छत्री समूह कर्ण सागर दतिया
October 8, 2024रुस्तम-ए-हिन्द गामा और दतिया की मल्ल विद्या
October 8, 2024सौन्दर्य, सजावट, लावण्य और निजत्व सम्पन्न दतिया की चित्रकला हमारी संस्कृति की शोभनतम व्याख्या है, इतिहास की जीवन सृष्टि है, जिसे भारतीय चित्रकला के इतिहास में उल्लेखनीय प्रतिष्ठा मिली है। चित्रकला भारत की प्राचीन कला है। तीसरी चौथी शताब्दी ईसा पूर्व लिखे गये बौद्ध ग्रन्थ विनयपिटक में राजा प्रसेनजित की चित्रशाला की सूचना मिलती है। पुराणों में चित्र-विधाओं पर विस्तार से लिखा गया। कालिदास के तो प्रायः सभी ग्रन्थों में चित्रशालाओं का उल्लेख है। भारतीय चित्रकला के भव्यतम स्वरूप के दर्शन हमें सर्वप्रथम अजन्ता की गुफाओं में होते है और जब मुस्लिम आक्रांताओं ने भारतीय कला का विध्वंश करना प्रारम्भ किया तब सुरक्षा की दृष्टि से पोथियों में चित्र बनाये जाने लगे। गुजरात में लिखी श्वेताम्बर जैन धर्म की पोथियों में अजन्ता शैली का भ्रष्ट रूप दिखता है, जिसे अपभ्रंश शैली की संज्ञा दी जाती है। इसी शैली की परम्परा में जब परिवर्तन हुए तब राजपूत या राजस्थानी शैली का जन्म हुआ। भक्ति और रीति चित्रों का निर्माण होने लगा।
चित्रकला में प्रेम और भक्ति का प्रवेश हुआ। केशव की कविप्रिया और रसिकप्रिया की चित्रात्मक व्याख्या प्रारम्भ हुई। सोलह श्रृंगार, नायक नायिका भेद, स्त्री अलंकरण, बारहमासा, रागमाला आदि के चित्र बनाये जाने लगे। भारतीय कला के प्रख्यात विद्वान आनन्द कुमार स्वामी ने राजस्थानी शैली का क्षेत्र राजपूताना और बुन्देलखण्ड माना है। बुन्देलखण्ड में ओरछा और दतिया दो केन्द्र स्थापित हुए। इन कलमों में रागमाला चित्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। बुन्देलखण्ड में दतिया और ओरछा में बड़े सुन्दर चित्र बनाये गये। इनमें बड़ी सूक्ष्म आलंकारिकता है। भावनाओं को सुन्दर मुद्राओं द्वारा प्रस्तुत करने का भी कलाकारों ने प्रयत्न किया। इस शैली के अन्तर्गत रागमाला चित्रों की बड़े व्यापक स्तर पर रचना हुई।
ओरछा नरेश बीरसिंह देव प्रथम स्थापत्य और चित्रकला के प्रेमी महापुरुष थे। इनके समय की हाफिज दीवान की एक प्रति दतिया राजपुस्तकालय में थी, इसमें कुछ चित्र चमड़े पर बने हैं। इस कृक्ति का मूल्यांकन श्री एम.सी. मेहता आई.सी.एस. ने किया था। जब बीरसिंह देव ने दतिया और बड़ौनी की जागीर अपने पुत्र भगवानराव (1626-1656) को प्रदान की तब दतिया, ओरछा राज्य से पृथक होकर नया राज्य बना। दतिया की इन व्यक्ति चित्रों की परम्परा के अतिरिक्त हमें यहाँ राजस्थानी या राजपूत शैली के अनुरूप रागमाला, बारहमासा पर आधारित चित्र भी मिलते है। रीतिकालीन साहित्य की यह चित्रात्मक व्याख्या बड़ी प्रभावशाली है। वर्षा और बसन्त – के चित्रों का वैशिष्ट्य ही निराला है।
श्रीमदभागवत की चित्रात्मक व्याख्या की परम्परा • में केशव की कविप्रिया, रसिकप्रिया, बिहारी सतसई, मतिराम के रसराज की आधार भूमि पर निर्मित यह चित्र परम्परा अनूठी है, जिसमें राधा कृष्ण के बहाने नायक-नायिका के सौन्दर्य, श्रृंगार और प्रेम की झाँकी मिलती है। चित्र के ऊपर कवि रचित छन्द है तथा उस छन्द की भाव-पूर्ण व्याख्या चित्र में प्रदर्शित की गई है। दतिया के किले के एक कमरे (जिसे अखाड़ा कहते हैं) में दतिया के नरेशों के बड़े प्रभावशाली भित्ति चित्र बने हैं। वे अब नष्ट होते जा रहे हैं। भारतीय चित्रकला के क्षेत्र में दतिया कलम की अपनी विशेषता है, निजीपन है, जो उसे अन्य क्षेत्रीय शैलियों से पृथक करती है। दतिया कलम के अनेक चित्र विदेश चले गए। हमारे साहित्य और संस्कृति की यह चित्रात्मक व्याख्या भारतीय चित्रकला के इतिहास की गौरवपूर्ण कड़ी है।