आदि के प्रयोग जिनमें पौनः पुन्य अथवा नैरन्तैर्य का भाव प्रकट किया जाता है वे द्वैत–क्रिया–पद भी कहलाते हैं।
पूर्व कालिक क्रिया के द्वित्व में ‘कें’ (कर) परसर्ग बाद में जोड़ा जाता है। जैसे-गा-गा कें, नच-नच कें।
समानार्थक और निरन्तरता बोधक कई धातु पद जोड़ी के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। जैसे-लिख-पढ़ कें। देख-सुनकें, केंद-फाँद कें, कूट-पीस कें, लूटमार कें, खा-पी कें, आ-जा कें आदि।
पारस्परिक क्रिया विनिमय का ज्ञान कराने के लिये क्रिया विशेषण पदों के द्वित्व रूप प्रयोग किये जाते हैं। इस द्वित्व रूप में पूर्व क्रिया आकारान्त और दूसरी ईकारान्त करनी पड़ती है। जैसे- धरा-धरी, पीटा-पीटी, देखा-देखी आदि।
8. तात्कालिक कृदन्त
जो कृदन्त अपूर्ण कृदन्तीय क्रिया विशेषण के साथ ‘ई’ जोड़ने से बनते हैं, जैसे- गोली लगत-ई मर गव। बौ आउत-ई पूंछन लगो। इनमें एक क्रिया के साथ ही (तत्काल) दूसरी क्रिया हो गयी है अतः इनमें तत्काल का भाव होने से इसे तात्कालिक कृदन्त कहते हैं। ये क्रिया विशेषण है, इसलिये अविकारी हैं।
9. मध्यकालिक कृदन्त
जो अपूर्ण या पूर्ण कृदन्तीय क्रिया विशेषण की द्विरुक्ति से बनते हैं, जैसे— चलत-चलत, चलें, ये दोनों कृदन्त विशेषण हैं परन्तु जब क्रिया के साथ इनका सम्बन्ध रहता है तब ये पूर्ण अपूर्ण क्रिया द्योतक कहलाते हैं। इनके प्रयोग इस तरह होते हैं-
(1) चलत-चलत उननें कई (चलते चलते उन्होंने कहा)
(2) कबके चले अबै इतै आय हो ?
10. भूतकालिक कृदन्त (पूर्ण कृदन्त)
जो कृदन्त धातु में ओ (पु. एक बचन), ई (स्त्री. एक वचन) ए (पु. एक वचन) ईं (स्त्री. बहुवचन) जुड़कर बनते हैं, जैसे-खाओ, खाये, खाई, खाईं एवं गयीं (स्त्री. बहुवचन) रूप तभी प्रयुक्त होता है, जब सहायक क्रिया न हो। जैसे- मैंने रोटी खायी, मैंने रोटियाँ खायी। बा गयी, वे गयीं। इसे पूर्ण कृदन्त भी कहते है।
इसका प्रयोग विशेषण के रूप में ‘भओ’ के साथ या ‘भओ’ के बिना भी होता है, जैसे-बीतो समव (बीता समय) बोये खेत परन्तु उच्चारण ‘बोय’ होता है या बीतो भओ समव, आय भये लोग। परन्तु उच्चारण ‘भओ का ‘भव’ और ‘भये’ का ‘भय’ होता है। इसका प्रयोग संज्ञा के रूप में भी हो सकता है। जैसे-पड़े-लिखन की बातें हैं।
क्रिया-विशेषण के रूप में भी इसका प्रयोग होता है, जैसे-बैठे-बैठे हार गओ। बौ किताबें लंय जा रओतो। ल्याव (लाया) खाव (खाया) पाव (पाया) खेव (खेया) बोव (बोया) डुबोव (डुबोया) पिओ (पिया) सिंओ (सिया) जिओ (जिया) नियमित जा से गओ (गया) कर से करो, ले से लओ, दे से दओ तथा इन्हीं के स्त्रीलिंग में गई, करी, लई, दई आदि अनियमित रूप से रचित शब्दों के आधार पर ऐसे ही अन्य शब्दों का संग्रह किया जा सकता है।
11. पूर्ण और अपूर्ण कृदन्तीय विशेषण
पूर्ण कृदन्त से पूर्ण कृदन्तीय और अपूर्ण कृदन्त से अपूर्ण कृदन्तीय क्रिया-विशेषण बनाये जाते हैं जैसे- बौ उन्नां फैलांय ठांड़ो तो (वह कपड़े फैलाये खड़ा था) बा पाँव दुकांय बैठी ती। उनको (दमाद बिटिया कौ) अन्न खात तुमें सरम नें आई। मैंने उयै भगत देखो तो। स्मरण रहे कि भूतकालिक कृदन्त को पूर्ण कृदन्त और वर्तमान कृदन्त को अपूर्ण कृदन्त कहा गया है। ये अविकारी हैं।
प्रकरण प्राप्त तद्धित प्रत्ययों की भी चर्चा यहाँ आवश्यक है।
तद्धित
संज्ञा, विशेषण, अव्यय और सर्वनाम शब्दों के अन्त में अनेक प्रकार से प्रत्यय लगाकर जो दूसरे संज्ञा इत्यादि शब्द बनते हैं वे ‘तद्धित‘ कहलाते हैं। और ऐसे प्रत्यय ‘तद्धित प्रत्यय’ कहलाते हैं। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-
1. कर्तृवाचक संज्ञाएं
जिन संज्ञाओं से कर्त्तापन का बोध होता हैं वे कर्तृवाचक तद्धितान्त शब्द कहलाते हैं।
संज्ञा के आगे बारो, हारो, एरो, इया आदि प्रत्ययों के लगाने से यह बनते हैं, जैसे—
2. अपत्यवाचक संज्ञाएं
जिन संज्ञाओं से सन्तान वंश या समाज आदि का परिज्ञान हो उन्हें अपत्य वाचक तद्धितान्त शब्द कहते है।
नाम वाचक शब्दों के पूर्व स्वर में वृद्धि करके अन्त में अ, ई आदि प्रत्यय जोड़ने से बनते हैं। जैसे- शिव, शैव, मनु, मानव, दयानन्द-दयानन्दी।
3. ऊन वाचक संज्ञाएं
जिन संज्ञाओं से लघुता या छोटापन प्रतीत हो वे ऊन वाचक तद्धितान्त शब्द कहलाते हैं।
संज्ञा के आगे ‘इया’, ई आदि प्रत्यय जोड़ने से बनते है। जैसे- आम, अमियां, लोटा, लुटिया, कटोरा, कटुरिया, कटोरी आदि।
4. गुण वाचक संज्ञाएं
जिन संज्ञाओं से किसी दूसरी संज्ञा का गुण प्रतीत हो वह गुण वाचक तद्धितान्त शब्द कहलाते हैं।
संज्ञा के अन्त में ‘ई, ईलो, ऐलो, ऊ, बान, मान, आरौ आदि प्रत्यय जोड़ने से बनते हैं। जैसे- देशी, छवीलो, बनैलो, धरू, धनवान, श्रीमान, इकारौ आदि।
5. भाव वाचक संज्ञाएं
जिन संज्ञाओं से भाव धर्म या गुण आदि का भाव प्रगट हो वे भाव वाचक तद्धितान्त शब्द कहलाते हैं।
संज्ञा के अन्त में या विशेषण के अन्त में आई, पन, या आट (हट) आदि जोड़ने से बनते हैं। जैसे- पंडित, पंडिताई छोटा, छोटोपन, आदि।
6. स्थान वाचक संज्ञाएं
जिन शब्दों से जातियों के रहने के स्थानों का ज्ञान हो वे स्थान वाचक तद्धितान्त शब्द कहलाते हैं।
संज्ञा के आगे आनो, बानो आदि जोड़ने से बनते हैं। जैसे- राजपूत, राजपूतानों, गौंड, गौड़वानों आदि।
बुन्देली में समागत संस्कृत, हिन्दी और फारसी प्रत्ययान्त सब्द
बुन्देली के उद्भव और विकास की परम्परा के सम्बन्ध में विचार करते समय बुन्देली को हिन्दी की प्रधान शाखा कहा गया है। अतः हिन्दी में जो कृदन्त और तद्धितान्त शब्द संस्कृत और विदेशी भाषाओं से आये हैं कुछ वही शब्द तद्वत् और कुछ स्थानीय उच्चारण की विभिन्नताओं के कारण तत्सम रूप से बुन्देली में देखने में आते हैं। ऐसे शब्दों का सार्थ सोदाहरण संकलन हिन्दी वैयाकरणों ने अपने ग्रन्थों में किया है अतः उनकी पुनरुक्ति यहाँ अनावश्यक है।
बुन्देली के कुछ प्रमुख प्रत्यय इस प्रकार हैं-
आ (पुल्लिंग) ऊ (स्त्री लिंग)
मरका मरकू घरघुसा घरघुसू
मुता मुतू खव्बा खव्बू
चुट्टा चुट्टू ढिंगा ढिंगू
फिरत्ता फिरत्तू
घुमन्ता घुमन्तू
लरत्ता लरत्तू
उचक्का उचक्कू
लबरा लबरू
अइया— पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों में प्रयुक्त होता है-जैसे— लिखइया, सुवइया, फरइया।
अइयां— हुवइयां, (होने वाला) जबइयां जाने वाला)।
बौ— कटबौ, कटाबौ, कटवाबौ।
बार— लिवार (लेने वाला) दिवार (देने वाला) गववारौ, (गाने वाला) गववारी (गानेवाली स्त्री)।
बारौ— घरबारौ, (पति) घरवारी (पत्नी)।
आर— लकरयारौ (लकड़हारा) गैलारौ (गैल्हारा)।
आरी— पिसनारी, (पिसन्हारी) रुटनारी (रुटन्हारी) नचनारी (नचन्हारी) पनयारी (पनहारिन)।
इन— पनयारिन, (पनहारिन) मनयारिन (मनहारिन)।
ईआ— कटईआ, सुनईआ, पकरईआ, पड़ईआ।
वाव (वाह) — हरवाव (हलवाहा) चरवाव (चरवाहा) गड़वाव (गडवाहा)।
ऊ— खटाऊ, उड़ाऊ, जड़ाऊं।
उवा— टालुवा (टहलुवा) पारुवा, जरुवा, जउवा।
ऊआ— बुलउआ, हंसउआ, कमउवा।
ई— कतन्नी (कैंची), चलनी, छन्नी, दोनी (दोहनी) चटनी।
आ, ओंना— कतन्ना, चलना, छजना, उड़ोंना, विछोंना, खिलोंना, चड़ोंना।
ओंय— कटौंय, खवोंय, गंवोंय, घटोंय, चटोंय, छटोंय, जुटोंय, जुरोंय, फरौंय, टूरोंय, टुटोंय, थकोंय, दरोंय, धरौंय, निगोंय, परोंय, फटोंय, बरोंय, भरोंय, मरोंय, रटोंय, लरोंय, हरोंय आदि।
ऐं— खाएं, आयं, चलें।
इया— कुटिया, कुतिया, खुटिया, गुरिया, गुटिया, घटिया, घुरिया, चकिया, चपिया, चिटियां, चुटिया, चुखरियां, छुटियां, जतरिया, जरिया, जुरिया, झरिया, डिबिया, दौरिया, नकरिया, परिया, फरिया, बरिया, बिटिया, मटकिया आदि।
वा— करवा, पुरुवा, नउवा, घुरवा, पड़वा, चिरवा, सुगरवा, चुखरवा।
ऐल ऐला— कुटैल, कुटैला, धंसैल, फंसैल।
बे— घूमबे, घुमाबे, घुमबाबे, करबे, उठाबे, लैबे, दैबे।
ला— खटोला।
कें— खाकें, सोकें।
नें— करनें, हटनें, चलनें, सोउनें, पीनें।
न — निगन, कटन, चलन, हेरन।
नों— नुकाओनों, फटकाओनों।
नीं— खतौनीं।
विशेषण निर्मापक प्रत्यय
मां— छटमां, नमां, मिल्मां।
वां— भरवां, छटवां, जड़वां, जुड़वां, बिलवां, ढरवां, कुलवां, चुरवां, करवां।
या— पनया, कुरया, घटया, मटया।
ऐल— पथरैल, कंकरैल, खपरैल, गठैल, नसैल, छपरैल।
अक— सेरक, पसेरक, पचासक।
गुनों— दुगनों, तिगुनों, चौगुनों, पंचगुनों।
हरौ— दुहरौ, तिहरौ।
अर— दूनर, तीनर, चउअर।
औअल— दुवरौअल, तिवरौअल, घरयौअल, उठौअल, निकरौअल, धरौअल।
क— खुलक, बुलक, मुलक, गुलक, भटक।
ट, टी, टौ— चरपराट, चरपरटी, चरपराटौ, हिनहिनाट, गर्राट, गुर्राट, भैराट, भैराटौ, मुराटौ।
स्त्री प्रत्यय
न— काछन, धोबन, नाईन, हलवान, बड़ैन, लड़ैन, गड़न्न, पटवन, पंडतान, ठकरान, सुनारन, लुहारन।
नी— उंटनी, हंतनी।
इनी— लरकिनी।
आनी— जिठानी, देवरानी।
ई— कक्की, काकी, माई, लुगाई, सुबाई, सुनाई, सिमाई।
आनों— सुकलानों, कुरयानों, लुदयानों, सिरानों, कछयानों, ढिमरयानों बसुरयानों।
आंत— (यांत) — लुदयांत, कछयांत, बसुरयांत।
औरा— चमरौरा, ढिमरौरा।
औला — चमरौला, ढिमरौला।
आव— चलाव, जमाव, भराव, चढ़ाव।
आई— गुरयाई (मिठाई) धुवयाई (धोने का कार्य) पंडिताई (पुरोहिती)।
आस— प्यास (पानी पीने की इच्छा) हगास, मुतास।
आंद— खटांद (खट्ठापन) तिलांद, (तेल की अधिकता सूचक)
क— बैठक, धमक, भमक, उठक, पटक, चटक, मटक, सटक, लटक।
का— खटका, टुल्का (छेद), पटका, (कपड़े का टुकड़ा)।
3. समास
दो सम्बद्ध शब्दों को पास-पास ला बिठाने का नाम ‘समास’ है। सम=आस, आस-बैठाना। जैसे- दहीबड़ा, वास्तव में है ‘दही में पड़ा हुआ’ बड़ा। यहाँ ‘दही’ और ‘बड़ा’ को पास-पास लाया गया है, बीच के ‘में पड़ा हुआ’ का लोप कर दिया गया है।
पास-पास लाकर बनाये हुये यौगिक शब्द को समास पद या समास युक्त शब्द कहते हैं। इन जुड़े हुये शब्दों को अलग-अलग करने की रीति को ‘विग्रह‘ कहते हैं। जैसे-
देशभक्ति का बिग्रह— देश के प्रति भक्ति
प्रेम सागर का विग्रह— प्रेम का सागर
द्रोणसागर का विग्रह — द्रोण (प्रान्त) का सागर
सन्धि और समास
सन्धि में दो शब्द रहते हैं परन्तु समास में दो शब्द पास-पास लाये जाते हैं, यही अन्तर है। जब दो या अधिक शब्द समास में पास-पास आते हैं तब उनमें सन्धि के नियम क्रियाशील होने लगते हैं परन्तु संस्कृत के समासों में ही यह अनिवार्य है, हिन्दी और उसकी भाषाओं के शब्दों में बहुधा नहीं होती है। संस्कृत के रामानुज (राम+अनुज) और हिन्दी के राम आसरे (राम+आसरे) के रूप इसके उदाहरण है।
भारतीय भाषाओं में समास को जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है वही भारत की विभिन्न बोलियों में भी उपलब्ध है। भारतीय भाषाओं तथा बोलियों में प्राप्त समास तीन प्रकार का है-
(1) संयोग मूलक (2) आश्रय मूलक तथा (3) वर्णन मूलक।
1. संयोग मूलक समास (द्वन्द्व समास)
इसके अन्तर्गत केवल द्वन्द्व समास आता है। इस समास के दो शब्दों या पदों के बीच से समुच्चय बोधक अव्यय लुप्त होकर उन दोनों शब्दों का अपने मूल रूप में संयोग होता है।
बुन्देली में द्वन्द्व सभास के उदाहरण इस प्रकार हैं-
सीता-राम, राधा-किसन, बिरमा-विस्नु, गौरीसंकर, लछमो-सरसुती, राजा-रानी, राजा-परजा, बऊदद्दा, माई-बाप, बाप-मतारी, बाप-बेटा, भैया-भौजाई, बेंन-भया, बेंन-बेंनेऊ, मताई-बिटिया, लरका–लरकी, लोग-लुगाई, बड़-लरका, ससुर-दमाद, सास-बऊ, बऊ-बेटा, भाई-भाई, भैया-भैया, बेनें-बेनें, ससुर-बऊ, (बहू), नंद-भौजाई, जेठ-जिठानी, जिठानी–देवरानी, देवर-देवरानी, देवर-भौजाई,। गैया-बैलवा, गैया-बछवा, घुरवा-घुरिया, मुर्गा-मुर्गी, तीतुर-बटेर, कुत्ता-बिलैया, तोता-मैना। नोंकर-चाकर, सिपाई-पियादे, सेट-साऊकार, हाकम-अपसर, वकील-बालिस्टर, बंजुआ-बेपारी, गरीब-अभीर, हिसाब-किताब, लिखा-पढ़ो, चिठिया-पाती, हाँत-पाँच, नांक-कांन, पेट-पींठ, दार-भात, भाजी-रोटी, हलुवा-पुड़ी, लुचई-लड़ुवा, दूद-दई, गुर-सक्कर, नोंन-तेल, दूद-भात, रात-दिन, दिन-रात, संजा-संकारें, अबेर-सकेर, आज-काल, खट्टो-मीठौ, खारी-चीपरौ, चन्दा-सूरज, अन्नजल, नौनपानूं, गड़ई-डोर, गड़ई-बेला, परों-नरों, चूलौ-चकिया, आचार-विचार, नफा-निकसान।
कुछ द्वन्द्व समासों में दो से अधिक शब्दों या पदों का संयोग भी मिलता है। जैसे— नोंन-तेल-लकरी, हांती-घोड़ा पालकी, लोग-लुगाई-लरका आदि।
बुन्देली के कुछ द्वन्द्व समास एकार्थी अथवा सहचर स्वरूप के हैं। एसे समास वाले शब्दों में दो पर्यायवाची शब्दों का संयोग हुआ है। जैसे—
काम-काज, धर-पकर, जीव-जन्त, जई-जानवर, जइ-जनावर, भूल-चूक, लूट-मार, घाँस-फूस, चाल-चलन, दिया–बाती, भलौ-चंगौ, खील-कांटो आदि। तथा खेल-तमासे, कांम-धाम, काम-दंद, चीज-बसत, सपर-खोर, देख-भाल, सूज-बूज, गोड़ा-पाई, चल-फिर, नाटक-नोंरा, करता-काँमदार, राम-रहीम, दोस–दारी, डांट-डपट, छीना-झपटी, उचका-कूदी, उठा-धरी, खेलत-कूंदत, ओनें-पौने, कथा-बारता, सज-धज, सोच-विचार, कपड़ा-लत्ता, बासन-भांड़े, धिन्नों-सेली (विन्ना और सहेलियां) बाल-बच्चे, राह-रास्ता, खैचां-तानी, कैवा-मुनी (कहा-सुनी) ऊंच-नीच, आवा-जाई, उठा-बैठी।
द्वन्द्व समास में ध्वनियों का समाहार भी देखने को मिलता है। जैसे-
रोटी-ओटी, आटौ-साटौ, अंट-संट, झूट-मूट, सांच-माँच, ढुल-मुल, टेढ़ी-मेड़ी, हांक-हूँक, मार-मूर, पा-पू, पसार-पसूर, नोंच-नांच, पी-पा, झूम-झांम, सो-सा, दौर-दार, खेल-खाल, देख दाख, पैर-पार, समेंट-समांट, पर-परू, चल-चलू।
बुन्देली के ध्वनि समाहार में कुछ द्वन्द्व समासों में विकारयुक्त शब्दों का प्रयोग मिलता है। जैसे-ठीक-ठाक, फूक-फांक, खास-खूस, अरोस-परोस, बात-चीत, चाल-ढाल, देख-भाल, दौर-धूप,। घक्कम–धक्का, अद्धम-अद्धा, आमनें-सामनें, ऐंडा-बेंड़ा, इने-गिनें, इर्द-गिर्द, दौंरा-पदौरी, हल्ला-गुल्ला, उलट-पुलट, उथल-पुथल, गलत-सलत, सांतों-मातों, इक्का-दुक्का।
ध्वनि समाहार की तरह व्याकरण का समाहार भी वहाँ देखने को मिलता है। जहाँ एक ही शब्द के दो व्याकरिणक रूप तीव्रता का अर्थ स्पष्ट करते हुये साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं। जैसे-खा-खवा, पी-पिवा, चल-चला, सुन-सुना, दिख-दिखा, नुच-नुचा, खबो-खबाओ, खबी-खबाई, फटो-फटाव, पटी-पटाई, खाओ-खबाओ, गओ-गबाओ, गाई-गबाई, चला-चली, देखा-देखी।
‘बुन्देली के कुछ द्वन्द्व समास ऐसे हैं जिनमें अनुगामी शब्दों का प्रयोग मिलता है। जैसे—
माल-टाल, आस-पास, दारू-गोली, दाना-पानी, उखरी-मूसर आदि।
बुन्देली के कुछ द्वन्द्व समासों में प्रतिचर शब्दों का प्रयोग मिलता है। जैसे-
रात-दिनां, रात-दिन, आज-काल, राजा-रानीं, पाप-पुन्न, लेंन-देंन, आंगौ-पाछौं, चढ़ा-उतरी आदि।
बुन्देली के कुछ द्वन्द्व समासों में दो विभिन्न भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। जैसे—
धन-दौलत, कागज-पत्तर, हंसी-मजाक आदि।
2. आश्रय मूलक समास
इसके अन्तर्गत तत्पुरुष, कर्मधारय और द्विगु समास आते हैं। अतः क्रमशः उनके सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत हैं-
तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास का प्रथम पद द्वितीय पद के अर्थ को सीमित करता है। द्वितीय पद भी प्रधान होता है। इसके दो प्रमुख प्रकार है-1- व्यधिकरण तत्पुरुष और समानाधिकरण तत्पुरुष।
1. व्यधिकरण तत्पुरुष
इस समास के दोनों शब्दों में से प्रथम शब्द के आगे कर्ता और संबोधन कारक के अतिरिक्त किसी एक कारक की विभक्ति रहती हैं। जिसका लोप होने पर वह द्वितीय शब्द से संयुक्त होता है। जिस कारक की विभक्ति का लोप होता है उसी के नाम पर उस समास का नाम रखा जाता है। जैसे— कर्म-कारक की विभक्ति के लोप होने पर द्वितीय तत्पुरुष आदि। प्रत्येक के उदाहरण इस प्रकार हैं—
(क) द्वितीय तत्पुरुष— कठ-कोला, चिड़ीमार, माखन चोर, हांती-डुब्बान, सेरभरो, सरनागत, गिराबट।
(ख) तृतीय तत्पुरुष— आग-जलो, लूगरलगो, भुक-मरो, मन-मानों मो-मांगो, किसिन-दत्त, गुरभरो, दईमारी।
(ग) चतुर्थ तत्पुरुष— पाठशाला, माल-गुदाम, रेल-भारौ, डांक मासूल, चोर-बजार, हतकरी, देसभक्ति, आराम कुर्सी, गैल खर्च, रोकड़-बहीं, ठकुर सुहाती।
(घ) पंचमी तत्पुरुष— देस-निकारो, काम चोर, अक्कल हीन, जनमान्द।
(ङ) षष्ठी तत्पुरुष-रामकथा, गंगाजल, दईबरा, लखपती, बैलगाड़ी, दिन लौटें, राजसभा, जलधारा, सिरदर्द, अमचुर, दिवालो, सिवालो, पराधीन, लखपती, रामकहानी।
(च) सप्तमी तत्पुरुष— मनमौजी, बनबासी, घुड़सवार, आनन्द मगन, रत-जगौ, घुरचढ़ी, जलमगन, कबराज, बैदराज, बनोबास, घुड़सवार, कानाफूसी, हरफन मौला।
(छ) अलुप्त तत्पुरुष— जहाँ तत्पुरुष समास के पूर्व पद की विभक्ति का लोप नहीं होता। जैस जुदिस्टर (युधिष्ठिर) आदि।
(ज) लुप्तपद तत्पुरुष— जब कोई करक-चिन्ह पदसमेत लुप्त हो, जैसे-तुलादान, दईबरा, बैलगाड़ी, पनचक्को, गोवरगनेस, चितकबरा, गीदड़ भभकी।
(झ) उपपद तत्पुरुष— जिस समास का द्वितीय पद ऐसा कृदन्त होता है जिस का स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता है। जैसे- लक्कड़ फोर-नकटा आदि।
(न) नञ्तत्पुरुष – जिस के आरम्भ में निषेधात्मक उपसर्ग लगा होता है जैते-अधरम-अनाथ, अकाज, अनादर, अनजान, अधूरो, अनरीत आदि।
2. समानाधिकरण तत्पुरुष (कर्मधारय)
कर्मधारय समास तत्पुरुष समास का ही रूप है। इस समास के विग्रह में दोनों पदों में एक ही कारक की विभक्तियों का प्रयोग होता है। कर्म अथवा वृत्ति का धारक होने से इसका नाम कर्मधारय समास नाम पड़ा हैं। इसमें प्रथम पद विशेषण होता है। इस समास में वास्तव में विशेषण विशेष्य का संयोग होता है किन्तु कभी-कभी इसमें विशेष्य-विशेषण, विशेषण-विशेषण और विशेष्य-विशेष्य का संयोग भी मिलता है। जैसे—
(क) विशेषण–विशेष्य
परमात्मा, महारानी, महाराज, सुभदिन, सुपेत गैया, भले-मनंख, (भले मनुष्य) कारे पानी (काला पानी) कारी मिरच, सेंदों नोंन, महाजन, मजधार, गोरेलाल, भलेमानस, खुसबू, बदबू।
(ख) विशेष्य–विशेषण
घनस्याम, प्रभु दियाल, सेवदास (शिवदास)।
(ग) विशेषण–विशेषण
स्यामसुन्दर, भलो-बुरओ, लाल-लीलो, पीरो-हीरीराे, ऊँच-नीच, खट्-मिट्टौ।
(घ) विशेष्य–विशेष्य
राजा बहादुर।
विशेषता-बोधक, उपमा-बोधक तथा मध्यम-पद लोपी के भेद से इस समास के तीन भेद होते हैं जो बुन्देली कर्मधारय में भी परिलक्षित होते हैं। जैसे—
(1) विशेषता बोधक
जिसमें विशेष्य विशेषण भाव व्यक्त हो वह विशेषता बोधक कर्मधारय समास है। विशेषण-विशेष्य के संयोगी सामासिक शब्द इसके उदाहरण हैं।
(2) उपमा बोधक
इस कर्मधारय समास में उपमा उपमेय का संयोग होता है। जैसे — चन्द्रमुख, कमलनेंन (कमल-नयन)।
(3) मध्यम पदलोपी
इस कर्मधारय समास में प्रथम पद का द्वितीय पद से सम्बन्ध बतलाने वाला शब्द लुप्त होता हैं। जैसे- परन कुटी, दईबरा, गोबरगनेस, जेवघड़ी, चितकबरा।
द्विगु समास
द्विगु समास भी कर्मधारय का ही एक भेद है। विशेषता बोधक कर्मधारय समास का विशेषण-पूर्वपद जब संख्यावाचक होता है तब वह द्विगु समास हो जाता है। जैसे-
इकन्नी, दुअन्नी, दुपट्टा, दुपर, तिपाई, चौबोला, चौमासो, चौराहा, पचगजी, पसेरी, छिदाम, सतकठा, सतनजा, सतखंडा, अठवारो, अठौरिया, नोदुर्गा, दसरव (दशहरा)।
अव्ययीभाव
1. जिस समास का अर्थ है— ‘अव्यय हो जाना’। इस समास में पहले शब्द के अर्थ की प्रधानता बनी रहती है और कुल पद प्रायः क्रिया विशेषण या अव्यय के रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे- प्रतदिन, भरसक, जथसक्ति, हररोज, हरसाल
।2. संस्कृत के अव्ययीभाव समास की अपेक्षा बुन्देली के अव्ययीभाव समास में अन्तर रहता है। संस्कृत में अव्ययीभाव समास का पहला शब्द अव्यय होता है और दूसरा शब्द संज्ञा अथवा विशेषण रहता है परन्तु बुन्देली में पहले अव्यय के बदले बहुधा संज्ञा ही पायी जाती है।
3. जथा = यथा (अनुसार) आ (तक) प्रत= प्रति (प्रत्येक) ता= यावत् (तक) वि (बिना) बुन्देली के अव्ययीभाव समास में पहले आते हैं, जैसे जथा स्थान (यथा स्थान) जथा किरम (यथाक्रम) जथा संभो (यथासंभव) जथा सकत (यथा शक्ति) आजनम (आजन्म) आमरन (आमरण) ताजिन्दगी (प्रावज्जीवन) प्रतदिन (प्रतिदिन) विरथां (व्यर्थ)।
4. तीन प्रकार के अव्यययीभाव शब्द बुन्देली में मिलते हैं।
हिन्दी से समागत — निडर, निधड़क, भरपेट, अनजानें।
उर्दू आदि से समागत — हररोज, हरसाल, वेसक, बेकायदां, नाहक।
भिन्न भिन्न भाषाओं के मेल से बने हुए – हघरीं, हरदिनां, बेकाम।
5. प्रतिशब्द के बदले उसी संज्ञा की द्विरुवित, प्रथम शब्द में बहुधा विकृति करके करने से भी अव्ययीभाव समास बनाये जाते हैं, जैसे- हातई हांत (हाथों हाथ) रात ईरात (रातों रात) दिनई दिन (दिनों दिन) घर घर, पलपल, छिन-छिन आदि।
6. कभी-कभी द्विरुक्ति शब्दों के बीच में ‘ई’, ‘इ’ अथवा ‘आ’ जुड़ जाता है, जैसे- मनई मन (मन ही मन) घरई घर (घरहीघर) आपई आप (आप ही आप) मोई-मों (मुहामुंह) सरांसर, एकाएक।
7. पुस्तानपुस्त, सालदरसाल, आदि शब्द भी अव्ययीभाव समास के उदाहरण हैं।
8. संज्ञाओं के समान अव्ययों की द्विरुक्ति से भी अव्ययीभाव समास बनते हैं। जैसे-
बींचईबीच (बीचोंबीच) धड़ाधड़, पैलऊं पैल (पहले पहल) बिरोबर (बराबर) धीरें धीरें, हरां-हरां।
3. वर्णना मूलक (बहुब्रीहि समास)
इस समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता।
यह समास अन्य समासों से सर्वथा भिन्न है। इसके दोनों पद मिलकर किसी अन्य अर्थ को ही द्योतित करते हैं। जैसे—
चतुरभुज-चार हैं भुजाएं जिसको अर्थात् विष्णु भगवान।
इस समास की विशेषता यह है कि पहले कहे हुये प्रायः सभी प्रकार के समास किसी दूसरी संज्ञा के विशेषण के अर्थ में बहुब्रीहि हो जाते हैं, जैसे— मंदमति (कर्मधारय) विशेषण के अर्थ में बहुब्रीहि है। पहले अर्थ में ‘मंदमति, केवल (धीमीबुद्धि) वाचक है, पर, पिछले अर्थ में इस शब्द का विग्रह इस प्रकार होगा- मंद है मति जिसकी वह मनुष्य। यदि पीताम्बर शब्द का अर्थ केवल पीला कपड़ा है तो वह कर्मधारय है, परन्तु यदि उससे पीला कपड़ा है जिसका अर्थात् ‘विष्णु’ का अर्थ लिया जाय तो वह बहुब्रीहि है।
व्यधिकरण, समानाधिकरण, व्यतिहार और मध्यम पद लोपी के भेद से यह चार प्रकार का होता है। जैसे-
1. व्यधिकरण बहुब्रीहि
इस समास के विग्रह में दोनों पदों के साथ भिन्न विभक्तियों का प्रयोग होता है तथा इसका पूर्वपद विशेषण नहीं होता है। जैसे-
चन्द्रशेखर, जिसके शेखर में चन्दा हो अर्थात् महादेव जी।
2. समानाधिकरण बहुब्रीहि
इस समास का पूर्व पद विशेषण और उत्तर पद विशेष्य होता है। विग्रह करते समय इसके दोनों पदों के साथ एक हो कारक विभक्ति का संयोग होता है। जैसे-
लील कंठ (लील हो कण्ठ जिसका अर्थात् शिव जी।
3. व्यतिहार बहुब्रीहि
इस सापेक्षता को प्रकट करने के लिये एक ही पद की पुनरावृत्ति होती है। जैसे—
लटा-लटी, भरा-भरी, लट्ठमलट्ठा, धम्मकधक्का, माराकूटी, मारापीटी, कैबासुनी, एचातानी, ऐचाखेंची, मारामूरी।
4 मध्यम पद लोपो बहुब्रीहि
इस समास में दोनों पदों के मध्यगत पद का लोप हो जाता है। जैसे-दो हतो, पच गजो।
स्थान अथवा अर्थ के अनुसार इस समास के विशेष पूर्व पद, विशेषणोत्तर पद, अवधारण पूर्व पद और मध्यम पद लोपी, ये चार भेद भी किये जा सकते हैं। लमगोड़ा, मनचलो, ज्ञानधन, रोंम टूटा आदि इनके क्रमिक उदाहरण हैं।
कुछ और भी प्रकार मिलते हैं, जैसे—
5. नञ् बहुब्रीहि
असार, अनाथ, अजान, अमोल, अचेत, अनगिनती।
6. संख्या पूर्वपद
एकजी, एकमन, दुनाली, चौकोर, तिमँजला, सतलरिया, सितार, दुआब, पंजाब।
7. सहबहुब्रीहि
सदेह, सफल, सारथक, सपरवार, सावधान।
8. अव्यय पूर्व बहुब्रीहि
निरदय, बिधबा, निरधन, सुडौल, रंग बिरंगौ।
बुन्देली समास की विशेषताएँ
बुन्देली में उपलब्ध-समासों की निम्नांकित विशेषताएँ हैं-
(1) तत्पुरुष समास में यदि प्रथम पद का आद्य स्वर दीर्घ हो तो वह ह्रस्व हो जाता है। जैसे— घुर-दौर, रजबाड़ौ।
राम कहानी, राजदरबार आदि इस नियम के अपवाद हैं।
(2) कर्मधारय समास का पूर्व पद यदि आकारान्त हो तो वह अकारांत हो जाता है। जैसे—लैंमडौर।
(3) बहुब्रीहि समास के पूर्व पद का आद्य स्वर यदि दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है और द्वितीय पद ओकारान्त हो जाता है। जैसे-दुदमुँहों।
(4) बहुब्रीहि और द्विगु में जो पूर्व संख्या वाचक विशेषण आते हैं, वे विकृत हो जाते हैं। जैसे—
दुगुनों, तिपाई, चौखूटा, सतखंडा।
(5) बुन्देली समासों में प्रायः पुल्लिग शब्द पहले और स्त्रीलिंग उसके पश्चात् आते हैं। जैसे—
भैया-बेंन, भैया-भौजाई, दूद-रोटी, घीऊ शक्कर, लरका लरकी, लोटा-थारी देखां-देखी।
माई-बाप, बेंन-भैया, सास-ससुर आदि इस नियम के अपवाद हैं।
4- शब्द निरुक्ति (पदव्याख्या)
किसी वाक्य से किसी शब्द के प्रकार रूप आदि तथा अन्य शब्दों के साथ सम्बन्ध का वर्णन करना ‘शब्द निरुक्ति’ कहलाता है। ‘पद व्याख्या’ या ‘पद-परिचय’ इसी का दूसरा नाम है। क्योंकि दाक्य में अलग स्वतंत्र रूप में रखे गये शब्द ‘शब्द’ कहे जाते हैं, पर जब उन्हें वाक्य में रख देते हैं तो उनका नाम ‘पद’ हो जाता है। पदों के विषय में उनके प्रकार, वचन, लिंग, या अन्य पदों के साथ उनका सम्बन्ध आदि का वर्णन ही ‘पद व्याख्या’, ‘शब्द-निरुक्ति’ या ‘पद-परिचय’ कहलाता है।
‘शब्द निरुक्ति‘ या ‘पद व्याख्या‘ विषयक कुछ नियम
‘शब्द निरुक्ति’ या ‘पदव्याख्या’ करते समय निम्नांकित बातें बतलाई जानी चाहिये-
1. संज्ञा—1-भेद (व्यक्तिवाचक, जातिवाचक आदि) 2-लिंग (पुल्लिंग या स्त्रीलिंग) 3-वचन (एक वचन या बहुवचन) 4-कारक (किस कारक में) 5-वाक्य के दूसरे शब्दों या पदों के साथ सम्बन्ध।
2. सर्वनाम – 1 भेद, 2 वचन, 3 लिंग, 4 कारक, 5 वाक्य के दूसरे शब्दों के साथ सम्बन्ध 6 (यदि ज्ञात हो तो) किस संज्ञा के लिये प्रयुक्त।
3. विशेषण – 1 भेद, 2 किस विशेष्य का विशेषण 3 लिंग, 4 वचन।
4. क्रिया – 1 भेद (सकर्मक अकर्मक) 2 वाक्य, 3 काल, 4 अर्थ, 5 पुरुष, 6 लिंग, 7 वचन, 8 कर्ता कर्म आदि से सम्बन्ध, 9 यदि क्रिया संयुक्त है तो उसका भी विवेचन।5. क्रिया विशेषण – 1 भेद, 2 किस क्रिया, विशेषण या क्रिया विशेषण की विशेषता बतलाता है।
6. सम्बन्ध सूचक अव्यय- किन शब्दों का सम्बन्ध सूचित करता है।
7. समुच्चय बोधक अव्यय- 1 भेद (संयोजक, वियोजक आदि) 2 किन शब्दों या वाक्यों को जोड़ता है।
8. विस्मयादि बोधक अव्यय- किस भाव (हर्ष, शोक, विस्मय आदि) के लिये प्रयुक्त हुआ है।
उदाहरण के लिये एक आदर्शवाक्य शब्दान्वय प्रदर्शन हेतु दिया जा रहा है-
5- शब्दान्वय
वाक्य – राजा दसरत ई बात खों जानत ते कै रामचन्द जू के विजोग में मैं नें जी सकों तौऊ अपने बचनन के पालन करबे के लानें अपने प्यारे पुत्र श्री रामचन्द जू खों बन में भेज दओ।
यहाँ निम्न प्रकार शब्दान्वय देखा जा सकता है-
राजा– संज्ञा, जाति वाचक, एक वचन पुल्लिंग। इसका प्रयोग यहाँ विशेषण की तरह हुआ है। दसरत का विशेषण है।
दसरत– संज्ञा, व्यक्तिवाचक, एक वचन, पुल्लिंग कर्ता कारक की अवस्था में ‘जानत’ क्रिया का कर्ता है।
ई–संकेत वाचक विशेषण, इसका विशेष्य ‘बात’ है।
बात खों– संज्ञा, भाववाचक, एकवचन, स्त्रीलिंग, कर्मकारक की अवस्था में ‘जानत ते’ क्रिया का कर्म है।
जानत ते– क्रिया सकर्मक, कर्तृवाच्य-सामान्य भूतकाल, इसके लिंग और पुरुष इसके कर्ता ‘दसरत’ के अनुसार हैं। इसका कर्म ‘बात’ है। आदर के लिये यह क्रिया बहुवचन में प्रयुक्त हुई।
कै–संयोजक अव्यय, ‘राजा दसरत ई बात खों जानत ते’ और ‘राम चन्द जू के वियोग में मैं न जी सकों’ वाक्यांशों को जोड़ता है।
रामचन्द जू के—संज्ञा, व्यक्ति वाचक, एक वचन, पुल्लिंग, सम्बन्ध कारक को अवस्था में इसका सम्बन्ध ‘विजोग’ से है।
विजोग में– संज्ञा, भाववाचक, एकवचन, पुल्लिंग, अधिकरण कारक की अवस्था में, ‘जी नें सकों’ का आधार है।
मैं– पुरुष वाचक सर्वनाम, उत्तम पुरुष, एकवचन, पुल्लिंग, कर्ता कारक की अवस्था में ‘जी नें सकों’ क्रिया का कर्ता है।
नें–निषेध वाचक अव्यय है।
जी सकों—संयुक्त क्रिया, अकर्मक, कर्तृवाचक, सामान्य-भविष्यत काल, इसके लिंग वचन और पुरुष इसके कर्ता ‘में’ के अनुसार हैं।
तौ–ऊ–समुच्चय बोधक अव्यय, रामचन्द जू के विजोग….. सकों अपने वचनन…. भेज दओ वाक्यों को जोड़ता है।
अपनें– जिन वाचक सर्वनाम, बहु वचन, पुल्लिंग, सम्बन्ध कारक, इसका सम्बन्ध ‘वचनन’ से है।
वचनन के – संज्ञा, जाति वाचक, बहु वचन, पुल्लिंग, सम्बन्ध कारक, इसका सम्बन्ध ‘पालन’ से है।
पालन – संज्ञा, भाववाचक, एकवचन, पुल्लिंग कर्मकारक की अवस्था में करके क्रिया का कर्म है।
करबे के लानें– क्रियार्थक संज्ञा, सम्प्रदान कारक की अवस्था में ‘भेजवे’ (भेजने) का कारक बतलाता है इसका कर्म ‘पालन’ है।
अपनें– निज वाचक सर्वनाम, एक वचन, पुल्लिंग, सम्बन्ध कारक, इसका सम्बन्ध ‘पुत्र’ से है।
प्यारे– गुण वाचक विशेषण, इसका विशेष्य ‘पुत्र’ है।
पुत्र– संज्ञ, जातिवाचक, एकवचन, पुल्लिंग, इसका प्रयोग यहाँ विशेषण की भांति हुआ है। ‘रामचन्द जू’ का विशेषण है।
श्री– संज्ञा विशेषण की भांति प्रयुक्त हुई है। इसका विशेषण ‘रामचन्द जू’ है।
रामचन्द जू खों– संज्ञा व्यक्ति वाचक, एकवचन, पुल्लिंग, कर्म कारक ‘भेज दओ’ क्रिया का कर्म है।
वन में – संज्ञा, जाति वाचक, एकवचन, पुल्लिंग अधिकरण कारक ‘भेज दओ’ क्रिया का आधार है।
भेज दओ– संयुक्त समर्मक क्रिया, सामान्य भूत काल, कर्तृ वाच्य, इसका कर्ता ‘उनने’ लुप्त है और कर्म ‘रामचन्द जू’ है। इसके लिंग, वचन और पुरुष इसके कर्ता ‘दसरत’ के अनुसार हैं।
सन्धि
बुंदेली में सन्धि सम्बन्धी विचार
1. भाषा वैज्ञानिकों की यह मान्यता बहुत कुछ सत्य है कि ‘वस्तुतः सन्धि संस्कृत (तत्सम) शब्दों में होती है। परन्तु सन्धि की जो प्रक्रिया है कि जब भी इकट्ठे आने वाले दो शब्दों को एक साथ बोला जाता है, निश्चय ही उनमें ध्वनियाँ जुड़ जाती हैं। ‘सन्धि’ एक ध्वनिगत प्रकिया है। जैसे ‘विद्यालय’ शब्द, दो शब्दों-विद्या + आलय’ के योग से बना है। यहाँ एक शब्द विद्या’ का अन्तिम अक्षर दूसरे शब्द ‘आलय’ के पहले अक्षर से जुड़ गया है। इसी प्रक्रिया का नाम सन्धि है। हर एक भाषा में सन्धि होती है, किन्तु संस्कृत में लिखाई में भी दिखायी जाती है। सन्धि और संयोग में अन्तर यह है कि संयोग में अक्षर जैसे के तैसे रहते हैं परन्तु सन्धि में उच्चारण के नियमानुसार दो अक्षरों के मेल में उनकी जगह कोई भिन्न अक्षर हो जाता है। तात्पर्य यह कि दो निर्दिष्ट वर्णों के पास-पास आने के कारण उनके मेल से किसी वर्ण में जो विकार होता है उसे सन्धि कहते हैं।
2. संधि तीन प्रकार की होती है- (1) स्वर सन्धि (2) व्यंजन सन्धि और (3) विसर्ग सन्धि।
(क) स्वर के साथ स्वर मिलने से जो विकार होता है उसको ‘स्वर सन्धि’ कहते हैं।
(ख) व्यंजन के परे व्यंजन अथवा स्वर के आने से जो विकार होता है उसे ‘व्यंजन सन्धि’ कहते हैं।
(ग) विसर्ग के परे स्वर अथवा व्यंजन के आने से जो विकार होता है उसे ‘विसर्ग सन्धि’ कहते हैं।
- 3. हिन्दी के तद्भव शब्दों में जैसे अनेक स्थलों पर सन्धि देखने को मिलती है उसी प्रकार बुंदेली के तद्भव शब्दों में भी सन्धि देखने को मिलती है। अतः साधारणतः जो यह कह दिया जाता है कि बुंदेली में ‘संस्कृत जैसी संधियाँ नहीं होतीं, सभी अक्षर स्वर और व्यंजन एक दूसरे के साथ आगे पीछे स्वतंत्रता से आते और बने रहते हैं। पास पास आने से इनके उच्चारण में कोई फर्क नहीं पड़ता।’ कुछ अंशों में यह कथन ठीक है परन्तु जहाँ बुंदेली में संस्कृत के सन्धिज शब्द कुछ ही परिवर्तन के साथ ज्यों के त्यों प्रयोग में आते हैं वहाँ तो सन्धियाँ भी स्वतः आ ही जाती हैं। जैसे-
(क) स्वर सन्धि से बने बुंदेली में प्रयुक्त शब्द
महातमा (महात्मा), महासय (महाशय), सिवालौ (शिवालय), हिमालौ (हिमालय), सदाचार, सिस्टाचार (शिष्टाचार), दसांन (दशार्ण-नदी), दसांनन (दशानन), किस्नारपन (कृष्णार्पण), परमारथ (परमार्थ), पदाधकारी (पदाधिकारी), स्वारथ (स्वार्थ), गिरीन्द (गिरीन्द्र), गिरीस (गिरीश), नरेन्द (नरेन्द्र), पनमेसुर (परमेश्वर), महरसि (महर्षि), सदेव (सदैव), परसोतम (पुरुषोत्तम), परतच्छ (प्रत्यक्ष), इत्याद (इत्यादि)।
(ख) व्यंजन सन्धि से बने बुंदेली में प्रयुक्त शब्द
जगंनाथ (जगन्नाथ) दिग्गज, उच्चारन, सज्जन, तल्लींन (तल्लीन) तिसना (तृष्णा) संतोस (सन्तोष) संकलप (संकल्प), संपूरन (सम्पूर्ण) आदि।
(ग) विसर्ग सन्धि से बने बुंदेली में प्रयुक्त शब्द
निसकपट (निष्कपट) दुसकरम (दुष्कर्म), दुसपरनाम (दुष्परिणाम), निसछल (निश्छल), दुसासन (दुःशासन), निसन्देय (निःसन्देह या निस्सन्देह), निरासा, निरगुन (निर्गुण), निराकार (निराकार), दुरुपजोग (दुरुपयोग), नीरस, निरोगी, प्रातकाल (प्रातःकाल) आदि।
4. हिन्दी के तद्भव शब्द जिनमें सन्धि कार्य होना स्वीकार किया गया है, उनके बुंदेली रूप देखने से स्पष्ट हो जायगा कि वे भी सन्धि कार्य के ही परिणाम हैं-
अब + ही अभी अब – ई
कहाँ + हीं कहीं कऊं
वह + ही वही बोई, बेई, बेऊ, ओई, ओऊ
न + ही नहीं नई
इसी प्रकार जभी, तभी, कभी, सभी, यही, यहीं वहीं आदि हिन्दी के तद्भव शब्दों के बुंदेली रूपों के विश्लेषण से उक्त तथ्य का समर्थन होगा।
5. सन्धि होना संस्कृत की अपनी विशेषता है, यह सत्य है परन्तु संस्कृत में भी ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ अनिवार्य रूप से सन्धि होना चाहिये परन्तु प्रयोगों से स्पष्ट है कि अनिवार्य होने पर भी व्याकरणिक नियमों के अन्तर्गत सन्धि नहीं की गई, अपितु ज्यों का त्यों रखा है। यह आर्ष प्रयोगों में तो है ही, अनार्ष प्रयोगों में भी है। प्रकृति-भाव सन्धि में यह स्पष्ट है। इसी ग्रन्थ के परिशिष्ट में आगे तृतीय पाटी (प्रकृति संधि) के ऐसे ही नियमों के प्रतिपादक सूत्रों का (नं0 42 से 45 तक) संग्रह है।
6. इसके अतिरिक्त पहले यह कहा गया है कि भाषा के बाद व्याकरण बनता है। सो बुंदेली में भी कुछ सन्धियों का नियमित रूप से गढ़ा जाना या प्रमाणों से सिद्ध किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। डांक घर = डांग्घर, मास्टर + साहब = मास्साव, किसकी कृपा से हुए हैं ? ‘सुनती’ और ‘विनती’ के ‘सुन्ती’ ‘विन्ती’ रूप किसकी देन हैं? अस्तु।
7. परिशिष्ट में जो पाटियाँ दी जा रही हैं वे शुद्ध रूप में संस्कृत सन्धियों के नियम और अपवाद हैं। बुंदेली भाषा के क्षेत्र में वे वहीं तक ग्राह्य या मान्य हैं जहाँ तक कि संस्कृत के सन्धिज शब्द बुंदेली में व्यवहृत होने लगे हैं।
पाटियों का अर्थ, नियमों का भावविश्लेषण समझे बिना बुंदेली भाषा-भाषी छात्र इनको किस रूप में रटा करता था, और उसके निरर्थक श्रम में क्या अज्ञात सार्थकता लुकी-छिपी रहती थी ? उसको इन पाटियों की प्रस्तुत व्याख्या के प्रकाश में सर्व प्रथम बार स्पष्ट किया गया है। कृपया परिशिष्ट देखिये।
बुंदेली : एक भाषा वैज्ञानिक परिचय
कैलाश विहारी द्विवेदी
बुंदेली निम्नलिखित जिलों के लगभग एक करोड़ लोगों की मातृभाषा है।
उत्तर प्रदेश के पाँच जिले- झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर, जालौन तथा बाँदा।
मध्य प्रदेश के 22 जिले- टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर, दमोह द-तिया, ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना, गुना, शिवपुरी, बिदिशा, रायसेन, होशंगाबाद जबलपुर, नरसिंहपुर, मण्डला, शिवनी, छिन्दवाड़ा, बालाघाट तथा बैतूल सतना की नागौद तहसील तथा सीहोर का पूर्वी भाग इनमें से सीमान्त जिलों की भाषा पर उनसे लगने बाले क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव है, किन्तु भाषा वर्षों के निर्णायक तत्वों-ध्वनि, अर्थ, वाक्य रचना, शब्द समूह तथा रूप के आधार पर उपर्युक्त सभी जिलों को भाषा बुंदेली ही है।
राजनैतिक एक सूत्रता के अभाव के कारण बुंदेली के बहुत से क्षेत्रों के लोग स्वयं यह स्वीकार नहीं करते कि उनकी मातृभाषा बुंदेली है। तब उनकी मातृभाषा क्या है ? इसका उत्तर भी उनके पास नहीं है। कुछ क्षेत्रों के लोगों ने अपनो मातृभाषा को स्थानीय नाम भी दे रखे हैं। उदाहरणार्थ भिण्ड, मुरैना के लोगों ने तवरघारी तथा भदावरी, बाँदा और हमीरपुर जिलों के कुछ अंचलों के लोगों ने बनाफरी। ग्वालियर गुना और शिवपुरी की भाषा चौरासी कहलाने लगी।। ग्रियर्सन महोदय ने भी बुंदेली क्षेत्र में बसने बाली जातियों अथबा स्थानों के नाम पर बुंदेली की निम्नलिखित उपबोलियों या क्षेत्रीय रूपों की चर्चा की है। जैसे – लुधाँतो, पँवारो, खटोला, बनाफरी, कुन्द्री, निभट्टा, भदौरी तथा बुंदेली क्षेत्र के दक्षिण की मिश्रि। बोलियाँ लोधी, कोष्ठी, कुम्-भारी आदि किन्तु बुंदेली नाम भी उन्हीं का दिया हुआ है।
घने जंगलों, पहाड़ों और नदियों से आच्छादित होने के कारण इस पूरे भू-भाग की बोली में कहीं स्थानगत विशेषतायें – शब्दों, सम्बन्ध तत्व के रूपों तथा ध्वनि प्रयोगों आदि से सम्बन्धित होती हैं, जिनके कारण उन स्थानों की भाषा में अन्तर दिखलाई पड़ता है ।
जैसे भविष्यकाल सूचक प्रत्यय के लिये बू, बी, बौ (उत्तम पुरुष बहुबचन के प्रयोगों में) इसी प्रकार कुछ अन्य अन्तर भी हैं, जिनके प्रयोग सहित उदा-हरण आगे प्रस्तुत हैं:-
(1) ‘बू’ ‘बी’ ‘बो’
प्रयोग
(1) अपन काल मेलै चलबू।
(2) अपन काल मेलै चलबी।
(3) अपन काल मेले चलबो।
(2) ‘सें’ ‘सों’
प्रयोग
(1) मो सें कई ती।
(2) मो सों कई ती।
(3) ‘खूब’ ‘खीब’
प्रयोग
(1) अपुन खूब निगे।
(2) अपुन खीब निगे।
(4) ‘न’ ‘नॅइ’ ‘नें’ नकारात्मक प्रयोगों में भी अन्तर पाया जाता है।
5) सम्प्रदान कारक के चिन्ह खों, खां, खें, खें, कों प्रचलित हैं।
(6) कभी कभी मुख्य क्रिया के रूप भी बदल जाते हैं। जैसे- जाबू जैवू। खाबे खों खंबे खों।
(7) पुलिंग एक बचन ‘धरो’ अथवा ‘धरौ’ बहुबचन ‘घरे’ इसी शैली पर अन्य क्रिया पदों का प्रयोग होता है, किन्तु ललितपुर तथा आसपास के क्षेत्र में घरे, परे, करे आदि एकारान्त एक वचन के साथ भी होते हैं। ऐसी स्थिति में बचन का निश्चय सहायक क्रिया से होता है।
उदा.-
(1) सन्तरा मई अरा में धरे (ते) बहुबचन
(2) सन्तरा मई अरा में धरे (तो) एक बचन
(8) इसी प्रकार कुछ सर्वनामों तथा वलाघात के विशेष अन्तर है।
उपर्युक्त अन्तरों से बुंदेली की मौलिक प्रवृत्तियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
बुंदेली का बर्गीकरण:
पारिवारिक-पारिवारिक वर्गीकरण की दृष्टि से बुंदेली मध्य देशीय अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी भाषा, मध्य देशीय भाषा अथवा ग्वालियरी (ग्वालियर केन्द्र होने के कारण जिसका ग्वालियरी नाम पड़ा) की दक्षिणी शाखा है।
हिन्दी भाषा के, अधिकाँश, इतिहासकारों के मतानुसार बुंदेली को ब्रज भाषा की एक बोली के रूप में माना जाता है, जबकि इसके लिए भाषा वैज्ञा-निक आधारों का अभाव है। प्रमुखतः ब्रज, कन्नौजी और बुंदेली के बीच जो केन्द्रीय प्रवृत्ति होना चाहिए वह ब्रज क्षेत्र की उस बोली में नहीं है, जिसको ब्रज भाषा (परिनिष्ठित) का आधार माना जाता है।
इस भ्रम के समाजैतिहासिक कारण हैं। मुख्य यह किं हिन्दी साहित्य के आदिकाल के लगभग समापन के समय ही महाप्रभु बल्लभाचार्य जी का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने कृष्ण भक्ति के पुष्टि मार्गी सम्प्रदाय को देश व्यापी लोकप्रि-यता उपलब्ध कराई तथा ब्रजक्षेत्र में अपनी गद्दी स्थापित की। उनके शिष्य गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के समय में अकबर बादशाह की राजनैतिक दूर दृष्टि से कृष्णभक्ति के पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय को मुगलों का आश्रय मिल गया। दूसरी ओर ग्वालियर और ओरछा जो कि मुगलों के लिये सदेव कंटक रहे, इसलिये ग्वालियरी या बुंदेली शब्द से लोग परहेज करने लगे हों, इसमें आश्चर्य नहीं। बुंदेली शब्द तो चलन में भी नहीं था और किसी ने इस नाम के प्रयोग की हिम्मत भी नहीं की।
दूसरे बंगाल के कृष्ण भक्तों ने भगवान कृष्ण के लीला क्षेत्र की बोली में ही अपनी भावनायें व्यक्त करने का प्रयास किया और अपनी काव्य भाषा को ‘ब्रजबूली’ नाम दिया। इस प्रकार गोस्वामी विठ्ठल नाथ जी के समय (16 बीं सदी के उत्तराद्ध) में ही बंगाल से यह शब्द सुनाई पढ़ने लगा था। भगवान कृष्ण की जन्मभूमि और लोला स्थली होने के कारण ब्रज क्षेत्र महान् तीर्थ रहा है और उसका महत्व सदैव ही अलग से बना रहा है। जिसके का-रण ‘ब्रजबूली’ शब्द को ‘ब्रजबोली’ और अपने प्रसार तथा कृष्ण काव्य के लिए अनन्य माध्यम बने रहने के कारण साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित भाषा को ब्रजभाषा नाम ग्रहण करने में देर नहीं लगी, अन्यथा ब्रजक्षेत्र की बोली को तो स्वयं महा प्रभु बल्लभाचार्य जी ने ही पुरुषोत्तम भाषा कहा है।
कृष्ण काव्य के महान् गायक होने, अपनी ख्याति के दिनों में ब्रजक्षेत्र में निवास करने और उनकी जन्मभूमि की सही जानकारो के अभाव में, सूरदास जी को केवल वार्ताकारों के प्रमाण पर ब्रजभूमि में जन्मा मान लिया गया। और सबसे अधिक लोकश्रुत और कृष्ण भक्त कवियों में शिरोमणि कवि भी वही हुए। इस कारण ब्रजभाषा के नाम पर सूर की भाषा से हो लोग परिचित और प्रभावित हुए तथा सूर की भाषा को ही ब्रजभाषा का मानक (Standard) रूप मानने लगे। यद्यपि ब्रजक्षेत्र को बोली को परिनिष्ठित ब्रजभाषा का आधार मानने में सभी विद्वान हिचकते रहे इस सम्बन्ध में कुछ मत दृष्टव्य हैं -डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ब्रजभाषा’ में ब्रजभाषा का क्षेत्र दिया उसमें ग्वालियर सहित बुंदेलखंड को सम्मिलित नहीं किया किन्तु ब्रजभाषा के उदा हरणों के लिए इसी क्षेत्र के कवियों को लेने के कारण, उनकी रचनाओं को ब्रजभाषा की रचनायें मानकर उन पर बुंदेली प्रभाव मान लिया और हिन्दी भाषा का इतिहास पुस्तक में बुंदेली को ब्रज को दक्षिणी उपबोली भी कह दिया और यह भी कहा कि सच तो यह है कि ब्रज, कन्नौजी तथा बुंदेली एक ही बोली के तीन प्रादेशिक रूप मात्र हैं। किन्तु उस साहित्यिक ब्रज-भाषा का आधार तुलनात्मक पद्धति पर खोजने का प्रयास नहीं किया।
आचार्य किशोरीदास बाजपेयी ने भी ब्रजभाषा के व्याकरण का विवेचन करते समय लिखा “मैं साहित्यिक ब्रजभाषा की बात लिख रहा हूँ, भौगोलिक ब्रजबोली की नहीं। वह तो संकुचित दायरे में है।” ब्रजभाषा का व्याकरण पृष्ठ 88)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सूरदास जी के सम्बन्ध में जो मत व्यक्त करते हैं वह भी इस सम्बन्ध में चिन्तन की नई दिशाओं की ओर एक महत्वपूर्ण संकेत है- सूरदास किसी चली आती हुई परम्परा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो पूर्ण विकास सा जान पड़ता है आगे चलने बाली परम्परा का मूल रूप नहीं है (सूरदान पृष्ठ 168) यह अज्ञात परम्परा भी अव प्रकाश में आ गई है। ग्वा-लियरी के गेय पदों के अनेक रचनाकार जो प्रकाश से ओझल हो गए थे, पुनः प्रकाश में आ रहे हैं और आचार्य शुक्ल ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखकर जिस कड़ी के अभास का संकेत दिया था वह जुड़ रही है।
पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय का मत तो हिचक नहीं दो टूक है। उन्होंने कहा है – “मैंने ब्रजभाषा की जो विशेषतायें बतलाई हैं वे सब उनकी (सूरदास की) भाषा में पायी जाती हैं, वरन् यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा के आधार से ही ब्रजभाषा की विशेषताओं की कल्पना हुई है।” (हिन्दी भाषा साहित्य का विकास पृष्ठ 248)
इतिहास और साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान पं. हरिहर निवास द्विवेदी ने पर्याप्त परिश्रम के पश्चात् अनेक ऐतिहासिक तथ्यों, स्थानी भाषा से सूर की भाषा की तुलना और सूर साहित्य के अन्तर्शादय के आधार पर ग्वालियर की गेय पदों की परम्परा से सूरदास को जोड़ने का सतर्क एवं सफल प्रयास किया है, औरसूर का जन्म स्थान ग्वालियरी के क्षेत्र में होना ही प्रमाणित किया है। ग्वालि-यर दरवार से भी उनका कुछ दिन सम्पर्क रहा था, यह सम्भावना भी व्यक्त की है। (मध्य देशीय भाषाः ग्वालियरी) उपर्युक्त बातों को अमान्य करने का कोई तर्क नहीं है। इसमें सबसे प्रबल और जीवन्त प्रमाण तो सूर की भाषा की तुलना आज की बुंदेली से करने है। यह स्मरणीय है कि यदि थोड़ा बहुत अन्तर कहीं समझ में आता भी है तो उसका कारण चार सौ वर्ष का अन्तराल और एक विस्तृत क्षेत्र की काव्य भाषा तथा आज की वोल चाल की भाषा का अन्तर मात्र है, और कुछ नहीं है। काव्य भाषा में प्रयोगों को कुछ रूढियाँ प्रचलित हो जाती हैं। वह अपने सम्पूर्ण व्यवहार क्षेत्र से ध्वनि, वैयाकरणिक प्रयोग और शब्दावली रुपो जीवन रस लेकर अनुप्राणित होती रहती है। ठीक वही स्थिति उस ब्रजभाषा की है जो कि ग्वालियरो का नामान्तरित रूप है और जिसका लौकिक आधार बुंदेली है।
ये सब कहने का तात्पर्य थोड़ा पीछे मुड़कर देखने का संकेत मात्र है, जिससे ब्रजभाषा के विकास के आधार और दिशाग्रों को नही समझा जा सके और बुंदेली का सही स्थान निर्धारण हो सके।
वर्गीकरण :
आकृतिमूलक – बुंदेली श्लिष्ट योगात्मक भाषा है। अर्थ तत्व (प्रकृति) सम्बन्ध तत्व (प्रत्यय) के योग से इतना अधिक प्रभावित होता है कि प्रकृति की पूरी की पूरी ध्वनियों में कुछ न कुछ परिवर्तन हो जाता है। जैसे लोग (पु. एक वचन) से लुगाईअन (स्त्रो., बहुवचन, कर्ता, कर्म तथा सम्प्रदान कारक रूप)। कहीं कहीं क्रिया और सहायक क्रिया भी एकाकार होती हुई दिखलाई पड़ती है। वस्तुतः ये सन्धिजे विकार हैं।
उदा.-
(1) खात ते >खात्ते –
(2) काम कर लै आये >काम कल्लेआए?
अन्य प्रयोगों में भी यह विकार दिखलाई पड़ता है।
उदा.-
(1) काँ आय जात ? > काँय जात् ?
(2) उन नें का कई ? > उन्नें का कई ?
बुंदेली में योगात्मक और वियोगात्मक दोनों ही प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं।
उदाहरण क्रमशः प्रस्तुत हैं।
(1) लरकै, ओइये, मोइयै
(2) लरका खों, ओइ खों, मोइ खों
ये दोनों ही प्रयोग रूढ़ से हो गये हैं। ये कहना निर्णायक नहीं हो सकता कि बुंदेली वियोगात्मकता की ओर जा रही है।
व्यवहारिक
जन व्यवहार में बुंदेली के निम्नलिखित चार रूप पाये जाते हैं।
(1) भद्र बुंदेली या राजसी बुंदेली या इसे किंग्स बुंदेली भी कहा जा सकता है। यह रूप इतना अधिक शिष्ट और मधुर होता है कि इसकी तुलना शिष्टता और मधुरता में श्रेष्ठतम भाषा से की जा सकती है। बुंदेलखंड के रजवाड़ों, शिष्ट समाज, राजवंगों, उनसे सम्बन्धित लोगों तथा ठाकुरों में यह प्रचलित भाषा है। बुन्देला क्षत्री तो जैसे इसके संरक्षक ही हैं।
कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। इनमें कोष्ठांकित शब्दों का उच्चरित प्रयोग नहीं होता, मात्र निहितार्थ रहता है।
(1) भोजनन खों पधारबौ होय जू ‘अपनों)।
(2) म्हराज के सुख हो रए = सो रहे हैं।
(3) जगार हो जैय सोउ (अपन नों) खबर कर दइ जैय।
(4) (अपनी) रहस मजे में है =आप सानन्द हैं?
(5) कबै अबाइ भइ (अपनी) = आप कब पधारे?
(6) भोजन नॅइँ होत तो मोई जुठार के एक गिलास जलई चल जातो (तो अच्छा होता)।
इसमें आज्ञाशवी प्रयोग बहुत ही विशिष्ट होते हैं। इसमें क्रिया के सम्पन्न होने की इच्छा व्यक्त की जाती है, और क्रिया पर ही बल दिया जाता है। कर्ता का केवल भाव संकेत ही रहता है। उदा0 1, 3, 4 और 5 कोष्ठांकित प्रयोग गौण है) विशेष आवश्यक होने पर कर्ता को शब्द सम्बोधन द्वारा प्रेरणा के ढंग से आदेशित किया जाता है। “आप पधारिये।” जैसे प्रयोग कभी नही होते सदैव हो, ‘अपनों पधारबौ होय’ कहा जाता है। इस उदाहरण से स्पष्ट हैं कि त्रिया के सम्पन्न होने पर ही जोर दिया गया है, कर्ता को आज्ञा नहीं दी गयी; निवेदन के स्वर में भी नहीं।
(2) व्यवहारिक बुंदेली – इसमें मधुरता के साथ साथ आत्मीयता का पुट रहता है, या तो थोड़ा भी पूर्व परिचय के कारण, या अपरिचित के साथ शिष्ट भाव के कारण।
उदाहरण क्रमशः प्रस्तुत है :-
(1) चलो जौ म्हराज, अबेर तौ आ भइ जात्।
(2) अपन को ठाकुर आओं ? अपने घर कितै हैं ?
(3) ग्राम्य रूपः इसमें ग्राम्यत्व के कारण शिष्टता का थोड़ा अभाव दिखता है, जिसका कारण बोलने वालों का स्तर है। मैं, तैं, तोय, मोय, रे,री आदि सर्वनामों का प्रयोग बहुलता से पाया जाता है। इस स्तर के लोग सम्भ्रान्त लोगों से भी तुम शब्द का प्रयोग करते हैं, ‘आप’ या अपन (अपुन) का नहीं। ‘अपुन’ शब्द का प्रयोग शिष्ट लोगों के सम्पर्क में रहने वाले कुछ लोग करते हैं, किन्तु यह प्रयोग उनकी सामान्य बोली में असामान्य है। अपने से श्रेष्ठ लोगों के साथ बात करने में ‘म्हराज’ या ‘जू’ शब्दों के प्रयोग से ‘तुम’ शब्द के प्रयोग से गिरते हुए भाव की क्षतिपूति हो जाती है। मधुरता की कमी इस रूप में भी नहीं होती। भावानुकूल मधुरता न्यूनाधिक हो सकती। मधुरता या परुषता के कारणों में –
(1) भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों में कोमल या परुष ध्वनियों की न्यूनता या बहुलता होती है।
(2) उच्चारण में प्राणत्व की मात्रा आदि भाषा वैज्ञानिक कारणों के अतिरिक्त अन्य कारण जैसे-व्यक्तिगत स्वभाव, पारिवारिक संस्कृति तथा ध्वनियंत्र की विशिष्ट रचना भी प्रभावशील रहती है।
(4) सम्पर्क भाषा-यह बुंदेली उन लोगों की है जिनकी मातृभाषा बुंदेली नहीं होतो है किन्तु बुंदेली क्षेत्र में प्रवास या बुंदेली सम्पर्क के कारण इस भाषा को सीख लेते हैं। इसमें बुंदेली की प्रवृत्ति के अनुसार वल नहीं रहत। तथा बुंदेली प्रवृत्ति के अनुसार अनुनासिकता, प्राणी करण तथा धोषी, अधोषी-करण में अन्तर पाया जाता है। इन सभी बातों पर बोलने वाले की मातृभाषा का प्रभाव पड़ता रहता है। यह रूप स्थिर तथा एक रूप नहीं हो सकता, किन्तु अध्ययन के समय इसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। बोलचाल के दैनिक उदाहरणों के अतिरिक्त लिखित उदाहरणों के लिए पेशवा द्वारा महराज छत्रसाल के पुत्र हिरदे-शाह को लिखे गये पत्र दृष्टव्य हैं (यद्यपि लिखित उदाहरणों से वलाघात का अध्ययन नहीं हो सका है!
बुंदेली की ध्वनियाँ
स्वर-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, एँ (हृस्व) ए, ऐ, (शुद्ध उच्चारण होता है। अ +इ अथवा अ + य जैसा नहीं) आँ (हृस्व) ओ, औ (अर्द्ध सम्वृत्त अ+उ अथवा अ + श्रो जैसा उच्चारण नहीं) अं (अधिकांश अर्द्ध, किन्तु पूर्ण प्रयोग भी होता है)
ए-को समझने के लिए ‘दया’ का बुंदेली उच्चारण सबसे अधिक स्पष्ट उदाहरण है। यह दया और देया के बीच का सुनाई पड़ता है।
ऑ-बुंदेली में इसका प्रयोग बहुलता से पाया जाता है। यह ओ का हुस्व रूप है और इसकी ध्वनि ‘व’ का भ्रम उत्पन्न करती है। बुंदेली के ओका-रान्त उच्चारण में लगभग सर्वत्र इसी का प्रयोग होता है। यथा-करओं, बुरों बीच में भी इसका प्रयोग कुछ विशेष मनः स्थितियों के उच्चारण में पाया जाता है। जैसे मोय, तोय कभी कभी माँय तथा तॉय भी उच्चरित होते हैं, इन प्रयोगों में ओ को वायु मात्रा कम हो जाती है।
व्यज्जन-
क ख ग घ ड.
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
स ह, ज्ञ ड़
ड. ञ और ण की ध्वनियों के स्वतन्त्र अथवा पूर्ण प्रयोग नहीं होते हैं। ण का जहाँ पूर्ण प्रयोग होता है वहाँ इसका स्थान न ले लेता है। ‘न’ ‘ण’ की संध्वनि है। ‘न’ और ‘म’ के निरनुनासिक रूप भी पाये जाते है, जैसे नल और मल में न और म का उच्चारण निरनुनासिक है।
शब्द की आदि ध्वनि में ‘य’ ‘ज’ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। बीच और अन्त में भी यदि ‘य’ की हुस्व ध्वनि प्रयुक्त होती है तो अधिकांश ‘ज’ में बदल जाती है, जैसे अयोध्या > अजुद्या कार्य > कारज, काज, किन्तु इसके कुछ स्थायी अपवाद भी है जैसे छाँयौ, मायकौ, कायफर,आय (है), नाँय माँय। ‘या’ की दीर्घ ध्वनि शब्द के आदि स्थांन को छोड़कर प्रत्येक स्थान पर अपनी मूल ध्वनि में रहतीं है। जैसे-म्यारी, म्याऊँ, काया, भइया, पनया पनइँयाँ, ठिया, आदि। ‘या’ से प्रारम्भ होने वाले बुंदेली के जो परम्परागत शब्द हैं उनमें ‘या’ के स्थान पर ‘जा’ की ध्वनि पायी जाती है, यथा यात्रा >जात्रा, किन्तु विदेशी शब्दों में ‘या’ अपनी मूल ध्वनि में स्वीकार किया हुआ पाया जात्रा है, उदाहरणार्थ याद, यार, यारी।
‘र’ और ‘ल’ ध्वनियाँ अभेद रूप में पायी जातीं हैं। ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ की ध्वनि भी पायी जाती है, किन्तु ये प्रयोग रूढ़ हो चुके हैं। यह प्रवृत्ति के रूप में नहीं है। ‘ल’ के ‘र’ में विकाश के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
लोम > रौम, रूआँ
कुशल > कुसर
श्यालः > सारौ
रेखा – रकील, रंगीच
लवणहीन > रोनों (यह शब्द विपरीतार्थक भी हो गया है)
कुछ शब्दों में ‘ल’ और ‘न’ का परस्पर ध्वन्यान्तर पाया जाता है। जैसे लबण > नोंन ततील >लीलौ नीलाम > लीलाम।
‘व’ की ध्वनि से प्रारम्भ होने बाले शब्दों में ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ हो जाता है। बीच में भी ह्रस्व ‘व’ ‘ब’ हो जाता है, जैसे- पावन (पत्रित्र) पावन (पेशादार जाति के लोगों को त्योहार पर दिया जाने बाला भोजन)। शब्द के अन्त में ह्यस्व ‘व’ ह्रस्व ‘आँ’ में बदल जाता है। जैसे घाव > घाओं, ठाँव ठाँयाँ दीर्घ ‘वा’ की ध्वनि में बनो रहती है, जैसे-करवा, करवाट चिरवा, बैलवा आदि।
‘श” सर्वत्र ‘स’ के रूप में उच्चारित होता है किन्तु कहीं कहीं ‘श’ का विकास ‘छ’ के रूप में भी हुआ है, जैसे शल्क >छुकला
‘ष’ के अनेक ध्वन्यान्तरण पाये जाते हैं।
उदाहरण :-
ष से स-धनुस, बिस, बिसै (विषय)
ष से क- ब्रिजभूकन, भाका
ष से ख-धनुख, विष (अल्प प्रचलित) औषद ओखद, भाषा भाखा
ष से छ-दोष > दोछ
कुछ वर्ष पूर्व तक ग्राम्य बुंदेली में श, ष, स (प्रत्येक) को ‘छ’ की ध्वनि में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति थी।
उदा.-
शल्क > छुकला
दोष >दोछ
सूक्ष्म छुच्छम छुच्चम।
जब यह प्रवृत्ति के रूप में थी तब सीता को छीता तथा साबुन को छाबन कहा जाता था। अब यह प्रवृत्ति समाप्त हो रही है किन्तु जो प्रयोग रूढ़ हो गए हैं उनमें यह अन्तर अब भी सुरक्षित है, जैसे –
सीताफल > छीताफल (शरीफा)
सीता की लट >छीता की लट (एक विशेष जाति का सर्प )
सीता को रसुइया >छीता की रसुइया (एक विशेष प्रकार का गुदना ‘ह’ की ध्वनि अधिकांश अल्पप्राण और स्वरोन्मुखी रहती है, किन्तु बुंदेली का पूर्वी क्षेत्र इसका अपवाद है। पश्चिमी तथा अन्य क्षेत्रों में जहाँ इसका अल्प-प्राण और स्वरात्मक रूप सामान्यतः रहता है वहाँ भी क्रोध आदि की विशेष। मनःस्थितियों में महाप्राण रूप भी पाया जाता है।
‘क्ष’ च्छ, च्च, ख तथा क्ख में ध्वन्यान्तरित पाया जाता है।
उदाहरण :-
क्ष से छ- वृक्ष > बिरछा, क्षत्री > छत्री
क्ष से च्छ, च्च – सूक्ष्म > छच्छम, छच्चम
क्ष से ख-वृक्ष > बिरख (रूख विरख), रूक्ष > रूखौ
क्ष से क्ख – दक्षिण > दक्खिन
बुंदेली में ‘ज्ञ’ का अल्प प्रयोग है, केवल ज्ञान और ज्ञानी में। इसका उच्चारण ‘भ्याँ’ से मिलता जुलता होता है। यज्ञ में यह ध्वनि ‘ग्ग’ हो जाती है।
‘ड’ यह ध्वनि वस्तुतः ‘ड़’ को उत्क्षिप्त ध्वनि है बुंदेली में केवल यही उत्क्षिप्त ध्वनि पायी जाती है, ‘ढ़’ ध्वनि नहीं पायी जाती। ‘ड़’ ध्वनि बुंदेली में बहुत से शब्दों में पायी जाती है जैसे – काड़ी. जाड़ो, मोंड़ा ठाँड़ौ, कोंड़ी आदि किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ खड़ी बोली में ट ठ ड तीनों ध्वनियों का विकास ‘ड़’ के रूप में हुआ है वहीं किन्तु बुंदेली में ‘ट’ और ‘ठ’ का विकास तो ‘र’ तथा ‘ड’ का विकास ‘ड़’ के रूप में हुआ है।
उदाहरण :-
संस्कृत हिन्दी बुंदेली
(1) कटु कड़ा करआ (पठ>पड़ अपवाद है)
(2) कठोर कड़ा कर्रौ
(3) शुण्ड सूंड़ सूंड़
बुंदेली में अन्य कुछ ध्वनियों का विकास भी ‘उ’ के रूप में मिलता है।
जैसे-थ से ड़-व्काथ >काड़ौ
बुंदेली में क्लिक ध्वनियाँ भी पायो जाती हैं। बुंदेली के कुछ सार्थक शब्द ऐसे हैं जिनका लेखन संभव नही है, क्योंकि भारतोय लिपियों में क्लिक ध्वनियों के लेखन के लिये कोई भी ध्वनि चिह्न नहीं है। क्लिक ध्वनियों का उच्चारण श्वास भीतर की ओर खोचते हुए किया जाता है। अतः श्वास के इस ऋणात्मक गुण के कारण उदाहरणों के लेखन में ध्वनियों के पूर्व ऋण का चिन्ह लगा कर उच्चारणों को स्पष्ट किया गया है। इन ध्वनि समूहों के सार्थन होने के कारण ये भाषा की परिधि में आते हैं और इनका अध्ययन किया जाना अनिवार्य है।
उदाहरण :-
– चि-चि-चि-पश्चात्ताप का भाव प्रकट करने के लिये उच्चारित की जाने वाली ध्वनि
-चु-चु-चु- कुत्ते के पिल्ले को बुलाने की ध्वनि।
क्लिक-क्लिक-क्लिक-जीभ को पार्श्व लुण्ठित करके दाढ़ों के पास से श्वास खींची जाती है तथा वर्क्स के ऊपरी भाग से लगा हुई जीभ से श्वास को नियंत्रित करके इस ध्वनि का उच्चारण किया जाता है। यद्यपि दिया हुआ उच्चारण एक दम सही नहीं हैं किन्तु लगभग यही उच्चारण होता है। बुंदेली में यह ध्वनि बैलों को हाँकने के लिये प्रयुक्त होतीहै। इसो ध्वनि को आधार मान कर विद्वानों ने ऋणात्मक ध्वनिगुण वाली ध्वनियों का नाम क्लिक ध्वनियाँ रख दिया है।
संभव है ये ध्वनियाँ भारत के मूल निवासियों की भाषा के अवशेष हों क्योंकि नीग्रो भाषाओं में वर्तमान समय में इनका बहुत अधिक प्रयोग होता है।
बुंदेली की कुछ ध्वनि प्रवृत्तियाँ
(1) अनुनासिकता-बुंदेली क्षेत्र में सर्वत्र ही अनुनासिकता की प्रवृत्ति क्रिया-शील रहती हैं, किन्तु बुंदेली की उपवोली पवारी में यह प्रवृत्ति थोड़ी अधिक पायी जाती हैं।
(2) अल्पप्राणी करण-बुंदेली शब्दावली में शब्द की आदि ध्वनि को छोड़कर शेष ध्वनियों में अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है। जैसे उघाड़ उगार।
(3) ओकारान्त प्रवृत्ति-यह प्रवृत्ति बुंदेली में है, किन्तु बाड्.ला भाषा के समान सर्वत्र नहीं। संज्ञा एवं सर्वनामों के कारक चिन्हों पुलिंग एक वचन के साथ विशेषण तथा एक वचन की भूतकालिक एवं आज्ञावाची क्रियाओं के रूप ओकारान्त पाये जाते हैं। उदाहरण क्रमशः प्रस्तुत हैं।
(1) राम को पिछौरा काँ गाँ।
(2) मोरो, तुमओं चाय ऊ को, होय तो काउ कौ भलौ।
(3) कारौबैलनोनोंहोत।
(4) मैं तो बैलउ कत्तौ, भलो करो जबइँ भलौ हुइये।
(5) रोटी जेंलो और बजारै जाओ मनसे कछु लैयाइयौ।
(4)ध्वनि सन्धि-बन्देली में ध्वनियों के द्वित्व की ओर रुचि नहीं है। संस्कृतसे आगत शब्द जिनमें मिली हुई ध्वनियाँ हैं अथवा द्वित्व वह बुंदेली में वियुक्त हो गया है।
उदा.- उत्तर >ऊतर
क्रिया >किरिया
कर्म>करम
किन्तु रकार लोप की प्रवृत्ति के कारण पवारी तथा भदौरी में रहार लोप से आगे की ध्वनियों में द्वित्व हो जाता है जैसे हरिद्रा हरदी 7 हद्दी 7 इसी प्रकार क्रिया पदों का अन्तिम स्वर भी लुप्त हो जाता है जिसके कारण सहायक क्रिया मिल जाती है अन्तिम ध्वनि को संवि सहायक क्रिया से हो जाती है।
जैसे:-
खातते >खात्ते
करलै आये – करले आये
(5) रकार लोप – यह प्रवृति बुंदेली के उत्तर पश्चिमी रूपों में अधिक पायी जातो है। बोलचाल में ग्राम्य बुंदेली में यह प्रक्त्ति अधिक रहती है।
अर्थ वैज्ञानिक विबेचन
अर्थ व्यक्त करने तथा भावों के प्रकाशन में स्वराघात का अधिक महत्व रहता है। बुंदेली स्वरात्मक भाषा है किन्तु वाक्य का अन्तिम शब्द यदि अकारयुक्त हो तो उसमें स्त्रर लोप हो जाता है। दो शब्द जब सामासिक पद के रूप में साँश्लिष्ट होते हैं तब दूसरे शब्द में यदि पहली ध्वनि स्वर हो तो वह भी प्रभावित होती है, अधिकांश उसका लोप हो जाता है। उदाहरण क्रमशः प्रस्तुत हैं।
(1) का करत्। >का खात्
(2) काँ आय जात ? >काँय जात ?
बोलने वाले की भावना के अनुसार यह नियम बदलता रहता है। इसी प्रश्न (उदा0 2) को खीझ की मनःस्थिति में कहा जायगा तो बहुत अधिक स्वरागम हो सकता है। जैसे
काँऽ आऽय जाऽत् (त पूरा भी हो सकता है)
अर्थ के स्वराघात से अधिक सम्बद्ध रहने के कारण विशेषकर बुंदेली के ग्राम्य रूप का भावानुकूल लेखन कठिन है।
अर्थ की समुचित अभिव्यक्ति के लिए अविधा लक्षणा तथा व्यंजना का श्रावश्यकतानुसार प्रयोग किया जाता है। बुंदेली शब्दों का अध्ययन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि लक्षणा का प्रयोग अधिक होता है। इसी कारण ध्वन्या-त्मक और अनुकारी शब्दों की बहुलता पायी जाती है।
अर्थ के सामान्यीकरण के लिये तथा क्रियाओं को विशिष्ट अर्थ प्रदान करने के लिये शब्द युग्मों का सहारा लिया जाता है।
वाक्य रचना- बुंदेली का वाक्य विन्यास सामान्यतः अन्य आ0 भा0-आर्य भाषाओं के समान ही है।
इसके रजायसी रूप में एक विशेषता यह रहती है कि वाक्य का उद्देश्यं गौण रहता है अथवा मध्यम पुरुष के लिये भी अन्य पुरुष के रूप में प्रयोग किया जाता है।
बुन्देलो के पूर्वी क्षेत्र के वाक्यों में वर्तमान काल के वाक्यों में सहायक क्रिया मुख्य क्रिया के पूर्व आती है।
प्रश्न वाचक वाक्यों में सदैव ही आती है। अन्य वाक्यों में क्रिया पर या प्रश्न पर विशेष वल देने के लिये ऐसा किया जाता है।
उदाहरणः क्रमशः प्रस्तुत हैं-
(आथ = है)
(1) तें भुनसारे से काय पड़त?
(2) किताब तौ आय (आ) पड़त?
पश्चिमी क्षेत्र में ‘आय (आ)’ का प्रयोग नहीं होता है बल्कि हौ, है, हैं का प्रयोग होता है, इस कारण पश्चिमी प्रयोगों में वावय रचना खड़ी बोली (हिन्दी) के समान ही होती है।
कहीं कहीं सूक्ष्म भेद भी दिखता है जो अज्ञानजन्य और पूर्व तथा पश्चिम का परस्पर प्रभाव है किन्तु अब चाहे अज्ञानजन्य ही क्यों न हो वह स्वीकृत प्रयोग है और बल देने के लिये उपयोग में लाया जाता है।
उदा- काँ आय जात हौ? = काँ आय (है) जात हौ ? खड़ो बोली में इसका अक्षरशः अनुवाद होगा कहाँ है, जाते हो? निश्चित ही यह प्रयोग हिन्दी में स्वाभाविक और शुद्ध नहीं है। बुंदेली में जब रवीझ अथवा विशेष जिज्ञासा के साथ प्रश्न किया जायगा तो इसी रूप में किया जायगा। इसमें’ ‘कॉ’ के साथ ‘ग्राय’ जोड़ कर विशेष बल दिया जाता है।
बुंदेली में निम्नलिखित तीन प्रकार को वाक्य रचना प्रचलित है।
उदा.:-
(1) ऐसी जिन करबू(बी) करे।
(2) ऐसी न करी करे।
(3) ऐसी न करें गये ।
शब्द समूह
बुंदेली का शब्द भण्डार बहुत ही भरा पूरा है। इसमें संस्कृत के तद्भव शब्द ही प्रधान हैं। अधिकांश ऐसी कमी का अनुभव नहीं होता कि तत्सम शब्दों को लेना पड़े, किन्तु तत्सम शब्दों को नलेने का कोई आग्रह भी नहीं है। शिष्ट तथा धार्मिक संदर्भों में तत्सम शब्दों का प्रयोग भी पाया जाता है। इसी प्रकार अरबी फारसी तथा अँग्रेजी के भी तद्भव शब्द पाये जाते हैं।ऐसे शब्द बुंदेली ने पूर्णतः आत्मसात कर लिये हैं।
उदाहरण – लम्प, चिमनी (अँगरेजी)
सिन्नी (शेरनी), निजानी (नजात से बना शब्द) (फारसी) ऐसे शब्दों में कहीं कहीं सूक्ष्म अर्थ परिवर्तन भी हो गया है। उदाहरणार्थ अँगरेजी शब्द लैम्प लम्प को ले सकते हैं। बुंदेली लम्प शब्द का अर्थ होता है-मिट्टी के तेल से जलने वाला बन्द तेल कोष का दीपक। धुँआ अधिक देने के कारण लक्षण साम्य के आधार पर अँगरेजी शब्द चिमनी भी इसके लिये चिमनी या चिमजी के रूप में चल पड़ा है। लाक्षणिक आधार पर नवीन वस्तुओं के लिये नवीन शब्द भी गढ़ लिये जाते हैं। जैसे-हवाई जहाज के लिए चीलगाड़ी आदि। इसी प्रकार हरित क्रान्ति के साथ भी नवीन नवीन तद्भव शब्द चले आ रहे हैं, जो अभी रूढ़ तो नहीं हुये हैं किन्तु उनके प्रयोग की एक रूपता उनके शीघ्र ही स्थिर हो जाने की सम्भावना प्रकट करती है।
उदाहरण :-
मोबिल ऑइल मोबीलाल, यूरिया > उदिश्र, थेशर त्रे सट, सुनौरा >सुनैरा (सुनहला के अर्थ में)
बुंदेली शब्द समूह से बहुत से शब्द, उनको बोलने में हीन भावना का अनुभव करने के कारण, निकलते जा रहे हैं और बुंदेली का शब्द समूह कम होता जा रहा है जैसे-
(1) बीरन-भाईकापर्यायबाचीऔरसम्बोधन
(2) वइया-बाई+ आ-बहिन याने नंद का आदर तथा प्रेमपूर्ण सम्बोधन । बुंदेलखंड से लगने वाले बघेली के क्षेत्र में अभी भी इसका प्रयोग अवशिष्ट है।
(3) भौजी-भौजी का प्रयोग ग्राम्यं समझ कर यह शब्द ग्रामों तक से उखड़ना जा रहा है। भाबी शब्द उसका स्थान ले रहा है।
यह प्रवृत्ति इस कारण उत्पन्न हुई है कि साधारण लोगों में ऐसा भ्रम रहता है कि हिन्दी की बोलियाँ हिन्दी के ही बिगड़े हुये (ग्राम्य) रूप हैं इस-लिये उन्हें सुधार कर बोलना चाहिये। वस्तुतः उनका विकास क्रम स्वतंत्र है। इसी कारण बुंदेली तथा हिन्दी की अन्य बोलियों और उप भाषाओं में ऐसे बहुत से शब्द हैं जिनके पर्यायवाची हिन्दी के परिनिष्ठित रूप में या तो उधार लिये मिलते हैं या संस्कृत के तत्सम शब्द। कुछ शब्द तो इतने सूक्ष्म अर्थ को प्रकट करते हैं जिनके पर्याय हिन्दी में न उधार लिये मिलते हैं और न ही संस्कृत के तत्सम शब्द। ऐसे शब्दों का अर्थ सदैव ही व्याख्यात्मक ढंग से करना पडता है। कुछ उदाहरण वर्णन के वर्गक्रम से प्रस्तुत किये जा रहे हैं। किन्तु जो इसका स्वयं अनुभव करना चाहें वे ईसरी की दो चार फागों का हिन्दी में गद्यानुवाद या पद्यानुवाद करके कर सकते हैं।
उदाहरण :-
उधार बुंदेली हिन्दी
उसीसो तकिया, सिरहाना
गेंडआ तकिया
पनइँयाँ जूता
तत्सम
गड़ई लोटा
आद आर्द्रता
अचरज आश्चर्य
निन्नों निर्णय (बुंदेली में अब इसका अर्थ विवरण हो गया है।)
छुच्छम सूक्ष्म
व्याख्यात्मक
बिजूको- जानवरों को डराने के लिये खेत में खड़ा किया जाने वाला पुतला।
छुनक मुनइयाँ – हाथों का सहारा लिये सिर पर वस्तु रख कर चलना (प्रायः कोमल अर्थ में प्रयोग होता है)
दचकबौ- सँभाल कर पटकना ताकि क्रोध प्रकट हो जाय और पटकी जाने वाली वस्तु को कोई हानिन
पहुँचे
लूगर – जलती हुई लकड़ी
वैसान्दुर- पूजा में होम के लिये अग्नि।
आरवल- बाकी आयु (श्रयोग में पर्याय, वैसे आयुर्वल से निकला शब्द है)
उपनये – नंगे पैर
उरइयाँ- जाड़े की प्रभात कालीन सुखद धूप
कठवा – इमारती या अन्य काम की लकड़ी, जलाऊ के अतिरिक्त
कँइयाँ – खड़े होकर बच्चों को गोद में लेना।
यह अन्तिम वर्ग व्याख्यात्मक शब्दों का है। इस वर्ग के हजारों शब्द हैं। ये हिन्दी के अपने हैं और हिन्दी कभी भी इनको उपयोग में लेकर अपने आप को सम्पन्न बना सकती है। जो लोग हिन्दो की बोलियों के विकास की बात में हिन्दी के प्रति विद्रोह या पृथकता बाद की राजनैतिक गंध लेने का प्रयास करते हैं, उनको अपना भ्रम दूर करने के लिए यह समझने का प्रयत्न करना चाहिये कि यह शब्द भण्डार हिन्दी (परिनिष्ठित) की उस सम्पत्ति के समान है जो वाप दादों के द्वारा गाढ़ कर रखी गयी हो, जो है तो अपनो परन्तु उसका उपयोग नहीं कर सकते। बोलियों का विकास चाहने वालों का प्रयास तो उस सम्पत्ति को प्रत्यक्ष कर उसे हिन्दी को सौंप देने मात्र के लिये है।
बुंदेली के विषय में निष्कर्षतः इतना हो कहा जा सकता है कि यह समस्त क्षमताओं से सम्पन्न भाषा है और इसके क्षेत्र के राजनैतिक ह्रास के कारण, भाषा की कोटि में पहुंच रही भाषा, बोली तो बोली उप बोलो की कोटि में आ रही है। वर्तमान उपेक्षा और उसके बोलने वालों की आत्म अवचेतना और हीन भावना के कारण भविष्य में यह कहाँ ठहरेगी? कहा नहीं जा सकता ।