खंड-3 बुंदेली का उद्भव और विकास
June 2, 2025खंड-5 बुंदेली और उसके क्षेत्रीय रूप
June 10, 2025ध्वनिग्रामिक अध्ययन स्वर (vowels)
हिन्दी की अन्य बोलियों की तरह बुंदेली के भी मूल स्वर 10 है- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ और औ। यह निम्नांकित व्यतिरेक अल्पतम युग्म से स्पष्ट है-
अ: आ- कल (मशीन) कला, गल (कण्ठ), गला (गला हुआ)।
काल (मृत्यु), कल (आने वाला दिन), जाल (फंदा), जल (पानी)।
इ: ई- खिस (खिसना) – खीस (हाथी की खीस), गिल (निगलना) गील (गीला), तिन (उन्हें)-तीन (एक संख्या) खील (लाई) – खिल (खिलना), मील (दूरी का माप) – मिल (मिलना)।
उः ऊ – धुर (गाड़ी का जूआ) – धूर (धूल), जुर (ज्वर) – जूर (जूड़ा)। घूरौ (घूड़ा)-घुरौ (घुला हुआ), खूँटबै (खोटना) – खुटनें (समाप्त होना)।
ए: ऐं- पेर (पेरना) पैर, बेरा (खेड़ा) – खैरा (एक रंग)। भैस, भेस (वेश), मैल (मल) – मेल (एका)।
ओ : औ – मोर (मयूर) – मौर (दूल्हे का मुकुट), सोर (शोर) – सौर (जच्चा का सूतक)। सौक (शौक) सोक (शोक), हौस (उत्कण्ठा) – होस (होश)।
वे स्वर दो भागों में विभाजित किये जा सकते हैं- ह्रस्व स्वर और दीर्घ स्वर।
ह्रस्व स्वर-अ, इ, उ।
दीर्घ स्वर-आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
ये समस्त मूल स्वर बुंदेली में निरनुनासिक और सानुनासिक; दोनों रूपों में प्रयुक्त मिलते हैं, किन्तु सानुनासिकता बुंदेली की एक प्रमुख विशेषता है; अतः इसमें सानुनासिक स्वरों का प्रयोग अधिक दिखाई देता है।
कुछ विद्वानों की दृष्टि से ए तथा ओ भी ह्रस्व स्वर हैं, जिनका दीर्घ रूप क्रमशः ऐ तथा औ है।
बुंदेली के स्वरों की स्थिति
बुंदेली के जिन 10 मूल स्वरों का उल्लेख आरम्भ में किया गया है, उनमें 4 अग्रस्वर- इ, ई, ए, ऐ; 5 पश्च स्वर- आ, उ, ऊ, ओ, औ तथा 1 मध्य स्वर-अ है।
प्रोफेसर डेनियल जोन्स ने अनेक प्रयोगों के पश्चात् केवल 8 स्वरों को ही प्रधान स्वर माना है। उन्होंने ऐ और औ को इनमें स्थान नहीं दिया है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि ये दोनों संयुक्त स्वर हैं। उन्होंने इन आठ प्रधान स्वरों (Cardinal Vowels) को ही माप-दण्ड मानकर इनका उच्चारण-स्थान निश्चित किया है। इन सभी स्वरों के उच्चारण में मुख-द्वार समान रूप में नहीं खुलता। अतः मुख-द्वार के न्यूनाधिक खुलने की दृष्टि से ये प्रधान स्वर चार प्रकारों में विभक्त किए गए हैं- विवृत, अर्ध विवृत, संवृत तथा अर्ध संवृत।
यद्यपि हिन्दी की सभी बोलियों में मूल स्वर समान ही हैं; तथापि प्रत्येक बोली की उच्चारण-विधि में कुछ न कुछ अन्तर होता ही है, जिससे कभी-कभी उनके एक ही स्वर के उच्चारण के स्थान में भी यत्किंचित अन्तर हो जाता है। बुंदेली के स्वरों का उच्चारण-स्थान निम्न प्रकार है-

हम इन प्रधान सहस्वनों को स्पष्टतः इस प्रकार रख सकते हैं-
| अग्र | मध्य | पश्च |
उच्च स्थानीय | ई |
| ऊ |
कुछ निम्न स्थानीय | इ |
| उ |
मध्य स्थानीय | ए | अ | ओ |
निम्न स्थानीय | ऐ | आ | औ |
स्वर ध्वनिग्राम एवम् उनके सहस्वन (Vowels Phonemus and their Allophonics)
अ
बुंदेली में मूल स्वर अ के तीन सहस्वन (Allophones) मिलते हैं। इन्हें हम क्रमशः अः अँ, तथा अऽ कह सकते हैं।
- अ- यह एक अर्ध विवृत मध्य स्वर है। इसके उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग किचित ऊपर उठ जाता है और ओष्ठ भी किचित विवृत हो जाते हैं। किन्तु अँग्रेजी के A के उच्चारण की अपेक्षा कम विवृत होते हैं। इसका प्रयोग बुंदेली में शब्द के आदि, मध्य और अन्त में भी मिलता है। यथा-
शब्दाद्य में – अकारत (व्यर्थ) अनमनो (उदास), अधली (आधी पाई) अलोप (लुप्त), अटरिया, अचक (अचानक) आदि।
शब्द-मध्य में – जुगत (युक्ति), छुटक (खुला), छिछलो (फैला हुआ), डुकरा (बूड़ा), तनक (थोड़ा), दिहर (देहरी) आदि।
शब्दान्त में – छैल, तुपक (बन्दूक), बन (स्त्री), घरियक (घड़ी भर) उजयार (उजेला). उलायत (शीघ्रता) उमर (उम्र) आदि।
- अॅ- यह बुंदेली का अर्थ मात्रा कालीन मध्य स्वर है। इसका प्रयोग केवल शब्द-मध्य में ही होता है। यथा- गउवा (ग् अ उ वा) गाय, छैया (छ् अ इ या) छाया।
- अऽ- इसके उच्चारण में मूल स्वर अ के उच्चारण की अपेक्षा किचित अधिक समय लगता है। इस स्थिति में इसे विलम्बित अथवा प्लुत कहा जा सकता है। बुंदेली में इसका प्रयोग प्रायः शब्द-मध्य में ही दिखाई देता है। यथा-मटकिया, खिरकिया, गरवा (गला), सुलरिया आदि।
इस प्लुत अऽ का प्रयोग बुंदेली में शब्दान्त में नहीं होता, किन्तु निमाड़ी और मालवी में इसका शब्दान्त-प्रयोग स्पष्ट सुनाई पड़ता है। यथा- तुम-खऽ (तुमको), उन-सऽ (उनसे) बादि इसी प्रकार के शब्द हैं।
सानुनासिक प्रयोग
बुंदेली में अ का सानुनासिक प्रयोग भी शब्दाद्य तथा शब्द-मध्य में मिलता है।
शब्दाद्य प्रयोग- अंगुरिया, अंटा, बंकुर, अंधियार, अँसुवा आदि।
शब्द-मध्य प्रयोग- पुतवंती (पुत्रवती), ननंद (ननद), अनंद (आनन्द) आदि।
आयह बुंदेली का विवृत पश्च स्वर है। इसके उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग अन्दर की ओर किंचित ऊपर उठ जाता है और ओष्ठ ‘अ’ के उच्चारण की अपेक्षा कुछ अधिक विवृत हो जाते हैं। बुंदेली और ब्रज, दोनों में इसका उच्चारण-स्थान एक ही है। बुंदेली में इसके उच्चारण के दो सहस्वन मिलते हैं- आ और ऑ।
- आ- इसका उच्चारण शब्दाद्य शब्द-मध्य और शब्दान्त में भी मिलता है।
शब्दाद्य में – आगम, आखत (अक्षत), आखो (पूरा), आसो (इस वर्ष), आमद (अवाई), आरसी (दर्पण) आदि।
शब्द-मध्य- भंडारो, बराई, औकात; मतारी, निचान, दुफाई (दोप्रहर), गैलारो (गली से चलने वाला), ऐबाती (सौभाग्यवती) आदि।
शब्दान्त में – कठला (कण्ठ का एक आभूषण), खब्बा (अधिक खाने वाला), छैला, उचक्का, घटिया, हरिया (तोता), दूला (दूल्हा) आदि।
- ऑ
इस स्वर का उच्चारण-स्थान बुंदेली के मूल स्वर अ तथा आ के मध्य है। ब्रजभाषा में भी इसका प्रयोग वर्तमान है और उच्चारण-स्थान भी यही है। इसके उच्चारण में जिह्वा के मध्य और पश्च भाग के बीच का भाग ऊपर उठता है। यह उच्चारण शब्दाद्य और शब्द-मध्य में सुना जाता है।
शब्दाय में – ऑतताई, ऑवरो, कॉमरो।
शब्द-मध्य में – आपईऑप, करवाई (कड़वाई)।
सानुनासिक प्रयोग
बुंदेली में आ का सानुनासिक उच्चारण शब्द के आदि और मध्य में वर्तमान है।
आदि में – आंगन, आंधरो (अंधा), कांधो, मांडे, झाँवरो।
मध्य में-जखांद, दरांग (दरार), भड़ांग, (वस्तुओं के गिरने की आवाज), सड़ांद (खड़ी गंध)।
इ
यह अक्षरात्मक (Syllabic) संवृत ह्रस्व अग्र स्वर है। इसका उच्चारण-स्थान दीर्घ ई से किंचित नीचे अन्दर की ओर है। बुंदेली में इसका प्रयोग शब्दाद्य और शब्द-मध्य में दिखाई देता है। इसके दो सहस्वन हैं-इ तथा दें।
शब्दाद्य में – इमलिया, इतवार, भिनसारो, खिरकिया आदि।
शब्द-मध्य में – भजिया, अगिन, अंधियार, बहिन आदि।
बुंदेली के कुछ सामान्य भूतकालीन क्रियापदों को ईकारान्त लिखा जाता है, पर वह इकारान्त ही कर्णगत होता है। यथा, कइ (कहा), लइ (लिया) आदि।
इॅ
इ’ के विपरीत ‘इॅ’ अनाक्षरिक (Non Syllabic) संवृत ह्रस्व अग्र स्वर है। इस स्वर का प्रयोग बुंदेली के कुछ शब्दों में ‘शब्द-मध्य’ सुनाई पड़ता है। इस प्रयोग की स्थिति में यह सामान्यतः अ के पश्चात् आकर संध्यक्षर (Dipthong) का रूप ग्रहण कर लेता है। यथा- गइॅया, भइॅया, भइँया आदि।
संध्यक्षर के रूप में ये शब्द इस प्रकार भी लिखे जाते हैं- गैया, भैया मैया।
सानुनासिक प्रयोग
बुंदेली में ह्रस्व इ का शब्द के आदि तथा मध्य में सानुनासिक प्रयोग भी वर्तमान है।
आदि में – इंधियारो, इंजन, इंसाप (फ), इंतजाम।
मध्य में सरमिंदो, खाविद।
ई
यह बुंदेली का संवृत दीर्घ अग्र स्वर है। इसके उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग ऊपर उठकर तालू के बहुत समीप पहुँच जाता है। इसका उच्चारण-स्थान मूल स्वर ई से किंचित नीचे है। ह्रस्व इ की तरह इसके भी दो सहस्वन हैं- ई और इॅ।
- ई- इसका प्रयोग शब्द के आदि, मध्य और व्यञ्जन के पश्चात् शब्दान्त में भी होता है।
आदि में – ईसर, ईस, डीमा (मिट्टी का डेला), दीवार, मीनार।
मध्य में- मईना (महिना), चुटीलो, हटीलो, छबीलो, खमीर।
अन्त में – दुहनी, तिहाई, जनेई, जिमी (जमीन)।
- ई- इसका उच्चारण ‘ई’ की अपेक्षा कुछ शिथिल होने के साथ ही यह किंचित पश्च भी है। बुंदेली में इसका उच्चारण प्रायः शब्दान्त में ही श्रवणगत होता है। यथा- गॅई, तुरतॅई, अबई, जबॅई।
अनुस्वरित ई- इसका प्रयोग बुंदेली में शब्द के आदि, मध्य तथा अन्त में भी मिलता है।
आदि में – ईंधन, ईंचनै, नींगनैं, बींदनैं (नो), नींदनो।
मध्य में – उनींदो, कमींच (कमीज़)।
अन्त में – नई (नहीं), गईं, तुमईं (तुम ही), अगाड़ीं।
उ
यह संवृत ह्रस्व पश्च स्वर है। इसके उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग ऊ के स्थान से किचित नीचे हट जाता है। ओष्ठ कुछ वर्तुल हो जाते हैं। बुंदेली में इसके दो सहस्वन वर्तमान है-उ तथा उँ।
- उ- इसका प्रयोग शब्द के आदि, मध्य तथा अन्त में भी होता है।
आदि में – उसारी, उन, उए, उधार, उराने, उमानो।
मध्य में – ललुवा, पाउन, बाबुल, विरहुली, भाउज।
अन्त में – चारउ, तीनउ, तनकउ, रोजउ।
- उॅ – इस स्वर का प्रयोग केवल शब्द-मध्य में होता है। इॅ की तरह यह स्वर भी अन्य स्वर से मिलकर सन्ध्यक्षर-रूप ग्रहण कर लेता है। यथा कउॅवा (आ भी), नउॅवा, खउॅवा, गउॅवा, भउॅवा आदि।
सानुनासिक प्रयोग
बुंदेली सानुनासिकता-प्रधान बोली है। अतः अन्य स्वरों की तरह ‘उ’ का भी सानुनासिक प्रयोग शब्दाद्य; शब्द-मध्य और शब्दान्त में भी मिलता है। ब्रज में इसका उच्चारण शब्दान्त में ही अधिक कर्णगत होता है।
शब्दाद्य में – उँचाई: जुंडी (ज्वार) उँघाई (उँधास) उंठी (अंगूठी)।
शब्द-मध्य में- चउँतरा चउँमासा पहुँचती।
शब्दान्त में – साँचउँ घउँ (गेहूँ) चारउँ।
विशेष- ‘उॅ’ का उच्चारण-स्थान ‘उ’ से किंचित नीचे है। इसके उच्चारण में ओठों की गुलाई उ के उच्चारण की अपेक्षा कुछ कम हो जाती है।
ऊ
यह संवृत दीर्घ पश्च स्वर है। इसके उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग ‘उ’ के उच्चारण की अपेक्षा अधिक ऊपर उठकर कोमल तालू के निकट पहुँच जाता है। बुंदेली में इस स्वर का उच्चारण-स्थान प्रधान स्वर ‘ऊ’ से किचित नीचे हैं। इसके उच्चारण में ओष्ठ ‘उ’ के उच्चारण की अपेक्षा अधिक वर्तुल हो जाते हैं। बुंदेली में इस स्वर के दो सहस्वन मिलते हैं। ऊ भौर ऊँ।
- ऊ- इसका प्रयोग शब्द के आदि, मध्य और अन्त में भी (व्यञ्जनान्त में भी) मिलता है।
आदि में – ऊखल, ऊसर, ऊन, ऊस।
मध्य में – बबूर कपूर, सपूत, कबूतर।
अन्त में – सादू, कमाऊ, गमाऊ, उकड़ू।
- ऊॅ – इसके उच्चारण में ‘ऊ’ की अपेक्षा किंचित कम समय लगता है। बुंदेली में इसका प्रयोग शब्दान्त में स्वर के पश्चात् मिलता है। यथा खाऊॅ, लजाऊॅ, नाऊॅ आदि।
अनुस्वरित उच्वारण- बुंदेली में अनुस्वरित ऊँ का प्रयोग शब्दाय, शब्द-मध्य तथा व्यञ्जन के पश्चात् शब्दान्त में भी मिलता है।
शब्दाद्य में – ऊँचो, ऊँठो (अंगूठा) ऊँघनो।
शब्द-मध्य में – छछूँदर, टूँका (टुकड़ा), ढूँकनैं, ठूंठ।
शब्दान्त में – कहूँ (कहाँ), गहूँ, पाहूँ, नीचूँ।
ए
यह अर्ध संवृत दीर्घ अग्र स्वर है। बुंदेली में इसका उच्चारण-स्थान प्रधान स्वर ‘ए’ के किंचित नीचे है। इसके उच्चारण में ओंठ ई के उच्चारण की अपेक्षा कुछ अधिक विवृत हो जाते हैं। जिहवा का उठा हुआ भाग प्रधान स्वर ए की अपेक्षा थोड़ा पीछे रहता है। बुंदेली में इसके तीन सहस्वन मिलते हैं- दीर्घ आक्षरिक ए, ह्रस्व ऐं तथा आक्षरिक ए।
- दीर्घ आक्षरिक (Syllabic) ए
आदि में- एवात (सुहाग), एले (इस ओर), एक, एरन, (आवाज)
मध्य में – कएक (कई), घेर, केरा (केला), नेग।
अन्त में – उए (उसे), मोए (मुझे), गए, भए।
- हस्व ऍ
इसका उच्चारण ए के उच्चारण-स्थान से किंचित नीचे होता है। इसका प्रयोग प्रायः शब्द के आरम्भ में विभक्ति-प्रत्यय के साथ ही होता है। यथा के है, जें है, ऍहै आदि।
- अनाक्षरिक (Non Syllabic) ए
इसका प्रयोग शब्द-मध्य में अन्य स्वरों के साथ होता है। इस स्थिति में यह सन्ध्यक्षर (Dipthong) का रूप ग्रहण कर लेता है। यथा-
क्योला – के् ओ ला (कोयला), प्यार – पे् या र, न्योता- ने् ओ ता।
अनुस्वरित उच्चारण
बुंदेली में ए का अनुस्वरित उच्चारण शब्द के आदि, मध्य और अन्त में भी उपलब्ध है।
आदि में – एंजिन (एंजन भी), एंगर (समीप), एंड।
मध्य में – मेंड, गेंवड़ा, सेंत-मेंत।
अन्त में – नैचैं, घरैं।
ऐ
यह अर्ध विवृत ह्रस्व अग्र स्वर है। इसका उच्चारण-स्थान मूल स्वर ए और ऐं के लगभग मध्य में है। बुंदेली में इसके दो सहस्वन मिलते हैं- ऐ, ऐ ॅ। कुछ भाषाशास्त्री इसे मूल स्वर और कुछ संयुक्त स्वर मानते हैं। बुंदेली में इसके दोनों रूप वर्तमान हैं।
- मूल स्वर के रूप में इसका प्रयोग शब्द के आरम्भ में और अन्त में भी होता है।
शब्दारम्भ में – ऐसो, ऐतबार (विश्वास), ऐनक।
झाँसी, जालोन और हमीरपुर जिले के कुछ भाग में इन शब्दों के आरम्भ में प्रयुक्त ऐ का उच्चारण ‘अइ’ होता है। जबकि सागर, दमोह, होशंगाबाद, नरसिंहपुर आदि जिलों में ‘ऐ’ ही उच्चरित होता है। प्रथम उच्चारण पर ब्रज का प्रभाव है।
शब्दान्त में – करै, मरै, भरै, हरै आदि।
यह शब्दान्त ‘ऐ’ का मूल रूप में उच्चारण बुंदेलीभाषी सभी क्षेत्रों में वर्तमान है।
बुंदेलीभाषी अधिकांश क्षेत्र में खड़ी बोली के ‘कि’ अव्यय के स्थान में ‘कै’ का प्रयोग होता है। इसमें भी ‘ऐ’ का उच्चारण मूल स्वर के रूप में ही होता है।
इसी प्रकार अधिकरण कारक का परसर्ग ‘पर’ बुंदेली में ‘पै’ होता है। इसमें भी ‘ऐ’ का उच्चारण मूल रूप में ही होता है।
शब्द-मध्य में ‘ऐ’ का उच्चारण संयुक्त स्वर के रूप में होता है- अ+ए। यथा-
कैसो (कइसो), पैसा (पइसा), जैसो (जइसो) आदि।
- ऐ ॅ
ऐ के इस लघु रूप का उच्चारण बुंदेली में प्रायः शब्द-मध्य और शब्दान्त में ही कर्णगत होता है।
शब्द-मध्य- कैहॅनो, बैंनो, (बहना)।
शब्दान्त – सबॅ, कबै ॅ, जबै ॅ।
सानुनासिक प्रयोग
ऐ का सानुनासिक प्रयोग बुंदेली के शब्दाद्य, शब्द-मध्य और शब्दान्त में भी मिलता है।
शब्दाय में – ऐंठ, ऐंचनैं, ऐं (आश्चर्यद्योतक शब्द)।
शब्द-मध्य में – छैंया, मैंया, बैंडी (टेड़ी), सैंगौ (पूरा)।
शब्दान्त में – कहैं, रहैं, तरैं (नीचे), टारनैं, टेरनैं।
ओ
यह अर्ध संवृत पश्च दीर्घ स्वर है। बुंदेली में इसका उच्चारण-स्थान प्रधान स्वर ‘ओ’ के किंचित नीचे है। इसके उच्चारण में ओंठ वर्तुलाकार हो जाते हैं। बुंदेली में इसके भी ‘ए’ की तरह तीन सहस्वन मिलते हैं-दीर्ष आक्षरिक ओं, ह्रस्व ओ तथा अनाक्षरिक ओ।
दीर्घ आक्षरिक ओ
- इसका प्रयोग शब्द के आदि, मध्य और अन्त में भी मिलता है।
आदि में – ओखरी, ओली (गोद), ओस।
मध्य में – कोदो, खोरें (गलियाँ), को है? (कौन है?)।
अन्त में – कैयो (कहना), गओ, कूलो (कूल्हा), गरेलो (गला हुजा)।
- ओ ॅ
- यह अर्ध संवृत ह्रस्व स्वर है। इसका उच्चारण-स्थान मूल स्वर ओ से किंचित नीचे कुछ मध्य की ओर झुकता हुआ है। इसका प्रयोग बुंदेली में शब्द-मध्य में प्रायः विभक्ति-प्रत्यय के साथ ही मिलता है।
यथा- तो है, मो है, ओ है आदि।
अनाक्षरिक ओ
- बुंदेली में इसका प्रयोग शब्द-मध्य में प्रायः ए स्वर के साथ मिलकर ही होता है। यथा- क्वेला (को एला), द्वोनी (द्वो ए नी)।
इस प्रकार का उच्चारण हमीरपुर जिले के कुछ भाग में तथा जालोन जिले के पूर्वी भाग में ही कर्णगत होता है।
सानुनासिक प्रयोग
‘ओ’ का सानुनासिक प्रयोग बुंदेली-शब्दों के आदि, मध्य और अन्त में भी मिलता है।
आदि में – ओंठ, ओंसरी, ओंसई (वैसे ही)।
मध्य में – पोंचो (पहुँचा), खोंसे (लगाये), मोंड़ा।
अन्त में – एसों (ऐसा), ओखों (उसे), तोखों (तुझे), झन्नों।
औ
यह अर्ध विवृत पश्च स्वर है। इसके उच्चारण में ओंठ मूल स्वर ओ के उच्चारण की अपेक्षा कम विवृत होते हैं। इसके दो सहस्वन है-ओ और ओं। ‘ऐ’ की तरह कुछ भाषाशास्त्री इसे मूल स्वर के रूप में स्वीकार करते हैं और कुछ संयुक्त स्वर मानते हैं। संयुक्त स्वर की स्थिति में इसके दो रूप होंगे -अ+ऊ तथा अ+ओ।
- बुंदेली में इसके ये दोनों उच्चारण सुने जाते हैं। मूल स्वर ‘औ’ का प्रयोग बुंदेली-शब्द के आदि, मध्य और अन्त में भी मिल जाता है।
आदि में – औकात, औलाद, औतार, औजनैं (सम्हालना)।
मध्य में – जौलौं (जब तक), कौर, मौर, मौखात (जवानी)।
अन्त में – मेरौ (मेरा), तेरौ, जरीबानी (जुर्माना), सकरौ (जूठा)।
- संयुक्त स्वर के रूप में
इसके दोनों संयुक्त रूपों अ+उ तथा अ+ओ का प्रयोग बुंदेली में क्रमशः शब्द-मध्य तथा शब्दान्त में ही मिलता है।
अ+उ- कौवा (क उ वा), खौवा (खउवा)।
अ+ओ – कहनौ (क ह नौ), रहनौ (र ह नो)।
कुछ शब्दों में इसका शब्द-मध्य उच्चारण भी मिलता है। यथा-कौन (क ओ न), गौन (ग ओ न) आदि।
औ ॅ
- इसका उच्चारण ओ तथा औ के मध्य में होता है। बुंदेली के अनेक सामान्य भूतकालीन क्रियारूपों के अन्त में यह उच्चारण सुनाई देता है। यथा- गऔ ॅ, भऔ ॅ, करौ आदि।
गऔ और भऔशब्दों का उच्चारण छिन्दवाड़ा, सिवनी तथा जबलपुर और नरसिंहपुर जिले के कुछ भाग में क्रमशः गौ और भौ भी होता है। इस स्थिति में भी इनके ‘औ’ का उच्चारण ओ ही सुनाई देता है।
अनुस्वरित प्रयोग
औ का सानुनासिक उच्चारण बुंदेली में शब्द के आरम्भ, मध्य और अन्त में भी समान रूप से प्राप्त है।
आरम्भ में – आँधो औंसो (ऐसा)।
मध्य में- घिनौंचा, पोंगरा डौंड़ा (बड़ी इलायची), कौंचो
अन्त में- पान्नौं (उपवास के पश्चात् का भोजन), चिमानौं (मुरझाया) पावनौं (नौकरों को दिया जाने वाला भोजन) मौं (मुँह)।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि डॉ. ग्रियर्सन वर्षों की सानुनासिक स्थिति को उनकी सामान्य स्थिति से सर्वथा भिन्न मानते हैं। प्रत्येक बोली की उच्चारण सम्बन्धी कुछ अपनी प्रवृत्तियाँ होती हैं। किसी बोली में सानुनासिकता की प्रवृत्ति अधिक होती है, जैसा कि हम बुंदेली में देखते हैं और किसी बोली में सानुनासिकता अपेक्षाकृत कम होती है। ‘निमाड़ी’ इसका उदाहरण है। कभी-कभी एक ही शब्द एक स्थान में सानुनासिक बौर दूसरे स्थान में अननुनासिक उच्चरित मिलता है। डॉ. ग्रियर्सन कहते हैं-
The spontaneous nassalization is very unstable historical and it is not possible to reduce it to general rules.
डॉ. बाबूराम सक्सेना ने ‘अवधी’ की उच्चारण सम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए जो मत व्यक्त किया है, वह भी डॉ. ग्रियर्सन के मत से ही साम्य रखता है। उन्होंने लिखा है-
“The same word may be found with nassalization at one place and without it at another; but itmay be noted that the nassalization has been generally noticed where Rsibilant or Hwas present some where in the word.”
उदाहरणार्थ बुंदेली और निमाड़ी के निम्नांकित शब्द देखे जा सकते हैं-
बुंदेली – साँप, हाँत, हँमेल, दाँत, काँमरी, हँतगोला
निमाड़ी- साप, हात, हमेल, दात, कामरी, हतगोला
स्वर संयोग (Dipthongisation of Vowels)
‘स्वर-संयोग’ से तात्पर्य दो अथवा दो से अधिक स्वरों का मिलन है। इस प्रकार के संयोग से एक संयुक्त स्वर का निर्माण होता है। जिन स्वरों का संयोग होता है. उनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी स्थिति होती है, किन्तु जब वे एक साथ मिल जाते हैं, तब उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है और वे मिलकर एक संयुक्त स्वर के रूप में ‘एकाक्षरी’ (Syllabic) बन जाते हैं। हमने इसी अर्थ में पहले ‘ऐ’ और ‘ओ’ को संयुक्त स्वर कहा है। ये क्रमशः अ+ए और अ+ओ के संयुक्त रूप है। इस प्रकार के संयुक्त स्वरों के उच्चारण में मुख-अवयव एक स्वर के उच्चारण स्थान से दूसरे स्वर के उच्चारण-स्थान की ओर इतनी तीव्र गति से चले जाते हैं कि एक ही स्वास में दोनों स्वर-ध्वनियों का उच्चारण लगभग एक साथ ही हो जाता है। ‘जए’ के उच्चारण में अ और ए के उच्चारण-काल के मध्य अल्पावकाश होता है, किन्तु जब हम इन दोनों स्वरों का संयुक्त रूप ‘ऐं’ का उच्चारण करते हैं, तब यह अवकाश अनुभव ही नहीं होता। यही बात ‘ओ’ के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। अ, ए तथा अ, ओ मिलकर क्रमशः ‘ऐ’ तथा ‘ओ’ हो गये हैं। भाषा शास्त्र में दो स्वरों की इसी मिलन-स्थिति को स्वर-संयोग अथवा स्वरों का संयुक्तीकरण (Dipthongisation) कहा गया है।
‘अए’ और ‘अओ’ में भी दो स्वरों का योग है, किन्तु वास्तव में दोनों स्वर एक साथ हैं, वे एक-दूसरे में मिल नहीं गये हैं। यह उनकी अनाक्षरिक (Non-Syllabic) स्थिति है। अतः इस स्थिति में अए और अजो को संयुक्त स्वर (Diphthong) नहीं कहा जा सकता। इसे ‘स्वर-संयोग’ (Vowel-Combinaion) मात्र कहा जा सकता है।
भाषाशास्त्री हिल (Archihald A. Hill) के अनुसार- “जब दो स्वर एक साथ आने पर एक ही अक्षर का निर्माण करते हैं, तब उसे ‘संयुक्त स्वर’ (Diphthong) कहा जाता है।[1]
‘संयुक्त स्वर’ से तात्पर्य केवल एक स्वर से है, जिसे एक अक्षराधार के रूप में उच्चरित किया जाता है। एक अक्षराधार से तात्पर्य यह है कि ध्वनि श्वास के एक ही आघात से बनती है। हाल के अनुसार, संयुक्त स्वर एक ध्वनि है, जिसके उच्चारण में श्वास के उत्थान-पतन की सम्भावना नहीं रहती।[2] उदाहरणार्थ बुंदेली की ‘ऐ’ ध्वनि ली जा सकती है। इसका उच्चारण दो मूल स्वरों के रूप में दो श्वासाघातों से किया जा सकता है (अ-ई), किन्तु इस स्थिति में यह संयुक्त स्वर न होगा, एक ही श्वासाघात में ‘ऐ’ उच्चारण करने पर ही यह संयुक्त स्वर होगा। ‘संयुक्त स्वर’ वास्तव में एक ‘श्रुति’ है, जिसके उच्चारण में जिह्वा एक स्वर-स्थिति से दूसरी स्वर-स्थिति की ओर सरलतम मार्ग से जाती है। यह श्रोता को एक ध्वनि के ही रूप में सुनाई पड़ती है।इस विवेचन से स्पष्ट है कि संयुक्त स्वर (Diphthong) और स्वर-संयोग (Vowel Combi nation) का स्वरूप एक नहीं है। इन दोनों में अन्तर है, किन्तु अनेक बार उच्चारण करते समय इनकी मित्रता कर्णगत नहीं होती।
बुंदेली में दो स्वरों के संयोग के उदाहरण तो बहुत है, पर कुछ ऐसे उदाहरण भी उपलब्ध हैं, जिनमें हमें तीन और चारस्वरों का संयोग भी मिलता है। नीचे दोनों प्रकार के स्वर-संयोग के कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं।
- दो स्वरों का संयोग
अज- नक-रिया (लकड़ियाँ), अच-म्भो, कच-वाबे, कम-सल।
अआ-अचा-नक, अवा-ज
अइ-अइ-यो, जइ-यो, दह-यो।
अई-कई-क, रई-स, सईन्स, वई (वही), रई।
अउ-लउ-रो, (छोटा), भउ-वा, नउ-वा, पउ-चो (पहुँचा)।
अऊ-भऊ-त, बा-रऊ।
अए-कए-सो, जए-सो, अए-सो।
अऐ-कऐन (कहने), जए-न (जाने)
अओ-अओ-तार (औतार), अबो-रत (औरत) अओ-लाद (औलाद)
अऔ-म-खऔ-ल (मखौल), घि-नऔ-ची (घिनौची-पानी रखने का स्थान)
आइ-आइ-यो, नाइ-यो, आइ-ती (आइती धरीधराई)।
आई-स-गाई, मि-ठाई, ख-टाई, भ-राई।
आउ-पाउ-नो (मेहमान), खाउ-नो (खाना), गाउ-नो (गाना)
आऊ-उ-डाऊ, क-माऊ, ग-माऊ।
आए-काए (काहे-क्यों), खाए, जाए, आए।
आऐ -आए (आयगा), खाएँ (खायगा), जाए (जायगा)।
आओ -आऔ (आया), खाऔ (खाया हुआ-जूठा) न्हाऔ (नहायां हुआ)।
आऔ – बु-लाओ (बुलाया हुआ) क-माऔ (कभाषा हुआ)।
इअ-जिअ-तो (जीता-जीवित), पिअ-तो (पीता), कित-ऊँ (कहीं भी)।
इआ- कर-इआ (करैआ), दिआ (दीपक), मिआन्द (म्याद), मि-मिआत।
इइ-घिघि-यानो, इति-वार (विश्वास) छिइ-यो (छूना), इइ-को (इसे)।
इर्द-किती-क (कितनी ही) जिती-क (जितनी भी); इती-क (इतनी)।
इउ-इउ (यह), किउ (दया), घिउ (घी)।
इऊ-जिऊन्त (जीते जी), पिऊन्त (पीते हुए), किऊ-क (कितनी ही)।
इए-दिए, लिए, जिए, किए।
इऐ-कितै-क, जितै-क, इतै-क।
इओ-जा-इओ (जाना), खा-इओ, पा-इओ।
इऔ-ख-इऔ, ज-इऔ, र-इऔ (रहना)।
ईअ- ईख, जीव (जीभ), कीख> (किसे), ईत-रां (इस तरह)।
ईआ-धीआ (एक सब्जी), ईमा-न, ईजा-द।
ईइ-कीइ-को (किसे, किसको)
ईउ-जीउ (जीव), नींउ (नींव)।
ईए-ईए (इसे), (सागर-दमोह), कीए, जीए।
ईऐ – ईऐ (इसे), (झाँसी, टीकमगढ़), ईखै (इसको), कीकै (किसे)।
ईओ-जीओ (जीना), कीओ (करना), लीओ (लेना), (ब्रज-प्रभावित क्षेत्र)।
ईऔ-झाँसी, टीकमगढ़ आदि क्षेत्रों में उपर्युक्त ओकारान्त शब्द ओंकारान्त उच्चरित होते हैं।
उअ- कुअ-ला (लोकगीतों में), उत-इ (वहीं), उन-इ (उन्हें ही), उज-रऊ (उजाड़ने वाली)।
उआ-उना-त (जल्दी), उतानो, उघा-रो, उपा-सी (मुखी)।
उइ – उइ (उसे), उदि-नाँ (उस दिन), गूइ-याँ, कुदि-नाँ (किस दिन), कुइ-या।
उई-उसी-र (विलम्व मराठी से गृहीत), उजी-र (उजेला), खुसी।
उउ-कुमु-दनी, सुकु-मार।
उऊ – कुसू-र, मुलूक (मुल्क)।
उए- उए (उसे), उमेन्द (उम्मीद), सुपेन्द।
उऐ- झाँसी, टीकमगढ़ और सागर के भी कुछ भाग में उपर्युक्त शब्द मध्य ‘ए’, ‘ऐ’ उच्चरित होता है।
‘उतै, दुलै-या आदि सर्वत्र प्रचलित हैं।
उओ-उओ (उसे-भिण्ड, मुरेना और हमीरपुर जिले के कुछ भाग में), उठो (उठा हुआा), खुसो (खुँसा हुआ)।
उऔ-उठौ-वा (एक स्थान पर न रहने वाला), कुटौ-वा (पिटने की आदत वाला)।
ऊअ-ऊब-नो, खूब-नो (चुभना), ऊन, खून, ऊस-इ (वैसे ही)।
ऊआ -खूआ (मावा), टूआ (फारसी से ग्रहीत), जूआ।
ऊई – ऊई (वही), ऊकी (उसकी)।
ऊए – ऊए (उसे), हुए (होगा)।
ऊऐ- झाँसी, टीकमगढ़, जालोन आदि के कुछ भाग में उपर्युक्त एकारान्त शब्द ऐकारान्त उच्चरित होते हैं।
ऊओ- ऊओ (वह भी), कूओ (कुंवा), जूओ (गाड़ी में बैल जोतने की लकड़ी जूआ भी), ऊखो (उसे)
ऊओ- दतिया, झाँसी, टीकमगढ़ आदि कुछ बुंदेलीभाषी जिलों में उपर्युक्त ओकारान्त शब्द ओकारान्त उच्चरित होते हैं।
एअ- एक, टेर-नै, हेल-री (सहेली), हेर-त, मेन-त (मिहनत), नेग।
एआ- एकादसी, सेका-वनो (सिकवाना), पेरानो (पहिनाना)।
एइ- एइ-से (इसी से), बेर-लाज, जेइ-से (जिससे) जेइए (भोजन कीजिये)।
एई-केई-खो (किसे), रुई-को (इसी को), जेई को (जिसका)।
एउ-केउ-खे (किसे), एउ-खे (इसे), जेउ-त (खाता)।
एऊ-एऊ (यह भी), लेऊ (लेने वाला), देऊ (देनदार), एऊ-को (इसका भी)।
एए-केए (कहता है), जेए (भोजन करेगा), पेए (पीयेगा)।
एऐ- लेऐ, देऐ, एसे (इससे)।
एओ-लेओ, देओ, खेओ, एखो (इसे)।
एऔ- मध्यवर्ती कुछ बुंदेली भाषी जिले झाँसी, दतिया, टीकमगढ़ आदि में उपर्युक्त ओकारान्त, शब्द ओकारान्त उच्चरित होते हैं।
ऐअ-ऐन-क, ऐठ (अकड़), छैल, ऐंच-नै (खींचना), कैद-ई (कहदी)।
ऐआ-गैला-रे (पथिक), नैयाँ (नहीं है), बैया (ननद का नाम), बैपारी, ऐना।
ऐइ-गैलि-या (गली का), मैलि-या (मैला), सैह-ये (सहिये), पैलिया (छोटा घड़ा)।
ऐई-पैली (पहिली), गैली (गई हुई), हैंई (यहीं)।
ऐऊ- कैऊ (कई), ऐऊ (इसे भी), जैअउ (जाना), लैऊ (लेना), नैनू (मक्खन)।
ऐए – ऐसैं (इस ओर), पैले (पहिले), मैले (रास्ते में), तैनें (तूने), नैचें (नीचे)।
एऐ – ऐसै (इस प्रकार), कैसें (किसी भी प्रकार), जैसे (जिस प्रकार)।
ऐओ-ऐसो, जैसो, कैसो, पैसो, रैनो (रहना), सैरो (सेहरा, एक प्रकार का नृत्य)।
ऐऔ-टैऔ (आंचल से सिर ढाँकना), घैरौ (गहरा) पूर्वी पन्ना जिला, ऐरौ (आहट)।
ओअ-भोर, मोर, सोर, खोर (गली), बोंगना (भगोना), ओखरी तोय (तुझे)।
ओआ-सोरा (सोलह), लोंदा (मिट्टी का गोला), बोखा-री (अनाज भरने की बाँस की कोठी)।
ओइ-कोनि-या (कोने के आकार का), न्योति-नी (मैदे की पतली पूड़ी), पोइ-या (ज्वार का पीका)
ओई – ओई (वही), ओली (गोदी), नोनी (अच्छी), कोई-सो (कोई मी)।
ओउ – ओलु-वा (सिंचाई की हुई), खोलु-वा (नीची)।
ओऊ- ओऊ (वह भी), कोऊ (कोई), सोऊ (वह मी), जोऊ (जो भी)।
ओए – ओसे (उससे), ओलें (सिकुड़न), खोरे (गलियाँ), तोए (तुमको)।
ओऐ – मोरै (मेरा), दोफै-री (दुपहरी)।
ओओ- सोसो (सहन किया), कोदो (एक अनाज), सोदो (शोहदा), थोरो (थोड़ा), नोनो।
ओओ – ओखौ (उसे), औरौ (ओला), धोकौ (घोखा), दोरौ (दर्वाजा)।
औअ-चौक, गौर, चौत-रा, औज-ब (सम्हालना), और-न (दूसरे)।
औआ-मौखा-त (जवानी), औकान्त, चौपा-र, सौका-रू (बहुत सवेरे)।
ओइ-मौसि-या, दौरि-या (बाँस से बना एक पात्र), पौरि-या (द्वारपाल)।
औई – औजी (बारी, बदले में), भौजी, मौजी (मौज करने वाला), तौजी (मजदूरी)।
औउ-लौरु-वा (छोटा), गोरु-वा (गोरे रंग का), कौतु-क (आश्चर्य)।
औऊ – औऊ (और भी), भौतू (बहुत)।
औए – औसे-ई (ऐसे ही), बौसै (उससे), मौसे (मुंह से)।
औऐ – औतैक (इतने), सीतै-ली, मौतै-ली (बहुत सी)।
औओ- न्योतो (निमंत्रण), जौलों (जब तक), कौरो (कौर), दौरो (दौरा), कौनो (कोई)
औऔ – कौंचौ (कलाई), औरौ (दूसरे), पौरौ (दर्वाजे पर, में)।
- तीन स्वरों का संयोग
बुंदेली में ऐसे शब्दों का भी अभाव नहीं है, जिनमें हमें तीन स्वरों का संयोग मिलता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
अ इ आ- तहआरी (तैयारी), मइका (मैका), सइयाँ (सैयाँ)।
अ इ ओ – पइसो (पैसा)।
व उ अ- मउत (मौत), भउत (बहुत)।
अ उ आ- करना (कौना), मउसा (मौसा)।
इ अ इ – इतह (इस ओर ही), कितइ (किघर भी)।
इ आ ई- सिनाई (सिलाई), गिआनी (ज्ञानी)।
उ आ ई- बुलाई (बोना), धुआई (धुलाई), उकाई (कै)।
ऊ अ ई – ऊदमी (ऊधमी), ऊपरी।
उ इ ए- उइसे (उससे)।
ए अ इ – एसइ (इसी से), वेसर (वैसे ही)।
ए ई ए- जेईसे (इसी से)
ओ अ ई – ओसई (वै से ही)
ओ ई ए – ओईसे (उसी से)।
- चार स्वरों का संयोग
बुंदेली में कुछ ऐसे शब्दों का भी प्रयोग होता है, जो लोच-युक्त हैं। ऐसे शब्दों में हमें चार स्वरों का संयोग मिलता है। यथा-
अ अ इ आ- करइया (कढ़ाई), पपइया (पपीता), तरइया (तारे), गदइया (गधी)।
अ इ इ आ- तबिलिया (छोटी पतीली)
अ उ इ आ- डबुलिया (लोटे के आकार का छोटा बर्तन), मकुइया (एक फल)।
इ अ इ आ- नकरिया (लकड़ी), सिवइया (सीने बाला), लिवइया (खेने वाला), चिरइया (चिड़िया)।
उ न इ आ- दुलइया (दुलाई, दुलहन), कुदइया (कूदने वाला), उमरिया।
इ उ इ आ- छिपुरिया (लकड़ी का छिलपा)
अ ए उ आ- गवेलुआ (गर्भ का बच्चा)।
ओ अ आ ई- चौथयाई (चौथाई)।
इ अ औ आ- ढिमरौरा (ढीमरों का मोहल्ला)।
निष्कर्ष
उपर्युक्त स्वर-संयोगों के उदाहरणों में अधिकांश ऐसे हैं, जो बुंदेलीभाषी क्षेत्र के प्रायः सभी भागों में उपलब्ध हैं। जो स्थान विशेष से सम्बन्धित है, वहाँ हमने उदाहरणों के साथ उन स्थानों का भी उल्लेख कर दिया है। हम इन उदाहरणों को देखकर निम्नांकित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं।
- बुंदेली में दो से चार तक स्वरों का संयोग मिलता है। यह इस बोली के व्यापक स्वरूप का परिचायक होने के साथ ही इसके विशाल शब्द-भण्डार का भी द्योतक है।
- स्वर-संयोग शब्दों के आदि में, मध्य में और अन्तिम भाग में भी मिलता है। इस प्रकार के उदा-हरण दो स्वरों के संयोग अ-इ, आ-ई, अ-उ, आ-ए, अ-ऐ आदि में ही अधिक मिलते हैं।
- इस बोली में सभी स्वरों का संयोग मिलता है। कोई स्वर ऐसा नहीं है, जिसका दूसरे स्वर से संयोग न हुआ हो। इसके उदाहरण हमने ऊपर क्रमवद्ध रूप में दिये हैं। यहाँ तक कि स्वजातीय स्वरों-अ-अ, आ-आ, इ-इ, ई-ई, उ-उ, ऊ-ऊ, ए-ए, ऐ-ऐ, ओ-ओ और औ-औ का संयोग भी बुंदेली के अनेक शब्दों में वर्तमान है।
- स्वरों का संयोग कहीं अननुनासिक और कहीं सानुनासिकता के साथ भी हुआ है।
- इसी प्रकार यह संयोग व्यञ्जनों के पूर्व और पश्चात् तथा व्यञ्जन-विहीन स्थिति में भी उपलब्ध है। यथा-सिवाई, छपरिया, चौथयाई आदि शब्दों में व्यञ्जनों के साथ तथा इए, उए, ओए नादि शब्दों में व्यञ्जन-विहीनता की स्थिति वर्तमान है। दोनों स्थितियों में नाक्षरिक पूर्णता (Syllabic Completion) देखी जा सकती है।
- बुंदेलीभाषी क्षेत्र के कुछ जिलों में अथवा जिलों के कुछ भाग में एकारान्त और ओकारान्त शब्दों का ऐकारान्त और औकारान्त उच्चारण करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रवृत्ति की ओर हम उपर्युक्त उदाहरणों के साथ यथास्थान संकेत कर चुके हैं।
- बुंदेली एक सुविस्तृत क्षेत्र की बोली है, जिससे इसके अनेक उपरूप होना स्वाभाविक है। इस रूप-विभिन्नता के कारण स्वर-संयोगों में भी कुछ न कुछ विभिन्नता दिखाई देती है, जैसा कि ऊपर के उदाहरणों में भी हम देखते हैं।
- पश्चिमी हिन्दी की अधिकांश बोलियों में हकार के लोप की प्रवृत्ति है, किन्तु यह प्रवृत्ति बुंदेली में ही सर्वाधिक परिलक्षित होती है। इस प्रवृत्ति के कारण अनेक हकारान्त शब्द स्वरान्त हो गये हैं। यह भी एक कारण है कि इस बोली में स्वर-संयोग पश्चिमी हिन्दी की अन्य बोलियों की अपेक्षा अधिक दिखाई देता है। यथा- ओहे-ओए, काहें-काए, मोहे-मोए, हमारो-हमाओ, उन्हें ही-उनई, कहीं-कई, दही-दई आदि।
- यह हकार के लोप की प्रवृत्ति इतनी व्यापक है कि बुंदेली के अनेक शब्दों के आदि, मध्य और अन्त में भी ‘ह’ का स्थान किसी न किसी स्वर ने ग्रहण कर लिया है। यथा-
आदि में- हमारो-अमाओ (यहाँ शब्दाद्य ‘ह’ का स्थान तो ‘अ’ स्वरने ग्रहण कर ही लिया है, पर शब्दान्त ‘र’ भी ‘अ’ में परिवर्तित हो गया है।
मध्य में – कहन-कअन अथवा केन, रहनो-रअनो अथवा रेन (रैन भी), चाहिये-चाइए आदि।
अन्त में – कहे-कए, सहे-सए, चाहो-चाओ आदि।
- हकार के लोप की प्रवृत्ति की तरह बुंदेली में अनुस्वरित उच्चारण की प्रवृत्ति भी व्यापक रूप में दिखाई देती है। परिणाम स्वरूप इसमें अनुनासिक स्वर-संयोग भी बहुत मिलता है। यथा- वई (वही) वई, जाए-जाएं अथवा जाएँ, उए (उसे) – उएँ आदि।
- स्वर-सयोग में स्वर-स्वर का योग रहता है और दोनों स्वर दो अक्षरों के रूप में होते हैं, किन्तु बुंदेली में ऐसे उदाहरण भी उपलब्ध है, जबकि दो स्वर मिलकर एक ही अक्षर का निर्माण करते हैं। इस स्थिति में उन्हें सन्ध्यक्षर (Diphthong) अथवा स्वरीय गुच्छ (Vocalic cluster) ही कहा जा सकता है। दोनों के एक-एक उदाहरण लीजिये-
दो स्वर दो अक्षरों के रूप में ओ+ए =ओए।
दो स्वरों के संयोग से एक अक्षर-अ+ओ= औ।
- बुंदेली में ऐसे स्वरों का भी अभाव नहीं है, जिनका प्रयोग एक पूर्ण शब्द के रूप में होता है। यथा-ऊ (बह), ई (ये लोग), ओ (वह) आदि।
डेनियल जोन्स (Denial Jones) का कथन है कि प्रत्येक उच्चरित शब्द के अन्तर्गत कम से कम एक ऐसी ध्वनि अवश्य होती है, जो सापेक्षिक दृष्टि से अन्य ध्वनियों से अधिक मुखर होती है। ध्वनियों की अधिक मुखरता परम्परागत मुखरता, दीर्घता, बलाघात या विशेष सुर-लहर अथवा इनके संयोग के कारण होती है। प्रत्येक ध्वनि जो मुखरता की चोटी पर प्रवेश करती है, अक्षरात्मक होती है। प्रत्येक वाक्य अथवा वाक्यांश में उतने ही अक्षर होते हैं, जितनी अक्षरात्मक ध्वनियाँ होती हैं। सामान्यतः अक्षर की अक्षरात्मक ध्वनि ‘स्वर’ होती है, यद्यपि व्यञ्जन भी अक्षरात्मक हो सकते हैं।
डेनियल जोन्स का यह कथन बुंदेली में विशेष रूप से सार्थक दिखाई देता है। आपई, होइए, कयबो (कैबो) आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
यह स्पष्ट ही है कि जब दो स्वर एक साथ आकर दो अक्षरों का निर्माण करते हैं, तब दोनों की स्वतंत्र सत्ता सुरक्षित होती है, पर जब दो स्वर मिलकर एक अक्षर का निर्माण करते हैं, तब उनका पृथक्-पृथक् कोई अस्तित्व नहीं रह जाता, वे संध्यक्षर-रूप में अपनी-अपनी सत्ता एक-दूसरे के साथ विलीन कर देते हैं और वे एक स्वर-ध्वनि (Vowel clide) का रूप ग्रहण कर लेते हैं। डेनियल जोन्स ने भी यही बात दूसरे शब्दों में कही है। स्वर-संयोग में दो स्वरों के उच्चारण के बीच कुछ न कुछ अवकाश अवश्य रहता है, चाहे वह स्पष्टतः न जान पड़े, पर सन्ध्यक्षर की स्थिति में बाग्यन्य (Vocalcards) एक स्वर से दूसरे स्वर को ओर बिना किसी मध्यावरोध के बढ़ जाता है।
भाषाशास्त्रियों ने स्वरों की मुखरता के आधार पर सन्ध्यक्षर (Diphthong) के दो प्रकार बतलाए हैं- आरोही सन्ध्यक्षर (Rising Diphthong) और अवरोही सन्ध्यक्षर (Falling Diphthong).
प्रथम रूप में सन्ध्यक्षर का प्रथमांश अन्तिमांश से कम मुखर होता है- यथा- एसेई (इसीलिये) उए (उसे) आदि।
द्वितीय रूप (अवरोही) में सन्ध्यक्षर का प्रथमांश अधिक मुखर होता है और वह आगे बढ़ता हुआ कम मुखर होता जाता है। यथा- ओसइ (वैसे ही), जेसइ (जिससे) आदि।
संयुक्त स्वरों के उच्चारण में जिह्वा की गति की दूरी के अनुसार इन्हें ‘संकीर्ण’ और ‘प्रशस्त’ भी कहा जाता है। अवरोही-आरोही के अतिरिक्त और भी एक प्रकार के संयुक्त स्वर होते हैं जिन्हें ‘केन्द्राभिमुखी’ संयुक्त स्वर कहते हैं। इनके उच्चारण में जिह्वा एक बाह्य स्थल से केन्द्र-ली में इस प्रकार के संयुक्त स्वर नहीं हैं।
स्वर-संयोग में य् और व् की स्थिति
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ध्वनिग्रामिक (Phonimic) दृष्टि से य् तथा व् अर्ध स्वर माने जाते हैं। बुंदेली के स्वर-संयोग में मूल स्वरों का ही नहीं, पर इन अर्थ स्वरों का भी संयोग परिलक्षित है। इन अर्थ स्वरों का संयोग अवरोही संध्यक्षर (Falling Diphthong) में ही प्रायः दिखाई देता है। यह संयोग स्वर-पूर्व-स्थिति (Pre-Vocalic Position) में ही अधिक मिलता है। मध्या मध्या मउवा (महुवा) गउवा आदि इसी प्रकार के शब्द हैं। डेनियल जोन्स ने भी इन्हें अर्ध स्वर के रूप में ही स्वीकार किया है, किन्तु अपनी श्रुति-प्रकृति और बलाघात के अभाव में ये ध्वनियाँ व्यञ्जन का रूप ग्रहण कर लेती हैं।
निम्नांकित उदाहरणों में य् और व् का प्रयोग अर्ध स्वर के रूप में वर्तमान है-
य-आय्, खाय् जाय।
व-आव् ख् (रहो), गव् (गया), मव् (हुआ)।
स्वरागत
बुंदेली में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनमें हमें स्वरागत दिखाई देता है। यथा-प्यास-पियास, प्यार-पियार, प्यारी-पियारी, व्याह-वियाव-व्याओ, मिरदंग (मुमृदंग), मिरदंगू, अपना-आपनो आदि। कुछ शब्द ऐसे है, जिनमें संयुक्त शब्द के मध्य में एक स्वर अथवा स्वरभक्ति का प्रवेश हो गया है। यथा-वर्ष-वरस, अग्नि-आगी आदि।
स्वर-लोप
इस बोली में स्वर-घोष की प्रवृत्ति का भी अभाव नहीं है। यथा इलायची-लायची, खोटा-मोटू छोटा-छोट, ससुरार-ससरार, छवि-छब, रास्ता रस्ता, पाजामा-पजामा आदि।
स्वर-विपर्यय
बुंदेली एक विस्तृत क्षेत्र की बोली होने के कारण हमें इसके अनेक शब्दों में स्वर-विपर्यय मिलता है। यथा-
अ-इ-अजब-अजीब, अंधेरो-इंधेरो, अमर-अमिर, कछु-किछु, ग्याभन-प्याभिन, छपकुली-छिपकुली, टमाटर-टिमाटर, पछत्तर-पिछत्तर, परनाम-पिरनाम, बरोबर-बिरोबर, मिट्टी- मिट्टी, मन्दर-मन्दिर, महनत-मिहनत।
अ-ई-साँच-सांची, आग-आगी।
अ-उ-अंगली-उंगली, कछु-कुछु, छिपकली-छिपकुली, लहन-लसुन, मुकट-मुकुट, सपेत-सुपेत, साबन-साबुन।
अ-ए-नहन्नी-नेहन्नी, पहर-पेहर, महमान मेहमान, सायद-सायेद।
अ-ओ-जवान-जोबान, जवार-जोवार।
आ-अ-आदमी-अदमी, पाजामा, पजामा, रास्ता-रस्ता।
आ-ओ-खट्टा-खट्टो, जूठा-जुठो, छोटा-छोटो, झूटा-झूटो, ठण्डा-ठण्डो, डण्डा-डण्डो, पक्का पक्को, बराबर-बरोबर मरा-मरो, मरा-मरो, सौतेला-सौतेलो।
इ-अ- इमली-अमली, इमरत-अमरत।
इ-उ-करछिली-करछुली।
ई-ऊ कोई-कोऊ, नाई-नाऊ, सीदो (सीधा)-सूदो।
ई-ए-दीवाल-देवाल, पतीली-पतेली।
ई-ऐ-नीचे-नैचे।
ई-ओ-छज्जी-छज्जो।
उ-ओ-उखरी-ओखरी, गुदना-गोदना, दुहन-दोहन, नुन-नोन, बहुत-बहोत, लुहार-लोहार।
ए-अ-नीचे-नींचू।
ए-ऐ-एरन-ऐरन, बेहर-बैहर, मेन-मैन, सुपेद-सुपैद।
ए-ओ- गेहूँ-गोहूँ, पूनें-पूनों, मूं (मुँह)-मों।
ओ-औ-घिनोची-चिनौची, चिरोंजी-चिरौंजी जोन-जौन पिछोरा-पिछौरा, फूटो-फूटौ, बूटो-बूटौ, हरो-हरौ।
स्वर-परिवर्तन से अर्थ-परिवर्तन
अन्य बोलियों की तरह बुंदेली में भी अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका स्वर-परिवर्तन मात्र से अर्थ-परिवर्तन हो जाता है। यथा-
अ-आ-बल-बाल, कल-काल, जल-जाल, सव-सवा, कम-काम आज-आजा।
इ-ई-मिल-मील खिल-खील सिस-सीस।
उ-ऊ बुरो-बूरो, सुर-सूर (शूर), घुर (घूड़ा)-पूर (घूरने की क्रिया)।
ए-ऐ- सेर-सैर (सफर), मेल-मैल, बेस (वेश)-बैस (आयु)।
ओ-औ-खोल-खौल, बोर (डुबाना) बौर (आम के फूल), मोर-मौर, लोटो (लोटा)-लौटो।
अ-ई-कल-कली, कुल (वंश) – कुली, खल-खली, बिरध (वृद्ध)-बिरधी (वृद्धि)।
अ-उ-जर (पैसा)-जुर (ज्वर)।
इस प्रकार के और भी न जाने कितने शब्द बुंदेली में उपलब्ध हैं। विस्तार भय से इतने ही उदाहरण पर्याप्त होंगे।
व्यञ्जन (Consonant)
बुंदेली मैं 28 व्यञ्जनों का प्रयोग होता है-
क ख ग घ
च छ ज झ
ट ठ ड ढ
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
स ह
इस बोली में ङ, ञ और ण व्यञ्जनों का प्रयोग नहीं होता।
व्यञ्जन-विभाजन-इन 28 व्यञ्जनों का विभाजन इस प्रकार होगा-
स्पर्श (Stops) क् ख् ग् घ्
ट् ठ् ड् ढ्
त् थ् द ध
प् फ् ब् भ्
स्पर्श संघर्षी (Affications)–च् छ् ज् झ्
संघर्षो अथवा ऊष्म (Fricubres) – स् ह्
पार्श्विक (Lateral) – ल्
लुण्ठित (Rolled) – र्
अनुनासिक (Nasals)- न्, म्
अर्ध स्वर (Semi Vowels)- य् ब्
बुंदेली में संघर्षी व्यञ्जन श, ष का प्रयोग नहीं होता। प्राचीन बुंदेली में इनमें से ‘ष’ का प्रयोग ‘ख’ के स्थान में मिलता है। वर्तमान में कुछ सुशिक्षित बुंदेलीभाषी ‘श’ का प्रयोग करते भी देखे जाते हैं। इसे खड़ी बोली का प्रभाव ही कहा जा सकता है, यह बुंदेली की मूल प्रवृत्ति नहीं है।
अर्ध स्वर ध्वनियों के अतिरिक्त शेष व्यञ्जन-ध्वनियों का भाषाशास्त्रियों ने दो प्रकार से वर्गीकरण किया है-प्राण के आधार पर और घोष के आधार पर।
प्राण के आधार पर इनमें से कुछ ध्वनियाँ अल्प प्राण (Non-Aspiration) और कुछ महाप्राण (Aspiration) ध्वनियाँ हैं। हकार युक्त व्यञ्जन-ध्वनियाँ महाप्राण कही गई हैं। इस आधार पर इनका वर्गीकरण इस प्रकार होगा-
अल्प प्राण – म् ग् च् ज् ट् ड् त् द् प् ब्
महाप्राण – ख् घ् छ् ठ् ढ थ् ध् फ् भ्नि
माड़ी और मालवी तथा राजस्थानी की बोलियों में म्ह, न्ह, ल्ह, रह ध्वनियों का भी प्रयोग होता है। कुछ भाषाशास्त्री इन्हें महाप्राण ध्वनियाँ ही मानते हैं। हकार-विमुक्तता बुंदेली की प्रमुख प्रवृत्ति है। अतः इसमें इन ध्वनियों का प्रयोग नहीं होता। बुंदेलीभाषी प्रदेश के मालबी और राजस्थानी (ढुंडारी) मिश्रित पूर्वी माग के बुंदेली-रूप में इसमें से म्ह और रह ध्वनियों का प्रयोग मिलता है। खड़ी बोली- प्रभावित भाग में भी म्ह’ ध्वनि का प्रयोग सुनाई पड़ जाता है। यथा- तुमरो-तुम्हरो या तुम्हारो।
‘घोष’ के आधार पर बुंदेली में प्रयुक्त इन व्यञ्जन ध्वनियों का वर्गीकरण इस प्रकार होगा-
घोष – ग् घ् ज् झ् ड् ढ् द् ध् ब् भ्
अघोष – क् ख् च् छ् ट् ठ् त् थ् प् फ्
हम उच्चारण-प्रयत्न एवम् स्थान की दृष्टि से इन समस्त 28 व्यञ्जनों को एक साथ इस प्रकार रख सकते हैं-
वर्ग | द्वयोष्ट्य दन्त्य | वर्त्स्य -मूर्द्धन्य | वर्त्स्य-तालव्य | कण्ठ्य | काकल्य |
स्पर्श अल्पप्राण | प् ब् त् द् | ट् ड् | क् ग् | ||
स्पर्श महाप्राण | फ् भ् थ् ध् | ठ् ढ् | ख् घ् | ||
स्पर्श संघर्षी अल्पप्राण | च् ज् | ||||
स्पर्श महाप्राण | छ् झ् | ||||
नासिक्य अल्पप्राण | म् | न् |
- द्वितीय अध्याय- बुंदेली का राजभाषा के रूप में विकास’ अध्याय के अन्तर्गत इसके अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।
वर्ग
द्वयोष्ट्य दन्त्य
वर्त्स्य -मूर्द्धन्य
वर्त्स्य-तालव्य
कण्ठ्य
काकल्य
पार्श्विक अल्पप्राण
ल्
लुण्ठित अल्पप्राण
र्
सुण्ठित महाप्राण
र् ह
संघर्षी
स्
ह्
अर्ध स्वर
व्
य्
ड् और ढ् क्रमशः उत्क्षिप्त अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियों हैं। इन दोनों ध्वनियों का प्रयोग बुंदेली में क्दाचित ही होता है। इनमें से ‘ड्’, के स्थान में प्रायः ‘र्’ और ‘ढ्’ के स्थान में ‘रह्’ का प्रयोग होता है। यथा- उए जान परो (उसे जाना पड़ा) चिठिया परर्ह लई (चिट्ठी पढ़ ली)।
अवधी में भी (ड्’ और ‘ढ्’ के स्थान में और रह, का ही प्रयोग होता है।
ग्लीसन के समान पाश्चात्य भाषाशास्त्री हिन्दी की बोलियों में स्पर्श और संघर्षी स्पर्श व्यञ्जनों का अन्तर स्वीकार न करस्पर्श संघर्षो व्यञ्जनों को भी ‘स्पर्श व्यञ्जनों’ के अन्तर्गत ही रखना उचित मानते हैं। उनका कथन है कि “अँग्रेजी में स्पर्श संघर्षी व्यञ्जनों के वर्गीकरण में अनेक भिन्नताएँ हैं, किन्तु हिन्दी की बोलियों की ऐसी स्थिति नहीं है। दो ध्वन्यात्मक ध्वनि-रूपों का साँचा (Types) अनेक दृष्टियों से एक ही है। अतः स्पर्श-संघर्षो व्यञ्जनों को पृथक् वर्ग में न रखकर इस वर्ग को स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में ही रखना उचित होगा।
इसी प्रकार वे संघर्षी व्यञ्जन ‘ह’ को श्रुति अथवा मात्रा अथवा दोनों मानते हैं। ‘ह्’ के सम्बन्ध में डेनियल जोन्स की और भी विभिन्न मान्यता है। वे कहते हैं-
There are as many varieties of ‘h’ as there are vowels.”
इस कथन के अनुसार ‘ह’ के उतने ही रूप हैं, जितने स्वर हैं।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बुंदेली की अधिकांश महाप्राण व्यञ्जन-ध्वनियों की प्रवृत्ति अल्पप्राणत्व-उन्मुख दिखाई देती है। यह प्रवृत्ति शब्द-मध्य और शब्दान्त में विशेष रूप से परिलक्षित है। यह प्रवृत्ति सघोष महाप्राण के अल्पप्राणीकरण में अधिक दिखाई देती है। हाथी-हाती, गया-गदा, दूध-दूद, भूख-भूक, पीठ-पीट आदि शब्दों में यही प्रवृत्ति विद्यमान है।
व्यञ्जन ध्वनिग्रामों के सहस्वन एवम् ध्वनिग्रामीय स्थिति
भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से स्वर-व्यञ्जनों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है। बुंदेली में 10 स्वरों और 28 व्यञ्जनों का प्रयोग होता है। इनके अतिरिक्त अनुनासिक एवम् विवृत्ति (Juncture) ध्वनियों का भी प्रयोग होता है। इनमें से 10 स्वरों और 28 व्यञ्जनों का स्थान ‘खण्ड ध्वनिग्राम’ (Segemental Phonemos) तथा अनुनासिक और विवृत्ति का स्थान ‘खण्डेतर ध्वनिग्राम (Supra-Segmental Phonemes) के अन्तर्गत है।
खण्ड ध्वनिप्राम (Segemental Phonemes)
खण्ड ध्वनिग्रामों में से स्वरों का विवेचन पहले किया जा चुका है। व्यन्जनों का अध्ययन यहाँ प्रस्तुत है।
- कण्ठ्य स्पर्श ध्वनियाँ (Velar Stops)
क्, ख्, ग्, घ् कण्ठ्य स्पर्श ध्वनियाँ हैं। इनका उच्चारण जिह्वा के पश्च भाग को कोमल तालु से स्पर्श कर किया जाता है। इनमें से क् अघोष अल्प प्राण स्पर्श और ग् सघोष अल्प प्राण स्पर्श ध्वनि तथा ख अघोष महाप्राण एवम् घ् सघोष महाप्राण ध्वनि है। बुंदेली में इनमें से क् और ग् ध्वनिग्रामों का प्रयोग शब्दाद्य, शब्द-मध्य तथा शब्दान्त में भी वर्तमान है, किन्तु ख् और घ् ध्वनिग्राम का प्रयोग शब्दान्त में प्रायः नहीं होता। इसका कारण बुंदेली की हकार-त्याग (अल्पप्राणत्व) की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण अनेक बार शब्द-मध्य में भी इनका उच्चारण अल्प प्राण हो जाता है। यथा- भिखारी-भिकारी।
क्: शब्दारम्भ में – कल, काम, कमरो आदि।
शब्द-मध्य में – उकटो (सूखा), सुकाबो (सुखाना), ककवा (कंघा) आदि। शब्दान्त में – खारक, खटको, सूको आदि।
ख् : शब्दारम्भ में – खट्टो, खाट, खम्मो (खम्भा) आदि।
शब्द-मध्य में – रूखड़ो (वृक्ष), पतवारो (पक्ष), पखावज आदि।
ख् का प्रयोग कुछ शब्दों के अन्त में भी मिलता है, पर वहाँ भी उसका उच्चारण अल्पप्राणीकरण के साथ, ‘क्’ ही होता है।
यथा- दुख (क), सुख (क), भूख (क) आदि। बघेली-प्रभावित क्षेत्र में ख् का शब्दान्त उच्चारण सुरक्षित है।
ग् : शब्दारम्भ में – गगरिया, गरब, गड़बड़ आदि।
शब्द-मध्य में – सिगरो, आगरो, संगम आदि।
शब्दान्त में – फाग, दाग, जगमग आदि।
घ् : शब्दारम्भ में – घर, घाम, घायल आदि।
शब्द-मध्य में – गधरा (केवल बघेली प्रभावित क्षेत्र में)
शब्दान्त में – माघ (बघेली प्रभावित क्षेत्र में)
इन ध्वनिग्रामों के केवल एक-एक ही सहस्वन है।
- स्पर्श संघर्षो व्यञ्जन ध्वनिग्राम (Affricatives)
च्, छ्, ज् और झ् के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग मसूढ़ों के निकट कठोर तालु को कुछ घर्षण के साथ स्पर्श करता है; इसीलिये ये ‘तालब्य स्पर्श घुष्ट्य ध्वनियाँ’ भी कही जाती है।
इनमें से च अघोष अल्पप्राण, छ अघोष महाप्राण, ज् घोष अल्पप्राण और झ् घोष महाप्राण ध्वनियाँ हैं। बुंदेली में इन सभी व्यञ्जन ध्वनियों का प्रयोग शब्दारम्भ, शब्द-मध्य तथा शब्दान्त में भी मिलता है।
च् : यशब्दारम्भ में-चवरी, चाय (चाह), चुटिया आदि।
शब्द-मध्य में – अचक (अचानक), अचकन, ऐचनैं (खींचना) आदि।
शब्दान्त में – कुची (कुंजी), टुच्चो, रंच, साँच आदि।
छ्: आरम्भ में – छिड़िया (छोटी गली), छ्या, छैल आदि।
मध्य में – लछारी (लम्बी), छिछलो (फैला हुआ), उछीनो (कम गहरी) आदि।
अन्त में – कछु, मूंछ, बिरछ (वृक्ष) आदि।
ज्: आरम्भ में – जघा (जगह), जीव (जीम), जीवन आदि।
मध्य में- उजरो (उजड़ा हुआ), अजगर, जिजमान (यजमान) आदि।
अन्त में – आजी, जीजी, दावजू।
झ् : आंरम्भ में – झरिया (छोटा झारा), झपाटा, झगरी (झगड़ा) आदि।
मध्य में – मझधार, मँझलो, बँझलो आदि।
अन्त में – बाँझ, साँझ, साझा आदि।
- मूर्धन्य स्पर्श व्यञ्जन घ्वनियां (Retroflex Stops)
ट्, ठ्, ड्, ढ् मूर्धन्य स्पर्श व्यञ्जन ध्वनिर्यां हैं। इनके उच्चारण में जिह्वा का अग्रभाग किंचित मुड़कर तालु के कठोर भाग को स्पर्श करता है। इनमें से ट् अघोषअल्प प्राण, ठ् अघोष महाप्राण, ड् घोष अल्पप्राण और ढ् घोष महाप्राण ध्वनियाँ है। बुंदेली में इनमें से ट्, और ठ् प्रयोग शब्दों के आदि, मध्य और अन्त में भी मिलता है। ढ् का प्रयोग शब्दों के आदि और मध्य में तो मिलता है, पर शब्दान्त में नहीं मिलता।
ट् : आदि में – टका, टौंका (छिद्र), टिया (अवधि), टोनो आदि।
मध्य में – टटवा (घास-फूस का दरवाजा), टटकी (ताजा भरा पानी), टटेरो (ज्वार का सूखा पेड़) आदि।
अन्त में – भर्राटो (ओर की हवा), खर्राटा (टो), लम्पट आदि।
ठ् : आदि में – ठाड़ी (खड़ी), उनको, ठाट, ठलुवा आदि।
मध्य में – कठवा (लकड़ी का पानी भरने का बर्तन), कठघर, रुठनो आदि।
अन्त में – गट्ठा, मठा, मठ, सोंठ आदि।
ड्: आदि में – डरपोंक, डोलची (पानी भरने का लोहे का एक पात्र) डोरी, डुकरिया आदि।
मध्य में – निडर, उडंग, आडंबर आदि।
अन्त में – कंडा, डंडा, पंडा, हंडा आदि।
ढ्: शब्दादि- उकना, ढोबरा, ढोल आदि
शब्द मध्य – मंढवा।
ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि शब्दान्त में ड् का प्रयोग अनुनासिक पूर्व व्यञ्जन के ही साथ प्रायः होता है। कुछ शब्दान्त में इस ध्वनि का प्रयोग द्वित्व के साथ भी मिलता है। यथा-गड्डा, खड्डा आदि।
- मूर्धन्य उत्क्षिप्त (Flapped) ध्वनियाँ
ड्, और ढ् मूर्धन्य उत्क्षिप्त ध्वनियाँ हैं। ये क्रमशः ह और डू के ही सहस्वन है। इन दोनों ध्वनियों का उच्चारण ड्, ढ् से भिन्न है। इनके उच्चारण में ड् और ढ् के उच्चारण की तरह जिह्वा का अग्र भाग तालु के कठोर भाग को स्पर्थ तो करता ही है, पर इसके साथ ही जिह वा झटके के साथ परिवेष्ठित होकर अपने स्थान पर आ जाती है। जिह्या की इस उत्प्रेक्षण-क्रिया से उच्चरित होने के कारण ये दोनों ध्वनिग्राम उत्क्षिप्त ध्वनियाँ कही गई हैं। इन दोनों की उच्चारण-प्रक्रिया ड् ढ् से भिन्न होने के कारण कुछ भाषाशास्त्री इन्हें इन दोनों ध्वनियों के सहस्वन स्वीकार न कर पृथक्-ध्वनिग्राम मानते और पृथक् वर्ग में स्थान देना आवश्यक बतलाते हैं।[1] हमें इन्हें ड्, ढ् के सहस्वन मानकर ट वर्ग (मूर्धन्य स्पर्श व्यञ्जन) के अन्तर्गत स्थान देना ही उचित जान पड़ता है। हमारे यह मानने का कारण यह है कि इन उत्क्षिप्त ध्वनियों का प्रयोग ड् और ड् ध्वनियों के पूरक के रूप में ही शब्द-मध्य में होता है। शब्दारम्भ में तो कमी प्रयोग होता ही नहीं, जैसा कि ड्, ढ् ध्वनियों का प्रयोग होता है, और जहाँ इनका प्रयोग शब्दान्त में होता है वहाँ ‘ह’ का उच्चारण बुंदेली तथा कुछ अन्य बोलियों में भी ‘र’ और ‘ढ्’ का उच्चारण ‘रह’ ही होता है। इस प्रकार शब्दान्त में ये उत्क्षिप्त ध्वनियाँ अपना मूल स्वरूप अथवा स्वतंत्र अस्तित्व सुरक्षित नहीं रख पातीं। अतः इन्हें ट वर्ग से भिन्न ध्वनि-ग्राम मानने का हमें कोई प्रबल तर्कयुक्त कारण नहीं जान पड़ता।
ड़ : यह अल्पप्राण उत्क्षिप्त स्पर्श ध्वनि है। बुंदेली में इसका प्रयोग शब्द-मध्य और शब्दान्त में कर्णगत होता है-
शब्द-मध्य में – लड़नदे (दुलहन), घुड़वा, पिड़ोली (पिंडली) आदि।
शब्दान्त में – लाड़ी, पेड़, मेड़, गाड़ी आदि।
बुंदेली के अनेक शब्दों में ‘ड्’ के स्थान पर ‘र्’ उच्चरित होता है। यथा सड़किया सरकिया, खिड़की-खिरकी, पड़ाव-पराव, पहाड़-पहार, लेंड़-लेंर (पंक्ति, कतार) आदि।
बुंदेली में कुछ अँग्रेजी के शब्दान्त ड शब्दों का भी प्रयोग इन दिनों हो रहा है। सोडा और रोड ऐसे ही शब्द हैं। कुछ बुंदेली भाषी क्षेत्रों में (ब्रज और अवधी-प्रभावित क्षेत्र) इनका उच्चारण सोड़ा और रोड़ भी होता है। इसी प्रकार ‘रेडियो’ के शब्द-मध्य ‘ड’ का उच्चारण भी ‘ड’ होता है। इन शब्दों में ‘ड’ ‘ङ’ में परिवर्तित हो गया है। इन क्षेत्रों में प्रचलित कुछ हिन्दी शब्दों में भी ड के स्थान में ह उच्चरित होता है। यथा-लौंडा-लौंड़ा, लौंडिया-लॉड़िया, साँड-साँड़, राँड-राँड़ आदि। ये उदाहरण भी व को ‘ड्’ का सहस्वन ही प्रमाणित करते हैं।
ढ़ : यह महाप्राण घोष उत्क्षिप्त स्पर्श ध्वनि है। बुंदेली में इसका प्रयोग शब्द-मध्य और शब्दान्त में भी मिलता है, पर अधिकांश स्थानों में इसके स्थान में ‘रह’ ही उच्चरित होता है।
शब्द-मध्य में – मढ़ैया (मर्हैया), पढ़ैया (पर्हया), गढ़नो (गर्हनो) आदि।
शब्दान्त में – पढ़ी (पर्हो), मढ़ी (मर्हो) आदि।
- दस्त्य स्पर्श व्यञ्जन (Dental Stops)
त् थ् द् ध् दन्त्य स्पर्श व्यञ्जन ध्वनिग्राम है। इनके उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग ऊपर के मसूड़ों को स्पर्श करता है। इनमें से त् अघोष अल्प प्राण, थ् अघोष महाप्राण, द् घोष अल्पप्राण और ध् घोष महाप्राण व्वनि है। बुंदेली में इन सभी ध्वनिग्रामों का प्रयोग शब्दारम्भ, शब्द-मध्य और शब्दान्त में मिलता है।
त् : शब्दारम्भ में – तनक, तरै (नीचे) (तकनै (देखना) आदि।
शब्द-मध्य में- तुरतई, तितने (उतने), पतेली आदि।
शब्दान्त में- पिरात (दर्द होना), पनन्ती (पनवान), रात आदि।
थ् : शब्दारम्भ में – थरिया, थोरो (थोड़ा), थन, थुतनो (मुँह) आदि।
शब्द-मध्य में – हथगोला, हथेली, नथनी आदि।
शब्दान्त में-हाथी, कत्था, कथा, बिथा (व्यथा) आदि।
यहाँ यह स्मरणीय है कि बुंदेली की अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति के अनुसार इस लोकभाषा के अनेक शब्दों में ‘थ’ के स्थान में ‘त’ ही उच्चरित होता है। ऊपर के उदाहरणों में से हथगोला, हवेली, नथनी और हाथी क्रमशः हतगोला, हतेली, नतनी और हाती उच्चरित होते हैं।
बुंदेली में अनुस्वार-प्रयोग भी प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है। तदनुसार हथगोला, हवेली और हाथी क्रमशः हँतमोला, हँतेली ओर हाँती भी उच्चरित होते हैं। इसी प्रकार साथ, हाथ शब्द क्रमशः साँत और हाँत उच्चरित होते हैं। इस अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति के कारण, जैसा कि पूर्व भी कहा जा चुका है। बुंदेली से महाप्राण ध्वनियाँ समाप्त होती जा रही है।
द् : शब्दारम्भ में – दिहर (देहरी), दुहनी, दियरा (दीपक) आदि।
शब्द-मध्य में – वरवान, निदान, खदान आदि।
शब्दान्त में – सवाद (स्वाद), विवाद, मवाद, हौदो (हौदा) आदि।
ध् : शब्दारम्भ में- धन, धाम, धिया (पुत्री), घना आदि।
शब्द-मध्य में – इँधारो (अंधियारा), अधपको, अधम, ऊपम, आदि।
शब्दान्त में – एकाध, औंधो, धंधो आदि।
इस महाप्राण ध्वनि ‘ध’ की भी उच्चारण की दृष्टि से वही स्थिति, है, जो ऊपर ‘थ’ की बतलाई गई है। अनेक स्थानों में यह महाप्राण ध्वनि अल्प प्राण होकर उच्चरित होती है। यह स्थिति प्रायः शब्द-मध्य और शब्दान्त में ही परिलक्षित है। यथा- इँधारो-इँदारो, अधपको-अदपको, ऊधम-ऊदम, एकाध-एकाद, औंधो-औंदो, धंधो-धंदो आदि।
- द्वयौष्ठ्य स्पर्श व्यञ्जन (Labio Stops)
प् फ् ब् भ् द्वयोष्ठय स्पर्श व्यञ्जन ध्वनियों है। इनके उच्चारण में दोनों ओष्ठ परस्पर स्पर्श करते हैं। इनमें से प् अघोष अल्पप्राण, फ् अघोष महाप्राण, ब् घोष अल्पप्राण और भ् घोष महाप्राण ध्वनि है। बुंदेली में इन ध्वनियों का उच्चारण करते समय दोनों ओठों का स्पर्शकाल सामान्य हिन्दी की अपेक्षा अल्प होता है। इन ध्वनिग्रामों का प्रयोग बुंदेली के शब्दारम्म, शब्द-मध्य और शब्दान्त में भी दिखाई देता है।
प् : शब्दारम्भ में – पत (लज्जा), पातरी (पतली), पटिया आदि।
शब्द-मध्य में – अपमान, अपसरा, तपैल (तपाया हुजा) आदि।
शब्दान्त में – साप, भाप, नाप, जप, तप आदि।
फ् : शब्दारम्भ में – फरिया, फल, फूल (फुलवा भी), फसल आदि।
शब्द-मध्य में – गफलत, गिरफतारी, सिफत आदि।
शब्दान्त में – गिलाफ, गोफ, साफ आदि।
इनमें गफलत, गिरफतारी, सिफत, गिलाफ और साफ शब्द फ़ारसी-गृहीत हैं। ये फ़ारसी से गृहीत शब्द ग्रामीणों की बोली तक में प्रयुक्त दिखाई देते हैं। यहाँ इन शब्दों में प्रयुक्त ‘फ्’ ध्वनि के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि यह ध्वनि फ़ारसी में योष्ठ्य संघीं है, किन्तु बुंदेली में केवल ड्यौष्ट्य स्पर्श ही रह गई है।
ब : शब्दारम्भ में – बई (वही), बन्ना (दूल्हा), वासन (बर्तन) आदि।
शब्द-मध्य में – जबर, लबरा (झूठा), कबूतर, कबहें (कमी) आदि।
शब्दान्त में – जबाब, जुलाब, गुलाब, तलाव (तालाब) आदि।
भ् : आदि में – भोर, भ्याने, मौत, भात आदि।
मध्य में – भभूत, गाभिन, कभूक (कभी न कभी) आदि।
अन्त में – अभी, कभी, आभा, गाभा आदि।
बुंदेली में ‘ब’ ध्वनि का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक दिखाई देता है। यहाँ तक कि इसके अनेक शब्दों में ‘व’ मी ‘ब’ उच्चरित होता है। तलाव-तलाब, वई-बई, वात-बात, रवा-रबा, तवा-तबा आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
दूसरे, अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति के कारण अनेक शब्दों में ‘म्’ ध्वनि का उच्चारण भी ‘ब’ हो गया है। यथा-मौत-बीत भभूत-भबूत, गामिन-गाविन आदि।
- वर्त्स्य तालव्य व्यञ्जन (Alveran Platal Consonant)
उच्चारण की दृष्टि से ‘य्’ वत्स्य तालव्य ध्वनि है। इसका उच्चारण जिह्वा के अग्र भाग की कठोर तालु की ओर ले जाने से होता है, किन्तु इस ध्वनि के उच्चारण में जिह्वा ‘त’ वर्गीय ध्वनियों के उच्चारण की तरह न तालु को पूर्णतः स्पर्श ही करती है और न ‘इ’ के समान तालव्य स्वरों के उच्चारण की तरह तालु से दूर ही रहती है। यह देखते हुए इसे स्वर और व्यञ्जन के मध्य की ध्वनि ही कहा जा सकता है। इस ध्वनि का उच्चारण-स्थान ‘इ’ के उच्चारण-स्थान के समीप है। सम्भवतः यही देखकर इसे अर्ध स्वर कहा गया है। प्रायः सभी भाषा-शास्त्री ‘य्’ को अर्ध स्वर ही मानते हैं।
डॉ. विश्वनाथ प्रसाद के अनुसार, य् और व् व्यञ्जनत्व की अपेक्षा स्वरत्व की मात्रा अधिक रखते हैं। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा तथा डॉ. उदयनारायण तिवारी ने भी इन्हें अर्ध स्वर ही कहा है। वास्तविकता यह है कि ‘य्’ का उच्चारण-स्थान लगभग वही है, जो संवृत और अर्ध संवृत स्वरों का उच्चारण-स्थान है। अतः इसे अर्ध स्वर मानना उचित ही है, किन्तु इस ध्वनि की स्थिति स्वरों से तब कुछ मिश्र हो जाती है, जब इसका प्रयोग व्यञ्जन के रूप में भी दिखाई देता है। बुंदेली में इसका प्रयोग दोनों रूपों में मिलता है। कही यह अर्ध स्वर के रूप में और कहीं व्यञ्जन के रूप में भी प्रयुक्त होता है।
अर्ध स्वर के रूप में – भइया, नइँया, खिवइया, धरियक आदि।
व्यञ्जन के रूप में – इस ध्वनि का प्रयोग शब्दारम्भ, शब्द-मध्य तथा शब्दान्त में भी मिलता है-
शब्दारम्भ में – याव (विवाह), यारी, या (इस) आदि।
शब्द-मध्य में- कायकी (किस की), म्याभिन, ग्यारस, मायका आदि।
शब्दान्त में – काय (क्यों) कुखिया (कुक्ष), चाय (चाहे) आदि
व् यह भी य् की तरह अर्ध स्वर ही है। इसके उच्चारण में दोनों ओष्ठ परस्पर दोनों सिरों पर स्पर्श करते हैं और दोनों स्पर्श-स्थानों के मध्य के खुले भाग से वायु के साथ यह ध्वनि बाहर निकलती है। जिस प्रकार ‘य्’ ‘इ’ स्वर के अधिक निकट है, उसी प्रकार ‘व्’ ‘उ’ स्वर के निकट है, किन्तु इसके उच्चारण में जिह्वा का पश्च माग ‘उ’ के उच्चारण की अपेक्षा कोमल तालु की ओर अधिक ऊपर उठता है। बुंदेली में यह ध्वनि कुछ शब्दों के मध्य और अन्त में ही मिलती है।
मध्य में – पवन, सावन, रावन, गवन आदि।
अन्त में – नाव, तलाव, माव, साव, छुवौ आदि।
शब्दारम्भ में प्रयुक्त यह ध्वनि प्रायः सभी स्थानों में ‘व्’ उच्चरित होती है। यथा-वेद-वेद, वन-बन, वाह-वाह, ब्रज-ब्रज, बज्जर, वा-वा (वह), वो-चो (वह) आदि।
निम्नांकित शब्दों में ‘व्’ अर्ध स्वर के रूप में प्रयुक्त है-
कउवा-कौआ, कुँवा-कुँआ, छुवौ-छुऔ, गवौ-गओ, भवो-भओ आदि।
- लुण्ठित त्र्यञ्जन (Rolled Consonant)
र् सघोष वर्त्स्य लुण्ठित व्यञ्जन है। ‘रह’ इसी का सहस्वन समझा जाना चाहिये, जिसका प्रयोग बुंदेली में प्रायः ‘क’ के स्थान में होता है। इन ध्वनिग्रामों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग ऊपर के मसूड़ों को एकाधिक बार शीघ्रता से स्पर्श करता है। इनमें से ‘र्’ घोष अल्पप्राण तथा ‘रह’ महाप्राण ध्वनि है। बुंदेली में र् का प्रयोग शब्दारम्भ, मध्य और अन्त में भी मिलता है।
आरम्भ में – रस, रिस (क्रोध), रुख (वृक्ष), रुपया आदि।
मध्य में – खिरकिया, सरक (सड़क), छिरिया, बिरिया आदि।
अन्त में – लर (लड़ी, लड़), किंवार, द्वारो (दरवाजा) आदि।
रह : इस वत्स्य महाप्राण लुण्ठित ध्वनि का प्रयोग बुंदेली के शब्दारम्भ में नहीं मिलता। इसका प्रयोग शब्द-मध्य और शब्दान्त में ही उपलब्ध है।
शब्द-मध्य-मर्हया (मढ़ैया), पर्हवैया (पढ़वैया) आदि।
शब्दान्त – पर्हो (पढ़ो), गरहो (गढ़ो), मर्हो (मढ़ो) आदि।
- पार्श्विक (Lateral) व्यञ्जन
ल् बुंदेली का पार्श्विक व्यञ्जन है। इसके उच्चारण में जिह्वा का शीर्ष भाग ऊपर के मसूड़ों को पूर्णतः स्पर्श करता है। इसका उच्चारण-स्थान ‘न्’ के उच्चारण-स्थान से किचित् पीछे और ‘च्’ के उच्चारण-स्थान से किचित् आगे है। इस प्रकार इसका उच्चारण-स्थान न् और च् ध्वनियों के उच्चारण-स्थान के लगभग मध्य में समझा जा सकता है। इसके उच्चारण के समय जिह्वा के दोनों ओर का स्थान खुला रह जाता है, जिससे वायु पार्श्व से बहिर्गत होती है; इसीलिये यह पार्श्विक व्यञ्जन कहलाता है। बुंदेली में इस ध्वनि का प्रयोग शब्द के आरम्भ, मध्य और अन्त में भी मिलता है।
आरम्भ में – लरका (बघेली-अवधी प्रभावित क्षेत्र में), लमछारो (लम्बा), लड़ैती (प्यारी), लुड़िया आदि।
मध्य में कलप, कलावत (आपत्ति), कलम, गैलारे (पथिक) आदि।
अन्त में – काल, कमल, हाल, बाबुल (पिता), पैले (पहले) आदि।
- संघर्षो व्यञ्जन (Fricatives)
हिन्दी में प्रयुक्त श्, ष् स् संघर्षी व्यञ्जन हैं। जैसा कि पूर्व कहा जा चुका है, बुंदेली में इनमें से केवल अन्तिम ध्वनि का प्रयोग मिलता है। खड़ी बोली-प्रभावित नागरिक क्षेत्र में ‘श’ का भी प्रयोग सुना जाता है, पर उसे बुंदेली का रूप नहीं कहा जा सकता। प्राचीन बुंदेली में ‘ष्’ का प्रयोग ‘ख’ के स्थान में मिलता है, इसका मूल उच्चारण प्राचीन बुंदेली में भी प्राप्त नहीं है।
स्ः यह दन्त्य वर्त्स्य संघर्षी ध्वनिग्राम है। इसके उच्चारण में जिह्वा के अग्र भाग के पार्श्व द्वय ऊपर के दांतों को स्पर्श करते हैं। यह अघोष ऊष्म संघर्षी व्बनि है। बुंदेली में इसका प्रयोग शब्द के आरम्भ मध्य ओर अन्त में भी मिलता है।
आरम्भ में- सार, ससुरार, साजन, सब, सुनो (सोना) आदि।
मध्य में – ससुर, आसरो, असगुन, असवार आदि।
अन्त में – उदास, हुलास (उल्लास), बुरास (बुराई) आदि।
- काकल्य संघर्षी व्यञ्जन (Glottal Fricatives)
‘ह, काकल्य संघर्षी व्यञ्जन ध्वनिग्राम है। इसका उच्चारण निर्गत वायु को भीतर से बाहर फेंक कर मुख-द्वार के खुले रहते हुए स्वर यंत्र के मुख पर संघर्ष उत्पन्न कर किया जाता है। डब्ल्यू. एस. अलेन ने इस ध्वनि के उच्चारण के सम्बन्ध में बतलाया है कि इसके उच्चारण में स्वर तंत्रियाँ झंकृत होती रहती है और एक त्रिकोणीय द्वार से वायु संघर्ष करती हुई निर्गत होती है।[1]
इस ध्वनिग्राम के सम्बन्ध में हम डेनियल जोन्स का कथन पहले उद्धृत कर चुके हैं। वे यह मानते हैं कि ह् के उतने ही रूप हैं, जितने स्वर हैं। ग्लीसन है, को श्रुति अथवा मात्रा अथवा दोनों मानते हैं।
बुंदेली उच्चारण की दृष्टि से यह ध्वनि विशेष रूप से विचारणीय है। एकाधिक बार कहा जा चुका है कि बुंदेली की प्रवृत्ति हकार के बहिष्करण की ओर रही है। उसने अपनी शब्दावली में इस व्यञ्जन ध्वनि-ग्राम को कम से कम स्थान दिया है। यह ध्वनि बुंदेली के शब्दारम्भ में ही सुरक्षित है, शब्द-मध्य और शब्दान्त में यह ध्वनि सुरक्षित न रह सकी। शब्दान्त-स्थिति में तो ऐसा जान पड़ता है कि बुंदेलीभाषियों ने इस ध्वनि के अवशेष तक को अपनी बोली से निकाल देने का प्रयत्न किया है। उदाहरणार्थ भूतकालीन क्रिया-रूप था, थे, थी लिये जा सकते हैं। सुविस्तृत बुंदेलीभाषी क्षेत्र में खड़ी बोली के ये क्रिया-रूप प्रयुक्त नहीं होते। अधिकांश क्षेत्र में इनके स्थान में हतो, हते और हती भूतकालीन क्रिया-रूप प्रयुक्त होते हैं।
टीकमगढ़, छतरपुर, झाँसी, दतिया, जालोन, हमीरपुर आदि जिलों के कुछ बुंदेलीभाषियों ने इन क्रिया-रूपों से ‘ह’ का लोप कर दिया और वहाँ हतो, हते, हती के स्थान में तो, ते, ती ही प्रयुक्त होने लगे, यद्यपि ह-युक्त हतो, हते और हती भी प्रयुक्त होते हैं।
भिण्ड-मुरेना क्षेत्र में हतो, हते, हती का अवशेष तो, ते, ती भी अच्छा न लगा। यहाँ तो, ते, ती अपनी मूल व्यञ्जन ध्वनि का त्याग कर केवल ओ, ए और ई ही रह गये और इस तरह हतो, हते, हत्ती का अव-शेष भी इस क्षेत्र की बुंदेली से समाप्त हो गया। ह् का बहिष्करण एक साथ इस प्रकार देखा जा सकता है-
खड़ी बोली – था, थे, थी
बुंदेली – हतो, हते, हती
बुंदेली ह-बहिष्कृत-तो, ते, ती (मध्यवर्ती बुंदेलीभाषी क्षेत्र)।
बुंदेली ह-अवशेष विमुक्त-ओ, ए, ई (भिण्ड-मुरेना क्षेत्र)।
निमाड़ी और मालवी में भी हकार के लोप की प्रवृत्ति बुंदेली के समान ही परिलक्षित है। ऐसा जान पड़ता है कि बुंदेली से ह् ध्वनिग्राम सर्वथा लुप्त तो न हो सका, पर इसके बोलने वालों ने इसे अपनी बोली में कम से कम स्थान देने का निरन्तर प्रयास किया है। प्राचीन बुंदेली में भी हकार के लोप की प्रवृत्ति दिखाई देती है, पर वह वर्तमान बुंदेली की तरह इतना अधिक विलुप्त न हो सका। प्राचीन बुंदेली के शब्दारम्भ में तो यह ध्वनि वर्तमान की तरह सुरक्षित है, पर अनेक शब्दों में शब्द-मध्य और शब्दान्त में भी उसका अस्तित्व बना हुआ है। पूर्व अध्याय ‘प्राचीन और आधुनिक बुंदेली का रूप’ में जो। 16वीं शती से 21वीं शती (वर्तमान काल), तक के बुंदेली के पद्य और गद्य-रूप के उद्धरण देकर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है, उससे भी यह स्पष्ट है कि बुंदेली में हकार के लोप की प्रवृत्ति क्रमशः विकसित होती रही है। निम्नांकित तथ्य भी हमारी इसी धारणा की पुष्टि करते हैं-
- बुंदेली में हकारान्त संख्यावाचक शब्द मालवी, निमाड़ी और भीली की तरह आकारान्त उच्च-रित होते हैं। यथा-
ग्यारह-ग्यारा, बारह-बारा, तेरह-तेरा, अठारह-अठारा आदि।
- अधिकांश स्थानवाचक क्रिया विशेषण शब्दों के अन्त में प्रयुक्त ‘ह’ का लोप हो गया है और उसके स्थान में ‘अँ’ पूर्व स्वर में मिल गया है। यथा-
वहाँ-वाँ, यहाँ-याँ, जहाँ-जाँ, कहाँ-को आदि।
राजस्थानी- प्रभावित क्षेत्र में ‘ह’ का लोप तो नहीं मिलता, पर उसकी पूर्व व्यञ्जन ध्वनि अर्ध रूप (हलन्त) में ह से मिल गई है। यथा वहाँ-व्हाँ, यहाँ-हयाँ।
‘जहाँ’ शब्द का परिवर्तन बड़ा विचित्र है। इसमें ‘ज’ ‘ह’ से मिलकर ‘झ’ हो गया है-जहाँ-झाँ। यह रूप झाँसी और जालोन जिले के हो कुछ भाग में मिलता है।
इसी प्रकार इन क्षेत्रों में ‘वहाँ’ भी ‘माँ’ हो गया है। बुंदेली में ‘व’ ‘व’ उच्चरित होता है। इसी से ‘वहाँ’ का ‘व’ ‘ब’ बनकर ‘ह’ के योग से ‘म’ मा (आकारान्त) हो गया और बुंदेली की अनुस्वार-बहुल प्रवृत्ति के अनुसार यह ‘मा’ ‘माँ’ हो गया है।
- मध्यम पुरुष सर्वनाम के बहुवचन रूप हमारो, तुम्हारो से भी कुछ बुंदेलीभाषी क्षेत्रों में मारो, तारो अथवा मेरो, तेरो उच्चरित होता है। यह मालवी का प्रभाव है।
- अनेक क्रिया-रूपों और संज्ञा-रूपों में भी हकार का स्पष्ट लोप दिखाई देता है। यथा-
क्रिया रूप- कहो (कहा) को, कही-कई, रही-रई, कहत-कअत या कात आदि।
संता-रूप- दही-दई, रही-रई, गेहूँ-गेऊँ या गोऊँ, देह-देव, बौह-बाँय आदि।
बुंदेली में ‘ह’ का प्रयोग शब्दारम्भ, शब्द-मध्य और शब्दान्त में भी मिलता है, पर अधिकांश शब्द-मध्य और शब्दान्त ‘ह’ ‘अ’ स्वर में आधा ‘य’ व्यञ्जन के रूप में उच्चरित होता है। यथा-
शब्दारम्भ में – हमारो, हरीरा, हरओ (हल्का), होस, हौस।
शब्द-मध्य- महना-मयना (माह), कहनो-कयनो, सहन-सअन, कहता-कैत (केत भी), बहनो-बैनो (बेनो भी) आदि।
शब्दान्त में – कहीं-कई, मही-मई, सही-सई, भौंह-भौं आदि।
इस (ह्) ध्वनि के सम्बन्ध में इसके घोषत्व और अघोषत्व का एक विवाद भाषाशास्त्रियों के मध्य रहा हैः कुछ इसे घोष ध्वनि और कुछ अघोष ध्वनि कहते हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि जब यह ध्वनि अघोष महाप्राण ध्वनियों के साथ आती है, तब अघोष रूप में उच्चरित होती है, किन्तु जब यह घोष अल्पप्राण ध्वनियों के साथ आती है, तब घोष ही उच्चरित होती है। सम्भवतः इसी आधार पर डॉ. महावीरशरण जैन ने इसके वो सहस्वन ह और ह् बतलाये हैं।
अघोष रूप में – हैजा, माहवारी, हमाए, हमखों आदि।
इस रूप में इस ध्वनि का प्रयोग शब्दारम्भ अथवा शब्द-मध्य में ही होता है।
घोष रूप में इस रूप में इसका प्रयोग द्विस्वरान्तर्गत अथवा शब्दान्त में ही होता है। यथा चाह माह, कहनो, रहनो आदि।
बुंदेली के अनेक शब्दों में हमें शब्द-मध्य और शब्दान्त स्थिति में ‘ह’ का लोप मिल जाता है। इसके उदाहरण पहले दिये जा चुके हैं। इस स्थिति में इसका घोषत्व इसे स्वर के रूप में परिवर्तित कर देता है।
- नासिक्य व्यञ्जन ध्वनि (Nassals)
ङ ञ ण् न्, और म् हिन्दी के नासिक्य व्यञ्जन है, जो संस्कृत से हिन्दी में आये हैं। हिन्दी की कुछ अन्य बोलियों की तरह बुंदेली में भी इन नासिक व्यन्जनों में से ङ, ब, और ण का प्रयोग, यद्यपि कमी-कभी बोलने में सुनाई पड़ जाता है, पर लिखने में कभी प्रयोग नहीं होता। बुंदेली में मुख्यतः न और म नासिक्य ध्वनियों का ही प्रयोग होता है। इसीलिये हमने इन दोनों ध्वनियों के अतिरिक्त नासिक्य ध्वनियों को बुंदेली के व्यञ्जनों में स्थान नहीं दिया है। ङ ञ और ण का जहाँ अर्थ व्यञ्जन के रूप में प्रयोग होता है। वहाँ पूर्व स्वर अथवा व्यञ्जन (जैसी स्थिति हो) को अनुस्वरित कर किया जाता है। वैसे तो ‘म’ और ‘न’ के अर्ष रूप का काम भी पूर्व स्वर अथवा व्यंजन को अनुस्वरित करके से लिया जाता है, पर इनका लिखने में प्रयोग भी होता है, इसीलिये हमने इन्हें बुंदेली के व्यञ्जनों के अन्तर्गत स्थान देना आवश्यक समझा है। बुंदेली में हिन्दी की अन्य बोलियों की तुलना में अनुस्वार का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक है; इसीलिये हमने इसे अनुस्वार बहुस ‘बोली कहा है। उदाहरणार्थ कुछ बुंदेली भाषी क्षेत्रों में अपने, साथ, हाथ शब्द मी अॅपने, साँत, हाँत उच्चरित होते हैं, जबकि अपने सात और हात कहने से ही काम चल सकता था। इसी प्रवृत्ति के कारण बुंदेली के सभी स्वरों और (०) व्यञ्जनों के साथ अनुस्वार का प्रयोग मिल जाता है-कहीं पूर्ण अनुस्वार और कही अर्ध अनुस्वार (ँ)।
भाषाशास्त्रियों ने नासिक्य ध्वनियों को ‘खण्डेतर ध्वनि-ग्राम’ (Supra-Segemental Phonemes) कहा है। इसका कारण यह है कि वे स्वर अथवा व्यजनों के अंग नहीं हैं। इनका प्रयोग स्वर-व्यञ्जनों पर रखी एक पर्त (Layer) के समान होता है, किन्तु इस स्थिति में भी इनकी ध्वनिग्रामीयता समाप्त नहीं होती।
(अ) स्वरों के साथ
पहले कहा जा चुका है कि बुंदेली के सभी स्वरों और सभी व्यञ्जनों के साथ हमें अनुनासिकता मिल जाती है। यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
अ- अंगार, अंगोछा, अंगली, अंकुर, अंजीर आदि।
आ- आँगन, आँधरो, आँगे, आँजनो, आँखी आदि।
इ- इंधन, इंधयारो, इंगलिस, इंजन, इंतजाम, इंसान आदि।
ई-ईसें (इससे), ईखों (इन्हें), ईंधन (इंधन) आदि।
उ-उँगना (गाड़ी के चकों में देने का तेल), उंदर (चूहा), उँसे (उनसे) आदि।
ऊ- ऊँट, ऊँट पटांग, ऊँखल, ऊँखों (उसे), कैसे (उससे) आदि।
ए- एँखें (इसे), एँगर (समीप), एँखों (इसे) आदि।
ऐ-ऐंठ, ऐंचबो, (खीचना), ऐंनो (आइना), ऐंचक (तिरछी आँख वाला) आदि।
ओ – ओले (समीप), ओंठ, ओंस आदि।
औ-औंधो, औंजो, (सम्हाला), औंटो (ओंटा हुआ) आदि।
(आ) व्यञ्जनों के सार
क-कँगना, कंगाल, कंकर, काँख, केंचवा, फैंटालो बादि।
ख- खँबा, खूँटी, खूँद, खोंपड़ी आदि।
ग-गंगा, गंजाल, गंधक, गंजो, गोंद, गेंद, गूंथनो आदि।
घ-घंटा, घंटिया, घुंगरु, चेंग (चने की फली), घुँइयाँ आदि।
च-चंडाल, चंचल, चंदन, चांदी, चंदनो (कूटना), चोंद आदि।
छ-छंद, छिदी, ढूंड (च), बैंकनो (रोकना), आदि।
ज-जाँग, जिंदो, जोंदरी (ज्वार), जुंदी (ज्वार), जाँगिया आदि।
झ-झंजट, झंडा, झुंड, झींगुर आदि।
ट-टंटो (झगड़ा), टँगड़ी (टांग)), टूँका (टुकड़ा), टंगन आदि।
ठ- ठंड, ठंडो, ठूँट, ठेंगा, ठिगनो आदि।
ड- डंडी, डंडा, डंख, डिंगुरा (भेड़ियों), डोंडी (कली) आदि।
ढ-ढंग, ढोंग आदि।
त-तंबूरा, तंबू, तेंदवा, तोंद, तांबा आदि।
थ-थोंद, थुँथनो (मुँह) आदि।
द- दाँत, दंगल, दंभ दंद (द्वन्द्व) आदि।
ध-धंग (नंगा), धोंड (हानि), धींगड़ (नंगा), धंदा आदि।
न-नंद, नींद, नोंदयो (लिखना), नैंचे (नीचे) आदि।
प-पंगत, पंजा, पिंजरा, पुँगरी आदि।
फ-फंदो, फूंदा, फुंदना आदि।
ब- बंगला, बंदोबस्त, बंदूक, बोंगा (अज्ञानी), बंस आदि।
भ- भंग, भांग, भंडारो, भांडा (बर्तन), भिंडी, भुंटा आदि।
म- मंद, मँझलो, मूँदबो (मूंदना), माँद, मोंगरा आदि।
य- यंदा (आइंदा)।
र- रंज, रँचो, रंग, रंगीलो, राँगा (एक धातु), रंगवो (रंगना) आदि।
ल- लंबो, लिंबू, लंबू (लम्बा आदमी), लुंज (ढीला, अशक्त) आदि।
व-वंदना, बोंगना (ओंगन रखने का डब्बा), वेंगो आदि।
स-संकर, साँकल, संजोग, संताप, संत, संतोख (संतोष), सोंज आदि।
ह-हंस, हींग, हुंडा (बो) आदि।
यहाँ स्वर-व्यञ्जनों की नासिक्य व्यञ्जनों से युति के जो उदाहरण दिये गये हैं, उनमें प्रायः सभी शब्दाद्य के उदाहरण है। बुंदेली में ऐसे भी अनेक उदाहरण मिल सकते हैं, जिनमें शब्द-मध्य में भी विभिन्न स्वरों और व्यञ्जनों के साथ नासिक्य व्यञ्जन-प्रयोग हुआ है। विस्तार भय से यहाँ इतने ही उदाहरण पर्याप्त होंगे।
व्यञ्जन-गुच्छ (Consonant Cluster)
जब दो अथवा दो से अधिक व्यञ्जन एक साथ आते हैं, और उनके बीच कोई स्वर ध्वनि-ग्राम अथवा खण्डेतर ध्वनिग्राम नहीं आते, तब इस व्यञ्जन-समूह को ‘व्यञ्जन-गुच्छ’ कहा जाता है।
परिनिष्ठित हिन्दी में सभी प्रकार के व्यञ्जन-गुच्छ मिल जाते हैं, किन्तु लोकभाषाओं की सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण इनमें इनकी संख्या उतनी नहीं है, किन्तु इनका अभाव भी नहीं है। द्विव्यञ्जनात्मक गुच्छ तो हिन्दी की सभी बोलियों में सरलता से मिल जाते हैं। बुंदेली में भी व्यञ्जन-गुच्छ की यही स्थिति है।
व्यञ्जन-गुच्छ की स्थिति का निश्चय अल्प विवृत्ति के द्वारा किया जाता है। यथा- ‘पक्का शब्द के उच्चारण में ‘क्क्’ व्यञ्जन-गुच्छ द्विस्वरान्तर्गत मध्य स्थिति का व्यञ्जन-गुच्छ है, क्योंकि इसके पूर्व अथवा पश्चात् कोई विवृत्ति नहीं है, पर यदि कोई इसका उच्चारण ‘पक्का’ करता है, तो यह व्यञ्जन-गुच्छ (क्क्) विवृत्तिपश्चात् स्वर-पूर्व आदि स्थिति में समझा, जायगा। इसी प्रकार यदि इस शब्द का उच्चारण ‘पक्क आ किया जाता है। तो यह व्यञ्जन-गुच्छ स्वर-पश्चात् विवृत्ति-पूर्व अन्त्य स्थिति में माना जायगा। स्पष्ट है कि व्यञ्जन-गुच्छ की स्थिति अल्प विवृत्ति के द्वारा तो निश्चित होती ही है, पर साथ ही यह उच्चारण-विधि पर भी निर्भर करती है। बुंदेली में आदि, मध्य तथा अन्त्य स्थिति में भी व्यञ्जन-गुच्छ उपलब्ध है।
आद्य स्थिति में – ब्याव, ख्याल, भ्याने, क्वाँर, प्यार, प्यास आदि।
मध्य स्थिति में – मञ्जन, कज्जल, दिन्डूबे आदि।
अन्त्य स्थिति में – सच्च, झट्ट, खट्ट, बुच्च (किसी पात्र के मुंह पर लगाने का काम) आदि।
व्यञ्जन-गुच्छों का विभाजन निम्न प्रकार किया जा सकता है-
- विवृत्ति-पश्चात् स्वर-पूर्व व्यञ्जन-गुच्छ।
- द्विस्वरान्तर्गत व्यञ्जन-गुच्छ।
- विवृत्ति-पश्चात् स्वर-पूर्व व्यञ्जन-गुच्छ (Post Junctural Prevocatic Consonant Clusters)
बुंदेली में इस वर्ग के व्यञ्जन-गुच्छ दो प्रकार के हैं। प्रथम, वे जो सम्पूर्ण बुंदेलीभाषी क्षेत्र में सामान्य रूप से प्रचलित हैं और द्वितीय, वे जो बुंदेलीभाषी क्षेत्र के विशिष्ट भागों में ही उच्चरित श्रवण-गत होते हैं।
सर्वत्र प्रचलित व्यञ्जन-गुच्छ भी दो प्रकार के हैं। एक प्रकार के वे हैं, जिनमें स्पर्श व्यञ्जन के साथ अर्ध स्वर- व्यञ्जनों का योग है।
यथा-प्यार, प्यास, ध्यान, ग्यारस , क्वार, ज्वार, ज्वाब आदि।
द्वितीय प्रकार के वे हैं, जिनमें नासिक्य व्यञ्जनों के साथ अर्ध स्वर-व्यञ्जनों का योग है। यथा-न्याय, न्यौतो (निमंत्रण), म्यान, म्याद आदि।
विशिष्ट भागों में प्रचलित व्यञ्जन-गुच्छ के दो प्रकार है। प्रथम, जिनमें स्पर्श व्यञ्जनों का अर्ध स्वर व्यञ्जनों के साथ संयोग दिखाई देता है।
यथा- ग्यान, त्याग, ज्यादा, द्वार, ग्वाला, ज्वाला आदि।
ये मध्य ग्वालियर, पश्चिमी जालोन, मध्य-पूर्व होशंगाबाद तथा नरसिंहपुर और सिवनी जिले के कुछ भागों में उपलब्ध हैं।
द्वितीय प्रकार के विशिष्ट व्यञ्जन-गुच्छ में हमें संघर्षी व्यञ्जनों के साथ अर्ध स्वर व्यञ्जनों का संयोग दिखाई देता है।
यथा- स्वाद, स्वाती, स्याम आदि।
व्यञ्जन-गुच्छ के ये रूप भिण्ड-मुरेना के कुछ भाग तथा हमीरपुर जिले के मध्य-पश्चिमी भान एवम् दक्षिण दतिया और उत्तरी झाँसी जिले में मिलते हैं।
- द्विस्वरान्तर्गत व्यञ्जन-गुच्छ
द्विस्वरान्तर्गत व्यञ्जन-गुच्छों से हमारा तात्पर्य उन व्यञ्जन-गुच्छों से है, जिनके पूर्व अथवा पश्चात् कोई विवृत्ति दिखाई नहीं देती और जिनके मध्य किसी स्वर ग्राम अथवा खण्डेतर ध्वनिग्राम नहीं मिलता। इस वर्ग के व्यञ्जन-गुच्छ दो प्रकारों में विभाजित किये जा सकते हैं- व्यञ्जन द्वित्व गुच्छ और भिन्न व्यञ्जन-गुच्छ।
व्यञ्जन द्वित्व गुच्छ
इस प्रकार के व्यञ्जन-गुच्छ में एक ही व्यञ्जन ध्वनिग्राम विना किसी स्वर अथवा सण्डेतर ध्वनिग्राम के दो बार प्रयुक्त मिलता है।
यथा- गद्दी, टट्टू, खड्डा, बच्चा, थप्पड़, चक्कर आदि।
इन उदाहरणों में द, ट, ड, च और क व्यञ्जन ध्वनिग्राम बिना किसी स्वर अथवा खण्डेतर ध्वनिग्राम के दो बार प्रयुक्त हुए हैं।
यहाँ में यह स्पष्ट कर दूं कि कुछ भाषाविद् इस प्रकार के संयोग को व्यञ्जन-गुच्छ के रूप में स्वीकार नहीं करते, वे इसे व्यञ्जन दीर्घान्त मानते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में यह व्यञ्जन-गुच्छ ही है। बुंदेली में इस प्रकार के व्यञ्जन-गुच्छ स्पर्श व्यञ्जन ध्वनिग्राम, संघर्षो व्यञ्जन ध्वनिग्राम, पार्श्विक व्यञ्जन ध्वनिग्राम, लुण्ठित व्यञ्जन ध्वनिग्राम तथा नासिक्य व्यञ्जन ध्वनिग्रामों से भी निर्मित मिलते हैं।
स्पर्श व्यञ्जन ध्वनिग्राम – मिट्टी, गिट्टी, अड्डा, बग्गी।
संघर्षो व्यञ्जन ध्वनिग्राम – किस्सा, घिस्सा, हिस्सा।
पार्श्विक व्यञ्जन ध्वनिग्राम- कल्ला (शोर), सल्ला (सलाह), हल्ला।
लुण्ठित व्यञ्जन ध्वनिग्राम – दर्रा (छिद्र), कररो (कड़ा), भररा, हररा।
नासिक्य व्यञ्जन ध्वनिग्राम- गन्ना, मुन्ना, धन्न (धन्य), उम्मेद, जिम्मा।
भिन्न व्यञ्जन-गुच्छ
वो भिन्न व्यञ्जनों के संयोग से बने व्यञ्जन-गुच्छ इस श्रेणी में आते हैं। बुंदेली में इस प्रकार के व्यञ्जन-गुच्छ अनेक रूपों में मिलते हैं।
स्पर्श + स्पर्श – कप्टी, चप्टी, कब्जा, कत्था, पट्टा।
स्पर्श +संघर्षी – नक्सा, अप्सरा, अक्सर।
स्पर्श + लुण्ठित – पथरा, गठ् रा, बटरा, कतरा।
स्पर्श +नासिक्य – सप्ना, जप्ना, जम्ना, आत्मा, खात्मा।
संघर्षो + स्पर्श व्यञ्जन – रस्ता, बस्ता, कस्वा।
संघर्षो नासिश्य व्यञ्जन – चस्मा, तस्मा, वस्ना, गस्ना।
नासिक्य + स्पर्श व्यञ्जन- उम्दा कम्बल, चिम्टा, झुम्का, कन्या, घन्टा, कण्ठी, डण्डा, चन्दन, पङखा, कङघा।
नासिक्य+संघर्षो -जिन्स।
नासिक्य +पार्श्विक- हम्ला, गम्ला।
पार्श्विक+स्पर्श -हल्दी, पलथी, कल्छी, पल्टा।
पार्श्विक+संघर्षो -जल्सा, कल्सा।
पार्श्विक+अर्ध स्वर – सल्वार।
लुठित + स्पर्श – खुर्ची, वर्छी, खुर्पी, जर्दा, मुर्दा, दर्जी।
लुण्ठित + संघर्वी – कुर्सी, जर्सी।
लुण्डित + नासिक्य – खुर्मा, सुर्मा, गर्म, सर्म।
त्रिव्यञ्जनात्मक-गुच्छ
उपर्युक्त सभी उदाहरणों में दो व्यञ्जनों के गुच्छ हैं, किन्तु बुंदेली में ऐसे व्यञ्जन-गुच्छ भी उपलब्ध हैं, जिनमें तीन व्यञ्जनों का एकीकरण दिखाई देता है। ये व्यञ्जन-गुच्छ नहीं स्पर्श स्पर्ण अन्तस्थ, कहीं नासिक्य स्पर्श अन्तस्य, कहीं पार्श्विक पार्श्विक अन्तस्थ, कहीं संघर्षी स्पर्श अन्तस्थ और कहीं पार्श्विक + संघर्षी + अन्तस्थ के रूप में मिलते हैं। कुछ उदाहरण देखिए-
स्पर्श+स्पर्श +अन्तस्थ – खड्याबो (खदखदाना), जिद्द्यावों (जिद्द करना)।
नासिक्य+स्पर्श +अन्तस्थ -रोन्त्याई (रोनटाई, बेईमानी)।
पार्श्विक+पार्श्विक+अन्तस्य- चिल्ल्याबो (चिल्लाना), बिल्ल्यायो (बिलबिलाना)।
संघर्षी + स्पर्श+अन्तस्थ – उस्क्याबो (उकसाना), मुस्क्यान (मुसकराहट)।
पार्श्विक+संघर्षी+अन्तस्थ – उल्ह, यावनो (उलाहना देना), खुल्ह, यावनो (खुलवाना)।
बुंदेली के जो विभिन्न प्रकार के व्यञ्जन-गुच्छों के उदाहरण ऊपर दिये गये हैं, उनमें एक बात हमें स्पष्टतः दिखाई देती है। वह यह कि इसमें महाप्राण व्यञ्जन ध्वनिग्रामों घ्, झ्. ढ्, भ् तथा अर्ध स्वर व्यञ्जन ध्वनिग्रामों- य्, व् एवम् नासिक्य व्यञ्जन ध्वनिग्राम ङ, ञ, तथा ण् का प्रयोग या तो होता ही नहीं और यदि कहीं होता है, तो वह अपवाद-रूप में ही समझा जाना चाहिये।
व्यञ्जन-विपर्यय
बुन्देलो में व्यञ्जन-विपर्यय के अनेक उदाहरण उपलब्ध है। व्यञ्जन-विपर्यय से हमारा तात्पर्य एक व्यञ्जन के स्थान में दूसरे व्यन्जन का प्रयोग है। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
क के स्थान में ग- कंकन कंगन, बकस-बगस, काक-काग (शीसी का ढक्कन)।
ख के स्थान में छ-माखी-माछी।
ख का परिवर्तन ह में भी मिलता है-मुख-मुँह।
घ के स्थान में ह-मेघ-मेह।
च के स्थान में स- चम्मच-चम्मस।
ज के स्थान में च-कमीज-कमीच।
ड़ के स्थान में र-खोपड़ी-खोपरी, सड़क-सरक, पड़ो-परो।
द के स्थान में त-खाद-खात, सफेद-सपेत।
द के स्थान में र-निंदाई-निराई।
ध के स्थान में ह-धीरे हीरे, वधिर-वहिरो।
न के स्थान में ल-नरम-लरम, नीलो-लीलो नीम-लीम निम्बू-लिम्बु।
फ के स्थान में म फेकबो-मेंकबो।
ब के स्थान में प-जवाब-जवाप।
फ के स्थान में म-संभारबो-समारखो।
म के स्थान में ब-नरमदा-नरबदा, परमल-परबल।
य के स्थान में ज-यात्रा-जत्रा, यमुना-जमना, योग-जोग, यज्ञ-जग्ग।
र के स्थान में ड़ – हलपरा-खपड़ा, पूरी-पूड़ीं।
र के स्थान में न्-हिरना-हिन्ना, झिरना-झिन्ना, करना-कन्नो, धरनो-धन्नो (विशेष रूप से भिण्ड-मुरेना-क्षेत्र में)।
ल के स्थान में र-बाल-बार, दीवाल-दीवार, केला-केरा, पीपल-पीपर, हलदी-हरदी, हल-हर।
व के स्थान में ब-दरवाजा दरबाजा, वादा-बादा, वात-बात, जवाब-जबाब, सुवरन-सुबरन, विधाता-बिधाता।
व के स्थान में म-जवान-जमान, दीवान-दीमान, बावन-बामन, विधवा-विधमा, साँवलो-साँमलो।
अधिकांश महाप्राण व्यञ्जन- बुंदेली में अल्पप्राण हो गये हैं। अतः यह इस वोली की प्रवृत्ति होने के कारण हमने व्यञ्जन-विपर्यय में उन शब्दों को स्थान नहीं दिया है, जो महाप्राण से अल्पप्राण होकर इस लोकभाषा में व्यवहुत हैं। यथा-कूख-कूक (ख-क), घोलो-धोको (ख-क), पछत्तर-पचत्तर (छ-च), हाथ-हात (थ-त), गधा-गदा (ध-द), भभूत-भवूत (भ-ब) आदि।
व्यञ्जनागम
बुंदेली में कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनमें व्यञ्जनागम दिखाई देता है। यथा-अंबरा-अंधियारो (य), उजेला-उजवारो (य), सूदो-सूदरो (र), मथनी-मथनिया (य), अटा-अटारी (अटरिया भी) (र), करेजो-करेजवा (व), तुजाबो-खुजायबो (य) आदि।
व्यञ्जन-लोप
कुछ शब्दों में हमें व्यञ्जन-लोप की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। यथा-गेहूँ-गेऊँ या गऊँ (ह का लोप), लुहार-तुबार (ह) महिना-मइना (ह), दही-दई (ह), बहू-बक (ह), काहू-काऊ (ह), मामी-माई (म), स्वामी-सामी (व), वायदा-वादा, (य), धरो-धऔ (र), गारी-गाई (र) तुम्हारो-तुमाओ (र), कायदा-काइदा (य), सहर-सैर (ह), पवन-पौन (व) आदि।
व्यञ्जन-परिवर्तन से अर्थ-परिवर्तन
बुंदेली में अनेक ऐसे शब्द है, जिनके व्यञ्जन में परिवर्तन होने से उनके अथ में परिवर्तन हो जाता है। यथा-
खीला (छोटा खीला) – खिल्ली (हँसी उड़ाना)।
गला (कण्ठ)- गल्ला (अनाज)
ढरा (ढुला) – ढर्रा (चाल)।
गदा (एक शस्त्र) – गद्दा (बिछाने की एक वस्तु)
पीला (एक रंग) – पिल्ला (कुत्ते का बच्चा)
खाक (भस्म) – खात (खेत में दिया जाने वाला खाद)
मका (एक अनाज) – मजा (आनन्द)
हलवाई (मिठाई बनाने वाला) – हरवाई (जुताई)
तीन (एक संख्या) – तीज (तृतीया)
5. ध्वनिग्रामिक संगठन (PHONOTACTIC)
अक्षर (Syllable)
हम धाराप्रवाही रूप में भी बोलते समय बीच-बीच में किंचित विराम लेते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। इस विराम का सम्बन्ध हमारी श्वास-प्रकिया से होता है। बोलते समय अर्थ की स्पष्टता की दृष्टि से भी बीच-बीच में विराम आवश्यक होता है। कभी-कभी विराम की असावधानी से अर्थ का अनर्थ हो जाने की भी सम्भावना होती है। यथा- ‘बतासा से’ शब्द में ‘बतासा’ के पश्चात् विराम लेकर ‘ले’ उच्चरित है। यदि हम ‘बतासः’ के ‘सा’ के पश्चात् विराम न लेकर ‘बता’ के पश्चात् ही विराम लेकर पूर्ण शब्द का उच्चारण करें तो वह ‘बता साले’ हो जायगा, जो एक गाली हो गई, जबकि हमारा उद्देश्य बतासा देने का है, गाली देने का नहीं है। तात्पर्य यह कि अपने कथन के अर्थ की दृष्टि से भी श्वासाघात के पश्चात् अल्प विराम आवश्यक होता है, यद्यपि वक्ता को इस विराम का ज्ञान नहीं हो पाता।
दूसरे सभी अक्षर अथवा शब्द सार्थक होते हैं, अतः उच्चारण करते समय उनकी सार्थकता का ध्यान रखना आवश्यक होता है। यदि हम ‘राजाराम’ शब्द को रा-जारा-म बोलें, तो उसका कोई अर्थ नहीं होगा। वक्ता के कर्थन का एक निश्चित उद्देश्य होता है। अतः भाषा की दृष्टि से ही नहीं, पर इस उद्देश्य की पूर्ति की दृष्टि से भी श्वासाघात के पश्चात् विराम आवश्यक होता है। इस एक श्वासाघात के अन्तर्गत ध्वनियों की जो इकाई होती है, वही ‘अक्षर’ कहलाती है।
बुंदेली अक्षरों की स्थिति
बुंदेली में अक्षरों की स्थिति इस प्रकार है-
- एक स्वर भी एक पूर्ण अक्षर का निर्माण करता है अर्थात् वह पूर्ण आक्षरिक (Syllabic) होता है। यथा-
ई-ये, ऊ-वह, आ-आओ, ए-ये, ओ (सम्बोधनात्मक अक्षर) आदि।
- वो स्वरों के संयोग से एक अक्षर-इए (इसे), ऊए (उसे), ओए (उसको), अऊ (और), आई, आओ (आया) आदि।
- एक स्वर और एक व्यञ्जन का संयोग इन (ये), उन (वे), ईखे (इसे), ऊखे (उसे), ऊखों (उत्ते), इसे (इसते), ऊते (उसते), ओते (उससे), एसे (इससे), एतो (इतना), उते (उस ओर), इते (इस ओर), एक (संख्या विशेष) आदि।
- एक व्यञ्जन और एक स्वर का संयोग कई (कही), भई (हुई), भओ (हुआ), भए (हुए), कओ (कहा), गऔ (गया), सओ (सहा) आदि।
- एक स्वर और एक दीर्घ व्यञ्जन (Double Consonant) का संयोग एत्तो (इतना), ओत्तो (उतना), उत्तो (उत्तना), अत्तो (इतना), अड्डो (अड्डा), अख्खो (पूरा), अध्धो (आधा) आदि।
- एक स्वर और सम्बन्धित व्यञ्जन (Coujuct Consonant)) का संयोग अलसी (एक तिसहन), उखली (ऊखल), एकली (अकेली), उलटो (उलटा) आदि।
- दो स्वर और एक व्यञ्जन का संयोग – अइसो (ऐसा), अउर (और), आउत (आता है) आदि।
- दो सम मात्रिक व्यञ्जनों का संयोग राजा, बाजा, जेजे (जोजो), मामा, दादा, बाबा, खाजा (एक लाद्य पदार्थ) आदि।
- एक व्यन्जन एक स्वर तथा एक व्यञ्जन का संयोग – कईक (कई), रईस, सईस, कउर (ग्रास), गउर (गौर, एक देवी), मउर (मौर), भओत (बहुत), सउत (सौत) आदि।
- दो व्यञ्जन और एक स्वर का संयोग – कखई (कधी), सगइ (सगाई), कमउ (कमाने वाला), गमउ (गमाने वाला), समइ (एक प्रकार का दीपपात्र) कमइ (कमाई) आदि।
- एक व्यञ्जन और दो स्वरों का संयोग – कउआ (कौला) नउजा (नाई), हउआ (हौआ), गउआ (गौ, गाय), खउआ (खाने वाला) मउआ (महुआ) आदि।
- एक स्वर, एक व्यञ्जन और एक स्वर का संयोग – उधइ (दीमक), अधइ (आधा), असइ (ऐसे ही), उसइ (वैसे ही), ओसइ (वैसे ही), एसई (इसीसे) ऊत्सई (उसी से) आदि।
- दो व्यञ्जनों का संयोग – हम, गम (धीरज), घस (घिसो), बस (काबू), कस (बल), जस (यश), हल या हर (खेत जोतने का एक साधन) आदि।
- तीन व्यञ्जनों का संयोग – बखत (समय), तखत, नमक, गरज, मरज (बीमारी, मर्ज), धमक (बल), झनक (झनकार), सनक, भनक, खनक आदि।
- एक मात्रिक और एक अमात्रिक व्यव्जन का संयोग – कान, नाक, जीभ, काम, धाम, साम (संध्या), राम, भान, हाय, काय (क्या), राय, मान आदि।
- एक मात्रिक व्यञ्जन- जा, खा, गा, ला, दे, ले, धो, बो, सो, जो आदि।
- चार व्यन्जनों का संयोग – कसरत, गफलत, सवलत (सुविधा), मसकत (मिहनत), बरबस (जबरदस्ती, झूठमूठ) आदि।
- नासिक्य और व्यञ्जन-संयोग – फन्दा, गन्दो (गन्दा) बम्बा, खम्बा आदि।
- एक स्वर और तीन व्यञ्जनों का संयोग – असगुन (अपशकुन), अकसर, अफसर, उधजल (आधा जल भरा पात्र), अबरक, अचरज (आश्चर्य) आदि।
शब्द (The Word)
आचार्य पाणिनि ने ‘सुप्तिङन्तं पदम्’ कहा है। तदनुसार ‘सुबन्त’ और ‘तिङन्त’ शब्द पद कहलाते हैं। ‘रामः करोति’ में दो पद हैं- ‘रामः’ और ‘करोति’। इनमें से प्रथम ‘सुबन्त’ पद है और द्वितीय तिङन्त’। इनमें ‘रामः’ कर्ता कारक है और ‘करोति’ क्रियापद है। केवल ‘राम’ शब्द कर्ताकारक नहीं हो सकता। इसका प्रयोग क्रियापद के साथ वाक्य में होने पर ही ‘राम’ का कर्ता-रूप स्पष्ट होता है। इसी प्रकार ‘करोति’ की धातु ‘कृ’ भी अपने स्वतंत्र और एकाकी रूप में निष्क्रिय ही है। इस स्थिति में प्रथम शब्द को प्रातिपदिक और द्वितीय शब्द को धातु मात्र कहा जा सकता है। ये शब्द (प्रातिपदिक और धातु) विभक्तियों से संयुक्त होने पर ही अर्थवान होते हैं। इसी स्थिति में ये ‘पद’ की संज्ञा से संबोधित किये जा सकते हैं। श्री किशोरीदास जी बाजपेयी इस प्रकार के सार्थक पदों को ही ‘शब्द’ कहते हैं।स्पष्ट है कि वे शब्द और पद में कोई अन्तर नहीं मानते।
वाजपेयी जी ने अपना मत स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि हिन्दी में संस्कृत की तरह विभक्ति-प्रयोग अनिवार्य नहीं है। अतः यहाँ ‘अर्थ संकेतित शब्द’ ही ‘पद’ है, यदि वह वाक्य का अंश है, चाहे उसमें कोई विभक्ति हो या न हो।[2]
उनके इस कथन के अनुसार शब्द की सार्थकता वाक्य का अंश होने अर्थात् उसके वाक्य-प्रयोग में ही है। डॉ. उदयनारायण जी तिवारी ने भी यही बात दूसरे शब्दों में इस प्रकार कही है- “जब किसी भाषा विशेष में कुछ ध्वनियाँ किसी निश्चित क्रम में सजकर आती है, तो उनसे अर्थबोध होता है। यह अर्थ-बोध-युक्त रूप ही ‘पद’ कहलाता है। उन्होंने इस पद अथवा शब्द को ही ‘अर्थवान इकाई’ कहा है।
पद दो प्रकार के होते हैं नामपद और आख्यात पद। जिनमें लिग, वचन, कारकादि की द्योतक विभक्तियाँ संयुक्त होती हैं, उन्हें ‘नामपद’ और जिनमें वाच्य, पुरुष, काल, लिंग, वचन द्योतक विभक्तियाँ संयुक्त होती हैं, उन्हें ‘आस्यात पद’ कहा जाता है। यहाँ हमें ‘नामपद’ पर ही विचार करना है, जिसके अन्तर्गत न केवल संज्ञा, वरत सर्वनाम और विशेषण का भी स्थान है।
डॉ. तिवारी बाजपेयी जी के समान ‘पद’ और ‘शब्द’ को एक-दूसरे का पर्यायवाची नहीं मानते। वे इन दोनों का अन्तर बतलाते हुए कहते हैं- “पदग्राम भाषा की न्यूनतम इकाई है। इसका निर्माण किसी भाषा के एक या एक से अधिक ध्वनिग्रामों को एक विशेष कम में रखने से होता है, किन्तु ‘शब्द’ व्याकरणीय वर्ग है और इसका निर्माण एक या एक से अधिक पदग्रामों को एक विशेष क्रम में रखने से होता है।” उनके कहने का तात्पर्य यह है कि ‘पदग्राम’ एक या एक से अधिक ध्वनिग्रामों का कमवद्ध संगठित रूप है, जबकि ‘शब्द’ एक या एक से अधिक पदग्रामों का क्रमबद्ध संगठित रूप है। अर्थात् एक शब्द में एक से अधिक पदग्राम हो सकते हैं। इस स्थिति में ‘पद’ ‘शब्द’ का एक अंशमात्र ही कहा जा सकता है। दूसरे, एक शब्द एक पदग्राम का भी हो सकता है; और एक से अधिक पदग्रामों का भी। पर एक पदग्राम में एक से अधिक शब्द नहीं हो सकते। जब एक शब्द में एक ही पद हो, तब शब्द और पद एक दूसरे के पर्यायवाची कहे जा सकते हैं। यथा-राम और मोहन्। ये दोनों पद भी हैं और शब्द भी, किन्तु ‘शर्मीला’ शब्द एक ही है, किन्तु इसमें पद वो हैं-शर्म और ईला।
हम यहाँ डॉ. तिवारी की इस परिभाषा को स्वीकार करके ही बुंदेली के शब्दों और उनकी निर्माण-प्रक्रिया पर विचार करेंगे।
डॉ. अग्रवाल के अनुसार, धातु प्रातिपदिक और ध्वनिग्राम (Phonemes) जिस तरह भाषा-विश्लेषण के परिणाम हैं, उसी तरह शब्द तत्व नहीं। वह तो भाषा की एक ऐसी इकाई है, जो बाह्य जगत से अपना सीधा प्रतीकात्मक सम्बन्ध रखती है। शब्द में व्याकरणिक प्रत्यय लगकर ही वह प्रयोगार्थ बनता है अर्थात् बाह्य जगत के द्योतक शब्द को भाषा के अन्तःक्षेत्र में प्रवेश करने के लिये कुछ सम्बन्ध-नियमों का निर्वाह करना पड़ता है।[4]
उनके इस कथन से ही तात्पर्य शब्द की सार्थकता वाक्य में प्रयोग होने से ही है।
हम उनके इस मत से पूर्णतः सहमत हैं कि हिन्दी के तो क्या, पर संस्कृत के भी सभी शब्दों का धातुगत आधार ढूंढ़ निकालना सम्भव नहीं है। हिन्दी और उसकी बोलियों के वर्तमान रूप में न जाने कितने विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हो रहा है। इन सभी शब्दों की धातु ढूंढ़ निकालना भी सम्भव नहीं जान पड़ता। इस स्थिति में हमारा निर्माण की दृष्टि से शब्दों को दो भागों में विभाजित करना उचित होगा-धातुज तथा अधातुज । बुंदेली में ये दोनों प्रकार के शब्द एक बड़ी संख्या में प्रयुक्त मिलते हैं। इन पर हम आगे यथा-स्थान विचार करेंगे।
बुंदेली शब्दों का स्वरूप
बुंदेली के शब्द एक स्वर अथवा एक व्यञ्जन से आरम्भ होते हैं। इस बोली में प्रायः सभी स्वरों से आरम्भ होने वाले शब्द उपलब्ध हैं। यथा-
अ-से- अबरक, अयसान (अहसान), अदरक, अमीर, अनाथ, अजगर, अजूबा (विचित्र), अगाड़ी (आगे) आदि।
आ-से- आज, आदमी, आखो (पूरा), आमटो (खट्टा), आय (है), आसों (इस वर्ष), आँगैं (आगे), आसरो आदि।
इ-से- इकारी (इकहरी, दुबली), इनई (इन्हें), इनकार, इकरार, इसार (बिसार, खरीदी में पहिले दिया अंश), इनसान, इतवार (विश्वास), इतवार (दिन विशेष), इतै (इस ओर) आदि।
ई-से- ईस (खाट की आड़ी-खड़ी लकड़ियाँ), ईंट (ईंट), ईसवर, ईख (गन्ना), इसे (इससे), ईखें (इसे), ईखें (इसमें) आदि।
उ-से- उधार, उपकार, उखली, उए (उसे), उघारे (बिना कपड़े के), उनजस (एक रूपता), उतइ (उबर ही), उमरिया, उतै (उस ओर), उजरऊ (उजाड़ने वाली), उलायत (शीघ्रता) आदि।
ऊ-से- ऊन, ऊमस, ऊगनो (उदय होना), ऊमैं (उसमें), ऊसई (वैसे ही), ऊन आये (छा गये), ऊबो (ऊबना), ऊसर (निरुपजाऊ) आदि।
ए-से- एत्तो (इतना), एक, एकजाई (सब मिलाकर), एड़ी (एड़ी) एवात (सुहाग), एले (इस ओर), एकत (अकेला) आदि।
ऐ-से- ऐनक, ऐब (दोष), ऐसो (इस प्रकार का.), ऐंचनो (खींचना), एंडो (टेढ़ा), ऐंठ, ऐंहों (आऊँगा), ऐसान (अहसान) आदि।
ओ-से- ओमें (उसमें), ओखें (उसे), ओत्तो (उतना), ओदो (गीला) आदि ।
औ-से- औतार, ओखात, औलाद, औसो (ऐसा), औचक (अचानक), औजार (हथियार), औलट (टेड़ा-मेढ़ा), औलट (अटपटा) आदि।
बुंदेली में अधिकांश व्यञ्जनों से आरम्भ होने वाले शब्द भी मिलते हैं। यथा-
क- ककरा (कंकड़), कसक, कमर, करधनिया (करधनी), कगजा (कागज) आदि।
ख- खपड़ा (खपरा), खटखट (परेशानी), खबर, खनती, खनक आदि।
ग- गरीब, गरब (गर्व), गड़बड़, गड्डो, गफलत, गरज आदि।
घ- घर, घटनो (कम होना), घबराहट, घरी (घड़ी), घरियक (घड़ी भर) आदि।
च- चल, चमचो, चसको, चकमक, चमक, चलाबो (चलाना) आदि।
छ- छल, छली, छटो (चालाक), छहरो (दुबला-पतला), छइयाँ (छाया) आदि।
ज- जल, जब, जबर, जरी, जखम, जलम (जन्म), जलसो (जलसा) आदि।
झ- झट (तुरन्त), झमेलो (झमेला), झटको (झटका), झबरो (बड़े बाल वाला) आदि।
ट- टनको (तगड़ा), टनमनी (पशुओं के गले की घंटी), टटिया (छोटा टट्टा) आदि।
ठ- ठनगन, ठग, ठप्पो (साँचा), ठटेरा आदि।
ड- डबिया, डब्बो (डब्बा), डबडबानो (जल भर आना), डड्ढी (दाढ़ी) आदि।
ढ – ढकनो (ढक्कन), ढब (चाल), ढमका (एक प्रकार की आवाज) आदि।
त- तब, तलवार, तरैया (तारे), तरै (नीचे), तनक (थोड़ा) तकनैं (ताकना) आदि।
थ-थन, थतोलबो (हाथ फेरना), थनवा (थन से दुहा), थकान आदि।
द- दओ (दिया हुआ), दबाओ (दबाना), दवात (दावात), दरी, दक्खन (दक्षिण) आदि।
ध-धन, धनवारो (धनवाला), धन्न (धन्य), धरलई (पकड़ ली), धरम आदि।
न- नथ, नई (नहीं), ननदुलिया (छोटी ननद), नदी (नदी), ननहार (नाना का घर) आदि।
प- परत (तह), पटा, पत (लज्जा), पनघट, पनपनो (जीवित रहना) आदि।
फ- फन, फक्कड़, फटो (फटा हुआ), फरिया (ओढ़नी), फल आदि।
ब- बन, बनरा (दूल्हा), बन्ना (दूल्हा), बतक, बकस, (बाक्स), बल आदि।
भ- भटा, भलमनसाइत, भलो, भबूत, भनक, भइया आदि।
म- मखमल, मन, मनको (मनका), मजधार, मजदूर, मजल (यात्रा तय करना) आदि।
य- यजमान, यंदा ।
र- रस्सी, रगड़, रमनो, रई, रये (रहे), रबर, रनवास, रईस आदि।
ल- लमछरो (लम्बा), ललन (छोटा बच्चा), लड़ती (प्यारी), लर (लड़ी) आदि।
व- वस्ताद, (उस्ताद), वजा (वजह), वस्तरा (छूरा) आदि।
स- सनक, सरम (शर्म), सनसनी, समदी (समधी), समज (समझ) आदि।
ह- हर-हल (जमीन जोतने का एक साधन), हम, हननै (जोर से मारना), हरदी, हरवा (हार) आदि।
कुछ वैशिष्ट्य
- कुछ शब्दों के आरम्भ में हमें एक से अधिक स्वर अथवा व्यञ्जन भी एक साथ मिलते हैं।
दो स्वर- आई, एई (यही), उई (बही), एऊ (यह भी), ओऊ (वह भी) आदि।
तीन स्वर- अइऐ (आयेंगे), ओईए (उसे ही)।
दो व्यञ्जन – कब, जब, सब, हम, कम, गम आदि।
तीन व्यञ्जन- कसम, जखम, मदद, सवत (सौत), दवत (दावात) आदि।
चार व्यञ्जन- कसरत, खटखट, लमछर, चकमक आदि।
- कुछ शब्दों के अन्त में भी दो स्वर एक साथ आते हैं। यथा- कउआ, खउआ (खाने वाला), गउआ (गाय), गइआ (गाय), जइए (जायेगे) आदि।
- शब्द-मध्य में दो या दो से अधिक स्वर एक साथ कभी नहीं आते। यथा- पइसा, चउत (चाहता), कउत (कहता), कएत (कहते) आदि।
- शब्दारम्भ में संयुक्त व्यञ्ञ्जन कभी नहीं आता।
- इसी प्रकार उत्क्षिप्त अल्पप्राण ‘ड’ अथवा महाप्राण ध्वनि ‘ढ़’ से कोई शब्द आरम्भ नहीं होता।
- सामान्य हिन्दी के शब्द-मध्य में जहाँ संयुक्त व्यञ्जनों का प्रयोग होता है, वहाँ बुंदेली में संयुक्त वर्ण से ह का लोप होकर अर्थ व्यञ्जन पूर्ण उच्चरित होता है। यथा- तुम्हारे तुमरे अथवा तुमए, तुमाओ, साम्हने-सामने आदि।
- र् युक्त प जहाँ शब्द के आरम्भ में आता है, वहाँ र् तो पूर्ण उच्चरित होता है, पर ‘प’ भी ऊकार से इकार हो जाता है। यथा- प्रणाम-पिरनाम, प्रथा-पिरथा, प्रण-पिरन आदि ।
- अनुनासिक मध्य वर्णं अपरिवर्तित ही रहते हैं। यथा- बंदर, मांजरी, सुंदर, गंगाल आदि।
- किसी-किसी शब्द में हमें मध्य वर्ण का दीर्घकरण भी मिलता है। यथा- खपरा-खप्पर, ऊपर-उप्पर, नीचे-नीच्चै आदि।
- यह दीर्घीकरण कुछ शब्दों के अन्त में भी मिलता है। यथा- कुत्तो, पिल्लो, एत्तो आदि।
- प्रायः सभी रकारवाची तत्सम शब्द बुंदेली में अर्ध तत्सम-रूपों में प्रयुक्त होते हैं। यथा-धर्म-धरम, कर्म-करम, मर्म-मरम आदि।
- संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति के कारण कुछ शब्दों का मध्य ‘र’ उसके पश्चात् के व्यञ्जन के अर्थ-रूप में परिवर्तित हो उससे मिल गया है। यह प्रवृत्ति भिण्ड-मुरेना क्षेत्र में अधिक दिखाई देती है। यथा-करदो-कद्दो, भरदो-भद्दो, धरदो-धद्दो आदि।
प्रतिध्वनित शब्द (Echo words)
हिन्दी की अन्य बोलियों की तरह बुंदेली में भी प्रतिध्वनित अथवा अनुकरणमूलक शब्दों के उच्चारण सुने जाते हैं। ऐसे शब्दोच्चार में मुख्य शब्द के एक अंश की ही पुनरावृत्ति होती है। इस अंश का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता। ये प्रायः निरर्थक शब्द होते हैं, किन्तु बोलते समय इन्हें मुख्य (सार्थक) शब्द के आगे जोड़ दिया जाता है। बुंदेली में इस निरर्थक ध्वनि के रूप में प्रायः ‘गी’ का प्रयोग सुना जाता है। यथा- पानी-गीनी, रोटी-गीटी, खटिया-गिटिया, कपड़ा-गिपड़ा बादि।
कहीं-कहीं ‘गी’ के स्थान में ‘वी’ का प्रयोग भी सुना जाता है। इस स्थिति में पानी-वीनी, रोटी-वीटी, खटिया-विटिया आदि उच्चरित होते हैं।
अनूदित सामासिक शब्द (Translated Compound words)
अनूदित सामासिक शब्द से हमारा तात्पर्य उन संयुक्त शब्दों से है, जिनमें प्रथम शब्द एक भाषा का और द्वितीय शब्द अन्य भाषा का संयोजित है। बुंदेली में कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनमें हमें दो भाषाओं का शब्द-संयुक्तीकरण मिलता है। कागज-पत्तर, हाट-बाजार, कुटुम-कबीला आदि इसी प्रकार के शब्द हैं। ‘कागज-पत्तर’ में प्रथम शब्द फ़ारसी का, द्वितीय बुंदेली का, ‘हाट-बाजार’ में प्रथम शब्द बुंदेली का, द्वितीय शब्द फ़ारसी का और ‘कुटुम-कबीला’ में भी प्रथम शब्द बुंदेली का और द्वितीय शब्द फारसी का है।
इस लोकभाषा में कुछ शब्द ऐसे भी सुने जाते हैं, जिनमें एक ही भाषा के दो शब्दों का संयोग दिखाई देता है। लुगाई-लड़का, ठाट-बाट, घर-द्वार, उलटो-सीधो, बाल-बच्चा, वासन-भाँड़े, कपड़ा-लत्ता आदि इसी प्रकार के शब्द है।
संयोजित सामासिक शब्द
बुंदेली में हमें कुछ ऐसे शब्द भी मिलते हैं, जिनमें दो शब्दों के संयोग से प्रथम शब्द के अन्तिम अच् का लोप हो गया है और दोनों पशब्दों से एक शब्द बन गया है। हमारा संयोजित सामासिक शब्द से तात्पर्य ऐसे ही शब्दों से है। यथा- दिन+डूबे =डिंडूबे, मार +डालो-माड्डालो आदि।
शब्दाधिकरण (Assimilation)
जब हम कोई एक वाक्य पढ़ते या बोलते हैं, तब हम देखते हैं कि उस वाक्य के एक शब्द का झुकाव (Enclitic) उसके आगे वाले शब्द की ओर होता है। इस झुकाव के कारण उसकी शक्ति आगे बाले शब्द से कम हो जाती है। इतना ही नहीं, पर कभी-कभी हम बोलते समय प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि उसके पश्चात् के शब्द की प्रथम ध्वनि से मिलती-सी पाते हैं। यथा- दिन डूबे (दिन के डूबते समय) शब्द में हम ‘दिन’ की ‘न’ ध्वनि का ‘डूबे’ की प्रथम ध्वनि ‘ह’ की ओर इतना झुकाव देखते हैं कि बोलते समय ‘न्’ हलन्त होकर ‘डू’ में मिल-सा जाता है। यही स्थिति हमें ‘भुनसारे’ के ‘न’, ‘उठ-बैठों’ के ‘ठ’ तथा ‘जान-दो’ के ‘न’ की भी दिखाई देती है। लिखने में तो यह स्थिति नहीं होती, पर द्रुत गति से बोलते समय यह स्थिति स्पष्ट परिलक्षित होती है।
द्रुत गति से बोलने की स्थिति में वक्ता कभी-कभी एक शब्द की अन्तिम ध्वनि का उच्चारण किये बिना ही आगे का शब्द बोल जाता है। इससे प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि और द्वितीय शब्द की प्रथम ध्वनि एक ही हो जाती है। बुंदेली तथा निमाड़ी में भी तालव्य और दन्त्य ध्वनियों के उच्चारण में शब्दाधिकरण की यह स्थिति सहज ही परिलक्षित हो जाती है। यही कारण है कि बुंदेली और निमाड़ी भाषियों को क वर्ग, ट वर्ग और प वर्ग के वर्षों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतना समय उन्हें च वर्ग और त वर्ग के वर्षों के उच्चारण में नहीं लगता।
हमने बुंदेलखंड के विभिन्न भागों की यात्रा में यह भी देखा है कि नागरिकों की अपेक्षा ग्रामीणों की और पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की बोलने की गति तीव्र होती है। यही कारण है कि हमें नागरिकों की अपेक्षा ग्रामीणों की बौर पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की बोली में शब्दाधिकरण अधिक मिलता है।
बुंदेली में निम्न स्थितियों में शब्दाधिकरण देखा जाता है-
- जब दो व्यञ्जनों के मध्य एक घोष स्वर होता है, तब बोलते समय अधिकरण की प्रवृत्ति के कारण उस स्वर का लोप हो जाता है। यथा- बाप-भाई-बाब्भाई, भाग-गऔ- भाग्गौ, चल-दिऔ-चल्दौ, अलग-करदो अलक्कद्दो आदि।
अन्तिम उदाहरण में ‘ग’ का ‘अ’ स्वर लुप्त होने के साथ ही वह ‘क’ में परिवर्तित हो गया और ‘कर’ का ‘र’ भी ‘द्’ में परिवर्तित हो गया है। बुंदेली के कुछ शब्दों में इस सीमा तक भी शब्दाधिकरण देखा जाता है।
- यदि सानुनासिक व्यञ्जन महाप्राण हो, तो वह अधिकरण के प्रभाव से अल्पप्राण में परिवर्तित हो जाता है। यथा बांध-दओ- बाँद्दओ ।
- प्रथम शब्द का अन्तिम ‘ब’ ‘प’ में परिवर्तित हो जाता है। यथा-सब-को-सप्को, जब-से-जप्से, कब-को-कप्को आदि।
- कुछ शब्दों में अधिकरण के कारण त, ज में परिवर्तित हो जाता है। यथा- खात-जात-हती-खाज्जात ती, आत-जात-हती-आज्जात ती, मौत (बहुत) जने-बोज्जने (बुंदेली की प्रवृत्ति के अनुसार महाप्राण ध्वनि ‘भ’ अल्पप्राण ‘ब’ हो गई है)।
- कुछ शब्दों में ‘स’ का भी ‘ज’ में परिवर्तन श्रवणवत होता है। यथा दस-जने दज्जने ।
- कुछ शब्दों में ‘र्’ का समाधिकरण ‘प’ में भी मिलता है। यथा-गिर-परो- गिप्परो।
- ‘र्’ का समाधिकरण ‘ग’ में भी मिलता है। यथा-गिर-गओ-गिग्गओ।
शब्द-निर्माण (Word building)
हिन्दी और उसकी सभी बोलियों में प्रचलित न जाने कितने शब्द ऐसे हैं, जो धातु अथवा अन्य शब्दों में पूर्व प्रत्यय (उपसर्ग) और परप्रत्यय जोड़कर बनाये गये या बोली के विकास के साथ बन गये हैं। बुंदेली में अनेक शब्द इसी प्रकार के प्रचलित है।
संस्कृत से आरम्भ होने वाले एक विकास क्रम के साथ हिन्दी की बोलियाँ अस्तित्व में आई हैं। उन्होंने प्रा.भा.आ. भाषा के ही नहीं, पर म.भा. आ. भा. के तथा शासन के साथ इस देश में आई विदेशी भाषाओं- विशेष रूप से फारसी-अरबी तथा अँग्रेजी से भी शब्द ग्रहण किये और इस प्रकार उसके वर्तमान रूपों का निर्माण हुआ है। इससे यह भी स्पष्ट है कि हिन्दी की अन्य बोलियों के समान बुंदेली में प्रचलित शब्दों का निर्माण केवल संस्कृत अथवा हिन्दी के ही पूर्व और परप्रत्ययों के योग से ही नहीं, पर इन विदेशी भाषाओं के भी पूर्व और परप्रत्ययों के योग से निर्मित हुए हैं।
पूर्व प्रत्ययों (उपसर्गों) के योग से निर्मित शब्द
- संस्कृत के उपसर्गों से निर्मित
अति-अत्याचार, अतिबल।
अधि-अधिकार।
अप-अपजस, अपमान, अपराध ।
अभि-अभिमान, अभिलास, अभ्यास :
अव-अवगुन, अवतार ।
आ-आकार, आधार, आचरन।
इति-इतिहास ।
उत्-उत्पन्न, उत्सव ।
उप-उपकार, उपयोग, उपदेस।
कु-कुकरम, कुरूप।
दुर्- दुरबल, दुरगुन, दुरदसा
नि-निदान, निवास, निरोग।
निर-निरभय, निरवाह, निरदोस।
परा-पराकरम, पराधीन
परि-परिकरमा, परिनाम, परिमान।
पर्-परतिग्या, परकास, परबल, परलय।
वि-विधवा, विवाद, विसेस, विदेस ।
सन् – सन्तोस, संजोग, संसकार।
हिन्दी-उपसर्गों से निर्मित शब्द
अ-अमोल, अजान, अचेत, अकाल, अबेर, अलग, अछूत ।
अध-अधपको, अघमरो, अधसेरो, अधकच्चो, अखिलो ।
अन-अनजान, अनरीत, अनमनो ।
क- कपूत।
कु-कुजात ।
भर-भरपेट, भरपुर।
दु-दुबलो, दुकाल ।
बिन-बिनजानो, बिनदेखो, बिन ब्याहो।
स-सपूत, सगुन ।
सु-सुडौल, सुकाल, सुबरन ।
बी-ओगुन, औघड़, औदसा।
ये उपसर्ग वास्तव में संस्कृत से ही हिन्दी में आये हैं, पर इनका प्रयोग आधुनिक हिन्दी में विशेष रूप से होने के कारण हमने इन्हें हिन्दी के उपसर्ग कहा है।
फ़ारसी उपसर्गों से निर्मित शब्द
अल-अलाल, अलबत्ता।
ऐन-ऐनबखत ।
कम-कम उमर, कमजोर, कम कीमत, कमहिम्मत ।
खुश -(खुस) खुस खबर, खुसदिल, खुसकिसमत, खुसहाल।
गैर-गैरवाजब, गैरसमज ।
दर-दरखास, दरहकीगत, दरअसल, दररोज ।
ना-नादान, नापसंत, नाउम्मेद, नाराज।
ब-बदौलत, बकायदा, बकलम ।
बद-बदकिसमत, बदमास, बदनाम, बदनामी।
बिल-बिलकुल ।
बिला-विलाकसूर, बिलासक।
बे-बेइमान, बेकार, बेरहम ।
ला-लाचार, लावारस ।
हर-हरोज, हरकत, हरसाल, हरतरा (हर तरह)
इसमें से अधिकांश फ़ारसी से गृहीत शब्दों में ही फ़ारसी के उपसर्ग जुड़े हैं।
पर प्रत्ययों के योग से निर्मित शब्द
पर प्रत्ययों से निमित्त बुंदेली शब्दों की एक लम्बी सूची दी जा सकती हैं। यहाँ हम उदाहरणार्थ कुछ शब्द दे रहे हैं।
बो-मारबो, दौड़बो, खाबो, लाबो, देबो, करबो, लेबो आदि।
आई-लड़ाई, खुदाई, चिकनाई, पिटाई, सिलाई, पिसाई, बनवाई आदि।
आव-चढ़ाव, बनाव, दिखाव, मनाव, छिड़काव चढ़ाव, घुमाव, आदि।
बो-झटको, रगड़ो, झगरो, घेरो, झूलो, ठेलो, डरो, मरो, सोओ, झोको आदि ।
न-जूठन, लपटन, झपटन, झाड़न, सड़न आदि ।
आवट-दिखावट, थकावट, रुकावट, सजावट, मिलावट आदि।
ई-बोली, धमकी, घुड़की, सूखी, किसानी, दलाली, सवारी आदि।
ती-बढ़ती, मरती, गिनती, कीमती, गम्मती ।
नी-बोनी, कटनी, करनी, छटनी, चटनी, ओड़नी आदि ।
त-खपत, बचत, रंगत, मिल्लत ।
आओ-पहनाओ, बुलाओ, पछताओ, समझाओ आदि।
वारो-गाड़ीवारो, घरवारो, हरवारो, रखवारो आदि।
आवनो- सुहावनो, लुभावनो, डरावनो आदि।
आऊ – जलाऊ, विकाऊ, टिकाऊ आदि।
तो-हँसतो, रोतो, देतो, लेतो, कहतो, मरतो आदि।
अन्त-लड़न्त, भिड़न्त, रटन्त आदि।
नो-धोनो, रोनो, पड़नो, मरनो, घरनो, गानो, खानो आदि।
आक-लड़ाक, चलाक, घड़ाक, सड़ाक आदि।
आन-सड़ान, उठान, लगान, मिलान, चलान, लंवान, निचान।
आप-मिलाप, विलाप ।
आस पिआस, उँघास, मिठास, खटास ।
आहट-चिल्लाहट, घबराहट।
आर-सुनार, लुहार, सुत्तार।
गर-कारीगर, कारगर।
गार-मददगार, कामगार।
ची-अफीमची, मदकची, मसालची।
वान-गुनवान, धनवान, बलवान ।
आको-सनाको, भड़ाको, धड़ाको, धमाको, ठनाको।
बल-ससुराल, गंगाल।
आलू-लजालू, झगड़ालू ।
इया लटिया, कुटिया, परिया, लुटिया, अटरिया, फुड़िया।
ईलो-जहीलो, लजीलो, सजीलो, रँगीलो।
अ-घरु, बाजारु, बालू, झाड़ ।
एरो-ममेरो, फुपेरो, कसेरो, कफेरो।
सी-टिकली, सुपली।
और न जाने कितने ही ऐसे शब्द हैं, जो उपर्युक्त तथा अन्य प्रत्ययों के योग से निर्मित हैं।
संकर शब्द
‘संकर शब्द’ से हमारा तात्पर्य उन शब्दों से है, जो दो विभिन्न भाषाओं के शब्दों के योग से निर्मित हैं। वर्तमान बुंदेली में ऐसे शब्दों का भी अभाव नहीं है। नीचे इस प्रकार के कुछ शब्द दिये जा रहे हैं।
हिन्दी-संस्कृत-जाँचकार्य।
हिन्दी-अरबी-भेंट-मुलाकात ।
हिन्दी-अँग्रेजी-कपड़ामिल, लाठीचार्ज, सक्करमिल।
संस्कृत-अरबी-धन-दौलत ।
अँग्रेजी-अरबी -पाकेट खर्च ।
फारसी-अरबी -बदमास, कमबखत ।
अरबी-संस्कृत -कानूनभंग, जमापूँजी।
अँग्रेजी-संस्कृत-रेलविभाग, पोस्ट विभाग।
संस्कृत-अँग्रेजी-अणुबम, अश्रुगैस ।
फ़ारसी-अँग्रेजी-रेशममिल।
फ़ारसी-संस्कृत-गुलाबजल, मजदूरवर्ग।
अँग्रेजी-हिन्दी-टिकटघर, डबलरोटी, रेलगाड़ी।
तुर्की-हिन्दी-तोपगाड़ी, तोप-तलवार।
तुर्की-फ़ारसी – तोपखाना (नो) ।
हिन्दी-फारसी – कटोरदान, पानदान, गुटबाज, नौकरशाही।
संस्कृत-फारसी-लोकशाही, प्रचारबाजी, छायादार।
अरबी-फ़ारसी-अकलमंद, फजूलखर्ची, जमाखर्च।
अँग्रेजी-फ़ारसी-जेलखाना, सीलबन्द ।
बलाघात, सुर और सुरलहर
डॉ. उदयनारायण तिवारी के अनुसार, हिन्दी में शब्द-स्तर पर बलाघात तथा सुर और वाक्य-स्तर पर सुरलहर का उतना महत्व नहीं है, जितना अँग्रेजी भाषा में बलाघात या चीनी भाषा में सुर का है।[1]
डॉ. तिवारी के इस कथनानुसार हिन्दी और उसकी बोलियों में भले ही इनका महत्व अँग्रेजी अथवा चीनी भाषा की तरह न हो, पर इनका कुछ न कुछ महत्व अवश्य है। हम यहाँ बुंदेली के सन्दर्भ में इन पर क्रमशः विचार करेंगे।
बलाघात (Stress)
जब हम दो अथवा दो से अधिक ध्वनियों-द्वारा निर्मित किसी शब्द का उच्चारण करते हैं, तब उसकी सभी ध्वनियों का समान रूप में उच्चारण नहीं करते। उस शब्द की कुछ ध्वनियाँ ऐसी होती है, जिन पर बोलते समय उसी शब्द की अन्य ध्वनियों की अपेक्षा अधिक बल पड़ता है। यही बलाघात कहलाता है।
बुंदेली के द्वयक्षरी शब्दों में प्रायः प्रथमाक्षर पर ही बलाघात होता है। यथा- कुत्ता, औंधो, पिल्ला, केड़ो आदि।
त्र्यक्षरी शब्दों में प्रायः मध्याक्षर पर ही बलापात देखा जाता है। यथा- कड़वो, कबूली, मंजूरी आदि।
यह स्मरणीय है कि दो से अधिक ध्वनियों-द्वारा निमित शब्दों में किसी एक ध्वनि पर अधिक बल देकर बोला जाता है, पर अन्य ध्वनियों पर भी समान बल नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ ‘अदरक’ शब्द में द और क ध्वनियों पर बलाघात है, किन्तु इन दोनों में से भी क की अपेक्षा द पर अधिक बल पड़ता है। शेष ध्वनियों पर अ तथा र में से भी अ पर जितना बल पड़ता है, उतना र पर नहीं पड़ता।
डॉ. भण्डारकर ने कुछ ऐसे उदाहरण दिये हैं, जिनमें बलाघात के कारण वर्ण (Syllable) विलम्बित (Lengthened) हो जाते हैं और अन्तिम स्वर लुप्त हो जाता है। यथा-पद्धति-पद्धत, कीति-कीरत, राशि-रास, मधु-मघ आदि।
बुंदेली में इस प्रकार के अनेक शब्द वर्तमान हैं। कुछ ऐसे शब्द भी उपलब्ध हैं, जिनसे बलाघात के अभाव में आद्य स्वर भी लुप्त हो गया है। यथा-
सं. अरण्य-प्रा. रष्ण, मराठी-बुंदेली-रान
सं. अरघट्ठ-प्रा. अरहट्ठ-म. रहाट-वृं.-रहट ।
सं. अभ्यन्तर- हिं. भीतर बुंदेली भीतरें, म. मीतरी।
चार वर्णों से निर्मित शब्दों के उच्चारण में कभी द्वितीय और कभी तृतीय वर्ण पर बलाघात होता है। यथा-दुपरिया, अंधियारो, दुलइया, खिरकिया, मटकिया, कचियाबो आदि।
सुर (Accene)
हिन्दी और उसकी बोलियों में (विशेष रूप से पश्चिमी हिन्दी को बोलियों में) सुर-लहर का विशेष महत्व है। सुर-लहर का सम्बन्ध वाक्य से ही होता है। सुर-लहर की विभिन्नता एक ही वाक्य का विभिन्न अर्थों में द्योतन करती है। उदाहरणार्थ बुंदेली का- “ऊ ससुरार चलो गौ” वाक्य लीजिये। सामान्य अर्थ में यह वाक्य किसी के ससुराल चले जाने की सूचना देता है, किन्तु सुर-लहर के परिवर्तन के साथ यही वाक्य निम्नांकित अर्थों का द्योतक बन जायगा-
ऊ ससुरार चलो गौ- ‘ससुरार’ शब्द पर बल देने से निश्चयात्मक द्योतक।
ऊ ससुरार चलो गौ? ‘चलोगो-गो’ शब्द पर बल देने से प्रश्नवाचक ।
ऊ ससुरार चलो गौ- ‘चलो’ पर अधिक और ‘गौ’ पर कुछ काम बल देकर बोलने से- चिन्तनात्मक ।
ऊ ससुरार चलो गो – ‘ऊ’ पर बल देने से आश्चर्य बोधक ।
ऊ ससुरार चलो गौ- ‘ससुरार’ पर कुछ अधिक और ‘चलो गौ’ पर किंचित कम बल देकर बोलने से-क्रोध-सूचक।
स्पष्ट है कि एक ही वाक्य अलग-अलग प्रकार से (अलग-अलग सुर-लहर के साथ) बोला जा सकता है-लोक-व्यवहार की विभिन्न परिस्थितियों में बोला भी जाता है और इस प्रकार बोलने के ढंग में परिवर्तन होने से उस वाक्य के अर्थ में भी परिवर्तन हो जाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि उपर्युक्त रेखांकित शब्दों के भी सभी वर्णों पर समान बल नहीं पड़ता। उपर्युक्त वाक्यों को सुर-लहर के अवरोहण-आरोहण के अनुसार इस प्रकार चित्रित किया जा सकता है-
- ऊ ……. स…… सु …… रा ……… र……… च. ……… लो …… गौ
- ऊ …………ससुरार ………….चलो ………….. गौ
- ऊ ……..स…….सु……….रा….र…. चलौ ………गौ
- ऊ ……..ससु……….रार…. चलौ ………गौ
- ऊ ……..ससु……….रा……..र…. चलौ ………गौ
बुंदेली में ‘आय’ शब्द का प्रयोग बलात्मकता की दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस शब्द का प्रयोग वस्तु, व्यक्ति, स्थान, स्थिति, कार्य आदि के द्योतक शब्दों के पश्चात् होता है। इस दशा में यह वही कार्य करता है, जो सुर-लहर करती है। कुछ उदाहरण लीजिये-
वस्तु – सक्कर आय लेन गओ तो =शक्कर (कोई दूसरी वस्तु नहीं) लेने गया था।
व्यक्ति-गोपाल आय मिल गओ तो =गोपाल (कोई दूसरी बस्तु नहीं मिल गया था।
स्थान-बदरी घर सैं आय आओ तो =बद्री घर से (किसी अन्य स्थान से नहीं) आया था।
स्थिति-गरीबी आय सब करा लेत है= गरीबी (कोई अन्य स्थिति नहीं) सब करा लेती है।
कार्य- बौ खा कैं आय आगओ =वह खाकर (कोई अन्य कार्य करके नहीं) आ गया।
कुछ शब्दों में भी सुर-लहर का स्थान होता है, किन्तु यह विशेष स्थिति में ही सम्भव है। ये शब्द सम्बोधन-सूचक, आश्चर्यबोधक, हर्षसूचक अथवा घृणा द्योतक होते हैं।
अ. सम्बोधन-सूचक
जब किसी दूर के व्यक्ति को पुकारा जाता है, तब शब्द के एक-एक अक्षर पर उच्चारण के साथ सुर-लहर की गति क्रमशः बढ़ती जाती है। अन्तिम अक्षर इस सुर-लहर के कारण अधिक विलम्बित होती है। यथा- भइयाऽऽ (भ… इ…… याऽऽ) ओ बाईऽऽ (ओ…….. बा……….ईऽऽ) आदि।
ब. आश्चर्यबोधक
आश्चर्यबोधक शब्दों में भी प्रथमाक्षर की अपेक्षा उसके पश्चात् के अक्षरों पर क्रमशः सुर-लहर की गति आरोहित होती जाती है और अन्तिम अक्षर अवरोहित-सा जान पड़ता है। यथा-
अच्छा ऽ (अ…….च् ………छा ऽ), ओहोऽ (ओ…. हो ऽ) आदि।
स. हर्ष-सूचक
हर्ष-सूचक शब्दों में प्रथमाक्षर और अन्तिमाक्षर पर अधिक बल पड़ता है। यथा-वाहवा ! (वा…….. ह…… …..वा), खूब ! (खू….ब) आदि।
उ. घृणाद्योतक
हिन्दी तथा उसकी अधिकांश बोलियों में घृणासूचक शब्द एकाक्षरी ही होते हैं। यथा छिः, धत् आदि। इस प्रकार के शब्दों के उच्चारण में व्यक्तिगत सुर-लहर (Individual Intonation) का कोई महत्व नहीं होता।
बुंदेली में कुछ स्वीकृति और अस्वीकृति-सूचक शब्दों का भी हिन्दी की अन्य बोलियों से पृथक् प्रयोग देखा जाता है। ‘ही’ तथा ‘जाहाँ’ ऐसे ही शब्द हैं। स्वीकृति व्यक्त करने के लिये सामान्य हिन्दी के ‘हाँ’ के स्थान में बुंदेली में ‘हो’ प्रयुक्त होता है। यह शब्द बुंदेली में मराठी से आया जान पड़ता है। निमाड़ी और मालवी में भी इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है। यह शब्द स्वीकृति-सूचक है, पर सुर (Tone) के परिवर्तन के साथ यह अस्वीकृति सूचक भी बन जाता है। यथा- “हो, मैं करहौ!” अर्थात् मैं नहीं करूँगा।
‘आहाँ’ शब्द का प्रयोग सदैव ही अस्वीकृति (नहीं) के अर्थ में होता है। उत्तर देने वाला व्यक्ति सिर हिलाता हुआा कहता है- “आहाँऽ’ अर्थात् ‘नहीं’। इस शब्द के उच्चारण में प्रथमाक्षर पर न्यून सुराबरोहण होने के साथ ही लघु विवृत्ति (Pitch) होती और इसके पश्चात् की ध्वनि ‘हाँ’ अधिक आरोहित होने के साथ ही उसके अन्तिम भाग के साथ किंचित विलम्बन (प्लुत) का आभास होता है। इस शब्द का उच्चारण इस प्रकार है- आऽ हाँऽ
वाक्य-विन्यास (Structure of Sentences)
बुंदेली-वाक्यों में निम्नांकित विशेषताएँ मिलती है-
- वाक्य बहुत छोटे होते हैं। किसी भी वाक्य में छः से अधिक शब्द नहीं होते। किसी-किसी वाक्य में तो केवल तीन ही शब्द होते हैं। यथा- एक राजा हतो; बो सिकार खों गओ; वाए शेर मिलगओ आदि।
बड़े वाक्यों में छः तक शब्द होते हैं। उदाहरणार्थ एक कहानी की कुछ पंक्तियाँ देखिये-
कौनऊ गाँव में एक कोरी रत तौ। ऊकैं एकई लरका हतौ। एक दिन कोरन ने कोरी से कई। अबई हलके में भैया कौ व्याव कर डारौ। ई देह कौ का ठिकानौ। न जाने कब का हो जाय। भोंदू को ब्याव हो-गओ। भगवान की मरजी। व्याव के कडू दिना पाछे कोरी मर गौ। सरका को चौक-दुसरतों कछ न हो पाओ। अब मताई-बेटा रैगए। कछू बरसन में लरका स्यानो दिखान लगौ। एक दिना मताई ने भोंडू से कई। बेटा, अब बऊ हों लिवा ल्या।
ऊपर चौदह वाक्य हैं। इनमें प्रथम वाक्य में 6, द्वितीय में 4, तृतीय में 5, चतुर्थ में 6, पंचम में 4, छटे में 5, सातवें में 3, आठवें में 2, नवें में 6, दसवें में 6, ग्यारहवें में 4, बारहवें में 6, तेरहवें में 5 और चौदहवें वाक्य में 5 शब्द हैं।
कुछ वाक्य ऐसे भी होते हैं, जो ‘न’ ‘कै’, कि अथवा ‘औ’ संयोजक अव्ययों द्वारा परस्पर संयोजित अथवा ‘पै’ या ‘पर’ विभाजक अव्ययों द्वारा विभाजित होते हैं। ऐसे वाक्यों (Compound Sentences) में छः से अधिक शब्द होते हैं, किन्तु बुंदेलीभाषी बोलते समय उन्हें एक-एक खण्ड में विभक्त कर साधारण वाक्य (Simple Sentence) की तरह बोलते हैं। उदाहरणार्थ निम्नांकित वाक्य देखिये-
अ- भोंदू आँगे का देखत है कि गैल के निंगा खेत में गदा चर रये ते।
आ- भोंदू ने उन गदन सौं पकर लए औ माता की मढ़िया में बैंड़ दये।
इ- भोंदू गाँव के निंगात पोंच गऔ, पै पोंचत-पोंचत ललइयाँ लग गई।
प्रथम दोनों वाक्यों में दो-दो खण्ड-वाक्य क्रमशः ‘कि’ और ‘औं’ संयोजक अव्ययों द्वारा संयोजित है। तृतीय वाक्य ‘पै’ विभाजक अव्यय-द्वारा दो वाक्य-खण्डों में विभाजित है। बुंदेलीभाषी इन वाक्यों को पूर्ण संयुक्त वाक्यों में न बोलकर इस प्रकार बोलेंगे-
भोंदू आँगे का देखत है
कि गैल के निंगा खेत में गदा चर रये ते।
भोंदू ने उन गदन सौं पकर लए
औ माता की मढ़िया में बैंड़ दये।
भोंदू गाँव के निंगात पोंच गऔ,
पै पोंचत-पोंचत ललइयाँ लग गई।
उनकी इस बोलने की रीति के कारण संयुक्त वाक्य भी बोलने की दृष्टि से साधारण वाक्यों का रूप ग्रहण कर लेते हैं।
बुंदेली में कुछ वाक्य ऐसे भी होते हैं, जिनमें संयोजक अथवा विभाजक अव्ययों का प्रयोग किये बिना भी दो अथवा दो से अधिक वाक्य होते हैं, और वे उपर्युक्त प्रणाली के अनुसार साधारण वाक्यों में ही बोले जाते हैं। यथा-
दूसरे दिना भोंदू सकारूँ उठ्यौ, हाथ-मौं धोऔ, बटुआ खोल के ककई निकारी, बार ऊँछे, आरसी में मों देखो औ बनठन के ससरार जा पोंचो।
यह एक ही वाक्य है, पर इसमें छः वाक्य संयोजित है। केवल पाँचवें वाक्य के पश्चात् ‘ओ’ संयोजक अव्यय का प्रयोग है। बोलते समय ये सभी वाक्य पृथक् पृथक् स्वतंत्र वाक्यों की तरह ही बोले जायेंगे। इस प्रकार के लम्बे वाक्य वहीं तोड़ दिये जाते हैं, जहाँ साँस समाप्त होती है, पर यह तोड़ शब्दान्त में ही होती है।
विशेषण और क्रिया विशेषण शब्द सदैव सम्बन्धित संज्ञा और क्रियापद विशेष्य के साथ ही बोले जाते हैं। यथा-कारी गइया अबे नईं आई।
यदि वाक्य में समुच्चय बोधक अव्यय हो, तो बोलते समय उसके पूर्व अवश्य ठहरा जाता है। यथा-ऊ गओ, न में आओ।
यदि कर्ता और क्रिया एक दूसरे के पश्चात् ही आये हों, तो पूर्ण वाक्य बिना किसी विवृत्ति के एक ही साँस में बोल दिया जाता है। यथा- राम ने कऔ, लरका ने मारदऔ आदि।
इसी प्रकार वाक्य के दो शब्दों को संयोजित करने वाले समुच्चय बोधक अव्यय भी उन दोनों शब्दों के साथ ही बोले जाते हैं, उनके बीच विवृत्ति नहीं होती। यथा- राम और श्याम चले जैहे।
वक्ता वाक्य के जिस शब्द की ओर स्रोता का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करना चाहता है, उस पर अन्य शब्दों की अपेक्षा अधिक बलामात् (Stress) होता है। यथा-
अ. तब ऊने हमसे या बात कई।
आ. तब ऊने हमसे या बात कई।
इ. तब ऊने हमसे यां बात कई।
प्रथम वाक्य में ‘ऊने’ शब्द पर, द्वितीय वाक्य में ‘हमसे’ शब्द पर और तृतीय वाक्य में ‘या बात’ शब्द पर बलाघात है। बोलते समय बलाघात-युक्त शब्द उच्चारण की दृष्टि से किंचित विलम्बित हो जाते हैं।
वाक्यों के प्रकार
पहिले कहा जा चुका है कि एक साथ एक से अधिक वाक्य होने पर भी बुंदेलीभाषी साधारण वाक्य की तरह एक-एक वाक्यखण्ड ही बोलते देखे जाते हैं; यद्यपि पूर्ण वाक्य साधारण वाक्य नहीं होता। इस प्रकार बुंदेली में दो प्रकार के वाक्य देखे जाते हैं- साधारण वाक्य और संयुक्त वाक्य ।
- साधारण वाक्य
साधारण वाक्य में एक उद्देश्य और एक विधेय होता है। यथा- बौ आगऔ, सीता ससुरारै जात है, राम पर्ह रजो है आदि।
इन वाक्यों में बौ, सीता और राम उद्देश्य तथा अगओ, जात है, पर रखो है क्रमशः विधेय हैं।
- संयुक्त वाक्य
इसमें दो या दो से अधिक वाक्य एक बड़े वाक्य में गुम्फित होते हैं। यदि संयुक्त वाक्य में दो साधारण वाक्य संयोजक अव्यय के द्वारा जुड़े हों, तो प्रथम मुख्य वाक्य और द्वितीय समानाधिकरण वाक्य कहा जायगा। यथा-
राम आगऔ और श्याम चलो गऔ।
इसमें दोनों ही अपने पूर्ण लक्षण के साथ साधारण वाक्य है, जो ‘और’ संयोजक अव्यय से जुड़े हैं। दोनों के पृथक्पृथक् उद्देश्य और विधेय हैं।
यदि संयुक्त वाक्य में केवल एक मुख्य वाक्य हो और दूसरे वाक्य कार्य-कारण का सम्बन्ध लेकर संयोजक-विभक्ति अव्यय के साथ उससे संयोजित हो, तो प्रथम मुख्य वाक्य और शेष उसके आश्रित वाक्य कहलायेंगे। यथा-
बौ चलौ गऔ तो, पै जाने काए फिर लौट के आगऔ।
इसमें प्रथम मुख्य वाक्य है, जिससे ‘पै’ विभाजक अव्यय के साथ द्वितीय बास्य संयोजित है। यह द्वितीय वाक्य आश्रित अथवा अधिनस्थ वाक्य है। मुख्य वाक्य के बिना आश्रित वाक्य पूर्ण अर्थ-योतन में समर्थ नहीं होता।
कार्य-कारण सम्बन्ध के आधार पर वैयाकरणों ने इन आश्रित वाक्यों के तीन प्रकार बतलाये है-संज्ञा उपवाक्य, विशेषण उपवाक्य और क्रिया विशेषण उपवाक्य।
अ. संज्ञा उपवाक्य
संज्ञा उपवाक्य सामान्यतः ‘कि’ अव्यय के द्वारा मुख्य वाक्य से जुड़े होते हैं। ये मुख्य वाक्य की किसी संज्ञा या सर्वनाम के स्थान में आते हैं; इसीलिए इन्हें ‘संज्ञा उपवाक्य’ कहते हैं। यथा-
बानें कई कि बा चार दिना से भूकी है।
यहाँ ‘कथन’ संज्ञा के स्थान में आश्रित वाक्य आया है।
बुंदेली में संज्ञा उप-वाक्यों का प्रयोग निम्नांकित स्थितियों में देखा जाता है-
- उद्देश्य के रूप में जा बात को नई जानत कि मैनत को फल मिलतई है।
- कर्म के रूप में हम नई जानत कि हमरे भाग में का लिखो है।
- पूर्ति के रूप में मेरो विचार है कि अब में जनता की सेवा में-ई अपनो जीवन लगा दऊँ।
संज्ञा उपवाक्य कभी-कभी ‘कि’ के स्थान में ‘जो’ से भी संयोजित मिलते हैं। यथा हमें का परी, जो बाए मनाएँ।
संज्ञा उपवाक्य कभी-कभी बिना किसी अव्यय के योग के भी आते हैं। यथा-गोपाल में कई, अब हम तुम्हरे घरे कबू ना आहे।
ब. विशेषण उपवाक्य
जब कोई उपवाक्य किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाता है, तब वह ‘विशेषण उप-वाक्य’ कहलाता है। यथा-
बौ आदमी, जो काल तुम्हरे घरे आओ हतो, आज मर गऔ।
विशेषण उपवाक्यों का प्रयोग इन स्थितियों में मिलता है-
- उद्देश्य के साथ – बौ मौड़ा, जो तुम्हरे घर आउत तो कहूँ भागगऔ।
- कर्म के साथ- बौ अपने भैयाखों, जो अब नई रओ, मारत तो
- पूर्ति के साथ – बौ कौनसो आदमी हे (है), जेने अपनी मतारी से जनम नई लऔ।
- विधेयार्थ वर्धक के साथ- बे बा गली से रोजऊ जात है, जो बजार की तरप निगत है।
विशेषण उपवाच्य सामान्यतः ‘जो’ के द्वारा मुख्य वाक्य से जुड़े होते हैं।
स. क्रियाविशेषण उपवाक्य
जो उपवाक्य मुख्य वाक्य की क्रिया की विशेषता बतलाते हैं, वे ‘क्रिया विशेषण उपवाक्य’ कहलाते हैं। बुंदेली में इस कोटि के वाक्यों का प्रयोग भी सर्वत्र मिलता है। क्रिया विशेषण पाँच प्रकार के होते हैं, तदनुसार किया विशेषण उपवाक्य भी इन पांच प्रकारों में विभक्त किये जा सकते हैं-
- काल वाचक जब पानी नई बरसहै, तब अकाल परहे।
- स्थान वाचक-जहाँ आप जात हैं, ह् वां हमरो भाई सोई रात है।
- रीतिवाचक – जैसे तुम खात-पिअत हो, तैसे सबै खात-पिअत हैं।
- परिमाण वाचक – जैसे-जैसे समयो बीतत जात है, तैसे-तैसे भाव बढ़त जात हैं।
- कारण वाचक – तुम बुरो ना मानो, तो तुमसे एक बात कहौं।