दतिया जिले की साहित्यिक परंपरा : एक
June 13, 2024सागरः परम्परा के परिप्रेक्ष्य में
June 13, 2024साहित्य-महोपाध्याय डॉ. हरिमोहन लाल श्रीवास्तव
दतिया के साहित्यिक इतिहास का आरम्भ अब तक की जानकारी के अनुसार सं. 1700 वि. से माना जा सकता है। “शिवसिंह सरोज” के अनुसार महात्मा अक्षर अनन्य का जन्म सं. 1710 में हुआ। अनन्य जी का जन्म दतिया राज्य के अन्तर्गत सेहुँढ़ा तहसील के रुहेरे ग्राम में एक कायस्थ कुल में हुआ था। वे योग और वेदान्त के अच्छे ज्ञाता थे। वे सेहुँढा के राजा पृथ्वीसिंह (पृथ्वीचन्द) “रसनिधि” के गुरु थे। बुन्देल केशरी छत्रसाल की श्रद्धा भी महात्मा अनन्य को प्राप्त हुई। अनन्य जी ने छोटे बड़े कितने ही मन्थों की रचना की है, जिनमें उनके चिट्ठे, “दुर्गा-पाठ” और “प्रेम-दीपिका” उल्लेखनीय हैं। उनकी रचना शैली का एक उदाहरण है-
आवै सुगंध कुरंग की नाभि, कुरंग न सो समझै मन माहीं।
दूध सुधाहि धरै सुरभी, न सवाद लहै सुरभी तिहि ठाहीं ।।
जान कौं सार असार अजान कौं जाने बिना सब बात वृथाहीं ।
ईश्वर आप अनन्य भनै इमि हैं सब में सब जानत नाहीं ।।
राजा पृथ्वीसिंह “रसनिधि” (सं. 1754-66) ने “रसनिधि सागर” नामक एक वृहद् ग्रंथ द्वारा प्रेम-योग की धारा बहाई है।” बिहारी सतसई” से भी आगे बढ़ने के प्रयास में रंगीले राजा साहब ने “रतनहजारा” की रचना की। उनके दो दोहे देखिये :
कहन सुनन चितवन चलन विहसन् सहज सुभाइ। सब अंगन कौं देत है आइ अनंग सिखाई।।
लेहु न मजनू गोर ढिग कोऊ लैला नाम। दरदवंत कों नैकु तो, लेन देहु बिसराम ।।
उन दिनों राज-दरबारों में कवियों का विशेष मान था। ये प्रायः दूसरे राज्यों में भी जाते रहते थे। सेंवढ़ा निवासी “हरिकेश” ने “जगतराज दिग्विजय” की रचना की तथा जैतपुर और पन्ना में भी सम्मान पाया। इसी प्रकार झाँसी निवासी नवलसिंह प्रधान दतिया में आदृत हुए। पदमाकर को भी कुछ समय तक दतिया का सम्मान मिला था। उनके पौत्र गदाधर भट्ट (कविता-काल सं. 1894 से 1939 तक) स्थायी रूप से ही दतिया में निवास करने लगे।
दतिया की कृष्णोपासिका रानी बखत कुंवर ने “प्रियासखी” नाम से रचना की है। 24 वर्ष की अल्पायु में ही स्वर्गवासी हो जाने वाले बड़ी बड़ौन के जागीरदार दिमान कम्मोदसिंह ने “बालसनेही” उपनाम से “प्रेमसुधा निधि” नामक एक सरस काव्य की रचना की है। इनकी विधवा पत्नी राजकुंवरि ने भी “प्रेमसागर” नामक ग्रन्थ की रचना की है। दतिया नरेश भवानीसिंह की सेंवढ़ा वाली पासवान खवासिन ने “पद रसिक विनोद” मुद्रित कराया।गिरधर से कुछ भिन्न लक्षणों की कुण्डलियाँ बनाने वाले
ऐनसाईं सं. 1849 के लगभग ग्वालियर में जन्में, परन्तु दतिया से भी उनका अच्छा सम्बन्ध रहा है। उन्होंने अध्यात्म के गूढ़ ज्ञान को सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। कई ग्रंथों के साथ उन्होंने गीता के भावानुवाद के लिये विशेष ख्याति प्राप्त की। उनकी रचना-शैली का एवं उदाहरण है:
नसीयत सबकों करत हैं अपनी खबर न कोय। निरमोही सबको करें, आप रहे जग मोय ।।
आप रहे जग मोय, कनक कामिनी के मांई। सबसें कहवत तजौ कनक कामिनि की छांई ।।
जैसे ऐन मसालची ठोकर खावत सोय। नसीयत सबकों करत हैं, अपनी खबर न कोय ।।
रायसा (रासो) ग्रंथों की भी अपनी एक परम्परा पुराने रजवाड़ों में रही है। हमने ऐसे पांच रासो-ग्रंथों का सम्पादन किया है, जिनके रचयिता हैं जोगीदास भांडेरी, किशुनेश भाट, श्रीधर, लाल सभासिंह और कल्याणसिंह कुडरा। महारानी लक्ष्मीबाई के समकालीन इस कवि ने “झाँसी को रायसो” की रचना की। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कुछ ही वर्ष बाद अंग्रेजों का दबदबा होने पर भी इस कवि ने महारानी की वीरता के वर्णन में अपनी लेखनी को धन्य माना है। हमने इस महत्वपूर्ण रायसे का सम्पादन “वीरांगना लक्ष्मीबाई” रासो और कहानी” के नाम से किया है। कवि कल्यान की ओजभरी वाणी की बानगी देखियेः
मथ्थन पै मथ्थ गिरें हथ्थन पै हथ्थ जहाँ, लुथ्थन पै लुथ्थ गिरें जाहिर जहान।
जुथ्थन सौ जुथ्थ भिरैं गुथ्थ गुथ्थ दोऊ, दल विथल विरुथ्य कड़े काट-काट ज्वान ।।
जहां तेगन की मारें और बिलाती ललकारें, मुंड गोरन के फारें मंदराजी पठान ।
तहां देखी सियानी नैक संकट न मानी, वह रानी मरदानी झुकि झारी किरवान ।।
महाराज भवानी सिंह के मंत्री गरीबदास गोस्वामी संस्कृत के विद्वान और हिन्दी के अच्छे कवि थे। बैजनाथ भोंडले,
कन्हैयालाल गोस्वामी, जुगलकिशोर मिश्र “जुगलेश” और दुर्ग सिह भट्ट “श्रीनिधि” भी अपने समय के लोकप्रिय कवियों में थे।
सुराही बरदार (डीमर) परिवार में जन्म पाने वाले नदीगाँव के लछमन ने “लाख कवि के उपनाम से अच्छी पीयूष वर्षा की है।
उनका “रसालय” श्रंगार रस का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। देखिये कितनी सुन्दर सूझ है-
रेशम डोर कदम्ब की डार पै डारें हतीं बनिता पुर की।
गावत राग उछाह भरी, मनो कोयल पूर रही सुर की ।।
दै मिचकी इत तैं उतकों कवि लाख कहें फिरकै मुरकी ।
झुक झोंकन झूला चढ़े जबहीं, तब ठोकर ठोड़ी लगै दुर की ।।
भागवत के प्रसिद्ध कथावाचक गोस्वामी राधालाल दतिया के राजगुरु थे। पन्ना में भी उन्हें यह सम्मान मिला था। संस्कृत के कई ग्रंथों के साथ उन्होंने “राधाभूषण” नामक एक उत्तम रीति ग्रंथ की रचना की।दतिया की महारानी की डेवढ़ी के प्रबन्धक
दिवान रघुनाथ सिंह “शंकर” ने “शंकर-सागर” नामक वृहत् ग्रंथ की रचना की है। भट्ट घराने में वंश-परम्परा से कितने ही सुकवि ख्याति प्राप्त करते रहे हैं। जन-कवियों में वजीर मुहम्मद “वजीर” भांड, बृजकिशोर पटवारी और राम चरण बलवन्त का योग भी प्रशंसनीय है। लोकसाहित्य के संकलन में पं. दुर्गा प्रसाद समाधिया के भारी श्रम का स्मरण भी आवश्यक है। सुन्नू लाल पटेरिया “मदन”, मूलचन्द्र द्विवेदी “मूलेन्द्र”, रामसेवक गुप्त गंधी, परमेश्वरी दास गांगोटिया, तथा “धर्मवीर हरदौल” नाटक के रचयिता राजा भैया मुकुन्दसिंह पलेरा वाले कुछ जल्दी ही विदा हो गये।
मुंशी नबीबख्श “फलक” प्रायः एक दोहा कहकर एक कवित्त सुनाते थे। उनका फलक उपनाम बुन्देलखण्डी छालों के अर्थ में कितना फिट होकर प्रयुक्त हुआ है-
राम लखन अरु जानकी, रोकौ बनहिं न जांय। कठिन भूमि कोमल चरण, “फलक” पड़ेंगे पाँय।
अवधपुरी की दशा नेक तो विचार करौ, आप बन जैहौ यहाँ, दुख बन जैहें नाथ।
दशरथ वृद्ध राज्यभार की सुभाँरि है को, कैसे फिर चौदह वर्ष कड जैहें नाछ ।।
आपको निवास यहाँ सकल प्रजा की चाह, टेक निज राखिबे को सब अड़ जैहैं नाथ।
कोमलचरण, वनभूमि है कठोर महा, पायन में “फलक” तिहारे पड़ जैहैं नाथ ।।
पीताम्बरा पीठ के श्री स्वामी जी महाराज ने “सिद्धान्त रहस्य”, “दर्शन-शास्त्र-संग्रह”, “वैदिक उपदेश”, आदि संस्कृत हिन्दी के कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन किया है। पं. बजभूषण गोस्वामी, बलवीर सिंह, भगवानदास सरवरिया “द्विजदास”, हास्यकवि चतुर्भुज दीक्षित ‘चतुरेश’, शम्भु दयाल श्रीवास्तव ‘ब्रजेश’, हरदास दुबे ‘हरिहर’ आचार्य दुर्गेश ने साहित्य की समृद्धि में अच्छा योग दिया है। पत्रकार बाबूलाल गोस्वामी तो अभी पिछले दिनों हमसे छिन गये। कवीन्द्र हरनाथ भी दतिया से सम्बन्धित रहे।
समकालीन लेखकों के विषय में कुछ लिखना खतरे से खाली नहीं होता। फिर इससे भी बड़ा दु:ख यह है कि उनके विषय में जितना भी लिखा जाये, उन्हें सन्तोष नहीं होता। “अभिनन्दन” 1968 नामक पुस्तक में हमने कुछ विस्तार से “दतिया का साहित्यिक इतिहास” प्रस्तुत किया है। स्थानाभाव के कारण इस लेख में दतिया जिले के वर्तमान साहित्यकारों की एक सूची भर ही प्रस्तुत की जा सकती है। अधिकांश की साहित्य-सेवा से और उनकी विशिष्ट कृतियों से बहुसंख्यक पाठक भली प्रकार परिचित हैं। समय-समय पर इनका अलग मूल्यांकन होता रहे, तो अच्छा है।
हाँ तो, आज की दतिया के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं वासुदेव गोस्वामी, हरिमोहन लाल श्रीवास्तव (वर्मा), मुंशी लाल पटैरिया “शशिधर”, गंगाराम शास्त्री, भैयालाल व्यास, अम्बा प्रसाद श्रीवास्तव, डॉ. सीता किशोर खरे डॉ. श्याम बिहारी श्रीवास्तव, डॉ. कामिनी, जगदीश शरण बिलगइयाँ “मधुप”, हरिसिंह “हरीश”, महेश कुमार मिश्र “मधुकर”, डॉ. हरिहर गोस्वामी “मानस विश्वास”, डॉ. के. बी. एल. पाण्डे, डॉ. रामेश्वर प्रसाद गुप्त, अवधकिशोर सक्सेना, प्रो. परशुराम शुक्ला, डॉ. विभा शुक्ला, डॉ. रामस्वरूप ढेंगुला, ममता श्रीवास्तव, गजराज सिंह भदौरिया, राज गोस्वामी, ऋषि मोहन श्रीवास्तव । इन दो दर्जन नामों से ही दतिया जिले की गौरवशाली साहित्यिक परम्परा समाप्त नहीं हो जाती। मेरी कामना है, कितने ही उदीयमान नामों से यह सूची बराबर बढ़ती रहे।