दतिया : ऐतिहासिक धरोहर
October 8, 2024दतिया गन्तव्य जानकारी
October 8, 2024दतिया क्षेत्र की प्राचीनता आदि मानव के विकास काल तक जाती है। इंदरगढ़ के समीप मिले पाषाण युगीन पत्थर के औजार राष्ट्रीय संग्रहालय कलकत्ता में हैं। ब्रह्मा के मानस पुत्रों ने सनकुँआ में तपस्या की थी। महाभारत काल में वर्तमान केवलारी गाँव केवली नामक बड़ा नगर था। आज का भांडेर भद्रावती नामक पुरातन नगर रहा है। पीताम्बरा पीठके भीतर स्थापित वनखण्डी महादेव भी महाभारत कालीन हैं। गुजर्रा में स्थित अशोक का शिलालेख इस क्षेत्र का मौर्य कालीन अवशेष है। सोनागिर का आदिनाथ मंदिर भी एक हजार वर्ष पुराना बताया जाता है। पवाया के समीप होना प्रमाणित करता है कि दतिया नागवंशी राजाओं के राज्य का भी हिस्सा रहा है। अलाउद्दीन खिलजी ने रतनगढ़ पर आक्रमण किया था।
वास्तविक रुप से दतिया राज्य की नींव 1592 में पड़ी, जब ओरछा के राजा मधुकर शाह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र रामशाह को ओरछा की गद्दी सौंपी और वीर सिंह देव को बड़ौनी की जागीर दी गई। अपनी महत्वाकांक्षा के चलते वीर सिंह देव ने आसपास के मुगल इलाकों पर छापे मारना शुरू कर दिया। इस कारण वे अकबर के कोप भाजन बन गए। अकबर ने उनके विरुद्ध सेना भेजी। मुगल सेना से जीत पाना संभव नहीं था, तब उन्हें भागना पड़ा। अपनी भावी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने विद्रोही शहजादे सलीम से मित्रता कर उसका साथ दिया। सन 1603 में दक्षिण से लौट रहे मुगल सेनापति अबुल फजल की हत्या कर दी, और उसका सर काटकर सलीम के पास इलाहाबाद भेज दिया। सलीम इससे बहुत प्रसन्न हुआ, पर अकबर इस दुःखद घटना से बहुत नाराज हो गया। उसने वीर सिंह को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए सेनायें भेजीं। वीर सिंह के लिए यहबुरा समय था, पर अच्छे दिन आने वाले थे।
सन् 1605 में अकबर की मृत्यु हो गई और सलीम जहांगीर के नाम से मुगल सम्राट बना। तब वीर सिंह के उन्नति के द्वार खुल गए। जहांगीर ने अपनी मित्रता निभाई। वीर सिंहको ओरछा का राज्य मिला और रामशाहको चंदेरी जाना पड़ा। सन् 1627 में वीर सिंह बुंदेला की मृत्यु हो गई। मृत्यु के पूर्व उन्होंने ओरछा की गद्दी ज्येष्ठ पुत्र जुझार सिंह को तथा बड़ौनी की जागीर भगवान दास अथवा भगवान राय को दी गई। भगवान दास का ओरछा की गद्दी पर दावा था, पर जुझार सिंह के मुकाबले वे सफल नहीं हो सके। अतः वीर सिंह के जीवन काल में ही वे 20 अक्टूबर 1626 को दतिया चले आये। दतिया राज्य की वास्तविक शुरुआत यहीं से हुई। भगवान दास जीवन पर्यन्त मुगल सत्ता के प्रति निष्ठावान रहे। मुगलों के दक्षिण अभियान में वे साथ रहे। जुझार सिंह के प्रति उनके मन में खटास रही। जुझार सिंह के विद्रोह और ओरछा पर मुगलों का अधिकार हो जाने के बाद जब शाहजहाँ दतिया आया, तो उसका स्वागत किया गया।
सन् 1640 में भगवान दास की मृत्यु पश्चात् शुभकरण दतिया के शासक बने। वे असाधारण योद्धा थे, तथा अपने पिता के साथ बलख, बदख्सा और कंधार अभियान में मुगलों की ओर से लड़कर औरंगजेब के प्रिय पात्र बन चुके थे। शुभकरण की मृत्यु के बाद उनके पुत्र दलपत राय 1678 में दतिया के शासक बने। उन्होंने दतिया को एक नगर के रूप में स्थापित किया। उन्होंने दक्षिण में मुगलों की ओर से पराक्रम का प्रदर्शन किया। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्रों में हुए युद्ध में इन्होंने आजम का साथ दिया। सन् 1707 में धौलपुर के पास जाजऊ के मैदान में हुए युद्ध में तोप का गोला लगने से उनकी मृत्यु हो गई। दलपत राय के बाद उनके पुत्र रामचंद्र ने अपने भाई भारती चंद को परास्त कर दतिया की गद्दी प्राप्त की। यह मुगल सत्ता के पतन का समय था।
छत्रसाल ने कालपी के सूबेदार मोहम्मद खान बंगस के विरुद्ध किये गये सहयोग के लिए बुंदेलखंड का एक तिहाई हिस्सा बाजीराव पेशवा को दे दिया, तब मराठों ने दतिया से भी चौथ सरदेशमुखी वसूल करना शुरू कर दिया। अब बुंदेलखंड में मराठों का हस्तक्षेप बढ़ गया। इसके शिकार दतिया और ओरछा दोनों राज्य हुए। रामचंद्र के बाद क्रमशः इंद्रजीत और शत्रुजीत राजा बने। शत्रुजीत महादजी सिंधिया की विधवा बाई साहब को सेहुड़ा में शरण देने के कारण दौलतराव सिंधिया से हुए युद्ध में सेहुड़ा किले के समीप अद्भुत शौर्य प्रदर्शित करते हुए मारा गया। उसका उत्तराधिकारी पारीछत हुआ। राजा पारीछत ने 15 मार्च 1804 को पहली तथा 31 जुलाई 1818 को दूसरी संधि अँग्रेजों से कर ली। संधि के फलस्वरूप दतिया के बुंदेला राज्य को अँग्रेजों के आँचल में बाँध दिया, किंतु वे मराठों के दबाव और शोषण से बच गये।
दतिया के बुंदेला राज्य की जो आन-बान मुगल सम्राटों के समय थी, लुप्त हो चली। परीछत की मृत्यु के बाद सन् 1839 ई. में उनके उत्तराधिकारी विजय बहादुर हुए। सन 1857 में उनकी मृत्यु हो गई। विजय बहादुर के पश्चात भवानी सिंह राजा बने। इनके शासनकाल में दतिया रियासत में पहलवानी को प्रोत्साहन मिला। भवानी सिंह के उत्तराधिकारी गोविन्द सिंह हुये, जो स्वाधीनता पर्यन्त दतिया रियासत के राजा रहे। इस प्रकार हम देखते हैं कि, दतिया के राजा पहले मुगलों के प्रति और बाद में अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान रहे। अपने छोटे और सीमित संसाधनों वाले राज्य के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ऐसा करना सामयिक और उचित था।