खंड-4 बुंदेली ध्वनिग्रामिक एवं पदग्रामिक अध्ययन
June 7, 2025खंड-6 शब्द सम्पदा
June 11, 2025बुंदेली का भौगोलिक स्वरूप क्षेत्र
जैसा कि पूर्व कहा जा चुका है, बुंदेली एक सुविस्तुत क्षेत्र की लोकभाषा है। इस क्षेत्र की उत्तर-दक्षिण लम्बाई लगभग 300 मील और पूर्व-पश्चिम चौड़ाई लगभग 225 मील है। इस प्रकार यह लोकभाषा लगभग 67,500 वर्गमील में बोली जाती है।
बुंदेलीभाषी जन-संख्या
प्रियर्सन ने परिनिष्ठित (स्टेण्डर्ड) बुंदेली बोलने वालों की संख्या 3,519,729, बुंदेली के अन्य रूप बोलने वालों की संख्या 891,200 तथा इसके मिश्रित एवं विकृत रूप बोलने वालों की संख्या 1,959,272 बतलाई है। इस प्रकार उनके अनुसार बुंदेली भाषियों की पूर्ण संख्या 6,869,201 है। उन्होंने यह संख्या सन् 1901 ई. की जनगणना के बाधार पर ही लिखी है, जब कि वर्तमान जनसंख्या उस समय की जनसंख्या से बहुत अधिक है।
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने बुंदेली भाषियों की संख्या 69लाख और डॉ. उदयनारायण तिवारी ने 70 लाख बतलाई है। डॉ. बाहरी ने सन् 1931 की जन-गणना के अनुसार बुंदेलीमाधियों की संख्या 69 लाख के लगभग बतलाई है। उन्होंने 1961 की जन-गणना के अनुसार इस संख्या के 89 लाख के लगभग होने का अनुमान किया है।
भाषा की दृष्टि से सन् 1961 ई. का जन-गणना-विवरण अत्यन्त दोषपूर्ण है। इस विवरण में हिन्दी की प्रायः समी बोलियाँ हिन्दी मान ली गई हैं और इन बोलियों के बोलने वालों को केवल ‘हिन्दी भाषी’ लिख दिया गया है। इससे हिन्दी भाषियों की पूर्ण संख्या तो ज्ञात हो जाती है, पर उसकी अन्तर्गत बोलियों के बोलने वालों की पृथक् पृथक् संख्या ज्ञात नहीं हो पाती। इस स्थिति में बुंदेलीभाषियों अथवा अन्य किसी भी बोली के बोलने वालों की वर्तमान संख्या निश्चित रूप में नहीं बतलाई जा सकती। हम यहाँ बुंदेली-भाषियों की जो वर्तमान संख्या दे रहे हैं, वह अनुमान पर ही आधारित है। इसके सिवाय हमारे पास अन्य कोई उपाय भी नहीं है। हमने बुंदेलीभाषी जिलों और क्षेत्रों को भ्रमण में देखा है कि वहाँ के सभी स्त्री-पुरुष घर में और बाहर भी बुंदेली ही बोलते हैं। यहाँ तक कि मारवाड़ी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, मुसलमान आदि भी बुंदेली भाषियों के साथ इस प्रकार बुंदेली बोलते हैं, जैसे वह उनकी अपनी भाषा हो।
हम इन राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, सिन्धी, उर्दू तथा इसी प्रकार के हिन्दी इतर भाषा-भाषियों की संख्या तो बुंदेली भाषियों की संख्या में सम्मिलित नहीं कर रहे हैं और न बुंदेली भाषी क्षेत्र के सम्पूर्ण हिन्दी-भाषियों को ही बुंदेलीभाषी मानना उचित समझ रहे हैं, पर हमने इस क्षेत्र के भ्रमण में जो देखा और अनुभव किया है, उससे हमारा यही अनुमान है कि गत जन-गणना-विवरण में बुंदेलीभाषी क्षेत्र में जिन्हें हिन्दी भाषी लिखा है, उनमें से कम-सेन्नाम 90 प्रतिशत नर-नारी निश्चित ही बुंदेलीभाषी हैं। हमारी इस धारणा और अनुमान के अनुसार बुंदेलीभाषियों की वर्तमान संख्या निम्नांकित होनी चाहिये-
क्र. | जिला | पूर्ण जनसंख्या | हिन्दीभाषी | बुंदेलीभाषी |
1 | मुरेना | 785,3380 | 7,70,009 | 6,93,008 |
2 | भिण्ड | 6793,955 | 6,34,863 | 5,71,377 |
3 | ग्वालियर | 8,58,005 | 5,87, 322 | 5,28,590 |
4 | दतिया | 2,55,267 | 1,94,872 | 1,75,385 |
5 | शिवपुरी | 6,76,568 | 5,47,326 | 4,92,594 |
6 | गुना | 7,83,748 | 4,72,863 | 4015,577 |
7 | टीकमगढ़ | 5,68,885 | 4,54,137 | 4,08,724 |
8 | छतरपुर | 7,12,385 | 5,80,708 | 5,22,637 |
9 | पन्ना | 4,29,077 | 3,29,069 | 2,96,162 |
10 | विदिशा | 6,58,427 | 4,44,947 | 4,00,453 |
11 | रायसेन | 553,026 | 3,79,059 | 3,41,153 |
12 | सागर | 1,063,251 | 5,63,768 | 5,06,291 |
13 | दमोह | 5,73,263 | 4,29,780 | 3,87,002 |
14 | सीहोर | 1,085,119 | 5,74,290 | 5,27,062 |
15 | जबलपुर | 1,357,439 | 5,60,156 | 5,04,140 |
16 | नरसिंहपुर | 5,19,275 | 4,07,504 | 3,66,754 |
17 | होशंगाबाद | 4,67,301 | 1,95,571 | 1,76,014 |
18 | सिवनी | 6,68,352 | 4,03,718 | 4,00,371 |
19 | छिन्दवाड़ा | 531,032 | 4,31,099 | 3,87,990 |
20 | झाँसी | 10,87,479 | 10,35,604 | 9,32,000 |
21 | जालोन | 6,63,168 | 6,57,405 | 5,11,664 |
22 | हमीरपुर | 7,94,449 | 7,62,204 | 6,85,984 |
सन् 1971 के जन-गणना-विवरण के अनुसार इन 22 बुंदेली भाषी जिलों की पूर्ण जनसंख्या 1,67,83,749 है, जिसमें हिन्दीभाषियों की संख्या 1,15,16,265 है। ये समस्त हिन्दीभाषी वास्तव में बुंदेलीभाषी ही कहे जा सकते हैं, पर यदि हम इनमें अधिक-से-अधिक 10 प्रतिशत हिन्दी-भाषियों को हिन्दी की अन्य बोलियाँ बोलनेवाले मान लें, तो भी इन जिलों में बसे बुंदेलीभाषियों की संख्या 1,03, 30,922 निश्चित होती है।
इनके अतिरिक्त बालाघाट जिले में बसे लगभग 37,200 लोधी, छिन्दवाड़ा जिले के 29,384 कोष्टी तथा 9,960 कुम्हार एवम् नागपुर और चांदा जिले के 2,11,800 कोष्टी, कुम्हार आदि एक ऐसी बोली बोलते हैं, जिसे मराठी प्रभावित बुंदेली का विकृत रूप ही कहा जा सकता है। डॉ. प्रियर्सन ने बुंदेली के इसी रूप को बिकृत (Broken) बुंदेली अथवा ‘नागपुर हिन्दी’ कहा है। इसके अतिरिक्त आगरा, मैनपुरी और इटावा जिले के दक्षिणी भाग में भी क्रमशः ब्रज और कन्नौजी मिश्रित बुंदेली बोली जाती है। इन जिलों में बुंदेली के इन रूपों के बोलनेवालों की संख्या लगभग 2 लाख है। इस प्रकार 70 हजार वर्गखण्ड में बसे बुंदेलीभाषियों की कुल संख्या लगभग एक करोड़ 7 लाख है।
भोगौलिक सीमा
पूर्वोल्लिखित जिलों में से बालाघाट, नागपुर और चांदा जिले बुंदेलीभाषी नहीं कहे जा सकते। बालाघाट जिले की 8,06,702 जनसंख्या में गत जन-गणना के अनुसार हिन्दीभाषियों की संख्या 7,24, 328 है। इनमें बुंदेलीभाषी केवल 37,200 हैं। शेष ग्रामीण हिन्दीभाषी बघेली और छत्तीसगढ़ी का एक ऐसा मिश्रित रूप बोलते हैं, जो मराठी और गोंडी से एक साथ ही प्रभावित दिखाई देता है। नागरिक क्षेत्र में बसे स्त्री-पुरुष खड़ीबोली के अतिरिक्त कन्नौजी, कुछ पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ तथा राजस्थानी के रूप बोलते हैं। नागपुर और चांदा मराठीभाषी जिले हैं। वहाँ वसे बुंदेलीभाषियों पर ही नहीं, अपितु सामान्य हिन्दीभाषियों की बोली पर भी मराठी का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। अतः हम यहाँ इन जिलों को छोड़कर ही बुंदेलीभाषी क्षेत्र की भौगोलिक सीमा दे रहे हैं।
इस क्षेत्र के उत्तर में उत्तर प्रदेश का ब्रज-कन्नौजीभाषी क्षेत्र है, जिसमें आगरा, मैनपुरी, इटावा और कानपुर जिले का दक्षिणी भाग है। दक्षिण में महाराष्ट्र प्रदेश के नागपुर जिले का उत्तरी भाग तथा मध्य-प्रदेश के बैतूल, मण्डला और बालाघाट जिले हैं। पूर्व में बघेलखण्ड (विन्ध्यप्रदेश) का सतना जिला, जबलपुर की कटनी तहसील तथा उत्तर प्रदेश का बाँदा जिला है। पश्चिम में राजस्थान का पूर्वी भाग, मध्यप्रदेश के सिहोर जिले की आष्टा तहसील एवम् होशंगाबाद जिले का पश्चिमी भाग (सिवनी तहसील) है।
भाषायी क्षेत्र-विभाजनभाषायी भूगोल की दृष्टि से सम्पूर्ण बुंदेलीभाषी प्रदेश पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है- उत्तरी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र और मध्यवर्ती क्षेत्र ।
- उत्तरी क्षेत्र
उत्तरी क्षेत्र के अन्तर्गत मध्यप्रदेश के मुरैना (श्योपुर तहसील छोड़कर), भिण्ड तथा ग्वालियर जिले हैं। आगरा, मैनपुरी और इटावा का कुछ दक्षिणी भाग भी भाषायी दृष्टि से सी क्षेत्र के अन्तर्गत मानना उचित होगा। इनमें से मुरैना और ग्वालियर तथा आगरा के दक्षिणी भाग में प्रचलित बुंदेली का वह रूप है, जो ‘भदावरी’ के नाम से जाना जाता है। यह बुंदेली का ब्रज-मिश्रित रूप है। मुरैना जिले की श्योपुर तहसील में प्रचलित बुंदेली के रूप में राजस्थानी का मिश्रण है।
भिण्ड, जालौन के उत्तरी भाग तथा मैनपुरी और इटावा जिले के दक्षिणी भाग में कन्नौजी-मिश्रित बुंदेली बोली जाती है। जालोन के पश्चिमी भाग की बुंदेली में कन्नौजी का मिश्रण नाममात्र को ही दिखाई देता है।
- दक्षिणी क्षेत्र
दक्षिणी भाग के अन्तर्गत छिन्दवाड़ा, सिवनी और बालाघाट जिले हैं। इनमें से छिन्दवाड़ा जिले के उत्तरी भाग (अमरवाड़ा तहसील) तथा पूर्वी भाग (चौरई क्षेत्र) की लोकभाषा लगभग शुद्ध बुंदेली कही जा सकती है, किन्तु इस जिले के मध्य और दक्षिणी भाग में बसे किरार, रघुवंसी, कोष्टी और कुम्हार जाति के लोग जो बोली बोलते हैं, उसे बुंदेली का विकृत (Broken) रूप ही कहा जा सकता है। इस जिले की सौंसर तहसील मुख्यतः मराठी भाषी है, पर इस तहसील में यत्र-तत्र तथा इससे संलग्न छिन्दवाड़ा तह-सील के सीमावर्ती क्षेत्र में बुंदेली का जो रूप प्रचलित है, वह भी मराठी-प्रभावित है। इस जिले के बुंदेली-भाषी कोष्टियों की बोली पर भी मराठी का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है।
सिवनी जिले का अधिकांश भाग बुंदेलीभाषी है। इसकी दक्षिणी सीमा मराठीभाषी नागपुर जिले से संलग्न है; अतः इस सीमावर्ती भाग पर स्वभावतः मराठी का कुछ प्रभाव दिखाई देता है। जिले के शेष भाग की बोली जबलपुर की तरह बुंदेली हैं।
- पूर्वी क्षेत्र
बुंदेलीभाषी क्षेत्र के पूर्वी भाग के अन्तर्गत जालोन, हमीरपुर, छतरपुर का पूर्वी भाग, पन्ना जिले तथा जबलपुर जिले के कुछ उत्तरी और पूर्वी भाग का स्थान है। इनमें से हमीरपुर जिले में बुंदेली के अनेक रूप प्रचलित हैं। इस जिले के मध्य भाग की बोली तो शुद्ध बुंदेली कही जा सकती है, किन्तु इसके उत्तर-पश्चिमी भाग और जालोन जिले के दक्षिणी भाग में बुंदेली का ‘लोधान्ती’ रूप और पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्र में (केन नदी का तटवर्ती भाग) बुंदेली का ‘लोघान्ती’ से एक पृथक् रूप प्रचलित है, जो ‘कुण्ड्री’ के नाम से जाना जाता है। इसी जिले के उत्तरी यमुना नदी के तटवर्ती भाग में बुंदेली का रूप और भी बदल गया है। बुंदेली का यह रूप ‘तिरहारी’ कहा जाता है। इसके दक्षिणी तथा दक्षिणी-पश्चिमी भाग में बुंदेली को ‘बनाफरी’ रूप बोला जाता है।
जालोन जिले के पश्चिमी भाग में तो बुंदेली का लगभग शुद्ध रूप ही प्रचलित है और जैसा कि पूर्व कहा गया है, इसके दक्षिणी भाग में बुंदेली का लोधान्ती रूप है, किन्तु इस जिले के पूर्वी सीमावर्ती भाग (यमुना नदी का दक्षिणी तटवर्ती भाग) में बुंदेली का एक सर्वथा नवीन रूप दिखाई देता है। इसका यह रूप ‘निभट्टा’ कहलाता है।
पन्ना जिले की लोकभाषा के दो रूप है। इसके उत्तरी भाग की बुंदेली छतरपुर जिले की बुंदेली से और पश्चिमी भाग की बुंदेली दमोह जिले की बुंदेली से साम्य रखती है। इन दोनों भागों की लोकभाषा शुद्ध बुंदेली ही कही जा सकती है, किन्तु इसके पूर्वी और दक्षिणी भाग की बुंदेली निकटवर्ती बघेलीभाषी क्षेत्र के प्रभाव से बघेली-मिश्रित हो गई है। यह बुंदेली का बनाफरी रूप है, जो उत्तर में छतरपुर जिले के पूर्वी भाग को व्याप्त करता हुआ हमीरपुर जिले के दक्षिणी भाग तक पहुँच गया है।
इस तृतीय भाग के जबलपुर जिले के उत्तरी और पूर्वी क्षेत्र की बुंदेली मी बघेली-मिश्रित है। इस जिले की जबलपुर और पाटन तहसील में बोली जाने वाली बुंदेली उत्तर-पूर्व में बढ़कर सिहोरा तहसील के पूर्वोत्तर भाग में ही बघेली से मिश्रित होने लगती है और इससे आगे बढ़ने पर कटनी तहसील में इसका बुंदेली-रूप लुप्तप्राय हो जाता है और बघेली ही वहाँ की लोकभाषा बन जाती है।
- पश्चिमी क्षेत्र
इस भाग के अन्तर्गत मुरैना जिले की श्योपुर तहसील, शिवपुरी, गुना, विदिशा और होशंगा बाद जिले का पश्चिमी भाग तथा सिहोर जिला है। इनमें से मुरैना, शिवपुरी और गुना जिले के पश्चिमी भाग राजस्थान की पूर्वी सीमा से संलग्न हैं, जिससे इन भागों में बोली जानेवाली बुंदेली राजस्थानी से प्रभावित हो गई है।
सिहोर जिले के पश्चिमी भाग में प्रचलित बुंदेली मालवीभाषी क्षेत्र की संलग्नता के कारण मालवी-मिश्रित हो गई है। पश्चिम की ओर और आगे बढ़ने पर इस जिले की आष्टा तहसील में बुंदेली का रूप लुप्तप्राय हो जाता है और उसका स्थान मालवी ग्रहण कर लेती है। इस तहसील की बोली विशुद्ध मालवी तो नहीं, पर बुंदेली-मिश्रित मालवी ही कही जा सकती है।
होशंगाबाद जिले के पश्चिमी भाग की भाषायी स्थिति सिहोर जिले के पश्चिमी भाग से कुछ मिश्न है। इस पश्चिमी भाग में इस जिले की दो तहसीले सिवनी और हर्दा हैं। इनमें से सिधनी तहसील की लोकभाषा बुंदेली-प्रभावित मालवी है। हर्दा तहसील का उत्तरी भाग मालवा-क्षेत्र से सम्बद्ध और पश्चिमी भाग निमाड़ीभाषी क्षेत्र (पूर्व निमाड़) से सम्बद्ध है। परिणाम स्वरूप इस तहसील के पश्चिमी भाग में निमाड़ी-मिश्रित मालवी बोली जाती है, किन्तु मध्य और उत्तरी भाग में बुंदेली प्रभाव-युक्त निमाड़ी और मालदी का एक ऐसा मिश्रित रूप बोला जाता है, जिसे किसी भी एक लोकभाषा के रूप में सम्बोधित नहीं किया जा सकता। उस क्षेत्र में यह रूप ‘भुवाने की बोली’ के नाम से प्रसिद्ध है।[1]
- मध्यवर्ती क्षेत्र
इस भाग के अन्तर्गत दतिया, झाँसी, टीकमगढ़, छतरपुर का मध्य और पश्चिमी भाग, विदिशा, (कुछ पश्चिमी भाग छोड़कर) सागर, दमोह, जबलपुर (कटनी तहसील के अतिरिक्त), रायसेन, होशंगाबाद (सिवनी-हर्दा तहसील के अतिरिक्त) और नरसिंहपुर जिले का स्थान है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र बुंदेलीभाषी भू-भाग के मध्य में स्थित है, जिससे इसकी सीमावर्ती बोलियों इस भाग में प्रचलित बुंदेली को प्रभावित न कर सकीं। इस दृष्टि से इसे ‘शुद्ध बुंदेली’ का ही क्षेत्र कहा जा सकता है; यद्यपि इस उत्तर के दतिया जिले से दक्षिणी के सिवनी जिले तक विस्तृत पूर्ण क्षेत्र में बुंदेली का पूर्णतः एक ही रूप प्रचलित नहीं है, यह सम्भव मी नहीं है।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि संसार की कोई भी भाषा अथवा बोली ऐसी नहीं है, जिसमें किसी अन्य भाषा अथवा बोली के शब्दों का न्यूनाधिक प्रमाण में मिश्रण न हो, अतः कोई भी भाषा अथवा बोली अपने रूप में सर्वथा ‘शुद्ध’ नहीं कहीं जा सकती। हमारा तात्पर्य वहाँ ‘शुद्ध बुंदेली’ से बुंदेली के उस रूप से है, जिसमें अन्य भाषा अथवा बोलियों के शब्दों अथवा प्रवृत्तियों का प्रवेश नाममात्र के लिए ही हो पाया है।
भाषायी प्रभाव के अतिरिक्त भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थिति-वैभिन्न्य भी भाषा के स्वरूप को प्रभावित कर उसका रूप-परिवर्तन कर देता है। इस क्षेत्र के भाषायी रूप-परिवर्तन के भी ऐसे कोई कारण नहीं रहे। इस सम्पूर्ण क्षेत्र की भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थिति भी लगभग समान ही रही और अब भी समान ही है। मध्यकाल में इस क्षेत्र में बार-बार स्थान-स्थान पर छोटे-बड़े युद्ध होते रहे, किन्तु वे युद्ध राजाओं तक ही सीमित रहे, जन-सामान्य का उनसे सीधा सम्बन्ध नहीं रहा, जिससे वे जन-भाषा को प्रभावित न कर सके।
भाषायी रूप
भाषायी दृष्टि से बुंदेली चार रूपों में विभाजित की जा सकती है- परिनिष्ठित बुंदेली, शुद्ध बुंदेली, मिश्रित बुंदेली और विकृत बुंदेली।
- परिनिष्ठित बुंदेली
एक विस्तृत भू-भाग में प्रचलित किसी भी बोली का एक रूप होना सम्भव नहीं होता। बुंदेली की भी यही स्थिति है। हमने जिस मध्यवर्ती भाग को शुद्ध बुंदेली का क्षेत्र कहा है, उसमें भी हमें दतिया से दक्षिण में सिवनी तक के क्षेत्र में, सामान्य प्रवृत्तियों में समानता होते हुए भी, इस सम्पूर्ण क्षेत्र की बुंदेली में एक सा रूप दिखाई नहीं देता। स्थान-वैभिन्न्य के साथ उसके रूप में भी कुछ-न-कुछ भिन्नता अवश्य आ गई है। यह भिन्नता हमें प्रमुख रूप से उच्चारण-भिन्नता के कारण ही दिखाई देती है, जिसके साथ कुछ स्थानीय शब्दावली का भी योग है। बोली की इस क्षेत्रीय भिन्न-रूपता की स्थिति में भी उसका एक रूप अवश्य ऐसा होता है, जो सर्वगृहीत होता है। एक अत्यन्त सीमित और संकीर्ण क्षेत्र में प्रचलित बोली की स्थिति चाहे ऐसी न हो, पर एक सुविस्तृत क्षेत्र में प्रचलित बुंदेली में यह वैशिष्ट्य अवश्य है। प्राप्त सामग्री के आधार पर यह सप्रमाण कहा जा सकता है कि बुंदेली केवल लोकभाषा ही नहीं, पर काव्य-भाषा भी रही है और आज भी बुंदेलीभाषी क्षेत्र के कुछ कवि इसमें काव्य-रचना कर रहे हैं। इतना ही नहीं, पर इस लोकभाषा को एक दीर्घावधि तक बुंदेलखंड में स्थित छोटे-बड़े अनेक राज्यों की राजभाषा होने का गौरव मी प्राप्त रहा है। बुंदेली का यह काव्य-भाषा और राज्यभाषा का रूप किसी क्षेत्र-विशेष में प्रचलित बुंदेली का रूप नहीं, वरन एक ऐसा रूप है, जो समस्त बुंदेलीभाषी भू-भाग में समान रूप से जन-गृहीत है। यही बुंदेली का परिनिष्ठित रूप है। इसका यह रूप शुद्ध बुंदेली के रूप से भिन्न है। जहाँ शुद्ध बुंदेली-रूप अन्य भाषा-रूपों और बोली-रूपों के मिश्रण से लगभग मुक्त है, वहाँ बुंदेली का यह परिनिष्ठित रूप अपने काल में प्रचलित ब्रजी और खड़ी बोली के ही नहीं, पर संस्कृत और फारसी की भी शब्दावली से युक्त है। बुंदेली ने अपने परिनिष्ठित रूप में अपने मूल स्वरूप की रक्षा करते हुए अन्य भाषाओं बौर बोलियों की शब्दावली ग्रहण कर अपने शब्द-भण्डार और अभिव्यक्ति क्षमता में वृद्धि करने का प्रयास किया है। हम इसके इस रूप पर आगे एक पृथक् अध्याय में विस्तृत प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।
- शुद्ध बुंदेली
जैसा कि पूर्व कहा जा चुका है, ‘शुद्ध बुंदेली’ से हमारा तात्पर्य बुंदेली के उस रूप से है, जो अन्य भाषा अवधी बोलियों से लगभग अप्रभावित है। पूर्व निर्देशित मध्यवर्ती भाग की बुंदेली का यही रूप है।
- मिश्रित बुंदेली
यह बुंदेली का इसमें ब्रज, कनौजी, राजस्थानी, मालवी, अवधी (वैसवाड़ी-रूप) और बघेली बोलियों की शब्दाली का मिश्रण है। बुंदेली के भदावरी, निभट्टा, बनाफरी, लोधान्ती, कुण्डी, तिरहारी आदि रूप इसी प्रकार के हैं।
- विकृत बुंदेली
यह बुंदेली का वह रूप है, जो जातीय एवम् स्थानीय प्रभाव के कारण विकृत हो गया है। वहीं मालवी और बुंदेली को मिश्रण से नये शब्द बन गये हैं, कहीं बुंदेली और मराठी के मिश्रण से नये शब्द बन गये हैं अथवा इनमें प्रमाद से बुंदेली का मूल स्वरूप ही विकृत हो गया है। बालाघाट के लोधियों, पंवारों और छिन्दवाड़ा-नागपुर के कोष्टियों तथा कुम्हारों आदि के द्वारा बोली जाने वाली बुंदेली का यही रूप है। कुछ विद्वान बुंदेली में इस रूप को भी ‘मिश्रित बुंदेली’ ही मानते हैं।
उच्चारण वैशिष्ट्य
इन विविध रूपों में पल्लवित बुंदेली में एक ही शब्द अथवा ध्वनि में अनेक उच्चारण स्वाभाविक हैं। मुझे अपने शोध में अनेक शब्द ऐसे मिले हैं, जो बुंदेलीभाषी विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार से उच्चरित होते हैं। कुछ शब्द तो ऐसे हैं, जो बारह और बारह से भी अधिक प्रकार से उच्चरित होते हैं। उदाहरणार्थ ‘कमर’ शब्द लीजिये। बुंदेलीभाषी क्षेत्र में इसके बारह उच्चारण मिलते हैं-कमर, कंमर, कम्मर, कंम्मर, कम्मर, कन्हई, करवाई, करहयाई, कारया, करयाओ, करीहां और करहया।
‘दरवाजा’ शब्द के पन्द्रह उच्चारण है- दरवाजा, दरवाजो दरबाजी, दरवाज्जा, दरबाज्जा, दोबारो, दुवारो, देवरो, द्वारो, द्वार, दुआर, दुवार, दोवार, द्वारू, दोरो।
इन उदाहरणों में किस शब्द का कौनसा उच्चारण शुद्ध है और कौनसा अशुद्ध ? यह बतलाना सम्भव नहीं है। परिनिष्ठित अथवा आदर्श उच्चारण (Standards of onounciation) निश्चित नहीं किया जा सकता। कुछ लोगों की दृष्टि में जो एक उच्चारण शुद्ध अथवा आदर्श है, यह दूसरों की दृष्टि में अशुद्ध भी हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने ही उच्चारण को शुद्ध और अन्यों का उच्चारण अशुद्ध मानता है। उच्चारण के शुद्धाशुद्ध रूप की यह समस्या बोलियों में ही दृष्टिगोचर होती है, भाषाओं में इसका समाधान सरलता से हो सकता है। चार्ल्स केनेव थामस के अनुसार-
Standards of speech are basically set by the job to be done the art of communication. Communications requise hat certain that signals be distinguished from one-another some times by circumstances. Some times by linguistic contest, some times by phonemic differentiations.
इस कथन के अनुसार परिनिष्ठित उच्चारण का रूप व्यवसाय पर आधारित होता है। एक-एक जनसमूह का पृथक्-पृथक् व्यवसाय होता है और प्रत्येक व्यवसाय की अपनी-अपनी शब्दादली होती है, जो अन्य व्यवसाय की शब्दावली से भिन्न होती है। इसके अतिरिक्त एक सामान्य शब्दावली भी होती है, जिसका प्रयोग सभी करते हैं। इस शब्दावली की भिन्नता का भी सामान्य शब्दावली पर प्रभाव पड़ता है। परिस्थिति अथवा वातावरण, भाषायी सम्पर्क और ध्वन्यात्मक भिन्नता का भी उच्चारण पर प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति में किसी एक बोली- विशेषकर बुंदेली के समान विस्तृत क्षेत्र में व्यवहृत बोली कर सम्पूर्ण क्षेत्र में समान उच्चारण सम्भव नहीं हो सकता। रूप-साम्य तो सम्भव है, पर उच्चारण-साम्य सम्भव नहीं है। उच्चारण का प्रत्येक व्यक्ति का अपना ढंग होता है। विभिन्न क्षेत्र के एक ही भाषाभाषी व्यक्तियों की भी उच्चारण-प्रणाली भिन्न होती है। इतना ही नहीं, पर एक ही क्षेत्र तो क्या, पर एक ही परिवार के समस्त सदस्यों के उच्चारण में भी साम्प नहीं होता। स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, तरुण-वृद्ध सभी की उच्चारणविधि में कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य होती है।
इस ध्वनि-परिवर्तन के कुछ और भी कारण हैं। ये कारण दो प्रकारों में विभाजित किये जा सकते हैं-वाह्य कारण और आन्तरिक कारण। हमने ऊपर ‘परिस्थिति’ अथवा वातावरण के प्रभाव की बात कही है। वहाँ हमारा अभिप्राय राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक आदि वातावरण से ही है। ये ही उच्चारण अथवा ध्वनि-परिवर्तन के बाह्य कारण हैं। आन्तरिक कारण आदत, प्रयोग, अनुकरण की अपूर्णता, प्रवृत्ति, स्वराघात आदि से सम्बद्ध है। कुछ लोग ‘अलग’ का उच्चारण ‘अगल’ और ‘नीम’ का उच्चारण ‘लीम’ करते हैं। बुंदेली में यह प्रवृत्ति इस बोली के अनेक क्षेत्रों में परिलक्षित होती है। उच्चारण-भेद का विस्तृत विवेचन हमारा विषय नहीं है। हमारे कहने का तात्पर्य केवल यही है कि बुंदेली में कुछ शब्द ऐसे हैं, जो सर्वत्र समान रूप और समान उच्चारण के साथ व्यवहृत होते हैं, पर ऐसे शब्द भी अनेक है, जिनके विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न उच्चारण सुने जाते हैं। इस उच्चारण-भिन्नता के कारण इनके रूप में भी कुछ परिवर्तन हो गया है। इसे उनका स्थानीय वैशिष्ट्य ही कहा जा सकता है। इस सम्बन्ध में चार्ल्स ने लिखा है-
These basic standards are not sets of rules imposed by school masters, social leaders or dictionary-makers. They are the parts of the social contest of each linguistic area.[2]
बुंदेली के उच्चारण-वैशिष्ट्य के स्पष्टीकरण के लिये हम यहाँ ऐसे शब्दों की एक संक्षिप्त तालिका प्रस्तुत कर रहे हैं। इस तालिका में दो प्रकार के शब्द हैं। प्रथम, वे शब्द, जिनका रूप और उच्चारण पूर्ण बुंदेलीभाषी क्षेत्रों में समान है और द्वितीय, वे शब्द, जिनका उच्चारण विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार से किया जाता है।
- समान रूप में उच्चरित शब्द
निम्नांकित शब्द सम्पूर्ण बुंदेलीभाषी भाग में समान रूप से उच्चरित होते हैं-
अकरत, अगन, अगम, अठारा, अखाड़ो, अरघ, अमावस, अपनो, असीस, आग, आज, आदो, आँवरो, उजरो, उनरो, ऊन, ऊदम, एका, ककरा, ककरी, करम, फलेवो, काज, काल, कुपथ, खाट, खम्मा, गगरिया, गड्डों, गररिया, गिलास, घाव, घाम, चको, चकरी, चमरो, चीता, चूनो, चोच, छत्ता, छीक, जमाई, जादूगर, जूठो, झाल, शिन्नो, झीनो, झुमको, टकसाल, टकोरा, ठाकुर, ठप्पा, डमरू, डोरा, बीट, डोयो, तमेरो, तातो, तुरत, थन, दक्खन, दच्छना, दिजा, धनुस, घान, पुन, नाव, नाच, निहाई, नेम, नोन, पखेरू, पचरा, पराई, पाँव, पो, फन फटकरी, फारसी, फागुन, फुसकारवो, बच्छा, वरन, बींग, बेरा, बेल, भइया, मोर, मौत, माटी, मोल, मौसी, राई, रुदन, रुसनो, रोनो, लठ्ठ, लील, संघार, सांकर, साँच, सिगरो, हरदी, हिभी आदि।
2. उच्चारण-वैभित्र्य
बुंदेली एक सुविस्तृत क्षेत्र की बोली अथवा लोकभाषा है; जतः जैसा कि पूर्व कहा जा चुका है, इसमें उच्चारण वैभिन्य स्वाभाविक है। एक जिले में तो क्या, पर एक तहसील के क्षेत्र में भी एक शब्द के एकाधिक उच्चारण सुने जाते हैं। इसके शब्द-भण्डार की तरह उच्चारण-भेद की शब्दावली भी विशाल है। हम इतने विस्तार में न जाना चाहेंगे इसकी यहाँ आवश्यकता भी नहीं है। यहाँ हम इस प्रकार के शब्दों की जो तालिका दे रहे हैं, उसे उदाहरण स्वरूप ही समझा जाना चाहिये।
दो प्रकार से उच्चरित शब्द
अकेलो, एकलो | साप, साप | अदमी, आदमी |
अफसोस, अपसोस | अमर, अम्मर | अमली, इमली |
इंगूर, अंगूल | उपास, पोवास | ऊधम, ऊदम |
एतरी, इतनी | ऐनक, एनक | ओमें, ऊमें |
औतार, ओतार | अंगूठो, ऊठो | करी, (कड़ी) करही |
काहे, काए | केला, केरा | कौन कौन |
खरच, खच | खानदान, खनदान | खूब, खोब |
गवरमेंट, गबर्रमेंट | गोदना, गुदना | गोभी, गोबी |
चक्की, चकिया | चाकू, चक्कू | चिलम, चलम |
चोच, चोंक | चौक, चउक | छल्ला, छला |
छैला, छइला | जब, जौं | झगड़ा, झगरो |
झूठ, झूट | टमाटर, टिमाटर | ठंडा, ठंडो |
ठहर, ठैर | डंडा, डंडो | ढक्कन, ढकना |
तम्बू, तम्मू | तरबूज, तरबूजो | तीनों, तीनउँ |
दाल, दार | देबो, देनो | पतली, पतरी |
नरम, लरम | नीम, लीम | निंबू, लिंबू |
पायल, पाइल | पैसा, पइसा | पोंगा, पोंगो |
फुकट, फोकट | फंदा, फंदो | बदक, बतक |
बरफ, बरप | बाल, बार | बाबा, बब्बा |
बांगना, बांगनो | भड़कम, भरकम | भाग्य, भाग |
भाड़, भार | भुनसारे भिनसारे | भोंगा, भोगो |
मठा, मटठो | मृतकी, मुकती | मूसल, मूंसर |
मोगरा, मोंगरा | यात्रा, जत्रा | रामू, रमुवा |
लोटा, लुटवा | शरम, सरम | शीटी, सीटी |
सपना, सपनो | सवा, सबा | साथ, साँत |
साबुन, सावन | सावन, साबन | सौदागर, सौदागिर |
हथोड़ा, हतोड़ा | हाथ, हात | हाँ, हौ |
कुछ स्थान-निर्देशन
1. अमली – भिण्ड, मुरैना, सिवनी, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा, पश्चिमी और उत्तरी ग्वालियर।
इमली – शिवपुरी, गुना, पूर्वी ग्वालियर, सागर, दमोह, छतरपुर, पना, सिहोर, रायसेन, विदिशा, जबलपुर, नरसिहपुर, दतिया, टीकमगढ़, झाँसी।
- कढ़ी – हमीरपुर, जालीन, गुना, शिवपुरी, ग्वालियर, म. प्र. सागर, दमोह, विदिशा, रायसेन, सिवनी, छिंदवाड़ा, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, जबलपुर, सिहोर।
करही – भिंड, मुरैना, झाँसी, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, उत्तरी सागर, दतिया ।
- केला – जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, शिवपुरी, पन्ना, छतरपुर, सिहोर, रायसेन, विदिशा, जबलपुर, पूर्वी नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिवनी, छिंदवाड़ा
केरा – भिंड, मुरैना, गुना, झाँसी, टीकमगढ़, दतिया, सागर, दमोह, पश्चिमी नरसिंहपुर।
गोभी – भिंड, मुरेना गुना, शिवपुरी, ग्वालियर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिवनी, छिंदवाड़ा, उत्तरी जालोन, दतिया ।
गोबी – हमीरपुर, दक्षिणी जालोन, पन्ना, छतरपुर, सागर, दमोह, सिहोर, रायसेन, विदिशा, झाँसी, टीकमगढ़।
- टिमाटर – जालोन, हमीरपुर, झाँसी, दतिया।
टमाटर – शेष सब जिले।
- नरम – भिंड, मुरेना, गुना, शिवपुरी, ग्वालियर, म.प्र. हमीरपुर, झाँसी, सिहोर, रायसेन, विदिशा 10 सागर, प. नरसिंहपुर, पन्ना, सागर, होशंगाबाद, जबलपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा।
लरम – पूर्वोत्तर हमीरपुर, जालोन, टीकमगढ़, छतरपुर, दमोह, पूर्वी सागर तथा पूर्वी नरसिंहपुर ।
- बरफ – दक्षिण-पूर्व तथा दक्षिण पश्चिम सागर के अतिरिक्त सब जिले।
बरप – द.पू. तबाद. पश्चिम सागर जिला।
यात्रा – हमीरपुर, भिंड, मुरेना, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, झाँसी, छतरपुर, पन्ना, दिदिशा, सिहोर, रायसेन, पूर्वी सागर, दमोह, जबलपुर।
जत्रा – जालोन, पश्चिमी सागर, टीकमगढ़, दतिया, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, सिवनी, छिन्दवाड़ा।
9. साथ – हमीरपुर, जालोन, रायसेन, विदिशा, सिहोर, उत्तरी जबलपुर, सिवनी, होशंगाबाद, नरसिहपुर, भिण्ड, मुरैना, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, छतरपुर, पश्ना।
साँत – छिन्दवाड़ा, टीकमगढ़, सागर, दतिया, दमोह, झाँसी ।
10. हाथ – भिंड, मुरेना, जालोन, हमीरपुर, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना।
हाँत – शेष सब जिले ।
विश्लेषण
लोकभाषा-भाषी अपने द्वारा प्रयुक्त शब्दों का उच्चारण व्याकरण के अथवा ध्वनि विज्ञान के नियमों का ध्यान रखकर नहीं करते, वे अपने बोलने की सुविधा और सरलता की दृष्टि से ही शब्दों का उच्चारण करते हैं। इसी में उनकी भाषा (वास्तव में बोली) का स्वाभाविक रूप निखरता है। किसी मी बोली का स्वाभाविक और वास्तविक रूप अशिक्षित ग्रामीण स्त्री-पुरुषों की बोली में ही परिलक्षित होता है। उनका अपनी बोली में प्रयुक्त शब्दों के शुद्ध अथवा अशुद्ध रूपों से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता। शब्द अभिव्यक्ति के संकेत होते हैं, अतः वे उनके शुद्ध अथवा अशुद्ध स्वरूप की कोई परवाह न कर अपने ढंग से उनका उच्चारण करते हैं। यह ढंग सबका अपना-अपना होता है, इसीलिये ढंग की मिश्रता के कारण एक ही शब्द के उच्चारण में भी भिन्नता हो जाती है। बुंदेली में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका उच्चारण स्वरूप और अर्थ में समानता होते हुए भी विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार से उच्चरित होते हैं। ऐसे कई शब्द हैं, जिनका बोलने बाले आगे-पीछे अथवा मध्य में कोई मात्रा लगाकर अथवा मात्रा हटाकर भिन्न रूप में उच्चारण करते हैं। यथा- अदमी आदमी, औतार-ओतार, खानदान-खनदान, गोदना-गुदना, सौदागर-सौदागिर, चिलम-चलम, भुनसारे-भिनसारे आदि ।
बुंदेली कोमल प्रकृति बोली हैं। उसकी इस प्रकृति के अनुसार कठोर और कर्णकटु वर्ण इस बोली में कोमल करके उच्चरित होते हैं। ‘ड़’ के स्थान में ‘र’ तथा ‘ढ़’ के स्थान में ‘र् ह’ अथवा ‘र’ का प्रयोग उसकी इसी प्रकृति के प्रमाण हैं। यह वास्तव में महाप्राण का अल्प प्राणीकरण है। अफसोस अपसोस, ऊधम-ऊदम, झगड़ा-झगरो, भाड़-भार आदि भी इसी प्रकार के शब्द हैं, जो बुंदेलीभाषी प्रदेश के किसी क्षेत्र में प्रथम रूप में और किसी क्षेत्र में द्वितीय रूप में उच्चरित होते हैं।
हकार का लोप बुंदेली की विशिष्ट प्रवत्ति है। गोभी-गोबी, साथ-साँत, काहे-काए, झूठ-झूट, तम्बू-तम्मू, हथोड़ा-हतोड़ा आदि इसी प्रवृत्ति के सूचक है।
‘य’ के स्थान में ‘ज’ का प्रयोग ब्रज-बुंदेली की सामान्य प्रवृत्ति है। खड़ी बोली के प्रभाव से कहीं-कहीं ‘य’ भी उच्चरित होता है। यात्रा-जत्रा, यमुना-जमना, यथ-जव आदि इसके कुछ अन्य उदाहरण है।
तीन प्रकार से उच्चरित शब्द
अजब, अजीब, अजूबा उत्नीस, ओनाईस, उनाइस कुछ, कछू, कुछ खिड़की, खिरकी, खिरकिया गोहूँ, गहूँ, गऊँ छोटा, छोट, छोटो टोटका, टौटको, टोंको डुबोबो, डुबेबों, डुबाबो दावात, दाँत, दवात नमक, नोंन, नूंन निराई, निदाई, नींदा पत्तल, पतरी, पांतर पजामा, पाजामा, पैजामा प्यास, पियास, पेयास भूख, भूक, भूंक मथनी, मथानी, मथनिया रुपया, रुपिया, रुपैया लायक, लाइक, लाक लोमरी, लौखरी, लुखरिया व्यापारी, बेपारी, व्यौपारी हर, हर्रा, हड्डा हाथी, हाँती, हत्ती | इक्तर, एकात्तर, इलात्तर करहैया, करैया, करहिया सट्टा, खट्टो, खाटो गध, गदा, गदहा घुइया, घुंइयां, घुइयाँ जवान, ज्वान, जमान टोला, टुल्ला, टुलवा तुरन्त, तुरत, तुर्त दूल्हा, दूला, दुलहा निवार, निबार, निमार नोनी, नेनी, नेन पत्थर, फत्तर, पथरा पंचायत, पंचाइत, पंचात बराबर, बरोबर, बिरोबर मन्दिर, मन्दर, मंदिल रास्ता, रस्ता, रत्ता लड़का, लरका, लरक्वा लुहार, लोहार, लुबार वधू, बहू, बऊ सूपा, सूप, सूपो हमरो, हमारो, हमाओ हिरन, हिरना, हिन्ना |
स्थान-निर्देशन
- अजब – सागर, दमोह, नरसिंहपुर, टीकमगढ़, सिवनी, छिंदवाड़ा, रायसेन, विदिशा।
अजीव – होशंगाबाद, छतरपुर, पन्ना, सिहोर।
अजूबा – झाँसी, भिंड, मुरेमा, हमीरपुर, जबलपुर, जालोन, शिवपुरी, गुना।
- करहैया- भिंड, मुरेना, ग्वालियर, हमीरपुर, सागर, दमोह, शिवपुरी, गुना, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा, पत्रा, छतरपुर, सिहोर, विदिशा, रायसेन ।
करैया- झाँसी, दतिया, टीकमगढ़।
करहिया – द.दतिया, जालोन।
- गोहूँ – जालोन, हमीरपुर, द.सागर, दमोह, झाँसी, दतिया, पन्ना।
गहूँ – होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा, सिहोर, रायसेन, विदिशा, छतरपुर।
गऊँ – भिंड, मुरेना, ग्वालियर, प. सागर, शिवपुरी, टीकमगढ़
- गधा – उ. पू. हमीरपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा, होशंगाबाद।
गदा – सागर, दमोह, टीकमगढ़, द. झाँसी।
गदहा – जालोन, हमीरपुर, भिंड, मुरेना, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, दतिया, छतरपुर, पन्ना, प. म. हमीरपुर, विदिशा, सिहोर, रायसेन, नरसिंहपुर, जबलपुर।
- तुरन्त – भिंड, मुरेना, दतिया, सिहोर, होशंगाबाद, उ. नरसिंहपुर, उ.पं. जबलपुर।
तुरत – जालोन, हमीरपुर, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, टीकमगढ़, द.प. जबलपुर, पन्ना, द. नरसिंहपुर, रायसेन, विदिशा, सिवनी छिंदवाड़ा।
तुर्त – सागर, दमोह, झाँसी, छतरपुर, पन्ना।
- निराई – हमीरपुर, सिहोर, रायसेन विदिशा, होशंगाबाद।
निदाई – जालोन, हमीरपुर, भिंड, मुरेना, शिवपुरी, गुना, दतिया, झाँसी, सागर, दमोह, छतरपुर, प. पन्ना, टीकमगढ़, सिवनी, नरसिंहपुर, जबलपुर।
नींदा – पू. पन्ना, छिंदवाड़ा, रायसेन ।
- पाजामा – हमीरपुर, पन्ना, छतरपुर, प. नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह।
पजामा – जालोन, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, झाँसी, दतिया, टीकमगढ़, सिहोर, रायसेन, पू. नरसिंहपुर, सिवनी, छिन्दवाड़ा, सागर।
पैजामा – भिंड, मुरेना।
- प्यास – ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, दतिया, पन्ना, छतरपुर, होशंगाबाद, जबलपुर, सिवनी, छिदवाड़ा, सिहोर, रायसेन, विदिशा, दमोह।
पिआस – जालोन, हमीरपुर।
पेयास – झाँसी, भिंड, मुरेना, सागर, नरसिंहपुर।
- मन्दिर – जालोन, भिंड, मुरेना, ग्वालियर, टीकमगढ़, सिहोर, रायसेन, विदिशा, द. सागर, होशंगाबाद।
मन्दर – झाँसी, गुना, शिवपुरी, दतिया, छतरपुर, पं. पन्ना, उ. म. सागर, दमोह, नरसिंहपुर, सिवनी, जवलपुर।
मन्दिल – पू. पन्ना, हमीरपुर।
- लुहार – जालोन, हमीरपुर, भिंड, मुरेना, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, पन्ना, विदिशा, दमोह, नरसिंहपुर, जबलपुर, होशंगाबाद, सिवनी, छिंदवाड़ा, दतिया।
लोहार – सिहोर, रायसेन, जालोन, सागर।
लुआर – टीकमगढ़, झाँसी, छतरपुर ।
- व्यापारी – जालोन, ग्वालियर, दतिया, टीकमगढ़, सिहोर, होशंगाबाद, सिहपुर, जबलपुर सिवनी, छिंदवाड़ा ।
बेपारी – हमीरपुर, नरसिंहपुर, सागर, दमोह, दतिया, गुना, झाँसी, छतरपुर, पन्ना।
ब्यौपारी – विदिशा, रायसेन, नरसिंहपुर, भिंड, मुरेना, शिवपुरी, गुना।
- हिरन – हमीरपुर, गुना, शिषपुरी, पन्ना, छतरपुर, विदिशा, सिहोर, रायसेन, जबलपुर, सिवनी ।
हिरना – होशंगाबाद, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा।
हिन्ना- जालोन, भिंड, मुरेना, ग्वालियर, सागर, दमोह, झाँसी, टीकमगढ़, दतिया।
विश्लेषण
अजब, अजीब और अजूबा स्थानीय उच्चारण-प्रवृत्ति के द्योतक हैं। बुंदेली में ऐसे भी अनेक शब्द है, जो मूल शब्द में ‘इया’ प्रत्यय लगाकर अधिक कोमल अथवा लचीले बना लिये गये हैं। कढ़ाई करहैया खिड़की-खिरकिया, मथनी-मथनिया आदि ऐसे ही शब्द हैं।
बुंदेली और ब्रज में भी अनेक ऐसे संयुक्त शब्द प्रचलित है, जो खड़ी बोली-प्रभावित क्षेत्र में मूल रूप में उच्चरित होते हैं, पर अन्य क्षेत्रों में बोली की सरलीकरण की प्रवृत्ति के अनुसार उच्चरित होते है। ‘प्यास’ का ‘पिआस’ रूप इसी प्रकार का है, जो कुछ क्षेत्रों में ‘पेयास’ भी उच्चरित होता है। तदनुसार ‘प्यार’ शब्द का उच्चारण ‘पियार’ और पेयार, अथवा पेआर भी होता है।
‘तुरन्त’ का ‘तुरत’ उच्चारण भी सरलीकरण की प्रवृत्ति का द्योतक है, जो कहीं-कहीं ‘तुर्त’ भी उच्चारित होता है।
बुंदेली के अनेक शब्दों में मध्य ‘र’ उसके पश्चात के अन्तिम वर्ण में उस वर्ण का अर्ध रूप ग्रहण कर मिल जाता है। (समीकरण की प्रवृत्ति)। ‘हिरना’ का ‘हिन्ना’ झिरना का ‘झिन्ना’ आदि इसके उदाहरण हैं। हमीरपुर, गुना, शिवपुरी, पन्ना, छतरपुर आदि जिलों में ‘हिरन’ शब्द ही प्रचलित है, जो होशंगाबाद, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा में ‘हिरना’ और सागर, दमोह, भिंड, मुरेना, झाँसी, टीकमगढ़, दतिया आदि जिलों में ‘हिन्ना’ हो गया है।
चार प्रकार से उच्चरित शब्द
अटा, अटरिया, अटारी, अटाई
अपनी, पनी, अपईं, अंपई आय, आँय, ए, हे
इक्कीस, इकीस, इकाइस, इकेस उमर, उमीर, उमेर, उम्मर
ऊपर, उप्पर, ऊपरे, उप्रे-कन्हैया, कनैया, कंधैया, कंदैया
काना, कानो, कान्हो, कनवा-गगरी, गगरिया, गधरी, घघरी
गहरी, गैरी, गेरी, गयरी घबराहट, घब्राहट, घबराहट, घब्राट
छज्जा, छज्जी, छजिया, छज्जो छिपकली, छिपकुली, छपकली, छुपकुली
झगड़ा, झगड़ो, झगरा, झगरो-टपरा, टपरी, टप्पर, टपरिया
डुग्गा, डुगाई, डुगडुगी, डिग्गी-ढक्कन, ढँकना, ढकना, ढिकना
तारा, तारो, तरिया, तरैयाँ-थाली, थारी, थरिया, थाई
धोती, धुतिया, धुतिआ, धोतिया-नाव, नाँव, नावँ, नैया
नीबू, नींबू, निम्मू, लिंबू-पचत्तर, पछत्तर, पिछत्तर, पिचत्तर
परवल, परमल, परवल, परमर-पीला, पीलो, पीरो, पिवरो
पूर्णिमा, पुन्निमा, पूनों, पूनें बकस, बक्सा, बगस, बकसुवा
बटुवा, बटुआ, बहुइया, बटलई-बहू, बऊ, बउ, बहुरिया
भरना, भरनो, भरवो, भरनै, मका, मको, मकई, मकोई
मक्खी माखी, माछी, मौछी-माथा, माथो, मत्था, माथ
मूर्ख, मूरख, मुरुख, मुरखू-लड्डू, लाडू, लहुआ, लरुवा
रहट, रहेट, रहटा, रेंट-लम्बा, लम्मा, लम्बो, लम्मो
लानें, नानें, नान्हें, लांजे लड़की, लरकी, लड़किनी, लरकनी
– सच्ची, साँची, साँच, साँसी
हरा, हरिया, हरो, हरियार हथनी, हँथनी, हतनी, हँतनी
स्थान-निर्देशन
- अपनी- ग्वालियर, भिंड, मुरेना, गुना, शिवपुरी, विदिशा, सागर, दमोह, सिहोर, रायसेन, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी, छिन्दवाड़ा, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना।
पनी- जालौन, झाँसी।
अपई- हमीरपुर।
अंपई- शिवपुरी।
- कन्हैया- प. ग्वालियर, मध्य जालौन, दतिया, दक्षिण सागर, जबलपुर, पू. नरसिंहपुर, सिवनी, होशंगाबाद, छिन्दवाड़ा, सिहोर, रायसेन, विदिशा।
कंधैया- भिंड, मुरेना, पू. उ. ग्वालियर, जालौन, हमीरपुर।
कंदैया- दमोह, छतरपुर, मध्य नरसिंहपुर।
- गगरी- हमीरपुर, जालौन, दतियाँ, झाँसी, टीकमगढ़।
गगरिया- भिंड, मुरेना, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना
घगरी- दमोह, छिंदवाड़ा, होशंगाबाद, रायसेन, सीहोर, सागर, विदिशा।
गघरी- छतरपुर, पन्ना, नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी।
- गहरी – होशंगाबाद, रायसेन, नरसिंहपुर, जबलपुर, विदिशा।
गैरी- पन्ना, सागर, दमोह, दतिया, आँसी, छतरपुर। टीकमगढ़, मुरैना, भिंड, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, जालौन, हमीरपुर।
गेरी- सिहोर,
गयरी- सिवनी, छिंदवाड़ा।
- छिपकली – सिहोर, रायसेन, विदिशा, होशंगाबाद उ. सिवनी छिन्दवाड़ा।
छिपकुली- भिंड, मुरैना, हमीरपुर, जालौन, गुना, शिवपुरी झाँसी, दतिया सागर, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर ।
छपकुली- द.सिवनी।
छुपकली- पन्ना, छतरपुर।
- छज्जा- जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, टीकमगढ़, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, सीहोर, रायसेन, विदिशा, प.सागर, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिवनी, छिंदवाड़ा।
छज्जी- भिंड, मुरेना।
छज्जो – दतिया, झाँसी ।
छजिया- पू. सागर।
- तारा- पन्ना, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा।
तारो- सागर, दमोह, जबलपुर, पू.म. नरसिंहपुर, सिहोर, रायसेन, विदिशा, खालियर, भिंड, मुरेना, शिवपुरी, गुना।
तरिया- सिवनी, द. नरसिंहपुर।
तरैयां-हमीरपुर, जालौन, भिंड, मुरेना, झाँसी, दतिया, टीकमगढ़।
- पछत्तर- हमीरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर, छतरपुर, सिवनी।
पचत्तर- जालोन, सागर, पन्ना, रायसेन, होशंगाबाद।
पिछत्तर- सिहोर, विदिशा, छिंदवाड़ा ।
पिचत्तर- भिंड, मुरेना, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, दतिया।
- पूर्निमा (पूर्णिमा) – होशंगाबाद, सिवनी।
पुन्निमा-पन्ना, पू. छतरपुर, हमीरपुर ।
पूनें -झाँसी, दतिया, टीकमगढ़, प. छतरपुर, सागर, दमोह।
पूनों- ग्वालियर, उ. प. हमीरपुर, जालौन, भिंड, मुरैना, शिवपुरी, गुना, नरसिंहपुर, जबलपुर, सिहोर, रायसेन, विदिशा, छिंदवाड़ा।
- बहू- हमीरपुर दतिया, विदिशा, जबलपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा, होशगाबाद, शिवपुरी, गुना, पन्ना, छतरपुर।
बऊ- सिहोर, रायसेन, झाँसी, नरसिंहपुर, टीकमगढ़, जालौन ।
बउ- सागर, दमोह, जालौन ।
बहुरिया- भिंड, मुरेना, ग्वालियर।
- मक्खी-ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, छतरपुर, सिहोर, होशंगाबाद, विदिशा, उ. छिंदवाड़ा।
माछी- हमीरपुर, जालौन, पन्ना, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर, रायसेन, सिवनी, टीकमगढ़, झाँसी, सागर, दतिया।
माखी- द. छिंदवाड़ा।
मंखी- भिंड, मुरेना।
विश्लेषण
‘अपनी’ शब्द को विभिन्न बुंदेलीभाषी क्षेत्र में चार प्रकार के उच्चारण प्रचलित हैं। ग्वालियर, भिंड, मुरेना, गुना, शिवपुरी, विदिशा, सागर, दमोह आदि अनेक जिलों में यह शब्द मूल रूप में ही उच्चतिर होता है, किन्तु जालोन और झाँसी जिले में इस शब्द का आद्य वर्ण ‘अ’ उच्चरित नहीं होता। हमीरपुर जिले में इसके स्थान में ‘अपई’ (न’ का लोप) तथा शिवपुरी जिले के अधिकांश भाग में ‘अपई’ बोला जाता है। इसी प्रकार ‘अपना’ अथवा ‘अपनों’ क्रमशः ‘पनों’ और ‘अंपओं’ उच्चरित होता है। इसका बोलने वालों की प्रवृत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं जान पड़ता। ‘अपनी’ का ‘पनी’ और ‘अंपई’ उच्चारण में संक्षिप्तीकरण और सरलीकरण की प्रवृत्ति भी जान पड़ती है। इसी प्रकार ‘अपई’ के ‘अंपई’ उच्चारण में अनुस्वार-प्रयोग की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
बुंदेली के कुछ शब्द मूल शब्द ‘इया’ प्रत्यय लगाकर उच्चरित होते हैं। ‘गगरिया’ इसी प्रकार का शब्द है। इस प्रकार के अन्य शब्द अटरिया, डगरिया, मटकिया, लुटिया आदि हैं।
‘गहरी’ मूल शब्द से मध्य ‘ह’ का लोप होकर ‘गैरी’ हो गया है, जो कुछ स्थानों में ‘गेरी’ उच्चरित होता है। ‘गयरी ‘गैरी’ का विकीणित उच्चारण है। ‘बहू’ शब्द के विभिन्न उच्चारणों में भी यही बात है। बऊ और बढ़ में हकार का लोप है, जबकि ‘बहुरिया ‘इया’ प्रत्यय के योग से निमित है। यह वास्तव में ब्रजभाषा की प्रवृत्ति है, जो ब्रजभाषी क्षेत्र से संलग्न बुंदेली क्षेत्र में आ गई है।
पछत्तर-पचत्तर-पिछत्तर-पिवत्तर भी प्रवृत्ति-द्योतक ही उच्चारण हैं। इनमें से पचत्तर और पिचत्तर में अल्पप्राणीकरण है।
पाँच प्रकार से उच्चरित शब्द
अनाज, अनाँज, नाज, नौज, नार्ज-अमृत, अमरत, इमरित, इमरत अमित्तू
आगे, आंगें, आंगू, अगाड़ी, अंगाडी-आंगन, अंगन, अँगना, अँगने, अँगनिया
आँसू, जासू, अँसुजा, असुवा, अँसुवा-आगी, आग, अंगार, अँगरा, अँगरिया
इधर, इदर, इते, इतै, इनै-उधर, उदर, उते, उतै, उनै
कमीज, कमीच, कमीच, कमीज, कंमीच ककना, कंकन, कंगनो, कंगन, कँगनवा
कलेजा, करेजा, कलेजो, करेजवा-काला, कालो, कारो, कारे, कलुआ
कोई, कोऊ, कौनो, कौन्हों, कौनऊ- खंबा, खंभा, खंब, खम्मा, खाम- चम्मच, चम्मस, चमचौ, चमचा, चमचिया
जवाब, जुआव, ज्वाब, जुवाव, जोवाब-जाने लगी, जाम लगी, जाबे लगीं, जाँय लगी जाउन लगी।
तब, तबे, तबै, तो, तौ तालाब, तलाब, तला, तलवा ताल
तुम, तें, तै तू तू-दिवाल, दिवार, दिबाल, देवार, देवाल
नीचे, नैंचे, नींचैं, नीचू, नैंचे-प्रणाम, परनाम, पिरनाम, प्रनाम, पिरणाम
प्रदोश, प्रदोस, पिरवोस, प्रिदोस, परदोस-बकरी, बकरिया, बुकरी, बुकरिया, बौकरी
बहुत, भौत, भोत, बोत, बिलात ब्लाउज, ब्लाउस, बिलाज, बिलाउज, विलाउस
बिल्ली, बिल्लू, बिलाई, बिलारी, बिलइया भये, भे, ह्वँगये, होगये, हुएं
भिंडी, भिंडा, भिड्डा, भेड़ा, भेरा-मका, मक्का, मँका, मकई, मंक्का
महेरी, महेरो, मिहरो, मैरी, मैरी-भृदंग, मिरंधा, मदंग, मृदंग, मृदंगू, मिरदंगा
मूंड़, मूंड, मुड़ी, मुंडी, मूण लकड़ी, लकरी, लकरियां, नकरिया, लकइया
वहाँ, वाँ, ह्वाँ उहाँ, हुआँ – सबे, सबै, सिंगरी, सिगन्ति, सबई
सिनेमा, सनीमा, सनेमा, सिलमा सिलेमो – सीढ़ी, सीढ़, सिड्डी सिढि़या, सिरिया
स्थान-निर्देशन
- आगे-प. हमीरपुर, ग्वालियर, होशंगाबाद।
आँगें- म. पू. हमीरपुर, विदिशा, रायसेन, टीकमगढ़, दतिया, पन्ना, नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह, भिंड, मुरेना, छतरपुर।
अगाड़- जालोन ।
आँगू- पू. द. हमीरपुर, झाँसी, सागर, शिवपुरी, गुना।
अगाड़ी- छिंदवाड़ा, सिवनी।
- कमीज-शिवपुरी, दमोह, पन्ना, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर, छिंदवाड़ा
कमींच- जालौन, हमीरपुर, छतरपुर, उ. सागर, उ. प. रायसेन, सिवनी
कमीच- भिंड, मुरेना, झाँसी, टीकमगढ़, 10 सागर।
कमींच- द. सागर।
कमींज- ग्वालियर।
- कलेजा- छतरपुर, झाँसी, सिहोर, विदिशा, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा।
कलेजो- शिवपुरी, गुना, द. ग्वालियर, द. जबलपुर, टीकमगढ़।
करेजो- पू. ग्वालियर, दतिया, सागर, रायसेन, सिवनी।
करेजा- भिंड, मुरेना, प. ग्वालियर।
करेजवा- हमीरपुर, जालौन, पन्ना, दमोह, उ. जबलपुर।
- खम्बा- प. ग्वालियर, झाँसी, दतिया, शिवपुरी, टीकमगढ़।
खम्मा- हमीरपुर, जालौन, पू. ग्वालियर, छत्तरपुर, पन्ना, सागर, नरसिंहपुर, प. रायसेन।
खाम- भिंड, मुरेना।
खम्मा- उ. सिवनी, प. छिंदवाड़ा।
खम्ब- द. सिवनी, पू. उ. छिंदवाड़ा, होशंगाबाद।
5 . जवाव- द. हमीरपुर, जबलपुर।
जुआब- दतिया, छिंदवाड़ा, भिण्ड, मुरैना, शिवपुरी, गुना, ग्वालियर, झाँसी, जालोन ।
ज्वाव- म. प. हमीरपुर, विदिशा, टीकमगढ़, सागर, दमोह।
जोवाब- रायसेन, सिहोर।
जुवाब- होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी, पन्ना, छतरपुर।
तला- प. हमीरपुर, जालोन, रायसेन, टीकमगढ़, दतिया, द. म. झाँसी, द. म. सागर, पू. नरसिंहपुर ग्वालियर, शिवपुरी, गुना।
तलवा- पू. हमीरपुर, उ. जबलपुर, दमोह।
तलाव-विदिशा, सिहोर, उ. सागर, प. नरसिंहपुर ।
तालाब- होशंगाबाद, छिंदवाड़ा।
ताल- प.द. जबलपुर, सिवनी, दतिया, उ. झाँसी, भिंड, मुरेना।
- तुम- पू. हमीरपुर, रायसेन, दतिया, सागर, नरसिंहपुर, शिवपुरी, गुना।
तें- जालौन, प. हमीरपुर, टीकमगढ़, झाँसी, पन्ना, छतरपुर।
तैं- द. हमीरपुर, उ. जबलपुर, ग्वालियर।
तूँ- उ. विदिशा, 50 जबलपुर।
तू- द.प. विदिशा, होशंगाबाद, सिहोर, छिंदवाड़ा, सिवनी, दमोह, भिंड, मुरेना।
- दिवाल-दतिया, टीकमगढ़, पू. ग्वालियर, पन्ना, रायसेन, प. नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी।
दिवाल-शिवपुरी, गुना, विदिशा, सागर, दमोह।
दिवार-प. ग्वालियर, भिंड, मुरेना, झाँसी, द.पू. हमीरपुर, सिहोर, होशंगाबाद, पू. नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा।
देवार-उ. प. हमीरपुर, रायसेन ।
देबाल- छतरपुर।
- नीचे-भिंड, मुरेना, शिवपुरी, ग्वालियर, सिहोर, प. रायसेन, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा।
नीचे- झाँसी, टीकमगढ़, गुना, द. पू. सागर, दमोह, पू. नरसिंहपुर, उ. जबलपुर, पन्ना।
नीचे- म. प. सागर, प. नरसिंहपुर, हमीरपुर, जालौन, द.पू. जबलपुर, सिवनी।
नैचें- छतरपुर, दतिया।
नीचूँ- पू. रायसेन, विदिशा।
- भये- प. हमीरपुर, दतिया, होशंगाबाद, उ. रायसेन, छिंदवाड़ा, सिवनी, जबलपुर, नरसिंहपुर, दमोह।
भे- प. हमीरपुर।
ह्वै गये- द. हमीरपुर।
हुएँ- विदिशा।
हो गये- द. म. रायसेन, सिहोर, टीकमगढ़, सागर।
- मूंड़- हमीरपुर, जालौन, उ. म. झाँसी, उ. रायसेन, विदिशा, नरसिंहपुर, जबलपुर, प. दमोह, सागर।
मूंड- दतिया, सिवनी, छिंदवाड़ा
मुड़ी- द. झाँसी, द. रायसेन।
मुंडी-टीकमगढ़, पन्ना, पू. दमोह।
मूण- म. पू. छिंदवाड़ा।
- वहाँ- विदिशा, होशंगाबाद, द.प. झाँसी, नरसिंहपुर, ग्वालियर, सिहोर।
ह् वाँ- हमीरपुर, जालौन, सागर, दमोह, भिंड, मुरेना, टीकमगढ़।
माँ-रायसेन, दतिया, उ. पू. झाँसी।
उहाँ – उ. छतरपुर, पन्ना, शिवपुरी, गुना, पू. सिवनी, द. जबलपुर।
हुँआँ- छिंदवाड़ा, उ. जबलपुर, प. सिवनी।
विश्लेषण
‘आगे’ शब्द के जो पाँच प्रकार के उच्चारण बतलाये गये हैं, उनमें से ‘अगांड़’ और ‘अगाड़ी’ रूपों का प्रयोग विशेष रूप से मालवी और निमाड़ी प्रभावित क्षेत्री में ही होता है। बुंदेलीभाषी प्रदेश के सिवनी और छिंदवाड़ा जिले में वे रूप प्रचलित हैं, जो मालवी-प्रभावित जिले हैं। इन जिलों में मालवी-भाषी एक बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। इन्हीं के सम्पर्क से ये शब्द बुंदेली में आये जान पड़ते हैं। ‘आंगे’ और ‘आँगू’ उच्चारण बुंदेली की अनुस्वार-बहुलता के घोतक है।
बुंदेली के अनेक शब्दों में ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ का प्रयोग होता है। कलेजा’ का ‘कालेजों’ उच्चारण तो पश्चिमी हिन्दी की अधिकांश बोलियों के आकारान्त शब्दों के ओकारान्त उच्चरित होने के वैशिष्ट्य का द्योतक है, पर करेजा और करेजो ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ का प्रयोग करने की प्रवृत्ति का ही सूचक है। ‘करेजवा’ उच्चारण पर बघेली का प्रभाव है। बघेली क्षेत्र से संलमन हमीरपुर, पत्रा, दमोह और उत्तर तथा पूर्वी जबलपुर जिले में ही यह उच्चारण प्रचलित है।
तू अथवा तुम के दर्शित रूप बुंदेली के अपने हैं। इनमें से ‘तू’ अथवा ‘तुम’ का प्रयोग खड़ी बोली में भी प्रचलित है। बुंदेलीभाषी प्रदेश के खड़ी-बोली-प्रभावित क्षेत्र में ही इनका प्रयोग होता है। तें, तैं, तूं रूप बुंदेली की सानुनिकता के द्योतक हैं।
‘जवाब’ शब्द खड़ीबोली-प्रभावित क्षेत्र पू. हमीरपुर तथा दक्षिण जबलपुर में ही प्रचलित है। सर्वाधिक बुंदेलीभाषी क्षेत्र में ‘जुआब’ और ‘ज्वाब’ ही प्रचलित हैं। रायसेन और सिहोर जिले में ‘जोजाब’ उच्चरित है। ‘जवाब’ के ये विभिन्न उच्चारण क्षेत्रीय प्रवृत्ति के ही द्योतक हैं।
‘वहाँ’ शब्द (भा.वि. क्र. 20) के विभिन्न उच्चारण भी बोलने वालों की क्षेत्रीय प्रवृत्ति के ही द्योतक है। ‘ह्वाँ’ के स्थान में हुकार का लोप करके ‘वाँ’ भी बोला जाता है। ‘भाँ’ का प्रयोग कुछ विचित्र-सा लगता है, जिसे रायसेन, दतिया और झाँसी के कुछ भाग का उच्चारण विषयक एक स्थानीय वैशिष्ट्य ही कहा जा सकता है। ‘उहाँ’ और ‘हुआँ’ पर मालवी का प्रभाव है।
छः प्रकार से उच्चरित शब्द
अँगुली, उँगली, उँगरी, उँमरिया, अँगली, अँगुरिया।
अलमारी, अलमाँरी, आलमारी, अलमोरी, अलँमारी, इलमारी।
इलायची, इलाइची, लायची, लाइची, इलाची लाची।
करछिली, करछुली, करछली, करछी, करछुल, करचिली।
कुमढ़ा, कुमरा, कुम्हरा, कुम्हरो, कद्दू, कोहरा।
कुरिया, कुरीये, कुरियो, कुरी, कुरीजा, कुरउवा।
गया, गओ, गो, गऔ, गयो, गा।
ग्राहक, गिराहक, गिराक, नाक, गाहक, गराहक ।
चूल्हो, चूलो, चूले, चूला, चूल्हा, चुलवा।
ज्वार, ज्याँर, जॉदौर, जुनरी, जुनारी, जुदी।
जहाँ, जाँ, झाँ, झीं, जहा, जाहाँ।
धोखा, धोखो, धोका, धोको, ध्वाखा, ध्वाखो।
दूना, दूनो, दुगना, दुगनो, दूनों, दूंना।
भुट्टा, भटा, भटिया, भुंटो, भुट्टिया, भुंटिया।
मुँह, मोंह, मूँ, मौं, मों, मुंढो ।
लहसन, लसून, लसन, लेसुन, लैसन, लस्सन।
वह, वे, वौ, वा, वू, ऊ।
ब्याह, व्याव, व्याव, बिहाव, बिआव, बियावँ।
शहर, सहर, सहिर, सिहर, सैर, शिहर।
सफ़ेद, सपेदा, सपेद, सुपेत, सुपेद, सुफेद ।
साँझ, साँज, संझा, संजा, साम, शाम ।
सीधा, सीधो, सूधो, सीदों, सूदो, सूदरो।
हृदय, हिरदय, हिरदा, हिरयो, हिद्दो, हिवड़ा।
स्थान-निर्देशन
- करछुली-भिंड, मुरेना, जालौन, हमीरपुर ।
करछिली-सागर, दमोह, गुना, उ. प. रायसेन, सिवनी।
करछुली-ग्वालियर, द.पू. रायसेन, प. नरसिंहपुर, जबलपुर।
करछी-छिंदवाड़ा, होशंगाबाद, पू. नरसिंहपुर।
करछुल-शिवपुरी, विदिशा, सिहोर, टीकमगढ़, पन्ना, छतरपुर।
करचिली-झाँसी, दतिया।
- कुमढ़ा- प. हमीरपुर, पू. ग्वालियर, छिंदवाड़ा, सिवनी।
कुम्हरा- द. सागर, विदिशा, रायसेन ।
कुँभरा-उ.सागर, दमोह, पन्ना, छतरपुर ।
कुम्हरी-जालौन, प. ग्वालियर, भिंड, मुरैना, दतिया ।
कोहर – उ. जबलपुर, पू. हमीरपुर।
कद्द- शेष जिले।
- चूल्हा- प. ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, प. आलौन, उ. हमीरपुर, सिहोर, पू. रायसेन, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा ।
चूल्हो- द.जालौन, म. द. हमीरपुर, द. सागर, सिधनी, नरसिंहपुर, प. रायसेन, विदिशा।
चूलो- उ. सागर, दमोह, भिंड, मुरेना, जबलपुर, प.पन्ना, छतरपुर, झाँसी।
चूले- द. टीकमगढ़।
चूला- म. पू. ग्वालियर, उ. टीकमगढ़।
चुलया- पू. उ. पन्ना।
- ज्वार- भिंड, मुरेना, शिवपूरी, ग्वालियर, सिवनी।
ज्वार- हमीरपुर, गुना, उ. सागर, दमोह, जबलपुर, सिहोर, रायसेन, विदिशा, होशंगाबाद, प. नरसिंहपुर, छिदवाड़।
जौवाँर- द. झाँसी, पू. सागर, पू. नरसिंहपुर ।
जुनरी- जालौन ।
जुनारी- उ. झाँसी ।
जुन्दी-पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया ।
- वह- विदिशा, होशंगाबाद, प. नरसिंहपुर ।
वौ- सिहोर, रायसेन, सिवनी, छिंदवाड़ा, जबलपुर, नरसिंहपुर, प. सागर, शिवपुरी ।
बौ – जालौन, हमीरपुर, झाँसी, पन्ना, भिंड, मुरेना ।
ऊ- दमोह, पू. सागर, उ. ग्वालियर, गुना।
बू- म. द. ग्वालियर।
बो-दतिया, छतरपुर, टीकमगढ़।
- ब्याह- नरसिंहपुर, जबलपुर, भिंड, मुरेना, ग्वालियर, दतिया।
ब्याव- जालोन, उ. हमीरपुर, पन्ना, सिवनी, होशंगाबाद, सिहोर, रायसेन, विदिशा, झाँसी, टीकमगढ़, छतरपुर।
व्याव- द. हमीरपुर।
बिहाव- छिंदवाड़ा, उ. प. सागर, दमोह।
बिआव-गुना, शिवपुरी ।
बियाँव – द. सागर।
- शहर – उ. हमीरपुर, दतिया, विदिशा, उ. रायसेन, छिंदवाड़ा, सिवनी, जबलपुर, पू. नरसिंहपुर, द. म. सागर, दमोह।
सहर – द. हमीरपुर, प. नरसिंहपुर, द. रायसेन ।
सिहर – जालौन ।
सहिर- पूर्वोत्तर हमीरपुर।
सैर- सिहोर, झाँसी, छतरपुर, टीकमगढ़।
शिहिर – उ. सागर ।
- सफेद – ग्वालियर, दतिया, सिहोर, रायसेन, विदिशा, होशंगाबाद, प. नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा।
सुफेद – भिण्ड, मुरेना, शिवपुरी।
सपेत – छतरपुर, द. सागर।
सपेद – म. सागर, दमोह, झाँसी, गुना।
सुपेद- द. म. हमीरपुर ।
सुपेत – उ. हमीरपुर, जालोन, पन्ना, उ. सागर, पू. नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा।
- सीधा – भिंड, मुरेना, ग्वालियर, शिवपुरी, विदिशा, सिहोर, रायसेन।
सीधो – उ. झाँसी, पू- हमीरपुर, छतरपुर, छिंदवाड़ा
सूधो – प.द. हमीरपुर
सूदो – दतिया, टीकमगढ़, सिवनी, जबलपुर।
सीदो – गुना, द. झाँसी, पू. म. सागर, दमोह, नरसिंहपुर, होशंगाबाद।
सूदरो – जालोन, पन्ना, द.प. सागर।
विश्लेषण
बुंदेलीभाषी प्रदेश में ‘करछुली’ शब्द के छः उच्चारण प्रचलित हैं- करछुली, करछिली, करेछुली, करछी, करछुल और करचिली। इनमें से प्रथम तीन उच्चारणों में केवल मात्रा भेद है। एक ही शब्द उसकी भाषाओं के स्थान परिवर्तन के साथ विभिन्न क्षेत्रों में उच्चरित होता है। ‘करछुल’ शब्द भी इसी प्रकार का है। ‘करछी’ संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति का द्योतक है। ‘करचिली’, ‘करछिली’ के ‘छ’ का हकार लुप्त कर उच्चरित है। यह प्रवृत्ति झाँसी और दतिया जिले में विशेष संप से परिलक्षित होती है।
बुंदेलीभाषी अधिकांश क्षेत्रों में ‘व’ का उच्चारण ‘ब’ होता है; इसीलिये ‘वौ’ ‘बौ’ उच्चरित है। इसी प्रकार ‘ऊ’ (वू) का उच्चारण भी ‘बू’ हो गया है। ‘बो’ भी ‘वो’ का ही रूपान्तर है।
‘ज्वार’ शब्द खड़ी बोली का है, जो बड़ी बोली-प्रभावित बुंदेलीभाषी प्रदेश में भी प्रचलित है। ज्वार, जोंवार, जुनरी, जुनारी और जुन्दी इसी के विभिन्न क्षेत्रीय उच्चारण हैं। हमीरपुर, गुना, उ. सागर, दमोह, जबलपुर, सिहोर, रायसेन आदि अनेक जिलों में ‘ज्वार’ अनुस्वरित कर ‘ज्वाँर’ बोला जाता है। द. झाँसी, द. सागर और पू. नरसिंहपुर में इस शब्द का सरलीकरण कर ‘जोवाँर’ उच्चरित होता है। केवल जालोन जिले के अधिकांश भाग में ‘जुनरी’ बोली जाती है, जो उ. झाँसी में ‘जुनारी’ हो गया है। पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़ और दतिया में ‘ज्वार’ और ‘जुनरी’ से भिन्न शब्द ‘जुन्दी’ प्रचलित है।
बुंदेलीभाषी कहीं ‘व’ के स्थान में ‘ब’ और कहीं इसके विपरीत ब के स्थान में व का प्रयोग करते हैं, जैसा कि हम ब्याह, ब्याव और व्याव शब्दों में देखते हैं। ‘बिहाव’ व्याह’ का सरल रूप है। ‘बिआव’ में ‘बिहाव’ के मध्य वर्ण से हकार लुप्त हो गया है। ‘बियाँव’ ‘ब्याव’ का सरलीकरण अनुस्वार-युक्त रूप है।
‘सीधा’ शब्द के जो छः उच्चारण बतलाये गये हैं, उनमें से प्रथम खड़ीबोली-प्रभावित उच्चारण है। बुंदेली में अधिकांश आकारान्त शब्द ओकारान्त उच्चरित होते हैं, तदनुसार ‘सीधा’ शब्द ओकारान्त होकर ‘सीधो’ उच्चरित हुआ है। किन्तु बुंदेली के अनेक शब्द हकार-मुक्त होकर अल्पप्राणिक उच्चरित होते हैं। इस प्रवृत्ति के अनुसार ‘सूधो’ ‘सूधो’ और ‘सीधो’ ‘सीदो’ हो गया है। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले तथा सागर के पश्चिमी भाग में यह ‘सूदो’ शब्द ‘सूदरो’ उच्चरित होता है।
सात प्रकार से उच्चरित शब्द
उर्द, उर्दा, उरद, उरदा, उद्दा, उरदन, उरदो।
ऊखल, उक्खल, उखली, ओखली, उखरी, ओखरी, उखरिया।
करधनी, करोधनी, कन्धेनी, करधेनी, कद्धनी, करदोनीं, करधना।
कहीं, कहे, कहो, कहा, कई, कए, कओ।
कहाँ, काँ, काआँ, कांहाँ, केहार, कितें, कितैं।
क्यों, काहे, काए, काएँ, कहे, काय, क्युं।
गर्दन, गरदरा, गरदनिया, गला, गलो, गदो, गद्दन ।
चबूतरा, चौतरा, चोत्रा, चौत्रा, चहोतरा, चोतरा, चौरा।
चिरपिरा, चिरपिरो, चिरपिरा, चिरपरो, चिरप्रो, चिरपिर, चिपरो।
जहाँ, जाँ, जाहाँ, जाउँ, जेहार, जिते, जितैं।
जामुन, जाँमुन, जामन, जमनी, जँमुनी, जमुन, जाँमूं।
ढोलक, ढोलकी, ढुलकिया, ढुलकी, ढोरक, ढोरकी, ढुरकिया।
दोपहर, दुपहर, दुपहरिया, दुफेर, दुपेर, दुफरिया, दुपरिया।
परवाह, परबाह, परबा, परवा, परवाय, परबाय, परबाये।
मेरे, मेरो, मोरे, मोर, मोए, मोई।
ससुराल, ससराल, ससुरार, ससरार, सुसराल, सुसरार, सासरो।
स्थान-निर्देशन
- ऊखल – द. सागर, प. होशंगाबाद।
उक्खल – सिवनी, छिंदवाड़ा।
उखली – पू. हमीरपुर, पू. पन्ना, पू. छतरपुर।
ओखली- ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, भिंड, मुरेना।
उखरी – जालोन, प. हमीरपुर, झाँसी, प. पन्ना, प. छतरपुर, सिहोर, रायसेन, उ. म. सागर, नरसिंहपुर, जबलपुर।
ओखरी – दतिया, टीकमगढ़।
उखरिया – सागर, दमोह, पू. नरसिंहपुर, पू. होशंगाबाद।
- क्यों – सिहोर, पू. उ. ग्वालियर।
काहे – प. हमीरपुर, जबलपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा।
काए – जालोन, होशंगाबाद ।
काएँ – पू. हमीरपुर, जालोन, रायसेन, टीकमगढ़, प. दतिया, छिंदवाड़ा, नरसिंहपुर, द.पू. सागर, दमोह।
कहे -द. हमीरपुर ।
काय – विदिशा, पू. दतिया, झाँसी, उ. सागर ।
क्युं – शिवपुरी, गुना, द. ग्वालियर ।
- करधनी – प. ग्वालियर, शिवपुरी, गुना ।
करोधनी- भिण्ड ।
कन्धेनी – उ. प. हमीरपुर।
करधेनी – उ. पू. ग्वालियर, द. हमीरपुर, झाँसी, छतरपुर, दतिया, प. पन्ना, सिहोर, रायसेन, विदिशा, सागर, दमोह, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा ।
कध्धनी – मुरेना।
करदोनी – जालोन, टीकमगढ़।
करधना – पू. हमीरपुर, पू. पन्ना।
- गर्दन- सिवनी, पू. छिंदवाड़ा, द. म. जबलपुर।
गरदन- उ. जबलपुर, उ. होशंगाबाद, नरसिंहपुर।
गरदनिया- भिंड, जालोन, हमीरपुर, पू. द. ग्वालियर।
गला- प. छिंदवाड़ा, द. होशंगाबाद।
गलो – रायसेन, सिहोर, विदिशा, पू. जबलपुर, शिवपुरी, गुना।
गरो – सागर, दमोह, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, झाँसी ।
गद्दन – मुरेना, उ. ग्वालियर।
- ढोलक – ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, विदिशा, रायसेन, सिहोर।
ढोलकी – पू. सिवनी, पू. छिंदवाड़ा।
ढुलकिया – हमीरपुर, जालोन, झाँसी, दतिया, टीकमगढ़।
ढुलकी- प. सिवनी, प. छिंदवाड़ा।
ढोरक – सागर, दमोह, नरसिंहपुर।
ढुरकिया – सागर, दमोह, जबलपुर, छतरपुर, पन्ना।
ढोरकी – उ. छिंदवाड़ा, उ. सिवनी।
- दोपहर – होशंगाबाद, सिहोर, रायसेन, विदिशा।
दुपहर – द. सागर, पू. दमोह, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना।
दुपहरिया – झाँसी, जालौन, हमीरपुर।
दुफेर – सिवनी, छिंदवाड़ा।
दुपेर – छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़।
दुफरिया – उ. प. सागर, प. दमोह, उ. म. छतरपुर, जबलपुर।
दुपरिया – भिंड, मुरेना, दतिया।
- ससुराल प. ग्वालियर, उ. पू. हमीरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, शिवपुरी, प.उ. सागर, होशंगाबाद, प. नरसिंहपुर, उ. सिवनी, पू. छिंदवाड़ा।
ससराल – छतरपुर।
ससुरार – जालोन, प. हमीरपुर, भिंड, मुरेना।
ससरार – पू. ग्वालियर, पू. सागर, प. दमोह, जबलपुर।
सुसराल – द. सिवनी, प. छिंदवाड़ा, सिहोर।
सुसरार – द. झाँसी, दतिया, गुना, पू. म. सागर, पू. नरसिंहपुर, म. सिवनी।
सासरो – उ. झाँसी, पू. दमोह, रायसेन, विदिशा।
विश्लेषण
करधनी, करोंधनी, करधेनी और करधन के उच्चारणों में मात्रा-स्थान-परिवर्तन की ही प्रवृत्ति है और ‘कन्धेनी’ में मध्य ‘र’ का लोप हो गया है। इसी प्रवृत्ति के अनुसार ब्रज-कन्नौजी-प्रभावित क्षेत्र भिंड और मुरैना में ‘करदनी’ का ‘करधनी’ उच्चारण होता है। ‘करदोनी’ शब्द में हकार के लोप की प्रवृत्ति वर्तमान है।
‘गर्दन’ खड़ी बोली का शब्द है, जो खड़ी बोली-प्रभावित क्षेत्र सिवनी, पू. छिंदवाड़ा और द. म. जबलपुर जिले में यथावत् प्रचलित है। ‘गरदन’ इसी का सरल रूप है। ‘गरदन’ में ‘इया’ प्रत्यय के योग से ‘गरवनिया’ शब्द बना है, जो ब्रज और कन्नौजी का प्रभाव लेकर बुंदेलीभाषी क्षेत्र के भिंड, जालोन, हमीरपुर और पू. द. ग्वालियर जिले में उच्चरित मिलता है। ‘गला’ ‘गर्दन’ से ही विकसित शब्द है, जो खड़ी बोली में भी श्रवणगत होता है। ‘गला’ और इसका ओकारान्त रूप ‘गलों’, भी विशेष रूप से मालवी-प्रभावित क्षेत्र मेंही सुना जाता है। बुंदेली-भाषी क्षेत्र के प. छिन्दवाड़ा, द.प. होशंगाबाद, रायसेन, सिहोर, विदिशा, शिवपुरी, गुना आदि की बुंदेली पर एक सीमा तक मालवी बोली का प्रभाव है। अतः ये शब्द-रूप इन्हीं जिलों में उच्चरित होते हैं। बुंदेली की अन्त्य ‘ल’ के स्वान में ‘र’ के प्रयोग की प्रवृत्ति के कारण सागर, दमोह, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दलिया और झाँसी जिले के अधिकांश भाग में ‘गलो’ का उच्चारण ‘गरी’ देखा जाता है। मुरैना और उ. ग्वालियर क्षेत्र में प्रचलित ‘गद्दन’ ‘गरदन’ शब्द का रूप है। इस क्षेत्र में पाब्द-मध्य ‘र’ उसके पपचात् के व्यञ्जन को अर्ध रूप में परिवर्तित हो मिल जाता है। करघनी-कद्धनी, करनो-को, घरम-बम्म आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
‘दोपहर’ के विभिन्न उदाहरणों में हकार की लोप की प्रवृत्ति होने के साथ ही मात्रा स्थान-परिवर्तन की प्रवृत्ति भी वर्तमान है। दुपहरिया, दुफरिया और दुपरिया शब्द ‘इया’ प्रत्यय से युक्त है।
- ‘ससुराल’ के विभिन्न उच्चारणों में हमें तीन प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम, मात्रा स्थान-परिवर्तन, यथा-ससुराल तथा सुसराल। द्वितीय, ‘ल’ के स्थान में ‘र’ का प्रयोग, यथा-ससुरार, ससरार, और सुसरार। तृतीय आकारान्त का ओकारान्त उच्चारण, यथा-सासरी।
आठ प्रकार से उच्चरित शब्द
ऊके, ओखे, उसके, वाके, ओके, ऊबे, ऊँसे, ओथे।
कैथा, केथा, केंथा, केंता, केथ, केंथ, केंत, केत ।
गहरा, गहरी, गेहरी, गेरो, गयरो, गहिरा, गारो, गहिर।
चलनीं, चलनी, चालनी, चाल्नीं, चल्ली, चल्लीं, चन्त्री, छत्री।
जवान, जबान, जोआन, जुआन, जोंआन, ज्वान, जामाँन, जेंवाँन।
बबूल, बबूर, बँबूर, बबूरा, बँभूर, बँमूल, बँभूरा, बभँरो।
बाहेरी, बाह्यरी, बुहारी, बेहारी, बारा, बेरा, बेहरा, बहेरा।
बूढ़ौं, बूढ़ो, बुढ़, बुड्ढा, बुड्ढो, बुढ़उ, बूरहो, बुड़हो।
विवाहिता, ब्याहता, व्यावत्ता, विवाहता, विबाहता, वियाहता, बिहाअता, बैहाता।
शायद, सायद, सायत, साइद, सियात, सेवात, स्याद।
थे, हते, हथे, ते, एँ, रहें, रहे, रये।
स्थान-निर्देशन
- उसके – प. विदिशा, द. रायसेन ।
ऊके – प. हमीरपुर, जालोन, उ. म. रायसेन, झाँसी, टीकमगढ़, पन्ना, उ. सागर, पू. दमोह, छतरपुर।
ऊखे- सिवनी, पू. छिंदवाड़ा, ग्वालियर, शिवपुरी, मुरेना, भिंड, गुना।
ओखे- पू. हमीरपुर।
बाके – पू. विदिशा, होशंगाबाद, दतिया, नरसिंहपुर, सिहोर।
ओके – प. छिंदवाड़ा, उ. जबलपुर।
ऊखों- ग. पू. सागर, प. दमोह।
ओथे – द. म. हमीरपुर।
- जवान – प. ग्वालियर, विदिशा, छतरपुर, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा।
जबान – पू. ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, झाँसी, प. नरसिंहपुर, सिवनी।
जोआन- उ. सागर, दमोह।
जुआन – टीकमगढ़, दतिया।
जोआन – हमीरपुर, द. सागर, प.उ. रायसेन, पू. नरसिंहपुर, सिहोर।
ज्वान- भिंड, मुरेना, द. म. रायसेन, जबलपुर।
जमांन – पन्ना।
जेंवाँन – जालोन ।
- बाहरी – प. छिंदवाड़ा।
बाह्यरी- पू. छिंदवाड़ा, सिवनी।
बुहारी – प. होशंगाबाद, उ. सागर, सिहोर, विदिशा।
बेहरो- प. रायसेन, प. नरसिंहपुर, जबलपुर।
बारा – टीकमगढ़, झाँसी।
बेरा – म. ग्वालियर, गुना।
बहेरा – प. ग्वालियर, जालोन ।
बेहरा – भिंड, मुरैना, शिवपुरी, हमीरपुर, दतिया, द.सागर, दमोह, पू. रायसेन, पू. नरसिंहपुर, पू. होशंगाबाद, पन्ना, छतरपुर।
- शायद – पू. ग्वालियर, प. छिंदवाड़ा।
सायद – द. सागर, नरसिंहपुर, उ. प. झाँसी।
सायत- द. पू. झाँसी।
साइद – प. ग्वालियर, हमीरपुर, छतरपुर, उ. म. सागर, दमोह, विदिशा, रायसेन, सिहोर, होशंगाबाद, जवलपुर, सिवनी, पू. छिंदवाड़ा, शिवपुरी, गुना।
स्याएत – द. जालोन ।
सेयात – भिंड, मुरेना, दतिया।
सियात – उ. जालोन, पन्ना, टीकमगढ़।
स्याद – उ.प. झाँसी।
- थे – विदिशा, सिहोर, रायसेन, प. नरसिंहपुर।
हते – छतरपुर, प. हमीरपुर, जालोन, प. पन्ना, द. रायसेन, प. नरसिंहपुर, दतिया, झाँसी, सिवनी, छिंदवाड़ा, द. म. जबलपुर, सागर, दमोह, शिवपुरी, प.म. होशंगाबाद।
रहें – पू. द. हमीरपुर।
हथे- पू. होशंगाबाद।
रये – टीकमगढ़।
रहे – उ. जबलपुर, पू. पन्ना।
ते – गुना।
एं – भिंड, मुरेना
विश्लेषण
ऊपर उन शब्दों का निर्देशन है, जिनके बुंदेलीभाषी क्षेत्र में आठ प्रकार के उच्चारण प्रचलित हैं। के, खे, खें और थे बुंदेलीभाषी प्रदेश के विभिन्न भागों में प्रचलित सम्बन्ध कारक के परसर्ग हैं। इन परसर्गों के रूप-वैभिन्न के कारण निर्देशित शब्दों के उच्चारणों में अन्तर हो गया है। दूसरे, खड़ी बोली का ‘उस’ तृतीय पुरुष सर्वनाम शब्द भी कहीं ‘ऊ’ और कहीं ‘ओ’ हो गया है। इससे भी ‘उसके’ शब्द के विभिन्न रूप हो गये हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ‘के’ परसर्ग कुछ स्थानों में अपने मूल रूप में प्रचलित है, पर कुछ अन्य स्थानों में वह हकार-युक्त होकर ‘खे’ हो गया है। ‘के’ के स्थान में ‘थे’ परसर्ग का प्रयोग प.म. हमीरपुर जिले की एक ऐसी विशेषता है, जो बुंदेलीभाषी प्रदेश में अन्यत्र नहीं मिलती।
‘जवान’ शब्द के विभिन्न क्षेत्रीय उच्चारण में तीन बातें द्रष्टव्य हैं। प्रथम, ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का प्रयोग, यथा- जवान-जबान -जेंबान ।
द्वितीय, ‘व’ के स्थान में ‘अ’ का प्रयोग, यथा- जोआन, जुआन, जोंआन।
तृतीय, ‘व’ के स्थान में ‘म’ का प्रयोग – जवान जमाँन-कुँवर कुँमर, तुव-तुम, दीवान-दीमाँन आदि भी इसी प्रकार के शब्द हैं।
बुंदेली में कुछ ऐसे शब्द भी हैं, जिनमें आय ‘ज’ हलन्त होकर उच्चरित होता है; ज्वान इसी प्रकार का शब्द है। इसी प्रकार ‘जवाब’ किसी-किसी क्षेत्र में ‘ज्याब’ उच्चरित होता है।
‘बाहरी’ शब्द के विभिन्न क्षेत्रीय उच्चारणों में बाहरी, बहयरी, बुहारी, बेहरो, बेहरा तथा बहेरा में मात्रा-स्थान-परिवर्तन की प्रवृत्ति तथा बारा और बेरा में हकार के लोप की प्रवृत्ति वर्तमान है।
‘थे’ वो विभिन्न उच्चारण-रूप बुंदेली की उच्चारण विषयक विशेषता की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। हिन्दी ‘थे’ के स्थान में ‘हते’ क्रिया-रूप का प्रयोग बुंदेली की सामान्य विशेषता है, किन्तु बुंदेलीभाषी प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में इस क्रिया रूप में उल्लेखनीय परिवर्तन हो गया है। इसके ‘रहे’ और ‘रहें’ रूप बघेली-प्रभावित हैं और वे बघेली क्षेत्र-संलग्न भागों में ही प्रचलित है। ‘रहे’ हुकार के विलुप्ती-करण के साथ टीकमगढ़ में ‘रये’ हो गया है।
‘हते’ पू. होशंगाबाद जिले में हकार-युक्त होकर ‘हये’ उच्चरित होता है। यह स्थानीय वैशिष्ट्य ही कहा जा सकता है। ‘ते’ में हते का आये ‘ह’ लुप्त हो गया है, जो हते का संक्षिप्तीकरण भी कहा जा सकता है, किन्तु भिण्ड-मुरेना में संक्षिप्तीकरण की पराकाष्ठा ही हो जाती है, जब ‘हते’ का ‘ते’ अथवा ‘तें’ में वहाँ ‘त’ का भी त्याग कर केवल ‘ए’ अथवा ‘ए’ ही रह जाता है। हमें ‘पालि’ की संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति बुंदेली के अनेक शब्दों में दिखाई देती है, पर ‘हते’ का ‘ए’ तक संक्षिप्तीकरण आश्चर्यप्रद है।
9 प्रकार से उच्चरित शब्द
आला, आरा, आरो, आर, अरया, अरवा, अरिया, अरिआ, अरेया ।
उनमें, ओम्हैं, ऊमें, उन्हिनमें, उन्हनमें, बिनमें, बामें, ओवें, बिनिमें।
कटहल, कटहर, कठेल, कठेर, कटाल, कठार, कठार, कट्हर।
को, कों, कौं, खों, खौं, खाँ, खे, के, है।
गिलहरी, गिलेरी, गिल्हेरी, गिलहइया, गिल्हरिया, गिलरिया, गलरिया, गिलारी, गिल्ली।
जगह, जघा, जगा, जागा, जाँचा, जाँगा, जिग्घा, जिग्गा, जगेह।
डाली, डारी, डाल, डार, डगाल, डगार, डगली, डगरिया, डगलिया।
पाहुने, पाँहुने, पाँहोने, पाँहुने, पाहने, पाहुँन, पाँवने, पाँवने, पाँवने।
पीछे, पिछाऊँ, पाछे, पाछूँ, पिछाई, पाछुँ, पाछै, पीछू, पछ।
ब्राह्मण, बाम्हन, बामन, बिरम्मन, बिरामन, बिराम्हन, बाँभन, बम्हेंन, बाम्हन ।
रैबो, रैवो, रेबो, रेवो, रहमो, रहब, रहनों, रैनों, रेनों।
स्थान-निर्देशन
- उसमें – उ. हमीरपुर, दतिया, प. विदिशा, उ. रायसेन, होशंगाबाद, झाँसी द. जबलपुर, नरसिंहपुर, छतरपुर, पन्ना, पू. दमोह।
ओम्हैं – द. हमीरपुर।
ऊमें – उ. सिवनी, म. जबलपुर, सागर, जालोन ।
उन्हिनमें – उ. पू. जबलपुर।
उन्हनमें – प. दमोह।
बिनमें – शिवपुरी, टीकमगढ़।
बिनिमें – गुना, भिंड, मुरेना, ग्वालियर।
बामें पू. विदिशा, सिहोर, द. म. रायसेन ।
ओमें – द. सिवनी, छिंदवाड़ा
- कटहल – विदिशा, सिहोर, छिंदवाड़ा।
कटहर – रायसेन, सिवनी, दतिया, उ. झाँसी, सागर, दमोह।
कंठेल – हमीरपुर।
कटहर – भिंड, मुरेना, द. जालोन ।
होशंगाबाद, नरसिंहप
ग्वालियर, टीकमगढ़, उ. जालोन, द. झाँसी, गुना, शिवपुरी।
कठार – जबलपुर।
कटार- पन्ना।
कटाल – छतरपुर।
- पीछे – विदिशा, प.हमीरपुर, जबलपुर, उ. रायसेन, छिंदवाड़ा, पू. नरसिंहपुर, पू. होशंगाबाद, सिवनी।
पिछाऊँ – पू. म. हमीरपुर।
पिछाई – जालोन ।
पाछूं – द. हमीरपुर, सिहोर।
पाछें – द. रायसेन, टीकमगढ़, दतिया, भिंड, मरेना।
पाछें – उ. झाँसी, शिवपुरी, गुना, ग्वालियर।
पिछाड़ी – प. होशंगाबाद।।
पीछूं – सागर, दमोह, द. झाँसी, छतरपुर, पन्ना ।
पाछ – प. नरसिंहपुर
- ब्राह्मण- म. होशंगाबाद।
बाँम्हन- द. हमीरपुर, नरसिंहपुर, टीकमगढ़, जबलपुर।
वामँन – उ. ग्वालियर, झाँसी, उ. सागर, गुना, विदिशा।
बामन – छतरपुर, द. सागर, दमोह।
बिरम्मन – भिंड, मुरेना, द. ग्वालियर, शिवपुरी, पन्ना ।
बिराम्हँन – सिवनी, पू. रायसेन जालोन।
बिराम्हन – प. रायसेन, उ. दतिया।
बम्हँन – छिंदवाड़ा, पू. होशंगाबाद।
ब्राम्हन – द. दतिया, सिहोर।
- रेबो – जालोन, विदिशा, दतिया, उ. ग्वालियर, शिवपुरी ।
रैवो – पन्ना, छतरपुर, गुना।
रेबो – सिहोर, छिंदवाड़ा।
रहवो – उ. हमीरपुर, जबलपुर, सिधनी।
रहबो – प. हमीरपुर, भिंड, मुरेना।
रहब – पू. हमीरपुर।
रहनों – रायसेन।
रैनों – सागर, दमोह, झाँसी ।
रेनों – टीकमगढ़, होशंगाबाद, नरसिंहपुर।
विश्लेषण
बुंदेलीभाषी प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित ‘उनमें’ में रूपों में ‘उन’ के स्थान में मुख्यतः ‘बिन’ और ‘बिनि’ शब्दों का प्रयोग होता है। यह वास्तव में ‘व’ के स्थान में ‘ब’ काही प्रयोग है। ‘उन’ और वुन’ के उच्चारण में कोई अन्तर नहीं होता। इसी ‘वुन’ का बुंदेली में ‘बिनि’, ‘बा’ आदि हो गया है। जहाँ वू अथवा ‘ऊ’ मूल रूप में ही उच्चरित है, वहाँ ‘उनमें’ का बुंदेली-रूप ओमें, ऊमें अथवा हकार-युक्त ओम्हें हो गया है। ‘उन्हिन में’ और ‘उन्हन में’ खड़ी बोली के ‘उनमें’ के रूप हैं।
यहाँ यह स्मरणीय है कि बुंदेली के ‘ऊ’ और ‘बा’ वास्तव में एक-वचन हैं, पर कहीं-कहीं इनका प्रयोग बहुवचन-रूप में भी होता है। इसका कारण ग्रामीणों का एक वचन और बहुवचन-रूप में कोई विशेष अन्तर न करना ही हो सकता है।
‘कटहल’ शब्द के लिये विविध उच्चरित रूपों में से ‘कहर’ में ‘ट’ का अर्थ उच्चारण हो गया है और बुंदेली की प्रवृत्ति के अनुसार ‘ल, के स्थान में ‘र’ उच्चरित है। इसका दूसरा रूप कटहार’ है। इस शब्द के ट् में ‘हा’ के संयोग से ‘कठार’ हो गया है। यह हकार-युक्त उच्चारण की प्रवृत्ति बघेली के प्रभाव-स्वरूप जबलपुर जिले में अधिक देखी जाती है। जहाँ हकार-विमुक्त उच्चारण की प्रवृत्ति है, जो कि बुंदेली की प्रमुख प्रवृत्ति है, वहाँ कठार के स्थान पर कदार उच्चरित होता है। जैसा कि हम पश्चिमी और दक्षिणी पन्ना जिले में देखते हैं। ‘कटाल’ में भी हकार का लोप है, पर अन्त्य वर्ण ‘ल’ अपरिवर्तित है।
‘पीछे’ के समी रूपों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। इसका मूल’ शब्द ‘पछ’ सभी रूपों में वर्तमान है, केवल क्षेत्रीय प्रवृत्ति के अनुसार इसके पीछे, पिछाऊँ, पिछाई, पाछूँ, पाछे, पाछै, पिछाड़ी, पीछूं, पछ हो गये हैं, जो मात्रा-स्थान-परिवर्तन के साथ उच्चारण करने की प्रवृत्ति के ही द्योतक है।
रैबो’ (रहना) के उच्चारण में ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का उच्चारण बुंदेली की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार दिखाई देता है। ‘बो’ तथा ‘नो’ बुंदेली की क्रियार्थक संज्ञा के प्रत्यय है, जिनके ‘रह’ धातु में मिलने से रहबो, रहनो, आदि रूप बन हैं। रैबौ, रैवो, रैनों और रेनों में हकार का लोप है। ‘रहब’ बघेली प्रभावित है, जो बुदेलीभाषी क्षेत्र से संलग्न पू. हमीरपुर जिले में प्रचलित है। ‘नों’ प्रत्यय का प्रयोग रायसेन, सागर, दमोह, झाँसी, दतिया, टीकमगढ़, होशंगाबाद, और नरसिंहपुर जिले में प्रचलित है। अन्य जिलों में ‘वो’ अथवा बो’ प्रत्यय का प्रयोग होता है।
10 प्रकार से उच्चरित शब्द
अभी, अबें, अब्बे, अबई, अबहीं, अबूँ, अभीन, अब्भइ, अभइ, अभें
आमदनी, अँमदनी, आमँदनी, अमदानी, अमदनी, अमदानी, आँमदानी, अमाँदनी, आमद, आँमद ।
उसने, ऊने, ऊनें, ऊनैं, ओन्हें, उनैं, बोने, ओने, बाने, वोने
कनस्टर, कनस्तर, कन्स्टल, कनिस्टिर, कनिस्टर, कमस्ट्री, कनस्तिरा, कनस्टरा, कनस्टरी, कनस्तरा। तहमत, तैमत, तँहमँत, तामत, तहमद, तहमँद, तामँत, ताँमद, तैमद।
स्थान-निर्देशन
- अभी – उ. पू. हमीरपुर, छिंदवाड़ा, सिवनी।
अबँ – प. हमीरपुर, उ. छत्तरपुर, उ. सागर, उ. झाँसी, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, विदिशा, सिहोर, रायसेन, होशंगाबाद।
अब्बे – द. दतिया, टीकमगढ़, भिंड, मुरेना, जबल
अबई – दमोह।
अबहीं – द. पू. हमीरपुर।
अबू – प. दतिया।
अमीन – उ. जालोन, द. सागर
अब्भइ – द. नरसिंहपुर ।
अभइ – उ. पू. हमीरपुर।
अभें – पू. छतरपुर, पन्ना, द. झाँसी, म. जालोन, उ. नरसिंहपुर।
- उसने – द. विदिशा, म. होशंगावाद, म. ग्वालियर।
ऊने – उ. हमीरपुर, सागर, द.प. ग्वालियर।
ऊनें – जालोन, झाँसी, उ. विदिशा, गुना।
ऊनैं – रायसेन।
ओन्हें – द. हमीरपुर।
वाने – पू. होशंगाबाद, जबलपुर, टीकमगढ़, दतिया, भिंड, छतरपुर, सिहोर, मुरेना, शिवपुरी।
उनें – पन्ना
वोने – द. छिंदवाड़ा, सिवनी।
ओने – उ. छिंदवाड़ा, प. नरसिंहपुर।
बोने -पू. नरसिंहपुर, प. होशंगाबाद, दमोह।
- तहमत – सिहोर, रायसेन, पू. होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर।
तैमत – ग्वालियर, भिंड, मुरेना, शिवपुरी।
तँहमँत – झाँसी, दतिया, सागर, दमोह, पू. सिवनी ।
तहमत – टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना।
तामत – द. हमीरपुर ।
तहमद – पू. विदिशा, गुना।
तहमद – प. विदिशा, द. गुना।
तामँद – जालोन, उ. हमीरपुर।
ताँमद – प. होशंगाबाद।
तैमद – छिंदवाड़ा, प. सिवनी।
विश्लेषण
बुंदेलीभाषी विभिन्न क्षेषों में ‘अमी’ शब्द के जो 10 प्रकार के उच्चारण मिलते हैं, उन सनी का मूल शब्द ‘अब’ है, जो मात्रा-स्थान-परिवर्तन के साथ अबें और अबूँ हो गया है। अभी, अभीन, अभइ और अभें मूल शब्द में हकार के संयोग से बन गये हैं। अब्बे और अब्मइ संयुक्त उच्चारण के द्योतक हैं। यह प्रवृत्ति द. दतिया, टीकमगढ़ के कुछ भाग, भिण्ड, मुरेना, प. जबलपुर और द. नरसिंहपुर में विशेष रूप से देखी जाती हैं। वे त्वरित-माथ के द्योतक हैं। अबही द.पू. हमीरपुर में तथा अभइ अन्त्य वर्ण का हकार लोप कर उ. पू. हमीरपुर में बोला जाता है।
‘उन’ के रूप पहिले बतलाये जा चुके हैं, ‘उस’ उसी का एक वचन-रूप है। इसके विभिन्न उच्चारण रूपों में ‘उन’ के रूपों का ही वैशिष्ट्य है।
‘तहमत’ अरबी भाषा का शब्द है। मुस्लिम शासन के प्रभाव-स्वरूप बुंदेली में फ़ारसी-अरबी के अनेक शब्द कहीं अर्ध तत्सम और कहीं तद्भव रूप में प्रवेश पा गये हैं, जैसा कि हम वर्तमान बुंदेली में अँग्रेजी के अनेक शब्दों को इन्हीं रूपों में देखते हैं। ‘तहमत’ शब्द के विभिन्न क्षेत्रीय उच्चारण में हमें पूर्व निर्देशित ‘त’ के स्थान में ‘द’ का प्रयोग मिलता है। यथा तहमद, तहमँद, ताँमद और तेमद तथा हकार के लोप की प्रवृत्ति तैमत, तामत, तामँत आदि में दिखाई देती है। अनुस्वरित शब्दोच्चारण बुंदेली की सामान्य विशेषता है, जो तँहमत, तहँमत, तहंमँद, और तामँद में वर्तमान है।
11 प्रकार से उच्चरित शब्द
उन्हें, उनखों, उनकों, उनकौं, उनखें, ओखों, उखाँ, ओनफा, उनखौं, उनों, उए।
गिरगिट, गिरगिटा, गिरिमिटो, गिरगिटन, गिरगिटियो, गिरधनों, गिरधनों, गिरधेनो, गिरधनिया, गिरदेनों, गिरधान।
तुम्हारो, तुमारो, तुमाओ, तुमाए, तुमायें, तुमाव, तोरे, तेव, तेरो, तोन, तोर।
दहिना, दहनाँ, दहनों, दहिनों, दाँहनों, दाहिनाँन, दहिन, दाँअनों, दायनों, दायों।
हमारा, हमारो, हमरो, हमाओ, हमाए, हमाव, हमेरो, हमओ, हमाए, हमेओ, हमेव ।
स्थान-निर्देशन
- उन्हें – म. ग्वालियर।
उनखों – टीकमगढ़, द. सागर, दमोह, नरसिंहपुर, जबलपुर, होशंगाबाद।
उनकों – दतिया, विदिशा।
उनकौं – झाँसी, उ. टीकमगढ़।
उनखें – सिवनी, छिंदवाड़ा।
ओखौं – सिहोर, रायसेन ।
उखीं – छतरपुर, पन्ना।
ओनका – उ. छिंदवाड़ा।
उनखौं – उ. सागर, द. ग्वालियर, शिवपुरी, गुना।
उनों – हमीरपुर, जालोन।
उए – भिंड, मुरैना।
- दहिना – म. होशंगाबाद, म. ग्वालियर।
दहनाँ – पू. सिवनी, छिंदवाड़ा।”
दहनों- प. सिवनी, पू. होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर।
दहिनों – म. होशंगाबाद, प. ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी।
दाँहनों – झाँसी, टीकमगढ़, छतरपुर, जालोन, प. हमीरपुर ।
दाहिनाँ – पू. ग्वालियर।
दहिनँ – पू. हमीरपुर, उ. पन्ना।
दाँअनाँ – उ. गुना, द. पन्ना।
दाँअनों – सिहोर, रायसेन, भिंड, मुरेना, द. गुना।
दाँयनो- उ. सागर, उ. दमोह।
दायों- द. सागर, द. दमोह, विदिशा।
- हमारा – म. ग्वालियर, म. होशंगाबाद।
हमरो – सागर, दमोह, उ. पू. प. होशंगाबाद, सिवनी, छिंदवाड़ा।
हमरो – पू. हमीरपुर, टीकामगढ़, झाँसी, जबलपुर, नरसिंहपुर, छतरपुर, प. पन्ना ।
हमाओ – उ. हमीरपुर, जालोन, द. रायसेन, द. सिहोर।
हमाए- म. हमीरपुर
हमाव- दतिया।
हमेरो – विदिशा, उ. रायसेन।
हमओ – प. भिंड, मुरेना।
हमए – उ. ग्वालियर, प. ग्वालियर, शिवपुरी।
हमेओ – गुना, उ. सिहोर।
हमेव – प. जालोन, पू. भिण्ड, पू. पन्ना।
विश्लेषण
पूर्व पृष्ठ में उन शब्दों का निदर्शन है, जो बुंदेलीभाषी प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में ग्यारह प्रकार से उच्चरित मिलते हैं। पहले कहा जा चुका है कि कों, कौं, खों तथा खीं बुंदेली के कर्मकारक के परसर्ग हैं। इनमें से ‘खों’ सिवनी और छिदवाड़े जिले में, ‘खें’ तथा खों छतरपुर और पश्ना जिले को अधिकांश भाग में ‘हाँ’ हो गया है। इन्हीं परसों के संयोग से ‘उन’ के विभिन्न क्षेत्रीय रूप बने हैं। ‘उन्नाँ’ हमीरपुर और जालोन जिले में प्रचलित बुंदेली रूप थे तथा ‘उएँ’ भिण्ड-मुरेना जिले के विशिष्ट प्रयोग हैं। इन दोनों प्रयोगों में कर्म-परसर्ग ‘को’ का कोई भी रूप प्रयुक्त नहीं है। प्रथम रूप पर बघेली का और द्वितीय पर द. ब्रज का प्रभाव स्पष्ट जान पड़ता है।
‘दहिना’ के विभिन्न रूपों में कोई उल्लेखनीय वैशिष्ट्य नहीं है। कुछ रूपों में हकार का लोप है। प्रायः सभी रूप (‘दायनों’ के अतिरिक्त) अनुस्वरित है। दाँअनों तथा दाँअनों में मध्य वर्ण, ‘ह’ का लोप होकर केवल ‘अ’ स्वर रह गया है, जबकि दायनों और दायों में ‘ह’ का स्थान ‘य’ ने ग्रहण कर लिया है। ‘ह’ के स्थान में ‘य’ का प्रयोग बुंदेली के अन्य अनेक शब्दों में भी देखा जाता है। कहनो-कयनों, कहीं-कई (यी), रही-रई (यी) दही-दई (यी), महिना-मयना आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
खड़ी बोली के ‘हमारा’ शब्द ने बुंदेलीभाषी प्रदेश में ग्यारह रूप ग्रहण कर रखे हैं। हमारो, हमरो तथा हमेरो मात्रा-स्थान-परिवर्तन के साथ उच्चरित हैं, किन्तु अन्य रूपों में ‘ए’ के स्थान में ‘अ’ का प्रयोग है। हमाओ, हमाए, हमाथ, हमओ, हमए, हमेओ, तथा हमेव रूप इसी वर्ण-परिवर्तन के परिणाम हैं। प्रथम पुरुष बहुवचन सर्वनाम के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों में ‘रा’ प्रत्यय के स्थान में ‘आ’ प्रत्यय का विभिन्न रूपीय प्रयोग उ. हमीरपुर, जालोन, 50 रायसेन, द. सिहोर, म. द. हमीरपुर तथा दतिया जिले में प्रचलित बुंदेली-रूपों का वैशिष्ट्य है।
12 प्रकार से उच्चरित शब्द
अँधेरा, अँधेरो, अँधेला, इँधेलो, इँध्यारो, इँध्यारी, अँध्यारा, अँध्यारो, अँधियार, इंधियारो, अँध्यारो। उसे, ऊँसे, ओंसे, ऊसैं, ओखें, ओखैं, वाए, वाकों, बाके, ओथे।
कमर, कँमर, कम्मर, कँम्मर, कँम्भर, करहया, करीहा, करया, करयाओ, करहयाई, करयाई, करहई।
कोहनी, कोनी, कउनीं, टेवनीं, टेंवनीं, टेहनी, टेहुनी, टेहुनीं, टेहनीं, टेउनीं, टिहनीं, टेंनीं, टेहुंनी, दिहूँनीं।
तुम्हारा, तुमाओ, तोरो, तोर, तुमाएँ, तोय, तेरो, तुंमाये, तेव, तोरे, तुमारी, तुमाव।
चाँवल, चाओर, चँउर, चँउल, चँवल, चाँउर, चंजोर, चँउर, चँओल, चौंर, चँमल, चँवर।
पहिले, पहले, पहलूँ, पहलैं, पहिलैं, पैलऊ, पैलइ, पैले, पैलेई, पहलऊँ, पहलाँ, पैलई।
स्थान-निर्देशन
- अँधेरा – ग्वालियर, पू. शिवपुरी, पू. झाँसी, सिहोर, विदिशा, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा।
अँधेरो – जालोन, भिंड, मुरेना, सागर, जबलपुर, सिवनी, पू. रायसेन।
अँध्यारो – प. सहमीरपुर, उ. झाँसी, छतरपुर, पन्ना।
अँधियार- पू. हमीरपुर ।
अँधेला – प. शिवपुरी, पू. उ. हमीरपुर।
इँध्यारो – द.प. टीकमगढ़, प. सागर, पू. दमोह, प. झाँसी।
इँधेरो – पू. नरसिंहपुर।
इंघेलो – गुना, प. रायसेन, द.सागर।
अँध्यारा- प. ग्वालियर।
अँध्याओ – पू. टीकमगढ़।
अँध्यारे – दतिया, प. दमोह।
इँधियारो- प. नरसिंहपुर।
- चाँवल – सिहोर, विदिशा, शिवपुरी, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा।
चांओर – जालोन, उ. रायसेन, द. झाँसी, प. दमोह।
चँउर – पू. नरसिंहपुर।
चउल – पू.द. रायसेन।
चाँउर – प. हमीरपुर, द. टीकमगढ़।
चँमर – भिंड, मुरेना
चँवल – पू. ग्वालियर।
चओर – उ. पू. हमीरपुर।
चौंर – म. हमीरपुर।
चँओल – द. झाँसी, प. नरसिंहपुर, सिवनी, म. जबलपुर।
चँमेल – ग्वालियर।
चँवर – दतिया।
- तुम्हारो – म. ग्वालियर, छतरपुर ।
तुमाओ – प. हमीरपुर, झाँसी, प. जबलपुर, भिंड, मुरेना, प. ग्वालियर।
तोरो – जालोन, पू. म. विदिशा, पन्ना, पू. दमोह।
तोर – उ. जबलपुर, पू. हमीरपुर।
तुमाए – प. द. हमीरपुर।
तोव – म. हमीरपुर।
तेरो – प. विदिशा, होशंगाबाद, सिहोर, उ. रायसेन, सिवनी, छिंदवाड़ा, नरसिंहपुर।
तुँमाये – द. रायसेन, दतिया, पू. दमोह।
तेव – टीकमगढ़
तोरे – म. नरसिंहपुर
तुमारी – म. द. सागर, गुना, शिवपुरी
तुमाव – उ. सागर
- पहिले – पू. हमीरपुर, पू. होशंगाबाद, द. जबलपुर, उ. नरसिंहपुर
पहले – प. होशंगाबाद, छिंदवाड़ा, सिवनी।
पहलूं – द. हमीरपुर।
पहलैं – उ. विदिशा, उ. प. हमीरपुर, भिंड, मुरेना, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी।
पहिलैं – म. विदिशा।
पैलऊ – द. रायसेन, झाँसी, जालोन, म. सागर।
पैलइ – पन्ना, उ. सागर, छतरपुर।
पैले – सिहोर, उ. रायसेन।
पले – सिहोर, उ. रायसेन ।
पैलेई – टीकमगढ़, दतिया, दमोह।
पहलऊँ – उ. जबलपुर।
पैलई – म. द. विदिशा
बुंदेली के क्षेत्रीय रूप
आरम्भीय
बुंदेली आरम्भ से हो एक लोकभाषा के रूप में बुंदेलखंड के निवासियों की वाणी का माध्यम रही है। हम पहिले ही कह चुके हैं कि बुंदेली बुंदेलखंड तक ही सीमित लोकभाषा नहीं है; यह यमुना के कुछ उत्तरी भाग से नर्मदा के कुछ दक्षिण के भाग तक में बसी जनता की बोली है। इतने विस्तृत भू-भाग में किसी भी लोकभाषा का एक रूप होना सम्भव नहीं होता। ‘कोस-कोस पर बदले पानी, आठ कोस पर बानी’ की लोकोक्ति के अनुसार एक ही लोकभाषा का रूप उसके विभिन्न क्षेत्र में विभिन्न हो जाता है। उसके इन सभी रूपों में मौलिफ एकरूपता वर्तमान रहती है, किन्तु विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृति, रीति-रिवाज, परम्परा आचार-विचार, परम्परागत मान्यताओं, उच्चारण-विधि, उस क्षेत्र में प्रचलित अन्य बोलियों के सम्पर्क अथवा साहित्यिक भाषा एवम् राजभाषा के प्रभाव के कारण उसका मूल रूप ज्यों का त्यों बना रहने पर भी उसका वाह्य विकास कुछ भिन्न रूप अवश्य ही धारण कर लेता है। इन्हीं कारणों से हमें बुंदेली अपने विस्तृत क्षेत्र में बहुरूपिणी दृष्टिगोचर होती है। लोक-भाषाओं को यह रूप मूलतः उसकी स्थानीय विशेषताओं के कारण प्राप्त होता है। उसका मूल रूप विभिन्न स्थानों की स्थानीय विशेषताओं से समन्वित हो कुछ भिन्न रूप धारण कर लेता है। इन रूपों को ही मुख्य बोली की उप बोलियां कहा जाता है। हमारी दृष्टि से इन्हें उपबोलियाँ न कहकार ‘क्षेत्रीय रूप’ कहता ही अधिक उपयुक्त होगा।
भारत की राष्ट्रीय एकता के कुछ समर्थक डॉ. ग्रियर्सन पर यह दोषारोपण करते हैं कि उन्होंने अपनी ‘लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इडिया में भाषा को उपभाषाओं तथा बोलियों और उपबोलियों में विभाजित कर हमारी एकता पर आघात किया है। उन्होंने यह भाषा के टुकड़े नहीं, पर इनके माध्यम से देश के टुकडे कर भारतीयों में क्षेत्रीय भावना जाग्रत की है। अँग्रेजी शासन का लक्ष्य भारतीयों में फूट और विद्वेष की भावना जाग्रत कर उन पर शासन करना अवश्य रहा है, किन्तु डॉ. ग्रियर्सन के अंग्रेज होने के कारण उनके भारतीय भाषा सर्वेक्षण के महान् कार्य को इस दृष्टि से देखना उचित नहीं कहा जा सकता।

उन्होंने एक अत्यन्त सीमित काल में भारतीय भाषाओं के अध्ययन का जो महत्वपूर्ण कार्य करके भाषा विज्ञान-जगत को अपनी प्रथम और महान् मूल्यवान कृति भेंट की, उसके लिये वे सदैव ही प्रशंसनीय और स्तुत्य रहेंगे। किसी भी भाषा अथवा बोली के विस्तृत भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के मूल में विभाजन की प्रवृत्ति नहीं, वरन उस भाषा अथवा बोली के सम्पूर्ण वैशिष्ट के प्रकटीकरण की भावना रहती है। मनुष्य अपने नेत्रों से सारे संसार को देखता है, किन्तु स्वयं को ही नहीं देख पाता। उसे स्वयं अपना मुख देखने के लिये दर्पण का सहारा लेना पड़ता है। यही बात किसी भी भाषा अथवा बोली के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। उस भाषा अथवा बोली के बोलने वाले उसे रात-दिन बोलते हैं, उसी के माध्यम से अपनी समस्त भावनाएँ और विचार अभिव्यक्त करते हैं, फिर भी वे उसके सम्पूर्ण वैशिष्ट से अनभिज्ञ बने रहते हैं। विद्वानों और शोध-छात्रों द्वारा उस भाषा अथवा बोली का वैज्ञानिक अध्ययन उनके लिये दर्पण का कार्य करता है। विभिन्न भाषा-भाषी अध्ययन के इस दर्पण में अपनी भाषा का सम्पूर्ण रूप-सौन्दर्य देखने में समर्थ होते हैं।
हम यह स्वीकार करते हैं कि भाषा-भेद की भावनाव अलगाव की प्रवृत्ति की जननी है, किन्तु कब, जबकि हमारी दृष्टि सकीर्ण हो। यदि हम एक वृक्ष की जड़, पीड़, डालियों, पत्तों, पुष्पों और फलों को उस एक ही वृक्ष के विभिन्न अंग-प्रत्यंग न मानकर पृथक् पृथक् मान लें, तो यह विवकहीनता ही समझी जाएगी। इसी प्रकार एक ही देश की विभिन्न भाषाओं, उपभाषाओं, बोलियों और उपबोलियों को यदि हम अपने दृष्टिदोष से पृथक् पृथक् देखते और उन्हें एक भारतीय भाषा के विभिन्न अग-प्रत्यग नहीं समझते, तो हमारी अदूरदर्शिता के लिये भाषा विज्ञान के किसी अध्येता को दोष नहीं दिया जा सकता। यहाँ हम बुंदेली के क्षेत्रीय रूपों का अध्ययन इसी सदुद्देश्य से करने जा रहे हैं। बुंदेली का विशाल वट वृक्ष अपनी शाखा-प्रशाखाओं के साथ एक सुविस्तृत भू-भाग को अपनी मधुर और आनन्ददायिनी क्रोड़ में लिये सुशोभित हैं। उसकी एक-एक शाखा अपने वैशिष्ट के पल्लवों से श्री-सम्पन्न हो झूम रही हैं, जिन पर बुंदेली-भाषी नर-नारियों की भावना-पिक विविध लोक रागनियों का संगीत-माधुर्य बिखेरती जन-जन को मंत्र-मुग्ध करने में संलग्न है।
बुंदेली के क्षेत्रीय रूपों अथवा उपबोलियों के नामकरण के दो आधार हैं-जाति और स्थान। इसके कुछ रूप ऐसे हैं, जो विशिष्ट जातियों द्वारा ही विशेष रूप से बोले जाते हैं। ऐसे रूप उस जाति के नाम पर आधारित हैं, यथा-पोआरी, लोघान्ती, राठोरी, भदावरी, बनाफरी आदि।
कुछ रूप स्थान अथवा क्षेत्र विशेष में प्रचलित होने के कारण उनका नामकरण स्थानवाची हो गया है। तोहरगढ़ी, खटोला, छिंदवाड़ी, नागपुरी हिन्दी आदि इसी प्रकार के नाम हैं। इसके कुछ रूप परिनिष्ठित हैं, तो कुछ अन्य सीमावर्ती बोलियों से मिश्रित हैं। इस प्रकार बुंदेली का एक लोकभाषा के रूप में जो विकास परिलक्षित है, वह बहुरूपी है। यहाँ केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि बुंदेली का एक काव्य-भाषा के रूप में, राजभाषा के रूप में और लोकभाषा के रूप में गत पाँच सौ वर्षों से जो निरन्तर विकास हो रहा है, वह भाषायी विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
पूर्व अध्याय में बुंदेली के चार रूप-परिनिष्ठित बुंदेली, शुद्ध बुंदेली, मिश्रित बुंदेली और विकृत बुंदेली बतलाये जा चुके हैं। इन्हें हमने क्षेत्रीय दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र तथा मध्यवर्ती क्षेत्र में विभाजित किया है।
उत्तरी क्षेत्र के बुंदेली-रूप
मध्यप्रदेश के उत्तरी जिले मुरैना, (श्योपुर तहसील छोड़कर) भिण्ड और ग्वालियर जिला उत्तरी क्षेत्र के अन्तर्गत है। इनके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के आगरा, मैनपुरी और इटावा जिलों के मध्यप्रदेश के इन उत्तरी जिलों से लगे हुए कुछ दक्षिणी भाग भी इसी क्षेत्र के अन्तर्गत माने जाने चाहिए। इस क्षेत्र में शुद्ध अथवा आदर्श बुंदेली से भिन्न इसके तीन रूप प्रचलित हैं। ये है (अ) ब्रज-मिश्रित रूप, (ब) कन्नौजी-मिश्रित रूप तथा (स) खड़ी बोली प्रभावित बुंदेली-प्रधान-रूप। ये तीनों रूप ‘भदावरी’ अथवा ‘तोमरगढ़ी’ कहे जाते हैं। इन तीनों रूपों के मध्य कोई निश्चित सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती है। वैसे तो किन्हीं भी दो भाषाओं अथवा बोलियों के बीच भी कोई भौगोलिक सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती। हम जहाँ एक भाषा अथवा बोली का क्षेत्र समाप्त मानने हैं, वहाँ भी वह भाषा अथवा बोली पूर्णतः समाप्त नहीं होती, वह उसके आगे भी न जाने कितनी मील तक दूसरी भाषा अथवा बोली में घुसी चली जाती है। फिर भी हमें अध्ययन की दृष्टि से उनका क्षेत्र तो निश्चित करना ही पढ़ता है। बुंदेली के इस उत्तरी क्षेत्र में प्रचलित तीनों रूपों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही समझना चाहिये।
ब्रज-कन्नौजी-मिश्रित बुंदेली (भदावरी)
मुरैना जिले की उत्तरी सीमा से चम्बल नदी प्रवाहित होती है। यहीं से उत्तर प्रदेश के आगरा जिले की बाह तहसील आरम्भ होती है। आगरा ब्रजभाषी जिला है, किन्तु उसकी इस तहसील की भाषा पूर्णरूपेण ब्रज नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बुंदेली का क्षेत्र चम्बल नदी तक ही समाप्त नहीं हो जाता; वह चम्बल के आगे आगरा जिले के दक्षिणी भाग में भी बोली जाती है। आगरा की बाह तहसील वास्तव में ब्रज और बुंदेली का संगन स्थल है। जिस प्रकार बुंदेली का चम्बल को पार कर आगरा जिले की इस तहसील तक प्रवेश है, उसी प्रकार बज की सीमा भी चम्बल तक समाप्त नहीं हो जाती, वह चम्बल पार कर मुरैना जिले तक प्रभावित है। फलतः मुरैना से आगर। के दक्षिणी भाग तक की बोली का एक ऐसा रूप बन गया है, जो ब्रज और बुंदेली का एक मिश्रण है। इस मिश्रित रूप में बुंदेली की अघि-कता और बज अथवा ब्रजी के रूप की न्यूनता होने के कारण हम इसे बुंदेली का ही रूप मानते हैं। डॉ. ग्रियर्सन तथा अन्य भाषाशास्त्रियों ने भी यही माना है।
चम्बल के दोनों ओर भदावर राजपूत अधिक संख्या में निवास करते हैं। ये सोलहवीं शती के पूर्व ही इस क्षेत्र में आकर बस गये थे। कुछ इतिहासकार इनका इस क्षेत्र में प्रवेश बारहवीं शती में बतलाते है। राज्याधिकारी होने पर इन भदावर राजपूतों को वर्षों एक ओर दिल्ली-आगरा के मुस्लिम शासकों से और दूसरी और ग्वालियर के तोमर नरेशों से संघर्ष-रत रहना पड़ा। ‘नौगवाँ’ इनके राज्य का मुख्य केन्द्र तथा राजधानी रहा। अब यह बाह तहसील का एक सामान्य ग्राम है। ‘आगरा गजेटियर’ के अनुसार, भदावर राजपूतों का राज्य आगरा के दक्षिणी भाग (वर्तमान वाह तहसील) से ग्वालियर राज्य के मध्य तक (वर्तमान मुरैना जिला. इसी भाग में है) या। भदावर राजपूतों की बोली होने के कारण ही बुंदेली का यह ब्रज-मिश्रित रूप ‘भदावरी’ कहलाता है। वर्तमान ग्वालियर जिले के उत्तर-पश्चिमी भाग में भी बुंदेली का यही रूप प्रचलित है। ग्वालियर अनेक वर्षों तक तोमर रजपूतों का गढ़ रहा है। इन तोमर राजपूतों की भी यही बोली होने के कारण इसे ‘तोमरगढ़ी’ अथवा ‘तोवरगढ़ी’ भी कहा जाता है।
डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार, “इस बोली का क्षेत्र भदावर क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। यह चम्बल से आरम्भ होकर गुना तक फैली है। इसके पश्चिम में ब्रजभाषा तथा हरौती (राजस्थानी की एक उप बोली) का क्षेत्र तथा पूर्व में पधारी बुंदेली का क्षेत्र है। दक्षिण में यह मालवी में विलीन हो जाती है। आगरा जिले में यह चम्बल के तटवर्ती आगरा के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। यह मैनपुरी जिले के खरका क्षेत्र के मी कुछ लोगों-द्वारा बोली जाती है। इटावा जिले के यमुना और चम्बल के मध्य में स्थित भाग में भी भदावरी ही बोली जाती है। इस प्रकार यह एक विस्तृत क्षेत्र की बोली है।

‘आगरा गजेटियर’ में लिखा गया है- “अधिकांश जन-समूह बज बोलता है और पूर्वी प्रदेश की बोली प्रायः अन्तर्वेदी ही है, जिसे इस क्षेत्र के ग्रामीण ‘गाँववारी’ कहते हैं। वाह तहसील की बोली बुंदेली का एक उपरूप है, जो पश्चिमी हिन्दी की एक शास्त्रा है। यह बोली (बाह तहसील की) पूर्व भाम ‘भदावर’ के आधार पर ‘भदावरी’ कहलाती है।”
डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के मतानुसार, “बाह की बोली भदावर प्रदेश के अन्तर्गत होने के कारण ‘भदौरी’ कही तो जा सकती है, पर ‘भदौरी’ नाम का प्रयोग कुछ भ्रामक सिद्ध हो सकता है। एक तो इसलिये कि आगरा जिले में ही यह तथाकथित मदौरी भदावर प्रदेश के बाहर भी बोली जाती है तथा दूसरे इसलिये कि वाह तहसील की मदौरी मुख्य ग्वालियर प्रदेश की भदौरी से कुछ भिन्न है।” उन्होंने आगे कहा है- “पूर्वी आगरा की बोली व्याकरणगत तथा ध्वन्यात्मक दृष्टि से ब्रज तथा कन्नौजी का मिश्रण है तथा उसमें बुंदेली शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है। इस प्रकार वाह की बोली ब्रज, कन्नौजी तथा बुंदेली का एक सम्मिलित रूप है। इस मिश्रित रूप को प्रादेशिकता के सन्दर्भ में भदौरी भी कहा जा सकता है, परन्तु स्पष्टता के लिये तथा भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से पूर्वी आगरा की बोली कहना अधिक उपयुक्त होगा। किन्तु एक ही प्रसंग में पूर्वी आगरा (बाह) की बोली तथा मदौरी को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता।
भदावरी के रूप
हम पहिले कह चुके हैं कि किसी मी बोली के क्षेत्र की एक निश्चित सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती। भदावरी अथवा भदौरी का मुख्य क्षेत्र भदावर प्रदेश है, पर उसका क्षेत्र इस प्रदेश की सीमा-रेखा से आबद्ध नहीं किया जा सकता, उसका समीपवर्ती चतुर्दिक कुछ भाग में प्रयोग भी स्वाभाविक है। वह ज्यों-ज्यों अपने प्रमुख क्षेत्र से आगे बढ़ती गई, त्वों-त्यों निकट की अन्य बोली के सम्पर्क से उसका मूल स्वरूप भिन्न होता गया। यही कारण उसके पूर्वी आगरा और ग्वालियर प्रदेश की बोली के स्वरूप से भिन्न होने का है। वह पूर्वी आगरा में ब्रज और कन्नौजी से मिलती है और ग्वालियर प्रदेश में उसके रूप में बुंदेली का अधिक मिश्रण हो गया है तथा ब्रज का प्रभाव उत्तरी क्षेत्र की अपेक्षा कम हो गया है। इस प्रकार उसके तीन रूप हो गये हैं- 1. पूर्वी आगरा का ब्रज-कन्नौजी और बुंदेली मिश्रित रूप, 2. मुरेना, पश्चिमी भिंड तथा दक्षिणी आगरा का ब्रज-बुंदेली मिश्रित रूप और इस क्षेत्र से दक्षिण में ग्वालियर के उत्तरी और पश्चिमी भाग का न्यून ब्रज और अधिक बुंदेली-युक्त रूप। उसके प्रथम रूप में ब्रज और कन्नौजी की रूपात्मक एवम् ध्वन्यात्मक विशेषताओं की प्रधानता है और बुंदेली के शब्द-समूह की अधिकता एवम् ध्वन्यात्मकता की न्यूनता है।
उसके द्वितीय रूप में ब्रज और बुंदेली की रूपात्मकता और ध्वन्यात्मकता लगभग समान रूप में विद्यमान है और बुंदेली के शब्द-समूह की अधिकता है। तृतीय रूप में बुंदेली की समस्त रूपात्मक और ध्वन्यात्मक प्रवृत्तियाँ वर्तमान हैं, जो एक सीमा तक ब्रज की प्रवृत्तियों से प्रभावित हैं। वास्तविकता यह है कि हम ग्यालिपर क्षेत्र से जैसे-जैसे उत्तर की ओर बढ़ते आते हैं, बुंदेली में ब्रज के मिश्रण का और जैसे-जैसे मुरेना जिले की पूर्वी सीमा से हम पूर्व तथा पूर्वोत्तर दिशा में बढ़ते जाते हैं, उसमें कन्नौजी के मिश्रण का प्रमाण बढ़ता जाता है और तदनुसार भदावरी के रूप में भी अन्तर होता जाता है। डॉ. प्रियर्सन ने भदावरी बोलने वालों की संख्या 13 लाख और 13 हजार बतलाई है, जो अब 16 लाख के लगभग अनुमानित की जा सकती है।
भदावरी के स्वरूप में ब्रज और कनौजी के मिश्रण की स्थिति इस प्रकार है-
- ब्रज-बुंदेली का मिश्रण
- ब्रज-कन्नौजी-बुंदेली का मिश्रण
- कन्नौजी और बुंदेली का मिश्रण
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक सुदीर्घकाल से आगरा, मैनपुरी तथा इटावा जिले के दक्षिणी भाग एवम् ग्वालियर सम्भाग के मुरैना और भिण्ड तथा ग्वालियर जिले के भी उत्तर एवम् पूर्वोत्तर भाग का बुंदेलखंड की संस्कृति से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और यह सम्बन्ध आज भी स्पष्ट दिखाई देता है। इस सम्पूर्ण क्षेत्र (जो भदावरी का क्षेत्र कहलाता है) में एक ऐसी सांस्कृतिक एकता परिलक्षित होती है, मानो इस, क्षेत्र के विभिन्न भाग किसी एक ही संस्कृति की इकाइयाँ हों। न केवल बोली (नाममात्र के अन्तर के साथ) वरन खान-पान, वेष-भूषा, रहन-सहन, घार्मिक विश्वास; सभी में समानता दृष्टिगोचर होती है। यह देखते हुए यह पूर्ण क्षेत्र सांस्कृतिक एवम् भौगोलिक दृष्टि से भी एक ही भू-भाग जान पड़ता है। बुंदेली की अनेक लोक कथाएँ, संस्कार-गीत, ईसुरी की फागें, बुंदेली ‘लेदों’, राई और सैरे गीत ही नहीं, पर अनेक लोकोक्तियाँ भी इस क्षेत्र में समान रूप में प्रचलित हैं। ग्रामों में बुंदेलखंड के वीरों की गाथाएँ भी गाई जाती है। वर्षारम्भ में जब दक्षिण का आकाश मेघों से आच्छादित हो जाता है और बादलों की गर्जना के साथ बिजली चमकती है, तब आगरा जिले के दक्षिण-पूर्व के ग्रामीण कहते हैं-‘ग्वालेर गज्जो, धक्को मज्जो।’ ‘ग्वालियर गरज रहा है, सब अपने-अपने घर में भाग जाओ।’
भदावरी की विशेषताएँ ध्वन्यात्मक
हमें भदावरी में निम्नांकित ध्वन्यात्मक विशेषताएँ दिखाई देती हैं-
- ‘ओ’ संयुक्त स्वर के स्थान में प्रायः ‘औ’ का प्रयोग होता है। कहीं-कहीं ‘ओ’ का प्रयोग मी मिलता है। यथा-
भोत-भौत, मोंड़ा-मौड़ा, उनखों-उनखौं आदि। यह ब्रज का प्रभाव है।
- इसी प्रकार ‘ए’ के स्थान में ‘ऐ’ का प्रयोग भदावरी की सामान्य विशेषता है। यथा-किनारे-किनार, घरे-घरै आदि। यह भी ब्रज का प्रभाव है।
- अनेक अकारान्त संज्ञा शब्दों का अन्तिम वर्ण इकारान्त अथवा उकारान्त उच्चरित होता है। यथा- जात-जाति, गर-गरि, पौर-पौरि; घर-घरु, मात-मातु, बस-बसु आदि। ब्रज और कन्नौजी दोनों में यह वैशिष्ट वर्तमान है।
- समीकरण की प्रवृत्ति भदावरी की विशेष उल्लेखनीय विशेषता है। यह विशेषता मध्य ‘र’ युक्त शब्दों में विशेष रूप से परिलक्षित है। ऐसे शब्दों में मध्य ‘र’ उसके पश्चात् के वर्ण के अर्ध रूप में परिवर्तित हो जाता है। यथा- करदओ-कद्दओ, धरदो-धद्दो, उरद-उद्द, सुरति-सुत्ती, परदेस-पद्देस, जग्गै, कत्तरी (कस्तूरी) आदि। यह कन्नौजी और ब्रज की भी प्रवृत्ति है।
- ‘ह’ के विलुप्तीकरण की प्रवृत्ति (अल्प प्राणीकरण) बुंदेली के अन्य रूपों की तरह भदावरी में भी वर्तमान है। यथा-कही-कई, हाथी हत्ती; पहलो -पेलो या पैलो आदि।
- कन्नौजी के प्रभाव स्वरूप भदावरी में भी संयुक्ताकार की प्रवृत्ति आई है। यथा-दिनडूबे-डिंडूबे, बरिसन-वस्सन जानता जन्तू या बेजन्तो, चाकरन-चाकन्न, प्रजा-पज्जा, भूख-भुक्क आदि।
- ब्रज की तरह भदावरी में भी अकारान्त पुल्लिग शब्द उकारान्त और स्त्री लिंग अकारान्त शब्द इकारान्त उच्चरित होते हैं: यथा- सूर्य-सूर्जु, मूर्ख-मूरखु, नारायण-नारायनु, खूब-खूबूं, तलवार-तरवारि, मौज-मौजि, चैन-चैनि, सांझ-सांजि आदि।
- कन्नौजी तथा शुद्ध बुंदेली की तरह कुछ शब्दों में ‘न’ के स्थान में ‘ल’ का उच्चारण भी मिलता है। यथा-जनम-जलम, हनुमान-हलुमान आदि। इसके विपरीत ‘ल’ के स्थान में ‘न’ का उच्चारण भी मिलता है। यथा-लकरिया-नकरिया, लखुरिया-नकुरिया (लोमड़ी) आदि।
अन्य ध्वन्यात्मक विशेषताएँ सामान्य बुंदेली की तरह ही हैं।
रूपात्मक विशेषताएं
संज्ञा – अधिकांश नाकारान्त संज्ञा शब्द बुंदेली के अन्य रूपों की तरह भदावरी में भी ओकारान्त अथवा औकारान्त होते हैं। यथा-सबेरो, अँधेरो, सहारो अथवा सहारौ, घोड़ो, मोड़ो आदि।
- ओकारान्त और आकारान्त संज्ञा शब्दों के स्त्रीवाची रूप में जो और आ के स्थान में ई अथवा इया हो जाता है। यथा- बेटा-बेटी या बिटिया, मोड़ा-मोड़ी, घोड़ा-घुड़िया आदि।
- बुंदेली के अन्य रूपों की तरह भदावरी में भी सम्बन्ध वाचक शब्द आकारान्त होते हैं, जो दोनों वचनों में अपरिवर्तित रहते हैं। कभी-कभी उनके बहुवचन रूप में ब्रज, मालवी और निमाड़ी की तरह ‘न’ लग जाता है।
मूल ए. व. | तिर्यक् ए. व. | मूल ब.व. | तिर्य ब. व. |
हरिका | लरिका | लरिका | लरिकन |
घोरा | घोरा | घोरा | घोरन |
सर्वनाम
- प्रथम पुरुष एक वचन ‘मैं’ के स्थान में ब्रज की तरह ‘हों’ अथवा ‘हौं’ का प्रयोग होता है, किन्तु बहुवचन-रूप सामान्य हिन्दी की तरह ‘हम’ ही प्रयुक्त होता है।
- बुंदेली के अन्य रूपों में द्वितीय पुरुष ‘तुम’ का सम्बन्य-कारक-रूप ‘तुमारो’ अथवा ‘तुमाओ’ होता है, किन्तु भदावरी में इनके स्थान पर ‘तिहारो’, ‘तिहारे’ (ब. व.) का प्रयोग होता है।
- बुंदेली के अन्य रूपों में तृतीय पुरुष बाची एक वचन ‘वह’ तथा बहुवचन ‘वे’ के स्थान में क्रमशः ‘बा’ और ‘वे’ शब्दों का प्रयोग होता है, जिनके स्त्रीलिग रूप ‘बा’ और ‘बे’ होते हैं, किन्तु भदावरी में इनके प्रयोग के साथ कहीं-कहीं जा, जी और जे का भी प्रयोग होता है।
सर्वनाम के अन्य रूप सामान्य बुंदेली की तरह ही है।
क्रिया
- बुंदेली के प्रायः समी रूपों में हकार के लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है। यह प्रवृत्ति भदावरी की क्रियाओं में विशेष रूप से परिलक्षित होती है। इसी प्रवृत्ति के कारण सामान्य क्रिया-रूप ‘हैं’ अथवा ‘हैं’ भदावली में ‘ऐ’ अथवा ‘ऐं’ हो गया है। जातए, खातएँ आदि क्रिया-रूप इसके प्रमाण हैं। स्त्रीलिंग में ये क्रमशः जाती औ, खाती ओ हो जाते हैं।
- भदावरी की भविष्य कालीन क्रिया में ब्रज और कन्नौजी; दोनों रूप प्रचलित हैं। ब्रज की भविष्य-कालीन विभक्ति ‘ग’ और कन्नौजी की ‘ह’ है। भदावरी के ब्रज-मिश्रित रूप में हमें ‘ग’ का प्रयोग – ‘चलोंगो’ तथा कन्नौजी-मिश्रित रूप में ‘ह’ विभक्ति का प्रयोग – ‘चलिहों’ अथवा ‘चलिहैं’ मिलता है। बुंदेली के अन्य रूपों में भी ‘ह’ विभक्ति का ही प्रयोग मिलता है; यथा-चलिहें।
- हिन्दी के भूतकालीन रूप था, थे, यी बुंदेली में हता, हते, हती हो गये हैं। कभौजी में भी इनके ये ही रूप है, जो भदावरी में भी विशेषकर कन्नौजी-मिश्रित भदावरी में ज्यों के त्यों मिलते हैं। बुंदेली के कुछ रूपों में ये हकार की विलुप्तीकरण की प्रवृत्ति के कारण ता, ते, ती हो गये हैं।
- भदावरी के कन्नौजी-मिश्रित रूप में हमें था, थे, वी अथवा हती, हते, हत्ती के स्थान में ‘रहें’ सहायक क्रिया का भी प्रयोग मिलता है यथा- ‘कोऊ बेपारी के चार लरिका रहें। यह ‘रहें’ सहायक क्रिया वास्तव में अवधी की है, जो कन्नौजी के माध्यम से भदावरी में आई जान पड़ती है।
- भदावरी की अनेक सम्भाव्य भविष्य कालीन अनुस्वरित एकारान्त क्रियाएँ ऐकारान्त मिलती हैं। यथा-मनामें-मनामैं (मनावें), दिखायें अथवा दिखामें-दिखामैं आदि।
भदावरी की अन्य रूपात्मक विशेषताएँ सामान्य बुंदेली की तरह ही हैं। यहाँ यह स्मरणीय है कि भदावरी के एक रूप में ब्रज का और दूसरे में कन्नौजी का मिश्रण है, किन्तु यह मिश्रण शब्द-समूह की दृष्टि से जितना है, उतना ध्वनि अथवा रूप (व्याकरण) की दृष्टि से नहीं है। भदावरी ध्वन्यात्मक और रूपात्मक दृष्टि से सामान्य बुंदेली से बहुत कम भिन्न है। यह नाममात्र की अभिन्नता ही उसे बुंदेली की एक उपबोली प्रमाणित करती है।
यह भी स्मरणीय है कि यदि एक बोली की अनेक उप बोलियाँ हों, जैसा कि हम बुंदेली के सम्बन्ध में जानते हैं; तो उसकी प्रत्येक उपबोली का मूल बोली से घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है, जैसा कि हम भदावरी और सामान्य बुंदेली के बीच देखते हैं, पर उसकी सभी उपबोलियों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होना आवश्यक नहीं होता। इस सम्बन्ध की न्यूनाधिकता उनकी परस्पर की दूरी पर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ भदावरी और सामान्य बुंदेली अथवा मूल बुंदेली में जितनी घनिष्ठता है, उतनी ही घनिष्ठता बुंदेली की दूसरी उपबोली बनाफरी और मूल बुंदेली में भी है, पर भदावरी और बनाफरी एक-दूसरे से अधिक दूर होने के कारण परस्पर बहुत भिन्न है।
भदावरी के विभिन्न रूप
हमने ऊपर भदावरी के तीन रूप बतलाए हैं- ब्रज-मिश्रित, कन्नौजी-मिश्रित और खड़ी बोली प्रभावित बुंदेली-प्रधान रूप। इन रूपों को अधिक स्पष्ट करने के लिए हम यहाँ इन रूपों के नमूने प्रस्तुत कर रहे हैं।
- ब्रज-मिश्रित रूप
एक बेपारी के चार बेटा हते। जब वे सियाने होकें बियाओ लाक भये, तब बेपारी उनको बियाओ करिबे को बहुअन को खोज में निकरौ। बो चलत-चलत काऊ नगर में पोचों। बो बा नगर में एक तला के किनारै बिरछन की गेरी छाँय में ठेर गओ। तनिक देर में बा नगर की भोत लरकिनी तला के पार पे पानी भरवे को आई। उनमें एक लरकिनी बा बेपारी की हती जो बा नगर की भौत पइसाबारो हतो। फिर वे लरकिनी तला में पानी भरकों अपयें-अपयें घरे जान लगीं। सब लरकिनन के मूड़न पे नोने-नोने कलसा हते, बा पइसाबारे बेपारी की बिटिया के मूड़ पे एक फूटो कलसा हतो। संग की बिटियन ने कई कै, काये बाई तेरो बाप तो सबसे पइसाबारो है, फिर त फूटे कलसा कों काम में काये लियाउत है ?
पइसाबारे बेपारी की बिटिया ने जवाब दओ के साँचऊ मेरो बाप पइसाबारो है, पै मेरो बियाओ काऊ धनवान में संगे हुई कै काऊ गरीब के संग में हुई, जौ कोऊ नई बता सकत। तातै मैं बियाओ के पैले सुख-दुख में रहनो सीखी जैहों। संग की सब बिटियाँ मौ बनाके आगे को चली गई। तला पे बैठो बेपारी वा बिटिया को जबाब सुनके मन ई मन भौत खुसी मजओ और बा बिटिया को अपई बऊ बनावें की बात सोचन लगो। यो बेपारी बा बिटिया के पाछे-पाछे वाके बाप के घरे गजो और बाकों अपने मन की बात बताई। बो बेपारी अपई बिटिया के लाने एक नोने नीकेबर की खोज में हतो। बाने अपई बिटिया देवो मंजूर कर लो और बियाओ की बात पक्की कर रूई।
जब वो बेपारी अपनें घरे आओ तो चारऊ बेटन कों बुलाओ और उनसे पूछन लगी, मोय एक लरकनी मिल गई और तुम चार भैया हो, सो मोय बत्तानो, मैं बाको बियाओ तुम में से कौन के संगे कर देऊं ?
सबसे छोटे लरका ने कई कै वा लरकी को बियाओ सबसे बड़े भइया के संगे कर देजो, हम तीनऊ जनें बाकों भावी के है। बड़े बेटा की बियाओ हो गओ।
भिंड और मुरैना जिले के ब्रज-मिश्रित बुंदेली-रूप में बुंदेली भाषी विस्तृत क्षेत्र में प्रचलित मोड़ा, मौंड़ा अथवा मौंड़ा के स्थान में बेटा अथवा लरका शब्द का प्रयोग होता है, जैसा कि हम ऊपर की कहानी में देखते हैं।
- स्त्रीलिंग में बेटा का बिटिया और लरका का लरकिनी होता है।
- अकारान्त, आकारान्त, इकारान्त और ईकारान्त एक वचन शब्द ब्रज और बुंदेली, दोनों में ‘न’ प्रत्यय लगाकर बहुवचन बनाये जाते हैं।
यथा- बेटा-बेटन, बिटिया-बिटियन आदि।
- एकारान्त का ऐकारान्त नौर ओकारान्त का औकारान्त प्रयोग ब्रज की विशेषता है, जो इस कहानी के निकरौ, किनारै, जौ, कै, तैं, तानैं, मौ, बनाकैं, आगैं और संगै शब्दों में परिलक्षित है।
- ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का प्रयोग भी ब्रज में ही अधिक होता है। इस कहानी के बेपारी, बियाओ, करिवे, बो, बा, पइसाबारे, देबो आदि शब्द इसी प्रकार के हैं।आगरा जिले के दक्षिणी भाग की भदावरी का ब्रज-मिश्रित रूप इस चम्बल नदी के दक्षिणी भाग की भदावरी से कुछ भिन्न है। इसका कारण आगरा के भदावरी रूप में ब्रजी की अधिकता है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ यहाँ दी जा रही हैं-
एक दिन सुर्ज नारायनु चोरी-चोरा अपनी अस्त्री (स्त्री) के पास आये, सो काऊ पज्जा ने जानी नाहीं। सुर्जनारायन की अस्त्री को अधानु (गर्म) रहि गयो। तब उनके पैदा भौं पुत्र नबैं महिना। पज्जा-में चबाउ (चर्चा) भयौ। फिरि सूर्जनारायन अपने देस की नीकी तरियां (तरह)-सों आये। लाउलसकार लैं-कैं आयें। तब उनको रथु गैल-में अटकि गऔ। तब हमने कही के सुर्जनारायनु-कौ जाइदा (सच्चा) पुत्र होयगौं तो बा-के छुएँ तें रथुचलि होय। तब बेटा घर-तें आओ। रथु पाँय-के अँगूठा-तें छूए दऔ। रथु चलि-उठौ।
कहानी के इस अंगा का गठन ब्रज का है। कुछ क्रियाएँ वाक्य के अन्त में व्यवहुत न होकर मध्य में व्यवहृत हुई है।
- ब्रज की उकार की प्रवृत्ति भी वर्तमान है।
- आये, जानी नाहीं, रहि गयो, मयी आदि क्रिया-रूप ब्रज के ही है, किन्तु अन्य क्रिया-रूप-पैया मत्रो, जटकि गजौ, लै-कैं, कही, होयगौ, आऔ, छुइ दऔ तथा चलि-उठौ बुंदेली के हैं।
- दिना, काऊ, चोरी-चोरा, नबैं, तरियां, लाउ-लसकर, गैल, बा-के तथा छुऐं रूपों का प्रयोग ब्रज और बुंदेली, दोनों में होता है।
- पज्जा, अधानु तथा जाइदा ब्रज के अपने हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन वाक्यों में ब्रज और बुंदेली का लगभग समान रूप में मिश्रण है, पर रचना-शैली ब्रज की ही है।
- कन्नौजी-मिश्रित रूप
एक सेठि के चार मोड़ा ए। तई बे खाइ पीकें, बड़े भये सोई बिनि के ब्याह के काजें बु सेठि बीहरिया ढूंडवे को निकारी। बुचल्तु-चल्तु एक सैर में पोंचो। भे ठानी बाइ एकु तालु दीसो- वहीं घनी-घनी पेड़नि की छाँइ में बु बैठिगों। नैकई देर पीछें बा सैर की गल्लेनि मोंडि ताल पै पानी भरिवे आई। बिनि में एक मौड़ी बा साऊकार की ऊईं ते बा सैर को सिगन्निते जादा पैसा बाओ साऊकास ओ वे मोड़ी ताल पै ते पानी भरिके अपने अपने घन्नि कों गई। सिग भौड़नि की मूड़िनि पै छट्टा-छट्टा मौनि धरी, परिवा साऊकार की मौंड़ी की मूडि़ पै फूटी मौनि धरी। संग की मौडिनिने बाते पूछी कै काये बिनी, तैऔ बापु सिगन्नि ते बोहरो है, फिर तू जा फूटी मौनि ते पानी काएकों भन्तिये। तई वा बोहरे की मौड़ी ने कई साचेऊँ मनी बापु बोह्रो साऊकार ए परि मेओ ब्याहु कैतो काऊ साऊकार के मोड़ा के संग होगो कै काऊ गरीब के मोड़ा के संग, जाइ कोऊ ना बतावतु। ताते में व्याहेन पैलेंई सुख-दुख में रहियो सीखि रहीऊँ। संग की सिग भौंड़ी माँ ऐठिकें चली गई। ताल पै बैठो बु सेठि वा मौड़ी की बातनि सुनिकै मनई मन में मारी खुसी मनो। बाई मौड़ी हूं बाने अपने मौड़ति की बैहरिया बनाइवे की सोंचि लई। बु सेठि बा मोंड़ी के पीछे-पीछे बाके बाप के घर गओ। बाइ बाने अपने मन की बात कह दई। बुऊ साऊकार अपनी मौंड़ी के व्याह यो काजे छट्टा सो मौड़ा देसिवे फिर्रो। वाने अपनी मौड़ी व्याहियो मंजूर कल्लई और ब्याहु पक्को होगौ।
बु पैले को सेठि अपने घरकूं गऔ औरु बाने अपने चारों मोंड़ा टेरे। बिनते पूछी के काऐरे ओ में एक मौड़ी छाँटि आओ परि तुम चारि भैया औ। तुम सिंग मोई जो बताऊ कै बाको ब्याहु कौनसे मोड़ा के संग करवाऊँ। सिगन्नि ते लोहरो मोंड़ा बोलो कै बाको ब्याहु सिगन्नि ते बड़े को कद्देउ। हम सब तीनों बातें भौजी कैहगे। बा बड़े मोड़ा को ब्याह है को।”
प्रथम उदाहरण में हमने देखा कि बुंदेली का ब्रज-मिश्रित रूप बुंदेली से अधिक भिन्न नहीं है। दोनों रूपों में जो मित्रता दिखाई देती है, वह स्थानीय प्रभाव ही कहा जा सकता है, किन्तु कन्नौजी-मिश्रित रूप की स्थिति ब्रज-मिश्रित रूप से बहुत भिन्न है। हम बुंदेली के इस रूप में निम्नांकित विशेष-ताएँ देखते हैं-
- शब्दान्तरीय व्यंजन-संयोग कन्नौजी की प्रमुख विशेषता है, जो हमें इस उद्धरण के स्थान-स्थान में दिखाई देता है। यथा- चल्तु-चल्तु (चलते-चलते), गल्लेनि (बहुत सी), सिमन्निते (सब से), पत्रिकों (घर को), कलाई (करली), कद्देउँ (कर) आदि।
- इस शब्द-संयोग में हमें कोई निश्चित नियम दिखाई नहीं देता। कुछ बुंदेली भाषी क्षेत्र में शब्द-मध्य व्यंजन ‘र’ उसके पश्चात के व्यंजन का अर्ध रूप धारण कर संयोजित मिलता है; यथा-झरना-शिक्षा, हिरनी-हिंस्री आदि। इस नियम के अनुसार ‘करली’ का ‘कल्लई’ और ‘कर देऊ’ का ‘कद्देऊ’ हो सकता है, पर उपर्युक्त शब्दों में चत्तु-चल्तु, सिगन्निते तथा घश्नि (घर) इस नियन के अपवाद है। कनौजी-मिश्रित बुंदेली में इस प्रकार के शब्दान्तरीय व्यंजन-संयोग अनेकों हैं, जो कन्नौजी से आकर बुंदेली में इसी रूप में व्यवहृत होते हैं। कसूरी (कस्तूरी), तम्मू (तम्बू), जग्गै (जगह), बाच्छाह (बादशाह), थग्गओ (थक गया), तोल्ला (तोड़ ला), फिर्रओ (फिर रहा) भन्तिए (भरती है) आदि ऐसे ही शब्द हैं।
- अपभ्रंश की उकार बहुला प्रवृत्ति हमें इस कन्नौजी मिश्रित बुंदेली रूप में बहुत दिखाई देती है। सोऊकारु (साहूकार), बु (वो, बह), ब्याह (व्याह), चल्तु, औरु, एकु (एक) तालु (ताल), बापु (बाप); इसके उदाहरण हैं। यह प्रवृत्ति ब्रज में भी वर्तमान है, पर कन्नौजी की तरह अधिक प्रमाण में नहीं है।
- इस उदाहरण में हमें बुंदेली के इस कन्नौजी मिश्रित रूप में एक प्रवृत्ति ब्रज और बुंदेली से पृथक् दिखाई देती है वह है अनेक अकारान्त शब्दों का इकारान्त प्रयोग; यथा-सेट-सेठि, पेड़न-पेड़नि, मूड़-मूड़ि, ऐंठ-ऐठि, छाँट-छाँटि, चार-चारि आदि।
- ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का प्रयोग ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी की सामान्य प्रवृत्ति है, जो इस उदाहरण में भी विद्यमान है।
- ओकारान्त शब्दों का ओकारान्त उच्चारण ब्रज (कहीं-कहीं बुंदेली में भी) की तरह कन्नौजी में भी होता है, जैसा कि उपर्युक्त उदाहरण में भी दिखाई देता है।
- छट्टा (सुन्दर-ब्रज-बुंदेली में ‘नोने’), बैहरिया (बहू-वधू), गल्ले (बहुत), मौनि (घड़ा), बौहरो (बड़ा), ठानि (स्थान) आदि कन्नौजी के शब्द हैं, जो इस उदाहरण में ज्यों के त्यों प्रयुक्त है।
- कुछ शब्दों में हमें ‘र’ वो स्थान में ‘अ’ का प्रयोग मिलता है, ‘पैसाबारी’ के स्थान में ‘पैसा बाओ’ ऐसा ही प्रयोग है।
- क्रिया के था, थे, थी पूर्ण भूतकालीन रूपों के स्थान में ब्रज और बुंदेली; दोनों में हता, हते, हती शब्दों का प्रयोग होता है, किन्तु कन्नौजी-मिश्रित रूप में हमें इनके स्थान पर ‘ए’ (चे), ‘ई’ (थी) तथा ‘ओ’ (था) का प्रयोग मिलता है। यथा- एकु साऊकार ओ (एक साहूकार या), बाकै चारि मौड़ा ए (उसके चार लड़के थे), बिनिकी एकु मोड़ी ई (उनकी एक लड़की थी)।
- बुंदेली में भविष्यत काल वाची गा, गे, गी प्रत्ययों का प्रयोग नहीं होता। इनके स्थान में प्रायः है, हो, हौं, हुहै, हुई है आदि का प्रयोग होता है, किन्तु उपर्युक्त कहानी में हमें इन प्रत्ययों का प्रयोग किसी न किसी रूप में दिखाई देता है। इसका कारण खड़ी बोली का प्रभाव ही जान पड़ता है; यद्यपि कन्नौजी में भी इन प्रत्ययों का प्रयोग हमें कहीं-कहीं मिल जाता है।
हमें रामपुर कलां (सबलगढ़ परगना) ग्राम के श्रीलाल काछी-द्वारा अनुवादित जो कहानी थी कम्मोद सिंह यादव से प्राप्त हुई है, उसमें भी ये ही विशेषताएँ मिलती हैं। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ देखिये-
“एकु सौदागर ओ। बाकैं चारि मौड़ा ए। जब वे खाइ-पीकै व्याह लाइक भये, तौ बू सौदागर विनी के बिहाव कों बहू ढूंढिंबे निकरौ। चल्तु-चल्तु बु एक सैर में पौंची। बु भैठानी एक ताल पै ठैरो। वोई सी देर मेंई वा सैर की मौत-सी मौड़ी पानी भरवे आई। बिनियें एक मौड़ी बा सैर के सबन्ते बड़े मालदार कीऊ हती। संग की मौड़ीन्नै कई कै त्यौ बापुनी जादा मालदार ऐ, फिरि तू फुटौ घेला काये लाच्चै ?”
तुलनात्मक विवेचन
भदावरी एक ओर बुंदेली का ब्रज-मिश्रित और दूसरी ओर कन्नौजी-मिश्रित रूप है। दो बोलियों का मिश्रण उनमें परस्पर कुछ रूप-साम्य होने पर ही अच्छा लगता है। यदि उनमें परस्पर कुछ भी साम्य नहीं है, तो वह मिश्रण मूल बोली के रूप को ही विकृत कर देता है, फिर वे मिश्रित बोलियाँ भले ही किसी एक ही परिवार से सम्बद्ध हों। उदाहरणार्थ हिन्दी और मराठी अथवा गुजराती एक ही आर्य भाषा-परिवार से सम्बद्ध हैं, किन्तु हिन्दी के साथ इनका मिश्रण हिन्दी के रूप को ही विकृत कर देगा; क्योंकि इनमें रूप-साम्य नहीं है। ब्रज और कनीजी का बुंदेली के साथ एक बड़ी सीमा तक रूप-साम्य है। इसी रूप-साम्य ने कुछ भिन्नता होते हुए भी उसके मिश्रित रूप को विकृत नहीं होने दिया। इन तीनों बोलियों का यही रूप-साम्य और भिन्नता दिखाना हमारा इस तुलनात्मक विवेचन का लक्ष्य है।
ब्रज और बुंदेली
समान रूप और समानार्थी शब्द
निम्नांकित शब्द ब्रज और बुंदेली में समान रूप और समान अर्थ में प्रयुक्त होते हैं-
अइड़ी (एढ़ी) | आग |
अकउआ | आर (लोहे को पतली कील) |
अंगिया | आरी |
अंगूठी | आलन (आटा या बेसन मिली पतली सब्जी) |
अंटा (आंटी हुई रस्सी) | इमली |
अंडउआ (अण्डीका पेड़) | ईगुर |
अंडी | ईंटा |
अजगर | उखटा (गेहूँ की फसल का एक रोग) |
अदन्त | उलार |
अंदा (लोहे की गोल पत्ती) | ऐनक |
अरगनी | ओढ़नी |
अवा (आवा) | ककई (कंधी) |
अस्सेरा (अघसेरा) | कजरी |
आंगन | आग |
कंडा | धानी |
कंडी | धुन |
कपूरकंद (लौकी की मिठाई) | चचेड़ा (एक लम्बी फली) |
कतरनी (कैची) | चबेना (खाने का भुना अनाज) |
कबरी | चक (खेतों का समूह) |
कमीच | चदरा (चादर) |
करेला | चरखी |
कलाकन्द | चलनी |
कलोर (जवान बछिया) | चावुक |
कसार (शक्कर मिला गेहूँ का मुना आटा) | चासनी |
काजर | चितकबरी |
किसान | चिमटा |
कुंदरु | चिलम |
खटोला (पलना) | चीला |
खाज | चुनी |
खिचरी (खिचड़ी) | चून (आटा) |
सुरपा | चूनरी |
खुरपी | बोली |
सुरमा (एक खाद्य पदार्थ) – | चौक |
खेती | चौबगला |
खेप | चौंतरा |
गंगा सागर (नली वाला लोटा) | छागल (पैर का एक आभूषण) |
गढ़ी | छिरिया (बकरी) |
गागर | छोला (गन्ना छोलने वाला) |
गिलास | जर (जल) |
गुड़िया | जिजमान (यजमान) |
गुजिया | जुतझ्या (जोतने वाला) |
गुना | जौख (तौल) |
गूदरा (पुराना फटा वस्त्र) | जोता (किसान) |
गुलेल | टटिया |
गौन (अनाज भरने का एक साधन) | टहलुआ |
धन | टहल |
घर | टिपारी |
धमला | ठाट (घर के ऊपर का छप्पर) |
ठोड़ी (चिबुक) | बकरिया |
ढेरा | बघार |
ढोर | बछड़ा |
ढोलक | बटलोई |
तखरी (तराजू) | बटुआ |
तमोली | बन (कपाउ का पौधा) |
थरिया | बछिया |
थारी | बंसी |
धुलाई | बल्योरी (सब्जी के बदले मिलने वाला अनाज) |
घुस्सा (एक प्रकार का कम्बल) | वसूला |
धारी | बाजरा |
ननँद | बाजूबंद |
नाऊ | बोरी (वाली) |
नाँद | बासन (मिट्टी के बर्तन) |
नुकती (एक मिठाई) | बासी |
नोंन (नमक) | बिलिया (कटोरी) |
पकवान | बीजना |
पगड़ी | बुरादा |
पजामा | बेलन |
पत्तर (पत्तरी) | बैठक |
पाग | बाइया (बाँस का एक गोल बर्तन) |
पातर | बोरा |
पटवा (डोरे से गहना गोंठने वाला) | भात |
पलका (पलंग) | भाड़ |
पंगत | भैसा |
पनघट | मछरी (मछली) |
परजापत (कुम्हार) | मछेरा |
पसंगा | मलीदा |
पान | मही |
पासंग | महेरी |
पिठी | मिस्सी |
फटकन | मेंढ़ |
फड़ | रार (राल) |
फलका | रेवड़ी |
रोटी | लेज (रस्सी) |
रखाई (रखवाली) | सौकर (साँकल) |
रजाई | सांड |
रबड़ी | साँप |
रसोइया | सेमर (सेमर) |
रसोई | हर (हल) |
रास | हरदी (हल्दी) |
रोटी | सीरा (पतली लपसी) |
लगाम | हथफूल (हाथ का एक आभूषण) |
लादी (कपड़ों का मट्ठा) | हरड्या (हल चलाने वाला) |
लील (नील) | हर (हल) |
उच्चारण भेद युक्त समानार्थी शब्द
निम्नांकित शब्द किंचित् उच्चारण-भेद के साथ ब्रज और बुंदेली में समान अर्थ में प्रयुक्त होते हैं:-
शब्द ब्रज | बुंदेली |
अगोछा | अंगोछा |
अड़ंगा | अड़ंगा |
अदमाइन, अदवाइन | अदमांन, अदवान (चारपाई में लगी मोटी रस्सी) |
उजाड़ | उजार |
उर्द | उरदा |
ऊन | ऊँन |
ऐन | ऐन (गाय का दूधवाला अंग) |
करनफूल | कनफूल (कर्णफूल) |
किसनई | किसानी |
कंघा | कंगा |
कन्नी | कन्नीं |
करौंदा | करोंदा |
केकड़ा | केंकरो |
कैत | कैंत (केथा) |
खीचरी | खिचरी |
गाय | गइया |
गुड़ | गुर |
गूंजा | गूजा |
गेँहू | गोहूँ |
गोभी | गोबी |
घंघरिया | घंगरिया |
घड़ोंची | घिनोंची (घड़े रखने का एक साधन) |
घुइँया | घुइयाँ |
घूरा | घूरो |
घिटोर | घिटरिया |
चकुला | चकुलिया (पत्यर की छोटी चक्की) |
चना | चनाँ |
चमार | चमरा |
चलना | चन्ना (छना) |
चावल | चाँउर |
चिमटा | चमीटा |
छेनीं | छेनी |
जलेबी | जबेली |
जिमीदार | जमीदार |
झरबेरिया | झरबेरी |
टमाटर | टिमाटर |
डिबिया | डबिया |
ढेरनो | ढेरबो |
तैमन | तैओन (जली साग) |
तोरई | तुरइया |
तोबड़ा | तोबरा |
थार | थरा (थाली) |
दड़ी | दरी |
दही | दई |
दाल | दार |
दूध | दूद |
दूब | दूबा |
देहरी | दिहरी |
दल्लान | देलान (बहलान) |
नटिया | नटइया (नाटा) |
नाग | नांग |
नारा | नारो |
निपनिया | निरपनियां |
नौनी | नैनू (मक्खन) |
नइनियाँ | नाइन |
निहाई | नेंहाई |
नीबू | निबुआ |
पड़रा | पड़ा |
परोथन | पर्थन |
पस | पसो |
पेड़ | पेड़ों |
पापड़ | पापर |
पिसनहारी | पिसनारी |
पीसना | पीसाये |
पूड़ी | पुड़ी |
फावड़ा | फावड़ो |
बतासे | बतेसा |
बबूल | बमूरा |
बिलनिया | बिलनियाँ |
बुआई | बोबाई |
बुनपाट | बुन्नपाट |
भट्टी | भटिया |
भुट्टा | मुंटा |
मक्का | मका |
मटुवा | मटका |
मुदरी | मुंदरी |
मूली | मूरा |
मोंगरी | मोंगरिया |
रंदा | रूंदा |
समोंसा | समोसा |
सिरहाना | सिरहानो |
सेब | सेव |
समाँ | समा |
हंडिया | हड़िया |
हतोड़ा | हतौड़ा |
हतौडिया | हतौडि़या |
रूप साम्य भिन्नाथी शब्द
ब्रज और बुंदेली में प्रयुक्त निम्नांकित शब्द ऐसे हैं, जिनमें रूप-साम्य है, पर अर्थ-साम्य नहीं है। ये पशब्द दोनों बोलियों में दो भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होते हैं:-
शब्द | ब्रज | बुन्देली |
अकरी | महँगी | एक पतली लत्ता |
अगरी | अनुचित बात | उपलों की पंक्ति |
अँगीठी | उठउआ चूल्हा | उपलों का ढेर |
अड़ार | टेड़ा | कपड़े रखने को घाट पर बिछा चादर |
अड़िया | मके का पका मुट्टा | रहढे पर लिपटी ऊन वा सूत |
अचार | आम-नीबू का अचार | एक जंगली छोटा फल |
अरी | स्त्रियों के लिये सम्बोधन | एक पाँच अंगुल का खीला |
अंडा | पक्षियों का अंडा | अंडी का पेड़ |
आर | हठ | लोहे की पतली कील |
आदी | किनारी | छोटा बारा |
उबार | उद्धार | ताम्बूल उता के चारों ओर की घाँस |
ओंगना | अंडी के बीज का ऊपरी छिलका | लकड़ी का एक चौखटा बर्तन |
औरेब | तिरछी चाल | तिरछी सिलाई |
कंजी | बादामी रंग की पुतली वाली स्त्री | करंजी |
कटुआ | कटा हुआ | छोटा खीरा |
कनक | स्वर्ण | आटा |
कोरो | खपरों के नीचे का बाँस | काम में न लाया गया |
कद्द, कदुआ | लौकी | कुम्हड़ा |
कनी | उँगली | एक लोहे का चपटा औजार |
करइया | हाथ की कलाई | काम करने वाला |
कनारी | भेड़ का नाम | मिट्टी का एक लंबा बर्तन |
कलावत्तू | एक आभूषण | एक मिठाई |
कुचिया | वालो से बनी कुची | उर्द की दाल की टिकिया |
कुंदा | अधिक सिका मावा | लोहे का एक टेढ़ा खीला |
केर | नट की एक कला | केले का पेड़ |
खत | गालों और टोड़ी पर बाल निकलने का स्थान | लोहे का एक नुकीला औजार |
खरी | एक ब्यात से दूसरी तक दूध देने वाली भेड़ | खली |
शब्द | ब्रज | कन्नौजी |
खिरका | किवाड़ों की जोड़ी | एक प्रकार के खेत का नाम |
खौर | एक स्वर्ण-आभूषण | रुई भरा ओढ़ने का वस्त्र |
गड़ई | लुटिया | लोटा |
गजर | प्रहर-सूचक घंटा-ध्वनि | दो से अधिक अनाजों का मिश्रण |
गूरा | कुर्त के गले की पट्टी | भेड़ों का झुण्ड |
गदेला | चिड़िया का नवजात बच्चा | गद्दा |
गुटिया | बकरी का नाम | कपास की घुंडी |
गुली | बुरा मिला पूड़ियों का चूरा | महुए का बीज |
घाट | खटिया की एक बुनावट | नदी तालाब का किनारा |
घूंघरा | स्त्री के सिर के घुंघराले बाल | एक बजने वाली घंटी |
घेंटी | सुवर का नवजात बच्चा | चने की फली |
चरस | कुएँ से पानी निकालने का चमड़े का थैला | एक नशीला पदार्थ |
चाकी | चक्की | गीली मिट्टी का ढेर |
चाड़ी | निंदा | बीज बोते समय हल की पौर में लगने वाला पात्र |
चालन | चलाने की क्रिया | चापड़ |
चीज | गहना | वस्तु |
चैत | चैत्रमास | उन्हारी की फसल |
छतिया | छाती | कमलगट्टों का आरंभिक आकार |
छोला | चना | छिलके बाला गोंद |
जामन | दही जमाने का दही | जामुन का वृक्ष |
जी | मन | चारपाई की बुनाई की तिरछी लड़ें |
जेर | गाय के जनने पर निकलने वाला पदार्थ | एक मोटी लकड़ी |
जेवरा | बछड़ा बांधने का रस्सा | पानी निकालने का रस्सा |
जोती | मशक में बांघने वाली चमड़े की रस्सी | छोटी रस्सी |
झरा | झरना | कुँवार में पकने वाली एक घान |
झल्ली | बाँस की जालीदार टोकनी | छोटी लकड़ी |
झाल | ऊपर से नीचे गिरने वाला पानी का बहाव | बड़ी डलिया |
झिल्ली | एक कीड़ा | पतला कागज |
टगर | एक श्वेत पुष्प का वृक्ष | दूर का खेत |
टिपारो | तीन शाखावाली मुकुटनुमा टोपी | बाँस का एक बर्तन |
टीप | गले का एक आभूषण | लिखा दस्तावेज |
ठाँट | छप्पर पर छाया घास | बाँझ गाय |
डुगडुगी | मदारी का बाजा | एक पत्तेबाली सब्जी |
ढबुआ | पैसा | पत्तों से बना घनाकार स्थान |
ढाल | तलवार का वार रोकने का साघन | ढालू स्थान |
ढिग | घोती की किनार की रेखा | रोटी की किनार |
तरका | सवेरा | गुड़ के ऊपर का भाग |
तरिया | जूते के नीचे का भाग | गाड़ी का एक भाग |
तोर | तेरा | आम के फल का चीका |
तोड़ | बच्चा मरने पर भी दूध देने वाली गाय | सोडा मिला पानी |
थरी | कोल्हू गाड़ने का स्वान | एक छोटा गोल पत्बर |
दरिया | दलिया | कटीली झाड़ी |
दहेंड़ी | दही बिलोने का बर्तन | दूध जमाने का बर्तन |
दून | दूना | दो लड़ों की रस्सी |
डिंगरा | बैलगाड़ी का चौड़ा रास्ता | छः मास से बड़ा सुअर |
दस्ती | कुश्ती का एक दाँव | रूमाल |
दारू | बारूद | देशी शराब |
नदन | शब्द करना | लोहे की लम्बी छड़ |
नक्की | डोरे से बना फंदा | घर में लगने वाली एक लकड़ी |
नाँह | नहीं है | पहिये का प्रमुख भाग |
परछिया | एक प्रकार की कढ़ाई | घड़े से बड़ा मिट्टी का बर्तन |
पटेला | बोझ ढोने वाली नाव | बर्तन पर बनी आध इंच चौड़ी रेखा |
पथरिया | छोटा आयताकार पत्थर | घोड़े की पीठ पर डालने का कपड़ा |
परमल | मके के भुने दाने | एक प्रकार का चाँवल |
पाट | लहंगे के घेरे से जुड़े हुए कपड़े के पर्त | मकान का छज्जा |
पाटी | चारपाई का लम्बा डंडा | एक चपटी लकड़ी |
पार | तालाब का बांध | गाड़ी के चक्के की एक लकड़ी |
पारा | मिट्टी से बना उक्कन | जमा हुआ गुड़ |
पालो | गाँव का अन्तिम सीमावर्ती खेत | कटीली झाड़ी के पत्ते |
पिछोरा | मोटा चादर | स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र |
पींड़ | पेड़ का तना | शहद भरा छत्ता |
पुरी | कपास का फूल | पुड़ी |
पेड़ी | बड़ी ईस | ज्वार के पौधे की शाखा |
पैर | खलिहान | पेंड के चारों ओर फैली लाक |
पोइया | घोड़े की एक चाल | ज्वार के पेड़ की डाली |
फड | इक्के का मुख्य भाग | अनाज की ढेरी लगाने का स्थान |
फरइया | चमड़ा खरीदकर बेचने वाला चमार | एक देड़ फुट लम्बी लकड़ी |
फरमा | ईंट बनाने का चौसटा | लोहे की चीफोर पत्ती |
फूल | काँसा | मथानी का एक भाग |
बगर | महल | दला हुआ धान |
बट्टा | शीशा | एक सुनारी बौजार |
बरफी | एक मिठाई | छपरी |
बरा | एक आभूषण | उर्द की दाल का बढ़ा |
बल | टेढ़े | शकरकंद की लता |
बान | लकड़ी पर लपेटी ऐंटी रस्सी | आलू का छिलका |
बार | गाँव से लगे खेत | कपड़ा नापने का गज |
बिछिया | पैर का एक आभूषण | चुटकी |
बिर्रा | चंचल तेज बैल | गेहूँ चने का मिश्रण |
बोता | ऊँट का बच्चा | प्रथम लगाई गई पान की वेला |
बदिया | बर्तनों पर पालिश करने की कलम | चमड़े की पतली पट्टी |
बाड़ | कुम्हार के चाक की किनारी | बढ़ती |
बिजना | पानी में मछलियों के अंडे देने का स्थान | पंखा |
भटिया | एक प्रकार का चाँवल | बड़ा चूल्हा |
भर्त | काँस में मिले धातु के टुकड़े | भुने बैंगन की सब्जी |
भेड़ा | नर भेड़ | भिण्डी |
मैन | कामदेव | मोम |
मूंठ | छतरी पकड़ने का स्थान | एड़ी का अगला भाग |
मेख | बैल बाँधने का खूंटा | झाड़ की छोटी लकड़ी |
मछरिया | दरी की बुनावट का नाम | मछली |
मबेला | लाख के आभूषणों पर लगने वाला काँच | सूपे में लगी बाँस की पिच |
मूंद | मुश्त | सिघाड़े की तय अंकुरित लताओं का समूह |
रवा | शुद्ध सोना | गोंद |
रास | कोलाहल | अनाज की ढेरी |
राही | पथिक | महसूल |
लपेंटा | तेज धार में उड़ती पानी की उछाल | एक घेर |
लत्ती | शकरकंद की बेल | जलेबी बनाने का कपड़ा |
लढि़या | सामान ढोने की बैलगाड़ी | दीवाल बनाने वाला मिस्त्री |
लाक | गेहूँ के पौधों का ढेर | खड़ी हरी फसल |
लिलारी | मस्तक पर लगी बिदी | लोहे की एक पत्ती |
लुचई | मैदे की पूड़ियाँ | एक प्रकार का विल |
लूम | पशु की पूंछ | बिना शहद का छत्ता |
लोई | गीले आटे का पिड | एक ऊनी वस्त्र (ओड़ने का) |
सरइया | एक पक्षी | पतला लम्बा बाँस |
सरद | शीतल | रस्सी की एक लड़ |
सराई | ऊन बुनने के सूजे | बुनाई का एक प्रकार |
साल | ऊन की ओढ़नी | शाल |
साँसो | संशय | ईंट बनाने का साँचा |
सिगारा | ऊन की चुनाई | सिंघाड़ा |
सेला | जरी काम की बनारसी. चादर | पिछोरा |
हथफूल | हाथ में पकड़कर जलाने की आतिशबाजी | हाथ का एक आभूषण |
हाड़ा | दक्षिण-पश्चिम से चलने वाली वायु | कौआ |
होरा | चने का हरा फल | भुने हरे चने |
ब्रज-बुंदेली-कन्नौजी (रूपात्मक तुलना)
अब हम रूप-तत्व की दृष्टि से ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी में साम्य एवम् भिन्नता देखेंगे।
- संज्ञा (पुल्लिग)
| ब्रज | बुंदेली | कन्नौजी |
मूल एक वचन | लड़िका | लरका, मोड़ा | लरिका |
मूल बहु वचन | लड़िका | लरका, मोड़ा | लरिका |
तिर्यक एक वचन | लड़िका | लरका, मोड़ा | लरिका |
तिर्यक बहुवचन | लड़िकन | लरकन, मोहन | लरिकन |
स्त्री लिंग
| ब्रज | बुंदेली | कन्नौजी |
मूल ए. व. | थारी | थारी | थारी |
मूल ब. व. | थारीं | थारीं | थारीं |
तिर्यक ए. व. | थारी | थारी | थारी |
तिर्यक ब.व. | थारिन | थारिन | थारिन |
तीनों बोलियों में स्त्री लिंग शब्द-रूप सभी वचनों में समान ही हैं।
कारकीय परसर्ग
| ब्रज | बुंदेली | कन्नौजी |
कर्ता | नें, नैं | ने, नें, नैं | ने, नें, नैं |
कार्म | कं, कौ, कौं, कैं, कें | को, कौं, खों, खाँ | को, काँ, का |
करण | सों, सूं, सैं, तें, तैं | से, सैं, सौं, सों | से, सैं, सेती, सन, सें |
सम्प्रदान | के लें, के लएँ | के लानें, के काजें | के खातिर, के मारें |
अपादान | करण की तरह | करण की तरह | करण की तरह |
सम्बन्ध | को, कौ, के, की | को, खो, के, खी, की, खों | को, के, की, कर |
अधिकरण | मों, में, मैं, पै | में, मैं, पै | में, मैं, मां, मों, महं, पर, पै |
तीनों बोलियों के सभी कारकों के परसर्ग नाममात्र के अन्तर के साथ समान ही हैं। बुंदेली के कर्म और सम्बन्ध कारक के परसर्ग क के अतिरिक्त व निर्मित भी है, जबकि कर्ता और अधिकरण कारक के परसर्ग बिलकुल समान हैं।
- सर्वनाम (पुरुष वाचक)
एक वचन | बहु वचन | |
ब्रज-उत्तम पुरुष | मैं, हो, मैंने, मोहिं, मोय, मो, कौ, मो कूं, मुजको, मैरो, मो पै | हम, हमै, हमैन, हमने, हम कौं, हम कूं, हमारौ, हमाओ, हम पै |
बुंदेली उत्तम पुरुष | मैं, में, मोय, मोकों, मोखों, मोखाँ, मेरो, मोरो, मोपै | हम, हमें, हमकों, कौं, हमखों, हमखाँ, हमाऔ, हमपै |
कन्नौजी उत्तम पुरुष | मैं, मई, मोय, मोहि, मोरो, मेरो, मोरो, मोपै | हम, हमैं, हमको, हमारो, हमरो, हमाओ, हम पै |
ब्रज-मध्यम पुरुष | तू, तैं, तैने, तोहि, तोय, तोको तोकूं, तेरो, त्यारो, तोपै | तुम, तुमैं, तुमैन, तुमने, तुमको,तुमारो, तिहारो, तुमानो, तुम पै, |
बुंदेली मध्यम पुरुष | तूं, तै, तोय, तोकों, तोखों, तोखाँ, तेरो, तोरी, तोपै | तुम, तुमनें, तुमै, तुमओं, तुमखों, तुमखा, तुमारो, तुमानौ, तुमपै |
कन्नौजी मध्यम पुरुष | तू, तूं, तै, तुइ, तोय, तोहि ताको, तेरो, तोरो, तोओ, तो पै | तुम, तुम्ह, तुमैं, तुम्हें, तुमसे, तुमरो, तुमारो, तुमाली, तुम पै |
ब्रज-अन्य पुरुष | बु, बू, बौ, गुवानै, ग्वानै, वाहि, वाय, पी, जो, जि, याहि, जाहु, यानै, जानें, सो तौन, जा, जिन, सो, तौन, ता, तिन, को, का, कोर, किन, का, कहा, काए, कछू | वे, बे, उनै, विर्त, विनन, उन, विननै, जे, इनैं, जिनैं, जिगन, जिगनैं, इनमें |
बुंदेली अन्य पुरुष | ऊ, बो, ओ, बा, जो, यौ, जे, ये, का, काय, कोज, काऊ, की, सो, तौन, तिन, जी, जिन, को, कौन, आप, आपन, कै, कितेक, कछू | उनैं, बिनैं, उन्नै, उनसों, उन, बिन, ऊई, ई, जी, इन, जिन, किन, इन मैं |
कन्नौजी अन्य पुरुष | ऊ, कह, ओ, बउ, उसे, वाई, बाको, उहिको, ई, इहि, यह, जहु इतै, जासै, जाय, जो, केहि, किस, कोऊ, कौनी, अपनो, आयु, कछु | बे, बै, उनको, बिनकौं, बिनसों, सौं |
ऊपर तीनों बोलियों के पुरुष और दोनों बचन के जो रूप दिये गये हैं, उनकी परस्पर तुलना करने से उनके रूपों में हमें कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता। सर्वनाम-रूपों का यह नाम मात्र का-अन्तर भी जितना ध्वन्यात्मक है, उतना रूपात्मक नहीं है। यह साम्य देखकर ही कुछ भाषाशास्त्री इन्हें तीन पृथक् बोलियाँ नहीं, पर एक ही बोली के तीन रूप मानते हैं। यह कचन एक बड़ी सीमा तक सत्य भी कहा जा सकता है। ब्रज और कन्नौजी में तो बहुत साम्य है ही, पर इन दोनों बोलियों का बुंदेली से भी कम साम्य नहीं है। इनमें जो नाममात्र का ध्वन्यात्मक अन्तर है, वही इन्हें तीन पृथक् बोलियाँ कहलाने का गौरव प्रदान करता है।
- विशेषण
खड़ी बोली हिन्दी तथा ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी के गुणवाचक विशेषण-रूपों में विशेष अन्तर नहीं है। मुख्य अन्तर केवल यही है कि हिन्दी के आकारान्त विशेषण शब्द इन बोलियों में इनकी प्रवृत्ति के अनुसार ओकारान्त हो गये हैं। उदा.- काला-कारो, हरा-हरो, पीला-पीलो या पीरो, कबरा-कबरो, अच्छा-अच्छो, बुरा-बुरो, नया-नयो, पुराना-पुरानो (जूनो) आदि। शेष गुणवाचक विशेषण शब्द ज्यों के त्यों अथवा उनके अर्ध तत्सम रूप में प्रयुक्त होते हैं। यथा चतुर, चालाक, बिदमान, मूरख, सीदो, उथलो, घमंडी, सुन्दर, उजरो, ढीलो आदि।
कुछ गुणवाचक विशेषण-शब्द इन बोलियों के अपने हैं, जो सामान्य हिन्दी में प्रयुक्त नहीं होते। यथा- नीकी, भली, गौनी, लहुरो, कमजात, छिनार, खाऊ, रखैल आदि।
संख्या वाचक और परिमाणवाचक विशेष शब्द सामान्य हिन्दी से कुछ पृथक् उनके अर्धतत्सम रूप में हैं। यथा-
ब्रज- एक, है, तीनि, बारा, अठारा, इक्यामन, पैहलो, दूसरी, या दूजौ, पाँचमों, चारों आदि।
बुंदेली – एक, दो, तीन, गेरा, चउदा, सोरा, उभैंस, इकैस, पैलो, पाँचमों, चारों, चौथ्याई आदि।
कन्नौजी – एकु, दुइ, तीनि, छा, नउ, ग्यारहा, इकईस, बामन, साठि, सत्तरि, पहलो, तिसरो, नमों दुइऊ आदि।
- क्रियापद
हम यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर तीनों बोलियों के क्रियापद के मुख्य प्रकारों पर ही विचार करेंगे।
अ. वर्तमान काल
तीनों बोलियों की वर्तमान कालिक सहायक क्रिया अस्तिवाचक हौ, हौ, हों, हैं, हूं, है, हैं, ही प्रयोजित रहती हैं।
एक वचन | बहुवचन | |
ब्रज | हौं (मैं) मारौ हौं, हौं मारत हों तू मारै है, तू मारत है बू मारै है, बू मारत है | हम मारे हैं, हम मारत है तुम मारो हो, तुम मारत हो बे मारे हैं। हैं, वे मारत हैं |
बुंदेली | मैं मारो हों, मैं मारत हों तू मारे है, तू मारत है बो मारे है, बो मारत है | हम मारै हैं, हम मारत हैं तुम मारौ हो, तुम मारत हो बे मारै हैं। हैं, वे मारत हैं |
कन्नौजी | मैं मारो हों, मैं मारतु तू मारै है, तू मारतु ऊ मारे है, ऊ मारतु | हम मारत हैं, तुम मारत हो बै वे मारत हैं |
आ. भूतकाल
- हिन्दी की था, थे, थी भूतकालीन सहायक क्रिया के स्थान में ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी में भी ओ, ए, इ-ई का प्रयोग होता है। यया-
ब्रज-
एक वचन | बहुवचन | |
ब्रज | हों लयो-लयो | हम लये |
तू लयो-लयौ | तुम लये | |
बू लयो-बूने-बाने लयो, लई, बे लये |
बुंदेली और कन्नौजी के भी ये ही रूप हैं। इन तीनों बोलियों में उत्तम पुरुष एक वचन हौं में के स्थान में भी उसका बहुवचन रूप हम ही प्रायः प्रयुक्त होता है।
- इन तीनों बोलियों में था, थे, थी के त्थान में हतो, हते, हती का भी प्रयोग होता है। यथा-
एक वचन बहुवचन
मैं जात हतो हम जात हते
तू जात हतो तुम जात हते
बू जात हतो बे जात हते
- बुंदेली में हकार के विलुप्तिकरण की प्रवृत्ति ब्रज और कन्नौजी से भी अधिक दिखाई देती है। इस प्रवृत्ति के परिणाम-स्वरूप बुंदेली के कुछ क्षेत्रों में था, थे, थी के स्थान में तो, ते, ती सहायक क्रिया-रूपों का ही प्रयोग होता है। हकार के लोप से था (थो), थे, थी क्रमशः तो, ते, ती हो गये हैं, पर हतो, हुते, हती से भी ‘ह’ का सर्वथा लोप हो गया है। इतना ही नहीं, पर कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं, जिनमें तो, ते ती से ‘त’ का भी लोप होकर केवल ओं, एं और ई ही रह गया है। यथा-
एक बेपारी के चार मोड़ा हते।
एक बेपारी के चार मोड़ाते।
एक बेपारी के चार मोड़ा एँ।
ब्रज में भी यह प्रयोग कहीं-कहीं परिलक्षित है।
इ. भविष्यत् काल
ब्रजी में भविष्यत् काल-सूचक दो रूपों का प्रयोग होता है ‘ग’ तथा ‘ह’-
‘ग’ एक वचन – मैं जाऊंगो, तू जायगो, बू जायगो
बहुवचन- हम, तुम बे
‘ह’ ए. व.- मैं मारि हो, तू मारि है, बू मारि है
ब. व.- हम मारि है, तुम मारिहो, वो मारि हैं
बुंदेली में केवल ‘ह’ रूप का ही प्रयोग होता है। इसके ये रूप हो, हौ, हो, हौं, हैं, है और है हैं। यथा-
ए. व.- में आहों, तू बाहे, ऊ आहे
ब. व.- हम आहें, तुम आहो, वे आहें
कन्नौजी के भविष्यत् कालीन रूप प्रायः बुंदेली-रूपों के समान ही है। यथा-
एक वचन – में चलि हौ, तू चलि है, बू चलि है
बहुवचन- हम चलि है, तुम चलि हो, वे चलि है
आज्ञार्थक क्रिया
ब्रज-मारौ, मारियौ, मारिये, मारिजै।
बुंदेली – बुंदेली की आज्ञार्थक क्रियाएँ प्रायः ओकारान्त होती हैं करी, दी, लौ, देखौ आदि।
कन्नौजी – कन्नौजी की आज्ञार्थक क्रियाएँ औकारान्त के स्थान पर ओकारान्त होती हैं-करो, दओ, लो, देखो आदि।
संज्ञार्थक क्रिया
ब्रज- सामान्य क्रिया की धातु में न, नो, बौ लगाने से ब्रज की संज्ञार्थक क्रियाएँ बनती हैं- कहन-कहनौ, कहिबौ।
बुंदेली – बुंदेली की संज्ञार्थक क्रियाएँ सामान्य क्रिया की धातु में ने अथवा वो लगाने से बनती हैं करने, लेने, देने, करवै, लेबी, देवौ।
कन्नौजी – कन्नौजी के संज्ञार्थक क्रिया-रूप ब्रज के समान ही हैं। कहीं-कहीं ब्रज की ‘न’ विभक्ति उकारान्त भी देखी जाती हैं करनु, देनु, लेनु मारनु आदि।
प्रेरणार्थक क्रिया
सामान्य हिन्दी के प्रेरणार्थक क्रिया-रूपों के अन्त में ‘ना’ होता है, जो ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी में ‘नो’ हो गया है-चलनो, चलावनो, चलवायनो। तीनों बोलियों के इस क्रिया के रूप समान ही हैं। कहीं-कहीं उच्चारण भेद से ‘व’ के स्थान में ‘व’ उच्चरित होता है-चलानो, चलाबनो, चलवावनो।
पूर्वकालिक क्रिया
पूर्व कालिक क्रिया के रूप ब्रज और कन्नौजी के समान है, किन्तु बुंदेली के रूप कुछ मित्र हैं। यथा-
ब्रज-कन्नौजी-मारिकै, खाय कैं, लेकैं, देकैं, देयकैं आदि।
बुंदेली – खायें, देयें-देयैं, जायें, लेयें-लेयैं आदि। कुछ क्षेत्रों में के रूप ब्रज-कन्नौजी की तरह ही हैं।
संयुक्त क्रिया
ब्रज, बुंदेली और कन्नौजी की संयुक्त क्रियाओं के रूप समान हैं- भागत फिरत, गिर परयो, जरि गौ, देत जइयो आदि।
- अव्यय
कुछ अव्यय तीनों बोलियों में समान रूप से व्यवहृत होते हैं- पर, पै, कै, ओ, इ. ए, ऊ, जो, तो, सों, इतै, उतै, कितें, ओरे, नगीच, पास, ह्याँ, ह्वाँ, पार, कि, काहे, कबहू, अबहूं, जबहुँ, तबै, अबै, जबै, हूँ, परों, नरों, तक, तरै, हाँ आदि।
कुछ अव्यय किचित परिवर्तन के साथ प्रयुक्त होते हैं-
ब्रज – जौ, तौ, सौं, कल्लि, आजु, ऊपर, नीचे, भीतर, बाहर।
बुंदेली- जो, तो, सों, कल्ल, आजि, ऊपर, नीचे, भीतरै, बाहर।
कन्नौजी – जौ, बै, सौ, काल्लि, आजु, ऊपर, नीचे, भीतर, बाहिर।
कुछ अव्यय इन बोलियों के अपने हैं
ब्रज- चौं (क्यों), चौंकि (क्योंकि), जा मारे, कै (कि), नांई (नहीं), ऊ (भी), डियाँ (की ओर), बिगरि (बिना), सुद्दां (साथ), तरिया (तए), साइदि (शायद), साइय (शुभ घड़ी), ओरे (लगातार), घो, कियों (या तो), नैकु (विल्कुल), एकत (एक साथ, एकत्र), अनत (अन्यत्र), जोपै (यदि), इतकू (इस ओर, इधर) आदि।
बुंदेली- आसौं (इस वर्ष), झट्ट (तुरन्त), बेरा (समय), मुनसारी (प्रातःकाल), सकार (आगामी काल), आंगे (आगे), पाछे (पीछे), सबरेहार (सर्वत्र), अन्तं (अन्यत्र), पैलें (पहिले), आहे (टालने का. शब्द), आहाँ (नहीं), नाँ-नांव (यहाँ), माँ-माँय (वहाँ), इतायें (उस ओर), उत्तायें (उस ओर), कुदाइ (किस ओर), हरमें-हरई (धीरे), तनाँ (तरह), घाँई (तरह), ताँ (ओर), बामा (बाहवाह) आदि।
कन्नौजी – ताई (तरह), नगीच (नजदीक), नियरे (निकट), इयें (यहाँ), उयें (बहाँ), डिग (पास), उल्लंग (उघर) इल्लता (इघर), पल्लंग (आगे की ओर), बेरि (बार), साइत (शायद, सुम-घड़ी), क्यों (यों), कै (या), ओरु (ओर), कॅन्हें (मी), इकु (एक), ढिगानी (पास), आदि।
भदावरी के दोनों रूपों ब्रज-मिश्रित बुंदेली और कनौजी-मिश्रित बुंदेली में इन बोलियों की ध्वन्यात्मक और रूपात्मक प्रवृत्तियों का प्रभाव सहज ही देखा जा सकता है। समीकरण की प्रवृत्ति ब्रज और बुंदेली की अपेक्षा कन्नौजी में अधिक है। यह प्रवृत्ति भदावरी के कन्नौजी-मिश्रित रूप में विशेष परिलक्षित है। चार दिन- चाद्दिन बादसाह-वास्सा, हल-जोतन हज्जोतन, रसता-रत्ता, मूर्ति-मूर्त्ति, और दये-औद्दये, भेज दिये-भेद्दये आदि ऐसे ही शब्द है।
3. खड़ी बोली प्रभावित बुंदेली-प्रधान भदावरी
ग्वालियर के पश्चिमी भाग में मुरेना जिले की ब्रज-बुंदेली मिश्रित भदावरी तथा पूर्वोत्तर मान (भिंड से संलग्न) में कनौजी-बुंदेली-निश्रित भदावरी का रूप प्रचलित है। वहाँ से ज्यों-ज्यों दक्षिण की ओर बढ़ते जाते हैं, इसके इस रूप में कन्नौजी का मिश्रण कम होता जाता है और उसका स्थान बुंदेली लेती जाती है। इस प्रकार दक्षिण पूर्व में दतिया जिले की सीमा के समीप आते-आते कन्नौजी पूर्णतः विलुप्त हो जाती और केवल बुंदेली का रूप ही रह जाता है।
ग्वालियर के पूर्वी भाग पर पश्चिमी जालोन की बुंदेली का प्रभाव है। पश्चिमी जालोन की बुंदेली में ब्रज अथवा कन्नौजी का मिश्रण नहीं है; अतः उसे शुद्ध बुंदेली ही कहा जा सकता है। मध्य-वर्ती क्षेत्र की शुद्ध बुंदेली और पश्चिमी जालोन की बुंदेली में मुख्य अन्तर यह है कि इस क्षेत्र की बुंदेली अधिक चौड़ाई के साथ बोली जाती है। यथा- ए के स्थान में ऐ, ओ के स्थान में ओ, पे के स्थान में पै, से के स्थान में सै, को के स्थान में कौ, गो के स्थान में गी आदि। पश्चिमी जालोन का यह उच्चारण-वैशिष्ट्य पूर्वी ग्वालियर की बुंदेली में वर्तमान है। बुंदेली के इस रूप का नमूना नीचे देखिये-
एक साहूकार के चार मोड़ा हते। जब वे खा-पीके व्याह के लायक हो गये तो साहूकार उनको व्याहु करने की फिकिर में बहू ढूंढ़ने को चल पड़ो। व चलत-चलत एक शहर में पहुंचो।व ताल के किनारें रुखन की घनी छाँह में बैठ गयो। थोड़ी देर में वा शहर की तमाम मौड़ी ताल पै पानी ‘भरवे आई। वे मौड़िन में वा शहर के सबसे बड़े साहूकार की भी एक मोड़ी थी। वे मोंड़ी ताल में पानी मरिक अपने-अपने घरै चलन लगी। तो सब मौड़िन के मुँह पै तौ साजे-साजे घड़ा हते और वा साहूकार की मौड़ी के मूंड़ पै फूटो घड़ा हतो। तब संग की सब मौड़िन न कही के गुइयाँ, तेरी बापु ती सबसे बड़ौ साहूकार है फिर तू फूटो घड़ा काये को लाते ? तो साहूकार की मौड़ी नै कही कै गुड्यां, मैओ बापु तौ साँचऊ साहूकार है, पर न जानें मेरी व्याहु गरीब के संग होगी कै साहूकार को। ताल के किनारे बैठी साहूकार वा मौंड़ी की बातें सुनिक बड़ो खुशी मनौ और वा मौड़ीये अपनी बहू बनावे की सोचन लगी। फिर वो साहूकार की मौड़ी के पीछे-पीछे बाके बाप के घरें पोंच गओ। वानें अपने मन की बात वा मोड़ी के बाप से कही। व साहूकार अपनी मौड़ी खों अच्छे मौड़ा की तलास में हतो। बान मौड़ी दैनों मंजूर करलओ।
घरें आइकें साहूकार ने अपने चारों मौड़न से बुलाइकें पूंछी कै मोइ एक मौंड़ी मिलि गयी है, फिरि तुम चारि भइया हो। अब बताऊ में बाकी व्याहु तुम में से कौसे के संघ करों। तब बाके सबसे छोटे मोंड़ा ने कही के बाकी व्याह बड़े भइया के संघ कर देउ तासे हम तीनौं बासे भौजी कहेंगे। बड़े मौंड़ा को व्याह हो गऔ।
इस उद्धरण पर ब्रज अथवा कन्नौजी, किसी भी बोली की प्रवृत्ति का प्रभाव परिदर्शित नहीं है। इसके विपरीत कहीं-कहीं खड़ी बोली का प्रभाव अवश्य दिखाई देता है। हो गये, उनको, साहूकार की भी, कहीं तथा सबसे छोटे खड़ी बोली के रूप हैं। कहानी का शेष गठन बुंदेली का है।
- उकार की प्रवृत्ति इस उद्धरण में भी दिखाई देती है, पर कन्नौजी-मिश्रित अथवा ब्रज-मिश्रित बुंदेली-रूप की अपेक्षा बहुत कम है। उकार की सामान्य प्रवृत्ति बुंदेली वो अन्य रूपों में भी मध्यवर्ती शुद्ध बुंदेली में भी वर्तमान है।
- इसी प्रकार सानुनासिकता की प्रवृत्ति, व के स्थान में व का प्रयोग तथा ओकारान्त के स्थान में औकारान्त बुंदेली के अन्य रूपों की तरह इसमें भी परिलक्षित है।
यह वास्तव में बुंदेली का भदावरी अथवा तोमरगढ़ी रूप ही है, किन्तु इसमें इसके ब्रज-मिश्रित और रात्रीजी-मिश्रित रूप की अपेक्षा बुंदेली की ही प्रधानता है; इसीलिये हमने इस पर पृथक् विचार करना उचित समझा। इन तीनों रूपों के बोलने वालों की संख्या सन् 1931 में 1,313,000 थी, जो अब 15 लाख के लगभग अनुमानित की जा सकती है। इसमें आगरा, मैनपुरी और इटावा जिले के दक्षिणी सीमावर्ती भाग भी सम्मिलित हैं। इसका जो रूप उदाहरण-स्वरूप प्रस्तुत किया गया है, वह मध्य ग्वालियर में प्रचलित है। यदि हम इसे केन्द्र मान लें, तो यहाँ से एक पश्चिमोत्तर तिर्यक रेखा ब्रज-मिश्रित बुंदेली को क्षेत्र को, पूर्वोत्तर तिर्यक् रेखा की ही मिश्रित बुंदेली क्षेत्र को तथा पूर्वी तिर्यक रेखा जालौन जिले के शुद्ध बुंदेली-क्षेत्र को स्पर्श करती दिखाई देती, जैसा कि निम्नांकित मानचित्र में अंकित है।

ग्वालियर जिले का जो भाग एक ओर मुरैना जिले से और दूसरी ओर भिण्ड जिले से संलग्न है, उस भाग की भदावरी में ब्रज और कनौजी का मिश्रण अधिक है। उदाहरणार्थ वे पंक्तियां देखी जा सकती हैं-
“जब बाप-ने लरका देखो, दूरइ-ते तब बाप भजौ और लरका कें छाती-सों लगाइ लओ। हालई बाप-ने अपने चाकन-सों कहीं, जान्को घर- पोसा त्याजो। हाथ में मुदरिया और पाँव में जूती पहाराऔ। हम-तुम सिबरे खाँय और खुशी मनायें। बा खत बा-कौ बड़ौ भैया हार-में हो। जब व अपने घर-के ढिगाँ पोहेंचि गऔ तब अपने आदमी-सों पूछी जि कहा चोहल-बौहल हुइ-रही है? बा-ने कही कि तिहारे कक्का-ने लुहरे भैया के आइ-गये की खुसी मानी है।”
इस उद्धरण का पूर्ण गठन बुंदेली का और क्रिया एवं सर्वनाम रूप भी बुंदेली के ही हैं, किन्तु इसमें पूर्व उद्धरण की अपेक्षा ब्रज और कन्नौजी के भी रूप प्रयुक्त हैं। लरका, भजौ, चाकन्न, ल्यालो, मुदरिया, सिबरे, खाँय, ढिगाँ, जि, चौहल-बौहल, तिहारे, कक्का तथा लुहरे ऐसे ही रूप हैं।
कुछ भाषाविद ग्वालियर सम्मान के शिवपुरी और गुना जिलों को भी भदावरी क्षेत्र के अन्तर्गत ही मानते हैं, किन्तु हमने भदावरी के जिन दो रूपों ब्रज-मिश्रित और कन्नौजी-मिश्रित भदावरी का जो भाषा वैज्ञानिक विवेचन इस अध्याय में प्रस्तुत किया है, उन रूपों से शिवपुरी और गुना जिले में प्रचलित बुंदेली-रूप भिन्न है। शिवपुरी जिले के पश्चिमोत्तर भाग की बोली पर ब्रज का कुछ प्रभाव अवश्य दिखाई देता है, पर इन दोनों जिलों के पश्चिमी भाग में प्रचलित बुंदेली पर राजस्थानी का प्रभाव ही अधिक है। शेष भागों में प्रचलित बुंदेली मध्यवर्ती शुद्ध बुंदेली के अधिक समीप है। इस भाषायी स्थिति के कारण इन दोनों जिलों को भदावरी-क्षेत्र के अन्तर्गत मान लेना हमें युक्ति-संगत नहीं जान पड़ता। हम आगे इन जिलों के बोली-रूपों पर ‘पश्चिमी क्षेत्र के बुंदेली-रूप’ अध्याय में अपना अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश का जालोन जिला उत्तरी क्षेत्र के अन्तर्गत ही है, किन्तु इसकी भाषायी स्थिति मुरेना, भिड और ग्वालियर जिले से सर्वथा भिन्न है, अतः हम इस जिले में प्रचलित बुंदेली-रूपों पर ‘पूर्वी क्षेत्र के बुंदेली-रूप’ अध्याय के अन्तर्गत ही विचार करेंगे।
दक्षिणी क्षेत्र के बुंदेली-रूप
विन्ध्याचल की उपत्यका और नर्मदा के कछार को पार कर बुंदेली भाषी प्रदेश का दक्षिणी क्षेत्र आरम्भ होता है, जिसमें बैतूल, छिंदवाड़ा और सिवनी जिले स्थित हैं। इनके अतिरिक्त बालाघाट जिला मी दक्षिणी क्षेत्र में ही माना जाता है, किन्तु ये सभी जिले बुंदेलीभाषी नहीं हैं।
बैतूल जिले का बोली-रूप
बैतूल जिला बुंदेलीभाषी जिला होशंगाबाद के दक्षिण में है, जिसकी पूर्वी सीमा से छिंदवाड़ा जिला, दक्षिणी सीमा से मराठी भाषी नागपुर तथा अमरावती जिला आरम्भ होता है। सीमावर्ती प्रभाव का परिणाम स्पष्ट है। इसके उत्तरी सीमावर्ती भाग की बोली पर होशंगाबाद की बुंदेली का प्रभाव, पूर्वी सीमा-वर्ती भाग की बोली पर छिंदवाड़ा की बोली का प्रभाव तथा दक्षिणी और पश्चिमी सीमावर्ती भाग की बोली पर मराठी का प्रभाव दिखाई देता है। इन प्रभावी भागों की बोलियों ने कुछ मिश्रित रूप धारण कर लिया है, किन्तु यह प्रभाव उनका मूल स्वरूप सर्वथा समाप्त न कर सका; केवल उसे विकृत करके ही रह गया। रसेल ने ‘बैतूल गजेटियर’ तथा ‘होशंगाबाद गजेटियर’ में भी बैतूल जिले की जन-भाषा ‘मालवी’ बतलाई है। वर्तमान में भी बैतूल जिले में फैले पंवार, किरार, हिन्दी भाषी कुनबी (ढोलेवार कुन्बी), रघुवंशी, तेली, कलार लोहार, बढ़ई, नाई, धोबी, रंगारे आदि मालवी ही बोलते हैं; यद्यपि इनके द्वारा बोले जाने वाले मालवी रूपों में परस्पर कुछ अन्तर अवश्य है। उत्तरप्रदेश से आकर बसे गौली तथा जिले के उत्तरी सीमावर्ती क्षेत्र के कुछ हिन्दू-परिवार ही ऐसे हैं, जिनकी पारिवारिक बोली में बुंदेली का मालवी-मिश्रित रूप देखा जा सकता है।

बालाघाट जिले का बोली-रूप
बालाघाट जिला भी बुंदेली भाषी क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं माना जा सकता। ‘बालाघाट गजेटियर’ के लेखक सी. ई. लो के मतानुसार इस जिले के आदिवासियों के अतिरिक्त हिन्दू-परिवारों की बोली मराठी-मिश्रित हिन्दी है। इनमें से इस जिले में वसे पँवार पूर्वी हिन्दी (बघेली) और मराठी का मिश्रित रूप बोलते हैं और लोधी पश्चिमी हिन्दी (बुंदेली) और मराठी का मिश्रित रूप बोलते हैं। सन् 1961 की जन-गणना के अनुसार जिले की 806,702 जनसंख्या में लोधियों की संख्या 10,484 है। यही इस जिले के बुंदेली (मराठी-मिश्रित बुंदेली) भाषियों की संख्या कही जा सकती है। यह पूर्ण जिले की जनसंख्या का लगभग .013 प्रतिशत है। यह संख्या नगण्य ही कही जा सकती है। अतः यह जिला बुंदेलीभाषी नहीं कहा जा सकता।
डॉ. ग्रियर्सन ने भी ‘दक्षिण की विकृत बोलियाँ विवरण के अन्तर्गत इस जिले की बोलियों के सम्बन्ध में लिखा है- “बालाघाट में मराठी के एक रूप के अतिरिक्त पूर्वी हिन्दी के रूप बोले जाते हैं, जो बघेली के मिश्रित रूप हैं। इस जिले की लोधी जाति के लोग जो बोली बोलते हैं, यह बुंदेली और मराठी का मिश्रित रूप है। इसे बुंदेली का ही एक रूप कहा जा सकता है।
बालाघाट जिले के लोधियों की मराठी-मिश्रित बुंदेली का रूप इस प्रकार है:-
“एक सौदागर को चार टुरा होतो। जब ही खाय-पीय ख बड़ो, बिहाव करन लाई भयो, तब सौदा-गर उनको बिहाय करत बहू ढूंढ़न निकल्यो। ऊ चलत-चलत एक शहर म आयो। ऊ वहाँ एक तलाव को बाजू म झाड़ की गहरी छाय म ठहर गयो। घड़ी भर म ऊ शहर की बहुत सी टूरी तलाब पर पानी भरन बाई। उन-म एक टूरी बोकी भी होती, जो ऊ शहर-म सबसी जादा धनधान होतो। ही सब दूरी तथाव-सी पानी मर-ख अपनी-अपनो घर जान लगी। सब टूरी की मुंड पर अच्छो-अच्छो मड़का होतो। ऊ धनवान की दूरी की मुंड़ पर एक फुट्यो मड़का होतो। संग की दुरिन कह्यो कि काहा बाई तोरो बाप त सब सी जादा धनवान है, तब तय फूट्यौ मड़का व काम-म कहाली लावय है?
“धनवान सौदागर की टूरी-न जबाब दियो कि सच-म मोरो बाप धनवान है, पर मोरो बिहाव को ही धनवान को संग या गरीब को संग होहेन, यो कोही नहीं बता सकय। येकोलाई मय विहाव को पहिलेच सुख-दुख-म रहन सीख जाऊँ है। संग की सब दूरी मुंह बनायन्स आपू चली गई। तलाव पर बैठ्यो सौदागर वा टुरी को जवाब सुन-ख बहुत खुस मयो अरु या दुरी-ख अपनी बहू बनावन-स सोचन लग्यो। ऊ या टूरी को पाठ-पाठ वोको बाप-क घर गयो अरु ओ-ख अपनो मन की बात कह्य सुनायी। ऊ सौदागर बी अपनी दुरी लाई एक अच्छा-सो बर की तलास-म होतो। ओन्न टुरी देन कबूल कर लियो अरु बिहाव की बात पक्की भय गई।
“घर आउन पर सौदागर-न अपनो चारहई टुरा-ख बुलायो अउर उनसी पूछन लग्यो कि मो-ख एक टुरी मिल गई, है, पर तुम चार भाई हैं, मो-ख बताओ मय वोको बिहाव तुम-म-सी कौन-क संग कहें? सब-सी छोटो दूरान्त कह्यो कि बोको बिहाव सवसी बड़ो भाई-क संग करदो हम तिन्हई बोलू मामी कह्ययो बड़ो टुरा को बिहाव भय गयो।
रूप-विश्लेषण
बोली-रूप की दृष्टि से इस कहानी की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- कहानी का गठन बुंदेली का है। वाक्य-रचना भी बुंदेली से भिन्न नहीं है।
- संज्ञा-शब्दों में कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं है। कहीं-कहीं उच्चारण-भेद के कारण शब्द-रूपों में किंचित अन्तर हो गया है। बिहाव, तलाव, छाय आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
- ऊ, उन-जैसे बुंदेली के पुरुषवाचक सर्वनाम शब्द भी उसी रूप में प्रयुक्त हैं।
- अपनो, बड़ो, अच्छो आदि विशेषण-शब्द भी बुंदेली की प्रवृत्ति के अनुसार ओकारान्त-रूप में प्रयुक्त हैं।
- दुरा-दुरी (बुं. मोड़ा-मोड़ी), मड़का (घड़ा) स्थानीय शब्द हैं, जो दक्षिण-पूर्व छिंदवाड़ा जिले की बोली में भी प्रचलित हैं।
- निकाल्यो, आयो, गयो, कह्यो, लग्यो, कह्य सुनायो आदि क्रिया-रूप मालवी से प्रभावित हैं। यह प्रभाव बालाघाट संलग्न सिवनी जिले की बोलियों पर भी दिखाई देता है।
- ‘होतो’ क्रिया मराठी से गृहीत है, किन्तु मराठी में होतो (ए.व.) का बहुवचन ‘होते’ होता है, जबकि इस उद्धरण में इस क्रिया का प्रयोग दोनों वचनों में अपरिवर्तित है- चार टूरा होतो (बहुवचन) धनवान होतो (एकवचन’)
- कुछ क्रिया-रूप लोथियों के अपने जान पड़ते हैं। लावय है (लाती है), होहेन (होगा), सकय (सकता), मय गयो (हो गया) आदि इसी प्रकार के रूप हैं।
- परसर्ग- (पू. का. क्रिया), म (अधि. कारक), ख (कर्म कारक), न (कर्ता का.), क (सम्वन्ध का.) आदि सभी स्थानों में अकारान्त प्रयुक्त हैं, जबकि बुंदेली में वे ओकारान्त (अनुस्वार-युक्त), एकारान्त तथा अनुस्वरित ऐकारान्त और औकारान्त भी प्रयुक्त होते हैं। एकारान्त अथवा ऐकारान्त तथा ओकारान्त अथवा ओंकारान्त का आकारान्त प्रयोग मालवी के हैं। निमाड़ी के भी ये ही परसर्ग-रूप हैं।
- करम लाई (करने के लिये), कहाली (क्यों), येकोलाई (इसलिये) आदि इस जिले के लोधियों की बोली के जातीय प्रयोग ही कहे जा सकते हैं।
- बुंदेली की शब्दावली स्थान-स्थान पर व्यवहुत है।
इन विशेषताओं से यह स्पष्ट है कि बालाघाट जिले में बसे लोषियों की बोली, जैसा कि डॉ. ग्रियर्सन भी मानते हैं, निश्चित रूप से बुंदेली काही एक मिश्रित रूप कहा जा सकता है, किन्तु जिले की .013 प्रतिशत निवासियों की यह बोली होने के कारण ही इस जिले को बुंदेलीभाषी स्वीकार नहीं किया जा सकता, इसीलिये हमने इस जिले को बुंदेलीभाषी क्षेत्र से पृथक् केवल बुंदेली प्रभावित कहा है।
नागपुरी हिन्दी
छिन्दवाड़ा जिले के दक्षिण में नागपुर जिला है, जिसकी मुख्य भाषा मराठी है, पर इस जिले में यत्र-तत्र तथा इससे संलग्न चांदा और भंडारा जिले तथा विदर्भ के बुलढाना जिले में भी कुछ ऐसी जातियां है, जिनकी बोली मराठी-मिश्रित बुंदेली ही कही जा सकती है। ये कोष्टी और कुम्हार जाति के लोग हैं। ऐसा जान पड़ता है कि ये जातियाँ बुंदेलखंड से आकर इन मराठीभाषी जिलों में बस गई हैं। उनकी पारिवारिक भाषा बुंदेली थी, जो यहाँ आने पर स्थानीय प्रभाव के कारण मराठी-मिश्रित विकृत बुंदेली हो गई है। डॉ. ग्रियर्सन ने नागपुर के कोष्टियों और कुम्हारों की बोली के इस रूप को ‘नागपुरी हिन्दी’ कहा है और बुंदेली के विवरण के अन्तर्गत इसका उल्लेख किया है। इसके बोलने वालों की संख्या 105,900 बतलाई है। इस बोली का वर्तमान रूप इस प्रकार है-
एक सौदागर ला चार बेटा होता। जब वय खाय-पीकेना लगन करणे लायक भया, तब यो सौदागर बहुयान धुंडबेला नकरयो। वो धुंडता-धुंडता एक शहर मा आयो। वो बोने ठिकान मा एक तलाब के किनारे मा झाड़ खाल्या झाड़ की गहरी सावली मा ठपर्यो। घटका भरमाच सहर की लगीत-सी पोरगीयान पाणी मरबेला तलाव बरमा आयी। बोकेमा एक पोरगी नशीबी होती जो ओने शहर को उबू-बाला होतो। वय पोरगीमान तलाब को पाणी भरकेगा आप-आपले घरे जावेला लागी। अकसी पोरगीमान के मुंडी बर्या चांगला-चांगला हेल होता, पर ओने बबूचाला की पोरगी को मुंडीवर्या फूट्यो हेल होतो। इतकी मी पोरगी-मान एक बलवे लागी की का बाई, तोरो बाप येवढ़ो ढबूबाला आहा, मंग तू अस्यो फुट्यो हेल काममा कहा आनतस?
ढबूवाला सौदागर की पोरगीन बलीस् खरबुर मोरो बाप ढबूवाला आहा, पर मोरो लगन कोने गरीब संगे हो का ढबूवाला संगे हो, यो कोणी सांगवे नहीं सकत। ऐके साठी मी लगन के पहलेच सुख-दुख मा रहबे को सिखतहून। संग की पोरगीमान चुपचाप ऐककेना चलती भयी। तलाव बरया को सौदागर ओने पोरगी को जवाब ऐककेना मन को मनमा खुस भयो अन् ओने पोरगीला आपली बहू बनावे साठी विचार करबेला सुरुवात करीस। वो सौदागर ओने पोरगी के माँगे-मगि गयो अन् ओके बाप के घरमा जायकेना आपले मन की गोष्ट सांगीस। वो बबूबाला सौदागर बी आपले पोरगीसाठी एक चांगलो नवरा की तलासमा होतो। बोने पोरगी देवेला कबूल करीस अन् लगन की गोष्ट पक्की मयी।
घरमा आना पर वोने सौदागर न आपलो चारइ पोर्या ला बलाईस। अन् विचारीस की मी एक पोरगी देख्यो, पर तुम्ही चार भाईमान आहो। मला सांगो की मी वोको लगन तुमरेपैकी कोंके संगे करूँ ?
सगलापेक्षा लहायनो पोर्या ने बलीस की ओकेर लगन सागलापेक्षा मोठे भाई को संगे कर दे। आम्ही तीन जन बोला भोवजी बलवन। मोठे पोरया को लगन भयो।
इस पूर्ण कहानी का गठन बुंदेली का है। इसमें प्रयुक्त सौदागर, करवे, निकर्यो (निारो), वो, बोने, झाड़, गहरी, उहयो, भरवे, आवे, फूट्यो, का बाई, तोरो, लागी, आहा, मोरो, कोने, गरीव, संगे, पहलेच, रहवे, घरे, मुड़ी (मूह) चुपचाप नहीं, जबाव, खुस, मनको, चलती भयी, बहू, बनावे, गयो, कबूल, देख्यो, देबे, कोके, पक्की, आयो, तुमरे, करदे तथा तीनजन, मोवजी (मोजी), शब्द भी बुंदेली के हैं।
- इसके निम्नांकित शब्द मराठी के है, जो तद्भव-रूप में प्रयुक्त हुए हैं- लगन, खाल्या (नीचे), सावली (छाया), घटका (घड़ी), लगीत (बहुत सी), पोरगी (लड़की), पाणी (पानी), वर्या, अशीबी (ऐसी भी), उयू (पैसा), आपले (अपने), हेल (घड़ा), इतकी (इतनी), येवढ़ो (इतना), मंग (फिर), बलीस (बोली), खरखुर (सचमुच), कोणी (कोई), एकेसाठी (इसलिये), चांगला (अच्छा), भी (में), अन (और), आपली (अपनी), मंगे-मंगे (मागे-मागे-पीछे-पीछे) गोष्ट (बात), नवरा (बर, पत्ति), बलाईस (बुलाया), मला (मुझे), सनलापेक्षा (सबकी अपेक्षा), मोठे (बड़े), लहायनो (छोटा), पोर्या (लड़का), आम्ही (हम), बलबन (बोलेंगे, कहेंगे)।
- इन दोनों प्रकार के शब्दों का मिश्रण देखकर इस कहानी की भाषा मराठी-मिश्रित बुंदेली कही जा सकती है, किन्तु सम्पूर्ण गठन इस मिश्रण तक ही सीमित नहीं है। इसके कुछ शब्द ऐसे हैं, जो बुंदेली (हिन्दी) अथवा मराठी में से किसी एक के नहीं कहे जा सकते। उनका रूप दोनों के योग से निर्मित हुआ है। सौदागरला, होता, खाय-पीकेना, बहुमान, धुंडबेला, धुंडता-धुंडता, शहरमा, ठिकानमा, किनारीमा, सावलीमा, भरमाच, भरबेला, जाबेला, ढबूवाला, आनतस, सांगबे, सिखतहून, ऐक्सेना, मनमा, घरमा, जायकेना, सांगीस, पोरगीसाठी, चांगलो, तलाशमा, करीस, घरमा, आपलो, बलाईस, विचारीस, आहो, इसी प्रकार के शब्द है।
इनमें से सौदागरला तथा जाबेला शब्दों में बुंदेली शब्द ‘सौदागर’ और ‘जावे’ में मराठी का ला (को) प्रत्यय लगा हुआा है। ‘होता’ बुंदेली क्रिया ‘हता’ का विकृत रूप है। लायन्सीलेना, ऐककेता तथा जायकेोना शब्दों में से प्रथम और तृतीय शब्द में खा-पी और जाना हिन्दी क्रिया के साथ केना (कर, करके) ग्रामीण मराठी का प्रत्यय जुड़ गया है। ‘बहुयान’ शब्द में ‘बहू’ बुंदेली शब्द है, जिसमें ग्रामीण मराठी को ‘बहुवचनवः ची ‘मान’ प्रत्यय लगा दिया गया है।
शहरम, सावलीमा, ओकेमा, मन मा, काम मा, घरमां, और तलाशम। शब्दों में बघेली की प्रवृत्ति है। ‘सावलीमा’ में ‘सावली’ मराठी शब्द है, पर उसमें वघेली की ‘मा’ विभक्ति लगा दी गई है।
‘ढबूबाला’ शब्द में ‘ढबू’ मराठी है, जिसमें हिन्दी का ‘बवाला’ प्रत्यय लगा हुआ है। आनतस, सांगीस, करीस, बलाईस तथा विचारीस शब्दों में मराठी के शब्दों में बघेली का ‘स’ प्रत्यय लगा हुआ है।
‘सांगबे’ शब्द में ‘सांग (बतलाना) मराठी शब्द है, पर उसमें बुंदेली का ‘बे’ प्रत्यय लगा हुआा है ‘पोरगीसाठी’ में ग्रामीण मराठी के ‘पोरगी’ शब्द में मालवी के सम्प्रदान कारक की विभक्ति ‘साठी’ का योग है
‘धुंडबेला’ में धुंडवे (ढूंढ़वे) बुंदेली का रूप है, जिसमें मराठी की सम्बन्ध कारक की विभक्ति ‘ला’ लगी हुई है। चांगलो और आपलो शब्दों की भी यही स्थिति है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्ण कहानी में बुंदेली की प्रपानता होते हुए भी बुंदेली, मराठी (ग्रामीण) तथा बुंदेली, हिन्दी, बघेली और मराठी के शब्दों एवम् प्रत्ययों का एक विचित्र योग है इस योग से बुंदेली का स्वरूप विकृत हो गया है, इसीलिये हमने इस बोली रूप को ‘विकृत बुंदेली’ कहा है
छिन्दवाड़ा जिला
- इस जिले के उत्तर में बुंदेलीभाषी होशंगाबाद जिला (होशंगाबाद और सोहागपुर तहसील) तथा नरसिंहपुर जिला, दक्षिण में मराठीभाषी नागपुर जिला, पूर्व में बुंदेलीभाषी सिवनी जिला तथा पश्चिम में मालवीभाषी बैतूल जिला है। इस स्थिति के कारण इसके परासिया क्षेत्र एवम् अमरवाड़ा तहसील के कुछ भाग तथा चौरई क्षेत्र की बोली उत्तरी क्षेत्र की बुंदेली के कुछ रूप-परिवर्तन के साथ देखी जाती है। सत-पुड़ा पर्वतमाला ने छिन्दवाड़ा और सिवनी जिले को उत्तरी विन्ध्यमेखला से पृथक् कर दिया है। परिणाम-स्वरूप इन जिलों की बुंदेली का रूप होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले की बुंदेली से कुछ पृथक् हो गया है। केवल छिंदवाड़ा तहसील का मध्य-पूर्वी भाग ही ऐसा है, जहां की बोली शुद्ध बुंदेली से अधिक निकट है। जिले के शेष भाग में बुंदेली के अनेक रूप प्रचलित हैं। इस जिले के जाति-वैविध्य ने बुंदेली को रूप-वैविध्य प्रदान किया है। आर. व्ही. रसेल ने छिंदवाड़ा गजेटियर में इस जिले को बुंदेलीभाषी कहकर इस बोली के बोलने वालों की संख्या 53 प्रतिशत बतलाई है।
जिले में आदिवासियों की संख्या 25 प्रतिशत है। ये गोंडी भाषा बोलते हैं। नागपुर जिले से संलग्न इस जिले की सौंसर तहसील में सर्वाधिक संख्या मराठीभाषियों की है। रसेल के अनुसार जिले में मराठी बोलने वालों की संख्या 19 प्रतिशत है। सियी, पंजावी, उर्दू आदि बोलने बालों की संख्या 3 प्रतिशत है। शेष 53 प्रतिशत व्यक्ति बुंदेली भाषी हैं। इंपीरियल गजेटियर के अनुसार, ये बुंदेलीभाषी वे हैं, जिनके पूर्वज पश्चिमोत्तर प्रदेश से बुंदेलखंड होते हुए यहाँ आकर बस गये थे।
इस जिले में 61 बोलियां प्रचलित हैं, जिनमें हिन्दी, मराठी, बुंदेली, मालवी, गोंडी, कोलू आदि मुख्य हैं। 1961 के जनगणना-विवरण के अनुसार जिले की 7,85,535 जनसंख्या के 65 प्रतिशत व्यक्ति हिन्दीभाषी हैं। तदनुसार, जिले में 4,85,601 हिन्दी भाषी निवास करते हैं। इनमें हमारे अनुमान के अनुसार सौंसर तहसील छोड़कार बुंदेलीभाषियों की संख्या 3,87990 है। गत जनगणना- प्रतिवेतन के अनुसार, इस जिले में हिन्दी का जो रूप प्रचलित है, वह बुंदेली का ही एक रूप है। इस जनगणना-प्रतिवेदन के अनुसार इस जिले के बुंदेलीभाषियों की संख्या 4,85,601 हो सकती है।
छिन्दवाड़ा जिले के बुंदेली रूप
पहिले कहा जा चुका है कि इस जिले में प्रचलित बुंदेली को अति-वैविध्य ने रूप-वैविध्य प्रदान किया है। हमारा ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि जिले की बुंदेलीभाषी जनसंख्या कुछ विशिष्ट जातियों में विभाजित है और इनमें से प्रत्येक जाति के द्वारा बोली जाने वाली बुंदेली का अपना रूप है। ये रूप परस्पर अधिक भिन्न नहीं है और एक-दूसरी जाति के द्वारा सरलता से समझे भी जा सकते हैं, किन्तु इनमें रूप-पृथकता अवश्य है। इनमें से किसी भी जाति द्वारा प्रयुक्त बुंदेली को शुद्ध बुंदेली नहीं कहा जा सकता। मिश्रित बन्देली कहना भी कठिन है; क्योंकि बोली के मिश्रित रूप में किसी एक बोली की प्रधानता होती है और कोई अथवा कुछ अन्य बोलियाँ उसमें मिली होती हैं, पर इन जातियों के द्वारा बोली जाने वाली बुंदेली का यह रूप भी नहीं है। इन रूपों में कहीं मालवी और बुंदेली के मिश्रण से नये शब्द बन गये है और कहीं बुंदेली और मराठी के मिश्रण ने ऐसे नये शब्दों का निर्माण कर दिया है, जिन्हें हम किसी भी एक बोली अथवा भाषा के शब्द नहीं कह सकते। इस प्रकार बुंदेली के मूल स्वरूप में एक विकृति आ गई है। डॉ. ग्रियर्सन ने बुंदेली के इन रूपों को विकृत बोलियों (Booken Dialects) कहा है।इनके रूपों में सामान्य समानताएँ हैं, पर प्रत्येक की अपनी-अपनी कुछ स्थानीय और जातीय विशेषताएँ भी हैं, जिन्होंने इन्हें पृथक् रूप प्रदान किया है।
कोष्टी-बुंदेली (छिंदवाड़ा जिला)
नागपुर के कोष्टियों की बोली का रूप उपर्युक्त कहानी में देखा जा चुका है। छिंदवाड़ा जिले के कोष्टियों की बोली उससे कुछ भिन्न है। इसका कारण यह है कि नागपुर के कोष्टी जहाँ मराठी भाषियों के संपर्क में रहते हैं, वहाँ छिंदवाड़ा के कोष्टी हिन्दी भाषियों तथा बुंदेलीभाषियों के सम्पर्क में रहते हैं। परिणाम-स्वरूप इनकी बोली बुंदेली के अधिक निकट है और उसमें अधिक विकृत्ति भी नहीं आ पाई है। इनकी बोली का रूप इस प्रकार है-
एक सौदागर का चार लड़का हता। वो खा-पीकर बढ़ा बेहाय करन के काबिल मिया। के सौदागर लड़कों का बेहाब जमाबन के नान्हें लेकरिओ। चलत-फिरत एक शहर में आओ। एक तालाब के किनारे झाड़ की छाई में ठहर गजो। बोड़ी देर में गल्ले लड़कनी तालाब में पानी भरन आई। उन म एक लड़कनी ओकी भी हती, जो सबसे जादा पैसाकारो हतो। वे लड़कनी तालाब से पानी भरके अपने-अपने घर जान लगी। सब लड़की के मूड़ में अच्छे-अच्छे मड़का हता। वो पैसाबारे की लड़कनी की मूड़ में फूटो मड़का थो। सब दूरी ने मिलन्स पाही की बाई तोरो बाप तो बोहोत पैसावारो है, फेर तू मूड़ में फूट्यो मड़का काह लिया। पैसाबारे की दूरी ने कहीं की मोरो बाप पैसावारो है, पर मोरो बेहाव गरीब के साथ होत है का नमीर के साथ में कह नहीं सकूं। एहिसे में बेहाथ से पहले दुख-सुख में रहनों सीख जात हूँ। साथ की सबरी दूरी माँह बनाकर आगे चल दई। तालाब पर बैठो सौदागर बा दूरी की बात सुन-व मनमें बोहोत बोश हो गजो। वा टूरी स अपनी बहू बनानख सोचन लगिओ। वो सौदागर वा दूरी के पाहू-पाछू बाके बाप के घर गजो। ओने ओबे अपना मन की बात कह दई। वो सौदागर अपनी दूरी के जोड़ की तलाश में थो। ऊ दूरी देनन्स कबूल हो गओ अरु वेहाव की बात पक्की हो गई।
घर आना पर सौदागर ने ओके चाई दूरान्स बोलाओ। वो टूरन से पूछन लगिओ की मोचे एक लड़की मेल गई, तुम चार भइया हो। मोखे बताओ कि वा टूरी को बेहाव केके साथ करूँ ?
सबसे छोटो दूरा ने कहो कि वोको बेहाय बड़ो भइया के साथ कर देनो। हम तीनई बोखे भावी कहेंगे। बड़े बेटा को बेहाव हो गओ।
कहानी की भाषा बुंदेली-प्रधान है, किन्तु स्थान-स्थान पर मालवी का प्रभाव दिखाई देता है। सौदागर का, भिया (भये-हुए), उन-म, मड़का, मिल-ख, तोरो, मोरो, बेहाब, एहिसे, सुन-ख, पाहू-पाछू, ओखे, अपना मन की, देन-ख, टूरा-ख, मोचे, ओखे तथा केके शब्द मालवी की प्रवृत्ति के ही परिचायक हैं, जिन्होंने किचित परिवर्तन के साथ बुंदेली का रूप धारण कर लिया है। ‘हता’ बयवा ‘हतो’ के स्थान में ‘थो’ का प्रयोग भी मालवी का ही है।
- कुछ शब्दों का विक्कृत प्रयोग है, यथा- भिया (भया, हुए), नान्हें (लाने के लिये), लेकरिओ (निकरो-निकला), बोहोत (बहुत) आदि।
- टूरा (लड़का) और दूरी (लड़की) गोंडी भाषा के शब्द हैं, जो छिन्दवाड़ा जिले में बसे सहस्रों आदिवासियों के संपर्क से वहाँ के कोष्टियों की बोली में आ गये जान पढ़ते हैं।
कहानी का शेष ढाँचा बुंदेली का है। बोली के इस रूप को एक सीमा तक विकृत बुंदेली ही कहा जा सकता है। मिया, नान्हें, लेकरिओ, बोहोत, खोश आदि शब्दों में विकृति स्पष्ट है। इसे मालवी-मिश्रित बुंदेली भी कह सकते हैं। इन कोष्टियों के अतिरिक्त इस जिले के किरार, रघुवंशी, कुहार, चमार आदि के द्वारा बोली जाने वाली बुंदेली के रूप में भी इसी प्रकार की विकृति दिसोई देती है। डॉ. ग्रियर्सन ने विकृत बुंदेली बोलने वाले कोष्टियों की संख्या 12,042 लिखी है।
किरारी बुंदेली
एक बनिया के चार टूरा थे। जब वे ला-पीकर लोगाई लाने के लायेक हो गये, तव बनिया उनके लाने लोगाई ढूंडन गओ। रस्ता में वो एक तेलाव जागे झाड़ के नीचऽरोक गओं। तनकई में हुआं की रद्दा टुरिया पानी भरन आ गई। ओमेन एक दुरिया लाखापती की थी। जब वे टूरिया अपने-अपने घर जान लगी, तो सब टुरिया में अपनी-अपनी मूड़ वे ओमदा पपरा घरो तो। या लबेसरी बनिया की दुरिया की मूड़ पे फुटो घपरा थो। सवरी दुरिया ने कही, री ये तेरो बाप तो लबेसरी है, फेर तू ने फुटो घघरा काहे घरो है?
बनिया की टुरिया ने जबाव दई, सच्ची में मेरो बाप लबेसरी है, पर मेरो बेहाब कोई बड़े आदमी के साथ होये या नग्मा के साथ होवे ? ऐके मारे में बेहाब के पहले दोख-सोख से रहन सीख लऊँ। सब दूरिया मोह ओतार-वे चली गई। ओ बनिया टुरिया को जवाब सुनखें बड़ी खोस भव। वो बनिया वो दुरिया के पाछे-पाछे ओके बाप के घर गओ और ओले दिल की बात कही। वो बनिया अपनी दुरिया के लिये अच्छो लोग ढूंढ़न में थो। सो बोने टुरिया खे देन के लाने कह दी और बेहाव की बात पक्की कर लई।
वो घर गओ और अपने टूरा खों बोलाओ और पुछन लगो, मेहे एक दुरिया मेल गई है, तुम चार भइया हो। मेहे बताओ में उसला बेहाव कले साथ कर दउँ ? छोटो दूरा ने कह दव कि उसला बेहाव बडो भइया के कर देव। हम तीनों ओखे भौजाई कैहे।
कोष्टियों की बोली की तरह आदिवासी-प्रभाव से किरारों की बोली में भी लड़के के लिये ‘टूरा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
- सामान्य हिन्दी और मालवी की तरह बुंदेली की ‘हते’ क्रिया के स्थान में था, थे, थी के रूप वर्तमान है।
- लोगाई (स्त्री), तेलाब (तालाब), जोगे (पास), रोक गओ (रुक गया), ओमेन (उनमें), लाखापति (लखपति), ओमदा (उमदा), कहे (काहे-क्यों), वेहाय (विवाह), नम्गा (नंगा), दोल-सोख (दुख-सुख), मोंह (मुंह), खोस (खुश), लोगान (स्त्री), मेहे (मुझे), मेल गई (मिल गई), उसला (उसषा), कले (किसके) तथा केहे (कहेंगे) विकृत शब्द-रूप हैं। इस उद्धरण में यह विकृत शब्दावली कोष्टियों का बोली से भी अधिक प्रमाण में है।
- इस शब्दावली के अधिकांश शब्दों में हमें आद्य ‘उ’ के स्थान में ‘ओ’ तथा आद्य ‘इ’ के स्वान में ‘ए’ का प्रयोग दिखाई देता है। यथा ‘उ’ के स्थान में ओ-लुगाई-लोगाई, रुक-रोक, उमदा-ओमदा, सुख-दुख-दोख-सोख, मुंह-मोंह, खुश-खोस, बुलाया-बोलाओ आदि।
‘इ’ के स्थान में ‘ए’ विवाह-बेहाव, मुझे मेहै, मिल गई-मेल गई आदि।
- उसला और कले शब्दों में मराठी की कर्मकारक की विभक्ति ‘ला’ का प्रयोग भी वर्तमान है।
उद्धरण का सामान्य गठन बुंदेली का ही है। यह है किरारों के द्वारा बोली जाने वाली विकृत बुंदेली का रूप। इस रूप के बोलने वालों की संख्या लगभग 10 हजार है।
रघुबंसी-बुंदेली
छिन्दवाड़ा जिले में रघुबंसी (रघुवंशी) भी किरारों की तरह उत्तर भारत से ही आकर बसे हैं। इसकी पारिवारिक बोली बुंदेली का ही एक रूप है। इसमें विकृत शब्दों का प्रयोग कम है, पर इनकी बोली सामान्य हिन्दी से अधिक प्रभावित है। बोली का रूप इन पक्तियों में देखा जा सकता है-
एक बोपारी के चार लड़के थे। जब वे खा-पीकर बड़े बिआह के लायक हुयें, तब बोपारी उसका बिआह करने के लिये बहू तलासने के लिये निकरा। वह चलता चलता एक शहर में आया। यह वहाँ एक तला की पार पेड़ों की घनी छाव में ठहर गया। तनक देर में उस शहर की भौत सी लरकियाँ तला पर पानी भरने आई। उनमें एक लरकी उसकी भी थी, जो उस शहर में सबसे जादा मालदार था। सब लरकियों के मूंड पर अच्छे-अच्छे घेला थे, पर उस मालदार बोपारी की लरकी की मूंड पर एक फूटा घेला था। साथ की लरकियाँ ने कहा, काय बिन्ना, तेरो बाप तो सबसे जादा मालदार है फिर तूं फूटे घेला को काम में काय लेत है?
मालदार बोपारी की लरकी ने उत्तर दिया कि सचमुच ही मेरो बाप मालदार है, पर मेरो बिआहों किसी मालदार के संग में होगी या गरीब के संग होगो, कोई नहीं बता सकत। इसलिये मैं बिआहो के पहले ही सुख-दुख में रहको सीख जाती हूँ। संग की सब लरकियाँ माँ बना के आगे चली गई। तला पर बैठा बोपारी उस लड़की का उत्तर सुनकर मन ही मन बौत खुस हुआ और उस लरकी को अपनी बहू बताने को सोचने लगी। वह बोपारी उस लरकी के पीछे-पीछे उसके बाप के घरे गयो। वह बोपारी भी अपनी बेटी के लिये एक उमदा वर की तलाश में थो। उसने लरकी देबो मंजूर कर लिया।
पूरे उद्धरण में खड़ी बोली और बुंदेली का एक अजीब मिश्रण है। एक ही वाक्य में दोनों बोलियों के रूप एक साथ वर्तमान हैं। सभी वाक्यों की यही स्थिति है।
- बोपारी, विवाहों-जैसे कुछ शब्द विकृत रूप में भी हैं।
- अधिकांश क्रियापद खड़ी बोली के हैं, जिनके साथ मेरो, तेरो जैसे बुंदेली सर्वनाम शब्द तथा कुछ संज्ञा-शब्दों का उपयोग हुआ है।
कहानी की बोली का यह रूप खड़ी बोली-मिश्रित बुंदेली ही कहा जा सकता है। अब चमारों द्वारा बोली जाने वाली बुंदेली का रूप देखिये।
चमारी बुंदेली
छिन्दवाड़ा जिले के (विशेष रूप से चौरई क्षेत्र के) चमार जो बोली बोलते हैं, यह भी विकृत बुंदेली है। उसका रूप किरारों की बोली और कोष्टियों की बोली के मध्य का है। उदाहरणार्थ ये पक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
एक रोजगारी के चार लड़का हेते। वे खा-पीखें बड़े हो गये तो उनके बाप ने अपन टूरन को ब्याहो करनू सोचो और अपना टूरा के नाने बहू ढूंढे निकलों। वो चलते-चलते एक बढ़ो सहिर में पोंची। वहाँ वो एक तलाब के आमा झाड़ के तले बैठ गजओ और चलम पीन लगी। थोड़ी देर में भौत सी दुरियाँ पानी भरन के नाने आई। उनमें एक बड़े घर की लड़कनी हेती। सब लड़कनी ने ओसे कही ऐ री बाई, तेरो बद्दा तो बड़ो घनी है फिर तू फूटो घघरा काहे लात है ?
वो लड़की भी ने उन लोगाने से कही कि सच्ची बात है, मेरो दद्दा बड़ो घनी है, पर मोए कोई अच्छो सुसरार मेलत है का कोई लचका-पेज वालो मेलत है, कोई बत्ता नई सके। ऐसो सोच के में अपने क्वारेपन में सब सुख-दुख सहन करनो सील जाऊँ। वे लोगाने ओके ऊपर गुस्सा होखे चलन लगी। वो रोजगारी टुरिया की सब बातें सुनचे खुसी मओ और वा लड़कनी को मांगने के नाने सोचन लगी। वो लड़कनी के पाहू ओके बाप के घर गओ। उने लड़कनी मांगन के नाने कहो। वो रोजगारी, जे की लड़कनी हेती, उनो लड़कनी के व्याहो के नाने एक अच्छो ठेकानो डूंड रओ तो, लड़कनी देनो मंजूर कर लो और व्याहो को टेम बन गओ।
वो रोजगारी लड़कनी मांग वे घर आओ। ऊने अपने चारइ टूरन वे बोलाओ और पूछो के मैं एक लड़कनी मांग आओ है, तम चार भइया हो, तो तप सब भइया बताओ के ओको व्याहो केके साथ कर दऊँ।
इतनो सुनखे सब भइयान से छोटो भइया ने कहो के ऊको व्याहो बड़ो भइया के साथ कर देब तो हम सवई भइया ओखे भाबी केहें। बड़ों लड़का को व्याहो होगओ।
पूरी कहानी का गठन बुंदेली का ही है। करनू, पोंचो, वहाँ, बेठ गओ, ओसे, दद्दा, फूटो, काहे, मेरो, मोए, सुसरार, नई (नहीं), करनो, ओके, मनो, पाहू, ओके, घर गनो, ढूंड रनो, तो (थो-था), करलो, बन गओ, तम, केके आदि रूप मी बुंदेली के ही हैं। अतः कहानी की भाषा बुंदेली ही कही जा सकती है।
- ‘कर’ (पूर्वकालिक क्रिया) तथा ‘खों’ (कर्मकारक की विभक्ति) के स्वान में ‘खें’ शब्द का प्रयोग हुना है, जिसे स्थानीय अथवा जातीय विशेषता ही कहा जा सकता है।
- ‘लड़के’ के लिये इस कहानी में भी गोंडी भाषा का ‘टूरा’ शब्द व्यवहृत है, जो ब्रज-बुंदेली के ढंग पर बहुवचन में ‘टूरन’ हो गया है।
- ‘लड़की’ के स्थान में सर्वत्र ‘लड़कनी’ शब्द का प्रयोग है। यह भी जातीय अथवा स्थानीय विशेषता है।
- छिंदवाड़ा जिले की कुछ पूर्वोल्लेखित अन्य जातियों की तरह इस कहानी में भी बुंदेली ‘लाने’ (के लिये) के स्थान में ‘नानें’ का प्रयोग हुआ है। यह इस क्षेत्र की किरार, कोष्टी, चमार आदि जातियों की बोलियों की सामान्य विशेषता जान पड़ती है। बुंदेलीभाषी अन्य क्षेत्रों में ‘लाने’ के लिये ‘नाने’ का प्रयोग नहीं मिलता।
- बुंदेली के कुछ शब्द विकृत रूप में प्रयुक्त हैं। हेते (हते), व्याहो (व्याह), ढूंडे (ढूंढबे), सहिर (शहर), चलम (चिलम), हेती (हती), लोगाने (लोगों ने), बेठ (बैठ), मेलत (मिलत) आदि इसी प्रकार के शब्द हैं।
- कहानी में तुम के लिए ‘तम’ शब्द का प्रयोग एकाधिक बार हुआ है। यह प्रयोग मालवी और निमाड़ी का है, जो चौरई क्षेत्र में बसे मालवी भाषियों के सम्पर्क से चमारी बुंदेली में आया जान पड़ता है।
यह है इस क्षेत्र में बसे चमारों की बोली का विकृत बुंदेली-रूप।
बंजारी बुंदेली
बंजारा एक घूमती-फिरती व्यापार-द्वारा जीविका जित करने वाली जाति है, जिससे उनकी बोली पर विविध क्षेत्रीय प्रभाव स्वाभाविक है। छिदवाड़े जिले के चौरई एवम् अन्य क्षेत्रों में भी इस जाति के लोग बसे हुए हैं। उनमें से कुछ घूम-फिर कार हाथ की बनी वस्तुएँ बेचने का कार्य करते और कुछ एक ही स्थान में रहकर कृषि कार्य करते हैं। यहाँ बंजारों की बोली का जो नमूना दिया जा रहा है, वह स्थायी बसे कृषि कार्यरत बंजारों की बोली है। कहानी का गठन बुंदेली का है, किन्तु बाह्य प्रभाव से उसमें कुछ अन्य बोलियों के शब्द भी समाहित हो गये हैं। आदिवासियों का टूरा शब्द भी वर्तमान है। उनकी बोली का रूप इस प्रकार है-
एक बणियाँ का चार टूरा था। जब वे खा-पीके व्याहाव लायक बड्डा होया, तो बणियां उनको व्याहाव करण के तांई बहू ढूंढ़न कूं गयो। बो चलते-चलतें एक शहर में पहुँच्यों। वो वोम्हाँ एक तलाब के जोणें झाड़ की घणी छाँव में ठहर गियो। जरइ देर के बाद में ऊ शहर की मतकी दूरीहन तलाव में पाणी भरण कूं आई। ऊमें एक छोरी ऊकी की थी जो ऊ शहर में सबसें जादा घणीं यो। वे दूरीहन तलाव से पानी लेकें अपणा-अपणा घर कू जाण लगी। सब टूरीहन की मूंड़ पै वाकवाक मड़का था, पर ऊ घणी बणियाँ की दूरी का भाषा पै एक फुट्यो-फाट्यो मड़का थो। ऊके साँथ की टूरीह्न में किह्यो की नई री यारो बाप तो सबसे जादा घणी हैं फैर बी तू फुट्यो मड़का के कूं काँय काम में लावेय।
ऊ घणीं बणियों की दूरी ने कह्यो कि खरीखात म्हारो बाप घणी छै, पर म्हारो ब्याहाव कोई घणी के साँथ होवेय कि कोई गरीब के साथ; जा बात कोई नई बता सके। इहीं के ताई में ब्याहाव के पहले ही दक्-सक् में रहणों सीक जाऊँ। जब ऊके साथ की दूरीहन मोड़ो मोड़के अगाड़ी चली गई तो वो तलाब के जोणें बैठ्यो वणियाँ ऊ दूरी की बात सनकै मन में खूब खुशी होयो और ऊ दूरी के ऊकी बहू बणान की मन में सोच्यो। यो बणियाँ की ऊ दूरी के पछाड़ी ऊ का बाप कै घर पोहोंच गयो और ऊका बाप हूं ऊका मन की बात सणाई। वो घणी बणियाँ वा अपणी दूरी के ताँई अच्छा घरवाला कूं ढूंड रिह्यो यो, वो दूरी देण कू राजी होगी और व्याहाव की बात पक्की हो गई।
जब वो बणियाँ बोम्हा सै घर आगियो तो उने चारई टूरन कूं बला के पूछन लगो कि मँखू एक टूरी मलीय, पर तम चार भैया है। अब तम मँखू बताओ कि तम चार में से मैं ऊको व्याहाव कोण के साथ करूँ ?
सबसे नेन्हा टूरा ने कियो कि ऊको व्याहाव सबसे बड़ा मैया के साँथ होणो चाहिये। हम तीनै भैया ऊसें भाबी कहवों। बड़ा टूरा को व्याहाब होगौ।
- इस उद्धरण में निम्नांकित बोलियों के शब्दों का प्रयोग हुआ है-
- बुंदेली- बे, खा-पीके, उनको, बहू, ढूंढण (न), बो, पहुँच्यो, वो, छाँव, जरइ देर, ऊ, मतकी (मुतकी), भरण (न), ऊमें, ऊकी, ऊ, लेकें, मूंड पै, फूट्यो, जावत, ऊके, नई (नहीं), बी (भी), बता सकें, इहीं (इसी), पहलै, मोढ़ो, बैठ्यो, सोच्यो, होगौ, तीनै, ऊसें, कहबो, होगौ।
- मालवी बणिया, अपणा, जाण, थारो, म्हारो, धणी, रहणो, छै, घरवाल, होणो, अगाड़ी, पछाड़ी।
यह ‘न’ के स्थान में ‘ण’ के प्रयोग की प्रवृत्ति मालवी के एक रूप सौचवाड़ी में विशेष रूप से परिलक्षित है। ‘दूरीहन’, ‘दूराहून’ में बहुवचनवाची ‘हन’ भी मालवी के ‘होण’ का ही रूप है।
‘था’, ‘का.’, ‘थो’ प्रयोग भी मालवी का ही है। मालवी में ‘बा’ का प्रयोग बहुवचन में भी होता है (खड़ी बोली के ‘ये’ अथवा बुंदेली के ‘हते’ की तरह रूप-परिवर्तन नहीं होता।) जैसा कि हम उद्धरण में-चार टूरा या (थे नहीं), बाक-वाक, मया या आदि में देखते हैं।
- विकृत शब्द- व्याहाव (व्याह) बड्डा (बड़ा, बड़े), वोम्हाँ (वहाँ), क (को), होया (हुआ), गियो (गया), किह्यो (कहयो), लावेय (लाती है), होवेय (होगा), होयो (हुआ), रिह्यो (रह्यो), बागियो (आ गया-आ गयो), मलीय (मिल गई), मॅलू (मेलू ‘मालवी, ‘मोलों’ बुंदेली), नेन्हा (नन्हा)।
शब्दों का यह विकृत रूप-प्रयोग बंजारों की बोली की जातीय विशेषता ही कही जा सकती है।
- कुछ शब्दों में ऊकार के लोप की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। मतकी (मुतकी), दक-सफ (दुख-सुख), सनकै (सुनकै), सुणाई (सुनाई) तथा तम (तुम), इसी प्रकार के शब्द हैं।
- जोणे (पास, ‘जोरे’ मालवी), बोम्हों (यहाँ), वाक-वाक, (सुन्दर-सुन्दर।’ ‘बाक’ ‘बांके’ का रूप जान पड़ता है।) बंजारों के जातीय प्रयोग जान पड़ते हैं। ‘के लिये सम्प्रदान तो विभक्ति के लिये ‘के ताई भी निजी प्रयोग है।
- गोंडी का टूरा पूर्ववत् वर्तमान है ही, पर मराठी के ‘खरो-खर’ (सचमुच) का विकृत रूप ‘खरीखात’ भी प्रयुक्त है।
- बुंदेली की सानुनासिक बहुलता इस उद्धरण में भी देखी जा सकती है। बणियाँ, चलते-चलतें, पहुँच्यो, पाणीं, धणीं, लेकें, साँथ, कूं, रहणों, इसी प्रकार के शब्द हैं।
उपर्युक्त विशेषताओं से बंजारी बुंदेली का पचमेल रूप स्पष्ट है। इससे उसके मूल स्वरूप में भी विकृति आ गई है। अतः इसे विकृत बुंदेली का ही एक रूप कहना उचित होगा।
गौलियों की बोली
बुंदेलीभाषी अन्य क्षेत्रों की तरह छिंदवाड़ा जिले में भी जो हिन्दी-भाषी गौली है, उनके पूर्वज मध्य भारत से ही आकर यहाँ बसे थे। ये सभी बुंदेली का एक रूप बोलते हैं। इससे उनको बुंदेली-भाषी क्षेत्र से यहाँ आने का अनुमान किया जा सकता है। इनके द्वारा बोली जाने वाली बुंदेली विकृत बुंदेली बोलने वाले कोष्टी, किरार, रघुवंशी, चमार, बंजारे आदि की बोली से अधिक शुद्ध है। इनकी बोली का नमूना इस प्रकार है-
एक सौदागर के चार लड़का थे। जब वे खा-पीके बड़े बिहाव करन के लायक भये, तो वो सौदागर उनको बिहाव करने के नानें बहू ढूणन निकरो। वो चलत-चलत एक शहर में पहुंचो। होंवा वो एक तलाब के पास झाड़न की घनो छाँव में बैठ गजओ। योड़ी देर में वो शहर की गल्ले लड़कानियाँ तलाब में पानी मरन आई। ओमें एफ लड़कनी बोकी वी थी, जो शहर को सबसे बड़ो धनी थे। वे लड़कनियाँ तलाब से पानी मरकें अपने-अपने घर जान लगी। सब लड़कनियों के मूण पे अच्छे-अच्छे मणका थे और वो बड़े सौदागर की लड़कानी की मूण वे फूटो मणका थो। साँत की लड़कानियों ने कहो-काये बाई, तेरों वाप तो सबसे जादा रुपव्याबारी है फिर तू फूटो मणका काये काम में लात है?
धनी सौदागर की लड़कनी ने कहो, सच्ची में मेरो बाप रुपय्या-पैसाबारो है पै मेरो बिहाव धनी के साँत या गरीब के साँत हुहे जो कोई नई बता सके। जेसे में बिहाब के आंगेइ सुख-दुख में रहनो सीधे जात हूँ। साँत की सब लड़कनियाँ मुँह विचकाके आंगे चली गई। तलाल पे सौदागर लड़कनी को जुआब सुनको मनइमन बढ़ो खुस भजओ और वो लड़कनीचे अपनी बहू बनान की सोचन लगो। वो सौदागर लड़कनी के पीछे-पीछे ओके बाप के घर गली और ओसे अपने मन की बात सुनादई। वो सौदागर बी अपनी लड़कनी के नाने एक अच्छो दुल्हा की फिराक में थो। ओने लड़कनी देनो मान लबो। बिहाव की बात पक्की हो गई।
घर आके सौदागर ने अपने चारों लड़कों वे बुलाओ और उनसे पूछन लगो कि मेखे एक लड़कनी मिल गई है और तुम चार भइया हो। मेखे बताओ में ओके बिहाव के के साँत करू ?
सबसे छोटे लड़काने कहो कि ओको बिहाव सबसे बड़े भइया के साँत करदो, हम तीनों ओखें भावी केह है। बड़े लड़का को बिहाव हो गओ।
कहानी को भाषा शुद्ध बुंदेली के समीप है। इसमें जातीय प्रभाव से कुछ शब्द किंचित परिवर्तन के साथ प्रयुक्त हुए हैं, यथा- बिहाव (ब्याह), कूणन (ढूंढन), होवाँ (वहाँ), तलाअ (तालाब), छाँव (छाया), मूण (मुंडें), मणका (मड़का), साँत (साय-हकार-विमुक्त अनुस्वार युक्त), मुह (मुंह) आदि।
- पूर्व कहानियों की तरह ‘के लिये’ (सम्प्रदान कारक की विभक्ति) के स्थान में ‘नाने’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
- इसकी प्रायः सभी क्रियाएँ शुद्ध बुंदेली की हैं; यथा- निकरो, डैरगलो, लात, हूहे, खुसमओ, घर गयो, दजओ आदि।
- बुंदेली के हते, हती, हतो क्रिया-रूपों के स्थान में थे, थी, थो का प्रयोग हुआ है, जो निकटस्थ मालवीभाषी क्षेत्र का प्रभाव जान पड़ता है।
- बुंदेली में लड़का-लड़की के लिये मोड़ा या मौड़ा तथा मोड़ी अथवा मोंडी शब्द का सामान्य प्रचलन है। इस उद्धरण में इसके लिये ‘लड़का’ ‘लड़कानी’ शब्दों का प्रयोग हुआ है।’ लड़कानी’ का बहुवचन लड़कनियाँ किया गया है।
- कुछ स्थानों में खड़ी बोली का भी प्रयोग हुआ है, जो अन्य हिन्दी भाषियों के सम्पर्क के कारण स्वाभाविक है। वे (अ. पु. बहुवचन), उनको, झाड़ों की, बोड़ी देर, चली गई, पीछे-पीछे, हो गई आदि ऐसे ही रूप है।
बोली का यह रूप नाममात्र के परिवर्तन के साथ शुद्ध बुंदेली का ही कहा जा सकता है।
विकृत बुंदेली की विशेषताएँ
ऊपर छिंदवाड़ा जिले की विभिन्न जातियों के द्वारा बोले जाने वाले बुंदेली के जिन विकृत रूपों का सोदाहरण अध्ययन प्रस्तुत किया गया है, उनकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
- संज्ञा-शब्दों में विशेष परिवर्तन नहीं है। कुछ शब्द स्थानीय अथवा जातीय प्रभाव से नाममात्र के परिवर्तन के साथ प्रयुक्त हुए हैं; यथा- लड़का-लरका, बेटा (मोड़ा अथवा मौड़ा के पर्यायवाची), तला, तलाव, तलाअ (‘तालाब के लिये। शुद्ध बुंदेली क्षेत्र में सामान्यतः ‘तला’ शब्द का प्रयोग होता है।), ब्याह, बिहाव, व्याहो, व्याव, ब्याओ (विवाह के लिये) आदि।
- कर्म कारका और सम्प्रदान कारक की विमक्तियाँ परिवर्तित रूप में व्यवहुत होती हैं। कर्म कारक की बुंदेली की विभक्तियाँ- कों, कौं, और खों हैं, जिनके स्थान में इन विकृत रूपों में कूं, खूं, और वे का प्रयोग होता है। इसी प्रकार सम्प्रदान कारक की बुंदेली की विभक्ति ‘के लाने’ है, जबकि इन विकृत बोलियों में इसके स्थान में ‘नाने’ अथवा ‘नान्हें’ का प्रयोग हुआ है? बंजारी बोली में ‘के लिये’ के स्थान में ‘के ताई’ शब्द प्रयुक्त होता है।
- कुछ बोली-रूपों में ‘ड़’ और ‘न’ के स्थान में ‘ण’ का प्रयोग मिलता है, जो निकटस्थ मराठी-भाषी क्षेत्र का प्रभाव जान पड़ता है। बणियां, पाणी, अपणा, धणी, ढूणन, मणका आदि ऐसे ही शब्द हैं।
- छिन्दवाड़ा जिले के बुंदेलीभाषी मराठीभाषी, मालवीभाषी और आदिवासियों के सम्पर्क में रहते हैं। फलस्वरूप इनकी बोलियों पर इनकी भाषाओं का भी कुछ प्रभाव दिखाई देता है; यथा-होता, लगन, खाल्या, चांगला आदि मराठी; भयो, आयो, छोरा, ख (कर्म की विभक्ति), बेहाव, पाछू आदि मालवी; दूरा-दूरी गोंडी भाषा के शब्द हैं।
- सर्वनाम शब्द मैं, तै, जो आदि क्रमशः में, तें, जें, हो गये हैं।
- तुम्हरो, म्हारो, हमरो आदि मालवी-प्रयोग हैं। ये कर्मकारक में तुमखें, मखूं, हमखें आदि हो गये हैं।
- तृतीय पुरुष सर्वनाम ‘ओ’ अथवा ‘बो’ कहीं-कहीं तो बुंदेली की प्रवृत्ति के अनुसार (‘वो’ हो गया है, पर अधिकांश बोली-रूपों में ऊ, वो अथवा उवो हो गया है।
- शुद्ध बुंदेली का मोए, तोए, इन बोलियों में मेहे या मेहें, तेहे या तेहें तथा ऊके, ओके, मेचे आदि भी हो गया है।
- अधिकांश जातीय बोलियों में बुंदेली की हते, हती, हतो क्रियाओं के स्थान में थे, थी और था का प्रयोग होता है।
- बुंदेली की कुछ भूतकालीन क्रियाएँ इन बोलियों में भी सुरक्षित है; यथा-गओ या गव, लओ या लव, दओ या दव आदि।
- शुद्ध बुंदेली में कही, पूछी आदि क्रियाएँ प्रचलित हैं। कहीं-कहीं हकार की लोप की प्रवृत्ति के कारण ‘कही’ के स्थान में ‘कई’ भी बोला जाता है, किन्तु इन बोलियों में कहो अथवा कह्यो शब्दों का प्रयोग होता है।
- शब्दों के विकृत रूपों के प्रयोग के उदाहरण पहले यथा स्थान दिये गये हैं। ये विकृत रूप दो बोलियों अथवा भाषाओं की प्रवृत्तियों के योग से निर्मित हुए है अथवा मूल शब्दों को बिगाड़कर बोला जाता है। होयो, भिया, हेते, व्याहो या ब्याजओ, गिया आदि ऐसे ही शब्द हैं।
छिन्दवाड़ा की शुद्ध बुंदेली
छिंदवाड़ा जिले के अधिकांश भाग में विभिन्न जातियों द्वारा बुंदेली के विकृत रूप बोले जाते हैं, पर जिले का कुछ भाग ऐसा भी है, जहाँ लगभग शुद्ध बुंदेली बोली जाती है। इस जिले की अमर-बाड़ा तहसील की उत्तरी सीमा शुद्ध बुंदेलीभाषी नरसिंहपुर जिले से संलग्न है। पूर्वी सीमा सिवनी जिले से संलग्न है, जिसका अधिकांश भाग बुंदेलीभाषी है। इस संलग्नता के कारण अमरवाड़ा से चौरई तक के क्षेत्र में बुंदेली का जो रूप प्रचलित है, उसमें अन्य बोलियों का मिश्रण अथवा शब्दों की तोड़-मरोड़ बहुत ही कम है। यह देखते हुए यह बुंदेलीभाषी क्षेत्र के मध्यवर्ती जिलों दतिया, झाँसी, टीकमगढ़, सागर आदि की बुंदेली की तरह शुद्ध बुंदेली तो नहीं कही जा सकती, पर शुद्ध बुंदेली के बहुत समीप अवश्य कही जा सकती है। चौरई की बोली का नमूना देखिये-
एक रुजगारी के चार टूरा हते। कछ दिन बाद वे बड़े भए तो रुजगारी उनके नाने बहू ढूंडन निकरो। वो चलत-चलत एक शहर में पहुंचो। हुआँ एक तालाव के कगर झाड़न की घन्नी छाँव में डैरो। कछुक देर में वो तालाब में गल्ली छोकरी पानी मरन आई। जोमें ऊ, शहर के एक बड़े आदमी की भी लड़कनी हती। जब सब लड़कनी पानी ले ले के लौटन लगी, तब सबकी मूंड पर उमदा घघरा हते, पर बड़े आदमी की लड़की के मूंड़ पर फूटो घघरा हतो। संग की छोकरीन ने ओसे पूछी तेरो बाप तो बढ़ो आदमी है, फिर तेरे पास फूटो घघरा काहे हे ?
ओने कही, वाप तो मेरो पैसाबारी जरूर है, पर मेरो बिहाव कोऊ बड़े आदमी से होहें या गरीब से, जा कोई नहीं कह सके। एके नाने में पहलेई सुख-दुख में रहनो सीख लेत हूँ। संग की लड़कातियाँ मुँह विचका के चली गई। वो रुजगारी वा लड़की की बात सुन खुश हो गओ और गुंतारा लगान लगो कि जा मेरी बहू बन जावे। वो ओके पीछे-पीछे ओके बाप के घर गजओ और ओखे मन की बात बताई। ऊ भी एक अच्छो लड़का अपनी लड़की के नाने ढूंड रहो थो। वो राजी हो गजओ। और बिहाव पक्कों होगओ।
वो घर जाओ और अपने चारन बेटा थे बुलाखे कहो के मेखें एक लड़की मिली है, तुम बताओ ओको बिहाव केके साथ करूँ ? छोटे लड़का ने कहो ओके बिहाव बड़े के साथ कर दो, हम तीनइ ओखे भाभी कह हैं। बड़े बेटा को बिहाव हो गओ।[1]
इस उद्धरण में पूर्व रूपों के टूरा, नाने, हुआँ, लड़कनी आदि शब्दों का प्रयोग वर्तमान है। विकृत बुंदेली बोलने वाली जातियों के बीच बसे बुंदेलीभाषियों की बोली पर यह प्रभाव स्वाभाविक है।
- रुजगारी, कगर, घन्नी, छोकरी, उमदा आदि स्थानीय शब्द हैं।
- शुद्ध बुंदेली के भूतकालीन एवम् भविष्यकालीन रूप हते, मए, निकरो, पहुँचो, ठेरो, हती, गओ, आओ, कहहें, होहे बादि सुरक्षित है।
- तेरो, मेरो सम्बन्धकारक सर्वनाम-रूप भी अपरिवर्तित हैं।
- कर्मकारक की विभक्ति शुद्ध बुंदेली से पृथक् इस जिले के अन्य बोली-रूपों की तरह ‘खों’ के स्थान में ‘खे’ प्रयुक्त है।
बुंदेली का यह रूप शुद्ध नहीं, तो लगभग शुद्ध अवश्य कहा जा सकता है।
सिवनी जिला
इस जिले की पश्चिमी सीमा छिन्दवाड़ा जिले की सीमा से, पश्चिमोत्तर सीमा नरसिंहपुर जिले से, उत्तरी सीमा जबलपुर से, पूर्वी सीमा मिश्रित छत्तीसगढ़ी भाषी मण्डला जिले से तथा बालाघाट जिले से और दक्षिणी सीमा मराठीभाषी क्षेत्र से संलग्न है। इस संलग्नता के कारण इस जिले के पश्चिमी, पश्चिमोत्तरी और उत्तरी भाग की भाषा (वास्तव में बोली) बुंदेली बनी रही, पर पूर्वी भाग में प्रचलित बुंदेली पर मण्डला की मिश्रित छत्तीसगढ़ी तथा बालाघाट की बोली छत्तीसगढ़ी और मराठी के मिश्रित रूप से प्रभावित हो गई। दक्षिणी क्षेत्र की बोली पर मराठी का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। इस जिले की जनसंख्या सन् 1961 की जन-गणना के अनुसार 5,23,741 है, जिनमें 4,03,718 हिन्दी भाषी हैं। हमारे अनुमान के अनुसार इनमें बुंदेली भाषियों की संख्या 4,00,371 है, किन्तु वे सभी बुंदेली का एक ही रूप नहीं बोलते। बोली के रूप की दृष्टि से इस जिले के बुंदेलीभाषी क्षेत्र को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं- सिवनी क्षेत्र और 2. बरघाट क्षेत्र।
सिवनी क्षेत्र की बुंदेली
इस जिले की सामान्य भाषा (बोली) बुंदेली है। सिवनी डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में श्री रसेल ने इस जिले में 53 प्रतिशत बुंदेलीभाषी बतलाये हैं। शेष मराठी और गोंडी बोलने वाले हैं। यहाँ हम जिसे सिवनी क्षेत्र के नाम से सम्बोधित कर रहे हैं, यह जिले का वह भाग है, जो छिन्दवाड़ा, नरसिंहपुर और जबलपुर जिले की सीमाओं से संलग्न है। इसमें सिवनी से लखनादौन तक का क्षेत्र है। यह एक बड़ी सीमा तक शुद्ध बुंदेली का ही क्षेत्र कहा जा सकता है; यद्यपि इस क्षेत्र की बुंदेली बुंदेलीभाषी प्रदेश के मध्यवर्ती विस्तृत क्षेत्र की बुंदेली से कुछ भिन्न है। इस भाग में जिले की 70 प्रतिशत बुंदेलीभाषी जनता निवास करती है। इस क्षेत्र की बुंदेली का रूप इस प्रकार है-
एक बनिया के चार बेटा हते। जब वे पल-पुश कर बड़े ब्याव लायक भए, तो बनिया को फिकर लग गई। वो उनके ब्याव के लाने लड़कियाँ ढूंढ़त निकलो। वो चलत-चलत एक शहर में पहुंचो। यो उते एक तला के पास झाड़न की छ्या में रुक गओ, तनक देर में वा शहर की रद्दाभर लड़कियाँ तला पे पानी भरन आई ऊमें एक लड़की ऊकी भी हती जो वो शहर में सबसे बड़ो आदमी हतो। वे लड़कियाँ तला से पानी भरखे अपने-अपने घरे जान लगीं। सबरी लड़कियों की मूंड़ पर बहुत अच्छे-अच्छे घड़ा थे, पर धनी बनियाँ की लड़की की मूंड़ पर फूटोन्सो घड़ो हतो। जो साथ में और लड़कियाँ थीं, उनने कहो कि काये बाई तेरो बाप तो जा शहर में सबसे बढ़ो आदमी है, फिर तें फूटो बढ़ा को काम काहे लात है?
धनी बनिया की बिटिया ने जवाब दओ कि सही में मेरो बाप बढ़ो धनी है, पर मेरो ब्याव कोई पनी के साथ हूहै या गरीब के साथ हूहै जो कोई बता सकत है का? येसे में पहलऊँ से सुख-दुख में रहबो सीख रही हों। शहर की सब बिटियाँ मुँह कुचमाकर चली गई। तला के ढिंगा बैठो बनिया वा बिटिया की बात सुनखे बहुत मगन मओ और वा बिटिया कों अपनी बहू बनाने के लाने मन में विचारन लगौ। वो बनिया ओ बिटिया के पाँछे-पाँछे ओके बाप के घरलों चलो गओ और ओने अपने मन की बात बता दई। यो बनिया बी अपनी बिटिया के लाने एक अच्छे दुल्हा की फिकर में हतो। ओने बिटिया देनो मंजूर कर लओ और ब्याव की बात पक्की कर लई।
घर आने पर बनिया ने अपने चार लड़कों को बुलालओ और उनसे पूछन लगो कि मेहे एक लड़की मिल गई है रे, पर तुम जो हो चार भइया। मेहे बताओ में ओको ब्याव तुम में से केके साथ करों।
सबसे छोटे लड़का ने बताओ कि ओको ब्याह सबसे बड़े भइया के साथे कर देओ। हम तीनों ओहे भोजी केहें। बड़े लड़का को ब्याव होगओ।
उद्धरण का पूर्ण गठन बुंदेली का है। क्रियापद भी शुद्ध बुंदेलीवत् ही हैं।
- कुछ नये पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग हुआ है। मोड़ा-मोंड़ी के स्थान पर बेटा अथवा लड़का और लड़की शब्दों का प्रयोग है।
- लड़की का बहुवचन खड़ी बोली की तरह ‘लड़कियों’ है, बुंदेली की तरह नहीं।
- शुद्ध बुंदेली में ‘निकरों’ होता है, जबकि इस उद्धरण में ‘निकत्ता’ क्रिया का बुंदेली-रूप ‘निकलो’ ही है।
- छिंदवाड़ा जिले की बुंदेली की तरह इस सिवनी क्षेत्र की बुंदेली में भी ‘खों’ के स्थान पर ‘खे’ विभक्ति का ही प्रयोग हुआ है।
- छैंया, रद्दाभर, बहुते, कुचमाकर, चारैं, मेहे आदि स्थानीय प्रयोग हैं।
इन नाममात्र के अन्तर के साथ इस क्षेत्र की बुंदेली का रूप शुद्ध बुंदेली की तरह ही है। शुद्ध बुंदेली का क्षेत्र बुंदेलीभाषी क्षेत्र का मध्यवर्ती भाग माना जाता है, जिसमें दतिया, झाँसी, टीकमगढ़, छतरपुर का पश्चिमी भाग, सागर, दमोह, विदिशा, रायसेन, सिहोर जिले का पूर्वी भाग, होशंगाबाद जिले का मध्य और पूर्वी भाग तथा नरसिंहपुर जिला है। बोली का रूप बारह मील पर भी कुछ न कुछ बदल जाता है, फिर इन समस्त जिलों का बोली-रूप समान कैसे हो सकता है? ऐसी स्थिति में सिवनी-क्षेत्र में प्रचलित बुंदेली के रूप में मध्यवर्ती क्षेत्र के अन्य जिलों के बुंदेली-रूपों से यह भिन्नता स्वाभाविक है।
बरघाट क्षेत्र की बुंदेली
बरघाट क्षेत्र पूर्व की ओर बुंदेली, बघेली, छत्तीसगढ़ी और मराठी का मिश्रित रूप बोलने बाले बालाघाट जिले से और दक्षिण की ओर मराठीभाषी मण्डला जिले से संलग्न है। इस क्षेत्र में आदिवासियों की संख्या भी कम नहीं है। अतः इस क्षेत्र में व्यवहृत बुंदेली पर इस भाषायी भौगोलिक स्थिति का प्रभाव स्वभावतः पढ़ा है। सबसे अधिक प्रभाव मराठी का है। इस प्रभाव के कारण इस क्षेत्र को बुंदेली का रूप पूर्वोल्लेखित नागपुरी कोष्टियों के बोली-रूप की तरह विकृत हो गया है। इस क्षेत्र में पंवार जाति के लोग एक बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। इन्हीं की बोली अन्य बुंदेलीभाषी भी बोलते हैं। इनकी बोली का रूपः प्रस्तुत करने के लिये हम इनकी एक लोककथा यहाँ दे रहे हैं। यह लोक कथा इस क्षेत्र के खामी नामक ग्राम से प्राप्त की गई है, जो इस प्रकार है-
दुई होतिन नवरा-बाइको। नवरा को नाँव होतो गंजनप्यारा। ऊ मोठो अलाल होतो। ऊ कोई कामच नई करत होतो। एसे ओकी बायको खितपाय गई। वा कहोत होती- “मुराट्या, काई कामधंधा नई करस। मोला खानला नई देय।”
मंजनप्यारा न कहिस- “घड़ी भर धीर धर। भी जासूं कमाउन ला। मोरे फराउर साती तीन लड्डू बनाय दे।”
बाइको न राती लड्डू बनाय देइस। सकार भई। गंजनप्यारा न लाडू धरिस न चलतो भयो।
ओला चलता-चलता जंगल मा रात भय गई। ऊ यहाँ रातभर रह्यो। दुई चोर आइन न बोला टटरन लगिन। बोना बोलिस कि मोर जवर काई नई है, तीनन टन लाडू सेती। तुमि दुई लाडू खाय लेव। एक ठन ठे देव। चोर दुई लाड साय लेइन। तीनों जन वहाँ च सोय गइन। सकार भई। गंजनप्यारा कहोन लाग्यो- ‘उठो-उठो सकार भय गई।’ वो तो उठत चन होतिन। वो मर गई होतिन। यो आपरो एक लाडू धरी न चल्यो।
ओला फिर मदक की टप लगी। ऊ एक झाड़ खाल्या मदक घाँटत होतो। वे बोका कठा उत्ता ला कोई राजा को संजीर हत्ती बायो। गंजन क हत्ती सा देख के बराय गयो न झाड़ पर चघ गयो। ऊ हत्ती सोंड पुरावन लग्यो। ओना झाड़ पर से हत्ती के तोंड मा लाडू फेंक देइस। हत्ती न लाडू खाय लेइस। हत्ती होतो तो मर गयो। ऊ झाड़ पर ला उत्तरयो न ओला जवर गयो। हत्ती मर गयो होतो। ऊ हत्ती पर जाय के बस गयो न मदक घोंटन लग्यो।
उतेलक राजा का हवलदार हत्ती को पता लगावत-लगावत आइन। गंजनप्यारा हत्ती पर बस के मदफ घोंटत होतो, तो ओला पूँछिन “तू हत्तीला कप्तो-कसो मारयोस ?
ओना सोगिस, मोनऽएक थप्पड़ मारयो तो हत्ती मर गयो। ओला फेर धरखे राजा जवर लेगइन। राजा ने हत्तीला मारिस कहके ओला बड़ा बलवान समझिस। ओला एक हजार रुपया इनाम देइस न कहिस कि तुमि हमारो मुनीम बन जाव। मोरा घरा रहो। मी तोये सब खानदान का पाल्हूँ। वो वहाँ मुनीम हो गयो।
ओकी बाइको ने चीठी धाड़िस
‘बिल्लीखाँ की चढ़नी भई,
सिक्कलपुर टूट गयो,कालेखाँ फूट गयो,
गजरथ हत्ती का पाँव मुड्यो,
बाँका सिपाई कैद पड़ गयो,
दिल्ली में खाना
घर में हाथ सुखाना।’
या चिट्ठी गई राजा जवर। राजा ना चीटी पड़िस न कहिस ‘येवढ़ो मोठो एको कारवार से। यो मोरो घरा मुनीमी कर रइसे। जाव रे दुई चाकर ये को कारबार देख के आव।
गंजनप्यारा को कारबार देखन ओके संग दुई चाकर आइन। ऊने गाँव के बाहर उनला बसाय देइन न एक तालाब होतो वहाँ टट्टी जासूं कहके गयो। ऊ एक दम गाँव माँ पटिल के घर आओ। पटिल ला कहिस, ‘पटिल बाबा, दुई सौ रुपया लेले दुई घंटा लई तोरो घरा खाली कर दे।’ पटिल ना घर खाली कर दइस। वहाँ भी बोकी बाइको आय गई। फिर उन चाकारहुन ला बुलाय लायो। चाकर आइन बाड़ा ला देखिन। वो देख के दंग भय गइन। फिर चाकर राजा कठा चले गइन।
गंजनप्यारा न ओकी बाइको दरबार माँ जान लगिन। गंजनप्यारा कहिस ‘रांड, तू न अच्छी चीठी घाड़ी होतिस। न मोर लई अच्छा जहर को लाड़ बांधी होतिस। मी नई खायो तो अच्छो भयो।’
बाइको न कहिस-‘मी पेज लाटियो सी को पर, खाटला लपटाय दियो ओको परा। बिलाई चड़ी खाट पड़ गई तो ठावा मुड़ गयो। सीको पर चड़ी तो सीको टूट गयो। पेज की हांडी टूट गइन ईरा ला परट ठियो न दाना आन के मीनऽखायो। मीनऽ अपनो घरवारी की हलकी नोको होय कहके असी चीठी घाड़ी होती।’
“लाड़ हमी राती कूट्या होता। ओखरी ला देखो जायके। देखिन, तो सरप की पुष्टी कुचली पड़ी होती। एला मालूम भयो कि सरप बंघारी रात मा धोका ला कुचल डालिस।”
इस कहानी के भाषा-रूप में बुंदेली, बघेली’ छत्तीसगढ़ी, मालवी और मराठी का एक अजीब मिश्रण है।
बुंदेली- होतो (‘हतो’ का विकृत रूप), ऊ, नई (नहीं) करत, ओकी, खिसपाय, वा (वह), घड़ी भर, पीर घर, बनाय दे, चलतो भयो, रातभर, टिटरन, खाय लेव, घोंटत, बोका, खंजीर (पागल), सोंड, पुरावन, लगावत-लगावत, मदक, थप्पड़, आओ, घर वे, हमारो, आमचे, परवारी, सीको।
बघेली- जमल-माँ, दुई, लेइन, गइन, मोर, पूंछिन, लगिन, देखिन, आइन, देइन, गाँव-माँ, दरवार माँ, रात-माँ।
छत्तीसगढ़ी- मोला, कारस, कहिस, देइस, घरिस, ओला, बोलिस, देइस, मारिस, पक्षिस, रइसे (रहित का रूप), उनला, होतिस, खाटला, समक्रिस
मालवी – नाँव, ओकी, भय गई, रह्यो, ओना (ओन), अलाल, तीनी झन, कहन, लग्यो, चल्यो, आयो, गयो, लग्यो, मरगयो, उत्तरयो, कसो (कैसे), गयो, मार्यो, मोरो, तोरो, रह गयो, मुड्यो, लई (तक), पटिल (पटेल), बढ़डा, पेज, खाट, ओखरी, पुष्टी (पूंछ), ओकी, इघारी, बिलाई, ठावा।
मराठी – नवरा (पति), वाइको (पत्नी), मोठो (बड़ा), मुराट्या (मुर्दे शब्द की अर्थवाची एक गाली), कोई (कुछ), मी (मैं), राती (रात को), लाडू (लड्डू), तुमि (तुम्हीं-तुम), सकार (दूसरे दिन का सबेरा), खाल्या (नीचे), टोंड (मुंह), जवर (पास), बस (बैठना), येवढ़ो (इतना), घाड़ी (भेजी), सरप (सर्प)।
मिश्रित शब्द खानला (खान बुं. में मराठी का ‘ला’ प्रत्यय मिला है), मराठी की कर्मकारक की विभक्ति ‘ला’ अनेक हिन्दी (बुंदेली और मालवी) के शब्दों में लगाकर एक शब्द बनाया गया है, यथा-कमाउनला, उताला (उघर से), हत्ती ला, खानदान ला, चीठीला, उनला, पटिलला, बढ़ाला, खाटला आदि।
सकार भई, बस गयो, टोंड-सा, जकर गयो, जवर लेगइन; शब्दों का पूर्वार्द्ध मराठी है और उत्तरार्ध हिन्दी की बोलियों के रूप हैं। दोनों बोलियों के रूप मिलाकर एक शब्द बनाया गया है। इसी प्रकार ‘सांगिस’ ‘शब्द में’ ‘सांग’ (बतलाना) मराठी का शब्द है, जिसमें छत्तीसगढ़ी क्रिया-प्रत्यय ‘इस’ मिला हुजा है।’ ‘ठे देव’ में ‘ठे’ मराठी ‘ठेउन’ (रखना) का संक्षिप्त रूप है, जिसमें हिन्दी बोली रूप ‘देव’ (दो) मिलाया गया है।
स्थानीय रूप- होतिन, अता (अतएव), आपरो (अपना), टप (तलफ), कठा (ओर), चघ (चढ़), पाल्हें (पालूंगा) लई (के लिये), तवा (तब) आदि।
‘जासूँ’ (जाता हूँ) शब्द का प्रयोग गुजराती और राजस्थानी के मेवाड़ी रूप में भी होता है।
इस भाषायी विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस कहानी की कोई भी एक निश्चित भाषा अथवा बोली नहीं कही जा सकती। इसमें अनेक हिन्दी-बोलियों का ही नहीं, पर मराठी का भी मिश्रण है। यहाँ तक कि कुछ शब्द तक दो भाषाओं के मिश्रण से बने हैं। अधिक रूप बुंदेली के हैं और गठन भी बुंदेली का ही है। अतः इस बोली-रूप को छिन्दवाड़ा जिले के कुछ जातीय बोली-रूपों की तरह विकृत बुंदेली ही कह सकते हैं।
अन्य रूप
- सिवनी जिले में बुंदेली के दो रूप और भी प्रचलित हैं। ये रूप पूर्वोल्लेखित ‘सिवनी क्षेत्र’ की बुंदेली से अधिक भिन्न नहीं हैं। सिवनी तहसील के एरमा ग्राम तथा उसके निकटस्थ क्षेत्र में सिवनी की बुंदेली आदिवासियों के प्रभाव से कुछ बदल गई है। यह परिवर्तित रूप इस प्रकार है-
‘एक हेतो सुजानसिंह। ऊको एक टूरा हेतो। ऊ को नाम कतरु हेतो। वो लिखन-पढ़न में बड़ो चतुर हेतो। एक दिन टूरा को दद्दा मर गओ। कतरु की बऊ ने कहीं के टूरा, तू जितनो पड़े, में उतनो तेथे पढ़ा दहूँ। कतरु एक दिन पढ़न जात थो। ओहे रस्ता में दो लड़का मिले। कतरु उनचे देख वे ठाड़ो हो गओ। वे दोनों टूरा चोर हेते। वे कतरु खे अपने साँत ले गये। वे दोनों एक घर में घुस गये और रुपइया चुराखें भाग गये। कतरु हेतो वो नई भागी। घरबारे ने ओखें पकड़लओ। वो थाना में बंद हो गओ।
रात ख थानेदार ने पूछी- कायरे मुरहा, तूने चोरी काहे के नाने करी थी रे? का तेरे बऊ-दद्दा तोखे खानखे नई देत का रे? कतरु ने सच्ची-सच्ची बात कय दी। थानेदार खे दया आ गई अन उनने कतरु खे छोड़ दओ और कही, जा अब कभी चोरी मत करियो।”
- उद्धरण का पूर्ण रूप बुंदेली का है। ‘हतो’ विकृत होकर ‘हेतो’ हो गया है। कहीं-कहीं था, थे, थी के रूपों का भी प्रयोग हुआ है।
- कर्मकारक की विभक्ति ‘खों’ के स्थान में ‘खे’ का प्रयोग है।
- पूर्वकालिक क्रिया के रूप में भी ‘खे’ का प्रयोग हुआ है- ‘उनखे देखखे’ में प्रथम ‘वे’ कर्मकारक की विभक्ति के रूप में प्रयुक्त है, पर द्वितीय ‘थे’ पूर्वकालिक क्रिया के रूप में है- देखखे (देखकर)।
- ‘टूरा’ गोंडी भाषा का शब्द है। अन्य कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं है।
द्वितीय रूप इस जिले की लखनादौन तहसील के उस भाग में प्रचलित है, जो जबलपुर जिले से सलग्न है। जबलपुर जिले की बोली बघेली-प्रमावित बुंदेली है। लखनादौन तहसील के इस भाग की बुंदेली पर भी बघेली का प्रभाव दिखाई देता है। उदाहरणार्थ ये पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
‘एक सौदागर के चार बेटवा थे। जब वे ब्याह करवे लायक भये तो सौदागर बहू ढूंढबे कों निकलो। वो चलो-चलो एक शहर आया और वहाँ एक तलवा के डिही झाड़ों की छाही में ठहर गया। थोड़ी देर में उसी शहर की बहुत-सी छोरियाँ तटवा पर पनिया भरवे को आई। सबके सिर पर अच्छे-अच्छे घड़वे थे, पर धनवान सौदागर की छोरी के सिर पर एक फूटवा घड़वा था।’
इन पक्तियों के बेटवा, तलवा, बिही, छाही, पनिया, फुटवा, घड़का आदि शब्द बघेली प्रवृत्ति के द्योतक हैं, किन्तु इसके साथ ही वाक्य-रचना खड़ी-बोली मिश्रित है।
‘छोरियाँ’ मालवी और निमाड़ी का शब्द है, जो कहीं-कहीं ब्रज में भी प्रयुक्त होता है। शेष गठन बुंदेली का है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दक्षिणी क्षेत्र की बुंदेली, जिसमें मुख्यतः छिन्दवाड़ा और सिवनी जिले हैं, विविध रूपों में पल्लवित है। इसमें छिंदवाड़ा के मध्य-पूर्वी भाग और मध्य सिवनी के बुंदेली रूपों के बति-रिक्त शेष विकृत बुंदेली के ही रूप हैं। इन रूपों का गठन बुंदेली का है और उनमें बुंदेली की प्रधानता भी है, पर मराठी और आदिवासियों की बोलियों, स्थानीय तथा जातीय उच्चारण-विधियों एवम् दो बोलियों अथवा दो भाषाओं के संयुक्त शब्द-निर्माण ने बुंदेली का रूप विकृत कर दिया है।