
प्रवासी समिति
July 23, 2024
पुरातत्त्व एवं शिलालेख समिति
July 23, 2024बुन्देलखंड की लोक नाट्य परंपरा बुन्देली लोकभाषा के जन्म से पूर्व की है। बुन्देली का उद्भव आठवीं-नवीं शती में हुआ था, परन्तु उसके पूर्व बुन्देलखंड में दूसरी बोलियों का प्रचलन था। उस समय पुलिन्द, निषाद, शबर आदि आदिम जातियाँ ही थीं। उनमें लोकोत्सवों, लोकनृत्यों, लोकनाट्य-रूपों का प्रचलन था।
इस युग में खास बात यह थी कि लोकनाट्य का जो भी रूप प्रचलित था, वह धर्म की जकड़न से मुक्त होने के कारण परवर्ती लोकनाट्यों की अपेक्षा अधिक स्वच्छन्द था। वे आदिम जातियाँ किसी जाति या दल की निजी सम्पत्ति न होने की वजह से सामूहिक या सामाजिक चेतना से अधिक जुड़े थे।
गुप्त-काल से लेकर हर्षवर्धन (606-47 ई.) तक संस्कृति और कला का उत्कर्ष रहा और संस्कृत नाटकों का मंचन इस क्षेत्र में भी होता रहा। स्वाभाविक है कि लोकनाट्य इस दौड़ में पीछे हो गया। बुन्देलखंड के सामन्तों का बोलबाला था, जिससे प्रजा का शोषण अधिक तेजी से हुआ। ऐसी परिस्थिति में लोककलाओं के विकास की ओर लोगों का ध्यान कम गया।
उसके बाद नौवीं शती तक का समय बुन्देलखंड के इतिहास में अन्धकार-युग कहा जाना चाहिए, क्योंकि यहाँ प्रतिहारों, राष्ट्रकूटों और पालों के आक्रमण होते रहे और किसी का भी शासन सुस्थिर नहीं रहा। 9वीं शती के उत्तरार्द्ध में चन्देलों ने अपने पैर मजबूती से जमा लिए और इसी वजह से बुन्देली लोकभाषा का उद्भव और विकास सम्भव हो सका।
शोध एवं आलेख – गौरीशंकर रंजन