कन्हरगढ़ दुर्ग, सेवढ़ा
October 8, 2024सुप्रसिद्ध प्राकृतिक एवं धार्मिक स्थल सनकुआँ
October 8, 2024बुन्देलखण्ड के उत्तरीवृत में विन्ध्य पर्वमाला के छोर पर ‘रतनगढ़’ स्थित हैं। यहाँ एक ऊँची चोटी पर देवी का मन्दिर है। मन्दिर के कुछ फासले पर एक चतुष्कोण चबूतरा है। देवी का नाम ” माडूला” है, जो ” रतनगढ़ की माता” के नाम से प्रसिद्ध है। चबूतरा को “कुँवर” का स्थान कहते हैं। दीपावली की दोज के दिन यहाँ लक्खी मेला लगता है। इस मेले का भाई दोज के दिन आयोजन, देवी और कुँवर के सन्दर्भ में ऐतिहासिक हैं। विन्धाचल पर्वतमाला की इस उत्तरी उपत्यका पर सर्वप्रथम परमारों ने राज्य स्थापित किया था। रतनगढ़ उनकी राजधानी थी। जिस स्थान पर रतनगढ़ के भग्नावशेष हैं। वहाँ पहुँचना बड़ा कठिन था। चारों ओर विन्ध्य श्रृंखला की आकाश चूमने वाली चोटियाँ प्रहरी का काम करती हैं। एक ओर सिन्ध नदी गहरी, एक मील चौड़े पाट के साथ गढ़ की ढ़ाल बनकर बहती है। वहाँ पहुँचने के लिए दो मार्ग हैं। एक दतिया से भगुवापुरा-बेरछा होकर, दूसरा मरसेनी से, जहाँ सिन्ध नदी पार कर जाते हैं। मरसेनी और बेरछा सिन्ध के तटवर्ती गाँव हैं। यहाँ से रतनगढ़ साफ दिखने लगता हैं।
देवी के मंदिर में पहले देवी की मूर्ति नहीं थी। 17 वीं शताब्दी में छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास जी ने वहाँ देवी जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। औरंगजेब की गिरफ्त से शिवाजी को मुक्त कराने की योजना के कार्यान्वयन तक के लिए गुरु रामदास जी यहाँ रहे थे। शिवाजी भी आगरा से मुक्त होकर सर्वप्रथम रतनगढ़ आये। इससे पूर्व यहाँ केवल मढ़ी थी, समर्थ गुरु रामदास ने यहाँ मूर्ति की स्थापना की थी। कहते हैं तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अलाउद्दीन खिलजी ने इटावा होकर जब बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया उस समय रतनगढ़ में राजा रतनसेन परमार थे। राजा रतनसेन के एक अवयस्क राजकुमार और एक राजकुमारी थी। राजकुमारी का नाम “माडूला” था। अत्यन्त सुन्दर होने के कारण उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से अलाउद्दीन खिलजी ने रतनगढ़ पर आक्रमण किया था। भयंकर युद्ध हुआ। रतनसेन मारे गये। राजकुल और क्षत्राणियों के साथ रतनगढ़ की हिन्दू महिलाओं ने रतनगढ़ के दुर्ग में जौहर व्रत में प्राणोत्सर्ग किये।
राजा रतनसेन का जिस स्थान पर दाह-संस्कार हुआ उसे आज चिताई कहते हैं। राजा के साथ अनेक योद्धाओं का भी दाह-संस्कार किया गया था। इस युद्ध में रतनगढ़ के सूरमाओं ने लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की थी। जब एक भी न बचा तब राज कन्या तथा अबोध राजकुमार ने भी घास के ढेर में आग लगाकर प्राण त्याग दिये थे। जहाँ राजकुमारी ने प्राणोत्सर्ग किया था उसी जगह एक छोटी सी मड़िया बना दी गई थी। मड़िया के पीछे पहाड़ की समानान्तर चोटी के छोर पर बना चबूतरा राजकुमार द्वारा प्राण त्यागने का स्थान है, जिसे कुँवर का चौतरा कहते हैं। कालान्तर में राजकन्या और राजकुँअर देव कोटि में माने जाने लगे और उनकी पूजा होने लगी। इन भाई-बहिन की स्मृति में दीपावली की भाईदोज का लक्खी मेला लगता हैं। समर्थ गुरु रामदास द्वारा मूर्ति स्थापित करने के बाद से यह स्थान ” रतनगढ़ की माता” के नाम से प्रख्यात हुआ।
रतनगढ़ की माता श्रद्धालुओं की संख्या की दृष्टि से मध्यप्रदेश के सबसे बड़े देवस्थानों में से है। नवरात्रों के अलावा प्रत्येक सोमवार को यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। दीपावली की भाईदूज को यहाँ 50 लाख से अधिक श्रद्धालुगण आते हैं। यह स्थान धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से भी दर्शनीय है। रतनगढ़ की माता के लिये ग्वालियर से बेहट होकर (65 कि.मी.) तथा दतिया से सेवढ़ा रोड़ पर चरोखरा से पश्चिम की ओर सड़क के रास्ते (65 कि.मी.) पहुँचा जा सकता है।