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May 29, 2025
प्राचीन बुंदेलखंड - ऐतिहासिक सर्वेक्षण
भगवानदास गुप्त
बुंदेलखंड भारतीय उप महाद्वीप के मध्य स्थित होने के कारण देश का हृदय प्रदेश कहा जा सकता है। भारत के सुदूरतम भागों जैसे पठानकोट, बम्बई, मद्रास और कलकत्ता आदि से यह रेल मार्गों और राजपथों से सम्बद्ध है। उत्तरी और दक्षिणी भारत के बीच तो यह जैसे दोनों को जोड़ने वाली कड़ी ही है। इसके इसी सामरिक और यातायात सम्बन्धी महत्व के कारण ही यह प्राचीनकाल से महत्वाकांक्षी और दूरदर्शी शासकों एवं विजेताओं को आकर्षित करता रहा है। मराठों ने इसलिए उत्तरी भारत की अपनी चढ़ाइयों के लिए अपना केन्द्र बना कर झाँसी में अपनी मुख्य सैनिक छावनी स्थापित की थी। अंग्रेजों ने भी बुंदेलखंड के रजवाड़ों पर अपनी सत्ता स्थापित कर झाँसी को राजा गंगाधर राव की मृत्यु (1853 ई.) के पश्चात तुरन्त ही साम्राज्य में मिला लिया था। तब से अभी तक झाँसी भारतीय स्थलीय सेना और रेल यातायात का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बना चला आ रहा है।
जन साधारण में बुंदेलखंड की सीमाओं सम्बन्धी यह लोकोक्ति बहुत ही प्रचलित है-
“इत जमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हाँस।।”
थोड़े से हेर फेर के पश्चात बुंदेलखंड की यही सीमायें प्राचीन काल से चली आ रही हैं। रहन-सहन बोली-वाणी, आचार -व्यवहार और सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी बुंदेलखंड की यही सीमायें सर्वमान्य हैं। बुंदेलखंड की उत्तरी दक्षिणी और पूर्वी सीमाओं को लेकर विशेष विवाद नहीं है। ये सीमायें उत्तर में यमुना, दक्षिण में नर्मदा पूर्व में टॉस निर्धारित करती हैं। पर पश्चिमी सीमा पर कुछ मतभेद हैं। उदाहरण के लिये कनिंघम इसे बेतवा तक और दीवान मजबूत सिंह इसे काली सिंध मालवा तक मानते हैं जब कि दतिया के बुन्देले राज्य की सीमायें अभी अभी तक सिंध तक ही थी और उसके पश्चात ग्वालियर का सिंधिया राज्य शुरू हो जाता था। चंदेलों के राज्य में ग्वालियर भी इस प्रदेश में शामिल था। तब इसका नाम गोपाद्रि गिरि था और सुप्रसिद्ध चंदेल राजा धंग (950-1002 ई.) ने इसे जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था।
यमुना, नर्मदा, चंबल और टोंस के अंक में सिमटा सा प्रदेश प्राचीन काल में दशार्ण, चेदि, जुझीति जैजाक भुक्ति, जैच्च भुक्तिका आदि नामों से जाना जाता रहा है। इसका बुंदेलखंड नामकरण अपेक्षाकृत आधुनिक है और इसका प्रचलन इस प्रदेश में ह्वेनसांग, जो कि हर्ष के काल (606.46 ई.) में भारत आया य इस प्रदेश का नाम चि-चिन्टों (जिझौति) देता है, जबकि अलवस्त्रं इसके ऐसे ही मिलते जुलते नाम ‘जाजाहोती’ का उल्लेख करता है। विभिन्न राजाओं के शिलालेखों में भी इसे जैजाकभुक्ति नाम ही दिय गया है। उदाहरण के लिए महोबे के सुप्रसिद्ध राजा परमाल या परमार्दिदेव के समय के पृथ्वीराज के मदनपुर के एक शिलालेख में यह अभिलेख है कि-
“अरुण राजस्य पौत्रेण, श्री सोमेश्वर सुनूना।
जैजाकभुक्ति देशायम् पृथ्वीराजेन लूनिता।।”
मुहम्मद तुगलक के काल में आने वाला मूर यात्री इब्नबतूता इसकी राजधानी कजर्रा या खजुराहो का उल्लेख करता है। चन्देल राज्य वंश के संस्थापक चन्द्र वर्मन के पौत्र जैजक अथवा जयशक्ति के नाम पर इसका यह नाम पड़ा था। कालान्तर में जब चन्देलों को शक्ति छिन्न भिन्न हो गई तो बुंदेलों ने चन्देलों को हस्तगत कर लिया और 1531 के लगभग जब उनके पैर यहाँ दृढ़ता से जम गये तभी से इसे बुंदेलखंड कहा जाने लगा जो कि वास्तव में विंध्येलखंड का ही बिगड़ा हुआ रूप है। बुन्देले गहरवार क्षत्रिय थे और उनके पूर्व पुरुष पंचम ने विन्ध्य श्रेणियों से घिरे इस प्रदेश में अपनी सत्ता की नींव डाल कर अपने नाम के आगे ‘विन्ध्येला’ जोड़ लिया था। इन्हीं पंचम के वंशज बुन्देले कहलाये।
चन्देलों के पूर्व बुंदेलखंड इतिहास के बारे में बहुत ही कम सूचना उपलब्ध है। इस बिखरी संक्षिप्त सूचना को कुछ क्रमबद्ध कर यह कहा जा सकता है। बुंदेलखंड के स्फुट ऐतिहासिक विवरणों का काल रामायण और महाभारत के काल से शुरू हो जाता है। भगवान राम के इस प्रदेश में से गुजरने और चित्रकूट में निवास करने की कथा कौन नहीं जानता? महाभारत में चेदि (चंदेरी) के अधिपति शिशुपाल का कृष्ण द्वारा वध एक महत्वपूर्ण घटना है। मौर्य काल में यह भाग मौर्य साम्राज्य का एक प्रमुख प्रांत था जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी। सुप्रसिद्ध सम्राट अशोक सत्ता सम्भालने से पूर्व इसका प्रांतपति रह चुका था, उसने विदिशा के एक साहूकार की कन्या से विवाह किया था। इस कन्या ने महेन्द्र और संघमित्रा को जन्म दिया था जिन्होंने लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। साँची के स्तूप और झाँसी के पास गुजर्रा में मिला अशोक का शिलालेख इसका साक्षी है कि बुंदेलखंड मौर्य साम्राज्य का एक प्रमुख अंग था। सुप्रसिद्ध गुप्त सम्राटों के काल में ही बुंदेलखंड में वाकाटकों का अभ्युदय हुआ था। इनके सुप्रसिद्ध ब्राह्मण शासकों में विंध्य शक्ति और प्रवरसेन प्रथम ने अपनी शक्ति में अत्यधिक वृद्धि कर अपने राज्य का प्रसार किया था। प्रवरसेन का साम्राज्य उत्तर में यमुना और आधुनिक बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक फैला हुआ था। उसने सम्राट की उपाधि धारण की थी और चार अश्वमेध यज्ञ किये थे। वाकाटक कितने शक्तिशाली थे इसका अनुमान इससे हो सकता है कि समुद्र गुप्त जब दक्षिण में अपनी विजय यात्रा पर निकला तो वाकाटक साम्राज्य की सीमायें बचाता गया। उसकी इलाहबाद की प्रशस्ति में कहीं भी वाकाटकों पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख नहीं है। इतना ही नहीं चन्द्रगुप्त द्वितीय ने तो अपनी कन्या प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक सम्राट रुद्रसेन द्वितीय से कर वाकाटक सम्राटों से अपने मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों में एक और गाँठ लगा दी थी। देवगढ़ का विष्णु मन्दिर गुप्तकाल का ही है। वाकाटक वंश के शासक 6वीं सदी के प्रथम अर्द्धांश तक बुंदेलखंड में बने रहे। सुप्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन के काल में यह प्रदेश वर्धन साम्राज्य के अन्तर्गत आ गया। हर्ष के काल में आये चीनी यात्री ने इस प्रदेश का अपनी यात्रा में जिस नाम से उल्लेख किया है वह पहले ही बताया जा चुका है।
वर्धनों के पश्चात् और चन्देलों के सत्ताधीश बनने के बीच के काल में बुंदेलखंड में प्रतिहारों और कलचुरियों अथवा हैहयों का शासन रहा। चन्देलों का उत्कर्ष वास्तव में प्रतिहारों के आधीन सामन्तों के रूप में हुआ था। चन्देल शासक हर्षदेव (900-925 ई.) और उसका अधिक प्रसिद्ध पुत्र यशोवर्धन स्वतन्त्र शासकों जैसी सत्ता स्थापित करके भी स्वयं प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार करते थे और उनसे अपने पुराने संबंध नहीं तोड़ सकते थे। यशोवर्मन के पुत्र धंग (954.1002) को ही इसका श्रेय है कि उसने चन्देलों को प्रतिहारों की नाम मात्र की अधीनता से मुक्त कर उन्हें स्वतंत्र शासक घोषित किया।
चंदेल
चन्देलों की उत्पत्ति के बारे में अधिकतर विद्वानों की धारणा है कि वे यहीं बुंदेलखंड की ही किसी आदि जाति के शासक क्षत्रिय थे और धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ाकर सारे बुंदेलखंड पर छा गए। वैसे एक आख्यायिका के अनुसार उनके आदि पुरुष चन्द्र ब्रह्म का जन्म ब्राह्मण कन्या हेमवती और चन्द्रमा के सम्मिलन से हुआ था। खजुराहो के 1059 वि.सं. के एक अभिलेख के अनुसार चन्देलों के आदि पुरुष चन्द्रत्रेय का जन्म ऋषि अत्रि के कुल में हुआ था जिनके कि नेत्र से चन्द्रमा का जन्म हुआ था। इसलिये चन्द्रत्रेय के वंशजों को चन्द्रेला कहा जाने लगा, जो कालान्तर में बिगड़ कर चन्देल हो गया। खजुराहो अभिलेखों के अनुसार चन्देल वंश का प्रथम शासन नान्नुक था। चन्देल शासकों ने अभिलेखों और अन्य सूचना तथा अनुमानों के आधार पर चन्देल शासकों का क्रम और उनका अनुमानित काल इस प्रकार रहा होगा।
- नान्तुक (831 ई.)
- वाक्पति (845 ई.)
- जयशक्ति (860 ई.)
- विजयशक्ति (880ई.)
- राहिला (900 ई.)
- हर्ष (900 या 915 ई.)
- यशोवर्मन (930 ई.)
- धंग (950-1002ई.)
- गंड (1002-1017ई.)
- विद्याधर (1017-29 ई.)
- विजयपाल (1030-50 ई.)
- देववर्मन (1050-60 ई.)
- कीर्तिवर्मन (1060-1100 ई.)
- सल्लाक्षण वर्मन (1100-1115 ई.)
- जयवर्मन (1111-20 ई.)
- पृथ्वीवर्मन (1120-29 ई.)
- मदनवर्मन (1129-62 ई.)
- यशोवर्मन (1162-1165 ई.)
- परिमर्दिदेव (1165-1202 ई.)
- त्रैलोक्यवर्मन (1203-40-41 ई.)
- वीरवर्मन (1250-86 ई.)
- भोजवर्मन (1286-88 ई.)
- हम्मीरवर्मन (1288-1310 ई.)
उपरोक्त सिंहासनारोहण की वर्षे केवल अनुमानित हैं, उन पर मतभेद भी है, इसलिये आगे के विवरण में यदि तिथियाँ कहीं उपरोक्त तालिका से मेल न खायें तो यही समझना ठीक होगा कि आधुनिकतम शोधों से ही वे तिथियाँ या वर्ष निर्धारित की गई हैं।
उपरोक्त तालिका के सभी चन्देल शासकों के विषय में विशद सूचना देना इस छोटे से लेख में सम्भव नहीं। अतएव यहाँ केवल उन्हीं कुछ प्रमुख चन्देल शासकों की संक्षिप्त चर्चा की जा रही है, जिनकी कि उपलब्धियां अधिक महत्वपूर्ण थीं। इनमें हर्ष देव (900-25) के पुत्र यशोवर्मन को ही बुंदेलखंड में चन्देल सत्ता दृढ़ता से स्थापित करने का श्रेय प्राप्त है। यशोवर्मन ने कालिंजर का किला जीत कर अपने राज्य की सीमाओं का यमुना तक विस्तार किया और गौड़, कौशल, काश्मीर, मिथिला, मालवा, चेदि, कुरु और गुर्जर शासकों से जम कर लोहा लिया। यशोवर्मन के पुत्र धंग ने कान्य कुब्ज के शासक को पराजित किया और ग्वालियर (गोपाद्रिगिरि) का किला प्रतिहारों से जीत कर स्वयं को सर्व शासक घोषित कर दिपा और कोरस तथा उतर पश्चिम में सत्ताधीश शासक घोषित कर दिया। धंग के राज्य की सीमाओं का ग्वालियर तक और दक्षिण पश्चिम में भिलसा तक हो गया। उत्तरी मायाति के कालिन्जर और ग्वालियर के दो अभेद्य किले उसके हाथ में आ जाने से उसके सभी विरोधियों के हौसले पस्त हो गये। उसने अङ्ग (भागलपुर), राधा (पश्चिम बंगाल) दक्षिण कौशल और आन्ध्र तक धावे मारे और वह अपनी शक्ति का आतंक इन सभी पड़ोसी राज्यों पर जमाने में सफल हुआ। उसने लगभग आधी सदी तक (954.1002) बड़ी ही सफलता से शासन किया। चन्देलों में उसी ने सर्वप्रथम महाराजाधिराज की उपाधि धारण कर स्वयं को प्रतिहारों की अधीनता से मुक्त कर एक स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया था। स्मरण रहे कि उसका पिता यशोवर्मन भी प्रतिहारों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सका था। गजनी के अमीर सुबुक्तगीन ने जब पंजाब के साही राजा जयपाल पर आक्रमण किया था, तब धंग ने जयपाल को सहायता भेजी थी। कहा जाता है कि धंग 100 वर्ष तक जीवित रहा और फिर उसने लगभग 1002 ई. में इलाहाबाद संगम में डूबकर अपने प्राण विसर्जित कर दिये।
धंग के पश्चात उसका पुत्र गंड कुछ समय तक शासक रहा, फिर उसका पुत्र विद्याधर उसका उत्तराधिकारी बना। जब महमूद गजनवी ने कालिंजर पर आक्रमण किया तब उसका सामना विद्याधर ने ही किया था। इस आक्रमण का कारण यह था कि चन्देलों के आधीन ग्वालियर के कच्छप घाट वंश के शासक अर्जुन ने कन्नौज के राजा राज्यपाल पर आक्रमण कर उसे इसलिए मार डाला था कि उसने महमूद गजनवी की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अस्तु महमूद गजनवी राज्यपाल की मृत्यु का बदला लेने के लिए कालिन्जर के राज्य पर चढ़ आया था।
वास्तव में गजनवी ने 1019 और 1022 में दो बार चन्देल राज्य पर आक्रमण किया था और दोनों ही बार उसे विफल मनोरथ होकर लौटना पड़ा था। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि गजनवी ने जिन भारतीय शासकों पर आक्रमण किया उनमें केवल चन्देल राजा विद्याधर ही ऐसा था जो अपने राज्य की सफलतापूर्वक रक्षा कर सका। विद्याधर बड़ा ही प्रतापी और शक्तिशाली शासक था और उसने परमार राजा भोज और कल्चुरी राजा गंगेयदेव की पराजित किया। उसके पुत्र विजयपाल ने अपना राज्य यथावत बनाये रखा किन्तु विजयपाल का पुत्र कीर्तिवर्मन (1070) निर्बल शासक सिद्ध हुआ। वह बड़ी कठिनाई से अपने एक सामन्त गोपाल भसहायता से ही किसी प्रकार अपना राज्य बनाये रख सका। चन्देल वंश में एक अन्य उल्लेखनीय शासक मदनवर्मन हुआ। उसने परमारों चालुक्यों, गहरवारों और कलचुरियों से कई युद्ध किए तथा अपनी धाक इन पड़ौसी राज्यों पर बराबर बनाये रखी।
मदनवर्मन के पश्चात उसका पौत्र परमार्दिदेव (1166.1202) शासक बना। उसने अपने अधिकार काम में चालुक्यों को पराजित कर भिलसा पर अधिकार कर लिया पर तुरन्त ही दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान से उसका जो संघर्ष हुआ से पृथ्वीराज की मृत्यु (1192 ई.) पर ही समाप्त हुआ। स्मरण रहे पृथ्वीराज चौहान गौरी के विरुद्ध लड़ता हुआ तराइन के युद्ध में (1192) में मारा गया था। पृथ्वीराज और परमाल या परमार्दिदेव के इन युद्धों का बड़ा ही प्रभावोत्पादक वर्णन आल्हाखण्ड में मिलता है। इन युद्धों में परमाल की शक्ति जर्जर हो गई और जब 1202.3 ई. में मुहम्मद गौरी के सेनानायक कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिन्जर को आ घेरा तो फिर परमाल को सिवा अधीनतापूर्ण सन्धि कर लेने के और कोई चारा न रहा। लेकिन परमाल के मन्त्री अजयदेव को धंग और विद्याधर की गौरव गाथा भूली न थी। उसने उत्तेजित होकर परमाल को मार डाला और युद्ध चालू रखा पर वह पानी की कमी के कारण अधिक समय न टिक सका और कालिंजर तत्पश्चात महोबा भी ऐबक के हाथ में आ गया। किन्तु परमाल का पुत्र त्रैलोक्यबर्मन (1203.1240-41 ई.) बड़ा ही प्रतापी निकला उसने मुसलमानों को खदेड़कर अपने सारे प्रदेश ही वापिस नहीं ले लिए बल्कि कालिंजर पर भी अधिकार कर लिया। उसने रीवा को भी जीतकर अपने राज्य में मिला लिया और कलचुरियों के दहमण्डल नामक राज्य पर भी अधिकार कर लिया। इल्तुतमिश भी उसका कुछ न बिगाड़ सका। त्रैलोक्यवर्मन के पश्चात उसके पुत्र वीरवर्मन ने पैतृक राज्य अक्षुण्ण बनाये रखा। किन्तु उसके पश्चात उसके उत्तराधिकारियों के काल में चन्देल राज्य कमजोर ही होता गया और उसके अधिकांश प्रदेशों पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया। वैसे तो 1315 ई. तक बुंदेलखंड में वीरवर्मन प्रथम नामक चन्देल राजा का उल्लेख उपलब्ध है पर उस के पश्चात् चन्देलों का राज्य ही लुप्त प्राय हो गया और कालान्तर में बुंदेलों ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया।
बुंदेलखंड का सीमांकन
हरि विष्णु अवस्थी
सन् 1942 ई. में ओरछा नरेश वीरसिंह जू देव ‘द्वितीय’ ने बुन्देलों का एक अधिवेशन आयोजित किया जिसमें प्रांत निर्माण का सपना संजोया था। इस हेतु बुंदेलखंड के ही नहीं वरन् देश के अन्य भागों के गणमान्य प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया था। इस विशाल प्रतिनिधि सभा को सम्बोधित करते हुए वीरसिंह जू देव ने कहा था- “प्रांत निर्माण मैं इसलिए करना चाहता हूँ कि हम अपने आपको बुंदेलखण्डी तो कहते हैं, मगर जब कोई पूछता है कि तुम्हारा बुंदेलखंड है कहाँ ? तो हम नहीं बता सकते, लाजवाब हो जाते हैं।” इसी बात को लेकर डॉ. कांतिकुमार जैन ने, अपनी वेदना निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त की थी “हमें बुंदेलखंड के दीवाने नहीं, जानकार चाहिए।” तथा “कभी कभी हम अपनी परम्परा, इतिहास, अथवा जनश्रुति को इतना स्वीकार कर लेते हैं कि उसकी वास्तविकता से परिचित नहीं होना चाहते और उसके ब्यौरे में जाने में हमें आलस्य आने लगता है।”
अँग्रेज शासक बुन्देला विद्रोह (सन् 1853.54) और 1857 तथा रामगढ़ की रानी अवंति बाई एवं मंडला के शंकरशाह आदि के विद्रोह के कारण घबराये हुए थे। उन्होंने यह अनुभव कर लिया था कि इसी बुंदेलखंड के क्षेत्र में प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण विद्रोहों को दबाना सबसे कठिन और क्षतिकारक है। इस कारण उन्होंने “बाँटों और राज करो” की नीति के अनुसार छोटे-छोटे रजवाड़ों से सन्धि करके तथा अपने अधीनस्थ क्षेत्र को संयुक्त प्रांत और मध्य प्रांत में बाँट दिया। उनकी नीति थी कि बुंदेलखंड क्षेत्र छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटा रहे। इसका प्रमाण यह है कि पन्ना से विद्रोह कर मैहर अलग राज्य बना तो उसे तुरंत मान्यता दे दी, फिर मैहर से विद्रोह करके विजय राघौगढ़ अलग राज्य बना तो उसे भी अँग्रेजों से मान्यता प्राप्त होने में देर नहीं लगी।
यह स्वाभाविक है कि किसी भी क्षेत्र की भाषा और संस्कृति अपने राजनीतिक वर्चस्व के केन्द्र की तरफ ही उन्मुख होती है। इसी सूत्र के सहारे बुंदेलखंड की भाषायी और सांस्कृतिक इकाई को अँग्रेजों ने सुनियोजित षड्यंत्र पूर्वक छिन्न-भिन्न कर दिया। ब्रिटिश शासन की इस कूटनीति और अपने-अपने स्वार्थों से ग्रस्त इस क्षेत्र के नरेशों के कारण, ओरछा नरेश वीरसिंह देव ‘प्रथम’ का बुंदेलखंड के एकीकरण का सपना कभी पूर्ण न हो सका और बात आई-गई हो गई।
कितने आश्चर्य की बात है कि टीकमगढ़ से 60 कि.मी. पश्चिम में बेतवा पार के लोग अपनी बोली को बुंदेली न कहकर ‘मरैठी’ या चौरासी की बोली कहते थे क्योंकि वह क्षेत्र ग्वालियर के मराठा शासकों के अधीन था। टीकमगढ़ से लगभग 150 कि.मी. दूर सागर के लोग भी टीकमगढ़ छतरपुर की बोली को ही बुंदेली मानते थे और वे अपनी बोली को सगरयाऊ कहते थे। बुंदेलखंड पर अधिक गहन अध्ययन मनन प्रारंभ होने पर टीकमगढ़-छतरपुर और इर्द-गिर्द के इलाकों की बोली को सागर में ‘घटिया खाले’ (नीचे) की बुंदेली और सागर की बोली को सगरयाऊ बुंदेली की मान्यता मिली। तात्पर्य यह है कि खण्डित मानसिकता के जो बीज बुंदेलखंड की जनता में अँग्रेजों ने बोये थे, वे चिरकाल तक फलते-फूलते रहे।
खेद की बात यह है कि बुंदेलखंड सम्बन्धी जो इतिहास लेखन का कार्य हुआ वह भी अँग्रेजों के द्वारा ही प्रारंभ हुआ, वह भी जाति या भाषा आधारित हुआ। उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार सबसे पहले सन् 1808 ई. में पाग्सन ने ‘हिस्ट्री ऑफ बुन्देलाज’ लिखी जो बुंदेलों का इतिहास न होकर मात्र छत्रसाल बुन्देला का ही इतिहास था। उसका मुख्य स्रोत छत्रसाल के राजकवि ‘लाल’ द्वारा रचित ‘ग्रंथ’ छत्र प्रकाश है। यह स्वाभाविक है कि एक दरबारी कवि द्वारा लिखे गये ग्रंथ में इतिहास से अधिक अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति होगी। छत्र प्रकाश का निम्नलिखित दोहा-
इत जमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टाँस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काऊ हौंस।।
छत्रसाल के शौर्य और वर्चस्व को प्रदर्शित करता है किन्तु बुंदेलखंड की सीमाओं का नहीं। पाग्सन के बाद के इतिहासकारों के लिए यह दोहा बुंदेलखंड की सीमाएँ निर्धारित करने हेतु एक मुहावरा जैसा बन गया। जिसने भी बुंदेलखंड की सीमाओं परविचार किया उसने इसी दोहे को आधार माना। जबकि ग्रियर्सन (सन् 1894.1927 ई) ने बुंदेली भाषा-भाषी क्षेत्र के आधार पर बुंदेली की सीमाओं को निर्धारित किया।
विन्सेंट ए स्मिथ (1908 ई.) ने तो और भी लापरवाही से बुंदेलखंड को और भी सीमित करते हुए लिखा –The use of word Bundelkhand is vague and indefenite the only official recognition of it, being the application of collective term ‘Bundelkhand Agency’ to a group of petty native states of Panna Charkhari and others which are comprised within the larger group known as ‘Central India Agency.”
इस प्रकार स्मिथ के अनुसार बुन्देला राजाओं द्वारा शासित क्षेत्र ही बुंदेलखंड रह गया। वास्तविकता यह है कि स्मिथ का उद्देश्य इतिहास लेखन न होकर पुरातात्विक सम्पदा के अन्तर्गत चंदेलकालीन मुद्रा व्यवस्था का सर्वेक्षण करना था, जैसा कि ग्रियर्सन का मुख्य उद्देश्य भाषा का सर्वेक्षण था। इस कारण इन अँग्रेज विद्वानों ने सीमाओं के सम्बन्ध में गंभीरता से विचार नहीं किया। बुंदेलखंड नाम यदा-कदा अनेक प्रसंगों में, अनेक ग्रंथों में मिलता है, लेकिन इसकी सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयास नहीं हुआ। प्रायः शोधार्थी अपने काम को सीमित करने के लिए बुंदेलखंड को ही सीमित करते रहे।
दीवान प्रतिपाल सिंह, पहरा जिला छतरपुर ने सर्वप्रथम बुंदेलखंड के भूगोल, इतिहास तथा अन्य जैसे अर्थ व्यवस्था, सांस्कृतिक एकता, भाषाई समानता आदि को समाहित करते हुए सन् 1898 से 1928 ई. तक के तीस वर्षों में “बुंदेलखंड का इतिहास” बारहखण्डों (14000 पृष्ठों) में लिखा, जिसका प्रथम खण्ड सन् 1929 ई. में प्रकाशित हुआ। शेष ग्यारह भाग अप्रकाशित ही रह गये। दीवान प्रतिपाल सिंह के अनुसार बुंदेलखंड की जो स्थिति एवं सीमाएँ दी गई हैं, वह निम्न अनुसार हैं-
स्थिति – बुंदेलखंड की स्थिति नक्शे पर 230-45′ और 260-50′ उत्तरीय तथा 700-52′ और 820-0′ पूर्वीय भू रेखाओं के मध्य में है।
सीमाएँ – पूर्व में टोंस और सोन नदियाँ अथवा बघेलखंड का रीवा राज्य है तथा बनारस के निकट बुंदेला नाले तक सिलसिला चला गया है।
पश्चिम में – वेतवा, सिंध और चंबल नदियाँ, विन्ध्याचल श्रेणी तथा मालवा, सिंधिया का ग्वालियर राज्य और भोपाल राज्य हैं। पूर्वी मालवा इसी में आता है।
उत्तर में –यमुना और गंगा नदियाँ अथवा इटावा, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद और मिर्जापुर तथा बनारस जिले हैं।
ग्वालियर राज्य के भिंड, ग्वालियर, गिर्द, नरवर, ईसागढ़ और भिलसा के जिले अथवा उनके भाग और इसी प्रकार से भूपाल राज्य की उत्तरीय और पूर्वीय निजामतों के भाग तथा मध्य प्रदेश के सागर, दमोह, जबलपुर जिले अथवा उनके भाग, रीवा की पश्चिमी तहसीलों के भाग और संयुक्त प्रान्त के काशी के निकट से मिर्जापुर, इलाहाबाद, बाँदा, हमीरपुर, जालौन तथा झाँसी जिले अथवा उनके भाग बुंदेलखंड के ही अंश हैं। बीच-बीच में खाली मैदान पाकर गोंड लोग इसके बहुत कुछ आटविक अंश पर अधिकार कर लेते रहे। अतएव इसी में गौंडवाने का एक भाग भी है। प्राचीन जुझौति देश इसका पश्चिमी दक्षिणी भाग मात्र था। यह चंदेलों के’ जेजाक भुक्ति’ के भीतर पड़ गया था।
क्षेत्रफल – व्योरेवार नक्शे को देखने से ज्ञात होगा कि इस देश का क्षेत्रफल सब मिलाकर 48310 वर्गमील है। इसमें इलाहाबाद और मिर्जापुर के दक्षिणी भाग शामिल नहीं है। ब्यौरा यों है-
प्रांत या भाग | वर्गमील |
1. संयुक्त प्रदेश के 4 जिले | 10535 |
2. मध्यप्रदेश के 3 जिले | 8780 |
3. इंदौर का आलमपुर परगना | 37 |
4. भोपाल की दो निजामतों में से | 2242 |
5. रीवा राज्य की 6 तहसीलें | 5862 |
6. ग्वालियर के 5 जिलों में से | 9000 |
7. बुंदेलखण्ड की 14 जागीरें | 476 |
8. बुंदेलखण्ड की 8 जागीरें | 580 |
योग | 48310 वर्ग मील |
मुंशी श्यामलाल ने इसका क्षेत्रफल 30817 वर्ग मील और मध्य भारत के गजेटियर में 9852 तथा 11600 वर्ग मील लिखा है। 2000 वर्गमील का अन्तर कदाचित इलाहाबाद तथा मिर्जापुर जिलों के अंशों का है जिनको गजेटियर में बुंदेलखंड का अंश माना है।
इसके बाद के गोरेलाल तिवारी, डॉ. अयोध्या प्रसाद पाण्डेय’, पं. गौरीशंकर द्विवेदी, राधाचरण गोस्वामी, हरगोविन्द गुप्त’, बालाप्रसाद वर्मा”, डॉ. रघुनाथ सिंह”, पं. केशव चन्द्र मिश्र, लक्ष्मीचन्द्र नुना”, ठाकुर लक्ष्मण सिंह गौड़, राधाकृष्ण एवं सत्यभामा बुंदेली”, डॉ. मोतीलाल त्रिपाठी ‘ अशांत, डॉ. भगवान दास गुप्त”, डॉ. रामेश्वर प्रसाद, भगवानदास श्रीवास्तव एवं भगवानदास खरे” आदि इतिहासकार एवं प्रभृति विद्वान दीवान प्रतिपाल सिंह द्वारा उपर्युक्त वर्णित क्षेत्र में ही थोड़ी बहुत घटा-बढ़ी करते रहे। यमुना नर्मदा, चम्बल और टॉस के घेरे से बाहर निकलने का किसी ने प्रयास नहीं किया। ऊपरलिखित विद्वानों में से कुछ तो ओरछा राज्य टीकमगढ़ में राजकीय सेवा में तथा ओरछेश वीरसिंह जू के साहित्य प्रेम के कारण किसी न किसी रूप में उनसे जुड़े थे। ऐसे लोगों का लेखन कोई महत्व नहीं रखता।
वीरसिंह जू देव ‘प्रथम’ का प्रश्न था कि “बुंदेलखंड है कहाँ ?” वे इस प्रश्न का उत्तर चाहते थे। इस कारण इस सम्बन्ध में कुछ लिखना औरछेश वीरसिंह जू देव का सानिध्य प्राप्त करने का कुछ हित माना जा सकता है, क्योंकि इनमें से एक विद्वान ने तो टोंस को सोन नदी मानकर टोंस के आगे कोष्टक में सोन लिखकर अपनी विद्वत्ता का परिचय दे दिया है। हरगोविन्द गुप्त ने तो इस सम्बन्ध में प्रचलित ‘छत्रप्रकाश’ के दोहे में फेरबदल कर अपनी पंक्तियाँ बना दीं-
यमुना उत्तर और नर्मदा दक्षिण अंचल।
पूर्व ओर है टोंस, पश्चिमांचल में चंबल।।
गोरेलाल तिवारी का ध्यान, बुंदेलखंड के भूगोल से अधिक शायद काव्यात्मक भाषा लिखने पर अधिक रहा। इन्हें मंथरगति से बहने वाली यमुना का प्रचण्ड प्रवाह दिखा।
सारांश यह कि अधिकांश पूर्ववर्ती विद्वान, दीवान प्रतिपालसिंह की पकी पकाई खिचड़ी का ही स्वाद उसमें अपनी बुद्धिमत्ता का छौंक लगाकर लेते रहे और कुछ फेरबदल कर मौलिकता का ढोंग रचाते रहे।
यद्यपि दीवान प्रतिपाल सिंह द्वारा प्रतिपादित क्षेत्र को ही बुंदेलखंड मानना पूर्णतः दोषमुक्त नहीं है। उसमें भी स्वयं के बुंदेलीपन का पूर्वाग्रह अवश्य है। भौगोलिक समानता के आधार पर रीवा, इलाहाबाद, मिर्जापुर जिलों और वाराणसी के कुछ भाग को बुंदेलखंड नहीं माना जा सकता और न ही मालवा की भौगोलिक संरचना से मिलती-जुलती, सागर जिले की खुरई तहसील को बुंदेलखंड से बाहर किया जा सकता है।
इसी प्रकार भाषा के आधार पर न तो विदर्भ के जिले अमरावती, अकोला, भण्डारा आदि को बुंदेली की विच्छिन्न बोलियों के आधार पर और उत्तर प्रदेश के मैनपुरी तथा इटावा जिलों में कुछ बुंदेली भाषी क्षेत्र होने के कारण बुंदेलखंड माना जा सकता है और न ही कुछ भाषाई प्रवृत्तियों के अन्तर के कारण ग्वालियर, हमीरपुर तथा बाँदा को छोड़ा जा सकता है।
बाद के विद्वानों का कार्य अधिक वैज्ञानिक एवं शोधपरक है क्योंकि उन्होंने विश्व-विद्यालयों के अन्तर्गत शोध कार्य सम्पन्न किये हैं। परन्तु उनके साथ भी एक कठिनाई जुड़ी है। बुंदेलखंड सम्बन्धी विषयों पर शोध करने वाले शोधार्थियों ने बुंदेलखंड की सीमा विस्तार पर विचार तो अवश्य किया किन्तु उन्होंने अपने विषयों के आधार पर ही बुंदेलखंड का सीमा निर्धारण किया। इस सम्बन्ध में जो अध्ययन सामने आये उनमें इतिहास, पुरातत्वऔर भाषा सम्बन्धी प्रमुख हैं।
इतिहासकार डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी काली सिंध के पश्चिम का भाग भिण्ड-भदावर ग्वालियर और मुरैना को छोड़ देते हैं, क्योंकि ऐतिहासिक घटनाक्रम में वह क्षेत्र बुंदेलखंड में अधिकांशतः पृथक् रहा।
डॉ. के. एल. अग्रवाल और उन्हीं का अनुसरण करने वाले डॉ. के. के. शाह” ने बुंदेलखंड के नाम पर अपने शोध कायों को सीमित करने के लिए ही, राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा उल्लिखित बीस जिलों को मात्र ग्यारह जिलों- मध्यप्रदेश के दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर एवं दमोह तथा उत्तर प्रदेश के ललितपुर, झाँसी, जालौन, हमीरपुर एवं बाँदा में समेट दिया। डॉ. एस. डी. त्रिपाठी” ने भी इन्हीं जिलों को बुंदेलखंड माना है।
भाषा वैज्ञानिक विषयों पर शोध करने वाले डॉ. एम.पी. जायसवाल, डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल, डॉ. श्रीमती लता दुबे, डॉ. श्रीमती रमा जैन, डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी” आदि विद्वानों ने थोड़ा-बहुत हेर-फेर से भाषा के आधार पर निम्नलिखित जिलों को बुंदेलखंड माना है। इतिहासविद् और राजनीतिज्ञ भी इस सीमांकन से सहमत हैं- उत्तर प्रदेश 1. ललितपुर 2. झाँसी 3. हमीरपुर (वर्तमान महोबा जिला सहित) 4. जालौन 5. बाँदा (मय वर्तमान कर्बी जिला सहित) मध्यप्रदेश 1. मुरैना 2. भिण्ड 3. ग्वालियर 4. दतिया 5. शिवपुरी 6. गुना 7. टीकमगढ़ 8. छतरपुर 9. पन्ना 10. सतना जिले की नागौद तहसील 11. सागर 12. दमोह 13. जबलपुर 14. सिवनी 15. नरसिंहपुर 16. मण्डला 17. रायसेन 18. भोपाल 19. सीहोर का पूर्वी भाग 20. होशंगाबाद 21. बालाघाट 22. बैतूल 23. छिन्दवाड़ा।
डॉ. काशी प्रसाद त्रिपाठी इतिहास विद् एवं डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी भाषा विद् जिनसे लेखक का सहज संवाद संभव है, यह मानते हैं कि उनके द्वारा बुंदेलखंड का सीमांकन उनके विषयों के परिपेक्ष्य में है। डॉ. त्रिपाठी बुंदेलखंड को समग्र इकाई के रूप में ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना तक मानते हैं। डॉ. द्विवेदी ने भाषायी आधार पर जबलपुर जिले की मुडवारा तहसील (वर्तमान कटनी जिला) को छोड़कर बुंदेली क्षेत्र माना था, किन्तु उनका यह भी मानना है कि समग्र इकाई के रूप में उसे बुंदेलखंड से पृथक् नहीं माना जा सकता है। जहाँ तक बुंदेली और भाषायी मिश्रण का प्रश्न है, वह तो शहडोल जिले में दूर तक चला गया है। इसी प्रकार मुरैना की विजैपुर तहसील की स्थिति है। उसमें ब्रज, बुंदेली और राजस्थानी के मिश्रण के कारण बुंदेलखंड से अलग नहीं किया जा सकता है। भाषाई आधार पर सीधी सीमा रेखा बनाना तो असंभव है। मण्डला, छिन्दवाड़ा, बालाघाट और बैतूल जिलों में से किसी इतिहासज्ञ / विद्वान ने किसी जिले को छोड़ दिया तो किसी ने किसी अन्य जिले को। इन जिलों को बुंदेलखंड से पृथक् न मानने का डॉ. द्विवेदी का तर्क यह है कि ये जिले आदिवासी बहुल और घने जंगलों पर्वत श्रृंखलाओं तथा नदी नालों से भरपूर हैं। इनमें सांस्कृतिक विच्छिन्नता, जिसमें भाषा भी शामिल है, का होना स्वाभाविक है परन्तु भौगोलिक आधार पर इनको बुंदेलखंड में ही सम्मिलित किया जाना उचित है। इनमें बुंदेली की विभिन्न बोलियाँ ही प्रचलित हैं। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि बुंदेलखंड जैसी भौगोलिक स्थिति वाली इकाई को संस्कृति, भाषा, भूगोल और इतिहास की शुद्ध धारणा के आधार पर स्थापित करना संभव नहीं है। अतएव इन जिलों को सम्मिलित करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
संदर्भ:
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- बुंदेलखंड का इतिहास प्रथम भाग दीवान प्रतिपाल सिंह पृष्ठ 4.5.6
- बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास, गोरेलाल तिवारी पृष्ठ 1
- चंदेलकालीन बुंदेलखंड का इतिहास डॉ. अयोध्या प्रसाद पांडे पृष्ठ 1
- बुंदेल वैभव प्रथमखण्ड – गौरीशंकर द्विवेदी पृ. 4950
- मधुकर वर्ष 2 अंक 17. राधाचरण गोस्वामी पृ. 25
- मधुकर वर्ष 3 अंक 7.16 – हरगोविन्द गुप्त पृ. 315
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- प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ डॉ. रघुनाथ सिंह पृ. 603
- चंदेल और उनका राजस्व काल-केशव चन्द्र मिश्र पृ. 6.7
- बुंदेलखण्डी भाषा बुनियादी शब्द भण्डार और व्याकरण-लक्ष्मी चंद नुना अंतिम पृष्ठ
- ओरछा का इतिहास- डॉ. लक्ष्मण सिंह पृ. 15
- बुंदेलखंड का ऐतिहासिक मूल्यांकन, प्रथम भाग-राधाकृष्ण एवं सत्यभामा बुंदेली पृ. 11712
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- बुंदेलखंड केशरी महाराज छत्रसाल बुंदेला डॉ. भगवान दास गुरु पृ. 1
- राष्ट्र गौरव स्मारिका बुंदेली बाँकुरे साहित्य अंक डॉ. रामेश्वर प्रसाद गुप्त पृ. 53
- बुंदेलों का इतिहास-भगवानदास श्रीवास्तव एवं भगवान दास खरे 5.21
- बुंदेलखंड का वृहद इतिहास डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी पृ. 2
- विन्ध्य क्षेत्र का ऐतिहासिक भूगोल (शोध प्रबन्ध) डॉ. के. एल. अग्रवाल पृ. 75
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- बुंदेलखंड का पुरातत्व डॉ. एस. डी. त्रिपाठी पृष्ठ 1
- A linguistic study of Bundeli by M.P. Jaiswal page 910
- बुंदेली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल 5.5
- बुंदेली क्षेत्र की बुंदेली के ध्वनिगत विभेदों की चित्रावली का अध्ययन – डॉ. श्रीमती लता दुबे
- परिनिष्ठित बुंदेली का व्याकरणिक अध्ययन- डॉ. रमा जैन पृ. 3.4
- बुंदेली की शब्द सम्पदाः स्रोत एवं सामर्थ्य (शोध प्रबन्ध) डॉ. कैलाश बिहारीद्विवेदी पृ. 6
युग-युगीन बुंदेलखंड
अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’
बुंदेलखंड भारत वर्ष का हृदय स्थल है। यह एक सांस्कृतिक प्रदेश है। इसका क्षेत्रफल लगभग 71000 वर्ग किलोमीटर है। इसमें उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के अन्तर्गत तेरह संपूर्ण जिले तथा पंद्रह जिलों के आंशिक भाग आते हैं। देश की स्वाधीनता के पश्चात् बुंदेलखंड प्रान्त बन गया था। संघीय सरकार के अन्तर्गत गठित ‘संयुक्त राज्य विन्ध्य प्रदेश’ के अन्तर्गत दो प्रान्त गठित किये गये थे-बुंदेलखंड तथा बघेलखंड। दोनों प्रान्तों के पृथक-पृथक् मुख्यमंत्री थे। बुंदेलखंड प्रान्त को मुख्यालय नौगाँव तथा बघेलखंड प्रान्त का मुख्यालय रीवाँ रखा गया था। बुंदेलखंड प्रान्त का मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना को बनाया गया था। इसके निमित्त केन्द्र सरकार की ओर से भारत सरकार के सचिव (रियासती विभाग) तथा देशी इस अंचल की छोटी-मोटी पैंतीस रियासतों के रजवाड़ा क्षेत्रों के विलय संधि की प्रस्तावना में यह स्वीकार किया गया था कि दोनों प्रान्तों की एक विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका द्वारा ही इसका श्रेष्ठतम हित सम्भव है। कालान्तर में राजनीतिक कारणों से उक्त ‘संयुक्त राज्य विन्ध्य प्रदेश’ का पुनर्गठन होता रहा तथा अंततः इस राज्य के कुछ हिस्से उत्तर प्रदेश तथा कुछ हिस्से मध्य प्रदेश को दे दिये गये। समय-समय पर सीमाएँ बदलती रही, जिसकी चर्चा आगे के पृष्ठों में की जा रही है।
बुंदेलखंड की संस्कृति का प्राचीनतम स्वरूप इस अँचल में विन्ध्य पर्वत मालाओं की गुफाओं में प्रागैतिहासिक शैलचित्रों में देखने को मिलता है। चिरगाँव के निकट बेतवा के उस पार बाघाट-बीजौर में वाकाटककालीन गुफाओं में शैलचित्रों तथा चित्रकूट के निकट के शैलचित्रों में मानवीय सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, आखेट आदि के प्रसंग चित्रित हैं। कालपी में यमुना नदी के किनारे हुए उत्खनन में भू-वैज्ञानिकों ने हाथी दाँतों के अति प्राचीन जीवाश्म खोज लिए हैं। इन्हें लगभग साठ हजार वर्ष प्राचीन बताया गया है। सात फुट लम्बे तथा बीस से.मी. व्यास के हाथी दाँत तथा लगभग पाँच फुट लम्बे कंधे की हड्डी के जीवाश्म ने नई शोधों का मार्ग खोज लिया था। यह क्षेत्र मुगल शासकों का आखेट क्षेत्र रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक डॉ0 राकेश तिवारी के अनुसार यह गंगाघाटी सभ्यता-संस्कृति का क्षेत्र है।
बौद्ध ग्रंथों के अंगुत्तर निकाय के सोलह जनपदों में चेदि का उल्लेख मिलता है। चेदि को बुंदेलखंड से समीकृत किया गया है।इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है-
“माकिरेना पथागात् येनेमे यन्ति चेदयः।
अन्यो नेत् सूरिः रोहते भूरिदावत्तरोनाम:।।” (ऋग्वेद 8/5/39)
दशार्ण नदी की उपत्यका में होने से इस अँचल को दशार्ण नाम से भी जाना गया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में धसान की उपत्यका में एक नई राजनैतिक इकाई दशार्ण का विकास हुई। ‘ पाणिनी’ के अष्टाध्यायी में ‘ प्रणत्सर दशानामृणे’ के उल्लेखक्रम में इस अंचल को दस नदियों तथा दस दुर्गों का क्षेत्र बताया गया है। उक्त दस नदियों के नाम धसान, बेतवा, सिन्ध, चम्बल, पहूज, यमुना, केन, टोंस (तमसा) जामनुर तथा मंदाकिनी (पयस्विनी) बताये गये हैं। ‘मेघदूत’ में भी दशार्ण का उल्लेख मिलता है-
“पाण्डुच्छायो पवनकृतयः केतकै सूचि भिन्नैः
नीडारम्भै र्गृहबलिभुजामाकुल ग्राम चैत्याः
त्वय्यासन्ने परिणत फल श्याम जम्बू वनान्ताः
सम्पत्स्यन्ते कतिपय दिनस्थायि हंसा दशार्णाः।”
बेतवा पौराणिक नदी है, जिसका उल्लेख पद्मपुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में मिलता है। महाभारत के वन प्रसंग में कहा गया है कि तुंगारण्य (बेतवा का वनांचल) में प्रवेश से स्त्री-पुरुष सभी के पाप नष्ट हो जाते हैं।
यमुना के दक्षिण से नर्मदा तक विस्तृत तथा विन्ध्यपर्वत मालाओं की गोद में स्थित बुंदेलखंड, देश के मध्यभाग में होने के कारण, भारत का हृदयस्थल कहा जाता है। प्राचीनकाल में पुलिन्द देश, चेदिदशार्ण, जिजौति, जैजाकभुक्ति, चिचिन्टो मध्यदेश, युद्धदेश तथा बुंदेलखंड आदि नामों से विख्यात इस क्षेत्र को उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने नया नाम ‘इन्द्रदेश’ देकर अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करने की व्यापक योजना बनाई थी।
सभी प्रकार के रत्नों, वनसंपदा, पुरातत्व, साहित्य संस्कृति और शौर्य से समृद्ध यह भूमि अपनी विशिष्ट भोगौलिक स्थिति के कारण सभी कालखण्डों में देश के शासकों के लिये आकर्षण का केन्द्र रही है। कुछ विद्वानों ने शौरसैनी प्राकृत के महत्वपूर्ण काव्यग्रंथ ‘तिलोयपण्णत्ती’ (रचनाकाल पाँचवी छठी सदी) में वर्णित ‘विजयार्ध-प्रदेश’ इसी क्षेत्र को माना है। उक्त ग्रंथ में विजयार्ध भूमि को उत्तम रत्नों में पद्मराग मणियों से समृद्ध बताया गया है। उसमें वज्रार्गल, वज्राढ्य, वज्राभ, सूर्याभ, चूडामणि, वज्रार्द्धतर, रत्नाकर, रत्नपुर जैसे मणिनामान्त या रत्नमणि नाम वाले अनेक नगर हैं। इससे उस भूमि के रत्नगर्भा होने के संकेत मिलते हैं।’ बुंदेलखंड में आज भी अनेक प्रकार के रत्न एवं खनिज संपदा प्रचुर मात्रा में है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार विन्ध्याचल भारत की रीढ़ (पंजाबी में ‘लक्क’) है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार रावण की लंका कहीं विन्ध्यशिखर पर थी, स्वर्णमयी लंका को मणिरत्नों से समृद्ध बताया गया है। तिलोयपण्णत्ती के सापेक्ष लंका की भौगोलिक स्थिति का पुनः अध्ययन अपेक्षित है।
बुंदेलखंड की सीमाओं के बारे में यह लोकोक्ति प्रायः उद्धृत की जाती है-
“इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टौंस।
छत्रसाल सों लरन की रही न काहू हौंस।।”
किन्तु यह बुंदेलखंड की सही सीमा नहीं है। यह बुंदेलखंड राज्य के विस्तारक महाराजा छत्रसाल के शौर्य की सीमा है। इसके अंतर्गत किसी को भी छत्रसाल से लड़ने का हौसला नहीं था।
बुंदेलखंड की सीमाओं के निर्धारण में विद्वानों में मत भिन्नता है। कुछ विद्वान भौगोलिक आधार पर इसका सीमांकन करते हैं, तो कुछ ऐतिहासिक आधार पर। कुछ आबादी के आधार पर इसका निर्धारण करते हैं, तो कुछ सांस्कृतिक एकरूपता के आधार पर।
उत्तर प्रदेश शासन द्वारा बुंदेलखंड विकास निधि के प्रयोजन से सात जिले झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बाँदा तथा चित्रकूट इसमें सम्मिलित किये गये हैं। मध्यप्रदेश शासन ने बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के लिये पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, सागर तथा दमोह को बुंदेलखंड माना है। भारत सरकार के झाँसी स्थित भारतीय चारागाह शोध संस्थान ने अपने विभिन्न सर्वेक्षणों के प्रयोजन हेतु इन तेरह जिलों के साथ भिण्ड जिले की लहार तथा ग्वालियर जिले की भाण्डेर तहसील से समन्वित क्षेत्र को एक भोगोलिक इकाई मानकर बुंदेलखंड का एटलस तैयार किया था। अब भाण्डेर दतिया जिले में सम्मिलित कर दिया गया है।
जनपदीय अध्ययन के मनीषी डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल प्राचीन जनपद को सांस्कृतिक भौगोलिक इकाई की संज्ञा देते हैं। सिद्धांतः यह मत अधिक उचित है। इस मत के अनुसार उक्त तेरह जिलों तथा दो तहसीलों के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के रायसेन,नरसिंहपुर जिले तथा निम्नांकित जिलों के आंशिक भाग भी इसमें आ जाते हैं। ग्वालियर जिले की पिछोर तथा करैरा तहसीलें, अशोकनगर जिले की मुंगावली, अशोकनगर, विदिशा जिले की कुरवाई, विदिशा, बासौदा तथा सिरौंज, शिवपुरी जिले की पिछौर, होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद तथा सोहागपुर तथा जबलपुर जिले की जबलपुर तथा पाटन तहसीलें। बुंदेलखंड की लोक संस्कृति के अध्येता डा नर्मदा प्रसाद गुप्त भी सांस्कृतिक, भाषाई एवं भौगोलिक दृष्टि से लगभग यही सीमायें मानते हैं।
प्राचीनकाल में यह क्षेत्र मुख्यतः वनाच्छादित था। देश के तीन प्रमुख प्राचीन वनप्रान्तों नैमिषारण्य, तुंगारण्य तथा दण्डकारण्य में से यह भूभाग तुंगारण्य के अंतर्गत आता था। तुंगारण्य की सीमायें ओरछा से चित्रकूट तक जाती थीं। वहाँ से दण्डकारण्य प्रारम्भ हो जाता था। इस वन प्रान्त में अनेक ऋषियों के आश्रम थे जिनमें पराशर, वेदव्यास, कर्दम, च्यवन, जमदग्नि आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। उस समय इस क्षेत्र में वनवासी जातियाँ पुलिन्द, शबर, कोल, गौंड, निषाद आदि निवास करतीं थीं। इस क्षेत्र में पाये गये लगभग एक सहस्त्र शैलाश्रयों में पाषाणयुगीन उपकरणों तथा आयुधों से इन वनवासी जातियों की जीवनशैली और संस्कृति के संबंध में विस्तृत जानकारी मिली है।
बुंदेलखंड प्रारम्भ से ही सभी धर्मों तथा संप्रदायों की समन्वय भूमि रहा है। इनमें यह ‘सहज-योग’ साधना का ‘नाथ 30 सम्प्रदाय’ भी है। इसे ‘हठयोग साधना’ भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत इड़ा और पिंगला नामक सूर्य और चंद्र नाड़ियों को रोककर सुषुम्ना में प्राणवायु संचालित करना ही हठयोग है, इससे कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है, ब्रह्मरंध्र खुल जाता है तथा शिव से सामरस्य प्राप्त करती है। इससे महायोगसिद्धि का रहस्य जाना जा सकता है। गुरू गोरखनाथ कृत सहज योग साधना का महत्व यह है कि इसने हठयोग को ‘वामाचारक पंथ’ से निकालकर सात्विक और सदाचार पर प्रतिष्ठित किया। इससे वह सार्वजनीन हुई भूमि तथा हठयोग जनसुलभ हो गया। उनके द्वारा लिखित एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का संपादन ‘गोरख-बानी’ (सं. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल) नाम से उपलब्ध है। इस प्रसंग में नाथ संप्रदाय की संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है। इसका प्रादुर्भाव आदि योगी शिव से माना जाता है जिन्होंने अपने प्रतिनिधि रूप में नौ नाथों को प्रचार-प्रसार का दायित्व सौंपा। यह सभी ‘शिवावतार’ है तथा उनके विग्रह शिवस्वरूप में ही प्रचलित हैं। नौ नाथों के नाम इस प्रकार हैं- (1) मत्स्येन्द्रनाथ (2) गोरखनाथ (3) जालन्धरनाथ (4) गहिनीनाथ कानिफनाथ (5) नागनाथ (6) चर्पणनाथ (7) रेवणनाथ (8) भर्तृहरिनाथ । आदिनाथ शिव से जो तत्वज्ञान योगी मत्स्येन्द्रनाथ ने प्राप्त किया उससे गोरखनाथ को दीक्षित कर आगे बढ़ाया। स्वयं शिव ने ‘महाकालयोग’ में कहा है –
“अहमेवास्मि गोरक्षो, मद्ररूपत तन्निबोधत, योग मार्ग प्रचाराय, मयारूप निदधृतम्।”
ऐतिहासिक दृष्टि से बुंदेलखंड का अस्तित्व सर्वप्रथम वैदिक काल में चेदि राष्ट्र के रूप में मिलता है। यह अग्नि तथा इंद्र की पूजा का केन्द्र था। वैवस्वत ‘मनु’ की पुत्री का नाम ‘ इला’ था, जिसका विवाह सोम से हुआ था। इसी से ऐल अर्थात चंद्रवंश की स्थापना हुई जिसका आदि पुरुष पुरूरवा था। पुरूरवा के अधीन ऐल साम्राज्य का विस्तार हुआ। अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुये उसने वर्तमान बुंदेलखंड के क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया। पुरूरवा की चौथी पीढ़ी में हुआ ययाति इस क्षेत्र का शासक बना। उसने यह क्षेत्र अपने पुत्र यदु को दिया जिसको चर्मण्वती (चंबल) बेत्रवती (बेतवा) तथा शुक्मिती (केन) की धाराओं से सिंचित प्रदेश प्राप्त हुआ। इन्हीं यदु से यादव वंश की स्थापना हुई। इसी यदुवंशी परंपरा के राजा कौशिक ने चर्मण्वती (चंबल) और शुक्तिमती (केन) के मध्य के प्रदेश (अर्थात बुंदेलखंड) में राज्य स्थापित किया, जो चेदि जनपद कहलाया। इसी काल में विदर्भ के एक प्रसिद्ध राजा भीमरथ की सुन्दरी कन्या दमयन्ती से नलपुर के राजा नल ने विवाह किया था। अनुश्रुति के अनुसार नल ने ही नलपुर नगर बसाया था, जो आधुनिक शिवपुरी जिले में नरवर के रूप में विद्यमान है। ऋग्वेद (8.5.37.39) में चेदि के एक शक्तिशाली राजा वसु की दानस्तुति भी मिलती है।
रामायण में इस अंचल का उल्लेख दशार्ण तथा दक्षिण कौशल के अंतर्गत मिलता है। भगवान राम के चौदह वर्ष की अवधि का अधिकांश भाग इस अंचल के चित्रकूट आदि में ही बीता था।
महाभारत में चेदि राष्ट्र का उल्लेख विस्तार में प्राप्त होता है। इसकी राजधानी शुक्तिमती नगरी थी, जिसकी स्थिति वर्तमान बाँदा जिले में केन नदी के किनारे मानी जाती है। चेदिनरेश शिशुपाल का मुख्यालय वर्तमान चंदेरी में होना बताया जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा चेदिनरेश शिशुपाल का वध किया जाना सुविदित है। जनश्रुतियों के अनुसार पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का अधिकांश समय बुंदेलखंड में ही बिताया था। आज भी अनेक स्थल उनके नाम पर जाने जाते हैं। महाभारत के युद्ध में वत्स, काशी, चेदि, कारूष, दशार्ण और मत्स्य अर्थात् वर्तमान बुंदेलखंड और बघेलखंड की सीमाओं के जनपदों के राजा अपनी सेनाओं के साथ पाण्डवों की ओर से लड़े थे। महाभारत एवं मेघदूत में दशार्ण प्रदेश का उल्लेख आया है, जिसकी राजधानी विदिशा थी। पाणिनि के अष्टाध्यायी (4.2.116) में भी चेदि देश का उल्लेख है।
चेदिराष्ट्र का उल्लेख बौद्ध धर्मग्रन्थों में विस्तार से ‘चेतिय रङ’ (चेदि राष्ट्र) के नाम से मिलता है। यह तत्कालीन सोलह महाजनपदोंमें से एक था। इसके पूर्व में काशि, पूर्वोत्तर में वत्स एवं कौशाम्बी, पश्चिम में अवन्ति उत्तर पश्चिम में मत्स्य तथा सूरसेन और दक्षिण में विन्ध्य पर्वत था। बुद्धकालीन भूगोल विशेषज्ञ श्री भरतसिंह उपाध्याय बौद्धकालीन चेदि जनपद को आधुनिक बुंदेलखंड से समीकृत करते हैं। बौद्धग्रंथों के अनुसार भगवान बुद्ध ने अपने तेरहवें और उन्नीसवें वर्षाकाल बेतवा के आंचल में चेदि राज्य के भद्रावती नामक स्थान के चालुक्य पर्वत पर व्यतीत किये थे। अशोक कुमार मौद्गल्यायन और राजकुमारी संघमित्रा का लालनपालन और शिक्षा संस्कार यहीं हुये और यहाँ की अपनी पाली भाषा में लिखित ग्रंथों को लेकर वे सुदूर देशों में धर्म प्रचारार्थ गये थे। यहीं से ईसा से नब्बे वर्ष पूर्व राजदूत हैलियो डोरस ने विदिशा में महाराज भागभद्र के दरबार में भागवत धर्म की दीक्षा ली थी और आन्तरिक आस्था के गरूड़ध्वज की स्थापना की थी।
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी कालपी यात्रा के पश्चात् स्थानीय विद्वानों से चर्चा करते हुये बताया था कि बौद्धकाल में कालपी में बौद्ध विहार था तथा इसके निकट दक्षिणापथ एवं उत्तरापथ का संगम बिन्दु (वर्तमान भोगनीपुर) था। उन्होंने कालपी के चौरासी गुम्बज सहित अनेक भवनों को बौद्ध विहार का हिस्सा होने की संभावना जताई थी। मुझे यह बात कोंच (जालौन) के स्व. पन्नालाल पहारिया ने बताई थी। उनके पिताश्री स्वामी ब्रह्मानंद (मूल नाम -रामदीन पहारिया) आर्य समाज के प्रमुख प्रचारकों में थे। उनके पास राहुल जी (वैराग्य लेने से पूर्व) वेद पुराणों के अध्ययन-अध्यापन के लिये आते थे। उनके मरणोपरान्त भी राहुल जी का पहारिया परिवार में प्रायः महेशपुरा तथा कोंच आना होता रहता था। यह परिवार मूलतः कोंच के मध्यप्रदेश से सटे हुए सीमावर्ती गाँव महेशपुरा का निवासी था।
मौर्यकाल में बुंदेलखंड मौर्य साम्राज्य का अंग था। सम्राट अशोक सत्ता संभालने के पूर्व इसका प्रांतपति रह चुका था। उसने विदिशा के एक साहूकार की कन्या से विवाह किया था। इस कन्या ने अशोक कुमार मौद्गल्यायन और संघमित्रा को जन्म दिया था। जिन्होंने लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। अशोक ने अपनी इस वैश्यपुत्री ‘रानी देवी’ के लिये उज्जैन में एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया। इस स्तूप के अवशेष आज भी’ वैश्य-टेकरी’ नामक टीले के रूप में विद्यमान है। ‘वैश्य-टेकरी’ के उत्खनन से इस स्तूप के अवशेष प्राप्त हुये हैं। साँची के स्तूप के निकट एक विहार के अवशेष भी मिले हैं। विद्वानों के अनुसार यह विहार संभवतः अशोक की ‘रानी देवी’ तथा उसकी सहचरी भिक्षुणियों के निवास के लिये बनवाया गया था। साँची और भरहुत के बौद्ध स्तूप तथा दतिया-उनाव बालाजी मार्ग पर गुजर्रा में अशोक का शिलालेख इस क्षेत्र में सम्राट अशोक की विशेष रुचि और सक्रियता के परिचायक हैं।
अशोक के शासनकाल में दो विशेष कीर्तिमान रहे। भारत में गैर राजकीय संस्थाओं का उदय, जिन्होंने शिक्षा तथा ज्ञान का प्रकाश फैलाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। इनमें बौद्ध संघ प्रमुख था, जिसे राजकीय संरक्षण प्राप्त था। इसका प्रभाव यह हुआ के इसके राज्य में साक्षरता की दर, अंग्रेजी शासन की तुलना में अधिक थी।
बुंदेलखंड में देवी-देवताओं की रथयात्रा निकालने की सांस्कृतिक परम्परा है। यह परम्परा दो हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन बताई जाती है। फाहियान ने अपने यात्रा विवरण में इस अंचल में रथ-यात्रा निकालने का रोचक वर्णन किया है।
मौर्यवंश के अंतिम शासक वृहद्रथ को सत्ताच्युत करके पुष्यमित्र ने यहाँ शुंगवंश की पताका फहराई। बुंदेलखंड के एरिच क्षेत्र में सिक्कों तथा ईंटों के माध्यम से मित्रवंश की नयी नामावली मिल जाने से इतिहास में एक नये अध्याय का प्रगटीकरण हुआ है।” अब तक के शोधों में इन्हें पुष्यमित्र से भिन्न वंश का बताया गया है। इनका शासनकाल 200 से 50 वर्ष ई. पूर्व प्रकाश में आया है। अब आगे इतिहासकारों को यह परखना है कि पुष्यमित्र के वंश से एरिच मित्र शासकों का क्या संबंध है? अथवा यह सर्वथा नया राजवंश है? दशार्ण क्षेत्र में सत्ता का केन्द्र बने एरिच को बौद्धग्रंथों में ‘एरिकच्छ’ तथा’ एरिक’ नाम दिया गया है। सिक्कों के अनुसार यहाँ के शासकों को ‘दशार्णेश्वर “दशार्णाधिपति’ ‘महासेनापति’ की उपाधि दी गई है।
शुंग वंश के पराभव के उपरान्त ईसा के लगभग 75 वर्ष पूर्व यहाँ कण्ववंश का शासन रहा। जिन्हें दक्षिण के सातवाहन शासकों ने अपदस्थ करके इस क्षेत्र में सातवाहन संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। इसके पश्चात इस क्षेत्र में शक-छत्रपों का भी शासन रहा है। शक-छत्रपों श्री दामन के सिक्के पिछोर से मिले हैं… तथा विदिशा एरण क्षेत्र में राज्य करते हुये एक नये शक वंश के शासक श्रीधर वर्मन का एक अभिलेख एरण से, दूसरा साँची के निकट कानाखेरा से प्रास हुआ है।” एरिच, एरण और विदिशा में नागवंशी शासकों के सिक्के भी प्रचुर मात्रा में मिले हैं। इन शैवमतावलंबी शासकों का राजचिन्ह दो सर्पों के मध्य शिवलिंग था। इस कारण इन्हें भारशिव भी कहा गया। नागवंशी शिवभरों/भार शिवों की तीन राजधानियाँ रहीं-पद्मावती (आधुनिक पवायाँ 170 से 365 ई.) भारगढ़ (वर्तमान बरगढ़ जिला बाँदा-चित्रकूट) तथा भराइच (वर्तमान बहराइच उन्नाव से बहराइच तक स्फुट क्षेत्र) इनकी शक्ति संपन्नता से प्रभावित चंद्रगुप्त ने इनसे मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने हेतु राजकुमारी कुबेरनाग से विवाह किया था बाद में समुद्रगुप्त ने इन्हें पराजित कर शक्ति नष्ट कर दी। अंतिम राजधानी में सुहेलदेव ने (इस वंश के शासन के रूप में 1027 ई. से 1057 ई. तक शासन किया। मान्यता है कि संप्रति इनके वंशज सपेरों के रूप में जीविका-यापन करते हैं। अभी भी बरगढ़ में सपेरों कीकुछ बस्तियाँ हैं। नचना कांचन (पन्ना) तथा देवरदार (टीकमगढ़ में इस राजवंश के कलात्मक निर्माण पुरातत्व की धरोहर हैं।
राजी कालखण्ड में बीजोर-बागाट (जिला-टीकमगढ़), चिरगाँव (झाँसी) से 10 किलोमीटर दूर बेतवा के उस पार स्थित के शैल गुहा क्षेत्र में वाकाटक वंश के उद्भव के प्रमाण मिले हैं। कि वाकाटकों की देन अजन्ता की गुफायें हैं, उनकी वैसी ही गेरुए रंग का शैल चित्रकला बागाट की द्रोण-तलैया की गुफाओं में मिलती है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल ने ‘अंधकार युगीन भारत’ में उन्हें द्रोण का वंशज बताते हुये ‘बाकाटक’ के ‘बागाट’ नामकरण होने का संकेत दिया है। इस वंश के प्रतापी राजा भीमसेन ने ‘विन्ध्यशक्ति’ की उपाधि धारण की और पूर्व बुंदेलखंड के भाग को जीतकर किलकिला नदी के तट पर को अपना केन्द्र बनाया। प्रवरसेन का विवाह ‘नागवंशी राजकुम (भवनाग की पुत्री) गौतमी से हुआ तथा उसे नागवंशी राज्य का एक भाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ।
प्रवरसेन का साम्राज्य उत्तर में यमुना और आधुनिक बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक फैला हुआ था। उसने सम्राट की उपाधि धारण की तथा चार अश्वमेध यज्ञ किये थे। वाकाटक कितने शक्तिशाली थे, इसका अनुमान इससे हो सकता है कि समुद्रगुप्त जब दक्षिण में अपनी विजय यात्रा पर निकला तो वाकाटक साम्राज्य की सीमायें बचाता गया। उसकी इलाहाबाद प्रशस्ति में कहीं भी वाकाटकों पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख नहीं है। इतना ही नहीं चन्द्रगुप्त द्वितीय ने तो अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक सम्राट रुद्रसेन द्वितीय से करके वाकाटक सम्राटों से अपने मैत्रीपूर्ण संबंध और अधिक दृढ़ कर लिये थे।
319 ई. से पाँचवी सदी के अंत तक बुंदेलखंड गुप्त वंश के अधीन रहा। जहाँ उनके द्वारा निर्मित कराये गये दशावतार मन्दिर (देवगढ़) जैसे भव्य अवशेष अभी भी विद्यमान हैं। ऐरण में बुधगुप्त का प्रशस्ति लेख भी इस अंचल में भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग में गुप्त शासकों के कृतित्व का उल्लेख करता है। गुप्तशासक मातृविष्णु के निधनोपरान्त उनके भाई धान्य विष्णु ने अपनी सत्ता हूणराज तोरमाण को हस्तान्तरित करके इस क्षेत्र को हूणों के अधीन बनाया किन्तु सम्म्राट नरसिंह बालादित्य ने तोरोमाण के पुत्र एवं उत्तराधिकारी मिहिरकुल को पराजित कर दिया। जिससे यह मध्य भारत छोड़कर कश्मीर की ओर चला गया।” बुंदेलखंड में प्राप्त अभिलेखों से पता चलता है कि 5वीं सदी ई. में जब उत्तर भारत पर गुप्त का आधिपत्य था, उस समय पन्ना जिले में परिब्राजक नामक वंश के राजाओं का राज्य चला हुआ था। ये गुप्त सम्राटों के माण्डकिल हो गये थे तथा उनकी प्रभुसत्ता स्वीकार करते थे।”
गुप्त शासकों के पश्चात् इस क्षेत्र में अल्पज्ञात पाण्डुवंशी शासकोंके अस्तित्व का पता चलता है। तत्पश्चात् यह क्षेत्र वर्धन राज्य का अंग बन गया। इस वंश में सर्वाधिक यशस्वी शासक हर्ष के काल में इस क्षेत्र में कला संस्कृति खूब फूली फली। उसके राजकवि बाणभट्ट ने ‘हर्षचरित’ में विन्ध्य क्षेत्र का विस्तार से वर्णन किया है। कालपी के निकट पुराणकालीन कालप्रियनाथ सूर्यमन्दिर का पुनर्निर्माण इसी काल में हुआ तथा वहाँ लगने वाला चर्चित वार्षिक मेला ‘कालप्रियनाथ-यात्रा’ के दौरान भवभूति के नाटक ‘उत्तर रामचरितम्’ का प्रथम मंचन एवं अन्य नाटकों का भी मंचन हुआ।” हर्ष के शासनकाल में चीनीयात्री हवेनसांग ने इस क्षेत्र को ‘चिचिन्टो’ लिखा। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि चित्रकूट के कारण ही उसने यह नाम दिया।
वर्धन शासकों के पश्चात् यहाँ प्रतीहारों कल्चुरि तथा हैहय शासकों ने भी राज्य किया। अमरकंटक का कर्णदहिया मन्दिर, तीन शिखरों युक्त देवालयों का समूह, भेड़ाघाट का चौसठ जोगिनी मन्दिर तथा गौरीशंकर मन्दिर कल्चुरि राजवंश की ही देन है।
शुगवंश से इस कालखण्ड तक कला-शिल्प की दृष्टि से उल्लेखनीय योगदान है। बुद्ध की प्रस्तर मूर्तियों का निर्माण इसी समय से प्रारम्भ हुआ। इन शिल्प तथा कलाओं पर विदेशी कलाओं का प्रभाव भी पड़ा, विशेषकर यूनान रोमन प्रभाव स्पष्ट है। गान्धार कला तथा मथुरा कला ने इस अंचल के कलाकारों को विशेष रूप से प्रभावित किया। इस क्षेत्र में जैन तथा बौद्ध धर्म के प्रभाव से उक्त दोनों धर्मों के संस्थानों मंदिरों में मूर्तिकला निखरती गई। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण महोबा से प्राप्त सिंहनाद अवलोकितेश्वर की मूर्ति है जो भारतीय मूर्तिकला में विशिष्ट है। यह राज्य संग्रहालय लखनऊ में संरक्षित है।
इसके पश्चात् इस क्षेत्र में गौरवशाली चन्देल वंश का उदय हुआ। इस वंश की उत्पत्ति का प्रामाणिक शिलालेख सं. 2011, जो लक्ष्मण मंदिर खजुराहो में उत्कीर्ण है, से मानी जाती है। उसके अनुसार विश्व के उत्पत्तिकर्ता पुराण पुरुष से मरीचि और अत्रि आदि – ऋषियों की उत्पत्ति हुई। अत्रि के पुत्र चन्द्रोदय थे, उन्होंने अपनी तपस्या से अनेक शक्तियाँ अर्जित कीं। उन्होंने ऐसे राजाओं को जन्म दिया जिनके पास पृथ्वी के संहार अथवा रक्षण की शक्ति थी। इन्हों में एक थे चन्द्रवर्मा। महोबा ने संरक्षित एक वंशावली से पता चलता है कि चन्द्रवर्मा ने प्रतिहारों को अपदस्थ करके सं. 677 से 682 के बीच बुंदेलखंड पर अधिकार कर लिया। इसी वंश की दो पीढ़ी बाद नन्नुक हुए जिन्होंने विधिवत् चन्देल साम्राज्य की नींव डाली। इन्हीं चन्देल वंश के प्रथम शासक ननुक की तीसरी पीढ़ी में जयशक्ति उर्फ जेजा के नाम पर इस क्षेत्र का नाम ‘जैजाकभुक्ति’ के रूप में चर्चित हुआ। उनकी राजधानी महोत्सव नगर (वर्तमान महोबा) कला संस्कृति का केन्द्र बनी। चन्देलों ने धंग के पराक्रम से चन्देल वंश की स्वतंत्र सत्ता इस क्षेत्र में महोबा को केन्द्र बनाकर स्थापित की। चन्देल शासक हर्ष और यशोवर्मन जैसे शासक भी स्वयं स्वतंत्र शासकों जैसी सत्ता स्थापित करके भी प्रतीहारों की अधीनता स्वीकार करते आये थे।” धंग ने इस इतिहास को बदलकर चन्देलवंश को स्वतंत्र शासकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इसके पूर्व बुंदेलखंड बाहरी शासकों का शासित क्षेत्र था। पहली बार इस क्षेत्र के राजवंश ने अपनी सत्ता देश के दूरभागों तक फैलाकर बुंदेलखंड की यशोपताका फहराई इसलिए इसकी चर्चा कुछ विस्तार में करना आवश्यक है। उसने कान्यकुब्ज के शासक को पराजित किया, ग्वालियर का किला (गोपाद्रि गिरि) प्रतीहारों से जीतकर स्वयं को सर्वसत्ताधीश घोषित कर दिया तथा चन्देलों में उसने सर्वप्रथम महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। वह सौ वर्ष तक जीवित रहा।
इस वंश में 831 ई. से 1315 तक लगभग पाँच सौ वर्ष शासन करने वाले निम्नलिखित प्रमुख शासक हुये। नत्रुक (831-850), वाक्पति (850-870), जयशक्ति तथा विजयशक्ति (870-890), राहिलदेव (890-910), हर्षदेव (910-930), यशोवर्मन (930-950), धंगदेव (950-1002), गण्डदेव (1003-1025), विद्याधर (1025-1035), विजयपाल (1035-1045), देववर्मन (1045-1060), कीर्तिवर्मन देव (1060-1100), सलक्षण वर्मन (1100-1110), जयवर्मन (1100-1120), पृथ्वीवर्मन (1120-1128), मदन वर्मन (1128-1160), यशोवर्मन द्वितीय (1160-1165), परमर्दिदेव (1165-1203), त्रैलोक्य वर्मन (1204-1242), वीरवर्मन (1242-1286), भोजवर्मन (1286-1290), हमीर वर्मन (1290-1315) इनमें मदन वर्मन तथा उनके पौत्र परमार्दिदेव विशेष रूप से उल्लेखनीय शासक हुये।
नवीं शताब्दी तक देश के अन्य राज्यवंशों ने यहाँ शासन किया। उन्हीं की सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ फलती-फूलती रहीं। तब तक इस अंचल के किसी राजवंश को शासन करने का अवसर नहीं मिला था। इससे इसके योजनाबद्ध विकास का प्रयास नहीं हो सका था। भौगोलिक संरचना तथा आवश्यकता के अनुरूप विकास की परिकल्पना नहीं की जा सकी थी। यहाँ की सांस्कृतिक विशिष्टताओं तथा प्रतिभाओं की क्षमता का भी उपयोग नहीं हो सका था। इस क्षेत्र के अपने राजवंश चन्देलों तथा बुंदेलों ने इस दृष्टि से अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में वे अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। चंदेलकालीन सांस्कृक्तिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का विस्तृत विवरण इस लेखक की पुस्तक ‘जगनिक’ (साहित्य अकादमी प्रकाशन, दिल्ली) के अंतर्गत ‘युगीन परिदृश्य’ अध्याय में किया गया है।
चन्देलकाल में कुछ महिलाएँ श्रेष्ठ शासक तथा क्रान्ति-ज्वालाके रूप में गिनी जाती है। इनमें चन्देल नरेश कीर्तिराय की पुत्री, नरेश दलपति शाह की पत्नी, रानी दुर्गावती ने अकबर को गोंडवाना नरेश दलप्राविभाग की रक्षा के लिए युद्ध क्षेत्र में कटार से छाती चीर कर आत्महत्या कर ली थी, किन्तु सतीत्व पर आँच नहीं आने दी।
चन्देलों का शासन 831 ई. से 1315 ई. तक रहा। बुन्देला राजवंश का उदय 1071 ई. में हो चुका था तथा इसका अधिकतम विस्तार महाराजा छत्रसाल बुन्देला के शासनकाल में हुआ। उसके पश्चात् यह राज्य छोटी-छोटी रियासतों में बँट गया जिनसे अष्टगढ़ी राज्यों का गठन हुआ।
चन्देल वंश के प्रतापी सम्राट धंगदेव, गंडदेव और विद्याधर ने सीमा पार से प्रारम्भ होने वाले तुर्की के आक्रमण को विफल करने की दृष्टि से देश के प्रमुख हिन्दू राजाओं को एक सूत्र में संगठित करके एक ‘हिन्दू संघ’ बनाया था। राजतरंगिणी में भी यह उल्लेख मिलता है कि उस समय छत्तीस राजपूत वंशियों का एक संगठन बन चुका था, जिससे विदेशी आक्रांता विफल होते रहे किन्तु आलोच्य कालखण्ड में वह एकता बिखर गई। भारतीय राजपूत परस्पर युद्धों में जन-धन-सैन्य शक्ति नष्ट करके राष्ट्रीय सामर्थ्य की क्षति करते रहे। उन्होंने कभी इस बात पर विचार नहीं किया कि मिथ्याभिमान अपने को ऊँचा दिखाने की होड़ तथा सुन्दरियों के अपहरण में जो जो भारतीय शक्ति नष्ट होकर बिखर रही है उसके चलते क्या वे सुसंगठित तुर्क सेना का मुकाबला कर सकेंगे ? तुर्कों की संगठन तथा आक्रमण शक्ति को उन्होंने अवमूल्यित किया। विदेशी आक्रमणकारी जानते थे कि हिन्दू शक्ति बिखरी हुई है, उन्हें इनकी संगठित शक्ति का मुकाबला नहीं करना पड़ेगा। परिणामतः पारस्परिक वैमनस्य, बिखराव और संघर्ष से देश के समक्ष एक अभूतपूर्व राष्ट्रीय संकट खड़ा हो गया था। इस संघर्ष ने विदेशी शक्तियों को खुला निमंत्रण दिया।
कौटिल्य तथा शुक्र दोनों ने ही मंत्रिपरिषद के परामर्श से शासन का जो सूत्र दिया था, चन्देल वंश में वह मान्य था। इस सम्बन्ध में शुक्र ने यहाँ तक कहा है-
“पुरुषे पुरुषे भिन्नंदृश्यते, बुद्धि वैभवम् आप्रवाक्यस्येरनुभवे रासभैरनुमानतः।
न हि तत्सकलं ज्ञातं नरेणेकेन शम्यते, अतः सहायान्वरयेद्राजा राज्याभिवृद्धये।” (शुक्रनीति /81)
अर्थात् योग्य से योग्य राजा भी सब बातें नहीं समझ सकता।
पुरुष में बुद्धि वैभव भिन्न-भिन्न होता है। अतः राज्य की अभिवृद्धि चाहने वाला राजा योग्य मंत्रियों को चुने अन्यथा राजा का पतन निश्चित है। स्मृतियाँ मंत्रियों के चुनाव में ब्राह्मणों को प्रधानता देती हैं। किंतु शुक्रनीति में केवल विवाह के समय जाति का विचार करने किंतु कुलीन, कर्मशील एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों को मंत्री और सेनापति बनाने का परामर्श दिया है। उसके अनुसार, यदि शूद्र भी समस्त गुणों से सम्पन्न हो तो सेनापति तक का पद प्रदान करने में हिचकना चाहिए। परमर्दिदेव ने ‘ओछी जात बनाफर राय’ के आल्हा को सेनापति बनाकर इसे चरितार्थ कर दिखाया था। सेना का प्रमुख अधिकारी सेनापति होता था किन्तु विभिन्न सैन्य अभियानों अर्थात् युद्धों का नेतृत्व करने के लिए, पान का बीड़ा, स्वर्ण या चाँदी के थार में रखकर दरबार में प्रस्तुत किया जाता था। शत्रु विशेष का सामना करने का सामर्थ्य रखने वाला ‘पान का बीड़ा’ उठा लेता था, उसे युद्ध की कमान सौंप दी जाती थी। किसी कार्य हेतु ‘बीड़ा उठाना इसी परम्परा से विकसित मुहावरा बन गया।
चन्देलों ने सत्ता के एक प्रमुख अंग के रूप में दुर्गों पर विशेष ध्यान दिया था। चन्देलों के 21 दुर्ग थे, जिनमें आठ प्रमुख दुर्ग माने जाते हैं कालंजर (बाँदा), बारीगढ़ (चरखारी), अजयगढ़ (म.प्र.), मनियांगढ़ (छतरपुर), मड़फा (बाँदा), मौधा (हमीरपुर), गढ़ा (जबलपुर) तथा मैहर (सतना)। इसके अतिरिक्त देवगढ़ महोबा, जैतपुर एवं चरखारी (मंगलगढ़) भी महत्वपूर्ण दुर्ग थे। कुछे लोग सतना के स्थान पर कालपी की गणना करते हैं।
इनमें कालंजर सैन्य दृष्टि से उत्तर भारत का सबसे प्रमुख दुर्ग था। यह चन्देलों की सैन्य राजधानी भी थी। यह दुर्ग बुंदेलखंड के दक्षिण छोर स्थित मैदान में, समुद्र तट से 1230 फीट की ऊँचाई पर एक पहाड़ पर 7.8 मील की परिधि में, स्थूल आकार की प्राचीर से घिरा बना है।
सामाजिक दृष्टि से समाज में वर्ण-व्यवस्था विद्यमान थी, इसके अनुसार समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों में विभाजित था। ब्राह्मण सर्वाधिक सम्मानित वर्ग था। किन्तु एक मुस्लिम इतिहासकार खुर्ददेव के लेखों से यह पता चलता है कि “उस समय हिन्दुओं में सात वर्ग थे। पहला वर्ग, जो सर्वोच्च माने जाते हैं। इन्हीं में से राजा बनाए जाते हैं। दूसरे वर्ग के लोग इसके प्रति पूज्य भाव रखते हैं। दूसरे ब्राह्मण हैं जो मदिरा, आमिष और पेयों से सर्वदा दूर रहते हैं। तीसरे क्षत्रिय हैं, जो तीन चषक से अधिक मद्य नहीं पीते हैं। ब्राह्मणों की कन्या उन्हें विवाह में नहीं दी जातीं, किन्तु ब्राह्मण उनकी कन्या ग्रहण करते हैं। चौथे वेसुर हैं, जो कृषि का ही व्यवसाय करते हैं। पाँचवे शूद्र हैं-जो शिक्षा और गृह-धंधों से जीवन यापन करते हैं। छठें सांडिल्य हैं, जो निम्नकोटि के भृत्य कर्म करते हैं। सातवें लहुड हैं जिनकी स्त्रियाँ आभरण-प्रिय और पुरुष विनोद और चमत्कारिक खेलों के प्रेमी होते हैं।” यह वर्णन वास्तविक स्थिति से बहुत कुछ साम्य रखता है। ये वर्ग शासक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चांडाल और लहुड की भ्रमणशील जाति ही हैं।
इस कालखण्ड में उच्च जातियों तथा निम्न जातियों के बीच एक विभाजन-रेखा थी। उच्च जाति के लोग अपनी कन्या निम्नजातियों को नहीं देते थे। ‘जेहि की बिटिया सुंदर देखी, जोरा जोरी करें विवाह’ के आधार पर निम्न जाति के लोग युद्ध करके, अपहरण करके तथा उन पर विजयश्री प्राप्त करके कन्या के साथ विवाह रचाते थे। निम्न जातियों के लोगों के घर पानी पीना भी हेय दृष्टि से देखा जाता था। यहाँ तक कि उन्हें बारात ले जाना अथवा उनके साथ बैठकर समानता से भोजन करना निषिद्ध था। इसी आधार पर माहिल ने अनेक प्रसंगों में आल्हा ऊदल के प्रति ‘ओछी जाति बनाफर राय’ कहकर उनको न केवल अपमानित कराया, वरन् इस कारण परमाल को भी उलाहने सुनने पड़े थे। आल्हा के कुछ काव्यांश दृष्टव्य हैं-
“जात बनाफर की ओछी रय, हम न करबे कहुबे व्याव।
मंत्र तंत्र कौ हतौ सहारो, सो छल कीन्ह बनाफर जात।
जो कहुँ सुनवा महुबे व्याहै, कोऊन पियै घड़ा कौ पानि।।
राजा बोले तब रूपन सें, तुम जयचंद्र से कहाँ समुझाव।
जात बनाफर की ओछी औं, चाकर ऑय चंदेले राय।
ब्याब न करकै मैं कनवज माँ, काहा आल्हा कों लाय लिवाय।”
जहाँ क्षत्रियों को ही सेना का दायित्व सौंपा जाता हो, वहाँ बनाफर जैसी ओछी जाति के आल्हा ऊदल को सेनापति बनाना तथा पुत्रवत मानना जाति-समन्वय तथा जातिविहीन समाज-रचना का अच्छा उदाहरण है। परिवार-भाव यहाँ तक है कि महारानी मल्हना ऊदल के जन्म पर उसकी देहरी पर नृत्य करती हैं, उसे स्तन्य-पान कराकर पुत्रवत् पालन-पोषण करती हैं। आज के राजनैतिक तथा सामाजिक वातावरण में कथित निम्न जातियों को अपनाकर वर्गविहीन समाज तथा सामाजिक समरसता का यह अनुकरणीय प्रसंग है।
इन चन्देल शासकों की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने इस पर्वतीय और वनप्रदेश में नगरीय स्थापन, नागर व्यवस्थाओं का विस्तार कृषि विकास, सिंचाई साधनों के रूप में बड़े-बड़े जलाशयों का निर्माण, दुर्ग, महलों तथा देवालयों का निर्माण कराकर बुंदेलखंड को वन प्रान्त से नगर क्षेत्र में परिवर्तित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। तमाम सारी विकास योजनाओं के बावजूद आज तक चन्देलकालीन जलाशय बुंदेलखंड में सिंचाई का श्रेष्ठतम साधन हैं। चन्देलों के शासनकाल में चन्देलकालीन स्थापत्य कला और संस्कृति खूब फली-फूली। इस काल में मूर्तिकला का परिष्कृत स्वरूप देखने को मिला। विश्व प्रसिद्ध खजुराहो मंदिरों जैसी सांस्कृतिक धरोहरों का निर्माण चन्देलों की ही देन है।
दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान और परमर्दिदेव (परमाल) के मध्य अनेक लड़ाइयां हुई जिनमें परमाल के एक सामन्त दस्सराज बनाफर के पुत्रों आल्हा ऊदल की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इनके शौर्य के कारण इन्हें आल्हा की बावन लड़ाइयों के नाम से जाना जाता है। यद्यपि लड़ाइयों की संख्या पर विद्वानों में मतभेद हैं। इस लेख में हमउस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं। पृथ्वीराज चौहान परमाल के राजकवि चंद वरदाई ने ‘पृथ्वीराज रासक’ के महोबा खण्ड में इनमें से कुछ लड़ाइयों का वर्णन अपने अपने ढंग से किया है। रामचरितमानस के पश्चात् आल्हाखण्ड देश का सर्वाधिक लोकप्रिय जनकाव्य है, जिसे देश के बड़े भूभाग में बड़े चाव से गाया और सुना जाता है।
यहाँ एक और महत्वपूर्ण प्रसंग की चर्चा आवश्यक है। परमाल ने अपने एक सामन्त वासुदेव परिहार की पुत्री से विवाह करके वासुदेव को उरई कोटरा का शासक बना दिया। वासुदेव ने अपने बड़े पुत्र माहिल को उरई तथा छोटे पुत्र भोपतशाह को कोटरा का राज्य देकर वहाँ के किले सौंप दिये। माहिल ने उरई की गद्दी पर बैठते ही भोपतशाह से कोटरा का राज्य छीन लिया। भोपत ने अपने बहनोई परमाल से मदद मांगी। परमाल ने उरई पर आक्रमण की योजना बनाई। इसके जवाब में चतुर कूटनीतिज्ञ माहिल ने परमाल के शत्रु दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान से मित्रता कर ली। परमाल के साले होने के कारण यही माहिल ‘जगतमामा’ बन गये। परमाल के राजकवि जगनिक ने अपने आल्हखण्ड में अपने संरक्षक राजा के शत्रु ‘माहिल’ को ‘चुगलखोर माहिल’ के रूप में चित्रित किया। चारण कवि के रूप में अपने राजा के शत्रु को यह संज्ञा देकर तथा उसका ऐसा चरित्र गढ़कर उसने कुछ भी अस्वाभाविक कार्य नहीं किया। किन्तु अब आल्हखण्ड को छोड़कर अन्य अभिलेखों के सापेक्ष कूटनीतिज्ञ माहिल के चरित्र के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।” माहिल पुत्र अभई ने परमाल की ओर से युद्ध करते हुये महोबा में आत्मोत्सर्ग करके माहिल पर लगे कलंक को धो दिया था।
पृथ्वीराज और चंदेलराज परमाल के बीच आखिरी लड़ाई के स्थान को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकारों ने इसे जालौन जनपद में’ अकोड़ी’ तथा ‘ बैरागढ़’ अलग अलग मानकर उन स्थानों के पक्ष में तर्क दिये हैं।” जबकि वास्तविकता यह है कि यह स्थान एक ही मैदान के दो छोर हैं। इस प्रकार अंतिम लड़ाई अकोड़ी तथा बरगढ़ के बीच मैदान में हुई। आल्हा ने यहाँ ‘जयतिस्तम्भ’ (सांग) गाड़कर माँ शारदा देवी से विजय का वरदान माँगा था, अतः इसे ‘जैतखम्भ की लड़ाई’ भी कहते हैं। वह सांग अभी भी गड़ी हुई है। इस युद्ध में चन्देलों के पराभव के फलस्वरूप इस क्षेत्र का बड़ा भाग पृथ्वीराज चौहान तथा उसके बाद कुतुबुद्दीन एबक एवं दिल्ली के अन्य शासकों के अधिकार में चला गया तथा पूरा क्षेत्र छोटी छोटी जागीरों में बँट गया। उन्हीं में से एक गढ़कुण्डार खंगार शासकों की राजधानी के रूप में शक्ति का प्रमुख केन्द्र बन गया था।
इस बीच एक महत्वपूर्ण घटना घटी। काशी के गहिरवार क्षत्रियवंश के हेमकरन पारिवारिक विवादवश निर्वासित एवं सत्ताच्युत होकर विन्ध्यवासिनी देवी की शरण में चले गये। एक लोकश्रुति के अनुसार उन्होंने अपने रक्त की बूँदों से देवी का अभिषेक किया। पाँच बार रक्त की बूंदों से अभिषेक के कारण उनका नाम पंचम बुन्देला पड़ा और वह बुंदेलों के ‘आदि पुरुष’ के रूप में विख्यात हुये। देवी से वरदान पाकर तथा यहीं रहकर शक्ति संचय कर उन्होंने मिहरौनी में अपनी राजधानी बनायी तथा 1048 ई. में बुन्देला राजवंश की नींव डाली। पंचम ने अपना खोया हुआ काशी राज्य भी प्राप्त कर लिया।” उसके पुत्र वीर भद्र ने अपने राज्य की सीमायें उक्षिण पश्चिम की ओर अधिक बढ़ाकर मऊ मिहरौनी को अपनी राजधानी बनाया। इस स्थान का नाम महोनी भी लिखा जाता है। लालकवि ने छत्रप्रकाश में ‘सोध्यौ वीरपुत्र कौ पानी, करी महोनी में रजधानी” लिखकर इसकी पुष्टि की है।
बुन्देला शासक वीरभद्र से अर्जुनपाल तक, लगभग एक सौ साठ वर्ष तक, मिहौनी बुंदेलों की राजधानी रही। इनका शासनकालनिम्न प्रकार रहा। वीरभद्र (1071.1087 ई.) कर्णपाल (1087.1112 ई.) कन्नरशाह (1112.1130 ई.) शौनकदेव (1130-1152 ई.) नौनकदेव (1152.1169 ई.) मोहनपति(11691196 ई.) अभ्यभूति (1197.1215 ई.) अर्जुनपाल (1215.1231 ई.)। अर्जुनपाल के तीन पुत्र थे। एक रानी से सोहनपाल तथा दूसरी रानी से वीरपाल एवं दयालपाल। अर्जुनपाल की मृत्यु के पश्चात् सोहनपाल को सिंहासन मिला। किन्तु उसके दोनों भाइयों ने उसे सत्ताच्युत करके निर्वासित कर दिया। सोहनलाल ने शक्तिसंचय कर खंगार सत्ता के केन्द्र गढ़कुण्डार को लक्ष्य बनाया। तथा उसके राजा की हत्या करके गढ़कुण्डार पर कब्जा करके उसे राजधानी बनाया बाद में मिहोनी राज्य को भी अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार गढ़ कुण्डार बुंदेलों की राजधानी बनी। उसके पुत्र सहजेन्द्र ने राज्य का विस्तार कालपी तक करके अपनी शक्ति का परिचय दिया। उसके वंशज 1531 ई. तक गढ़कुण्डार से ही शासन करते रहे। इसी वंश के एक राजा रुद्रप्रताप ने ओरछा को राजधानी बनाने का निश्चय किया तथा वैशाखसुदी 13 सं. 1588 (तदनुसार 21 अप्रैल 1531 ई.) की ओरछा की नींव डाली तथा उसे अपनी राजधानी बनाया। संभवतः इसी समय से इस क्षेत्र का नाम विन्ध्येलखण्ड (बुंदेलखंड)” पड़ा। इसके पूर्व कहीं भी ‘ बुंदेलखंड’ शब्द पढ़ने सुनने में नहीं आया। इस वंश के राजाओं की उपाधि इस प्रकार थी ‘श्रीसूर्य कुलावतंश काशीश्वर पंचम ग्रहरवार विन्ध्येलखण्ड मण्डलाधीश्वर श्री महाराजाधिराज श्री ओरछा नरेश..राजा रुद्रप्रताप की मृत्यु एक चीते से गाय की रक्षा करते समय1531 में हो गई। तदनन्तर उनके दो पुत्रों भारतीचन्द्र (1531.1534) तथा मधुकर शाह (1554.1592) ने राज्य किया। यहदोनों भाई अत्यन्त वीर तथा स्वाभिमानी थे। भारती चन्द्र ने शेरशाह सूरी को पराजित करके भगा दिया था तथा मधुकर शाह सम्राट अकबर के निषेधादेश के बावजूद कृष्णानन्दी टीका लगाकर उनके दरबार में गये।। वह जानते थे कि सम्राट अकबर के आदेश के अपन की सजा गरम लोहे से माथा दाग देने की है किन्तु उन्होंने स्वाभिमान 2 की खातिर इसकी परवाह नहीं की। अकबर द्वारा पूछे जाने पर उन्हीं स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह टीका उनकी ‘ आन-बान’ है, वह मल पसन्द करेंगे किन्तु टीका लगाना नहीं छोड़ेंगे। अकबर भले ही मन में कुढ़ता रहा होगा किन्तु उसने मधुकरशाह के स्वाभिमान की दरबार प्रशंसा की तथा उस टीके को ‘मधुकरशाही टीका’ कहने का आदेश दिया। इससे इस टीके को सम्मानसूचक ख्याति मिली। इन्हें मधुकरशाह की रानी गनेशकुँअरि सं. 1631 में ‘रामराजा’ को अयोध्या से ओरछा ले आई तथा उन्हें नौचौकिया महल में प्रतिष्ठित किया। तब से रामराजा वहीं विराजमान हैं। ओरछा में राम आज भी राजा है तथा उन्हें प्रतिदिन सशस्त्र सलामी दी जाती है। मधुकरशाह कला संस्कृति के प्रेमी थे। आचार्य केशवदास इन्हीं के आश्रित कवि थे।
मधुकरशाह के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र रामशाह गद्दी पर बैठे। वह कामकाज में अधिक दक्ष नहीं थे तथा उन्होंने अपने रामकाज का संचालन सूत्र अपने छोटे भाई इंद्रजीत सिंह को दे रक्खा था। इनके शासनकाल में ओरछा का अखाड़ा कला, संगीत, नृत्य तथा साहित्य का महत्वपूर्ण केन्द्र था। महाकवि केशव की एक शिष्या कववित्री तथा नर्तकी रायप्रवीन इन्हीं इंद्रजीत सिंह की प्रेयसी तथा उनके दरबार में नर्तकियों की प्रधान थी। वह इन्द्रजीत सिंह को पतितुल्य मानतो तथा पतिव्रत कर्म का पालन करती थी। रायप्रवीन के सौन्दर्य तथा गुणों की चर्चा सम्राट अकबर के दरबार तक पहुँची। उसने ओरछा दरबार को आदेश भेजा कि रायप्रवीन को मुगल दरबार में आगरा भेज दिया। इंद्रजीत सिंह द्वारा उसे भेजने से इंकार करने पर अकबर ने ओरछा राज्य पर एक करोड़ रुपया अर्थदण्ड लगा दिया तथा अपने एक सिपहसालार को भेजकर बलात् रायप्रवीन को ओरछा से आगरा मँगा लिया। अकबर ने उसके सामने प्रणय-प्रस्ताव रक्खा। इस पर उसने एक स्वरचित दोहा सुनाया-
“बिनती रायप्रवीन की, सुनिये साह सुजान।
जूठी पातर भकत हैं बारी, बायस, स्वान।।”
अकबर दोहा सुनकर मन ही मन लज्जित हुआ तथा ग्लानि से भर गया। उसने ओरछा राज्य पर लगा एक करोड़ रुपया दण्ड माफ कर दिया तथा रायप्रवीन को ससम्मान ओरछा वापिस भेज दिया।
इस बीच ओरछा नरेश रामशाह के एक अन्य भाई वीरसिंहदेव ने अकबर के पुत्र सलीम से मित्रता कर ली। इन दिनों सलीम राज्य प्राप्ति हेतु अकबर के विरुद्ध योजना बना रहे थे। उसमें अकबर का प्रमुख सलाहकार अबुलफजल बाधक था। वीरसिंह देव ने सम्राट अकबर की नाराजगी की चिन्ता किये बिना उसके प्रमुख सलाहकार अबुल फजल का सिर काटकर सलीम के पास इलाहाबाद भेज दिया। इससे सलीम (जहाँगीर) अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा उसने सम्राट बनते ही ओरछा के सिंहासन से रामशाह को अपदस्थ करके वीरसिंहदेव को ओरछेश बनाने में मदद की। वीरसिंहदेव ओरछा राज्य के योग्यतम शासक सिद्ध हुये। उनका शासनकाल बुन्देला साम्राज्य का ‘स्वर्णयुग’ माना जाता है। उन्होंने माघ सुदी पंचमी सं. 1675 (सन् 1618) को ओरछा राज्य के बावन भवनों का शिलान्यास कराया था। उनके शासनकाल में अनेक महलों, किलों, गढ़ियों, बाबड़ी तथा सरोवरों का निर्माण हुआ। वीरसिंहदेव अपनी दानवीरता तथा न्यायप्रियता के दुर्लभ उदाहरण थे। उन्होंने 1614 ई. मथुरा में 81 मन का तुलादान कर स्वर्णदान दिया था। अपने पुत्र जगतदेव को उन्होंने शिकारी कुत्तों से जनता दरबार में सार्वजनिक रूप से इसलिये मरवा डाला था क्योंकि उसने एक साधु को शिकारी कुत्ते से मरवा डाला था।
वीरसिंहदेव की मृत्यु के उपरान्त सम्राट जहाँगीर की कृपा से उनके ज्येष्ठ पुत्र जुझार सिंह ओरछा के शासक बने। इन्होंने अपने छोटे भाई लाला हरदौल दिवान जिनका इतिहास ग्रंथों में नाम हरदेव सिंह मिलता है, को अपनी पत्नी से अनुचित संबंधों के संदेह में अपनी रानी से ही विषपान कराया था। भाभी को मातृतुल्य मानने वाले लाला हरदौल लोकदेवता बनकर अमरत्व पा गये। उनके समकालीन कवि केशवदास ने उनकी प्रशंसा ‘पुनि हरदेव बुद्धि गम्भीर’ लिखकर की है। जुझारसिंह के कृत्य की सजा उन्हें ईश्वर ने दी। चौरागढ़ में शाहजहाँ की सेनाओं के व्यूह में फँसे जुझारसिंह को बुन्देले सैनिकों ने ही तलवार और कटार भोंककर मार डालना चाहा परन्तु तभी शाही सैनिक उन पर टूट पड़े और उन्होंने अधिकांश बुंदेलों को मारकर उनकी स्त्रियों को बन्दी बना लिया। जुझारसिंह अपने पुत्र विक्रमाजीत के साथ जंगलों में भाग गये। वहाँ गौंडों ने उन्हें मार डाला तथा सिर काटकर शाहजहाँ के पास भेज दिये गये। अन्य विद्रोहियों के सम्मुख शाही प्रतिशोध का भयानक उदाहरण उपस्थित करने के लिये, सम्राट के आदेशानुसार, ये कटे हुये सिर सीहोर नगर के दरवाजों पर टाँग दिये गये। राजकुमारों को मुसलमान बना दिया गया तथा स्त्रियों को धर्म परिवर्तन के पश्चात् मुगल काल में अपमानजनक जीवन व्यतीत करने के लिये भेज दिया गया।”
जुझार सिंह के पश्चात् उनका भाई देवीसिंह शासक बना, किन्तु यह शासन अधिक दिन नहीं चला सका। पारिवारिक कलह का लाभ उठाकर मुगलों ने राज्य पर अधिकार कर लिया। इसके प्रतिरोध में बुन्देलावंश के एक साहसी युवक चंपतराय ने, जो अपनी माँ के साथ ग्राम कटेरा में रहने लगे थे, बुंदेलों को पुनः संगठित करके मुगलों के विरुद्ध झण्डा उठाया तथा पहाड़ी क्षेत्रों में छापामार युद्ध शैली से औरंगजेब को खूब छकाया। किन्तु जीवन के अंतिमचरण में अपने द्वारा उपकृत राजा इंद्रमणि धंधेरा के संरक्षण में रहते हुये, उसके विश्वासघात के शिकार हो गये। धंधेरे सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया। चंपतराय तथा उनकी पत्नी लालकुँवर ने आत्महत्या कर ली। चंपतराय का सिर काटकर, औरंगजेब के दरबार में प्रस्तुत किया गया।
इन्हीं चंपतराय के पुत्र महाराजा छत्रसाल हुये। उन्होंने अपने पराक्रम और सूझबूझ से मुगलों का सफाया कर इस क्षेत्र में बुन्देला राज्य की पुनः स्थापना की तथा बुंदेलखंड का सर्वाधिक विस्तार किया। उन्होंने पन्ना को राजधानी बनाकर शासन का संचालन किया। उन्होंने देश में हिन्दू शक्तियों को संगठित करने के लिये शिवाजी से भेंट की। स्वाभिमानी छत्रसाल की प्रशंसा में महाकवि भूषण ने छत्रसाल-दशक लिखा। छत्रसाल के जीवन के अंतिम चरण में फर्रुखाबाद के नवाब बंगश ने उन पर आक्रमण कर दिया। उस समय तक उनके सैनिक उदासीन हो गये थे। उनकी सेनायें सामर्थ्य और अभ्यास खो चुकी थीं। उन्होंने पूना के पेशवा बाजीराव से सैन्य सहायता मांगी। उन्हें भेजे गये पत्रों में छत्रसाल ने यह मार्मिक पंक्तियाँ लिखीं-
“जो गति भई गजेन्द्र की, सो गति पहुँची आय।
बाजी जात बुंदेल की, राखौ बाजीराय।।”
छत्रसाल ने बाजीराव को अपने पुत्रवत मानने का आश्वासन दिया। बाजीराव ने एक सन्धि के आधार पर सहयोग किया। छत्रसाल की विजय हुई। छत्रसाल के मरणोपरान्त सन्धि के अनुसार बुंदेलखंड का एक तिहाई भाग पेशवा को दिया गया। इस प्रकार बुंदेलखंड के एक बड़े भूभाग पर मरहठों का शासन स्थापित हो गया। सागर, गुरसरांय तथा जालौन इसके प्रमुख केन्द्र बने। इस गैरक्षेत्रीय मराठा सत्ता ने बुंदेलखंड पर उपनिवेश की भाँति शासन किया।
छत्रसाल एक बड़े परिवार के मुखिया थे। उनकी रानियों तथा पुत्रों की संख्या पर इतिहासकारों में मतभेद है तथापि रानियों की संख्या 19 तथा पुत्रों की संख्या 68 बताई जाती है। कुँवर कन्हैया जू उनके 64 पुत्रों का उल्लेख करते हैं जिनमें से केवल 52 पुत्रों को वह छत्रसाल का औरस पुत्र मानते हैं, शेष को मुँह बोला या दत्तक पुत्र मानते हैं।” सैयद लतीफसे संबंधित एक लोकगीत” में भी ‘राजा छतारे के बावन बेटा, मेरी अकेली सैयद गाजी’ कहकर उनके बावन पुत्रों का उल्लेख है अतः प्रायः यही संख्या मानी जाती है। इतने विशाल परिवार के बँटवारे में उनके राज्य छोटी छोटी रियासतों में बंट गया। ज्येष्ठ पुत्र हिरदेशाह को पन्ना तथा जगतराज को जैतपुर राज्य दिया गया। पत्रा में हिरदेशाह (1732.39) के पश्चात् उनके पुत्र सभासिंह (173952) तत्पश्चात् उनके पुत्र अमानसिंह (1752.58) एवं हिन्दूपत (1758.76) तत्पश्चात् हिन्दूपत के पुत्र अनिरुद्ध सिंह (1776.80) गद्दी पर बैठे तत्पश्चात् पारिवारिक कलह में उनका राज्य विखण्डित हो गया। जगतराज के ग्यारह पुत्र थे। उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र कौरतसिंह को जैतपुर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर के शेष पुत्रों को सात बड़ी जागीरें दीं। कुछ वर्षों पश्चात् ओरछा के दिवान हरदौल को प्रदत राज्य (बड़ागाँव) उनके उत्तराधिकारी राथसिंह के आठ पुत्रों में, आठ राज्यों में, विभक्त हो गया। इसमें आठ गाड़ियां होने के कारण यह’ आहगढ़ी राज्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अकबर के शासनकाल में इस अँचल की कला संगीत साहित्य की अनेक प्रतिभाओं को नवरत्नों में स्थान मिला- इनमें हाजिर जवाबी में विख्यात राजा बीरबल, राजा टोडरमल तथा संगीत सम्राट तानसेन प्रमुख हैं। बीरबल का जन्म स्थान कालपी में था। कालपी में आज भी बीरबल का रंगमहल है। राजा टोडरमल कालपी में घर-जमाई बनकर रहते थे। आज भी वहाँ टोडरमल की कचैरी’ नामक भवन है। तानसेन का जन्म ग्वालियर के निकट बेहट ग्राम में हुआ था। इसके अतिरिक्त अब्दुर्रहीम खानखाना कालपी के गवर्नर थे। इसी समय तानसेन के गुरुभाई बैजू बावरा भी अच्छे संगीतकार थे।
बुंदेलों के शासन में कला संस्कृति खूब फली फूली। 17-18वीं शताब्दी में यहाँ चित्रकला की ओरछा तथा दतिया प्रणाली विशेष चर्चित रही। मध्य भारत की लघु चित्रकला में इनका राष्ट्रीय महत्व है। इस कालखण्ड में भित्तिचित्रों की सशक्त परम्परा रही, ओरछा के जहाँगीर महल,आष्टगढ़ी राज्यों के बिजना, टोड़ी फतेहपुर, चिरगाँव, दतिया, टीकमगढ़ में मोहनगढ़ दुर्ग के साथ ही रहली (सागर) के जैन मंदिर के भित्तिचित्र का कला के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। यह स्वतंत्र शोध का विषय है।
18वीं शती में गुसाई वंश के अनूप गिरि ने इस क्षेत्र के कुछ भाग में शासन किया तथा अनेक कलात्मक निर्माण कराए। गैरक्षेत्रीय मरहठों ने बुंदेलों को इस कलह का पूरा लाभ उठाया। परिणामस्वरूप बुंदेलों और मरहठों में भी विवाद बढ़ते गये। मरहठों ने अपने बाहुबल में वृद्धि के लिये आतंक के पर्याय अमीर खां पिण्डारी को संरक्षण दिया। 1761 ई. के पश्चात् इन्दौर के होल्कर मल्हाराव ने कोंच में अपना प्रभाव बढ़ाकर सत्ता स्थापित कर ली तथा इस क्षेत्र में होल्कर संरक्षित पिण्डारियों का केन्द्र बनवाया। अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को यशवन्तराव होल्कर की पुत्री भीमाबाई साहिबा को देने पर सहमति व्यक्त की। 1802 में बेसीन की सन्धि द्वारा बुंदेलखंड मरहठों के शासन से निकलकर ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत आ गया तथा इस क्षेत्र में अंग्रेजी हुकूमत प्रारम्भ हो गई। मराठाकाल में इस अंचल में विनायक पूजन,गणेशोत्सवों की परम्परा व्यापक रूप से सामने आई। महिला परिधानों में दो काँछ की धोती भी यहाँ आ गई।
मरहठा शासकों में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने 1857वीं क्रान्ति के समय कुशल शासक, सर्वश्रेष्ठ सैन्य-निपुण तथा मर्दानी के रूप में ख्याति अर्जित करके देश की नारीशक्ति का मस्तक गर्व से ऊँचा किया था।
उस समय बुंदेलखंड के अधिकांश राज्य और रिवाल मराठा आतंक से परेशान थे तथा सुरक्षा की तलाश में थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उनकी इस विवशता का लाभ कूटनीतिक ढंग से उप तथा उनसे संधि या समझौते करके सनद के माध्यम से कम्पनी के अधीन वफादार राज्य बनाया। तीन प्रमुख राज्यों ओरछा, दतिया तथ समधर को सन्धि के आधार पर समानता एवं मैत्री का दर्जा देका ‘सन्धि-राज्य’ बनाया। 27 छोटी रियासतों से अनुबंध करके उन्हें ‘सनद-राज्य’ का दर्जा दिया तथा उन्हें सुरक्षा की गारंटी दी। सनद राज्य निम्नप्रकार थे- पन्ना, चरखारी, अजयगढ़, बिजावर, छतरपुर, बावनी, बरौधा, आलीपुर, बंका पहाड़ी, बेरी, भैसुण्डा, बीहर, बिजना, धुरबई, गरौली, गौरिहार, जसौं, जिगनी, कामता, रजौला, खनियाधाना, लुगासी, नैगवां-रिबई, पहरा, पालदेव, सरीला, तरीन टोड़ी फतेहपुर।”
इन संधियों तथा समझौते से कंपनी सरकार को सभी राज्यों से बेरोकटोक सेना आने जाने तथा उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार मिल गया था। अपने अपने राज्यों में उपद्रव लूट या अराजकता का दमन स्थानीय राज्य का दायित्व था। इन राज्यों में समन्वय के लिये 1843 ई. में कंपनी ने नौगाँव में सैन्य छावनी भी स्थापित की, जहाँ सभी राज्यों को प्रतिनिधि रखने की अनिवार्यता थी। छावनी का सर्वोच्च अधिकारी’ पालिटिकल एजेन्ट’ कहलाता था। सन् 1841-43 तक नाराहट के जागीरदार मधुकर शाह बुन्देला, बानपुर के मर्दनसिंह, चन्द्रापुर के जवाहरसिंह, गुड़ा के गणेश जू बुंदेला, हीरापुर के हृदयशाह के नेतृत्व में अँग्रेजी अत्याचारों के विरुद्ध बुंदेला विद्रोह प्रारंभ हुआ। जिसके परिणामस्वरूप विद्रोही मधुकरशाह को सागर में जेल के पीछे खुले मैदान में फाँसी दी गयी थी और इसके लिए शहर में आम जनता को मुनादी कराकर बुलाया गया था ताकि लोगों में अँग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह के परिणाम का भय व्याप्त हो।
कंपनी सरकार के अधीन बुंदेलखंड में जनअसंतोष का प्रकटीकरण जालौन जिले के अमींटा-बिलायां ग्राम में 1843 में हुआ। अंग्रेजों की राजस्व वसूली के अपमानजनक तरीके से क्षुब्ध होकर वहाँ के दीवान जवाहर सिंह ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया तथा निकटवर्ती जमींदारों को भी संगठित किया। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को कुचलने तथा अमींटा-बिलायां के दुर्ग को ध्वस्त करने, बुंदेलखंड में नियुक्त सेनानायक फावसैट को भेजा। दीवान जवाहरसिंह ने अमीरखां पिण्डारी का सहयोग लिया। 22 मई 1804 को हुये भीषण संघर्ष में 50 अँग्रेज अधिकारी तथा अनेक सैनिक मारे गये। ब्रिटिश सेना की इस बड़ी पराजय का दण्ड सेनानायक पावसैट को भुगतना पड़ा। उसे हटा दिया गया। इस स्थान’ अमीटा बिलायाँ का जालौन जिला गजेटियर में अमाँटा-मलाया लिखा है,” जो उच्चारणवश त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है। इसी अमींटा-बिलायां परिवार में आगे चलकर दीवान बरजोर सिंह क्रांतिकारी हुये।
इसके कुछ दिनों बाद अंग्रेजों की नीति के विरुद्ध विद्रोह कीलहर पूरे बुंदेलखंड तथा देश में फैलने लगी। पुरानी प्रथाओं एवं परम्पराओं में परिवर्तन करके नई लगान वसूली उत्तराधिकार के अभाव में दत्तक पुत्र को मान्यता न देकर राज्य हड़पो नीति, विशेषाधिकारों की समाप्ति, निर्मम वसूली, पुलिसिया दमन, सतीप्रथा निषेध ने इस विद्रोह के स्वर को और तेज कर दिया। जैतपुर के राजा पारीछत की विधवारानी राजी, झाँसी के राजागंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई तथा जालौन के राजा नाना गोविन्दराव की पत्नी ताईबाई को दत्तक पुत्र गोद लेने की अनुमति न देकर उनके राज्य हड़प लिये गये। इन समान कारणों से नाना साहब पेशवा के नेतृत्व में सत्तावनी क्रांति का सूत्रपात हुआ। उधर मेरठ में चर्बी भरे कारतूस को लेकर मंगलपाण्डे का विद्रोह और इधर झाँसी की रानी सहित बुंदेलखंड का विद्रोह विप्लव के रूप में सामने आया। 6 जून 1857 को झोकन बाग झाँसी में ब्रिटिश अधिकारियों का भारी पैमाने पर कत्लेआम करना इन स्वतंत्रता सेनानियों को महँगा पड़ा। लगभग पाँच माह तक कालपी को केन्द्र बनाकर संघर्ष हुआ। चंदेलदुर्ग के एक हिस्से को मरहठों का कोषागार तथा भूमिगत शस्त्र निर्माणी बनाकर क्रान्तिकारियों ने पूरे क्षेत्र में अंग्रेजी शासन का मुकाबला किया। किन्तु झाँसी की रानी तथा उनके साथी अंग्रेजी सेना के सामने न टिक सके और भारी जनधन की क्षति के बाद गोपालपुरा होते हुये ग्वालियर की ओर चले गये। अंत में 22 मई 1857 को कालपी के पतन के पश्चात् बुंदेलखंड में अंग्रेजों की सत्ता पूरी तरह स्थापित हो गई।
बुंदेलखंड के समथर में एक गाँव है लोहागढ़। इसे ‘लुहारी’ कहा जाता है। यहाँ पठानों की संख्या हजारों में रही है। 1857 की लड़ाई के समय यहाँ के पठानों ने पूरी तन्मयता से अंग्रेजों के विरुद्ध मातृभूमि की आजादी के लिए संघर्ष किया, इनमें सात पठान मारे गये। इसका वर्णन इस काव्यांश में मिलता है- “जह पठान साबित कटे, नगर लुहारी खेत जाफर खाँ, नूर खाँ, गिरजा जस के हेत रन्जब बेग बखानिए, मल्ल युद्ध जेहि कौनि एकर शत्रु के टेंटुआ, डार खास में दीन।”
उक्त काव्यांश में जिन रज्जब बेग के मल्ल युद्ध करने का उल्लेख आता है, उसके बारे में रामचरण हयारण ‘मित्र’ ने (बुंदेलखंड की संस्कृति साहित्य) लिखा है कि वह विवाह करके अपनी नवपरिणीता पत्नी के साथ घर में प्रविष्ट ही हुआ कि अंग्रेजों के आक्रमण की सूचना मिली। नववधू के स्वागत आरती के बाद, रज्जब बेग ने माँ से कहा- “माँ। बहू को तुम सँभालना, मैं पहले तलवार चूमता हूँ, लड़ाई पर जाऊँगा, फिर विजयी होकर तुम्हारी बहू से मिलूँगा।” और वह समर क्षेत्र में चला गया।
1862 में अंग्रेजों ने अधीनस्थ संघ की स्थापना करके यहाँ कीसभी तीस रियासतों को उसके अधीन कर दिया। अधीनस्थ राजाओं ने 1877 में हुये विक्टोरिया दरबार में उन्हें अपनी महारानी स्वीकार किया। इसी वर्ष बुंदेलखंड की तीस रियासतों को सन्धिराज्य तथा सनद राज्य के बजाय नयी वर्गीकरण दस सलामी राज्य (सलुटिड) तथा बीस गैर-सलामी राज्य (नान सलूटेड) कर दिया गया। सलूटेड राजाओं को ‘हिज हाइनेस’ की सम्मानित पदवी दी गई। पद प्रतिष्ठा के अनुसार तोपों की सलामी की संख्या निर्धारित की गई। सलामी वाले राज्य निम्न प्रकार थे ओरछा (17 तोप) दतिया (15 तोप) समथर, पत्रा, चरखारी, अजयगढ़, बिजावर, छतरपुर,बावनी सभी (11 तोप) तथा बरौधा 9 तोप। शेष बीस राज्य नान सलूटेड में रखे गये।
सत्तावनी क्रान्ति में बुंदेलखंड के राजाओं की एकता देखकर इस क्षेत्र की सांस्कृतिक एवं राजनैतिक एकता को खण्डित करने के लिये प्रशासनिक सुविधा के बहाने अंग्रेजों ने 1886 में बुंदेलखंड को चार भागों में बाँट दिया। सागर, दमोह, शाहगढ़ तथा जबलपुर क्षेत्र सेन्ट्रल प्राविंस (सीपी) में झाँसी, जालौन, बाँदा, हमीरपुर, ललितपुर, यूनाइटेड प्राविंस (यूपी) में, करैरा, पिछोर, भाण्डेर, शिवपुरी तथा लहार परिक्षेत्र सिंधिया राज्य में मिला दिये गये। शेष क्षेत्र बुंदेलखंड की छोटी छोटी रियासतों में बंटा रहा।
1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद देश में नई चेतना जाग्रत हुई तथा वैधानिक सुधारों की माँग उठने लगी। 1927 में एक और ब्रिटिश सरकार ने सरकार और रियासतों के बीच संबंध सुदृढ़ करने के लिये बटलर कमेटी गठित की दूसरी ओर देशी रियासतों में जनजागृति के लिये देशी राज्य लोक परिषद का गठन किया गया। जिसमें जनता के अधिकार राजाओं से जनता को सौंपने की माँग की गई।
देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ बुंदेलखंड में भी क्रान्तिकारी तथा गान्धीवादी नेतृत्व सक्रिय हुये। एक ओर नेतृत्व पं. परमानन्द, चन्द्रशेखर आजाद, भगवानदास माहौर, शिवराम मल्कापुरकर कर रहे थे तो दूसरी और रघुनाथ विनायक घुलेकर, स्वामी स्वराज्यानंद, स्वामी ब्रह्मानंद, दीवान शत्रुघ्न सिंह, रानी राजेन्द्र कुमारी, पं. मनीलाल पाण्डे, बेनीमाधव तिवारी, चतुर्भुज शर्मा, प्रेमनारायण खरे, चतुर्भुज पाठक, रामसहाय तिवारी, रामकृष्ण वर्मा, मोहनलाल गौतम तथा लालाराम बाजपेयी आदि नेतृत्व कर रहे थे।
15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीनता की घोषणा के साथ ही अंग्रेजों ने देशी राज्यों को सन्धियों तथा समझौतों से मुक्त कर दिया। इससे सभी राजागण अपने को स्वतंत्र राज्य मानकर राज्य न छोड़ने की पेशकश करने लगे। इस महत्वपूर्ण समय में देश के उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने गृहमंत्रालय के अंतर्गत रियासती विभाग गठित करके इन राज्यों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की पहल की। सर्वप्रथम, ओरछा के महाराजा वीरसिंह देव (द्वितीय) ने 17 दिसंबर 1947 को उत्तरदायी शासन की स्थापना की। 12 मार्च 1948 को सभी देशी राज्यों ने अपनी सत्ता त्यागकर उसके बदले में प्रिवीवर्स तथा विशेषाधिकार लेकर अपने अपने राज्यों का विलीनीकरण ‘संयुक्त राज्य विन्ध्यप्रदेश’ में करने पर सहमति व्यक्त कर दी। इस हेतु इसी दिन एक सहमति पत्र (कन्सैण्ट) लिखा गया जिसमें यह स्वीकार किया गया कि इस क्षेत्र के निवासियों का हित एक ऐसे राज्य की स्थापना द्वारा ही हो सकता है जो उक्त क्षेत्रों को मिलाकर गठित हो तथा उसकी एक विधायिका एक कार्यपालिका तथा एक न्यायपालिका हो। इस सहमति पत्र के फलस्वरूप ‘संयुक्त राज्य विन्ध्यप्रदेश’ का निर्माण हुआ जिसमें तीस राज्यों (सैलूटेड एवं नान सैलूटेड) के अतिरिक्त बघेलखंड के पाँच अन्य राज्यों को सम्मिलित किया गया। इस नवनिर्मित राज्य को दो इकाइयाँ बुंदेलखंड तथा बघेलखंड बनाये गये। बुंदेलखंड राज्य का मुख्यालय नौगाँव और मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना बनाये गये। रीवाँ राज्य के राजा के अधीन बघेलखंड के अन्तर्गत रीवा मुख्यालय बनाया गया। इस सहमति पत्र की मन्शा के अनुसार व्यवस्था न होने पर 20 दिसम्बर 1948 को एक विलय संधि (मर्जर एग्रीमेन्ट एण्ड स्पेशल प्रिवेलेजेज ऑफरूलर्स) लिखी गई, जिसके द्वारा उक्त सभी देशी राज्यों ने संयुक्त राज्य विन्ध्यप्रदेश के स्थान पर एक जनवरी 1950 से ‘विन्ध्यप्रदेश’ राज्य बनाने पर सहमति प्रदान कर दी। भारतीय संविधान लागू होने के ठीक पूर्व उक्त ‘विन्ध्यप्रदेश’ में से कुछ विलीनीकृत राज्यों समथर, बावनी, चरखारी, सरीला, बेरी, जिगनी, बीहट, नैगुवां-रिबई तथा चौबे राज्यों को निकालकर उत्तरप्रदेश में मिलाया गया।
भारतीय संविधान लागू होने के बाद राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता अनुभव की गई। इस हेतु प्रथम बार 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग गठित किया गया। इसके चेयरमैन न्यायमूर्ति फजरत अली थे। इस आयोग के समक्ष बुंदेलखंड राज्य निर्माण का भी प्रस्ताव आया। आयोग के एक सदस्य के0एम0 पणिक्कर ने बुंदेलखंड के एकीकरण की आवश्यकता अनुभव की, किन्तु उसे स्वतंत्र नया राज्य बनाने के बजाय नया आगरा राज्य बनाकर उसमें बुंदेलखंड के कुछ भाग (उत्तरप्रदेश से तत्कालीन झाँसी डिवीजन, विन्ध्य प्रदेश से दतिया तथा मध्यभारत से चार जिले भिण्ड मुरैना, गिर्द (ग्वालियर तथा शिवपुरी) को सम्मिलित करने का सुझाव दिया था। वर्तमान सागर सम्भाग के जिले सागर, पन्ना, दमोह, टीकमगढ़ तथा छतरपुर के बारे में उन्होंने कोई मत व्यक्त नहीं किया था। यह रिपोर्ट 30 सितम्बर 1955 को दी गई किन्तु श्री पणिक्कर के प्रस्ताव को आयोग ने अस्वीकार कर दिया तथा उनके मत को’ असहमति’ (डिस्सैन्ट-नोट) के रूप में आयोग की रिपोर्ट का भाग बनाया गया।
इस आयोग के पश्चात् हये पुनर्गठन के फलस्वरूप मध्यप्रदेशीय बुंदेलखंड के विन्ध्यप्रदेश वाले जिलों को मध्यप्रदेश राज्य में ही सम्मिलित किया गया तथा देशी राज्यों को मध्यप्रदेश के दतिया छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह तथा सागर जिलों में समायोजित चलाया गया। इनमें दतिया ग्वालियर सम्भाग तथा शेष जिले सागर सम्भाग में आते हैं। प्रारम्भ में भाण्डेर को ग्वालियर जिले की तहसील बनाया गया था, बाद में उसे दतिया जिले में सम्मिलित कर दिया। गया।
इधर कुछ चर्चा बावनी राज्य की भी करना प्रासंगिक है। बुंदेलखंड की एक मात्र मुस्लिम रियासत बावनी (कदौरा) थी। यह मुस्लिम संस्कृति तथा उर्दू साहित्य का चर्चित केन्द्र था। मिर्ज गालिब के पत्रों में भी कदौरा के ‘अदब’ की चर्चा मिलती है बावनी राज्य की स्थापना हैदराबाद के निजाम तथा दिल्ली के बादशाह के मंत्री गाजीउद्दीन खां ने 1784 में की थी। वे नवाब गाजी खाँ फीरोज जंग कहलाए। इस नए राज्य को पूना के पेशवा ने सनद तथा ब्रिटिश राज्य ने मान्यता प्रदान की। बावन गाँवों का समूह होने के कारण ‘बावनी राज्य’ कहलाया। इसका मुख्यालय कदौरा था। इसके अंतिम तथा पाँचवें नवाब मुश्ताक उलटसन खाँ थे। यहाँ की बेगम शौकतजहाँ अच्छी शायरा तथा संगीतप्रेमी थीं। वह बुन्दू कब्बाल नामक अपने उस्ताद को अपने साथ मैके से ही लाई थीं। उनकी संगीत साधना में बाधा न पड़े इसलिए मंदिरों में शंख, घंटा, घड़ियाल बजाने की मनाही थी। इस राज्य में तिरंगा फहराना प्रतिबंधित था। बावनी राज्य में बेगारी प्रथा तथा शोषण के विरुद्ध भयंकर आक्रोश था। भारत स्वाधीन होने के बाद भी यहाँ की जनता गुलाम थी। बावनी राज्य के शासक नबाव मु. मुश्ताक उल हसन खां ने उत्तरदायी शासन को स्थापना में आनाकानी की तथा इस हेतु गठित बावनी राज्यस् प्रजामण्डल के कार्यकर्ताओं पर दमनात्मक कार्यवाही की। 25। सितम्बर 1947 को जब ग्राम हरचंदपुर में राष्ट्रीय झण्डा फहराने का कार्यक्रम बनाया गया तब रियासत की पुलिस ने देशभक्तों पर 4 गोलियां चलाई वह स्थान जलियांवाले बाग की भाँति एक चौखाटा था, कहीं से भागने का रास्ता न था। पुलिस की गोलियों से ग्यारह व्यक्ति शहीद तथा छब्बीस घायल हुये। इस घटना के पश्चात् मामला सरदार पटेल तक गया। 7 फरवरी 1948 को दीवान का पद समाप्त करके लोकप्रिय मंत्रिमंडल की घोषणा की गई। पं. विश्वनाथ व्यास प्रधानमंत्री बनाये गये। मंत्रिमंडल के कुछ प्रस्तावों से नाराज होकर नबाव ने 4 अप्रैल 1948 को मंत्रिमंडल भंग कर दिया। इस पर केन्द्र सरकार ने बावनी राज्य को संयुक्त राज्य विन्ध्यप्रदेश में सम्मिलित करने का आदेश दिया। 24 अप्रैल 1948 को बावनी राज्य विन्ध्यप्रदेश में मिला लिया गया। कार्यवाहक प्रशासक पं. विश्वनाथ व्यास को बनाया गया। अंत में 25 जनवरी 1950 को इसे उत्तरप्रदेश में मिला दिया गया।
25 जनवरी 1950 को विन्ध्यप्रदेश से निकालकर जिन जिलों को उत्तरप्रदेश में मिलाया गया है उन्हें पूर्व में ब्रिटिश शासित चार जिलों झाँसी, जालौन, हमीरपुर तथा बाँदा जिलों में समायोजित किया गया। इनमें समथर को झाँसी जिले में, बबीना को जालोन जिले में तथा शेष को हमीरपुर एवं बाँदा जिलों में सम्मिलित किया गया। इतिहासकार डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी का यह कथन त्रुटिपूर्ण है कि उक्त सभी विलीनीकृत राज्यों को हमीरपुर जिले में विलीन कर दिया गया।”
इस प्रशासनिक पुनर्गठन के पश्चात् झाँसी के ललितपुर परगना को जो कि 1891 ई. तक जिला था, पहली अप्रैल 1974 को पुनः जिला बना दिया गया था। 1995 में हमीरपुर जिले को दो भागों में विभक्त करके हमीरपुर तथा महोबा जिलों में बाँट दिया गया। 11 फरवरी 1995 से महोबा जिला अस्तित्व में आया। इसी प्रकार बाँदा जिले को 1997 में दो भागों में विभक्त करके बाँदा तथा शाहूजीनगर नामक दो जिले बना दिये गये। 13 मई 1997 में शाहूजीनगर जिला बन गया। बाद में 8 सितम्बर 1998 को शाहूजीनगर का नाम बदलकर पुनः चित्रकूट कर दिया गया।
इन सभी सात जिलों की प्रशासनिक व्यवस्था के लिये झाँसी मण्डल (कमिश्नरी) को भी 20 अक्टूबर 1997 में झाँसी एवं चित्रकूट दो मण्डलों में बाँट दिया गया। इनमें से झाँसी मण्डल के अंतर्गत झाँसी, ललितपुर तथा जालौन जिले रखे गये तथा चित्रकूट मण्डल में बाँदा, शाहूजीनगर (बाद में चित्रकूट) हमीरपुर एवं महोबा जिले सम्मिलित किये गये।
सन्दर्भः
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- डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी बुंदेलखंड का वृहद इतिहासपृष्ठ 404
बुंदेलखंड का नामकरण
किसी देश के नामाकरण में अनेक तथ्य होते हैं। कभी शासकों के नाम से और कभी वहाँ के निवासियों के नाम से देश का नामकरण होता है। कभी-कभी देश की प्राकृतिक दशा भी उसके नामकरण का कारण होती है। बुन्देलखण्ड इस तथ्य का अपवाद नहीं है। यदि एक समय घसान अथवा दशार्ण नदी के कारण यह घसान या दशार्ण कहलाता तो जुझौतिया ब्राहम्णों की बहुतलता के कारण यह जुझौति अथवा यजुहोंत्र भी कहलाया। इसके अतिरिक्त जेजा अथवा जय शक्ति नरेश के नाम पर यह जेजामुक्ति अथवा जेजाभुकित नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में बुन्देलख्ण्ड के अनेक नाम बदले, अत: उसके कुछ प्रमुख नामों का विवेचन समीचीन प्रतीत होता है।
(1) चेदि देश
चेदि नरेशों के समय में इस देश की बड़ी प्रसिद्वि हुई और उस समय यह चेदि देश कहलाया शिशुपाल इस देश का महान् शासक था। जिसकी राजधानी वर्तमान चन्देरी बतलाई जाती है।
(2) दशार्ण देश
बुंदेलखंड का पश्चिमी भाग जहाँ घसान अथवा दशार्ण नदी बहती है, दशार्ण देश के नाम से विख्यात था। यहाँ के राजा हिरण्यवर्मा की पुत्री का विवाह राजकुमार शिखण्डी से हुआ था। दशार्ण सुधर्मा तथा पाण्डुनन्दन भीम के युद्ध का निर्देश महाभारत में मिलता है।
(3) चन्द्रावती
टॅालमी ने सन्द्रावतीज नामक देश का उल्लेख किया है और उसकी सीमाएं भी दी है। इसके पश्चिम में कस्पिरसी है, जिसमें मोदुरा अथवा मथुरा सम्मिलित था। दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तथा पूर्व में तमसिस अथवा टोंस नदी है। जनरल कनिंघम के मतानुसार सन्द्रावतीज (चन्द्रावती) देश का नामकरण चर्मण्यवती अथवा चम्बल नदी के नाम पर हुआ और चम्बल तथा टोंस के मध्य का समस्त भू-भाग इसमें समिम्लित था।टॅालमी ने तमसिस, करपोनिया, इसमथ्रो तथा नन्दुवग्दुर नामक चार नगरों का उल्लेख किया है जिनका सायुज्य क्रमशः कालिंजर खजुराहों, महोबा तथा नलपुर अथवा नरवर से किया जाता है।

भौगोलिक–दशा
दशा जुझौती :
जुझौती बुन्देलखण्ड का प्रथम नाम है, जिसका उल्लेख राज्य के रूप में मिलता है। स्कन्द पुराण में भी इसका निर्देश है।इसमें 42,000 गॉंव सम्मिलित थे और कान्तिपुर (कुटवर) चेदि देश तथा मालवा इस राज्य की सीमाएं थीं।
हेवनसांग ने इस देश का उल्लेख किया है और इसे चि-चि-टो से सम्बोधित किया है। उसके अनुसार यह देश उज्जैन से उत्तर-पूर्व की ओर 1000 ली अथवा 167 मील की दूरी पर था। उसके विवरण में यह भी स्पष्ट है कि देश की राजधानी 15.16 ली अथवा लगभग 211 मील के घेरे में थी। वहाँ की अधिकांश जनता बौद्ध न थी, फिर भी वहाँ कई दर्जन बौद्ध बिहार थे। लगभग एक सहस्त्र ब्राह्मण 10 मंदिरों में पूजा करते थे। राजा स्वयं ब्राह्मण था परन्तु वह कट्टर बौद्ध था। यह देश अपनी उपज के लिए प्रसिद्ध था और भारत के सभी भागों में विद्वान यहाँ आते थे। कनिंघम का मत है कि यह चि-चि-टो जुझौती ही है। परन्तु इन दोनों स्थानों का वास्तविक व्यवधान 1000 ली का दूरा अथवा 300 मील से अधिक है।अस्तु, वाटर्स इस सामंजस्य को स्स्वीकार नहीं करता और वह चि-चि-टो का साम्य चित्तौड़ से करता है। अपने साम्य की पुष्टि के लिए कनिंघम का विचार है कि हेवनसांग ने सम्भवतः इन दोनों स्थानों की दूरी का उल्लेख मीलों में न करके कोसों में किया है और 2 मील का 1 कोस माना है। कनिंघम ने बुंदेलखंड तथा मालवा में पर्याप्त यात्रा की है, अस्तु, इस प्रदेश के कोसों से वह परिचित थे, जो तीन मील से 4 मील तक के होते थे। इस भांति कोसों के इस रूप को लेकर इन दोनों स्थानों की दूरी लगभग 300 मील आती है जो उज्जैन तथा खजुराहों की लगभग दूरी है। इसके अतिरिक्त जुझौतिया ब्राह्मणों की बहुतायत तथा जुझौती में सुरश्मिचन्द्र के उत्तराधिकारियों के ब्राह्मण-राज्य की सम्भावना कनिंघम के मत की पुष्टि करती है कि चि-चि-टो जुझौती ही था।
पहले यह प्रदेश गुप्त-साम्राज्य का एक अंग और लगभग 500 ई. में बुघ गुप्त वहाँ राज्य करता था। उसका ब्राह्मण सामन्त सुरश्मिचद्र कालिन्दी (यमुना) तथा नर्मदा के मध्य के देश का शासक था। अनुमान यह है कि गुप्त-साम्राज्य के दुदिंनों में सुरश्मिचन्द्र अथवा उसके उत्तराधिकारी स्वतन्त्र हो गये और हेवनसांग की यात्रा के समय तक वहाँ राज्य करते रहे।
जुझौती का प्रथम स्पष्ट उल्लेख अबू रिहाँ ने किया है। उसके अनुसार इस देश की राजधानी खजुराहों थी, जो कन्नौज से 30 परगना अथवा 90 मील दक्षिण-पूर्ण कन्नौज से खजुराहो की वास्तविक दूरी 180 मील अथवा 60 परगना थी। इब्नबतूता भी इस नगर में आया था और इसे ‘खजूर’ नाम से सम्बोधित किया है। उसने अपने वृत्तान्त में यह भी लिखा है कि इस नगर में एक मील लम्बी एक झील थी, जिसके चारों ओर अनेक मंदिर थे। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि जुझौती वर्तमान बुंदेलखंड ही था, जो इस युग में उत्तर प्रदेश तथा मध्यप्रदेश के राज्यों में सम्मिलित हो गया है।
बुंदेलखंड
बुंदेलखंड इस प्रदेश का नाम है, किन्तु इसके नामकरण के सम्बन्ध में मतभेद हे। छत्र्रप्रकाश तथा वीरसिंह देव चरित के आधार पर यह कथा है[1] कि एक राजा ने विन्ध्यवासिनी देवी को प्रसन्न करने के निमित्त बहुत दिनों तक तपस्या की, किन्तु जब देवी प्रसन्न न हो सकी तो निराश होकर उसने देवी के ही चरणों पर अपने जीवन का अन्त करना चाहा। उसने अपनी तलवार निकाली और आत्मबलिदान की भावना में जैसे ही उसने तलवार अपनी गर्दन पर मारी, देवी प्रकट हो गई और कहा कि उसके रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न उसका पुत्र महान् शक्तिशाली और विजेता होगा तथा प्रसिद्ध बुंदेलवंश का प्रादुर्भाव करेगा। अपने ‘इतिहासे’-बुंदेलखंड’[2] नामक पुस्तक में महराज सिंह ने भी इसी कथा का उल्लेख किया। किन्तु उन्होंने विन्ध्यवासिनी देवी के मंदिर में रक्त बिंदुओं से उत्पन्न किसी राजकुमार का निर्देश नहीं किया। ‘‘हकीकत-उल-आलिमा’’ में बुंदेलों की उत्पत्ति की एक अलग ही कथा है और इलियट तथा स्मिथ ने भी इसका समर्थन किया है।[3] इस कथा के अनुसार गहरवार वंश के राजा हरदेव एक सेविका
(बांदी) के साथ खैरागढ़ से आकर ओरछा के निकट बस गये ।उसने वहाँ के खंगार नरेश का वध कर दिया और वह बेतवा तथा घसान के बीच के देश का स्वामी बन गया। राजा हरदेव के उत्तराधिकारी जो इस सेविका (वांदी) से
हुए, वे बन्देला अथवा बुन्देला कहलाए और यह प्रदेश बुंदेलखंड कहलाया। पर नामकरण की यह योजना समीचीन नहीं प्रतीत होती हे। उस समय मुसलमान आए ही थे और फारसी के शब्दों का इतना प्रचलन न हुआ था कि उस युग में मध्यभारत के जंगली प्रदेशों में उनका प्रचार हो। अस्तु, बुंदेलों को एक हीन उत्पत्ति देने के हेतु अथवा अज्ञानवश इस कथा की उत्पत्ति की गई। अन्यथा वीर बुन्देले अपने को बांदी पुत्र बुन्देले कहने में लज्जित होते और अपपने लिए ऐसा नाम न रखते। इसके अतिरिक्त संस्कृत तथा हिन्दी व्याकरण के किसीभी नियम से बांदी से बुन्देला नहीं बन सकता। यही ‘बून्द’ शब्द के लिए भी है। बून्द शब्द से भी बुंदेल नहीं बन सकता।
इस प्रदेश के बुंदेलखंड कहलाने का कारण यहाँ की भौगोलिक स्थिति ही प्रतीत होती है। इस प्रदेश में विन्ध्य पर्वत की श्रेणियां हैं और इस कारण यह विन्ध्य खण्ड अथवा विन्ध्येलखण्ड[2] कहलाया। कालान्तर में विन्ध्येलखाण्ड का बुंदेलखंड हो गया।
जेजाकभुक्ति
चन्देलों के समय में इस देश का नाम जेजाकभुक्ति अथवा जेजाभुक्ति था। यह नाम चन्देल वंश के तृतीय नरेश जेजा अथवा जयशक्ति के नाम पर पड़ा था।[3] चन्देलों के उत्थान-पतन-काल में यह देश जेजाक भुक्ति नाम से ही विख्यात था। पृथ्वीराज चैहान के मदनपुर के शिलालेख से प्रकट होता है कि 12वीं शताब्दी तक यह देश जेजाकभुक्ति ही कहलाता था। सोमेश्वर सूनुना।
बुंदेलखंड और बुंदेली
डॉ. कृष्णलाल हंस
हम भारत के जिस भू-भाग की लोकभाषा का अध्ययन करने जा रहे हैं, वह ‘बुंदेलखंड’ के नाम से जाना जाता है। यह भू-भाग प्रागैतिहासिक काल में भी अपने अस्तित्व में था और आज भी है, किन्तु इसका वर्तमान नाम प्रागैतिहासिक काल अथवा उसके पश्चात् के किसी प्राचीन ऐतिहासिक काल की देन नहीं है। ‘बुंदेलखंड’ से स्पष्ट तात्पर्य भारत के उस भू-भाग से है, जो प्रमुख रूप से बुन्देले राजपूतों की निवास-भूमि अथवा उनके द्वारा शासित भूमि रहा है। अतः निश्चित ही इस भूखण्ड का वर्तमान प्रचलित नाम उस काल की देन होना चाहिये, जिस काल में बुन्देले राजपूतों ने इसे अपनी निवास-भूमि बनाया अथवा जिस काल में वे इस भू-भाग के शासक बने।
हम बुंदेलखंड का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण आगे यथास्थान प्रस्तुत करेंगे, यहाँ उसके नाम-करण से सम्बन्धित विवरण ही पर्याप्त होगा। ऐतिहासिक विवरण से जान पड़ता है कि ‘बुन्देल’ अथवा ‘बुंदेला’ शब्द सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, अग्निवंशी, चेदि, चौहान, गहरवार आदि वर्ग विशेष के क्षत्रियों का द्योतक नहीं है। हमारे देश में कहीं जातियों के नाम पर राज्य अथवा प्रदेश विशेष के नाम और कहीं प्रदेश विशेष के नाम पर जाति विशेष के नाम आधारित हैं; यथा, राजपूत जाति की निवास-भूमि राजपूताना अथवा राजस्थान, गोण्डों की निवास-भूमि गोण्डवाना कहलाई और पंजाब के निवासी पंजाबी, बंगाल के निवासी बंगाली, गुजरात के निवासी गुजराती तथा मारवाड़ के निवासी मारवाड़ी कहलाते हैं। ‘बुंदेलखंड’ नाम प्रथम मान्यता पर आधारित है। बुंदेलखंड में बसने के कारण वहाँ का क्षत्रिय वर्ग विशेष ‘बुंदेला’ नहीं कहलाया, इसके विपरीत बुंदेलों की निवास-भूमि होने के कारण यह भू-भाग बुंदेलखंड कहलाया।
विविध मान्यताएँ
इस नामकरण के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मत है कि गिरिराज विन्ध्य की उपत्यका में स्थित होने के कारण यह भू-भाग बुंदेलखंड कहलाता है, जैसा कि हिमालय की क्रोड़ में स्थित आज का ‘हिमाचल प्रदेश’ है। ‘विन्ध्य प्रदेश’ भी इसी प्रकार का है। ‘विन्ध्य प्रदेश’ भी कोई बहुत प्राचीन नाम नहीं है। यह नाम ‘बुंदेलखंड’ से भी अर्वाचीन है। पूर्व विन्ध्य प्रदेश में वर्तमान बुंदेलखंड का पूर्वी भाग भी सम्मिलित था। वास्तविकता यह है कि सम्पूर्ण बुंदेलखंड भाषा की दृष्टि से दो इकाइयों में विभाजित था बुंदेली-भाषी और बघेली-भाषी। बघेली-भाषी भाग अभी भी ‘बघेलखण्ड’ कहलाता है। यह बघेलखण्ड ही आज की विन्ध्य प्रदेश कही जाने वाली इकाई है, जो पूर्व बुंदेलखंड से पृथक् हो गई है। भाषायी विभाजन के अभिशाप ने देश को अनेक टुकड़ों में विभाजित कर ही दिया, तब बघेलखण्ड अथवा विन्ध्य प्रदेश का पृथक्करण कैसे अनुचित कहा जा सकता है। विन्ध्य की उपत्यका में स्थित होने के कारण इस भू-भाग का नाम ‘बुंदेलखंड’ पड़ना मानने वाले ‘विन्ध्य’ से ‘बिन्ध्य’ का विकास मानकर ‘विन्ध्य’ से ‘बिध्येल’ (विन्ध्य की अन्तर्गत भूमि) शब्द का निर्माण मानकर कालान्तर में ‘बुंदेलखंड’ नाम होना बतलाते हैं। ‘विन्ध्य’ का ‘बिन्ध्य’ होना स्वाभाविक है। हिन्दी के अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनमें तत्सम ‘व’ ‘ब’ हो गया है। ‘विन्ध्य’ में ‘एल’ प्रत्यय का योग होने से ‘विध्येल’ शब्द बन गया है। हिन्दी की बोलियों में ऐसे भी कुछ शब्द हैं, जिनमें ‘एल’ प्रत्यय लगने से उनमें ‘अधिकृतिकरण’ का भाव आ गया है। रखेल (रखा हुआ), गयेल (गया हुआ), करेल (किया हुआ), खाएल (खाया हुआ) आदि इसी प्रकार के शब्द है। ये शब्द बुंदेली, निमाड़ी और मालवी में भी इसी अर्थ में प्रचलित हैं। यह देखते हुए ‘विन्ध्येल’ का अर्थ विन्ध्य अथवा विन्ध्य का अधिकृत भू-भाग हो सकता है। अतः यह मान्यता सर्वथा ‘दिमागी कसरत’ अथवा ‘कुतर्क’ नहीं कही जा सकती।
द्वितीय मान्यता के अनुसार, बुन्देले इस भू-भाग के मूल निवासी नहीं हैं। वे विन्ध्य की इस उपत्यका में आकर बसने के पश्चात् ही बुन्देले कहलाये। जनश्रुति के अनुसार गहरवार क्षत्रिय कुलोत्पन्न महाराज हेमकरन भाइयों-द्वारा अपना काशी का राज्य छिन जाने पर इस भू-भाग में आये और उन्होंने पुनः अपना राज्य प्राप्त करने के लिए विन्ध्यवासिनी देवी की आराधना की। उन्होंने देवी को अपना सिर समर्पित करने के लिए जैसे ही अपनी तलवार उठाई, देवी ने उनका हाथ पकड़ लिया; किन्तु उनके मस्तक पर तलवार की खरोंच लग ही गई और रक्त की कुछ बूंदें भूमि पर देवी के सामने गिर पड़ीं। अपने रक्त की बूंद देवी को समर्पित करने वाले महाराज हेमकरन की सन्तान बुन्देले कहलाये और कुछ समय के पश्चात् इनकी निवास-भूमि बुंदेलखंड के नाम से सम्बोधित होने लगी। इतिहासकारों ने हेमकरन का आविर्भाव-काल ग्यारहवीं शती के पूर्व माना है। अतः ‘बुंदेलखंड’ नामकरण ग्यारहवीं शती के लगभग होना चाहिये; किन्तु 11वीं से 15वीं शती तक के इतिहास में इस नाम का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। सर्वप्रथम मुगल सम्राट् अकबर ने इस भू-भाग पर अधिकार किया था, किन्तु उसके द्वारा वर्तमान बुंदेलखंड में स्थित कालिंजर और महोबा पर अधिकार करने का उल्लेख है, ‘बुंदेलखंड’ पर अधिकार करने का उल्लेख नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि अकबर के शासन काल में भी यह भू-भाग बुंदेलखंड के नाम से प्रसिद्ध नहीं था। अकबर के समकालीन गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी ‘कवितावली’ में “विन्ध्य के वासी उदासी सदा” लिखा है, पर उनका तात्पर्य उन साधु-महात्माओं से है, जो विन्ध्य की वनस्थली में साधना-रत थे, यहाँ उनका तात्पर्य बुंदेलखंड से अथवा विन्ध्येलखण्ड से नहीं है।
अधिक सम्भव यही जान पड़ता है कि विन्ध्य से विन्ध्येल अथवा विन्ध्येल शब्द की निष्पत्ति हुई और कालान्तर में विन्ध्येले से बुन्देले शब्द बना और इन बुंदेलों का इस भू-भाग में शासन स्थापित होने के पश्चात् ही उसे बुंदेलखंड कहा जाने लगा। हमने ऊपर 11वीं शती पूर्व के जिन महाराज हेमकरन का उल्लेख किया है, उनकी 10 वीं पीढ़ी में 16वीं शती के लगभग मध्यकाल में महाराज रुद्रप्रताप हुये, जिन्होंने सम्भवतः सर्वप्रथम चन्देलों के अधिकार से इस भू-खण्ड का कुछ भाग छीन कर अपना राज्य स्थापित किया। इन्होंने ओरछा के चतुर्दिक भाग को सुव्यवस्थित किया और गढ़कुण्डार के स्थान में ओरछा को ही अपनी राजधानी बनाया। इतिहासकारों ने इनके शासन का आरम्भ सन् 1553 ई. (सं. 1610 वि.) माना है। ये ही बुन्देल राज्य के प्रथम शासक थे। इनके पश्चात् उनके पुत्र महाराज भारतीचन्द्र ने अपने राज्य का विस्तार उत्तर में यमुना नदी के तट तक तथा दक्षिण-पूर्व में कालिंजर और महोबा तक किया। इसी काल से इस भू-भाग को बुंदेलखंड कहा जाना जान पड़ता है। महाराज छत्रसाल बुंदेला इसी राजवंश के मुकुट-मणि थे। इस भू-भाग को विन्ध्याचल के अंचल में स्थित होने के कारण बुंदेलखंड (विन्ध्येखलण्ड) कहा जाता हो अथवा विन्ध्य के अंचल में आकर बसने वाले गहरवार क्षत्रिय बुन्देले कहलाये और उनकी निवास-भूमि होने के कारण इसे बुंदेलखंड कहा गया हो, पर यह नाम चार सौ वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं हो सकता।
इस भू-खण्ड का वर्तमान नाम भले ही अधिक प्राचीन न हो, किन्तु इसका गौरवशाली इतिहास अवश्य ही बहुत प्राचीन है। इस भू-भाग का वैदिक-काल से आधुनिक काल तक मानवीय विकास, संस्कृति, सभ्यता, धर्म आदि के विकास में जो योगदान रहा, वह निश्चित ही अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आरम्भ से ही इस भू-भाग में जो राजनीतिक उत्थान-पतन होते रहे, उनके कारण यह प्रदेश कभी भी एक दीर्घावधि तक एक राजनीतिक इकाई के रूप में न रह सका। प्रत्येक राजनीतिक परिवर्तन के साथ इसकी सीमा में परिवर्तन होता रहा। यह कभी एक विशाल साम्राज्य का अंग बनकर आर्यों द्वारा शासित होता रहा, कभी नागों द्वारा, कभी चेदियों द्वारा, कभी गुप्तों द्वारा, कभी चन्देलों द्वारा, कभी प्रतिहारों द्वारा, कभी बुंदेलों द्वारा और कभी विभिन्न मुस्लिम शासकों द्वारा शासित होता रहा और प्रत्येक शासन काल में इसकी सीमाएँ परिवर्तित होती रहीं। इसका कोई एक निश्चित नाम भी नहीं रहा।
बुंदेलखंड’ के अतिरिक्त ‘जेजाक भुक्ति’ भी एक ऐसा नाम है, जो कभी इस भू-भाग का द्योतक रहा। ‘इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ में बुंदेलखंड का ‘जेजाक भुक्ति’ के रूप में उल्लेख किया गया है।[1] इतिहासकारों ने राजा जेज्जाक अथवा जयशक्ति को महान् प्रतापशाली शासक कहकर उसका राज्य यमुना से नर्मदा तक विस्तृत बतलाया है।इस राजा के नाम पर ही यह यमुना से नर्मदा तक का भाग ‘जीजक’ अथवा ‘जेजक भूमि’ कहलाता था। स्व. श्रीकृष्ण बल्देव वर्मा का तर्क है कि वैदिककालीन यजुर्वेदीय कर्मकाण्ड का यहाँ ही सर्वप्रथम अभ्युदय होने के कारण यह प्रदेश ‘यजुर्होति’ कहा गया था, जिसका अपभ्रष्ट रूप ‘जैज भुक्ति’ (जीजक भुक्ति) है।
‘भुक्ति’ शब्द का अर्थ ‘प्रदेश’ (वर्तमान शब्द ‘राज्य’) है। तदनुसार जेजक भुक्ति का अर्थ जेजक द्वारा शासित प्रदेश अथवा राज्य हुआ। इतने विस्तृत भू-भाग पर महाराज छत्रसाल के पूर्व अन्य किसी भी राजा का राज्य नहीं रहा। आज जिस भू-भाग को बुंदेलखंड कहा जाता है, वह जैजाक (जयशक्ति) तथा छत्रसाल द्वारा शासित भाग ही है।
यहाँ यह भी स्मरणीय है कि महाभारतकालीन चेदि-नरेश शिशुपाल भी वर्तमान बुंदेलखंड के ही अधिकांश भाग के शासक थे। वर्तमान चन्देरी उनकी राजधानी मानी जाती है। इतिहास-कार श्री डी. महाजन ने शिशुपाल द्वारा शासित भू-भाग को वर्तमान बुंदेलखंड के समरूप लिखा है। वे चेदि-वंशीय राजाओं का शासनकाल ई. पू. 6वीं से 4थी शती मानते हैं। उन्होंने लिखा है: “जेजक भुक्ति बुंदेलखंड का प्राचीन नाम था। यह कन्नौज के प्रतिहार साम्राज्य का अंग था।”
‘बुंदेलखंड’ का एक नाम ‘दशार्ण देश’ भी बतलाया जाता है। इसका यह नाम किस काल में था, यह निश्चित रूप से कहना कठिन है; किन्तु इसका यह नाम ‘जेजक भुक्ति’ से पूर्व का ही होना चाहिये। महामाष्य के टीकाकार वैभ्यट ने लिखा है:
“दशार्ण शब्दो नदी विशेषस्य देश विशेषस्य च संज्ञा।”
अर्थात् नदी विशेष तथा देश विशेष का नाम दशार्ण है। इस कथन के अनुसार यह नदी विशेष का और देश विशेष का भी नाम है। ‘नदी विशेष’ के अर्थ में यह इस भू-भाग (बुंदेलखंड) में प्रवाहित होने वाली नदी ‘धसान’ का पूर्व नाम ‘दशार्ण’ जान पड़ता है। ‘देश विशेष’ के अर्थ में यह वह देश है, जिसमें दस नदियाँ प्रवाहित होती है। बुंदेलखंड निश्चित ही दस नदियों का देश है। जिला जालौन के जगम्मनपुर ग्राम के समीप चम्बल, पहूज, कालीसिंध और कुंवारी नामक नदियों का संगम यमुना से होता है। इस स्थान को पंचानद कहा भी जाता है। शेष पाँच नदियाँ वेत्रवती (बेतवा), मन्दाकिनी, केन, तमसा और धसान है। अतः हमें इसका नाम ‘दशार्ण’ होने में भी एक बड़ी सीमा तक सत्यता दिखाई देती है।
महाकवि कालिदास ने पूर्व ‘मेघदूत’ में यक्ष को अलका का मार्ग दिखाते हुए दशार्ण देश का उल्लेख कर उसका सौन्दर्य चित्रण किया है:
“पाण्डुच्छायोपवनवृतयः केतकै: सूचिभिन्नै-
र्नीडारंभैर्गृहवलिभुजामाकुलग्रामचैत्याः।
त्वय्यासन्नै परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ताः
संपत्स्यन्ते कतिपय दिनस्थायिहंसा दशार्णाः ।।”
सीमा
नवीं शती में चन्देलवंशी यशोवर्मा ने इसी भू-भाग में अपना राज्य स्थापित किया और कालिंजर पर अधिकार कर उसे अपने राज्य का केन्द्र बनाया। उसके राज्य की राजधानी महोबा थी। परमाल अथवा परमार्दिदेव चन्देलवंश के अंतिम शासक थे। इन्होंने सन् 1182 ई. में महाराज पृथ्वीराज के समक्ष तथा सन् 1203 ई. में कुतुबुद्दीन के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया था।
इसके पश्चात् भी इस बुंदेलखंड कहे जाने वाले भू-भाग की सीमाओं में अनेक बार परिवर्तन हुए, किन्तु अधिकांश विद्वान् इसकी सीमा उत्तर में यमुना नदी तक, दक्षिण में नर्मदा तक, पूर्व में टॉस तक और पश्चिम में चम्बल तक मानते हैं। इस प्रकार इन चारों नदियों के मध्य में स्थित भू-भाग ही बुंदेलखंड कहलाता है। स्व. दीवान प्रतिपालसिंहजूदेव बुंदेलखंड के उत्तर में यमुना और गंगा नदियों अथवा इटावा, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर तथा बनारस के जिले, दक्षिण में नर्मदा नदी और मालवा, पूर्व में टोंस और सोन नदियाँ अथवा बघेलखण्ड या रीवा राज्य और पश्चिम में बेतवा, सिन्ध तथा चम्बल नदियाँ, विन्ध्या-चल श्रेणी तथा मालवा, ग्वालियर और भोपाल राज्य बतलाते हैं। उन्होंने छत्रसाल के शासन-काल का द्योतक निम्नांकित दोहा भी लिखा है, जिसमें बुंदेलखंड की सीमा दर्शित है:
इत जमना, उत नर्मदा, इत चम्बल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू होंस ।।
प्रथम पंक्ति में पूर्व उल्लिखित चारों सीमावर्ती नदियों के ही नाम हैं। द्वितीय पंक्ति से यह छत्रसाल के राज्य की सीमा होना ज्ञात होता है; पूर्ण बुंदेलखंड की सीमा नहीं है। सम्भवतः उस काल में इन चारों नदियों के मध्य-स्थित भू-भाग ही बुंदेलखंड समझा जाता रहा
दीवान प्रतिपालसिंह जी ने इस दोहे के साथ अपना स्वरचित एक छन्द भी दिया है, जो इस प्रकार है:
“उत्तर समथल भूमि, गंग जमुना सुबहित है।
प्राची दिसि कैमूर, सोन, कासी सुललित है ।।
दक्खिन रेवा, विन्ध्याचल, तन सीतल करनी।
पच्छिम में चम्बल, चंचल सोहति मन हरनी।।
तिन मधि राजे गिरि, वन, सरिता सरित मनोहर।
कीर्तिस्थल बुन्देलन कौं, बुंदेलखंड वर ।।”
इन छन्दों में भी बुंदेलखंड की वे ही सीमाएँ बतलाई गई हैं, जो दोहे में दर्शित हैं। उन्होंने अपने कथन को स्पष्ट करते हुए लिखा है:
ग्वालियर राज्य के भिण्ड, ग्वालियर, गिर्द, नरवर, ईसागढ़ और भेलसा (वर्तमान विदिशा) के जिले अथवा उनके भाग और इसी प्रकार भूपाल राज्य के उत्तरीय और पूर्वीय निजामतों के भाग तथा मध्य प्रदेश के सागर, दमोह, जबलपुर जिले अथवा उनके भाग, रीवाँ की पश्चिमी तहसीलों के भाग और संयुक्त प्रान्त के काशी के निकट से मिर्जापुर, इलाहाबाद, बाँदा, हमीरपुर, जालौन तथा झाँसी जिले अथवा उनके भाग बुंदेलखंड के ही अंश हैं।”
इतिहासकार श्री बी. ए. स्मिथ ने लिखा है “जिस क्षेत्र में चन्देल शासकों ने राज्य किया, वह बुंदेलखंड है। यह क्षेत्र गंगा-यमुना के दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैला हुआ है। आधुनिक सागर और बेलारी जिले भी उसमें सम्मिलित हैं।”
इस कथन के अनुसार बुंदेलखंड के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश के झाँसी, जालौन, हमीरपुर और बाँदा जिले; मध्य प्रदेश के टीकमगढ़, दतिया, ग्वालियर, छतरपुर, पन्ना, सतना, सागर, दमोह से लेकर नर्मदा तक के वर्तमान विदिशा, भोपाल (सिहोर), रायसेन और होशंगाबाद जिले हैं।
इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ में बुंदेलखंड को मध्य भारत का वह भाग कहा गया है, जिसकी पूर्वी सीमा बघेलखण्ड की सीमा से मिलती है।
इस उल्लेख में बुंदेलखंड की सीमाएँ स्पष्ट नहीं है। केवल पूर्वी सीमा का उल्लेख करके छोड़ दिया गया है। डॉ. जार्ज ग्रियर्सन ने ‘गजेटियर ऑफ इंडिया’ के आधार पर लिखा है:
“Bundelkhand is the tract lying between the river Jamna on the north, the Chambal on the north-west, the Jabalpur and Saugar Divisions of the Central Provinces on the South and Rewa or Baghelkhand and the Mirzapur Hills on the South and East.”
“बुंदेलखंड वह भू-भाग है, जो उत्तर में यमुना, उत्तर-पश्चिम में चम्बल, दक्षिण में मध्य प्रदेश के जबलपुर और सागर सम्भाग तथा दक्षिण और पूर्व में रीवा अथवा बघेलखण्ड के मध्य में स्थित है और जिसके दक्षिण और पूर्व में मिर्जापुर की पहाड़ियों है।”
उन्होंने आगे लिखा है:
“Politically this area includes the British districts of Banda, Hamirpur, Jalaun and Jhansi, so much of the Gwalior Agency of Central India as consists of the home districts of the State of Gwalior, the whole of the Bundelkhand Agency and a small portion of the West side of the Bundelkhand Agency.”
राजकीय दृष्टि से इस क्षेत्र में अँग्रेजी राज्य के बाँदा, हमीरपुर, जालौन और झाँसी जिले, ग्वालियर एजेंसी, जिसमें ग्वालियर है, पूर्ण बुंदेलखंड एजेंसी तथा बघेलखण्ड एजेंसी का कुछ भाग सम्मिलित है।”
डॉ. ग्रियर्सन के द्वारा उल्लिखित बुंदेलखंड की सीमा पूर्वोल्लेखित सीमाओं से कुछ अधिक विस्तृत है। वे गजेटियर ऑफ इंडिया के अनुसार बुंदेलखंड के उत्तर में यमुना नदी, पश्चिमोत्तर में चम्बल, दक्षिण में तत्कालीन मध्य प्रदेश के सागर और जबलपुर सम्भाग तथा दक्षिण-पूर्व बघेलखण्ड (वर्तमान विन्ध्य प्रदेश) तथा मिर्जापुर की पहाड़ियाँ मानने के पश्चात् राजनीतिक दृष्टि से वे बाँदा, हमीरपुर, जालौन, झाँसी, पूर्व ग्वालियर राज्य, पूर्व बुंदेलखंड एजेंसी तथा पश्चिमी बघेलखण्ड भी बुंदेलखंड के अन्तर्गत ही मानते हैं। वे बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक नहीं मानते, जिससे उनके बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश और विन्ध्य प्रदेश का कुछ भाग तो जुड़ जाता है, पर भोपाल, रायसेन और होशंगाबाद जिले इस भू-भाग से पृथक् हो जाते हैं, जो बी.ए. स्मिथ की सीमा के अन्तर्गत हैं। हमें इतिहासकार स्मिथ तथा दीवान प्रतिपालसिंह द्वारा बतलाई गई सीमाएँ ही उचित जान पड़ती हैं। हमारी दृष्टि से इन दोनों इतिहासकारों द्वारा बतलाये गये बुंदेलखंड के क्षेत्र में नरसिंहपुर जिला भी सम्मिलित किया जाना आवश्यक है। नर्मदा को बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा स्वीकार कर लेने पर नरसिंहपुर जिले का अधिकांश भाग इस सीमा-रेखा के अन्तर्गत जा जाता है।
दीवान प्रतिपालसिंह के अनुसार बुंदेलखंड की पश्चिमी सीमा टॉस और सोन नदी को मान लेने पर बघेलखण्ड का कुछ भाग इस क्षेत्र के अन्तर्गत अवश्य आ जाता है, जैसा कि डॉ. ग्रियर्सन ने भी बतलाया है; किन्तु बघेलखण्ड के इस पूर्वी भाग को बुंदेलखंड के अन्तर्गत मानना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं जान पड़ता। हमें ऐसा लगता है कि छत्रसाल का राज्य बघेलखण्ड के इस पश्चिमी भाग तक होने के कारण ही दीवान प्रतिपालसिंह ने इसे बुंदेलखंड के अन्तर्गत बतला दिया है। पूर्वोल्लेखित दोहा और उनके स्वरचित छन्द महाराज छत्रसाल के राज्य की सीमा के द्योतक है, न कि बुंदेलखंड की सीमा के द्योतक ।
स्व. श्रीकृष्णबलदेव वर्मा ने बुंदेलखंड क्षेत्र के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश के झाँसी, जालौन, बाँदा और हमीरपुर जिले तथा भूतपूर्व बुंदेलखंड एजेंसी के ओरछा, दतिया, समथर, पन्ना, चरखारी, बिजावर, अजयगढ़, छतरपुर, अलीपुरा, टोड़ी, फतेहपुर, बिजना पहाड़ी, बंका, बरौंधा, बावनी, बेरी, बोहट, चौबियाना, कालिंजर, भैसोठा, कामता, रजौला, पालदेव, पथरा, डराव, गहरौली, गौरिहार, जसोह, जिगनी, खनियाधाना, लुगासा, नौगाँव, सरीला आदि देशी राज्यों एवं जागीरों का नामोल्लेख किया है। इसमें वर्तमान मध्य प्रदेश के सागर, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिहोर (भोपाल), रायसेन, विदिशा तथा ग्वालियर सम्भाग के जिले सम्मिलित नहीं हैं।
श्री जयचन्द विद्यालंकार ने लिखा है “बुंदेलखंड में बेतवा (वेत्रवती), धसान (दशार्ण) और केन (शुक्तिमती) के काँठे, नर्मदा की उपरली घाटी और पंचमढ़ी के अमरकंटक तक ऋक्ष पर्वत का हिस्सा सम्मिलित है, उसकी पूर्वी सीमा टॉस (तमसा) नदी है। इस प्रकार बेतवा और केन के काँठों तथा नर्मदा के उपरले कठिवाला प्रदेश बुंदेलखंड है।”[6]
श्री विद्यालंकार जी के इस कथन में रीवा सम्भाग का वह भाग भी बुंदेलखंड के अन्तर्गत आ गया है, जो वास्तव में बघेलखण्ड अथवा वर्तमान विन्ध्य प्रदेश के अन्तर्गत है।
इन विभिन्न मतों के प्रकाश में बुंदेलखंड की सीमाएँ इस प्रकार होंगी उत्तर में यमुना नदी तथा एक ओर आगरा और दूसरी ओर कानपुर जिले की दक्षिणी सीमाएँ; दक्षिण में नर्मदा नदी; पूर्व में टॉस नदी तथा बघेलखण्ड की पश्चिमी सीमा और पश्चिम के पश्चिमोत्तर भाग में चम्बल (चर्मण्वती) नदी एवं शेष पश्चिमी भाग में मालव प्रदेश की पूर्वी सीमा। इस भू-भाग के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश के झाँसी, जालौन, हमीरपुर और बाँदा जिले; ग्वालियर सम्भाग के ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना, गुना और शिवपुरी जिले; भोपाल सम्भाग के सिहोर, रायसेन, विदिशा और होशंगाबाद जिले; जबलपुर सम्भाग के जबलपुर, सागर, दमोह और नरसिंहपुर जिले तथा रीवा सम्भाग के टीकमगढ़, दतिया, छतरपुर और पन्ना जिले हैं।
हिन्दी-भाषी क्षेत्र
हिन्दी-भाषी क्षेत्र एक विस्तृत भू-भाग है। डॉ. ग्रियर्सन ने इस क्षेत्र का विस्तार उत्तर के अम्बाला क्षेत्र से पूर्व में वाराणसी तक तथा नैनीताल से लेकर दक्षिण में मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले तक बतलाया है। उन्होंने इस भाग को पश्चिमी तथा पूर्वी हिन्दी-भाषी भाग में विभाजित कर दिया है और इस क्षेत्र में पश्चिम के राजस्थान और पूर्व के बिहार क्षेत्र सम्मिलित न कर राजस्थानी और बिहारी भाषा का पृथक् विवेचन किया है। इसी प्रकार उन्होंने वर्तमान हिमाचल प्रदेश से लेकर पूर्व में नेपाल की सीमा को स्पर्श करने वाले पहाड़ी भाग को भी हिन्दी-भाषी क्षेत्र से पृथक् मानकर इस क्षेत्र की पहाड़ी बोली-समूह का भी पृथक् विवेचन किया है, किन्तु वास्तविक स्थिति इससे भिन्न है।
ऐसा जान पड़ता है कि डॉ. ग्रियर्सन की दृष्टि में शौरसेनी अपभ्रंश से उद्भूत पश्चिमी हिन्दी तथा अर्ध-मागधी अपभ्रंश से उद्भूत पूर्वी हिन्दी ही ‘हिन्दी’ है। उन्होंने भारतीय भाषा सर्वेक्षण का समस्त कार्य एक सीमित समय में किया था और वह भी तत्कालीन शासकीय कर्मचारियों और अधिकारियों के माध्यम से। ऐसी स्थिति में अनेक मूलें हो जाना सम्भव था। उनके इस सर्वेक्षण से भारतीय भाषाओं और बोलियों के वैज्ञानिक भाषायी अध्ययन का द्वार तो खुला, पर इसके साथ ही उनके संकीर्ण दृष्टिकोण तथा विस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन की न्यूनता के फलस्वरूप भाषायी संकीर्णता को भी प्रश्रय मिला। डॉ. ग्रियर्सन ने जिन भाषायी क्षेत्रों को हिन्दी-भाषा के क्षेत्र से पृथक् स्थान दिया, उन क्षेत्रों के भारतीयों में अपने को भिन्न समझने की संकीर्ण मनोवृत्ति जाग्रत हुई। जबकि न तो ये क्षेत्र ही हिन्दी-भाषी क्षेत्र से पृथक् हैं और न इन क्षेत्रों में प्रचलित भाषाएँ अथवा बोलियाँ ही पृथक् हैं। राजस्थानी, बिहारी और पहाड़ी को हिन्दी से पृथक् मानना हाथ, पैर, मुँह आदि को मूल शरीर से पृथक् मानने के समान ही हास्यास्पद है।
डॉ. ग्रियर्सन का काल विदेशी शासन का काल था, जिसमें संयोजन की अपेक्षा विभाजन का ही अधिक महत्व था। यह देखते हुए वे इस पृथकतावादी दृष्टिकोण के लिये अधिक दोषी भी नहीं कहे जा सकते। दूसरे, उन्हें इतना अवकाश भी नहीं था कि वे इन सब भाषाओं को तुलनात्मक अथवा व्यावहारिक दृष्टि से देखते। इन हिन्दी से पृथक् कही जाने वाली भाषाओं की अपनी कोई लिपि अथवा साहित्यिक परम्परा नहीं है। इनकी विशेषकर राजस्थानी और बिहारी की जो साहित्यिक परम्परा कही जाती है, वह वास्तव में हिन्दी की ही साहित्यिक परम्परा है। दूसरे स्थानों में इन्हें राजस्थानी हिन्दी और बिहारी हिन्दी कहा जाता है। जिसे डॉ. ग्रियर्सन ने हिन्दी क्षेत्र कहा है, उस क्षेत्र की हिन्दी भी उस समस्त भू-भाग- अम्बाला से दक्षिण में बालाघाट अथवा डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार बिलासपुर और खण्डवा तक एक रूप नहीं है। अम्बाला (हरियाना) की हिन्दी उत्तर प्रदेश की हिन्दी से और उत्तर प्रदेश की हिन्दी दक्षिण मध्य प्रदेश की हिन्दी से कुछ न कुछ भिन्न अवश्य है। यह देखते हुए इस क्षेत्र की हिन्दी को भी हरियानी हिन्दी, इलाहाबादी हिन्दी, छत्तीसगढ़ी हिन्दी, मालवी हिन्दी आदि कहा जा सकता है, किन्तु इससे ये क्षेत्र विशाल हिन्दी-क्षेत्र से पृथक् नहीं माने जा सकते। डॉ. हरदेव बाहरी ने ठीक ही कहा है कि “ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी ‘मध्य देश’ की भाषाओं-संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी है। यदि इस मध्य देश में से कोई बोली उठकर भाषा की पदवी प्राप्त कर लेती है, तो वह हिन्दी ही कहलायेगी। इंग्लैण्ड में पहिले कार्नवाल की बोली को आदर्श अँग्रेजी माना गया। बाद में लन्दन की बोली भाषा बनी और यह भी अँग्रेजी कहलाती है। इसी प्रकार ब्रजभाषा हो अथवा खड़ी बोली और कल चाहे भोजपुरी व्यापक हो जाये, हम उसे हिन्दी ही कहेंगे।”
हम देखते हैं कि राजस्थानी में पश्चिमी हिन्दी की और बिहारी में पूर्वी हिन्दी की अधिकांश प्रवृत्तियाँ विद्यमान है। पहाड़ी बोलियाँ – खस, खासी, गढ़वाली, कुमायूँनी आदि भी न हिन्दी से अधिक भिन्न हैं और न उनमें किसी दूसरी भाषा की प्रवृत्तियाँ ही दिखाई देती है। अतः इन्हें राजस्थानी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाड़ी हिन्दी कहना ही अधिक तर्क-संगत और उचित है। ये पाँचों-पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाड़ी हिन्दी की समन्विति का नाम ही वास्तव में ‘हिन्दी भाषा’ है और भारत के जिस भू-भाग में हिन्दी की ये पाँचों उपभाषाएँ विस्तृत हैं, वहीं हिन्दी-भाषी क्षेत्र है।
इस प्रसंग में श्री आर. जी. लेथम का मत भी उल्लेखनीय है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में राजस्थानी को हिन्दी का ही रूप स्वीकार करते हुए लिखा है:
The Marwari is the Hindi of Marwar- the chief dialect of Rajputana. The Bikaneri is another Hindi dialect. It is a dialect of Northern India, which is not Gujarati, not Marathi, not Bengali and not Uriya and which more Hindi than aught else.”
“मारवाड़ी मारवाड़ की हिन्दी है, जो राजस्थान की प्रमुख बोली है। बीकानेरी दूसरी हिन्दी बोली है। यह उत्तरी भारत की एक बोली है।
वे अपने इस कथन पर बल देते हुए कहते हैं: “यह न गुजराती है, न मराठी है, न बंगाली है और न उड़िया है। यह किसी भी अन्य भाषा की अपेक्षा हिन्दी अधिक है।”
भारतीय संविधान ने भी इसी क्षेत्र को हिन्दी-क्षेत्र स्वीकार किया है। तदनुसार इस क्षेत्र के उत्तर में अम्बाला, नेपाल की पूर्व-पश्चिमी सीमा, दक्षिण में मध्य प्रदेश का पूर्व निमाड़, पश्चिम निमाड़, सिवनी, बालाघाट और दुर्ग जिले, पूर्व में मध्य प्रदेश का रायगढ़ और बिहार का भागलपुर जिला तथा पश्चिम में राजस्थान की पश्चिमी सीमा तक का भाग है। यह पूर्ण क्षेत्र लगभग 1100 मील लम्बा और लगभग 700 मील चौड़ा है। सन् 1961 की जनगणना के अनुसार इस क्षेत्र की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ अर्थात् सम्पूर्ण देश की जनसंख्या की 40 प्रतिशत है। बुंदेली इस क्षेत्र की प्रमुख उपभाषा ‘पश्चिमी हिन्दी’ की एक महत्वपूर्ण बोली है।
बुंदेलीभाषी-क्षेत्र
ऊपर बुंदेलखंड का जो क्षेत्र बतलाया है, वह समस्त बुंदेलीभाषी नहीं है। यद्यपि बुंदेली अथवा बुन्देलखण्डी से उसी लोकभाषा से तात्पर्य है, जो बुंदेलखंड में बोली जाती है। यह उपर्युक्त क्षेत्र के अधिकांश भू-भाग की बोली है, इसलिये इसे बुन्देलखण्डी कहा गया है; किन्तु यह सम्पूर्ण बुंदेलखंड में प्रचलित नहीं है। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार एक तो यह उपर्युक्त क्षेत्र के बाँदा जिले की बोली नहीं है। दूसरे, चम्बल नदी ग्वालियर राज्य की उत्तरी और पश्चिमी सीमा का निर्माण करती है, किन्तु बुंदेली उत्तर में चम्बल तक ही सीमित नहीं है, यह इस नदी को पार कर आगरा, मैनपुरी और इटावा जिले के दक्षिणी भाग में भी बोली जाती है। पश्चिम में यह चम्बल तक भी नहीं बोली जाती। ग्वालियर राज्य के पश्चिमी भाग (उनका तात्पर्य वर्तमान मुरैना और शिवपुरी के पश्चिमी भाग से है) में ब्रज और राजस्थान की कुछ बोलियों से मिश्रित बुंदेली बोली जाती है। इसी प्रकार दक्षिण में यह नर्मदा को पार कर आगे बढ़ गई है। यह नर्मदा के पार होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले में ही नहीं, पर सिवनी जिले में भी बोली जाती है। यह बालाघाट के लोधियों द्वारा तथा छिन्दवाड़ा जिले के मध्य भाग की जनता द्वारा भी बोली जाती है। इस प्रकार यह 19 हजार वर्गमील में बसे लगभग 70 लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली लोक भाषा है। इसके बोलने वालों की संख्या अब लगभग 1 करोड़ है।
यहाँ कुछ अन्य विद्वानों द्वारा बुंदेली भाषी क्षेत्र की बतलाई गई सीमा-रेखा पर भी विचार कर लेना अप्रासंगिक न होगा। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, बुंदेली शुद्ध रूप में झाँसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, भोपाल, ओरछा (टीकमगढ़), सागर, नरसिंहपुर, सिवनी तथा होशंगाबाद में बोली जाती है। इसके मिश्रित रूप दतिया, पन्ना, चरखारी, दमोह, बालाघाट तथा नागपुर में प्रचलित हैं।
इस क्षेत्र में जबलपुर, छतरपुर, विदिशा; ग्वालियर सम्भाग के भिंड, मुरैना, शिवपुरी और गुना एवं छिन्दवाड़ा जिला छूट गए हैं। हम यह भी स्पष्ट कर दें कि इन जिलों में से डॉ. ग्रियर्सन ने जबलपुर जिले को बघेली-भाषी कहा है, जबकि इस जिले की कटनी तहसील के अतिरिक्त शेष जिले की बोली निश्चित रूप से बुंदेली है।
डॉक्टर धीरेन्द्र वर्मा शुद्ध बुंदेली के क्षेत्र के अन्तर्गत झाँसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, भोपाल, ओरछा, सागर, नरसिंहपुर, सिवनी तथा होशंगाबाद और मिश्रित बुंदेली का क्षेत्र दतिया, पन्ना, चरखारी, दमोह, बालाघाट तथा छिन्दवाड़ा के कुछ भाग मानते हैं।
डॉ. उदयनारायण तिवारी ने लिखा है कि “चम्बल नदी वस्तुतः ग्वालियर की उत्तरी सीमा निर्धारित करती है, किन्तु उत्तर में बुंदेली चम्बल तक ही नहीं बोली जाती, अपितु उसके पार आगरा, मैनपुरी तथा इटावा के दक्षिणी भाग में भी पाई जाती है। पश्चिम में यह चम्बल नदी तक नहीं बोली जाती है। पश्चिमी ग्वालियर में ही ब्रजभाषा तथा राजस्थानी की विभिन्न उपबोलियाँ बोली जाती हैं। दक्षिण में इसकी सीमा बुंदेलखंड से बहुत आगे चली गई है। उधर यह केवल दमोह, सागर तथा भोपाल के पूर्वी भाग में ही नहीं बोली जाती, अपितु मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर, होशंगाबाद तथा सिवनी जिले में भी बोली जाती है। बालाघाट और छिन्दवाड़ा के मध्य भाग की जनता भी एक प्रकार की बुंदेली ही बोलती है। इसी प्रकार नागपुर के मैदान की भाषा यद्यपि मराठी है, फिर भी मिश्रित बुंदेली बोलने वाली अनेक जातियाँ वहाँ बस गई हैं।
‘बुंदेली’ पर कुछ नवीन शोध कार्य भी हुए हैं, जिनमें डॉ. एम. पी. जायसवाल, डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल, श्रीचन्द जैन, डॉ. कस्तूरचन्द जैन आदि के कार्य प्रमुख हैं। इनमें से डॉ. जायसवाल ने शुद्ध बुंदेली-भाषी जिले टीकमगढ़, सागर, झाँसी, जालौन जिले का अधिकांश भाग, हमीरपुर, ग्वालियर जिले के चन्देरी एवं मुंगावली क्षेत्र, भोपाल, सागर, भेलसा (विदिशा) जिले का आधा पश्चिमी भाग एवं दतिया की सीमा के भाग बतलाये हैं। उनके शेष बुंदेली-भाषी जिले छतरपुर, पन्ना, दमोह, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिवनी, बालाघाट, छिन्दवाड़ा तथा दुर्ग के कुछ भाग हैं। उन्होंने बाँदा जिले को भी बुंदेली-भाषी क्षेत्र के अन्तर्गत स्थान दिया है। इसी प्रकार वे नागपुर बाँदा, बुलढाना तथा अकोला जिले के भी कुछ भागों में बुंदेली का प्रयोग स्वीकार करते हैं।
इन स्थानों में से बाँदा के सम्बन्ध में पहिले कहा जा चुका है कि वहाँ अवधी और बघेली का एक मिश्रित रूप बोला जाता है। उसके पश्चिमी सीमावर्ती भाग की बोली में बुंदेली का कुछ मिश्रण अवश्य दिखाई देता है, पर इससे पूर्ण जिला बुंदेलीभाषी नहीं कहा जा सकता। अन्य विद्वानों की तरह डॉ. जायसवाल ने भी जबलपुर को बुंदेली-भाषी क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं माना, जिसे डॉ. ग्रियर्सन की 75 वर्ष पूर्व की मान्यता की स्वीकृति मात्र ही कहा जा सकता है। उनके दुर्ग जिले के कुछ भाग को बुंदेली-भाषी कहना भी वास्तविकता से परे है। यह पूर्ण जिला छत्तीसगढ़ी-भाषी है। वहाँ कुछ बुंदेली-भाषियों के बसे होने से ही वह भाग बुंदेली-भाषी नहीं हो सकता। कुछ बुंदेली-भाषी तो अन्य अनेक स्थानों में मिल सकते हैं।
डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल ने बुंदेलखंड के अन्तर्गत आने वाले जिलों- जालौन, हमीरपुर, झाँसी, बाँदा, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह, सागर, नरसिंहपुर, भिण्ड, दतिया, ग्वालियर, शिवपुरी, मुरैना, गुना, विदिशा, रायसेन और होशंगाबाद का नामोल्लेख करने के पश्चात् लिखा है: “भाषायी व्यापकता की दृष्टि से उक्त सीमा में कुछ परिवर्तन आवश्यक होंगे, जैसे नर्मदा के दक्षिण में स्थित छिन्दवाड़ा, सिवनी तथा बैतूल के जिले मराठी-मिश्रित होते हुए भी बुंदेली भाषा-भाषी ही ठहरेंगे, साथ ही पूर्व स्थित बाँदा जिला बुंदेली के अन्तर्गत नहीं लिया जा सकता।”
डॉ. अग्रवाल का बाँदा को बुंदेली-भाषी क्षेत्र में स्थान न देना सर्वथा उचित ही है, किन्तु एक तो उन्होंने पूर्व ग्रन्थगत मान्यता के अनुसार जबलपुर को बुंदेली-भाषी क्षेत्र के अन्तर्गत स्थान नहीं दिया और दूसरे, मालवी-भाषी बैतूल जिले को मिश्रित बुंदेली का क्षेत्र मान लिया है। बुंदेली-भाषी क्षेत्र के अधिक विस्तृत होने के कारण इस प्रकार की भूलें स्वाभाविक हैं, किन्तु यदि शोधकर्ता पूर्ण क्षेत्र की कम से कम एक बार यात्रा कर लें और संबंधित गजेटियर भी देख लें, तो ऐसी भूलों की सम्भावना बहुत कम हो जाती है। बैतूल और होशंगाबाद गजेटियर में भी बैतूल को मालवी-भाषी बतलाया गया है।डॉ. अग्रवाल ने सिहोर (भोपाल) जिले को बुंदेली-भाषी क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं माना है, जबकि उसके कुछ पश्चिमी भाग के अतिरिक्त पूर्ण जिला बुंदेली-भाषी है।
हमारे सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश के जिन चार जिलों झाँसी, जालौन, हमीरपुर और बाँदा को बुंदेलखंड के अन्तर्गत माना गया है, उनमें से बाँदा जिला बुंदेली-भाषी नहीं है। वहाँ अवधी का एक रूप बोला जाता है। चम्बल नदी ग्वालियर की उत्तरी और पश्चिमी सीमा पर बहती है, जिसके साथ बुंदेलखंड की सीमा समाप्त हो जाती है, किन्तु बुंदेली इस सीमा को लाँघकर आगरा, मैनपुरी और इटावा जिले के दक्षिणी भागों में भी बोली जाती है, जबकि आगरा ब्रज भाषा का और मैनपुरी तथा इटावा कन्नौजी के क्षत्र माने जाते हैं।
दक्षिण में नर्मदा के साथ बुंदेलखंड की सीमा समाप्त हो जाती है, किन्तु इस सीमा के आगे होशंगाबाद के मध्य तथा पूर्वी भाग और नरसिंहपुर जिले में भी बुंदेली ही बोली जाती है। हमने ऊपर जबलपुर जिले को बुंदेलखंड के अन्तर्गत बतलाया है, किन्तु इस पूरे जिले में बुंदेली नहीं बोली जाती। इस जिले के उत्तरी भाग में स्थित कटनी तहसील में बुंदेली और बघेली का एक ऐसा मिश्रित रूप बोला जाता है, जिसमें बघेली के रूप की ही अधिकता है। उस पर बुंदेली का प्रभावमात्र कहा जा सकता है और वह भी इस तहसील के उस भाग में, जो दमोह जिले की पूर्वी सीमा को स्पर्श करता है।
भोपाल सम्भाग के भोपाल, विदिशा और रायसेन जिले तो निश्चित रूप से बुंदेली-भाषी हैं, किन्तु सिहोर जिले की सिहोर तहसील के पश्चिमी भाग तथा आष्टा तहसील में केवल मालवी-मिश्रित बुंदेली बोली जाती है। इस जिले का केवल वही भाग बुंदेली-भाषी है, जो उत्तर में विदिशा जिले से और दक्षिण में होशंगाबाद जिले से लगा हुआ है।
दक्षिण में नर्मदा को लाँघकर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले में ही बुंदेली का प्रवाह अवरुद्ध नहीं हो जाता, इसके दक्षिण में छिन्दवाड़ा जिले की नरसिंहपुर जिले से लगी हुई अमरवाड़ा तहसील, मध्य छिन्दवाड़ा तथा सिवनी जिले की लखनादौन तहसील, जो एक ओर नरसिंहपुर जिले से तथा दूसरी ओर जबलपुर जिले से लगी हुई है, बुंदेली-भाषी है। सिवनी तहसील के नागपुर जिले से लगे हुये पश्चिमी भाग के अतिरिक्त शेष भाग में जो लोकभाषा प्रचलित है, वह भी बुंदेली का ही एक रूप है। इस प्रकार बुंदेली-भाषी क्षत्र बुंदेलखंड क्षेत्र से कहीं अधिक विस्तृत है। यहाँ हम यह भी उल्लेख कर देना आवश्यक समझते हैं कि इस क्षेत्र के अतिरिक्त, नागपुर, बाँदा तथा बुलढाना जिले के कुछ स्थानों में वर्षों से बसे जो कोष्टी और कुम्हार जाति के लोग हैं, वे भी मराठी-मिश्रित बुंदेली ही बोलते हैं। अब इनकी बोली से बुंदेली क्रमशः न्यून होती जा रही है। इसी प्रकार बालाघाट जिले के लोधी और पंवार जाति के लोग जो बोली बोलते हैं, वह भी बुंदेली का ही एक रूप समझा जा सकता है; जिसमें अब कुछ छत्तीसगढ़ी, मराठी और कुछ गोण्डी के शब्दों का भी मिश्रण हो गया है। स्पष्ट है कि ये लोग बुंदेलखंड से ही जाकर नागपुर, चांदा, बालाघाट आदि जिले में बसे होंगे और पहिले इनकी मूल पारिवारिक भाषा बुंदेली ही रही होगी।
हम बुंदेलखंड की तरह बुंदेली-भाषी क्षेत्र को निश्चित सीमा-रेखाओं से तो नहीं बांध सकते, किन्तु उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर निम्नांकित क्षेत्र को बुंदेली-भाषी कह सकते हैं:
उत्तर प्रदेश के झाँसी, जालौन और हमीरपुर जिले तथा आगरा, मैनपुरी और इटावा का दक्षिणी भागः ग्वालियर जिले का अधिकांश भाग, भिण्ड, मुरैना, गुना, शिवपुरी, दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर, दमोह और कटनी तहसील के अतिरिक्त जबलपुर जिला, आष्टा और सिहोर तहसील का कुछ पश्चिमी भाग छोड़कर शेष सिहोर जिला; भोपाल, विदिशा, रायसेन, होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसील, नरसिंहपुर, छिन्दवाड़ा जिले की अमरवाड़ा और छिन्दवाड़ा तहसील का पूर्वोत्तर एवं मध्य भाग, सिवनी जिले की लखनादौन तहसील तथा सिवनी तहसील का मध्य-पूर्वी भाग।
बुंदेलखंड में एक दोहा बुझौवल के रूप में प्रसिद्ध है, जो बुंदेली-भाषी क्षेत्र की लगभग यही अभिव्यक्ति करता है:
“भैंस बँधी है, ओरछै, पड़ा होशंगाबाद।
लगवैया है सागरे, चपिया रेवा-पार ।”
इस बुझौवल का उत्तर है ‘बुंदेली।’बुझौवलकार ने अपनी इस रचना-द्वारा बुंदेली-भाषी क्षेत्र हमारे सामने उपस्थित कर दिया है। इस बुझौवल के अनुसार बुंदेली का क्षेत्र ओरछा (टीकमगढ़) राज्य से दक्षिण में नर्मदा के आगे तक का भू-भाग बतलाया है। इसमें ग्वालियर सम्भाग तथा उत्तर प्रदेश के झाँसी सम्भाग के तीन जिले झाँसी, जालौन और हमीरपुर छूट गये हैं।
बुंदेली अथवा बुन्देलखण्डी
भारत की अधिकांश आर्य-भाषाओं तथा उनकी बोलियों के नाम उनके क्षेत्र के नाम पर आधारित हैं; यथा-पंजाब की पंजाबी, राजस्थान की राजस्थानी, गुजरात की गुजराती, बंगाल की बंगाली अथवा बंगला, आसाम की आसामी अथवा असमिया, बिहार की बिहारी, उड़ीसा की उड़िया, महाराष्ट्र की महाराष्ट्री अथवा मराठी। इसी प्रकार अवध की अवधी, ब्रज की ब्रजी अथवा ब्रज, कन्नौज की कन्नौजी, बघेलखण्ड की बघेली, मालवा की मालवी, निमाड़ की निमाड़ी। इसी आधार पर बुंदेलखंड की लोकभाषा बुन्देलखण्डी अथवा बुंदेली कहलाती है। ये नाम स्थानवाची है, वैज्ञानिक नहीं। पहिले बतलाया जा चुका है कि गहरवारवंशी महाराज रुद्रप्रताप ने ओरछा और उसके निकटवर्ती क्षेत्र को सुव्यवस्थित कर इस भू-भाग में बुंदेला-राज्य स्थापित किया था। (अनु.5) इनके शासन काल का आरम्भ सन् 1504 ई. माना जाता है। ये प्रथम बुंदेला शासक थे। इनके पश्चात् इनके पुत्र भारतीचंद्र ने इस राज्य का विस्तार उत्तर में तथा दक्षिण-पूर्व में कालिंजर और महोबा तक किया था। इसी समय से यह भू-भाग बुंदेलखंड कहलाया। बुंदेलखंड की लोकभाषा होने के कारण ही यह बुन्देलखण्डी नाम से अभिहित हुई; अतः इसका यह वर्तमान नामकरण भी ‘बुंदेलखंड’ नामकरण से प्राचीन नहीं हो सकता। यह देखते हुए ‘बुंदेली’ अथवा ‘बुन्देलखण्डी’ अपने वर्तमान नाम में चार सौ वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं हो सकती। इसका यह अर्थ नहीं है कि बुंदेली के अपने वर्तमान नाम में आविर्भूत होने के पूर्व इस क्षेत्र में कोई भाषा, उपभाषा अथवा बोली का अस्तित्व ही नहीं था। भाषा अथवा बोली जन-जीवन की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन होती है। जब प्रागैतिहासिक काल से ही इस भू-खण्ड में जन-जीवन क्रियाशील रहा, तब उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में यहाँ कोई न कोई भाषा-बोली अथवा बोलियाँ अवश्य रही होंगी और यह भी निश्चित है कि 16वीं शती में बुंदेली का जन्म यकायक नहीं हो गया होगा। इस क्षेत्र में पहिले कोई लोकभाषा अवश्य रही होगी। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इस लोकभाषा को प्रथम बुंदेला शासक महाराज रुद्रप्रताप के काल में वर्तमान नाम प्राप्त हुआ और इसके पश्चात् ही इसका क्रमिक विकास भी हुआ।
भाषायी सीमा
इस बुंदेली-भाषी क्षेत्र के उत्तर में ब्रजभाषा का क्षेत्र, पूर्वोत्तर में कन्नौजी-भाषी क्षेत्र, दक्षिण में मराठी-भाषी क्षेत्र, पूर्व में बैसवाड़ी (अवधी का एक रूप) और बघेली क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व में छत्तीसगढ़ी क्षेत्र, पश्चिमोत्तर में राजस्थानी तथा ब्रजभाषी क्षेत्र तथा पश्चिम में राजस्थानी, मालवी एवं निमाड़ी-भाषी क्षेत्र है।
दो भाषाओं अथवा बोलियों के सीमावर्ती क्षेत्र की भाषा स्वभावतः एक मिश्रित रूप धारण कर लेती है। जिस प्रकार दो विभिन्न संस्कृतियों के परस्पर सम्पर्क के कारण दोनों में से किसी भी एक का मूल रूप सुरक्षित नहीं रह पाता और दोनों के मिश्रित रूप से संस्कृति के एक नवीन रूप का जन्म होता है; और जिस प्रकार दो जातियों के मिश्रण से एक नवीन तृतीय जाति का उदय होता है, जैसा कि हमारे देश में होता रहा है; उसी प्रकार दो सीमावर्ती भाषा अथवा बोलियाँ भी परस्पर प्रभावित होती हैं और वे एक दूसरे की कुछ प्रवृत्तियाँ ग्रहण कर एक नया रूप धारण करती हैं। बुंदेली के सीमावर्ती क्षेत्र की भी यही स्थिति है।
बुंदेली-भाषी क्षेत्र की उत्तरी सीमा ब्रजभाषी क्षेत्र की दक्षिणी सीमा से मिलती है। परिणामस्वरूप इन दोनों लोकभाषाओं के मिलन-क्षेत्र की भाषा बुंदेली और ब्रज का एक मिश्रण बन गई है। ग्वालियर सम्भाग के मुरैना जिले के उत्तरी और उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के दक्षिणी भाग की भाषा की यही स्वरूप है। इसे बुंदेली-भाषी बुंदेली के क्षेत्र में और ब्रजभाषी ब्रज के क्षेत्र में मानते हैं, जबकि यह दोनों का मिश्रित क्षेत्र है। डॉ. ग्रियर्सन ने इस सीमावर्ती क्षेत्र को बुंदेली का क्षेत्र माना है।
बुंदेली-भाषी क्षेत्र के पूर्वोत्तर में पश्चिमी हिन्दी की दूसरी बोली कन्नौजी का क्षेत्र है। इन दोनों बोलियों के परस्पर सम्पर्क के कारण मध्य प्रदेश के भिण्ड जिले के उत्तरी भाग तथा उत्तर प्रदेश के मैनपुरी और इटावा जिले के दक्षिणी भाग की लोकभाषा बुंदेली और कन्नौजी का एक मिश्रित रूप बन गया है। कन्नौजी-भाषी पूर्ण मैनपुरी और इटावा की भाषा को कन्नौजी मानते हैं। डॉ. ग्रियर्सन ने इस बुंदेली और कन्नौजी के मिश्रित रूप वाले सीमावर्ती क्षेत्र को बुंदेली-क्षेत्र के अन्तर्गत स्वीकार किया है।
बुंदेली-भाषी क्षेत्र की दक्षिणी सीमा से मराठी-भाषी क्षेत्र की उत्तरी सीमा आरम्भ होतो है। इस सीमावर्ती क्षेत्र में मराठी की अपनी सर्वथा पृथक् विशिष्ट प्रवृत्ति और रूप के कारण बुंदेली और मराठी का मिश्रण नहीं हो सका। इस क्षेत्र में बुंदेली का मराठी पर और मराठी का बुंदेली पर नाममात्र का ही प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस किंचित् प्रभाव के कारण मध्य प्रदेश के छिन्दवाड़ा जिले की सोसर तहसील (मराठी-भाषी) के हिन्दी-भाषी बोलचाल में हिन्दी अथवा बुंदेली के साथ कुछ मराठी के शब्दों का भी प्रयोग करते देखे जाते और मराठी-भाषियों के मुख से मराठी के साथ कुछ हिन्दी के शब्द भी निकल जाते हैं। छिन्दवाड़ा जिले के जामई क्षेत्र से मध्य छिन्दवाड़ा तक और सौंसर तहसील में भी पवार जाति के लोग अधिक संख्या में बसे हुये हैं। ये मालवी-भाषी क्षेत्र (धार, देवास आदि) से जाकर वहाँ बसे थे। इनकी मूल भाषा मालवी है, किन्तु इस बुंदेली-भाषी क्षेत्र में 15वीं शती से लगातार बसे होने के कारण इनकी जातीय अथवा पारिवारिक भाषा मालवी और बुंदेली का एक मिश्रण हो गई है। इसमें कुछ शब्द मराठी के भी मिल गए हैं। डॉ. ग्रियर्सन ने इनकी इस भाषा को भी बुंदेली का ही एक रूप स्वीकार कर इसे ‘पवारी’ नाम दिया है।
बुंदेली-भाषी क्षेत्र की पूर्वी सीमा से क्रमशः बैसवाड़ी और बघेली का क्षेत्र आरम्भ होता है, जिससे इस सीमावर्ती क्षेत्र की बुंदेली ने बैसवाड़ी और बघेली से मिलकर एक नया रूप ग्रहण कर लिया है। इसका यह बैसवाड़ी-मिश्रित रूप उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के कुछ भाग में और बघेली मिश्रित रूप दमोह जिले के पूर्वी सीमावर्ती भाग तथा जबलपुर जिले की कटनी तहसील में देखा जा सकता है। दमोह तथा पन्ना जिले के भी पूर्वी सीमावर्ती भाग की बुंदेली पर बघेली का प्रभाव है। कटनी तहसील की लोकभाषा बुंदेली-प्रभावित बघेली है। इसी के आगे पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी भाग से छत्तीसगढ़ी का क्षेत्र आरम्भ होता है।
इस भाषायी क्षेत्र की पश्चिमी सीमा से उत्तरी भाग में मालवी और उसके दक्षिण में निमाडी-भाषी क्षेत्र की सीमाएँ आरम्भ होती हैं। जिससे गुना, शिवपुरी और सिहोर जिले के पश्चिमी नाग की बुंदेली मालवी से मिश्रित हो गई है। गुना की चाचौरा, शिवपुरी की पोहरी, कोलारस और सिहोर की सिहोर तहसील के पश्चिमी भाग की लोकभाषा इसी प्रकार की है।
जैसा कि पूर्व कहा जा चुका है, होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसील की लोकभाषा तो बुंदेली है, पर इस जिले की सिवनी और हरदा तहसील की लोकभाषा न पूर्णरूपेण बुंदेली कही जा सकती है न मालवी और न निमाड़ी ही। बुंदेली-भाषी होशंगाबाद तहसील की पश्चिमी सीमा से सिवनी तहसील की सीमा आरम्भ होती है, जो वास्तव में मालवी-भाषी क्षेत्र के अन्तर्गत है, किन्तु इन दोनों तहसीलों को सीमावर्ती लोकभाषा बुंदेली और मालवी का एक मिश्रित रूप बन गई है। यह मिश्रण कुछ ऐसा है, जिसे देख कर यह नहीं कहा जा सकता कि उसके रूप में बुंदेली और मालवी में से किसका रूप अधिक और किसका कम है। इस सीमावर्ती क्षेत्र से हम ज्यों-ज्यों पश्चिम की ओर बढ़ते जाते हैं, हमें मालवी का अधिक निखरता रूप दिखाई देने लगता है। इस प्रकार हम हरदा तहसील में प्रवेश करते हैं। इसी तहसील की पश्चिमी सीमा से निमाड़ी-भाषी क्षेत्र आरम्भ होता है। हरदा तहसील के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र की लोकभाषा का मालवी और निमाड़ी का एक मिश्रित रूप होना तो स्वाभाविक है, पर इस तहसील के शेष भाग की लोकभाषा को भी मालवी और निमाड़ी का एक मिश्रण ही कहा जा सकता है। जिस पर बुंदेली का भी कुछ प्रभाव परिलक्षित होता है। इसके इस विचित्र मिश्रित रूप को वहाँ के लोग ‘भवाने की बोली’ कहते हैं।