भूगोल समिति
July 23, 2024भाषा समिति
July 23, 2024समृद्ध राष्ट्र की प्राचीन परम्परायें, संस्कृति, धर्म, दर्शन का वास्तविक स्वरूप लोक-साहित्य में देखा जा सकता है। लोक साहित्य एवं जनमानस की सरलतम अभिव्यक्ति है। संस्कृति, साहित्य एवं कला के मूल रूप तक पहुँचने का एक मात्र साधन लोक-साहित्य ही है।
लोक-साहित्य तथा लोक-संस्कृति में गहनतम सम्बन्ध है। लोक-साहित्य के द्वारा लोक-संस्कृति के मूल तक पहुँचा जा सकता है। यद्यपि लोक-संस्कृति के रंग सदैव एक से नहीं रहे। प्रत्येक देश की संस्कृति का सच्चा स्वरूप वहाँ के लोक- साहित्य में ही देखा जा सकता है।
यह क्षेत्र गोंडवाना कहलाता है लेकिन यहाँ की संस्कृति, लोक-जीवन और भाषा बुन्देलखंडी रूप लिये है। उन पर न तो गौड़ों का प्रभाव है और न निकट के निमाड़ी क्षेत्र का असर इतिहास केवल इतना बताता है कि 1599 में ओरछा के बुन्देला राजा जुझार सिंह से चौरागढ़ नरेश प्रेमनारायण के पुत्र हिरदेशाह ने पिता की हार का बदला लेकर बुन्देला से चौरागढ़/ चौगाना वापिस ले लिया। इतने अल्पकालीन बुन्देला शासन में यहाँ के लोक-जीवन पर इतना व्यापक प्रभाव पड़ना असम्भव है। बुजुर्गों से पूछने पर ज्ञात होता है कि पुराने समय में गाडरवारा के सागर से व्यापारिक सम्बन्ध अतिशय घनिष्ठ थे और उसी ओर से अनेक जातियाँ इस क्षेत्र में आकर बसी हैं। इसीलिए जाति विविधता के बावजूद यहाँ का लोक-जीवन और साहित्य बुन्देलखंडी हैं। डॉ. उमाकान्त ‘कपिध्वज’ ने लिखा है- मध्यप्रदेश की लोक-भाषाओं में बुन्देलखंडी का अपना पृथक व महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाव, भाषा, उपमा एवं अलंकार- सभी दृष्टियों से इसका इतिहास अत्यन्त ही समृद्ध रहा है। इस समस्त भू-भाग की संस्कृति सर्वत्र एक समान है।
मनुष्य अतीत काल से ही अपनी भावनाओं को विभिन्न माध्यमों से व्यक्त करता आया है। इस क्षेत्र के लोग आनन्द के साथ भी काम करते हैं। यहाँ के लोकगीत हमारे जीवन में पूर्ण रसास्वादन कराते हैं। हमारे जीवन को उल्लास एवं सौन्दर्य प्रदान करते हैं, जिन्दगी का हर पक्ष चाहे वह जन्म हो, कृषि हो या अन्य खुशी के अवसर – सभी में गीत और नृत्य की प्रस्तुति महत्वपूर्ण है।
बुन्देलखंड के इस क्षेत्र में अनेक लोकनृत्य तथा लोकगीत हैं जिनसे ग्रामीण अंचलों में निवास करने वाला जनमानस अछूता नहीं है। विभिन्न लोकनृत्य अपनी अलग-अलग पहचान बनाये हुए हैं, प्रमुख लोकनृत्य है- बरेदी लोकनृत्य, सेरे नृत्य, बधाई लोक नृत्य, राई नृत्य, शेर नृत्य, जवारा नृत्य, नौरता लोक नृत्य तथा मोनी नृत्य आदि हैं।
इस क्षेत्र में लोक-जीवन गीतमय है। लोकगीत लोक-साहित्य का समृद्ध और सशक्त अंग है। श्री उमाशंकर शुक्ल लिखते हैं- ‘बुन्देलखंड के लोकगीत जाग्रत जनता के प्रतीक हैं। इन पर गाँवों, खेतों-खलिहानों की छाप है। इसमें जन्मभूमि की गौरवशाली और यशस्वी आत्मा की पुकार निहित है। इनमें एक विशाल संस्कृति का गर्वीला इतिहास अभिव्यक्त हुआ है। इनमें गति भी, तीव्रता भी और मर्म को छू सकने की शक्ति भी है। कला और जन-जीवन का सम्बन्ध धरती के गीतों की विशेष पहिचान है। जिस कला की जड़ें मातृभूमि की मिट्टी में टिकी होती हैं उस कला का रंग और होता है उसमें जनता की सामूहिक प्रतिभा और रचना का आभास मिलता है। कला की पूर्णता के लिए यह आवश्यक है कि हम लोग कला से परिचित ही न हों बल्कि उससे प्रेरणा भी लें। वर्षा के पहले झूले के पश्चात् धरती से उठने वाला सौंधा सौरभ लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है। यही सौरभ जन्मभूमि की कल्पना में सबसे अधिक सहायक है।’
लोकगीतों में मानवीय समाज के क्रिया-कलाप, भाव-सौन्दर्य, कला-सौन्दर्य आदि बातों का समावेश होता है। इसलिए बुन्देली लोकगीतों के वर्गीकरण से समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है।
डॉ. बलभद्र तिवारी ने बुन्देली लोकगीतों का विभाजन उनके वैशिष्ट्य के आधार पर किया है-
- ऋतु गीत तथा आख्यान गीत, आल्हा, कार्तिक के गीत, ढोला नाउ, वर्मा- साँवरी, कुँवारों, पंडवा, सौरंगा, सदावक्ष।
- उत्सव और त्यौहार : फागें, स्वाँग, राई, दिवारी, तीजा, आरती, तुलसी का ब्याह।
- रीति-रिवाज सम्बन्धी गीत: बनरा, बनरी, बिदा के गीत, बधाई, भाँवर, तेल- सौहरे (जन्मोत्सव मनाते समय गाया जाने वाला गीत)।
- श्रम गीत (कार्यों के आधार पर): दिनरी, वीरोठी, अनबोलना, बिलवारी।
- मिश्रावृत्ति के गीत – बसदेवा के गीत (हास्य रसपूर्ण)।
- लोकनृत्य के साथ गाये जाने वाले गीत : राई, ढिमरयाई, सैरो, दिवारी।
- यात्रा के समय के गीत : भोला के गीत (बंबलियाँ)।
- धार्मिक गीत प्रभाती, भगतें, जस, गौहें, बीरौठी।
बुन्देली बोली का सरलीकरण और कोमलीकरण की प्रवृत्ति के कारण ही यहाँ के लोकगीतों में मधुरता, रसमयता और कोमलता प्राप्त होती है। भाषा को मधुर बनाने में यहाँ के ग्रामीण समाज का विशेष योगदान रहा है। लोकगीत तो यहाँ की ऐसी सम्पत्ति है, जिसमें भाषा का अपूर्ण और अक्षय भंडार भरा पड़ा है।
इस क्षेत्र के लोकगीतों में यहाँ की स्थानीय, सामाजिक स्थितियाँ, रीति-रिवाज, बोलते प्रतीत होते हैं। स्वाभाविकता तो इन गीतों का प्राण तत्त्व है। साथ ही स्थानीयता का रंग अपनी गहराई के साथ उभरता प्रतीत होता है। यहाँ जन्म से लेकर। मृत्यु तक और सवेरे से लेकर शाम तक विविध प्रकार के लोकगीत यहाँ के नर-नारी गाते हैं। इनमें जीवन के विविध रूपों की झाँकी प्राकृतिक पर्यावरण के साथ चित्रित होती है।