रुस्तम-ए-हिन्द गामा और दतिया की मल्ल विद्या
October 8, 2024शिव मंदिर भरौली तहसील भाण्डेर
October 8, 2024दतिया के राजाओं ने जनहित की दृष्टि से अनेक बावड़ियों का निर्माण कराया था, जिससे नगर तथा ग्रामों में निवासियों को जल आपूर्ति होती रहे। इनमें से कुछ बावड़ियाँ स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। भूमि समतल न होने के कारण राज्य में जल की समस्या रहती थी। इसलिए राजाओं ने अनेक तालाबों का निर्माण करवाया। राजा शुभकरन (सन 1656-1683) ने दतिया में “करन सागर” तालाब का निर्माण विक्रम संवत 1740 में कराया था। यह तालाब इतना वृहत जलागार है कि आज भी इसमें कभी जलाभाव नहीं होता।
सिरौल की बावड़ी एवं महल
दतिया से 8 किलोमीटर दूर उत्तर की ओर सिरौल ग्राम में छोटा सा महल और उससे लगी हुई एक विशाल बावड़ी है। माघ सुदी 5 संवत् 1675 वि. रविवार को राजा वीर सिंह देव ने 52 नींव डलवाई थीं। इन 52 नीवों में से एक सिरौल की बावड़ी भी थी। सिरौल ग्राम में वीर सिंहदेव की ननिहाल थी। सत्रहवीं शताब्दी का यह गौरवशाली निर्माण है। बावड़ी का प्रवेश द्वार विशाल है। प्रवेश द्वार की लंबाई 10×6 फुट है। इसके ऊपर एक लदाऊ मेहराब है। प्रवेश द्वार के दोनों ओर गुम्बदनुमा दो मीनारें बनी हुई हैं। बावड़ी के प्रवेश द्वार के दोनों ओर जैसा कि पहले कहा जा चुका है दो मंजिलें गुम्बदाकार महल है और बावड़ी के अन्य तीनों ओर प्राकार बनी हुई है, जिसमें चारों ओर जालीदार आले हैं। बीच-बीच में बाहर जाने को दरवाजे भी हैं तथा प्रकार के ऊपर कंगूरे हैं। यह बावड़ी केवल स्थायित्व, उपयोग और सुरक्षा के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, अपितु यह कला की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। घुमावदार, गोल, नुकीले दरवाजे, आयताकार, कलंगीदार एवं अनेक प्रकार की पच्चीकारी से युक्त आले, सुंदर कंगूरे और विविध प्रकार की मेहराब दार कलाएँ तत्कालीन स्थापत्य कला की श्रेष्ठता को अभिव्यक्त करती हैं।
चन्देवा की बावड़ी
इस बावड़ी के निर्माण का प्रारंभ माघ सुदी 5 संवत् 1675 वि. रविवार को बौर सिंह देव ने करवाया था। दतिया से 8 किलोमीटर दूर भाण्डेर रोड पर चन्देवा गाँव में मुख्य सड़क के पास 200 फुट लंबे तथा 80 फुट चौड़े स्थल में ईंट, चूना और पत्थर से बनी हुई, अथाह जल वाली यह विशाल बावड़ी है। इसके प्रवेश द्वार पर विशाल कक्ष हैं। वहाँ से बावड़ी की सीढ़ियाँ लगी हुई हैं। बावड़ी से संलग्न शिव का लिंग और हनुमान जी की भव्य मूर्तियाँ प्रतिस्थापित हैं। जनश्रुति के अनुसार यह सुंदर मूर्तियाँ बावड़ी के निर्माण के समय की हैं। इस बावड़ी के चारों ओर जो कक्ष बने हुए हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि, यह कक्ष राजाओं के सैनिकों या लोगों के पड़ाव या ठहरने के लिए बनवाए गए होंगे। इन कक्षों के मध्य में कोई अवरोध दीवार नहीं है। यह स्थान जलयुक्त विश्राम गृह है। लंबी-लंबी दालानें, खुले हुए हवादार कक्ष, सुविधा पूर्वक स्थल लोगों की विश्राम स्थली रही होगी। कला की दृष्टि से भी इसका महत्व अधिक है। यह बावड़ी ऐसी महत्वपूर्ण विश्राम स्थली है, जो कला एवं जीवन की दृष्टि से उपयोगी है।
कुंजा बाई की बावड़ी, खड़ौआ
इंदरगढ़ से कुछ फासले पर पचोखरा में हरदौल की बहिन कुंजावती या कुंजाबाई का स्थान है। कुंजा की एक बावड़ी वहीं पास में खड़ौआ गाँव में भी हैं, जहाँ उनकी ससुराल थी। परंतु कुछ विद्वान बेरछा गाँव को कुंजावती की ससुराल मानते है। सच यह है कि कुंजावती बेरछा के परमार ठाकुर को ब्याही थी। पचोखरा, खड़ौआ तो उन्हें दहेज में दिये गये थे। यह ऐतिहासिक बावड़ी ओरछा के महाराज वीरसिंह देव बुन्देला की पुत्री कुंजावती द्वारा बनवायी गयी थी। कुंजावती का विवाह खड़ौआ के जमींदार परमार परिवार में हुआ था। स्थानीय लोग इस बावड़ी को माँ कुंजावती बावड़ी के नाम से सम्बोधित करते हैं। 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनी यह त्रिस्तरीय बावड़ी न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है अपितु पुरातत्वीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। बुन्देला स्थापत्य की इस बावड़ी में सीढ़ियों के दोनों ओर मेहरावदार संरचनाऐं है। यह बावड़ी ऐतिहासिक और पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय विभाग द्वारा संरक्षित स्थल है।
राजा पारीछत की बावड़ी
दतिया में बड़े अस्पताल की सीमा में राजा पारीछत के समय की एक विशाल बावड़ी, जिसका व्यास लगभग 50 फुट है, निर्मित है। इसका निर्माण संवत् 1865 में रानी हीराकुंवर ने करवाया था। इसके चारों ओर दालानें बनी हुई हैं। यह दालानें तीन मंजिला हैं तथा प्रत्येक मंजिल में आगे पीछे दो-दो दल हैं। यह अष्टभुजीय बावड़ी है। प्रत्येक भुजा की दालान में तीन दरवाजे आगे और तीन दरवाजे पीछे हैं। ये दरवाजे मेहराबदार (ओगी आर्च) है। यह चुने, ईंट और पत्थर से निर्मित बावड़ी है, जिसमें अथाह जल भरा हुआ है। दालानों में आगे की ओर पत्थर से निर्मित हाथियों की मूर्तियों हैं, जो बावड़ी की और अपनी सूँड़ किए हुए हैं।
वास्तु कला तथा चित्रकला की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है और जल की दृष्टि से लोकोपयोगी है। इसके निर्माण का उल्लेख बावड़ी में संलग्न शिलालेख में इस प्रकार –
“श्री गणेसन।। छप्पय।। अकबरसानी।। सोहादया।।
दिल्ली अवनियर।। ग्रीष्म ध्यान भानु समतपत तेज भर।।
तादल प्रवल हरौ सदा दतिया पति सामंत ।।
इस वंस अवतंस भूप पारीछत राजत ।।
तिहि वाम अंग अवतरि रमा पटरानी हीरा कुंवर ।।
गुन रुप सील शोभा सदन जिहि समान कहियन अवर।।”
।। दोहा ।।
“सासन सिर धरि नृप की महारानी अभिराम।।
बनबाई यह बावड़ी वाग सुधा के धाम।।
संवत दस अरु आठ सौ आगे पैंसठ लेख ।।
कार्तिक शुक्ला द्वादसी सोमवार सुभ रेष ।।
अति उतिमन छत्रप हउत्र भाद्र पद जान।।
हर्ष नाम सुभ जोग अरु कौलव कर्न बखान।।“
राधा निवास की बावड़ी
यह बावड़ी राजा भवानी सिंह की रानी सुकुंवर कंचन जू द्वारा संवत् 1953 सन् 1896 में निर्माण करवाई गई थी। इसका आकार अष्टभुजीय यह है, जो ईंटों, चूने और पत्थर से निर्मित है। इसका व्यास लगभग 40 फुट है। बावड़ी तीन मंजिलों में बनी हुई है. जिसमें रहने के लिए अथवा सुविधा के लिए दालानें बनीं हुई हैं। इन दालानों में कंगूरेदार खुले हुए तीन-तीन दरवाजे हैं। बावड़ी की थाह का कोई पता नहीं है। इसमें सदा अथाहपानी रहता है।
इस बावड़ी की सबसे बड़ी विशेषता इसकी वास्तुकला की दृष्टि से है। दरवाजों में महराब (ओगी आर्च) निर्मित है। दरवाजों में ऊपर दोनों ओर सूर्य का चक्र है। इसके बीच में भी चित्रकारी है। दरवाजों के ऊपर 2×4 फुट की आयताकार रंगीन चित्रकारी है। उसके ऊपर चारों ओर छोटे-छोटे कंगूरे हैं। उसके ऊपर बावड़ी निर्मित है। प्रवेश द्वार के ऊपर छोटी सी गुंबद निर्मित है, जो बावड़ी की भव्यता का द्योतक है। इसका निर्माण संवत् 1953 में महाराजा भवानीसिंह की मंझली पटरानी सुकुंवर कंचन जू ने करवाया था। बावड़ी में लगे शिलालेख से इसके निर्माण काल तथा निर्माता का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। शिलालेख पर निम्नांकित पंक्तियां अंकित हैः-
।। श्री।।
“शैल सरस्वती सिंधुजा सुयश रासु अवतार।
चिरंजीबहु लोकेंद्र पुत कंचन जू सिरकार।।”
।। छप्पय ।।
“श्री लोकेंद्र भमानियसिंह भूपमन ।।
खेद खाह सरका हिर्देशाही सुपूर्वगत ।।
पटरानी मझली सुकुअर कंचन जू तिनकी ।।
जिन बनवाई वेस वाउरी मोंद सुजन की।।
संबत उन्नीस से त्रेपनह ग्यारस सुर शनिवार ।।
द्विज पूजत हा निज पान सों नो उद्ज्ञे नृप मुदित।।”
।। दोहा।।
“स्वामी धर्म में निपुन अजहजिदे मुख न्यार।
तिनके बनी सु मारफत बायी बाग अपार ।।
(श्री राधा निवास) (1953) (11) (सद)”
मध्यकालीन दतिया नरेशों द्वारा निर्मित इस प्रकार की बावड़ियाँ न केवल उनकी अमरता को बताती हैं, अपितु कला एवं जीवन दृष्टि से भी अपना महत्व रखती हैं।