
झील में तैरता हुआ महल
October 8, 2024
रतनगढ़ माता
October 8, 2024यह प्राचीन दुर्ग सिंध नदी के तट पर मार तोड़ का बना है। इस सुदृढ़ किले को मुगल इतिहासकारों ने ‘सरुआकिला’ लिखा है। महमूद गजनवी ने चंडराय का पीछा करते हुए कन्हरगढ़ दुर्ग को घेरा था, परन्तु उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा था। सेंवढा के महाराजा पृथ्वीसिंह’ रसनिधि’ ने इस दुर्ग में सुन्दर स्थान बनवाये थे। श्री नन्दनन्दनजी का मन्दिर, फूलबाग, अन्तर्गृह आदि देखने योग्य हैं। 1809 ई. में दतिया के राजा शत्रुजीत ने इसी दुर्ग में ग्वालियर के महादजी सिंधिया की विधवा रानियों को आश्रय दिया था। इसको लेकर दोनों के मध्य हुये युद्ध में महाराजा शत्रुजीत ने प्राणों की आहुति देकर उनके आश्रय में पहुँची विधवाओं की रक्षा की थी। सेवढ़ा सन् 1948 तक दतिया रियासत की ग्रीष्म कालीन राजधानी के रूप में रहा। अब तहसील का सदर मुकाम है। सिंध नदी के जलप्रपात के पश्चिम में सिंध तट पर ही सेवढ़ा का ऐतिहासिक किला है मिट्टी के टीले पर बना यहदुर्ग बनावट तथा मजबूती के लिए प्रसिद्ध है।
दुर्ग के तीनों कोटों की 34 फीट ऊँची प्राचीरें चूने और पत्थर से बनी हैं। चारों ओर ऊँची खाई है नदी की ओर एक किनारे पर राजा का निवास स्थान लंहरबुर्ज है। द्वितीय कोट सुरक्षा की दृष्टि से अधिक महत्व का और मारतोड़ का बना है। तीसरा कोट कुछ ऊँचाई पर है। इस कोट की बनावट हाथी की कनपटी के आकार की है। प्रत्येक कोट की प्राचीरों में थोड़े-थोड़े फासले से बने बुर्ज दूर से देखने में ऐसे लगते है जैसे भूतल पर एक बड़ा कठला फैला हो और उसमें गोल-गोल ताबीज पिरोये हों। बुर्जी पर बड़ी-बड़ी तोपें रखी जाती थी। रतन हजारा के रचयिता श्रृंगारी कवि राजा पृथ्वीसिंह रसनिधि के आराध्य देव नन्दनन्दन जी का मंदिर और उनका महल तीसरे कोट में दर्शनीय है। सुप्रसिद्धि दार्शनिक कवि अक्षर अनन्य इसी किले में राजा पृथ्वीसिंह को ज्ञानोपदेश देते थे। प्राचीन ग्रन्थों में इस किले का नाम किन्नरगढ़ तथा कन्हरगढ़ मिलता है। सेवढ़ा, दतिया से 65 कि.मी. एवं ग्वालियर से 80 कि.मी. दूर स्थित है।