देश का प्रसिद्ध जैन तीर्थ सोनागिरि
October 8, 2024दतिया का प्रतापगढ़ दुर्ग
October 8, 2024दतिया नगर के आग्नेय कोण में, परासरी ग्राम से लगभग तीन किलो मीटर दूर दक्षिण में गुजर्रा नामक एक प्राचीन गाँव है। इस गाँव के निकट सिद्धों की टोरिया के नीचे एक बलुआ पत्थर की अर्धगोलाकार चट्टान पर सम्राट अशोक के सर्वाधिक महत्व का शिलालेख खुदा हुआ है। यह शिलालेख ‘प्राकृत’ भाषा में हैं। इसकी लिपि ब्राह्मी है। इस शिलालेख को मौर्य सम्राट अशोक ने खुदवाया था। जिस समय इस शिलालेख को मौर्य सम्म्राट अशोक ने खुदवाया था, वहाँ पर वह स्वयं उपस्थित था। उस समय सम्राट अशोक को राजधानी (पाटलीपुत्र) छोड़े हुए 256 दिन बीत चुके थे। इस शिलालेख के अन्तर्गत सम्राट अशोक का व्यक्तिगत नाम ‘अशोकराजा’ दिया हुआ है। इस प्रकार कर्नाटक प्रदेश के’ मास्की शिलालेख’ को छोड़कर यह दूसरा शिलालेख है जिसमें सम्राट का व्यक्तिगत नाम दिया हुआ हैं। अन्यथा दूसरे शिलालेखों में तो केवल” देवानं-पियस” या ” देवानां पियदसिनो” ही मिला है।
यह शिलालेख सम्राट अशोक के राज्यकाल के तेरहवें वर्ष में ईस्वी सन् से 257 वर्ष पूर्व खुदवाया गया था। प्रसिद्ध पुराविद डी. सी सरकार ने इस शिलालेख को सम्राट अशोक की राजाज्ञा तथा धार्मिक घोषणा की संज्ञा दी है। पुरातत्व विभाग ने इसकी गणना उन शिलालेखों में की है जिन्हें सम्राट अशोक ने अपने राज्यकाल के प्रारम्भिक दिनों में खुदवाया था। तदनुसार उसे लघुशिलालेख प्रथम कहा जाता है। इसे सेकण्ड एपीग्राफ (Second Epigraph) भी कहा जाता है।
गुजर्रा के शिलालेख की पूरी इबारत कुल पाँच पंक्तियों में है। अक्षरों को बड़ी सावधानी के साथ खोदा गया है। पाँचों पंक्तियाँ एक सीध में हैं, तथापि अक्षरों में एक रुपता का अभाव है। गुजर्रा के शिलालेख की पाँचों पंक्तियों का भाषानुवाद इस प्रकार है-
“यह देवताओ के प्रिय”, प्रियदर्शी अशोक राजा की उद्घोषणा हैं। मैं ढ़ाई वर्ष से ‘बुद्ध’ का गृहस्थ-अनुयायी हूँ। एक वर्ष से कुछ अधिक समय हुआ, तब से मैं संघ के सहयोग में हूँ और स्वयं को धर्म के लिए अर्पित कर चुका हूँ। इस अवधि में, देवताओं के प्रिय की जम्बूद्वीप की वह प्रजा जो पहले देवताओं से नहीं मिल पाती थी, सम्राट के द्वारा देवताओं से मिलवा दी गई है। यह सम्राट के धर्म के हित में समर्पित होने के कारण हो सका है। यह फल केवल धनिकों के ही लिए नहीं है, निर्धन भी इसका लाभ उठा सकते हैं, यदि वे धर्म के लिए स्वयं को अर्पित करें। धर्म का आचरण करें और सभी प्राणियों के प्रति सहानुभूति का भाव रखें, तो स्वर्ग को वे भी पा सकते हैं।”
यह घोषणा राजा ने निम्नलिखित उद्देश्य से जारी की है-
“गरीब और अमीर दोनों ही धर्म का आचरण करें एवं देवताओं के कार्य में सहयोग करें।“ “साम्राज्य की सीमा के बाहर रहने वाले लोग भी यह जान लें कि उन्हें धर्म का आचरण करते हुए- इस प्रवृत्ति को बढ़ाना भी है। यदि धर्म का आचारण वे एक विचारणीय सीमा तक करते हैं, तो निश्चय ही धर्माचरण का विकास होगा।“
गुजर्रा के शिलालेख के निकट पक्के राजमार्ग के चिन्ह प्राप्त होते हैं। अतः इस अनुमान को ‘बल’ मिलता है कि इसके निकट से कोई’ पथ’ रहा होगा। श्री डी.सी सरकार का मत है कि यह शिलालेख एक प्रकार की राजाज्ञा है, जो ‘राजपुरुषों’ को सम्बोधित करके खुदवायी गई हैं। यह शिलालेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित स्मारक है। अशोक शिलालेख गुर्जरा, दतिया से उनाव रोड़ पर 14 कि.मी. की दूरी पर स्थित परासरी गाँव से दक्षिण दिशा में 4 कि.मी. की दूरी पर है।