
महापण्डिता अपाला
October 5, 2024
महर्षि पाराशर
October 7, 2024सभी प्राचीन सभ्यताओं के रोग हरने की कला के जन्म का श्रेय किसी न किसी देवता अथवा पौराणिक व्यक्ति को दिया गया है। जिस प्रकार थॉथ ने रोगहर कला स मिश्रवासियों पर, एपॉलो ने यूनानियों पर प्रकट की, ठीक उसी प्रकार भारतवासियों को यह ज्ञान सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से प्राप्त हुआ। प्रजनक ‘दक्ष प्रजापति’ ने ‘जीवन के विज्ञान’ को संपूर्ण रूप से भगवान ब्रह्मा से प्राप्त किय। दक्ष प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने और अश्विनी कुमारों से देवराज इन्द्र ने प्राप्त किया। पूर्व में वर्णन किया जा चुका है कि ऋषियों के निवेदन पर भारद्वाज इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए इन्द्र के पास गये ताकि पीड़ा पहुँचाने वाले विभिन्न रोगों से मानव जाति की रक्षा की जा सके।
उपर्युक्त पौराणिक गाथा के अनुसार इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले सर्वप्रथम भरद्वाज ने यह विद्या अन्य ऋषियों को सिखाई। इन ऋषियों में एक थे पुनर्वसु, जिन्हें सामान्यावस्था में आत्रेय के नाम से जाना जाता है। अत्रि के पुत्र आत्रेय का काल ई.पू. आठवीं शताब्दी के लगभग माना जाता है। आत्रेय एक महान् चिकित्सक तथा अध्यापक थे। उन्होंने कई कृतियों की रचना की है, इनमें आत्रेय संहिता प्रसिद्ध और सर्वविदित है। उनके शिष्यों अग्निवेश, मेल, जतुकर्ण, पारशर,, कसरापाणि तथा हरित ने भी उनकी शिक्षाओं पर आधारित ग्रन्थों का संकलन किया है अग्निवेश के महान विश्व कोश का बाद में सम्पादन किया गया और अब यह चरक संहिता के नाम से जाना जाता है। इसमें आत्रेय की शिक्षाओं का समावेश है।
इसमें 46500 श्लोक है। इसके प्रारम्भिक अध्याय में आत्रेय और उनके शिष्यों के बीच हिमालय पर्वत के उत्तरी छोर पर हुई एक भेंट का वर्णन किया गया है। आत्रेय ने उन्हें समझाया कि ‘सम्पूर्ण आयुर्वेदिक चिकित्साशास्त्र का पूर्ण ज्ञान मनुष्य अपने पूरे जीवन काल में भी प्राप्त नहीं कर सकता। अतः तुम्हें मेरे एक अन्य छोटे ग्रन्थ से विद्या प्राप्त करके ही संतुष्ट हो जाना चाहिए।’ आत्रेय ने रोगों को कई वर्गों में बाँटा है- साध्य रोग (जिनका इलाज हो सकता है), असाध्य रोग तंत्र मंत्र द्वारा साध्य रोग तथा वे रोग जिनके उपचार की संभावना बहुत कम होती है। उन्होंने रोगियों में भी अन्तर माना है ऐसे रोगी जिनका उपचार चिकित्सक को अवश्य करना चाहिए तथा वे रोगी जिनका उपचार करने को मना कर देना चाहिये। उन्होंने आयु तथा मनोदशा (मिजाज) पर वायु, मिट्टी तथा मौसम के प्रभाव का वर्णन किया है।
उन्होंने छः प्रकार के स्वाद बताये हैं- मीठा, संकोचक (कब्जियत करने वाला), कड़वा, खट्टा, नमकीन तथा तीखा। उन्होंने यह चर्चा भी की है कि प्रत्येक स्वाद का मानव शरीर पर क्या प्रभाव होता है। उन्होंने भिन्न भिन्न प्रकार के जल के चिकित्सीय गुण तथा विभिन्न रोगों में गर्म तथा ठंडे जल के उपयोग, विभिन्न स्रोतों से प्राप्त दूध, गन्ना, खट्टा दलिया, चावल के निषेक, जौ तथा अन्य अनाज, तेल, फल, जड़ी-बूटी शीरे से बने मादक पेय, शहद आदि के भौतिक तथा चिकित्सकीय गुणों का वर्णन किया है। उन्होंने नाना प्रकार के पशु-पक्षी, मछली तथा सर्पों का विवरण भी दिया है। माँस के गुणों विवेचन किया है तथा आहार के विषय और सिद्धान्त भी बताये हैं। उन्होंने स्वप्न, शुभ एवं अशुभ लक्षणों तथा वर्जनाओं के बारे में भी लिखा है।
“ब्रम्हणा हि यथाप्रोक्तमायुर्वेदं प्रजापतिः जग्राह निखिलेनादावश्विनौ तु पुनस्ततः ।
अश्विभयां भगवाञ्शकः प्रतिपेदे ह केवलम् । ऋषश्च भरद्वाज्जगृहुस्तन्मुनेर्वचः ।“
तत्पश्चात् उन्होंने रोगों के नैतिक कारणों का विवेचन किया है तथा विभिन्न रोगों, यथा ज्वर, अतिसार, पेचिश, क्षय, रक्तस्त्राव आदि का तथा उनके उपचार का विशद विवरण दिया है। अन्त में उन्होंने विषों की विभिन्न प्रतिकारक (मारक) वस्तुओं का भी उल्लेख किया है। चरक संहिता में आत्रेय की शिक्षाओं का समावेश है। उसके प्रत्येक अध्याय का आरम्भ इन शब्दों से होता है: “पूजनीय आत्रेय ने ऐसा कहा…..।” इस ग्रन्थ में चिकित्सा शास्त्र के विभिन्न विषयों पर हुए आत्रेय के विचार से पूर्वी भाग कैलाश पर्वत तक तथा दक्षिणी मैदानों तक में इस प्रकार का सभाओं का आयोजन निःसंदेह ही उनको लोकप्रियता, बुद्धिमता तथा समाकालीनों के मध्य उनके सर्वोच्च स्थान की ओर इंगित करती है।
आयुर्वेदिक चिकित्साशास्त्र की व्याख्या में आत्रेय का उतना ही विशेष एवं महत्वपूर्ण स्थान है जितना यूनानी चिकित्साशास्त्र में हिपोक्रीत्स का वस्तुतः इन दोनों की क्षमता, योग्यता एवं उपलब्धियों में ही समानता नहीं पाई जाती, अपितु उनके विचारों में भी समानता है। तत्कालीन धारणा के विपरीत आत्रेय पागलपन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पागलपन से देवता अथवा राक्षसों का नाम मात्र का भी सम्बन्ध नहीं है, अपितु पागलपन अनुचित आचरण के करण उत्पन्न होता है तथा यथोचित उपचारों से इसका प्रतिकार किया जा सकता है। यूनान के हिपोकीत्स ने भी ठीक यही बात मिरगी के बारे में कही है, जिसे उस समय तक एक धार्मिक रोग कहा जाता था। हिपोक्रीत्स कहते हैं, “यह रोग मुझे तो किसी अन्य रोग से अधिक दैवी अथवा धार्मिक नहीं लगता। मिरगी भी अन्य रोगों की भाँति प्राकृतिक कारणों द्वारा ही उत्पन्न रोग है।” किन्तु आत्रेय हिपोकीत्स अथवा यूनान के प्रारम्भिक दार्शनिक चिकित्सा शास्त्रियों से पहले हुए हैं और वह भी पूर्व में।