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उनाव बालाजी सूर्य आराधना का केन्द्र
October 8, 2024![](https://bundelkhandvishwakosh.com/wp-content/uploads/2024/10/बुन्देली-कलम-दतिया-की-चित्रकला-1-150x150.jpg)
बुन्देली कलम दतिया की चित्रकला
October 8, 2024दतिया के बुंदेला राजवंश के महाराजाओं एवं राज परिवार के अन्य सदस्यों की छत्रियाँ (समाधियाँ) वास्तु शिल्प एवं चित्रकला की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। छत्री समूह की कुछ छत्रियाँ, कंगूरे एवं बुर्जियों युक्त परकोटे से घिरी हुई हैं। छत्रियों के निर्माण में लखेरी ईटों एवं पत्थरों का उपयोग किया गया है। जुड़ाई एवं प्लास्टर में चूने के मसाले का प्रयोग किया गया है। प्लास्टर में कहीं-कहीं अलंकरण के लिए सजावट का काम भी किया गया है। वास्तु शिल्प की दृष्टि से इन छत्रियों का स्थापत्य पंचायतन शैली के मंदिरों से काफी मिलता-जुलता है। इनमें मध्य में मुख्य गर्भगृह जबकि बाहरी शिखर क्षेत्रीय मंदिर स्थापत्य शैली में निर्मित हैं। विभिन्न प्रसंगों एवं वनस्पतियों की पहचान को सुगम बनाने के लिए बुंदेली भाषा एवं देवनागरी लिपि में उनके नाम भी लिखे गए हैं।
दतिया रियासत के संस्थापक भगवान राय के पुत्र महाराजा शुभकरण ईस्वी सन् 1640 में सिंहासनावरुढ़ हुए। मुगलों के गृह युद्ध में राजा शुभकरण ने औरंगजेब का साथ दिया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें पाँच हजारी मनसब एवं बुंदेलखंड की सूबेदारी प्राप्त हुई थी। ई. सन् 1678 में महाराजा शुभकरण का देहांत हो गया। करण सागर तालाब के तट पर महाराजा शुभकरण की छत्री का निर्माण उनके पुत्र दलपत राय बुंदेला द्वारा करवाया गया। ईंट व चूने के मसाले से निर्मित यह छत्री ऊपर वर्गाकार योजना में, मध्य में गर्भ ग्रह एवं चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। गर्भ ग्रह में चार प्रवेश द्वार शिखर ऊंचा नागर शैली का है।
महाराजा इंद्रजीत ने दतिया में ई. सन् 1736 से 1762 तक शासन किया। वह अपने पितामह रामचंद्र के उत्तराधिकारी हुए। महाराजा इंद्रजीत का निधन दतिया में ई. सन् 1762 में हुआ उनके पुत्र एवं उत्तराधिकारी शत्रुजीत (ई. सन् 1762-1801) ने इस छत्री का निर्माण करवाया। महाराजा इंद्रजीत की छतरी एक वर्गाकार प्रांगण के मध्य में चबूतरे पर स्थित है। इस छतरी में मेहराब युक्त तीन खुले द्वार हैं। इसके अतिरिक्त मेहराबों के ऊपर एक-एक खुला द्वार है। छत्री का शिखर कमल अलंकरण युक्त गुंबदनुमा, छतरी के चारों ओर अन्य चार लघु छत्रियाँ निर्मित हैं, जो अष्ट पहलू एवं इनके गुंबद अंडाकार हैं। इस छत्री में दस सोपान बने हैं। छत्री का निर्माण ईंटों व चूने मसाले से किया गया है।
महाराजा पारीछत ई. सन् 1801 में दतिया के सिंहासन पर आरूढ़ हुए। सन् 1839 में इनका स्वर्गवास हुआ। राजा पारीछत की छत्री का निर्माण उनके दत्तक पुत्र एवं उत्तराधिकारी राजा विजय बहादुर द्वारा सन् 1839 से 1857 में करवाया गया। इस छत्री का निर्माण एक वर्गाकार प्रांगण के मध्य वर्गाकार योजना में किया गया। तल विन्यास में गर्भ ग्रह वर्गाकार एवं चारों ओर आयताकार गलियारा है। उर्ध्व विन्यास में गर्भ ग्रह का ऊंचा वितान एवं गुंबद है, जिसके चारों ओर विशाल अर्ध वृत्तायन मेहराब एवं उसके ऊपर पालकीनुमा संरचना है। शिखर का गुंबद में चौकोर भाग के ऊपर शीर्ष गोल है। गुंबद की संरचना में स्थानीय विशेषताओं का समावेश है जिसमें शहतीरे निर्मित हैं। गलियारे के ऊपर वेदिका में मुगल शैली की मेहराब युक्त वातायन बनी हुई है। छत्री की अंतः भित्तियां एवं वितान पर सुंदर चित्रण किया गया है। इन चित्रों में श्रीमदभागवत का शीर्षक सहित, नाम सहित दतिया के शासकों के चित्र, पशु-पक्षी के चित्र, बुंदेली सेना एवं मुगल सेना के सरदारों का नाम सहित चित्र, शिव पार्वती, कृष्ण से संबंधित रासलीला आदि के चित्र निर्मित हैं। स्थापत्य कला एवं चित्रकला की दृष्टि से यहशैली एक पृथक अस्तित्व रखती है।
महाराजा पारीछत निःसंतान होने के कारण दीवान सुरजन सिंह के पुत्र कुंवर विजय बहादुर गोद लिए गए। कुंवर विजय बहादुर ईस्वी सन् 1839 में गद्दी पर बैठे, एवं ईस्वी सन् 1857 में निधन के पश्चात् महाराजा भवानी सिंह उनके उत्तराधिकारी हुए। उन्होंने इस छत्री का निर्माण करवाया था। इस छत्री का निर्माण वर्गाकार प्रांगण में वर्गाकार जगती पर वर्गाकार योजना में किया गया। मध्य के वर्गाकार गर्भ ग्रह के चारों ओर आयताकार गलियारा है, जिसमें तीन-तीन मेहराबदार द्वार हैं। वर्गाकार गर्भ ग्रह के वितान में अष्टकोणीय भाग में बने हुए गवाक्ष में छत्री अनुकृति निर्मित है। वितान काफी ऊंचा एवं गुंबदनुमा है इसमें तिकोने गवाक्षों में फूल-पत्ती, वितान के गोल भाग पर रासलीला, मल्लयुद्ध, पशु-पक्षी आदि के चित्र गलियारे के ऊपर वितान पर हैं। जंघा भाग पर प्रस्तर छज्जा के नीचे भित्तियां अलंकृत हैं। गवाक्षों के ऊपर पालकी नुमा संरचना है। ऊपर पतली शहतीरों का अलंकृत गुंबद है, जिसमें उल्टे कमल की पंखुड़ियां निर्मित हैं। चारों कोनों पर लघु काय छत्रियां हैं
महाराजा भवानी सिंह ई. सन् 1857 में दतिया की गद्दी पर बैठे। उनका निधन ई. सन् 1907 में हुआ। उनके पुत्र गोविंद सिंह उनके उत्तराधिकारी हुए। अपने पिता की स्मृति में गोविंद सिंह द्वारा इस छत्री का निर्माण करवाया गया। वर्गाकार प्रांगण में वर्गाकार जगती पर स्थित छत्री में वर्गाकार गर्भ ग्रह एवं चारों ओर आयताकार गलियारा है। इस छत्री के गर्भ गृह में एवं गलियारे में प्रत्येक ओर तीन-तीन मेहराबदार द्वार हैं। छत्री के गर्भ ग्रह का वितान ऊपर अष्टकोणीय होकर गोल शीर्ष है। इस भाग में फूल पत्ती, कृष्ण से संबंधित रासलीला, पशु-पक्षी आदि के चित्र बने हुए हैं प्रत्येक ओर बाह्य भाग के मेहराबदार गवाक्ष के ऊपर पालकीनुमा संरचना है। गुंबद बुंदेली शैली में अलंकृत है। इसके चारों कोनों पर लघुकाय छत्रियाँ बनीं हुई हैं।
राजा पारीछत की छतरी में भित्ति चित्रों का सुंदर संसार समाया हुआ है। जब आप इस चित्रलोक में प्रवेश करेंगे, निःसंदेह आप अपनी सुध-बुध खो बैठेंगे। छत्रियों के निर्माण के लिए कोलाहल से दूर विशाल करणसागर सरोवर की सुंदर एवं निर्मल पृष्ठभूमि एवं शांति परिवेश, नश्वर जीवन को स्थाई विराम स्थल के लिए सर्वदा उपयुक्त है। पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण इस छत्री समूह को म.प्र. पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है।